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| − | भारतीय जीवनदृष्टि
| + | {{One source|date=March 2019}} |
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| | + | कृपया [[Jeevan Ka Pratiman (जीवन का प्रतिमान)|यह]] लेख व [[Jeevan Ka Pratiman- Part 2 (जीवन का प्रतिमान- भाग 2)|यह]] लेख भी देखें। |
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| | इस विश्व में अनेक राष्ट्र हैं और हर राष्ट्र का अपना | | इस विश्व में अनेक राष्ट्र हैं और हर राष्ट्र का अपना |
| − | अपना स्वभाव होता है । स्वभाव के अनुसार उसका स्वधर्म | + | अपना स्वभाव होता है। स्वभाव के अनुसार उसका स्वधर्म |
| − | बनता है । स्वभाव और स्वधर्म के अनुसार हर राष्ट्र की | + | बनता है। स्वभाव और स्वधर्म के अनुसार हर राष्ट्र की |
| − | जीवन और जगत को देखने की अपनी अपनी दृष्टि होती है । | + | जीवन और जगत को देखने की अपनी अपनी दृष्टि होती है। |
| | उस दृष्टि के अनुसार हर राष्ट्र की जीवनशैली विकसित होती | | उस दृष्टि के अनुसार हर राष्ट्र की जीवनशैली विकसित होती |
| − | है, लोगों का मानस बनता है, व्यवहार होता है, उस | + | है, लोगोंं का मानस बनता है, व्यवहार होता है, उस |
| | व्यवहार के अनुरूप और अनुकूल व्यवस्थायें बनती हैं और | | व्यवहार के अनुरूप और अनुकूल व्यवस्थायें बनती हैं और |
| − | जीवन चलता है । | + | जीवन चलता है। |
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| − | भारत भी एक राष्ट्र है । उसकी अपनी जीवनदृष्टि है । | + | भारत भी एक राष्ट्र है। उसकी अपनी जीवनदृष्टि है। |
| − | उसके आधार पर एक जीवनशैली विकसित हुई है । उसके | + | उसके आधार पर एक जीवनशैली विकसित हुई है। उसके |
| − | अनुसार उसका जीवन युगों से चलता आ रहा है । | + | अनुसार उसका जीवन युगों से चलता आ रहा है। |
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| − | राष्ट्र की शिक्षा इस जीवनदृष्टि के अनुसार ही होती है । | + | राष्ट्र की शिक्षा इस जीवनदृष्टि के अनुसार ही होती है। |
| − | ऐसी होने पर वह जीवनदृष्टि को पुष्ट भी करती है । इसलिये | + | ऐसी होने पर वह जीवनदृष्टि को पुष्ट भी करती है। इसलिये |
| | शिक्षा का विचार करते समय जीवनदृष्टि का भी विचार करना | | शिक्षा का विचार करते समय जीवनदृष्टि का भी विचार करना |
| − | आवश्यक होता है । | + | आवश्यक होता है। |
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| − | भारतीय जीवनदृष्टि के प्रमुख आयाम इस प्रकार हैं
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| − | जीवन एक और अखण्ड है
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| − | भारत की दृष्टि हमेशा समग्रता की रही है । किसी भी
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| − | घटना या स्थिति के विषय में खण्ड खण्ड में विचार नहीं करना
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| − | भारत का स्वभाव है । जीवन को भी भारत एक और अखण्ड
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| − | मानता है । भारत जन्मजन्मान्तर को मानता है । जन्म के साथ
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| − | जीवन शुरू नहीं होता और मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होता ।
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| − | एक के बाद दूसरे जन्म में जीवन अखण्ड चलता रहता है ।
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| − | एक जन्म का और दूसरे जन्म का जीवन भिन्न नहीं होता ।
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| − | अनेक जन्मों में वह एक ही रहता है । केवल जन्मजन्मान्तर
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| − | में ही नहीं तो जगत में दिखने वाले असंख्य भिन्न भिन्न पदार्थों
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| − | में भी जीवन एक ही रहता है ।
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| − | इसका अर्थ यह हुआ कि एक जन्म का परिणाम दूसरे
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| − | जन्म पर होता है । हमारा इस जन्म का जीवन पूर्वजन्मों का
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| − | परिणाम है और इस जन्म के परिणामस्वरूप अगला जन्म
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| − | होने वाला है । इसमें से कर्म, कर्मफल और भाग्य का
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| − | कर्मसिद्धान्त बना है । यह सिद्धान्त कहता है कि हम जो
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| − | कर्म करते हैं उसके फल हमें भुगतने ही होते हैं , कुछ कर्मों
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| − | का फल तत्काल तो कुछ का फल कुछ समय बाद भुगतना
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| − | होता है । जब तक भुगत नहीं लेते तब तक वे संस्कारों के
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| − | रूप में संचित रहते हैं और चित्त में संग्रहीत होते हैं । इस
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| − | जन्म में नहीं भुगत लिए तो अगले जन्म में भुगतने होते हैं ।
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| − | कर्मफल भुगतते भुगतते नए कर्म बनते जाते हैं । कर्मों के
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| − | आधार पर पुनर्जन्म होता है । कर्मों के आधार पर जन्मभर
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| − | में कैसे भोग होंगे यह निश्चित होता है । कर्मसिद्धान्त के
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| − | साथ ही श्रीमद्धगवद्टीता द्वारा प्रतिपादित निष्काम कर्म, कर्म
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| − | के फल की अपेक्षा छोड़ देने पर मुक्ति का सिद्धान्त भी
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| − | समझ जाता है । जीवन की गतिविधियों को समझाने वाला
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| − | यह जन्म पुनर्जन्म का सिद्धान्त है जो भारतीय जीवनदृष्टि का
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| − | महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है ।
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| − | यह जगत असंख्य पदार्थों और जीवों से युक्त है । ये
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| − | सब अपने मूल रूप में एक हैं क्योंकि वे एक ही आत्मतत्त्व
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| − | का विस्तार हैं । जिस प्रकार गेहूँ से बने सारे पदार्थों में मूल
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| − | गेहूँ एक ही होता है, जिस प्रकार सोने से बने सारे
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| − | अलंकारों में मूल स्वर्ण एक ही होता है उसी प्रकार जगत में
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| − | दिखने वाले असंख्य पदार्थों में मूल तत्त्व एक ही होता है ।
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| − | इसलिए अवकाश की व्याप्ति में और काल के प्रवाह में
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| − | स्थित जन्मजन्मान्तर में जीवन एक ही होता है । इस बात
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| − | को समझकर ही भारतीय जीवन की व्यवस्था हुई है ।
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| − | जगत परमात्मा का विश्वरूप है
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| − | जीवन के मूल तत्त्व को भारतीय चिन्तन में अनेक
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| − | नामों से कहा गया है । कहीं ब्रह्म है, कहीं परब्रह्म है, कहीं
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| − | आत्मा है, कहीं परमात्मा है, कहीं ईश्वर है, कहीं परमेश्वर है,
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| − | पर्व १ : उपोद्धात
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| − | कहीं परम चैतन्य है, कहीं जगन्नियन्ता है, कहीं सीधा सादा... को भी मूल तत्त्व मानकर भारतीय
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| − | भगवान है । जैसी जिसकी मति वैसा नाम उस मूल तत्त्व को... जीवन की व्यवस्था हुई है । जगत में जितने भी सम्बन्ध हैं
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| − | मनीषियों ने दिया है । इसको लेकर ही ऋग्वेद कहता है, उनका आधारभूत तत्त्व प्रेम है, जितने भी सृजन और निर्माण
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| − | “एकं सत विप्रा: बहुधा व्दन्ति' अर्थात् सत्य एक है, मनीषी हैं उनका आधारभूत तत्त्व सौन्दर्य है, जितने भी कार्य हैं
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| − | उसे अलग अलग नाम देते हैं । यह मूल तत्त्व अव्यक्त, .. उनकी परिणति आनन्द है और जितने भी अनुभव हैं उनका
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| − | अचिंत्य, अकल्प्य, अदृश्य, अस्पर्श्य, अजर, अमर होता... आधारभूत तत्त्व ज्ञान है । सर्वत्र इन तत्त्वों का अनुभव करना
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| − | है । यह जगत या सृष्टि उस अव्यक्त तत्त्व का व्यक्त रूप है । ही जीवन को जानना है ।
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| − | व्यक्त रूप वैविध्य से युक्त है । यहाँ रस, रूप, स्पर्श, गंध इसके उदाहरण हमें सर्वत्र दिखाई देते हैं । कला,
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| − | आदि का अपरिमित वैविध्य है । सृष्टि का हर पदार्थ दूसरे... काव्य, साहित्य के सृजन में तो आनन्द आता ही है परन्तु
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| − | पदार्थ से किसी न किसी रूप में भिन्न है । परन्तु दिखाई देने... रोज रोज की सफाई करना, मिट्टी के पात्र बनाना, रुगण की
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| − | वाली भिन्नता में मूल तत्त्व का एकत्व है । मूल एकत्व और... परिचर्या करना, कपड़े सीना आदि कामों में भी वही आनन्द
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| − | दिखाई देने वाली भिन्नता एक ही तत्त्व के दो रूप हैं । इस. का अनुभव रहता है । राजा प्रजा के, मालिक नौकर के,
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| − | आधारभूत धारणा पर भारतीय जीवन की व्यवस्था हुई है।.. शिक्षक विद्यार्थी के सम्बन्ध में पितापुत्र के सम्बन्ध की
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| − | इस सृष्टि के सारे पदार्थ एकात्म सम्बन्ध से एकदूसरे से. आत्त्मीयता रहती है । आत्मीयता ही प्रेम है । प्रेम के कारण
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| − | जुड़े हुए हैं । एकात्मता का व्यावहारिक रूप चक्रीयता और .... सृष्टि में सौन्दर्य ही दिखाई देता है । आत्मीयता में ही विविध
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| − | परस्पर पूरकता है । सारे पदार्थ गतिशील और परिवर्तनशील स्वरूप में एकत्व का बोध रहता है । यही ज्ञान है ।
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| − | हैं। पदार्थों की गति वृत्तीय है । वे जहाँ से आए हैं वहीं यह आध्यात्मिक जीवनदृष्टि है। आत्मतत्त्त को
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| − | वापस जाते हैं । इस प्रकार एक वृत्त पूर्ण होकर दूसरा वृत्त. अधिष्ठान के रूप में स्वीकार कर जो स्थित है वही
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| − | शुरू होता है । सारे पदार्थ जिसमें से बने हैं उसीमें वापस... आध्यात्मिक है । भारत की पहचान भी विश्व में आध्यात्मिक
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| − | विलीन होते हैं । गतिशीलता और परिवर्तनशीलता के साथ. देश की है |
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| − | ही परस्परावलम्बन और परस्परपूरकता भी सृष्टि में दिखाई
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| − | देती है । इन तत्त्वों के कारण सब एकदूसरे के पोषक बनते... मम जीवनदृष्टि
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| − | हैं । सब एकदूसरे के सहायक और एकदूसरे पर आधारित यह जीवनदृष्टि व्यवहार में विभिन्न स्वरूप धारण करती
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| − | हैं। इस तत्त्व को ध्यान में लेकर भारत के जीवन की... है। इस दृष्टि पर आधारित समाजव्यवस्था में गृहसंस्था
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| − | व्यवस्था हुई है । केन्द्रवर्ती है । गृहसंस्था का आधार ही एकात्मता है । गृह में
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| − | सृष्टि में दिखाई देने वाले या नहीं दिखाई देने वाले... प्रतिष्ठित एकात्मता का विस्तार वसुधैव कुट्म्बकम् तक होता
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| − | अस्तित्वधारी सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता है । उनका कोई... है। सबको अपना मानना क्योंकि सब एक हैं यह व्यवहार
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| − | न कोई प्रयोजन है । इस तत्त्व को स्वीकार कर भारत की... और सम्बन्ध का मूल सूत्र बनता है । वेदों का महावाक्य
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| − | जीवनशैली का विकास हुआ है । उनकी स्वतन्त्र सत्ता को... कहता है, सर्व खलु इद ब्रह्म अर्थात् यह सब वास्तव में ब्रह्म
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| − | स्वीकार करना उनका आदर करना और उनकी स्वतन्त्रता की... ही है । इस वेदवाक्य की प्रतीति हमें सर्वत्र होती है ।
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| − | रक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य बताया गया है । इस सृष्टि में ज्ञान है तो अज्ञान भी है, सत्य है तो
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| − | मूल अव्यक्त तत्त्व के भावात्मक रूप प्रेम, सौन्दर्य, असत्य भी है, जड़ है तो चेतन भी है, अच्छा है तो बुरा भी
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| − | ज्ञान और आनन्द हैं । जिस प्रकार आत्मतत्त्व सृष्टि की... है, इष्ट है तो अनिष्ट भी है, प्रकाश है तो अंधकार भी है |
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| − | विविधता के रूप में व्यक्त हुआ है उसी प्रकार ये सारे तत्व... अर्थात् सृष्टि का अव्यक्त रूप एक ही है परन्तु व्यक्त रूप
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| − | भी सृष्टि में विविध रूप धारण करके व्यक्त हुए हैं । इन तत्वों... द्न्द्वात्मक है । ये दोनों पक्ष हमेशा एकदूसरे के साथ ही रहते
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| − | हैं। दोमें से एक भी पूर्ण नष्ट नहीं
| + | भारतीय जीवनदृष्टि के प्रमुख आयाम इस प्रकार हैं<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय ३, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>: |
| − | होता । समय समय पर दो में से एक प्रभावी रहता है परन्तु
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| − | सम्पूर्ण समाप्त नहीं हो जाता । इस तत्त्व को स्वीकार कर ही
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| − | जीवन की सभी व्यवस्थायें बनाई गई हैं ।
| |
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| − | तथापि ज्ञान, सत्य, अच्छाई को ही व्यवहार में
| + | == जीवन एक और अखण्ड है == |
| − | आदर्श माना गया है । कोई किसीको असत्य या दुर्जनता का
| + | भारत की दृष्टि सदा समग्रता की रही है। किसी भी घटना या स्थिति के विषय में खण्ड खण्ड में विचार नहीं करना भारत का स्वभाव है। जीवन को भी भारत एक और अखण्ड मानता है। भारत जन्मजन्मान्तर को मानता है। जन्म के साथ जीवन आरम्भ नहीं होता और मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होता। एक के बाद दूसरे जन्म में जीवन अखण्ड चलता रहता है। एक जन्म का और दूसरे जन्म का जीवन भिन्न नहीं होता। अनेक जन्मों में वह एक ही रहता है। केवल जन्मजन्मान्तर में ही नहीं तो जगत में दिखने वाले असंख्य भिन्न भिन्न पदार्थों में भी जीवन एक ही रहता है। |
| − | व्यवहार करने को प्रोत्साहित नहीं करेगा । सब अच्छा ही
| |
| − | बनना चाहेंगे । ऐसा बनने के लिए ऋषि तप, दान, यज्ञ,
| |
| − | साधना, ज्ञानप्राप्ति के लिए हमेशा उपदेश देते हैं ।
| |
| | | | |
| − | समाजजीवन को आध्यात्मिक अधिष्ठान देने के लिए
| + | इसका अर्थ यह हुआ कि एक जन्म का परिणाम दूसरे जन्म पर होता है। हमारा इस जन्म का जीवन पूर्वजन्मों का परिणाम है और इस जन्म के परिणामस्वरूप अगला जन्म होने वाला है। इसमें से कर्म, कर्मफल और भाग्य का कर्मसिद्धान्त बना है। यह सिद्धान्त कहता है कि हम जो कर्म करते हैं उसके फल हमें भुगतने ही होते हैं, कुछ कर्मों का फल तत्काल तो कुछ का फल कुछ समय बाद भुगतना होता है। जब तक भुगत नहीं लेते तब तक वे संस्कारों के रूप में संचित रहते हैं और चित्त में संग्रहीत होते हैं। इस जन्म में नहीं भुगत लिए तो अगले जन्म में भुगतने होते हैं। कर्मफल भुगतते भुगतते नए कर्म बनते जाते हैं। कर्मों के आधार पर पुनर्जन्म होता है। कर्मों के आधार पर जन्मभर में कैसे भोग होंगे यह निश्चित होता है। कर्मसिद्धान्त के साथ ही श्रीमद्धगवद्टीता द्वारा प्रतिपादित निष्काम कर्म, कर्म के फल की अपेक्षा छोड़ देने पर मुक्ति का सिद्धान्त भी समझ जाता है। जीवन की गतिविधियों को समझाने वाला यह जन्म पुनर्जन्म का सिद्धान्त है जो भारतीय जीवनदृष्टि का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। |
| − | योगसूत्र अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के
| |
| − | पाँच सार्वभौम महाब्रतों का पालन करने का उपदेश देते हैं ।
| |
| − | अर्थात् भारतीय जीवनदृष्टि में अध्यात्म और भौतिकता
| |
| − | एकदूसरे से अलग नहीं रहते । आध्यात्मिकता सभी भौतिक
| |
| − | रचनाओं में अनुस्यूत रहती है । तत्त्व और व्यवहार की
| |
| − | एकात्मता इस जीवनदृष्टि का विशिष्ट लक्षण है । इसलिये
| |
| − | समाजजीवन के लिए समृद्धि और संस्कृति, अभ्युद्य और
| |
| − | निःश्रेयस साथ साथ ही रहते हैं ।
| |
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| − | खण्ड खण्ड में नहीं अपितु समग्रता में जीवन को
| + | यह जगत असंख्य पदार्थों और जीवों से युक्त है। ये सब अपने मूल रूप में एक हैं क्योंकि वे एक ही आत्मतत्व का विस्तार हैं। जिस प्रकार गेहूँ से बने सारे पदार्थों में मूल गेहूँ एक ही होता है, जिस प्रकार सोने से बने सारे अलंकारों में मूल स्वर्ण एक ही होता है उसी प्रकार जगत में दिखने वाले असंख्य पदार्थों में मूल तत्व एक ही होता है। अतः अवकाश की व्याप्ति में और काल के प्रवाह में स्थित जन्मजन्मान्तर में जीवन एक ही होता है। इस बात को समझकर ही भारतीय जीवन की व्यवस्था हुई है। |
| − | देखने के कारण यहाँ संघर्ष नहीं है, समन्वय है । यहाँ
| |
| − | व्यक्तिकेन्द्री नहीं अपितु परमेष्टीकेन्द्री विचार है । इस कारण
| |
| − | से एक के विरुद्ध दूसरा ऐसी धारणा नहीं बनती है । एक को | |
| − | मिलेगा तो दूसरे को नहीं मिलेगा ऐसी व्यवस्था नहीं है,
| |
| − | सबको अपनी आवश्यकता के अनुसार मिलेगा ऐसी श्रद्धा
| |
| − | है । जिन्हें भी उसने जन्म दिया है उन सबकी आवश्यकताओं
| |
| − | की पूर्ति प्रकृति करती है ऐसी धारणा के अनुसरण में किसी | |
| − | भी मनुष्य या प्राणी या पदार्थ की आवश्यकता की पूर्ति करने
| |
| − | को मनुष्य ने भी अपना धर्म बनाया है ।
| |
| | | | |
| − | सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है और मनुष्य उसमें
| + | == जगत परमात्मा का विश्वरूप है == |
| − | सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है । श्रुति कहती है कि परमात्मा ने
| + | जीवन के मूल तत्व को भारतीय चिन्तन में अनेक नामों से कहा गया है। कहीं ब्रह्म है, कहीं परब्रह्म है, कहीं आत्मा है, कहीं परमात्मा है, कहीं ईश्वर है, कहीं परमेश्वर है, कहीं परम चैतन्य है, कहीं जगन्नियन्ता है, कहीं सीधा सादा भगवान है। जैसी जिसकी मति वैसा नाम उस मूल तत्व को मनीषियों ने दिया है। इसको लेकर ही ऋग्वेद कहता है: ‘एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति' अर्थात् सत्य एक है, मनीषी उसे अलग अलग नाम देते हैं। यह मूल तत्व अव्यक्त अचिंत्य, अकल्प्य, अदृश्य, अस्पयं, अजर, अमर होता है। यह जगत या सृष्टि उस अव्यक्त तत्व का व्यक्त रूप है। व्यक्त रूप वैविध्य से युक्त है। यहाँ रस, रूप, स्पर्श, गंध आदि का अपरिमित वैविध्य है। सृष्टि का हर पदार्थ दूसरे पदार्थ से किसी न किसी रूप में भिन्न है। परन्तु दिखाई देने वाली भिन्नता में मूल तत्व का एकत्व है। मूल एकत्व और दिखाई देने वाली भिन्नता एक ही तत्व के दो रूप हैं। इस आधारभूत धारणा पर भारतीय जीवन की व्यवस्था हुई है। इस सृष्टि के सारे पदार्थ एकात्म सम्बन्ध से एकदूसरे से जुड़े हुए हैं। एकात्मता का व्यावहारिक रूप चक्रीयता और परस्पर पूरकता है। सारे पदार्थ गतिशील और परिवर्तनशील हैं। पदार्थों की गति वृत्तीय है। वे जहाँ से आए हैं वहीं वापस जाते हैं। इस प्रकार एक वृत्त पूर्ण होकर दूसरा वृत्त आरम्भ होता है। सारे पदार्थ जिसमें से बने हैं उसमें वापस विलीन होते हैं। गतिशीलता और परिवर्तनशीलता के साथ ही परस्परावलम्बन और परस्परपूरकता भी सृष्टि में दिखाई देती है। इन तत्वों के कारण सब एकदूसरे के पोषक बनते हैं। सब एक दूसरे के सहायक और एक दूसरे पर आधारित हैं। इस तत्व को ध्यान में लेकर भारत के जीवन की व्यवस्था हुई है। सृष्टि में दिखाई देने वाले या नहीं दिखाई देने वाले अस्तित्वधारी सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता है। उनका कोई न कोई प्रयोजन है। इस तत्व को स्वीकार कर भारत की जीवनशैली का विकास हुआ है। उनकी स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करना उनका आदर करना और उनकी स्वतन्त्रता की रक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य बताया गया है। मूल अव्यक्त तत्व के भावात्मक रूप प्रेम, सौन्दर्य, ज्ञान और आनन्द हैं। जिस प्रकार आत्मतत्व सृष्टि की विविधता के रूप में व्यक्त हुआ है उसी प्रकार ये सारे तत्व भी सृष्टि में विविध रूप धारण करके व्यक्त हुए हैं। इन तत्वों को भी मूल तत्व मानकर भारतीय जीवन की व्यवस्था हुई है। जगत में जितने भी सम्बन्ध हैं। उनका आधारभूत तत्व प्रेम है, जितने भी सृजन और निर्माण हैं उनका आधारभूत तत्व सौन्दर्य है, जितने भी कार्य है, उनकी परिणति आनन्द है और जितने भी अनुभव है उनका आधारभूत तत्व ज्ञान है। सर्वत्र इन तत्वों का अनुभव करना ही जीवन को जानना है। |
| − | मनुष्य को अपने प्रतिरूप में बनाया है । मनुष्य श्रेष्ठ है
| |
| − | इसलिए शेष सृष्टि उसके उपभोग के लिए बनी है यह
| |
| − | भारतीय दृष्टि नहीं है । श्रेष्ठ है इसलिए अपने से कनिष्ठ सभी | |
| − | प्राणियों और पदार्थों का रक्षण और पोषण करना उसका
| |
| − | कर्तव्य है । जीवन के सभी व्यवहारों में बड़प्पन के साथ | |
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| − |
| + | इसके उदाहरण हमें सर्वत्र दिखाई देते हैं। कला, काव्य, साहित्य के सृजन में तो आनन्द आता ही है परन्तु रोज रोज की सफाई करना, मिट्टी के पात्र बनाना, रुग्ण की परिचर्या करना, कपड़े सीना आदि कामों में भी वही आनन्द का अनुभव रहता है। राजा प्रजा के, मालिक नौकर के, शिक्षक विद्यार्थी के सम्बन्ध में पितापुत्र के सम्बन्ध की आत्मीयता रहती है। आत्मीयता ही प्रेम है। प्रेम के कारण सृष्टि में सौन्दर्य ही दिखाई देता है। आत्मीयता में ही विविध स्वरूप में एकत्व का बोध रहता है। यही ज्ञान है। यह आध्यात्मिक जीवनदृष्टि है। आत्मतत्व को अधिष्ठान के रूप में स्वीकार कर जो स्थित है वहीं आध्यात्मिक है। भारत की पहचान भी विश्व में आध्यात्मिक देश की है। |
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| + | == समग्र जीवनदृष्टि == |
| | + | यह जीवनदृष्टि व्यवहार में विभिन्न स्वरूप धारण करती है। इस दृष्टि पर आधारित समाजव्यवस्था में गृहसंस्था केन्द्रवर्ती है। गृहसंस्था का आधार ही एकात्मता है। गृह में प्रतिष्ठित एकात्मता का विस्तार वसुधैव कुटुम्बकम् तक होता है। सबको अपना मानना क्योंकि सब एक हैं यह व्यवहार और सम्बन्ध का मूल सूत्र बनता है। वेदों का महावाक्य कहता है, '''सर्वं खलु इदं ब्रह्म''' अर्थात् यह सब वास्तव में ब्रह्म ही है। इस वेदवाक्य की प्रतीति हमें सर्वत्र होती है। | इस सृष्टि में ज्ञान है तो अज्ञान भी है, सत्य है तो असत्य भी है, जड़़ है तो चेतन भी है, अच्छा है तो बुरा भी है, इष्ट है तो अनिष्ट भी है, प्रकाश है तो अंधकार भी है। अर्थात् सृष्टि का अव्यक्त रूप एक ही है परन्तु व्यक्त रूप द्वन्द्वात्मक है। ये दोनों पक्ष सदा एक दूसरे के साथ ही रहते हैं। दो में से एक भी पूर्ण नष्ट नहीं होता। समय समय पर दो में से एक प्रभावी रहता है परन्तु सम्पूर्ण समाप्त नहीं हो जाता। इस तत्व को स्वीकार कर ही जीवन की सभी व्यवस्थायें बनाई गई हैं। |
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| − | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
| + | तथापि ज्ञान, सत्य, अच्छाई को ही व्यवहार में आदर्श माना गया है। कोई किसी को असत्य या दुर्जनता का व्यवहार करने को प्रोत्साहित नहीं करेगा। सब अच्छा ही बनना चाहेंगे। ऐसा बनने के लिए ऋषि तप, दान, यज्ञ, साधना, ज्ञान प्राप्ति के लिए सदा उपदेश देते हैं। |
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| + | समाज जीवन को आध्यात्मिक अधिष्ठान देने के लिए योगसूत्र अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पाँच सार्वभौम महाव्रतों का पालन करने का उपदेश देते हैं अर्थात् भारतीय जीवनदृष्टि में अध्यात्म और भौतिकता एक दूसरे से अलग नहीं रहते। आध्यात्मिकता सभी भौतिक रचनाओं में अनुस्यूत रहती है। तत्व और व्यवहार की एकात्मता इस जीवनदृष्टि का विशिष्ट लक्षण है। इसलिये समाजजीवन के लिए समृद्धि और संस्कृति, अभ्युदय और निःश्रेयस साथ साथ ही रहते हैं। |
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| − | कर्तव्य और दायित्व तथा छोटेपन के साथ रक्षण का
| + | खण्ड खण्ड में नहीं अपितु समग्रता में जीवन को देखने के कारण यहाँ संघर्ष नहीं है, समन्वय है। यहाँ व्यक्तिकेन्द्री नहीं अपितु परमेष्टीकेन्द्री विचार है। इस कारण से एक के विरुद्ध दूसरा ऐसी धारणा नहीं बनती है। एक को मिलेगा तो दूसरे को नहीं मिलेगा ऐसी व्यवस्था नहीं है, सबको अपनी आवश्यकता के अनुसार मिलेगा ऐसी श्रद्धा है। जिन्हें भी उसने जन्म दिया है उन सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति करती है ऐसी धारणा के अनुसरण में किसी भी मनुष्य या प्राणी या पदार्थ की आवश्यकता की पूर्ति करने को मनुष्य ने भी अपना धर्म बनाया है। |
| − | अधिकार जुड़ा हुआ है । समाज की धारणा के लिए यह एक
| |
| − | उत्तम सन्तुलन की व्यवस्था है ।
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| − | भारतीय जीवनदृष्टि समग्रता में स्थिति को देखती है
| + | सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है और मनुष्य उसमें सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। श्रुति कहती है कि परमात्मा ने मनुष्य को अपने प्रतिरूप में बनाया है। मनुष्य श्रेष्ठ है, अतः शेष सृष्टि उसके उपभोग के लिए बनी है यह भारतीय दृष्टि नहीं है। श्रेष्ठ है, अतः अपने से कनिष्ठ सभी प्राणियों और पदार्थों का रक्षण और पोषण करना उसका कर्तव्य है। जीवन के सभी व्यवहारों में बड़प्पन के साथ कर्तव्य और दायित्व तथा छोटेपन के साथ रक्षण का अधिकार जुड़ा हुआ है। समाज की धारणा के लिए यह एक उत्तम सन्तुलन की व्यवस्था है। |
| − | इसका एक और लक्षण यह है कि वह वैश्विक विचार ही करती
| |
| − | है । सचराचर जगत का एकसाथ विचार करती है । इसलिए | |
| − | व्यक्ति तो दूर की बात है, राष्ट्र भी नहीं सोचता कि उसका
| |
| − | अकेले का विकास हो अथवा उसे अकेले को सबकुछ प्राप्त
| |
| − | हो और दूसरों का जो होना हो वह हो । सर्वे भवन्तु सुखिन:
| |
| − | ऐसी ही उसकी कामना होती है । जीवन की सभी व्यवस्थायें
| |
| − | भी इस भावना के अनुसार ही बनी होती है ।
| |
| | | | |
| − | संघर्ष नहीं सह अस्तित्व
| + | भारतीय जीवनदृष्टि समग्रता में स्थिति को देखती है, इसका एक और लक्षण यह है कि वह वैश्विक विचार ही करती है। सचराचर जगत का एकसाथ विचार करती है। अतः व्यक्ति तो दूर की बात है, राष्ट्र भी नहीं सोचता कि उसका अकेले का विकास हो अथवा उसे अकेले को सबकुछ प्राप्त हो और दूसरों का जो होना हो वह हो। सर्वे भवन्तु सुखिन: ऐसी ही उसकी कामना होती है। जीवन की सभी व्यवस्थायें भी इस भावना के अनुसार ही बनी होती है। |
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| − | संघर्ष का मूल स्पर्धा है और परिणाम हिंसा और | + | == संघर्ष नहीं सह अस्तित्व == |
| − | उसके बाद विनाश है । भारत के सामाजिक आचरण का | + | संघर्ष का मूल स्पर्धा है और परिणाम हिंसा और उसके बाद विनाश है। भारत के सामाजिक आचरण का प्रस्थानबिन्दु ही अहिंसा है जिसमें स्पर्धा और उसकी ही श्रंखला में आगे आने वाले संघर्ष, हिंसा और विनाश को स्थान नहीं है। इस कारण से ही भारत चिरंजीव रहा है। इस जीवनदृष्टि के अनुसार यदि विश्व चलता है तो पर्यावरण का प्रदूषण, बलात्कार, गुलामी जैसे महासंकट दूर होंगे इसमें कोई सन्देह नहीं। यह दृष्टि सहअस्तित्व को स्वीकार करने वाली है। जगत में जितने भी संप्रदाय, परंपरायें, शैलियाँ आदि हैं उन सबका सम्मान करने वाली है और जो भी सहअस्तित्व को नहीं मानते उनके साथ भी समायोजन करने की कला भी इसे अवगत है। |
| − | प्रस्थानबिन्दु ही अहिंसा है जिसमें स्पर्धा और उसकी ही | |
| − | शुँखला में आगे आने वाले संघर्ष, हिंसा और विनाश को
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| − | स्थान नहीं है। इस कारण से ही भारत चिरंजीव रहा है । इस | |
| − | जीवनदृष्टि के अनुसार यदि विश्व चलता है तो पर्यावरण का | |
| − | प्रदूषण, बलात्कार, गुलामी जैसे महासंकट दूर होंगे इसमें | |
| − | कोई सन्देह नहीं । यह दृष्टि सहअस्तित्व को स्वीकार करने | |
| − | वाली है । जगत में जितने भी संप्रदाय, परंपरायें, शैलियाँ | |
| − | आदि हैं उन सबका सम्मान करने वाली है और जो भी | |
| − | सहअस्तित्व को नहीं मानते उनके साथ भी समायोजन करने | |
| − | की कला भी इसे अवगत है । | |
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| − | सामान्य रूप से आध्यात्मिक जीवनदृष्टि को सादगी, | + | सामान्य रूप से आध्यात्मिक जीवनदृष्टि को सादगी, दारिद्रय, तपश्चर्या, संन्यास आदि से जोड़ा जाता है और भौतिकता से इसका विरोध है ऐसा प्रतिपादन होता है। भारत के दार्शनिक इतिहास ने यह सिद्ध किया है कि आध्यात्मिक जीवनदृष्टि सर्वाधिक समृद्धि की जनक होती है। आज विकास के जितने भी सूचकांक हैं वे सब इसमें समाविष्ट हो जाते हैं। इस दृष्टि को एक के बाद एक नई पीढ़ी को सिखाने का काम शिक्षा को करना है अतः शिक्षा का अधिष्ठान भी आध्यात्मिक होना चाहिए।आध्यात्मिक अधिष्ठान से युक्त शिक्षा ही भारतीय शिक्षा है। |
| − | दारिद्रय, तपश्चर्या, संन्यास आदि से जोड़ा जाता है और | + | == References == |
| − | भौतिकता से इसका विरोध है ऐसा प्रतिपादन होता है । | + | <references /> |
| − | भारत के दार्शनिक इतिहास ने यह सिद्ध किया है कि | |
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| − | है । आज विकास के जितने भी सूचकांक हैं वे सब इसमें
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| − | समाविष्ट हो जाते हैं । इस दृष्टि को एक के बाद एक नई | |
| − | पीढ़ी को सिखाने का काम शिक्षा को करना है इसलिए | |
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