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− | === अध्याय १२ ===
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| ==== अध्ययन हेतु सुविधा का विचार ==== | | ==== अध्ययन हेतु सुविधा का विचार ==== |
− | १. विद्यालय में निम्नलिखित सुविधायें /व्सव्धायें किस प्रकार से बना सकते हैं ? | + | १. विद्यालय में निम्नलिखित सुविधायें /व्यवस्थाये किस प्रकार से बना सकते हैं ? |
| # तापमान | | # तापमान |
| # वायु | | # वायु |
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| ७. तब क्या किया जाय ? | | ७. तब क्या किया जाय ? |
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− | शिक्षकों के साथ वार्तालाप करके इस प्रश्नावली के उत्तर प्राप्त किये है । वह इस प्रकार है । | + | शिक्षकों के साथ वार्तालाप करके इस प्रश्नावली के उत्तर प्राप्त किये है। वह इस प्रकार है। |
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− | १. विद्यालय में विद्यार्थी ज्ञान ग्रहण करते हैं । अतः तापमान हवा प्रकाश ध्वनि इत्यादि की बाबत अच्छी से अच्छी सुविधा प्राप्त होती तो पढाई अच्छी होगी। सुन्दरता, स्वच्छता तो अनिवार्य ही है । शिक्षक उनके प्रेरक व्यक्तित्व होने चाहिये । छात्र शिक्षक के मानसपुत्र कहलाते है तो मातापिता और पुत्र में प्रेम होता ही है । बात रही पवित्रता की तो विद्यालय तो सरस्वती का मंदिर है हम मंदिर का पवित्र्य समझते है इसलिये विद्यालय तो पवित्र होता ही है । शौचालय की व्यवस्था छात्र छात्रायें शिक्षक कर्मचारी सबके लिये अलग अलग होना आवश्यक है । | + | १. विद्यालय में विद्यार्थी ज्ञान ग्रहण करते हैं। अतः तापमान हवा प्रकाश ध्वनि इत्यादि की बाबत अच्छी से अच्छी सुविधा प्राप्त होती तो पढाई अच्छी होगी। सुन्दरता, स्वच्छता तो अनिवार्य ही है। शिक्षक उनके प्रेरक व्यक्तित्व होने चाहिये। छात्र शिक्षक के मानसपुत्र कहलाते है, तो मातापिता और पुत्र में प्रेम होता ही है। बात रही पवित्रता की तो विद्यालय तो सरस्वती का मंदिर है हम मंदिर को पवित्र्य समझते है, इसलिये विद्यालय तो पवित्र होता ही है। शौचालय की व्यवस्था छात्र छात्रायें शिक्षक कर्मचारी सबके लिये अलग अलग होना आवश्यक है। |
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− | २. विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त होती है परन्तु व्यवस्था का भी कोई शैक्षिक मूल्य होता है यह बात समझ नही पाते । | + | २. विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त होती है, परन्तु व्यवस्था का भी कोई शैक्षिक मूल्य होता है यह बात समझ नही पाते । |
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− | ३. आचार्योंने सारी व्यवस्था बनाने में उचित समय पर छात्रों को निर्देश देने चाहिये यह भी सबके अध्यापन काही भाग समझना चाहिये । स्थान स्थान पर सुविचारो के फलक लगाना चाहिये । फिर भी जो छात्र व्यवस्थाओ में बाधा डालता है उसे दण्डित करना चाहिये ऐसा मत व्यक्त हुआ । | + | ३. आचार्योंने सारी व्यवस्था बनाने में उचित समय पर छात्रों को निर्देश देने चाहिये यह भी सबके अध्यापन काही भाग समझना चाहिये । स्थान स्थान पर सुविचारो के फलक लगाना चाहिये । तथापि जो छात्र व्यवस्थाओ में बाधा डालता है उसे दण्डित करना चाहिये ऐसा मत व्यक्त हुआ । |
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− | ४. सुविधा बनाये रखने में व्यय तो होगा ही परन्तु अच्छी सुविधा के लिये उदा. फिल्टर पेय जल, पंखे आदि के लिये अभिभावक खुशी से धन देने तैयार है क्योंकी उनके ही बच्चे इस सुविधा का उपभोग लेनेवाले है। प्र. ५, ६ व ७ प्रश्नो का उत्तर किसि से प्राप्त नहीं हुआ । | + | ४. सुविधा बनाये रखने में व्यय तो होगा ही परन्तु अच्छी सुविधा के लिये उदा. फिल्टर पेय जल, पंखे आदि के लिये अभिभावक खुशी से धन देने तैयार है क्योंकी उनके ही बच्चे इस सुविधा का उपभोग लेनेवाले है। प्र. ५, ६ व ७ प्रश्नो का उत्तर किसी से प्राप्त नहीं हुआ। |
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− | ==== '''अभिमत''' ==== | + | ==== अभिमत ==== |
− | जबाब सुनकर ऐसा लगा वास्तव में ज्ञानार्जन यह साधना है और साधना कभी भी अच्छे सुख सुविधाओं से प्राप्त नहीं होती । यह बात आज समाज भूल गया है ऐसा लगा । शिक्षक केवल पढाई का तथा व्यवस्था के संदर्भ में निर्देश देने का कार्य करेंगे ऐसा उनका मन बन गया है । अतः व्यवस्था निर्माण करने के प्रत्यक्ष सहयोग का विचार भी उनके मन में आता नहीं । आजकल शहरो में भीड के स्थान पर विद्यालय होते हैं अतः ध्वनि, प्रकाश, हवा, तापमान आदि के विषय में शास्त्रीय विचार जानते हुए भी सब शहरवासियों को वह असंभव लगता है । और गाँव में विद्यालय की जगह निसर्ग की गोद में तो होती है परंतु सारी व्यवस्था शास्त्रीय होते हुए भी उन्हें शास्त्र तो समझमे नहीं आता उल्टा शहर जैसे मंजिल के भवन आदि बनाने के लिये वे भी प्रयत्नशील रहते है । बिना कॉम्प्यूटर के अपना विद्यालय पिछडा है ऐसा हीनता का भाव उनके मन में होता है । जहा पवित्रता नहीं होती उस स्थान पर प्रसन्नता और शान्ति भी नहीं रहती यह तो सब जानते हैं । | + | जबाब सुनकर ऐसा लगा वास्तव में ज्ञानार्जन यह साधना है और साधना कभी भी अच्छे सुख सुविधाओं से प्राप्त नहीं होती। यह बात आज समाज भूल गया है, ऐसा लगा । शिक्षक केवल पढाई का तथा व्यवस्था के संदर्भ में निर्देश देने का कार्य करेंगे ऐसा उनका मन बन गया है। अतः व्यवस्था निर्माण करने के प्रत्यक्ष सहयोग का विचार भी उनके मन में आता नहीं। आजकल शहरो में भीड के स्थान पर विद्यालय होते हैं, अतः ध्वनि, प्रकाश, हवा, तापमान आदि के विषय में शास्त्रीय विचार जानते हुए भी सब शहरवासियों को वह असंभव लगता है, और गाँव में विद्यालय की जगह निसर्ग की गोद में तो होती है। परंतु सारी व्यवस्था शास्त्रीय होते हुए भी उन्हें शास्त्र तो समझमे नहीं आता उल्टा शहर जैसे मंजिल के भवन आदि बनाने के लिये वे भी प्रयत्नशील रहते है। बिना कॉम्प्यूटर के अपना विद्यालय पिछडा है, ऐसा हीनता का भाव उनके मन में होता है। जहा पवित्रता नहीं होती उस स्थान पर प्रसन्नता और शान्ति भी नहीं रहती यह तो सब जानते हैं। |
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| ==== सुविधा किसे चाहिए ==== | | ==== सुविधा किसे चाहिए ==== |
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| एक दो सुभाषित इस सन्दर्भ में ध्यान में लेने लायक हैं ...<blockquote>सुखार्थी चेतू त्यजेत् विद्याम्</blockquote><blockquote>विद्यार्थी चेतू त्यजेतू सुखम् ।</blockquote><blockquote>सुखार्थिन: कुत्तो विद्या विद्यार्थिन: कुत्तों सुखम् ।।</blockquote>अर्थात सुख की इच्छा करने वाले को विद्या की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये क्योंकि सुख चाहने वाले को विद्या कैसे मिल सकती है और विद्या चाहने वाले को सुख कैसे मिल सकता है ? <blockquote>कामातुराणामू न भयम् न लज्जा</blockquote><blockquote>अर्थातुराणांमू न गुरुर्न बंधु:</blockquote><blockquote>विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा</blockquote><blockquote>क्षुधातुराणां न रुचीर्न पक्वम् ॥।</blockquote>अर्थात् जो काम से आहत हो गया है उसे भय की लज्जा नहीं होती, जो अर्थ के पीछे पड़ गया है उसे कोई गुरु नहीं होता न कोई स्वजन, जिसे विद्या की चाह है उसे सुख या निद्रा की चाह नहीं होती और जो भूख से पीड़ित है उसे स्वाद की या पदार्थ पका है कि नहीं उसकी परवाह नहीं होती । | | एक दो सुभाषित इस सन्दर्भ में ध्यान में लेने लायक हैं ...<blockquote>सुखार्थी चेतू त्यजेत् विद्याम्</blockquote><blockquote>विद्यार्थी चेतू त्यजेतू सुखम् ।</blockquote><blockquote>सुखार्थिन: कुत्तो विद्या विद्यार्थिन: कुत्तों सुखम् ।।</blockquote>अर्थात सुख की इच्छा करने वाले को विद्या की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये क्योंकि सुख चाहने वाले को विद्या कैसे मिल सकती है और विद्या चाहने वाले को सुख कैसे मिल सकता है ? <blockquote>कामातुराणामू न भयम् न लज्जा</blockquote><blockquote>अर्थातुराणांमू न गुरुर्न बंधु:</blockquote><blockquote>विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा</blockquote><blockquote>क्षुधातुराणां न रुचीर्न पक्वम् ॥।</blockquote>अर्थात् जो काम से आहत हो गया है उसे भय की लज्जा नहीं होती, जो अर्थ के पीछे पड़ गया है उसे कोई गुरु नहीं होता न कोई स्वजन, जिसे विद्या की चाह है उसे सुख या निद्रा की चाह नहीं होती और जो भूख से पीड़ित है उसे स्वाद की या पदार्थ पका है कि नहीं उसकी परवाह नहीं होती । |
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− | विद्या प्राप्त करने के लिये इच्छुक व्यक्ति को सुविधाभोगी नहीं होना चाहिये यह हमेशा से कहा | + | विद्या प्राप्त करने के लिये इच्छुक व्यक्ति को सुविधाभोगी नहीं होना चाहिये यह सदा से कहा |
| गया । प्राचीन काल में तो विद्याध्यायन करने वाले | | गया । प्राचीन काल में तो विद्याध्यायन करने वाले |
| छात्र को ब्रह्मचारी ही कहा जाता था और ब्रह्मचारी के लिये अनेक सुविधाओं का निषेध बताया गया था । सर्व प्रकार के शृंगार उसके लिये निषिद्ध थे । उसका मनोवैज्ञानिक कारण था । यदि मन उन सुखों में रहेगा तो अध्ययन में एकाग्र होकर लगेगा ही नहीं । साथ ही यह भी मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मन जब अध्ययन में एकाग्र हुआ होता है तब अन्य सुखसुविधाओं का स्मरण भी नहीं होता । विद्याध्यायन का आनन्द बुद्धि का आनन्द है । जब बुद्धि का आनन्द प्राप्त होता है तब इंद्रियों का आनन्द सुख नहीं देता । इसलिये भी विद्याध्यायन के समय और बातों का स्मरण नहीं होता और श्रृंगार आदि की आवश्यकता नहीं लगती। | | छात्र को ब्रह्मचारी ही कहा जाता था और ब्रह्मचारी के लिये अनेक सुविधाओं का निषेध बताया गया था । सर्व प्रकार के शृंगार उसके लिये निषिद्ध थे । उसका मनोवैज्ञानिक कारण था । यदि मन उन सुखों में रहेगा तो अध्ययन में एकाग्र होकर लगेगा ही नहीं । साथ ही यह भी मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मन जब अध्ययन में एकाग्र हुआ होता है तब अन्य सुखसुविधाओं का स्मरण भी नहीं होता । विद्याध्यायन का आनन्द बुद्धि का आनन्द है । जब बुद्धि का आनन्द प्राप्त होता है तब इंद्रियों का आनन्द सुख नहीं देता । इसलिये भी विद्याध्यायन के समय और बातों का स्मरण नहीं होता और श्रृंगार आदि की आवश्यकता नहीं लगती। |
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| * घर से विद्यालय जाने के लिये वाहन चाहिये । यह बाइसिकल, ओटोरीक्षा, स्कूलबस, कार आदि कोई भी हो सकता है। वाहन की आवश्यकता क्यों होती है ? इसलिये कि अब पैदल चलना असंभव लगता है। वास्तव में घर से विद्यालय पैदल चलकर ही जाना चाहिये । पाँच से सात वर्ष के छात्र एक किलोमीटर. आठ से दस वर्ष के छात्र तीन किलोमीटर, दस से अधिक आयु के छात्र पाँच किलोमीटर और महाविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र आठ किलोमीटर पैदल चलकर विद्यालय जाते हैं तो उसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। परन्तु आज इसे अत्यंत अस्वाभाविक माना जाता है। इनके कारण विभिन्न प्रकार के बताए जाते हैं। जैसे की | | * घर से विद्यालय जाने के लिये वाहन चाहिये । यह बाइसिकल, ओटोरीक्षा, स्कूलबस, कार आदि कोई भी हो सकता है। वाहन की आवश्यकता क्यों होती है ? इसलिये कि अब पैदल चलना असंभव लगता है। वास्तव में घर से विद्यालय पैदल चलकर ही जाना चाहिये । पाँच से सात वर्ष के छात्र एक किलोमीटर. आठ से दस वर्ष के छात्र तीन किलोमीटर, दस से अधिक आयु के छात्र पाँच किलोमीटर और महाविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र आठ किलोमीटर पैदल चलकर विद्यालय जाते हैं तो उसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। परन्तु आज इसे अत्यंत अस्वाभाविक माना जाता है। इनके कारण विभिन्न प्रकार के बताए जाते हैं। जैसे की |
| * रास्ते इतने भीड़ भरे होते हैं कि छोटे छात्रों का उन पर चलना सुरक्षित नहीं होता। | | * रास्ते इतने भीड़ भरे होते हैं कि छोटे छात्रों का उन पर चलना सुरक्षित नहीं होता। |
− | * आजकल बच्चों का हरण करने वाले गुंडे भी होते हैं अतः बच्चों की असुरक्षा बढ़ गई है। उन्हें अकेले विद्यालय जाने देना उचीत नहीं होता। | + | * आजकल बच्चोंं का हरण करने वाले गुंडे भी होते हैं अतः बच्चोंं की असुरक्षा बढ़ गई है। उन्हें अकेले विद्यालय जाने देना उचीत नहीं होता। |
| * एक किलोमीटर से अधिक चलना बड़ों को भी आज अच्छा नहीं लगता। एक कारण शारीरिक दुर्बलता है। वे थक जाते हैं । यह कारण सत्य भी है और मानसिक दुर्बलता का द्योतक भी, क्योंकि चलना पहले मन को अच्छा नहीं लगता, बाद में शरीर को । | | * एक किलोमीटर से अधिक चलना बड़ों को भी आज अच्छा नहीं लगता। एक कारण शारीरिक दुर्बलता है। वे थक जाते हैं । यह कारण सत्य भी है और मानसिक दुर्बलता का द्योतक भी, क्योंकि चलना पहले मन को अच्छा नहीं लगता, बाद में शरीर को । |
| लोग कहते हैं कि विद्यालय तक चलने में ही यदि थकान हो जाती है तो फिर पढ़ेंगे कैसे । अत: वाहन तो अति आवश्यक है । साथ ही समय बर्बाद होता है । आज इतना समय है ही नहीं इसलिये वाहन चाहिये । | | लोग कहते हैं कि विद्यालय तक चलने में ही यदि थकान हो जाती है तो फिर पढ़ेंगे कैसे । अत: वाहन तो अति आवश्यक है । साथ ही समय बर्बाद होता है । आज इतना समय है ही नहीं इसलिये वाहन चाहिये । |
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| === विद्यालय में प्रतियोगितायें === | | === विद्यालय में प्रतियोगितायें === |
− | '''१. प्रतियोगिताओं का शैक्षिक मूल्य क्या है ?'''
| + | १. प्रतियोगिताओं का शैक्षिक मूल्य क्या है ? |
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− | '''२. प्रतियोगिताओं का व्यावहारिक मूल्य क्या है ?'''
| + | २. प्रतियोगिताओं का व्यावहारिक मूल्य क्या है ? |
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− | '''३. प्रतियोगिताओं के प्रति सही दृष्टिकोण कैसे विकसित करें ?'''
| + | ३. प्रतियोगिताओं के प्रति सही दृष्टिकोण कैसे विकसित करें ? |
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− | '''४. प्रतियोगिता की भावना कम करने के क्या उपाय करें ?'''
| + | ४. प्रतियोगिता की भावना कम करने के क्या उपाय करें ? |
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− | '''५. प्रतियोगितायें लाभ के स्थान पर हानि कैसे करती?'''
| + | ५. प्रतियोगितायें लाभ के स्थान पर हानि कैसे करती? |
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− | '''६. प्रतियोगितायें लाभकारी बनें इसलिये क्या क्या करना चाहिये ?'''
| + | ६. प्रतियोगितायें लाभकारी बनें इसलिये क्या क्या करना चाहिये ? |
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| ==== प्रश्नावली से पाप्त उत्तर ==== | | ==== प्रश्नावली से पाप्त उत्तर ==== |
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| ५. हार जीत समान है यह भावना निर्माण करे तथा स्पर्धा निष्पक्ष भाव से और निकोप वातावरण मे हो ऐसा भी सुझाव आया । | | ५. हार जीत समान है यह भावना निर्माण करे तथा स्पर्धा निष्पक्ष भाव से और निकोप वातावरण मे हो ऐसा भी सुझाव आया । |
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− | ६. स्पर्धा लाभकारी हो इसलिए उनमे से इर्ष्या और हिंसाभाव नष्ट करे, अपयश प्राप्त स्पर्धकों को चिडाना (उपहास करना) बंद करे तथा सभी स्पर्धकों को पुरस्कार देना ऐसा लिखा है। | + | ६. स्पर्धा लाभकारी हो अतः उनमे से इर्ष्या और हिंसाभाव नष्ट करे, अपयश प्राप्त स्पर्धकों को चिडाना (उपहास करना) बंद करे तथा सभी स्पर्धकों को पुरस्कार देना ऐसा लिखा है। |
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− | ७. स्पर्धा से होने वाली हानि बताने से बालकों के मन में न्यूनता की भावना निर्माण होती है इसलिए दूसरों का विजय सहर्ष स्वीकृत करे ऐसा भाव उत्पन्न करे । बहुत से लोगोंने प्रतियोगिता का अर्थ परीक्षा ऐसा भी किया । | + | ७. स्पर्धा से होने वाली हानि बताने से बालकों के मन में न्यूनता की भावना निर्माण होती है अतः दूसरों का विजय सहर्ष स्वीकृत करे ऐसा भाव उत्पन्न करे । बहुत से लोगोंंने प्रतियोगिता का अर्थ परीक्षा ऐसा भी किया । |
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| ==== अभिमत : ==== | | ==== अभिमत : ==== |
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| ==== शिक्षक पर भरोसा नहीं है ==== | | ==== शिक्षक पर भरोसा नहीं है ==== |
− | दूसरी कक्षा में पढ़ने वाला सात वर्ष का एक विद्यार्थी गणित की लिखित परीक्षा देकर घर आया। परीक्षा में कितने अंक मिलेंगे यह जानने की उत्सुकता विद्यार्थी से अधिक उसकी माता को थी । अतः माता ने पूछताछ शुरू की। प्रश्नपत्र के प्रश्न एक के बाद एक पूछती गई और बालक उत्तर देता गया। सारे प्रश्नों की समाप्ति पर माता ने निदान किया कि उसे पचास में से अडतालीस अंक प्राप्त होंगे । वह सन्तुष्ट हुई। परन्तु परीक्षा का परिणाम आया तब माता ने देखा कि बालक को गणित में दो अंक मिले थे। माता आघात से पागल हो गई। बार बार बालक से पूछने लगी कि ऐसा कैसे हुआ । बालक बताने में असमर्थ था । घुमा फिराकर पूछते पूछते माता ने पूछा कि तुमने उत्तर पुस्तिका में उत्तर लिखे थे कि नहीं। बालक ने निर्विकार भाव से कहा कि नहीं लिखा था । माता ने झल्ला कर पूछा कि क्यों नहीं लिखा । बालक ने सहजता से कहा कि सब उत्तर आते थे तब क्यों लिखू। | + | दूसरी कक्षा में पढ़ने वाला सात वर्ष का एक विद्यार्थी गणित की लिखित परीक्षा देकर घर आया। परीक्षा में कितने अंक मिलेंगे यह जानने की उत्सुकता विद्यार्थी से अधिक उसकी माता को थी । अतः माता ने पूछताछ आरम्भ की। प्रश्नपत्र के प्रश्न एक के बाद एक पूछती गई और बालक उत्तर देता गया। सारे प्रश्नों की समाप्ति पर माता ने निदान किया कि उसे पचास में से अडतालीस अंक प्राप्त होंगे । वह सन्तुष्ट हुई। परन्तु परीक्षा का परिणाम आया तब माता ने देखा कि बालक को गणित में दो अंक मिले थे। माता आघात से पागल हो गई। बार बार बालक से पूछने लगी कि ऐसा कैसे हुआ । बालक बताने में असमर्थ था । घुमा फिराकर पूछते पूछते माता ने पूछा कि तुमने उत्तर पुस्तिका में उत्तर लिखे थे कि नहीं। बालक ने निर्विकार भाव से कहा कि नहीं लिखा था । माता ने झल्ला कर पूछा कि क्यों नहीं लिखा । बालक ने सहजता से कहा कि सब उत्तर आते थे तब क्यों लिखू। |
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| अब इस प्रश्न का क्या उत्तर है ? उसने उत्तर पुस्तिका में क्यों लिखना चाहिये ? शिक्षिका का उत्तर है परीक्षा है तो लिखना ही चाहिये । परन्तु बालक को परीक्षा क्या होती है इसका ज्ञान नहीं है और परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिये इसकी परवाह नहीं है। फिर लिखित परीक्षा क्यों होती है ? | | अब इस प्रश्न का क्या उत्तर है ? उसने उत्तर पुस्तिका में क्यों लिखना चाहिये ? शिक्षिका का उत्तर है परीक्षा है तो लिखना ही चाहिये । परन्तु बालक को परीक्षा क्या होती है इसका ज्ञान नहीं है और परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिये इसकी परवाह नहीं है। फिर लिखित परीक्षा क्यों होती है ? |
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| परन्तु यह प्रयोग दर्शाता है कि विश्वास करने का और विश्वसनीयता का संकट कितना गहरा है । और जब तक अविश्वास है शिक्षा कैसे हो पायेगी ? | | परन्तु यह प्रयोग दर्शाता है कि विश्वास करने का और विश्वसनीयता का संकट कितना गहरा है । और जब तक अविश्वास है शिक्षा कैसे हो पायेगी ? |
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− | कभी कभी तो लोग कह देते हैं कि आज के जमाने में विश्वास का कोई वजूद नहीं है । विश्वास से काम नहीं हो सकता । जमाना खराब हो गया है । अतः नियम तो बनाने ही पड़ेंगे और जाँच पड़ताल भी करनी पडेगी । निरीक्षण की व्यवस्था नहीं रही तो कोई नकल किये बिना रहेगा नहीं । पुलीस नहीं रहा तो ट्राफिक के नियमों का पालन कौन करेगा ? बिना जाँच रखे अनुशासन कैसे रहेगा ? इसलिये विश्वास का आग्रह छोडो । | + | कभी कभी तो लोग कह देते हैं कि आज के जमाने में विश्वास का कोई वजूद नहीं है । विश्वास से काम नहीं हो सकता । जमाना खराब हो गया है । अतः नियम तो बनाने ही पड़ेंगे और जाँच पड़ताल भी करनी पड़ेगी । निरीक्षण की व्यवस्था नहीं रही तो कोई नकल किये बिना रहेगा नहीं । पुलीस नहीं रहा तो ट्राफिक के नियमों का पालन कौन करेगा ? बिना जाँच रखे अनुशासन कैसे रहेगा ? इसलिये विश्वास का आग्रह छोडो । |
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| परन्तु विश्वास और श्रद्धा के बिना कोई भी अच्छा काम सम्भव नहीं है । अच्छाई के आधार पर ही दुनिया चलती है, कानून के आधार पर नहीं । रास्ते पर चलते हुए कोई दुर्घटना देखी और कोई व्यक्ति बहुत गम्भीर रूप से घायल हो गया है वह भी देखा । उस समय रुकना, उसकी सहायता करना उसे अस्पताल पहुँचाना कानून से बन्धनकारक नहीं है तो भी लोग होते हैं जो अपना काम छोड़कर घायल व्यक्ति की सहायता करते हैं । ठण्ड में ठिठुरने वाले खुले में सोये गरीब | | परन्तु विश्वास और श्रद्धा के बिना कोई भी अच्छा काम सम्भव नहीं है । अच्छाई के आधार पर ही दुनिया चलती है, कानून के आधार पर नहीं । रास्ते पर चलते हुए कोई दुर्घटना देखी और कोई व्यक्ति बहुत गम्भीर रूप से घायल हो गया है वह भी देखा । उस समय रुकना, उसकी सहायता करना उसे अस्पताल पहुँचाना कानून से बन्धनकारक नहीं है तो भी लोग होते हैं जो अपना काम छोड़कर घायल व्यक्ति की सहायता करते हैं । ठण्ड में ठिठुरने वाले खुले में सोये गरीब |
− | लोगों को कम्बल ओढाने वाले अच्छे लोग होते ही हैं । गरीब विद्यार्थियों को पढाई के लिये सहायता करने वाले दानी लोग होते ही हैं । ये सब नियम, कानून, बन्धन, मजबूरी, भय
| + | लोगोंं को कम्बल ओढाने वाले अच्छे लोग होते ही हैं । गरीब विद्यार्थियों को पढाई के लिये सहायता करने वाले दानी लोग होते ही हैं । ये सब नियम, कानून, बन्धन, मजबूरी, भय |
| या स्वार्थ से प्रेरित होकर यह काम नहीं करते । उनके हृदय में जो अच्छाई होती है उससे प्रेरित होकर ही करते हैं । मनुष्यों | | या स्वार्थ से प्रेरित होकर यह काम नहीं करते । उनके हृदय में जो अच्छाई होती है उससे प्रेरित होकर ही करते हैं । मनुष्यों |
| के हृदयों में जो अच्छाई है उसीसे दुनिया चलती है । इस अच्छाई का नाश अविश्वास से होता है । इसलिये कुछ भौतिक स्वरूप की कीमत चुकाकर भी विश्वास का जतन करना चाहिये । | | के हृदयों में जो अच्छाई है उसीसे दुनिया चलती है । इस अच्छाई का नाश अविश्वास से होता है । इसलिये कुछ भौतिक स्वरूप की कीमत चुकाकर भी विश्वास का जतन करना चाहिये । |
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| # विश्वसनीय बनना | | # विश्वसनीय बनना |
| # विश्वास भंग नहीं करना | | # विश्वास भंग नहीं करना |
− | छोटे बच्चे स्वभाव से विश्वास करने वाले ही होते हैं। बड़े होते होते विश्वास करना छोड देते हैं। इसका कारण उसके आसपास के बडे ही होते हैं । वे झूठ बोलते हैं, बच्चों के विश्वास का भंग करते हैं । इससे झूठ बोलना और विश्वास नहीं करना दोनों बातों के संस्कार होते हैं । | + | छोटे बच्चे स्वभाव से विश्वास करने वाले ही होते हैं। बड़े होते होते विश्वास करना छोड देते हैं। इसका कारण उसके आसपास के बडे ही होते हैं । वे झूठ बोलते हैं, बच्चोंं के विश्वास का भंग करते हैं । इससे झूठ बोलना और विश्वास नहीं करना दोनों बातों के संस्कार होते हैं । |
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− | एक परिवार में छोटा बेटा, मातापिता और दादीमाँ ऐसे चार लोग होते थे । रात्रि में भोजन आदि से निपटकर पतिपत्नी कुछ चलने के लिये जाते थे। उस समय छोटा बालक भी साथ जाना चाहता था । उसे साथ लेकर घूमने जाना मातापिता को सुविधाजनक नहीं लगता था । वह चल नहीं सकता था, उसे उठाना पड़ेगा । वह रास्ते में ही सो जाता था। इसलिये उन्होंने सोचा कि वह सो जायेगा फिर जायेंगे । दादीमां ने ही यह उपाय सुझाया था । परन्तु बालक ने सुन लिया । इसलिये वह मातापिता नहीं सोते थे तब तक सोने के लिये भी तैयार नहीं था। फिर माता कपडे बदल लेती, साथ में सुलाती और कहानी बताती । बालक सो जाता तब फिर दोनों घूमने के लिये जाते । कुछ दिन यह क्रम ठीक चला । एक दिन बालक पूरा नहीं सोया था और माता को लगा कि सो गया, तब वे दोनों घूमने गये । इधर कहानी की आवाज बन्द हो गई इसलिये बालक जागा । उसने देखा कि माँ नहीं है । वह रोने लगा । दादीमाँ ने कहा कि घूमने गये हैं, अभी आ जायेंगे । बालक और जोर से रोने लगा। थोड़ी ही देर में मातापिता आ गये । बालक ने यह नहीं पूछा कि मुझे छोडकर क्यों गये । उसने पूछा कि मुझसे झूठ क्यों बोले ? | + | एक परिवार में छोटा बेटा, मातापिता और दादीमाँ ऐसे चार लोग होते थे । रात्रि में भोजन आदि से निपटकर पतिपत्नी कुछ चलने के लिये जाते थे। उस समय छोटा बालक भी साथ जाना चाहता था । उसे साथ लेकर घूमने जाना मातापिता को सुविधाजनक नहीं लगता था । वह चल नहीं सकता था, उसे उठाना पड़ेगा । वह रास्ते में ही सो जाता था। इसलिये उन्होंने सोचा कि वह सो जायेगा फिर जायेंगे । दादीमां ने ही यह उपाय सुझाया था । परन्तु बालक ने सुन लिया । इसलिये वह मातापिता नहीं सोते थे तब तक सोने के लिये भी तैयार नहीं था। फिर माता कपड़े बदल लेती, साथ में सुलाती और कहानी बताती । बालक सो जाता तब फिर दोनों घूमने के लिये जाते । कुछ दिन यह क्रम ठीक चला । एक दिन बालक पूरा नहीं सोया था और माता को लगा कि सो गया, तब वे दोनों घूमने गये । इधर कहानी की आवाज बन्द हो गई इसलिये बालक जागा । उसने देखा कि माँ नहीं है । वह रोने लगा । दादीमाँ ने कहा कि घूमने गये हैं, अभी आ जायेंगे । बालक और जोर से रोने लगा। थोड़ी ही देर में मातापिता आ गये । बालक ने यह नहीं पूछा कि मुझे छोडकर क्यों गये । उसने पूछा कि मुझसे झूठ क्यों बोले ? |
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− | अविश्वास का प्रारम्भ ऐसे होता है । इन मातापिता ने किया ऐसा व्यवहार तो लोग हमेशा करते हैं, निर्दोषता से करते हैं । इसे झूठ नहीं कहते, व्यवहार कहते हैं । परन्तु इससे विश्वसनीयता गँवाते हैं और विश्वास नहीं करना सिखाते हैं । | + | अविश्वास का प्रारम्भ ऐसे होता है । इन मातापिता ने किया ऐसा व्यवहार तो लोग सदा करते हैं, निर्दोषता से करते हैं । इसे झूठ नहीं कहते, व्यवहार कहते हैं । परन्तु इससे विश्वसनीयता गँवाते हैं और विश्वास नहीं करना सिखाते हैं । |
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| एक व्यापारी पिता की कथा पढ़ी थी । अपने छोटे पुत्र को वह ऊँचाई से छलाँग लगाने के लिये प्रेरित कर रहे | | एक व्यापारी पिता की कथा पढ़ी थी । अपने छोटे पुत्र को वह ऊँचाई से छलाँग लगाने के लिये प्रेरित कर रहे |
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| विद्यालय को विश्वास के वातावरण से युक्त बनाने का दायित्व शिक्षकों का है। किसी और को दायित्व देने से या और का दायित्व बताने से काम होगा नहीं। | | विद्यालय को विश्वास के वातावरण से युक्त बनाने का दायित्व शिक्षकों का है। किसी और को दायित्व देने से या और का दायित्व बताने से काम होगा नहीं। |
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− | पहली बात है सब पर विश्वास करना, भले ही कुछ हानि उठानी पडे । शत प्रतिशत पता है कि सामने वाला व्यक्ति झूठ बोल रहा है तो भी उसे यह नहीं कहना कि मुझे तुम्हारा विश्वास नहीं है, या मुझे पता है कि तुम झूठ बोल रहे हो। सामने वाला कितना भी माने कि मैं ने इनके सामने झूठ बोलकर इन्हें मूर्ख बनाया और फायदा उठाया, तो भी विश्वास ही करना, विश्वास नहीं है अथवा विश्वास करने योग्य नहीं है ऐसा मालूम है तो भी विश्वास करना । मुझे तुम पर विश्वास नहीं है ऐसा कभी भी नहीं कहना । तुम सत्य बोल रहे हो इसका प्रमाण दो यहभी नहीं कहना । यह तो अविश्वास करने । के बराबर ही है। कुछ समय के बाद विश्वासभंग करने वाले का मन ही उसे झूठ बोलने के लिये मना करने लगेगा। अविश्वास करने वाले के समक्ष तो झूठ बोला जा सकता है, झूठे प्रमाण भी दिये जा सकते हैं, पर विश्वास करने वाले के समक्ष कैसे झूठ बोलें । विश्वास करनेवाले का विश्वास भंग नहीं करना चाहिये यह सहज ही सामने वाले को लगने लगता है। आखिर विश्वास करने वाले की ही जीत होती है। | + | पहली बात है सब पर विश्वास करना, भले ही कुछ हानि उठानी पड़े । शत प्रतिशत पता है कि सामने वाला व्यक्ति झूठ बोल रहा है तो भी उसे यह नहीं कहना कि मुझे तुम्हारा विश्वास नहीं है, या मुझे पता है कि तुम झूठ बोल रहे हो। सामने वाला कितना भी माने कि मैं ने इनके सामने झूठ बोलकर इन्हें मूर्ख बनाया और फायदा उठाया, तो भी विश्वास ही करना, विश्वास नहीं है अथवा विश्वास करने योग्य नहीं है ऐसा मालूम है तो भी विश्वास करना । मुझे तुम पर विश्वास नहीं है ऐसा कभी भी नहीं कहना । तुम सत्य बोल रहे हो इसका प्रमाण दो यहभी नहीं कहना । यह तो अविश्वास करने । के बराबर ही है। कुछ समय के बाद विश्वासभंग करने वाले का मन ही उसे झूठ बोलने के लिये मना करने लगेगा। अविश्वास करने वाले के समक्ष तो झूठ बोला जा सकता है, झूठे प्रमाण भी दिये जा सकते हैं, पर विश्वास करने वाले के समक्ष कैसे झूठ बोलें । विश्वास करनेवाले का विश्वास भंग नहीं करना चाहिये यह सहज ही सामने वाले को लगने लगता है। आखिर विश्वास करने वाले की ही जीत होती है। |
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| इस प्रकार विद्यालय में शिक्षकों की और से विश्वास करने का प्रारम्भ करना चाहिये फिर विद्यार्थियों को आपस में विश्वास करना सिखाना चाहिये । कोई झूठ क्यों बोलेगा ऐसा एक वातावरण बनाना चाहिये । कभी कभी कोई विद्यार्थी अपने मातापिता झूठ बोलते हैं ऐसी शिकायत करता है। तब विद्यार्थी से कोई बात न करते हुए मातापिता से इस विषय में बात करनी चाहिये । परन्तु ऐसा करने में बहुत सावधानी रखनी चाहिये क्योंकि नहीं तो मातापिता अपने बालक को ही क्यों शिक्षक को बताते हो ?' कहकर डाँटेंगे । | | इस प्रकार विद्यालय में शिक्षकों की और से विश्वास करने का प्रारम्भ करना चाहिये फिर विद्यार्थियों को आपस में विश्वास करना सिखाना चाहिये । कोई झूठ क्यों बोलेगा ऐसा एक वातावरण बनाना चाहिये । कभी कभी कोई विद्यार्थी अपने मातापिता झूठ बोलते हैं ऐसी शिकायत करता है। तब विद्यार्थी से कोई बात न करते हुए मातापिता से इस विषय में बात करनी चाहिये । परन्तु ऐसा करने में बहुत सावधानी रखनी चाहिये क्योंकि नहीं तो मातापिता अपने बालक को ही क्यों शिक्षक को बताते हो ?' कहकर डाँटेंगे । |
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− | तीसरा चरण है विश्वसनीय होने का। दूसरों का विश्वास करते समय अपना भी विश्वास सबको करना चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है। लोग विश्वास नहीं करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु हमेशा प्रमाण देना आवश्यक नहीं है। बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि प्रमाणके बिना मेरा विश्वास नहीं किया जा सकता। अतः शिक्षक स्वयं, सामने वाला विश्वास करे कि न करे, विश्वसनीय बनें और विद्यार्थियों को विश्वसनीय बनाने हेतु प्रेरित करें। विद्यार्थी की विश्वसनीयता की परीक्षा अप्रत्यक्षरूप से करें । उससे प्रमाण भी बार बार न माँगे कदाचित एक बार भी न माँगे। | + | तीसरा चरण है विश्वसनीय होने का। दूसरों का विश्वास करते समय अपना भी विश्वास सबको करना चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है। लोग विश्वास नहीं करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु सदा प्रमाण देना आवश्यक नहीं है। बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि प्रमाणके बिना मेरा विश्वास नहीं किया जा सकता। अतः शिक्षक स्वयं, सामने वाला विश्वास करे कि न करे, विश्वसनीय बनें और विद्यार्थियों को विश्वसनीय बनाने हेतु प्रेरित करें। विद्यार्थी की विश्वसनीयता की परीक्षा अप्रत्यक्षरूप से करें । उससे प्रमाण भी बार बार न माँगे कदाचित एक बार भी न माँगे। |
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| अप्रत्यक्षरूप से यदि पता चले कि वह विश्वास योग्य नहीं है तो भी सीधा डाँटने से या उसे दूसरों के समक्ष गिराने से वह विश्वसनीय नहीं बनेगा । उसे अकेले | | अप्रत्यक्षरूप से यदि पता चले कि वह विश्वास योग्य नहीं है तो भी सीधा डाँटने से या उसे दूसरों के समक्ष गिराने से वह विश्वसनीय नहीं बनेगा । उसे अकेले |
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| चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है । लोग विश्वास नहीं | | चाहिये ऐसा लगना स्वाभाविक है । लोग विश्वास नहीं |
| करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर | | करते यह भी हम देखते हैं । एक दो बार प्रमाण देकर |
− | विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु हमेशा प्रमाण देना | + | विश्वसनीयता सिद्ध कर सकते हैं परन्तु सदा प्रमाण देना |
| आवश्यक नहीं है । बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति | | आवश्यक नहीं है । बारबार प्रमाण देने की वृत्ति प्रवृत्ति |
| अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि | | अच्छी नहीं है क्योंकि उससे तो हम ही कहते हैं कि |
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| ऐसे वातावरण में समाज में तनाव बढता है, उत्तेजना बढती है। आज मधुप्रमेह, रक्तचाप, हृदयरोग आदि जैसी बिमारियाँ बढी हैं उनका मूल भी श्रद्धाहीनता है। सरदर्द अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ भी इसी में से पनपती हैं। इनका उपचार शारीरिक रोग समझकर करने से ये ठीक नहीं होती। हम देखते हैं कि इनकी दवाई आजन्म खानी पडती है । ये असाध्य बिमारियाँ हैं क्योंकि हम उनका मानसिक मूल पकड नहीं । पाते । यदि श्रद्धा और विश्वास मनवाने का इलाज करेंगे तो वातावरण से इन बिमारियों के तरंग कम होते जायेंगे । | | ऐसे वातावरण में समाज में तनाव बढता है, उत्तेजना बढती है। आज मधुप्रमेह, रक्तचाप, हृदयरोग आदि जैसी बिमारियाँ बढी हैं उनका मूल भी श्रद्धाहीनता है। सरदर्द अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ भी इसी में से पनपती हैं। इनका उपचार शारीरिक रोग समझकर करने से ये ठीक नहीं होती। हम देखते हैं कि इनकी दवाई आजन्म खानी पडती है । ये असाध्य बिमारियाँ हैं क्योंकि हम उनका मानसिक मूल पकड नहीं । पाते । यदि श्रद्धा और विश्वास मनवाने का इलाज करेंगे तो वातावरण से इन बिमारियों के तरंग कम होते जायेंगे । |
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− | यह तो ऐसा है कि समझो कोकाकोला पीने से अम्लपित्त होता है। हम अम्लपित्त की दवाई लेते हैं । उससे दूसरी बिमारी होती है। उससे दूसरी, उससे दूसरी ऐसा दुष्टचक्र शुरू होता है। हम परेशान होते हैं परन्तु कोकाकोला पीना बन्द नहीं करते । वास्तव में कोकाकोला पीना बन्द करने से अम्लपित्त होगा ही नहीं | + | यह तो ऐसा है कि समझो कोकाकोला पीने से अम्लपित्त होता है। हम अम्लपित्त की दवाई लेते हैं । उससे दूसरी बिमारी होती है। उससे दूसरी, उससे दूसरी ऐसा दुष्टचक्र आरम्भ होता है। हम परेशान होते हैं परन्तु कोकाकोला पीना बन्द नहीं करते । वास्तव में कोकाकोला पीना बन्द करने से अम्लपित्त होगा ही नहीं |
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− | और एक भी दवाई की आवश्यकता नहीं रहेगी। उसी प्रकार श्रद्धा और विश्वास के अभाव में संशय, असुरक्षा, एकलता, तनाव, उत्तेजना, भय, चिन्ता पैदा होते हैं उसका परिणाम हृदय और मस्तिष्क पर होता है। हम दवाई खाना शुरु करते हैं, परेशान होते हैं, पैसा खर्च करते हैं, कानून और नियम बनाते हैं, सुरक्षा का प्रबन्ध करते हैं, न्यायालय का आश्रय लेते हैं, आरोप प्रत्यारोप चलते हैं, दण्ड का प्रावधान होता है, दोनों पक्षों का नकसान होता है परन्त न समाज अच्छा बनता है न व्यक्ति आश्वस्त होता है, न किसी को सुख और शक्ति मिलते हैं। मूल में अश्रद्धा और अविश्वास हैं। इनके स्थान पर श्रद्धा और विश्वास की प्रतिष्ठा करेंगे तो बाकी सब तो जड उखाडने से पूरा वृक्ष गिरकर सूख जाता है वैसे ही नष्ट हो जायेंगे। | + | और एक भी दवाई की आवश्यकता नहीं रहेगी। उसी प्रकार श्रद्धा और विश्वास के अभाव में संशय, असुरक्षा, एकलता, तनाव, उत्तेजना, भय, चिन्ता पैदा होते हैं उसका परिणाम हृदय और मस्तिष्क पर होता है। हम दवाई खाना आरम्भ करते हैं, परेशान होते हैं, पैसा खर्च करते हैं, कानून और नियम बनाते हैं, सुरक्षा का प्रबन्ध करते हैं, न्यायालय का आश्रय लेते हैं, आरोप प्रत्यारोप चलते हैं, दण्ड का प्रावधान होता है, दोनों पक्षों का नकसान होता है परन्त न समाज अच्छा बनता है न व्यक्ति आश्वस्त होता है, न किसी को सुख और शक्ति मिलते हैं। मूल में अश्रद्धा और अविश्वास हैं। इनके स्थान पर श्रद्धा और विश्वास की प्रतिष्ठा करेंगे तो बाकी सब तो जड़ उखाडने से पूरा वृक्ष गिरकर सूख जाता है वैसे ही नष्ट हो जायेंगे। |
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| इसलिये, पुनः एकबार विद्यालय श्रद्धा और विश्वास का वातावरण बनायें यह कहना प्राप्त होता है । | | इसलिये, पुनः एकबार विद्यालय श्रद्धा और विश्वास का वातावरण बनायें यह कहना प्राप्त होता है । |
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| ==== १, मान्यता का प्रश्न ==== | | ==== १, मान्यता का प्रश्न ==== |
− | कोई भी विद्यालय चलता है तब उसे मान्यता की आवश्यकता होती है । भारत की दीर्घ परम्परा में विद्यालय को समाज से मान्यता मिलती रही है । समाज से मान्यता मिलने का अर्थ है समाज ने अपने बच्चों को विद्यालयों में पढने हेतु भेजना और विद्यालय के योगक्षेम की चिन्ता करना । समाज के भरोसे शिक्षक विद्यालय शुरु करते थे और शिक्षक के सदूभाव, ज्ञान और कर्तृत्व के आधार पर उसे मान्यता भी मिलती थी । | + | कोई भी विद्यालय चलता है तब उसे मान्यता की आवश्यकता होती है । भारत की दीर्घ परम्परा में विद्यालय को समाज से मान्यता मिलती रही है । समाज से मान्यता मिलने का अर्थ है समाज ने अपने बच्चोंं को विद्यालयों में पढने हेतु भेजना और विद्यालय के योगक्षेम की चिन्ता करना । समाज के भरोसे शिक्षक विद्यालय आरम्भ करते थे और शिक्षक के सदूभाव, ज्ञान और कर्तृत्व के आधार पर उसे मान्यता भी मिलती थी । |
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| यह केवल प्राथमिक विद्यालयों की ही बात नहीं है । | | यह केवल प्राथमिक विद्यालयों की ही बात नहीं है । |
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| ==== ऐसे तीन स्तर क्यों होते हैं ? ==== | | ==== ऐसे तीन स्तर क्यों होते हैं ? ==== |
− | शिक्षा का विषय राज्य सरकार का है इसलिये राज्य तो इसकी व्यवस्था करेगा यह स्वाभाविक है। इन विद्यालयों में साधारण रूप से प्रान्तीय भाषा ही माध्यम रहती है फिर भी अन्य प्रान्तों के निवासियों की संख्या के अनुपात में उन भाषा के माध्यमों के विद्यालय भी चलते हैं । उदाहरण के लिये राज्य की मान्यता वाले अधिकतम विद्यालय गुजराती माध्यम के होंगे परन्तु तमिल, सिंधी, उडिया, उर्दू, मराठी माध्यम के विद्यालय भी चलते हैं। | + | शिक्षा का विषय राज्य सरकार का है इसलिये राज्य तो इसकी व्यवस्था करेगा यह स्वाभाविक है। इन विद्यालयों में साधारण रूप से प्रान्तीय भाषा ही माध्यम रहती है तथापि अन्य प्रान्तों के निवासियों की संख्या के अनुपात में उन भाषा के माध्यमों के विद्यालय भी चलते हैं । उदाहरण के लिये राज्य की मान्यता वाले अधिकतम विद्यालय गुजराती माध्यम के होंगे परन्तु तमिल, सिंधी, उडिया, उर्दू, मराठी माध्यम के विद्यालय भी चलते हैं। |
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− | कुछ लोग ऐसे होते हैं जो केन्द्र सरकार की नौकरी करते हैं इसलिये उनके स्थानांतरण एक राज्य से दूसरे राज्य में होते हैं । ऐसे लोगों की सुविधा हेतु अखिल धार्मिक स्तर की संस्थायें चलती हैं। सीबीएसई (सैण्ट्रल बोर्ड ओफ सैकन्डरी एज्यूकेशन) ऐसा ही बोर्ड है । यह मान्यता पूरे देश में चलती है । इसमें हिन्दी और अंग्रेजी ऐसे दो माध्यम होते हैं । अब एक राज्य से दूसरे राज्यमें जाने में कठिनाई नहीं होती। | + | कुछ लोग ऐसे होते हैं जो केन्द्र सरकार की नौकरी करते हैं इसलिये उनके स्थानांतरण एक राज्य से दूसरे राज्य में होते हैं । ऐसे लोगोंं की सुविधा हेतु अखिल धार्मिक स्तर की संस्थायें चलती हैं। सीबीएसई (सैण्ट्रल बोर्ड ओफ सैकन्डरी एज्यूकेशन) ऐसा ही बोर्ड है । यह मान्यता पूरे देश में चलती है । इसमें हिन्दी और अंग्रेजी ऐसे दो माध्यम होते हैं । अब एक राज्य से दूसरे राज्यमें जाने में कठिनाई नहीं होती। |
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| तीसरा आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड होता है जो एक से अधिक देशों में विद्यालयों को मान्यता देता है । इसका उद्देश्य राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की तरह प्रजाजनों की सुविधा देखने का तो नहीं है यह स्पष्ट है । अपना व्यापार कहो तो व्यापार और मिशन कहो तो मिशन विश्व के अन्य देशों में भी फैलाने का उद्देश्य है । | | तीसरा आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड होता है जो एक से अधिक देशों में विद्यालयों को मान्यता देता है । इसका उद्देश्य राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की तरह प्रजाजनों की सुविधा देखने का तो नहीं है यह स्पष्ट है । अपना व्यापार कहो तो व्यापार और मिशन कहो तो मिशन विश्व के अन्य देशों में भी फैलाने का उद्देश्य है । |
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| ===== अब प्रश्न क्या है ? ===== | | ===== अब प्रश्न क्या है ? ===== |
− | अधिकांश लोगों को राज्य के बोर्ड की मान्यता होना | + | अधिकांश लोगोंं को राज्य के बोर्ड की मान्यता होना |
| सर्वथा स्वाभाविक है, परन्तु आज सबको, विशेष रूप से संचालकों को, केन्द्रीय बोर्ड की मान्यता का आकर्षण बढ रहा है । मातृभाषा में पढ़ने की सुविधा नहीं होने पर भी केन्द्रिय बोर्ड चाहिये । उसके ही समान आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की | | सर्वथा स्वाभाविक है, परन्तु आज सबको, विशेष रूप से संचालकों को, केन्द्रीय बोर्ड की मान्यता का आकर्षण बढ रहा है । मातृभाषा में पढ़ने की सुविधा नहीं होने पर भी केन्द्रिय बोर्ड चाहिये । उसके ही समान आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड की |
| मान्यता का आकर्षण भी बढ रहा है । | | मान्यता का आकर्षण भी बढ रहा है । |
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− | इसके तर्क कितने ही दिये जाते हों यह आकर्षण केवल मनोवैज्ञानिक है । भाषा ऐसी बोली जाती है कि केन्द्रियि और आन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के मानक ऊँचे होते हं, उनका दायरा अधिक बडा है और इनमें गुणवत्ता अधिक है । ये तर्क सही नहीं हैं । कोई भी शिक्षाशास्त्री इन्हें मान्य नहीं करेगा फिर भी शिक्षाशाखरियों की बात कोई मानने को तैयार नहीं होता । बच्चे को विदेश जाने में आन्तर्रा्ट्रीय बोर्ड सुविधा देता है ऐसा तर्क दिया जाता है । ये सब तर्क ही इतने बेबुनियाद होते हैं कि उनके उत्तर तार्किक पद्धति से | + | इसके तर्क कितने ही दिये जाते हों यह आकर्षण केवल मनोवैज्ञानिक है । भाषा ऐसी बोली जाती है कि केन्द्रियि और आन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के मानक ऊँचे होते हं, उनका दायरा अधिक बडा है और इनमें गुणवत्ता अधिक है । ये तर्क सही नहीं हैं । कोई भी शिक्षाशास्त्री इन्हें मान्य नहीं करेगा तथापि शिक्षाशाखरियों की बात कोई मानने को तैयार नहीं होता । बच्चे को विदेश जाने में आन्तर्रा्ट्रीय बोर्ड सुविधा देता है ऐसा तर्क दिया जाता है । ये सब तर्क ही इतने बेबुनियाद होते हैं कि उनके उत्तर तार्किक पद्धति से |
| देना सम्भव ही नहीं है । एक के बाद एक तर्क का उत्तर देने पर भी वे स्वीकृत नहीं होते क्योंकि उन्हें तर्कनिष्ठ व्यवहार नहीं करना है । इसके चलते बोर्डों की व्यवस्था में, अभिभावकों में और शैक्षिक सामग्री के बाजार में बडी हलचल मची हुई है । | | देना सम्भव ही नहीं है । एक के बाद एक तर्क का उत्तर देने पर भी वे स्वीकृत नहीं होते क्योंकि उन्हें तर्कनिष्ठ व्यवहार नहीं करना है । इसके चलते बोर्डों की व्यवस्था में, अभिभावकों में और शैक्षिक सामग्री के बाजार में बडी हलचल मची हुई है । |
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| हमारे राष्ट्रीय हीनता बोध का यह इतना मुखर लक्षण है कि इसका खुलासा करने की भी आवश्यकता नहीं है । | | हमारे राष्ट्रीय हीनता बोध का यह इतना मुखर लक्षण है कि इसका खुलासा करने की भी आवश्यकता नहीं है । |
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− | विश्व भर के शिक्षाशास्त्री, समझदार व्यक्ति, देशभक्त लोग कहते हैं कि देश की शिक्षा देश की भाषा में ही होनी चाहिये, व्यक्ति की शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही होनी चाहिये । मातृभाषा में शिक्षा के असंख्य लाभ और विदेशी भाषा में शिक्षा लेने की अनेक हानियाँ बताई जाती हैं, अनेक प्रमाण दिये जाते हैं तो भी लोगों पर उनका प्रभाव नहीं होता । लोगों का ही अनुसरण सरकार करती है । | + | विश्व भर के शिक्षाशास्त्री, समझदार व्यक्ति, देशभक्त लोग कहते हैं कि देश की शिक्षा देश की भाषा में ही होनी चाहिये, व्यक्ति की शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही होनी चाहिये । मातृभाषा में शिक्षा के असंख्य लाभ और विदेशी भाषा में शिक्षा लेने की अनेक हानियाँ बताई जाती हैं, अनेक प्रमाण दिये जाते हैं तो भी लोगोंं पर उनका प्रभाव नहीं होता । लोगोंं का ही अनुसरण सरकार करती है । |
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| संचालक अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय | | संचालक अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय |
− | चलाते हैं क्योंकि लोगों को चाहिये । सरकार अंग्रेजी | + | चलाते हैं क्योंकि लोगोंं को चाहिये । सरकार अंग्रेजी |
− | माध्यम का इसलिये समर्थन करती है क्योंकि लोगों को | + | माध्यम का इसलिये समर्थन करती है क्योंकि लोगोंं को |
− | चाहिये । जो लोग जानते हैं कि लोगों को चाहिये वह देना | + | चाहिये । जो लोग जानते हैं कि लोगोंं को चाहिये वह देना |
− | नहीं होता, लोगों को क्या इष्ट है और क्या नहीं है यह | + | नहीं होता, लोगोंं को क्या इष्ट है और क्या नहीं है यह |
| सिखा कर जो इष्ट है वह देना और अनिष्ट है उससे परावृत | | सिखा कर जो इष्ट है वह देना और अनिष्ट है उससे परावृत |
| करना शिक्षा का काम है वे अंग्रेजी माध्यमका विरोध करते | | करना शिक्षा का काम है वे अंग्रेजी माध्यमका विरोध करते |
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| ==== मनोवैज्ञानिक समस्याओं का हल ==== | | ==== मनोवैज्ञानिक समस्याओं का हल ==== |
− | उपाय की दृष्टि से यदि हम बौद्धिक, तार्किक उपाय करेंगे, अनेक वास्तविक प्रमाण देंगे, आंकडे देंगे तो उसका कोई परिणाम नहीं होता है। कल्पना करें कि कोई एक सन्त जिनके लाखों अनुयायी हैं वे यदि अपने सत्संग में अंग्रेजी माध्यम में अपने बच्चों को मत भेजो ऐसा कहेंगे तो लोग मानेंगे ? कदाचित सन्तों को भी लगता है कि नहीं मानेंगे इसलिये वे कहते नहीं हैं। यदि सरकार अंग्रेजी माध्यम को मान्यता न दे तो लोग उसे मत नहीं देंगे इसलिये सरकार भी नहीं कहती । अर्थात् जिनका प्रजामानस पर प्रभाव होता है वे ही यह बात नहीं कह सकते हैं ? क्या वे अंग्रेजी माध्यम होना चाहिये ऐसा मानते हैं ? नहीं होना चाहिये ऐसा मानते हैं ? कदाचित उन्होंने इस प्रश्न पर विचार ही नहीं किया है। | + | उपाय की दृष्टि से यदि हम बौद्धिक, तार्किक उपाय करेंगे, अनेक वास्तविक प्रमाण देंगे, आंकडे देंगे तो उसका कोई परिणाम नहीं होता है। कल्पना करें कि कोई एक सन्त जिनके लाखों अनुयायी हैं वे यदि अपने सत्संग में अंग्रेजी माध्यम में अपने बच्चोंं को मत भेजो ऐसा कहेंगे तो लोग मानेंगे ? कदाचित सन्तों को भी लगता है कि नहीं मानेंगे इसलिये वे कहते नहीं हैं। यदि सरकार अंग्रेजी माध्यम को मान्यता न दे तो लोग उसे मत नहीं देंगे इसलिये सरकार भी नहीं कहती । अर्थात् जिनका प्रजामानस पर प्रभाव होता है वे ही यह बात नहीं कह सकते हैं ? क्या वे अंग्रेजी माध्यम होना चाहिये ऐसा मानते हैं ? नहीं होना चाहिये ऐसा मानते हैं ? कदाचित उन्होंने इस प्रश्न पर विचार ही नहीं किया है। |
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| यदि नहीं किया है तो उन्हें विचार करने हेतु निवेदन करना चाहिये और अपने अनुयायिओं को अंग्रेजी माध्यम से परावृत करने को कहना चाहिये। | | यदि नहीं किया है तो उन्हें विचार करने हेतु निवेदन करना चाहिये और अपने अनुयायिओं को अंग्रेजी माध्यम से परावृत करने को कहना चाहिये। |
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| मनोवैज्ञानिक समस्याओं का हल मनोवैज्ञानिक पद्धति से ही हो सकता है इतनी एक बात हमारी समझ में आ जाय तो हमें अनेक उपाय सूझने लगेंगे। परन्तु अभी तो समाज के बौद्धिक वर्ग के लोग ही इस ग्रहण से ग्रस्त हैं। | | मनोवैज्ञानिक समस्याओं का हल मनोवैज्ञानिक पद्धति से ही हो सकता है इतनी एक बात हमारी समझ में आ जाय तो हमें अनेक उपाय सूझने लगेंगे। परन्तु अभी तो समाज के बौद्धिक वर्ग के लोग ही इस ग्रहण से ग्रस्त हैं। |
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− | मनोवैज्ञानिक पद्धतियाँ क्या होती हैं इसका विस्तृत निरूपण करने का यहाँ औचित्य नहीं है क्योंकि वे असंख्य होती हैं । सामान्य लोगों को भी ये सूझ सकती हैं और सामान्य लोग इसका प्रभाव भी जानते हैं । | + | मनोवैज्ञानिक पद्धतियाँ क्या होती हैं इसका विस्तृत निरूपण करने का यहाँ औचित्य नहीं है क्योंकि वे असंख्य होती हैं । सामान्य लोगोंं को भी ये सूझ सकती हैं और सामान्य लोग इसका प्रभाव भी जानते हैं । |
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− | विद्यालय यदि ऐसी पद्धतियाँ अपनाना शुरू कर दें, इन्हें चालना दें तो हम इन समस्याओं से निजात पा सकते हैं । साहस करने की आवश्यकता है। | + | विद्यालय यदि ऐसी पद्धतियाँ अपनाना आरम्भ कर दें, इन्हें चालना दें तो हम इन समस्याओं से निजात पा सकते हैं । साहस करने की आवश्यकता है। |
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| ==== शिक्षा का माध्यम और भाषा का प्रश्न ==== | | ==== शिक्षा का माध्यम और भाषा का प्रश्न ==== |
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| अंग्रेजी भाषा का मोह इस अंग्रेजीयत का ही एक हिस्सा है । | | अंग्रेजी भाषा का मोह इस अंग्रेजीयत का ही एक हिस्सा है । |
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− | जैसे जैसे स्वतन्त्र भारत आगे बढ रहा है अंग्रेजी का मोह भी बढ़ता जा रहा है । लोग मानने लगे हैं कि अंग्रेजी का कोई पर्याय नहीं है । अंग्रेजी विश्वभाषा है और विकास इससे ही होता है। मजदूर, किसान, फेरी वाला, घर में कपडा बर्तन करने वाली नौकरानी भी अपने बच्चों को अंग्रेजी पढाना चाहते हैं क्योंकि वे अपने बच्चों को बडा बनाना चाहते हैं । | + | जैसे जैसे स्वतन्त्र भारत आगे बढ रहा है अंग्रेजी का मोह भी बढ़ता जा रहा है । लोग मानने लगे हैं कि अंग्रेजी का कोई पर्याय नहीं है । अंग्रेजी विश्वभाषा है और विकास इससे ही होता है। मजदूर, किसान, फेरी वाला, घर में कपडा बर्तन करने वाली नौकरानी भी अपने बच्चोंं को अंग्रेजी पढाना चाहते हैं क्योंकि वे अपने बच्चोंं को बडा बनाना चाहते हैं । |
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| अंग्रेजी भाषा शिक्षा का माध्यम नहीं होनी चाहिये, मातृभाषा ही श्रेष्ठ माध्यम है ऐसा आग्रह करनेवाले लोग | | अंग्रेजी भाषा शिक्षा का माध्यम नहीं होनी चाहिये, मातृभाषा ही श्रेष्ठ माध्यम है ऐसा आग्रह करनेवाले लोग |
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| अपने मोह को भी लोग तर्कों के आधार पर सही बताने का प्रयास करते हैं । ये सब कुतर्क होते हैं परन्तु वे करते ही रहते हैं । एक से बढकर एक प्रभावी तर्क भी असफल हो जाते हैं और मौन हो जाते हैं । | | अपने मोह को भी लोग तर्कों के आधार पर सही बताने का प्रयास करते हैं । ये सब कुतर्क होते हैं परन्तु वे करते ही रहते हैं । एक से बढकर एक प्रभावी तर्क भी असफल हो जाते हैं और मौन हो जाते हैं । |
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− | शासन स्वयं इस मोह से ग्रस्त है, विश्व विद्यालय, धर्माचार्य, उद्योगक्षेत्र सब इस मोह से ग्रस्त हैं। कभी वे ऐसी भाषा बोलते हैं कि लो, अब तो रिक्षावाले और घरनौकर भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में भेजना चाहते हैं । मानों अंग्रेजी पढने का अधिकार उनके जैसे श्रेष्ठ लोगों का ही है, रिक्षावालों का या नौकरों का | + | शासन स्वयं इस मोह से ग्रस्त है, विश्व विद्यालय, धर्माचार्य, उद्योगक्षेत्र सब इस मोह से ग्रस्त हैं। कभी वे ऐसी भाषा बोलते हैं कि लो, अब तो रिक्षावाले और घरनौकर भी अपने बच्चोंं को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में भेजना चाहते हैं । मानों अंग्रेजी पढने का अधिकार उनके जैसे श्रेष्ठ लोगोंं का ही है, रिक्षावालों का या नौकरों का |
− | नहीं । “प्रत्युत्त में ये नौकर और उनका पक्ष लेनेवाले राजकीय पक्ष के लोग अथवा समाजसेवी लोग कहते हैं कि बडे पढ़ते हैं तो छोटे क्यों न पढ़ें, उन्हें भी अधिकार है । इस प्रकार वे भी पढ़ते हैं ।' अपराध छोटे लोगों का नहीं है, तथाकथित बडों का ही है । | + | नहीं । “प्रत्युत्त में ये नौकर और उनका पक्ष लेनेवाले राजकीय पक्ष के लोग अथवा समाजसेवी लोग कहते हैं कि बडे पढ़ते हैं तो छोटे क्यों न पढ़ें, उन्हें भी अधिकार है । इस प्रकार वे भी पढ़ते हैं ।' अपराध छोटे लोगोंं का नहीं है, तथाकथित बडों का ही है । |
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| ==== अंग्रेजी मनोवैज्ञानिक समस्या है ==== | | ==== अंग्रेजी मनोवैज्ञानिक समस्या है ==== |
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| अंग्रेजी के भूत को भगाने के लिये हमारे मानस को रोगमुक्त करने के लिये कुछ इस प्रकार से प्रयास करने होंगे... | | अंग्रेजी के भूत को भगाने के लिये हमारे मानस को रोगमुक्त करने के लिये कुछ इस प्रकार से प्रयास करने होंगे... |
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− | १. जो लोग स्वयं अंग्रेजी के भूत से परेशान हैं वे इसका उपचार नहीं कर सकते । वे चाहते हैं कि पहले दूसरे लोग अंग्रेजी बोलना बन्द कर दें, बाद में हम भी बन्द कर देंगे । सब बोलते हैं इसलिये हमें भी बोलना पडता है, बाकी हम अंग्रेजी के पक्षधर नहीं हैं। ऐसे लोगों से अंग्रेजी का भूत मुस्कुराता है और अधिक जोर से चिपक जाता है । | + | १. जो लोग स्वयं अंग्रेजी के भूत से परेशान हैं वे इसका उपचार नहीं कर सकते । वे चाहते हैं कि पहले दूसरे लोग अंग्रेजी बोलना बन्द कर दें, बाद में हम भी बन्द कर देंगे । सब बोलते हैं इसलिये हमें भी बोलना पडता है, बाकी हम अंग्रेजी के पक्षधर नहीं हैं। ऐसे लोगोंं से अंग्रेजी का भूत मुस्कुराता है और अधिक जोर से चिपक जाता है । |
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| २. जो लोग मानते हैं कि आज का युवा वर्ग अंग्रेजी ही जानता है, उनके साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिये हमें भी अंग्रेजी में व्यवहार | | २. जो लोग मानते हैं कि आज का युवा वर्ग अंग्रेजी ही जानता है, उनके साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिये हमें भी अंग्रेजी में व्यवहार |
− | करना चाहिये । अंग्रेजी बोलकर हम उन्हें अंग्रेजी से मुक्त कर देंगे । उनकी बात सुनकर भी अंग्रेजी का भूत मुस्कुराता है । ऐसे लोगों से वह भागेगा नहीं । | + | करना चाहिये । अंग्रेजी बोलकर हम उन्हें अंग्रेजी से मुक्त कर देंगे । उनकी बात सुनकर भी अंग्रेजी का भूत मुस्कुराता है । ऐसे लोगोंं से वह भागेगा नहीं । |
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| ३. अंग्रेजी को नहीं मानने वाले, नहीं चाहने वाले भी | | ३. अंग्रेजी को नहीं मानने वाले, नहीं चाहने वाले भी |
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| ५. “मेरे साथ बात करनी है तो भारत की भाषा में बोलो' ऐसा कहने वाले से यह भूत सहमता है । शर्त है कि मेरे साथ बोलने की आवश्यकता सामने वाले को होनी चाहिये । सब्जी लेने के लिये गये और सब्जी वाले ने अंग्रेजी समझने को मना कर | | ५. “मेरे साथ बात करनी है तो भारत की भाषा में बोलो' ऐसा कहने वाले से यह भूत सहमता है । शर्त है कि मेरे साथ बोलने की आवश्यकता सामने वाले को होनी चाहिये । सब्जी लेने के लिये गये और सब्जी वाले ने अंग्रेजी समझने को मना कर |
− | दिया तो उसकी भाषा में बोलना ही पड़ेगा । रोग का इलाज करने गये और वैद्य ने अंग्रेजी समझने को मना कर दिया तो वैद्य की भाषा में बोलना ही पडेगा । श्रोताओं ने कहा कि अंग्रेजी बोलोगे तो हम मत नहीं देंगे तो उनकी भाषा में ही बोलना पडेगा । जिस लडकी के प्रेम में पडे उसने अंग्रेजी समझने को मना कर दिया तो उसकी भाषा में बोलना ही पडेगा । इस प्रकार अपनी | + | दिया तो उसकी भाषा में बोलना ही पड़ेगा । रोग का इलाज करने गये और वैद्य ने अंग्रेजी समझने को मना कर दिया तो वैद्य की भाषा में बोलना ही पड़ेगा । श्रोताओं ने कहा कि अंग्रेजी बोलोगे तो हम मत नहीं देंगे तो उनकी भाषा में ही बोलना पड़ेगा । जिस लडकी के प्रेम में पड़े उसने अंग्रेजी समझने को मना कर दिया तो उसकी भाषा में बोलना ही पड़ेगा । इस प्रकार अपनी |
| आवश्यकता निर्माण की और फिर अंग्रेजी सुनने, | | आवश्यकता निर्माण की और फिर अंग्रेजी सुनने, |
| समझने, बोलने को मना कर देने वालों से अंग्रेजी का भूत सहम जाता है । | | समझने, बोलने को मना कर देने वालों से अंग्रेजी का भूत सहम जाता है । |
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| * विद्यालय द्वारा आयोजित भाषण या. निबन्ध प्रतियोगिता में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को सहभागी नहीं होने दिया जायेगा । केवल भाषण या निबन्ध प्रतियोगिता में ही क्यों किसी भी समारोह में सहभागी नहीं होने दिया जायेगा । | | * विद्यालय द्वारा आयोजित भाषण या. निबन्ध प्रतियोगिता में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को सहभागी नहीं होने दिया जायेगा । केवल भाषण या निबन्ध प्रतियोगिता में ही क्यों किसी भी समारोह में सहभागी नहीं होने दिया जायेगा । |
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− | * रोटरी, जेसीझ जैसे संगठन देशी भाषा भाषी लोगों ने बनाने चाहिये और उसमें अंग्रेजी बोलने वाले लोगों को प्रतिबन्धित करना चाहिये । | + | * रोटरी, जेसीझ जैसे संगठन देशी भाषा भाषी लोगोंं ने बनाने चाहिये और उसमें अंग्रेजी बोलने वाले लोगोंं को प्रतिबन्धित करना चाहिये । |
| भूत को भगाने का सबसे कारगर उपाय उसकी उपेक्षा करना है । उपेक्षा के यहाँ बनाये हैं उससे अधिक अशिष्ट अनेक मार्ग हो सकते हैं । जिसे जो उचित लगे वह अपनाना चाहिये । मुद्दा यह है कि स्वाभिमान मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यक्त होना चाहिये, बौद्धिक से काम नहीं चलेगा । | | भूत को भगाने का सबसे कारगर उपाय उसकी उपेक्षा करना है । उपेक्षा के यहाँ बनाये हैं उससे अधिक अशिष्ट अनेक मार्ग हो सकते हैं । जिसे जो उचित लगे वह अपनाना चाहिये । मुद्दा यह है कि स्वाभिमान मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यक्त होना चाहिये, बौद्धिक से काम नहीं चलेगा । |
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− | वस्तुस्थिति यह है कि जिस दिन अमेरिका को पता चल जायेगा कि भारत के लोग अंग्रेजी बोलना नहीं चाहते, अपनी ही भाषा बोलने का आग्रह रखते हैं उसी दिन से अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग शुरू हो जायेंगे । धार्मिक भाषा के शत्रु और अंग्रेजी से मोहित धार्मिक ही हैं, और कोई नहीं यह समझ लेने की आवश्यकता है । | + | वस्तुस्थिति यह है कि जिस दिन अमेरिका को पता चल जायेगा कि भारत के लोग अंग्रेजी बोलना नहीं चाहते, अपनी ही भाषा बोलने का आग्रह रखते हैं उसी दिन से अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग आरम्भ हो जायेंगे । धार्मिक भाषा के शत्रु और अंग्रेजी से मोहित धार्मिक ही हैं, और कोई नहीं यह समझ लेने की आवश्यकता है । |
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− | सज्जन, बुद्धिमान, समाजाभिमुख लोगों को इतना कठोर होना अच्छा नहीं लगता । वे इस प्रकार के उपायों को अपनाने को सिद्ध भी नहीं होते और उन्हें मान्यता भी नहीं देते । इसलिये भूत अधिक प्रभावी बनता है । ऐसे सज्जनों के समक्ष कठोर उपाय करने वाले हार जाते हैं और भूत मुस्कुराता है परन्तु सज्जन अपनी सज्जनता छोड़ते ही नहीं । यह अंग्रेजी को परास्त करने के रास्ते में बडा अवरोध है | | + | सज्जन, बुद्धिमान, समाजाभिमुख लोगोंं को इतना कठोर होना अच्छा नहीं लगता । वे इस प्रकार के उपायों को अपनाने को सिद्ध भी नहीं होते और उन्हें मान्यता भी नहीं देते । इसलिये भूत अधिक प्रभावी बनता है । ऐसे सज्जनों के समक्ष कठोर उपाय करने वाले हार जाते हैं और भूत मुस्कुराता है परन्तु सज्जन अपनी सज्जनता छोड़ते ही नहीं । यह अंग्रेजी को परास्त करने के रास्ते में बडा अवरोध है | |
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| “हमें अंग्रेजी से विरोध नहीं है, अंग्रेजीपन से विरोध है' ऐसा कहनेवाला एक बहुत बडा वर्ग है । यह वर्ग अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय चलने का विरोध करता है परन्तु मातृभाषा माध्यम के विद्यालयों में अच्छी अंग्रेजी पढ़ाने का आग्रह करता हैं। इस तर्क में दम है ऐसा लगता है परन्तु यह आभासी तर्क है । इसके चलते इस वर्ग को न अंग्रेजी आती है न वे अंग्रेजी को छोड सकते हैं । भूत ताक में रहता है । ऐसे विद्यालय या तो अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में परिवर्तित हो जाते हैं या तो इनमें प्रवेश की संख्या कम हो जाती है। और उसकी अआप्रतिष्ठा हो जाती है । न ये अंग्रेजी अपना | | “हमें अंग्रेजी से विरोध नहीं है, अंग्रेजीपन से विरोध है' ऐसा कहनेवाला एक बहुत बडा वर्ग है । यह वर्ग अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय चलने का विरोध करता है परन्तु मातृभाषा माध्यम के विद्यालयों में अच्छी अंग्रेजी पढ़ाने का आग्रह करता हैं। इस तर्क में दम है ऐसा लगता है परन्तु यह आभासी तर्क है । इसके चलते इस वर्ग को न अंग्रेजी आती है न वे अंग्रेजी को छोड सकते हैं । भूत ताक में रहता है । ऐसे विद्यालय या तो अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में परिवर्तित हो जाते हैं या तो इनमें प्रवेश की संख्या कम हो जाती है। और उसकी अआप्रतिष्ठा हो जाती है । न ये अंग्रेजी अपना |
| सकते हैं न विद्यालय को बचा सकते हैं। ये न | | सकते हैं न विद्यालय को बचा सकते हैं। ये न |
− | इधर के रहते हैं न उधर के । फिर भी अंग्रेजी का | + | इधर के रहते हैं न उधर के । तथापि अंग्रेजी का |
| विरोध करने वालों को अन्तिमवादी कहकर उनका | | विरोध करने वालों को अन्तिमवादी कहकर उनका |
| मनोबल गिराते रहते हैं । | | मनोबल गिराते रहते हैं । |
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| ७. जिनको लगता है कि ज्ञानविज्ञान की, कानून और | | ७. जिनको लगता है कि ज्ञानविज्ञान की, कानून और |
− | कोपोरेट की, तन्त्रज्ञान और मेनेजमेन्ट की भाषा अंग्रेजी है और इन क्षेत्रों में यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी है तो अंग्रेजी अनिवार्य है उन लोगों को सावधान होने की आवश्यकता है । और इनसे भी सावधान होने की आवश्यकता है । इन मार्गों से अंग्रेजीयत हमारे ज्ञानक्षेत्र को, समाऊक्षेत्र को, अर्थक्षेत्र को ग्रस्त कर रही है। हम ज्ञानक्षेत्र को धार्मिक बनाना चाहते हैं तो इन क्षेत्रों को भी तो धार्मिक बनाना पडेगा । क्या हमें अभी भी समझना बाकी है कि कोपोरेट क्षेत्र ने देश के अर्थतन्त्र को, विश्वविद्यालयों ने देश के ज्ञानक्षेत्र को और मनेनेजमेन्ट क्षेत्र ने मनुष्य को संसाधन बनाकर सांस्कृतिक क्षेत्र को तहसनहस कर दिया है ? इन क्षेत्रों में अंग्रेजी की प्रतिष्ठा है । बडी बडी यन्त्रस्चना ने मनुष्यों को मजदूर बना दिया, पर्यावरण का नाश कर दिया, उस तन्त्रविज्ञान के लिये हम अंग्रेजी का ज्ञान चाहते हैं । अर्थात् राक्षसों की दुनिया में प्रवेश करने के लिये हम उनकी भाषा चाहते हैं । हम बहाना बनाते हैं कि हम उनके ही शख्र से उन्हें समझाकर, उन्हें जीत कर अपना बना लेंगे । उन्हें जीतकर उन्हें अपना लेने का उद्देश्य तो ठीक है | + | कोपोरेट की, तन्त्रज्ञान और मेनेजमेन्ट की भाषा अंग्रेजी है और इन क्षेत्रों में यश और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी है तो अंग्रेजी अनिवार्य है उन लोगोंं को सावधान होने की आवश्यकता है । और इनसे भी सावधान होने की आवश्यकता है । इन मार्गों से अंग्रेजीयत हमारे ज्ञानक्षेत्र को, समाऊक्षेत्र को, अर्थक्षेत्र को ग्रस्त कर रही है। हम ज्ञानक्षेत्र को धार्मिक बनाना चाहते हैं तो इन क्षेत्रों को भी तो धार्मिक बनाना पड़ेगा । क्या हमें अभी भी समझना बाकी है कि कोपोरेट क्षेत्र ने देश के अर्थतन्त्र को, विश्वविद्यालयों ने देश के ज्ञानक्षेत्र को और मनेनेजमेन्ट क्षेत्र ने मनुष्य को संसाधन बनाकर सांस्कृतिक क्षेत्र को तहसनहस कर दिया है ? इन क्षेत्रों में अंग्रेजी की प्रतिष्ठा है । बडी बडी यन्त्रस्चना ने मनुष्यों को मजदूर बना दिया, पर्यावरण का नाश कर दिया, उस तन्त्रविज्ञान के लिये हम अंग्रेजी का ज्ञान चाहते हैं । अर्थात् राक्षसों की दुनिया में प्रवेश करने के लिये हम उनकी भाषा चाहते हैं । हम बहाना बनाते हैं कि हम उनके ही शख्र से उन्हें समझाकर, उन्हें जीत कर अपना बना लेंगे । उन्हें जीतकर उन्हें अपना लेने का उद्देश्य तो ठीक है |
| क्योंकि वे अपने हैं, परन्तु उन्हें जीतने का मार्ग | | क्योंकि वे अपने हैं, परन्तु उन्हें जीतने का मार्ग |
| ठीक नहीं है यह इतने वर्षों के अनुभव ने सिद्ध कर | | ठीक नहीं है यह इतने वर्षों के अनुभव ने सिद्ध कर |
− | दिया है। हम ही परास्त होते रहे हैं यह क्या वास्तविकता नहीं है ? हम कभी तो आठवीं कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाना शुरू करते थे । फिर पाँचवीं से शुरू किया, फिर तीसरी से, फिर पहली से । अब पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में पढाते हैं । अब अंग्रेजी माध्यम का आग्रह बढ़ा है । यश तो हमें आठवीं से अंग्रेजी माध्यम नहीं, अंग्रेजी भाषा प्रारम्भ करते थे तब अधिक मिल रहा था । फिर क्या हुआ ? हम किसे जीतने के लिये चले हैं? जिन्हें जीतने की बात कर रहे हैं वह दुनिया तो हमें मूर्ख और पिछडे मानती है क्योंकि हमें अंग्रेजी नहीं आती । कदाचित सज्जनता और अन्य गुर्णों के कारण से हमारा सम्मान भी करती है तब भी अंग्रेजी की बात आते ही चुप हो जाती है । हमारे साथ चर्चा करना नहीं चाहती । क्या हम यह सब जानते नहीं ? अनुभव नहीं करते ? परिस्थिति अधिकाधिक खराब होती जा रही है यह तो हम देख ही रहे हैं। अब हमें अंग्रेजी को नकारने के | + | दिया है। हम ही परास्त होते रहे हैं यह क्या वास्तविकता नहीं है ? हम कभी तो आठवीं कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाना आरम्भ करते थे । फिर पाँचवीं से आरम्भ किया, फिर तीसरी से, फिर पहली से । अब पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में पढाते हैं । अब अंग्रेजी माध्यम का आग्रह बढ़ा है । यश तो हमें आठवीं से अंग्रेजी माध्यम नहीं, अंग्रेजी भाषा प्रारम्भ करते थे तब अधिक मिल रहा था । फिर क्या हुआ ? हम किसे जीतने के लिये चले हैं? जिन्हें जीतने की बात कर रहे हैं वह दुनिया तो हमें मूर्ख और पिछडे मानती है क्योंकि हमें अंग्रेजी नहीं आती । कदाचित सज्जनता और अन्य गुर्णों के कारण से हमारा सम्मान भी करती है तब भी अंग्रेजी की बात आते ही चुप हो जाती है । हमारे साथ चर्चा करना नहीं चाहती । क्या हम यह सब जानते नहीं ? अनुभव नहीं करते ? परिस्थिति अधिकाधिक खराब होती जा रही है यह तो हम देख ही रहे हैं। अब हमें अंग्रेजी को नकारने के |
| नये अधिक प्रभावी, अधिक सही मार्ग अपनाने की आवश्यकता है । इनमें से एक यहाँ बताया गया है यह मनोवैज्ञानिक उपाय है । | | नये अधिक प्रभावी, अधिक सही मार्ग अपनाने की आवश्यकता है । इनमें से एक यहाँ बताया गया है यह मनोवैज्ञानिक उपाय है । |
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| ८. जिन बातों के लिये हमें अंग्रेजी की आवश्यकता लगती है उन बातों के धार्मिक पर्याय निर्माण करना अधिक प्रभावी और अधिक सही उपाय है । | | ८. जिन बातों के लिये हमें अंग्रेजी की आवश्यकता लगती है उन बातों के धार्मिक पर्याय निर्माण करना अधिक प्रभावी और अधिक सही उपाय है । |
− | सामर्थ्य के बिना विजय प्राप्त नहीं होती । क्या चिकित्साविज्ञान, तन्त्रविज्ञान, उद्योगतन्त्र, प्रबन्धन धार्मिक भाषा में नहीं सीखा जायेगा । लोग तर्क देते हैं कि इन विषयों की पुस्तकें धार्मिक भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। तो इन्हें धार्मिक भाषाओं में लिखने से कौन रोकता है ? क्या इतने बडे देश में ऐसे विद्वान नहीं मिलेंगे ? अवश्य मिलेंगे । फिर क्यों नहीं लिखते ? अंग्रेजी में उपलब्ध है फिर कया आवश्यकता है ऐसा हम कहते हैं। धार्मिक भाषाओं में इन विषयों की पारिभाषिक शब्दावलि उपलब्ध नहीं है ऐसा कहते हैं । यह भी मिथ्या तर्क है क्योंकि शब्दावलि रची जा सकती है । धार्मिक भाषाओं की शब्दावलि अतिशय जटिल और कठिन | + | सामर्थ्य के बिना विजय प्राप्त नहीं होती । क्या चिकित्साविज्ञान, तन्त्रविज्ञान, उद्योगतन्त्र, प्रबन्धन धार्मिक भाषा में नहीं सीखा जायेगा । लोग तर्क देते हैं कि इन विषयों की पुस्तकें धार्मिक भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। तो इन्हें धार्मिक भाषाओं में लिखने से कौन रोकता है ? क्या इतने बडे देश में ऐसे विद्वान नहीं मिलेंगे ? अवश्य मिलेंगे । फिर क्यों नहीं लिखते ? अंग्रेजी में उपलब्ध है फिर क्या आवश्यकता है ऐसा हम कहते हैं। धार्मिक भाषाओं में इन विषयों की पारिभाषिक शब्दावलि उपलब्ध नहीं है ऐसा कहते हैं । यह भी मिथ्या तर्क है क्योंकि शब्दावलि रची जा सकती है । धार्मिक भाषाओं की शब्दावलि अतिशय जटिल और कठिन |
| होती है ऐसा कहते हैं । ऐसा कैसे हो सकता है ? यह तो परिचय का प्रश्न है । परिचय बढ़ता जायेगा तो वह सरल और सहज होती जायेगी । हम अनुवाद भी तो कर सकते हैं । | | होती है ऐसा कहते हैं । ऐसा कैसे हो सकता है ? यह तो परिचय का प्रश्न है । परिचय बढ़ता जायेगा तो वह सरल और सहज होती जायेगी । हम अनुवाद भी तो कर सकते हैं । |
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| ==References== | | ==References== |
| <references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे | | <references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |
− | [[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]] | + | [[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]] |
| [[Category:Education Series]] | | [[Category:Education Series]] |
| [[Category:धार्मिक शिक्षा : धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम]] | | [[Category:धार्मिक शिक्षा : धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम]] |
| + | [[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 3: विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ]] |