Line 1: |
Line 1: |
− | ==== स्वायत्त शिक्षा ==== | + | {{ToBeEdited}}==== स्वायत्त शिक्षा ==== |
− | 1. शिक्षा धर्म सिखाती है । धर्म मनुष्य को पशु से भिन्न जीवन जीना सिखाता है। धर्म ही मनुष्य के मनुष्यत्व का मुख्य लक्षण है । इसलिए मनुष्य बिना शिक्षा के रह नहीं सकता | | + | 1. शिक्षा धर्म सिखाती है । धर्म मनुष्य को पशु से भिन्न जीवन जीना सिखाता है। धर्म ही मनुष्य के मनुष्यत्व का मुख्य लक्षण है । अतः मनुष्य बिना शिक्षा के रह नहीं सकता | |
| | | |
| 2. शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ प्रारम्भ से ही जुड़ी हुई है। मनुष्य अपना हर व्यवहार सीख सीख कर ही करता है। मनुष्य को पशु से भिन्न रखने के लिए प्रकृति ने ही ऐसी स्चना बनाई है। बिना शिक्षा के मनुष्य मनुष्य नहीं । | | 2. शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ प्रारम्भ से ही जुड़ी हुई है। मनुष्य अपना हर व्यवहार सीख सीख कर ही करता है। मनुष्य को पशु से भिन्न रखने के लिए प्रकृति ने ही ऐसी स्चना बनाई है। बिना शिक्षा के मनुष्य मनुष्य नहीं । |
| | | |
− | 3. मनुष्य का सीखना गर्भाधान के क्षण से ही शुरू हो जाता है। गर्भाधान मनुष्य के जीवन का प्रथम संस्कार होता है । इस संस्कार के साथ मनुष्य का इस जन्म का जीवन शुरू होता है । तब से शुरू होकर शिक्षा अंत्येष्टि संस्कार तक निरन्तर चलती रहती है । अंत्येष्टि इस जन्म के जीवन का अन्तिम संस्कार है । | + | 3. मनुष्य का सीखना गर्भाधान के क्षण से ही आरम्भ हो जाता है। गर्भाधान मनुष्य के जीवन का प्रथम संस्कार होता है । इस संस्कार के साथ मनुष्य का इस जन्म का जीवन आरम्भ होता है । तब से आरम्भ होकर शिक्षा अंत्येष्टि संस्कार तक निरन्तर चलती रहती है । अंत्येष्टि इस जन्म के जीवन का अन्तिम संस्कार है । |
| | | |
| 4. गर्भ, शिशु, बाल, किशोर, तरुण, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध आदि सभी अवस्थाओं में शिक्षा निर्तर चलती रहती है । संस्कार, क्रिया, अनुभव, विचार, विवेक और अनुभूति इसके क्रमश: स्वरूप हैं। शिक्षा से जो ज्ञानार्जन होता है उसके ही ये विविध रूप हैं । | | 4. गर्भ, शिशु, बाल, किशोर, तरुण, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध आदि सभी अवस्थाओं में शिक्षा निर्तर चलती रहती है । संस्कार, क्रिया, अनुभव, विचार, विवेक और अनुभूति इसके क्रमश: स्वरूप हैं। शिक्षा से जो ज्ञानार्जन होता है उसके ही ये विविध रूप हैं । |
Line 17: |
Line 17: |
| | | |
| ==== समाज का सहयोग ==== | | ==== समाज का सहयोग ==== |
− | 9. भारत ज्ञान को पवित्रतम सत्ता मानता है। वह सत्ता, धन, बल आदि से परे है । इसलिए वह wa और विक्रय का साधन नहीं है । इस अर्थ में भारत में शिक्षा अर्थनिरपेक्ष रही है । वह अर्थनिरपेक्ष रहे इसकी चिन्ता शिक्षक को करनी है । | + | 9. भारत ज्ञान को पवित्रतम सत्ता मानता है। वह सत्ता, धन, बल आदि से परे है । अतः वह wa और विक्रय का साधन नहीं है । इस अर्थ में भारत में शिक्षा अर्थनिरपेक्ष रही है । वह अर्थनिरपेक्ष रहे इसकी चिन्ता शिक्षक को करनी है । |
| | | |
− | 10. शिक्षक और विद्यार्थी के बीच होने वाला अध्ययन और अध्यापन स्वेच्छा, स्वतन्त्रता, जिज्ञासा, श्रद्धा और ज्ञाननिष्ठा से चलता है । विवशता, बाध्यता, स्वार्थ, अविनय, उदरपूर्ति का लक्ष्य इन्हें दूषित करते हैं । भारत में कभी ऐसा नहीं होता । | + | 10. शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य होने वाला अध्ययन और अध्यापन स्वेच्छा, स्वतन्त्रता, जिज्ञासा, श्रद्धा और ज्ञाननिष्ठा से चलता है । विवशता, बाध्यता, स्वार्थ, अविनय, उदरपूर्ति का लक्ष्य इन्हें दूषित करते हैं । भारत में कभी ऐसा नहीं होता । |
| | | |
| 11. भिक्षा, समिधा, दान और गुरुदक्षिणा शिक्षक और विद्यार्थी के योगक्षेम के साधन हैं; शुल्क और वेतन नहीं । शिक्षक और विद्यार्थी भिक्षा मांगते हैं, शिष्य समीत्पाणि होकर शिक्षा ग्रहण करने के लिए आता है, अध्ययन पूर्ण होने पर गुरुदक्षिणा देता है, समाज और राज्य दान देते हैं । यही शिक्षाक्षेत्र का अर्थव्यवहार है । | | 11. भिक्षा, समिधा, दान और गुरुदक्षिणा शिक्षक और विद्यार्थी के योगक्षेम के साधन हैं; शुल्क और वेतन नहीं । शिक्षक और विद्यार्थी भिक्षा मांगते हैं, शिष्य समीत्पाणि होकर शिक्षा ग्रहण करने के लिए आता है, अध्ययन पूर्ण होने पर गुरुदक्षिणा देता है, समाज और राज्य दान देते हैं । यही शिक्षाक्षेत्र का अर्थव्यवहार है । |
Line 25: |
Line 25: |
| १२. ज्ञान की पवित्रता और श्रेष्ठता की रक्षा करना अच्छे समाज का अनिवार्य कर्तव्य है क्योंकि यदि ज्ञान की श्रेष्ठता और पवित्रता नहीं रही तो समाज दीनहीन, दरिद्र और असंस्कृत बन जाता है, आसुरी और पाशवी वृत्तियाँ समाज को नाश की ओर ले जाती हैं। इसे ही अधर्म का अभ्युत्थान कहते हैं । | | १२. ज्ञान की पवित्रता और श्रेष्ठता की रक्षा करना अच्छे समाज का अनिवार्य कर्तव्य है क्योंकि यदि ज्ञान की श्रेष्ठता और पवित्रता नहीं रही तो समाज दीनहीन, दरिद्र और असंस्कृत बन जाता है, आसुरी और पाशवी वृत्तियाँ समाज को नाश की ओर ले जाती हैं। इसे ही अधर्म का अभ्युत्थान कहते हैं । |
| | | |
− | अध्यात्मनिष्ट शिक्षा | + | ==== अध्यात्मनिष्ट शिक्षा ==== |
− | | |
| 13. भारत में शिक्षा भौतिक नहीं अपितु आध्यात्मिक प्रक्रिया रही है क्योंकि भारत की. जीवनदृष्टि आध्यात्मिक है । जीवनदृष्टि के अनुरूप होना और जीवनदृष्टि को पुष्ट करना शिक्षा का स्वाभाविक लक्षण है । | | 13. भारत में शिक्षा भौतिक नहीं अपितु आध्यात्मिक प्रक्रिया रही है क्योंकि भारत की. जीवनदृष्टि आध्यात्मिक है । जीवनदृष्टि के अनुरूप होना और जीवनदृष्टि को पुष्ट करना शिक्षा का स्वाभाविक लक्षण है । |
| | | |
Line 37: |
Line 36: |
| 17. कर्मशिक्षा उद्योग की शिक्षा है । संन्यासी, अपाहिज, रुगण, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, शिशु आदि को छोड़ शेष सबके लिए कर्मशिक्षा अनिवार्य है । कर्मशिक्षा उत्पादकता का गुण है जिससे समाज समृद्ध होता है और किसीको आवश्यक वस्तुओं का अभाव नहीं रहता । | | 17. कर्मशिक्षा उद्योग की शिक्षा है । संन्यासी, अपाहिज, रुगण, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, शिशु आदि को छोड़ शेष सबके लिए कर्मशिक्षा अनिवार्य है । कर्मशिक्षा उत्पादकता का गुण है जिससे समाज समृद्ध होता है और किसीको आवश्यक वस्तुओं का अभाव नहीं रहता । |
| | | |
− | 18. शाख््रशिक्षा ज्ञान का क्षेत्र है । सर्वजनसमाज के लिए ज्ञान व्यवहार में अनुस्यूत होकर प्रवर्तित होता है, परंतु कुछ लोगों के लिए शास्त्रीय ज्ञान की साधना करने की आवश्यकता है । लोकव्यवहार की नित्य परिष्कृति के लिए, ज्ञानक्षेत्र में युगानुकूल परिवर्तन के लिए शास्त्रों के अध्ययन और अनुसन्धान की आवश्यकता होती है । समाज के एक वर्ग को ऐसा अध्ययन और अनुसन्धान करने की आवश्यकता होती है । इसके लिए शास्त्रशिक्षा है । यह सबके लिए आवश्यक नहीं है । | + | 18. शाख््रशिक्षा ज्ञान का क्षेत्र है । सर्वजनसमाज के लिए ज्ञान व्यवहार में अनुस्यूत होकर प्रवर्तित होता है, परंतु कुछ लोगोंं के लिए शास्त्रीय ज्ञान की साधना करने की आवश्यकता है । लोकव्यवहार की नित्य परिष्कृति के लिए, ज्ञानक्षेत्र में युगानुकूल परिवर्तन के लिए शास्त्रों के अध्ययन और अनुसन्धान की आवश्यकता होती है । समाज के एक वर्ग को ऐसा अध्ययन और अनुसन्धान करने की आवश्यकता होती है । इसके लिए शास्त्रशिक्षा है । यह सबके लिए आवश्यक नहीं है । |
| | | |
| 19. इसके बाद अनुभूति कि शिक्षा होती है जो इन सबसे परे होती है यह लौकिक शिक्षा नहीं है । यह पराविद्या का क्षेत्र है। इसे ब्रह्मविद्या या अध्यात्मविद्या कहते हैं । धर्मशिक्षा, कर्मशिक्षा या शस्त्रशिक्षा से अनुभूति होती भी है और नहीं भी होती । ये इसके कारण भी नहीं हैं और इसके विरोधी भी नहीं हैं । | | 19. इसके बाद अनुभूति कि शिक्षा होती है जो इन सबसे परे होती है यह लौकिक शिक्षा नहीं है । यह पराविद्या का क्षेत्र है। इसे ब्रह्मविद्या या अध्यात्मविद्या कहते हैं । धर्मशिक्षा, कर्मशिक्षा या शस्त्रशिक्षा से अनुभूति होती भी है और नहीं भी होती । ये इसके कारण भी नहीं हैं और इसके विरोधी भी नहीं हैं । |
| | | |
− | २०. भारत में ऐसी शिक्षा को व्यक्तित्व का अभिन्न अंग रत में ऐसी शिक्षा को व्यक्तित्व का अभिन्न अंग माना गया है। समाज में सब शिक्षित हों इसकी चिन्ता शिक्षक को करनी है और समाज ने शिक्षक के योगक्षेम की चिन्ता करनी है । ऐसी भारतीय शिक्षा की आज की अवस्था अत्यंत शोचनीय है । हमें उसकी चिन्ता करनी है । | + | २०. भारत में ऐसी शिक्षा को व्यक्तित्व का अभिन्न अंग रत में ऐसी शिक्षा को व्यक्तित्व का अभिन्न अंग माना गया है। समाज में सब शिक्षित हों इसकी चिन्ता शिक्षक को करनी है और समाज ने शिक्षक के योगक्षेम की चिन्ता करनी है । ऐसी धार्मिक शिक्षा की आज की अवस्था अत्यंत शोचनीय है । हमें उसकी चिन्ता करनी है । |