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| | मातापिता को भी यह सीखने की आवश्यकता होती है । ताडन की आवश्यकता होने पर नहीं करना और आवश्यकता नहीं होने पर भी करना गलत है, अपराध है, परिणामकारी नहीं है, उल्टे विपरीत परिणाम देनेवाला बन जाता है । पाँच वर्ष की आयु समाप्त होने पर बालक विद्यालय जाने लगता है । अब उसकी शिक्षा के दो केन्द्र हैं। एक है घर और दूसरा है विद्यालय । घर में मातापिता शिक्षक है जबकि विद्यालय में स्वयं शिक्षक ही है जो विद्यार्थी के मानस पिता की भूमिका निभाता है । अब बालक घर में पुत्र है (या पुत्री है) और विद्यालय में विद्यार्थी । घर में पुत्र के रूप में शिक्षा होती है, विद्यालय में विद्यार्थी के रूप में । घर में पाँच वर्ष की आयु तक माता की भूमिका मुख्य थी और पिता उसके सहयोगी थे, अब पिता की भूमिका प्रमुख है और माता उसकी सहयोगी है ।घर और विद्यालय की शिक्षा में कुछ बातें समान हो सकती हैं परन्तु अनेक बातें ऐसी हैं जो स्वतन्त्र हैं। | | मातापिता को भी यह सीखने की आवश्यकता होती है । ताडन की आवश्यकता होने पर नहीं करना और आवश्यकता नहीं होने पर भी करना गलत है, अपराध है, परिणामकारी नहीं है, उल्टे विपरीत परिणाम देनेवाला बन जाता है । पाँच वर्ष की आयु समाप्त होने पर बालक विद्यालय जाने लगता है । अब उसकी शिक्षा के दो केन्द्र हैं। एक है घर और दूसरा है विद्यालय । घर में मातापिता शिक्षक है जबकि विद्यालय में स्वयं शिक्षक ही है जो विद्यार्थी के मानस पिता की भूमिका निभाता है । अब बालक घर में पुत्र है (या पुत्री है) और विद्यालय में विद्यार्थी । घर में पुत्र के रूप में शिक्षा होती है, विद्यालय में विद्यार्थी के रूप में । घर में पाँच वर्ष की आयु तक माता की भूमिका मुख्य थी और पिता उसके सहयोगी थे, अब पिता की भूमिका प्रमुख है और माता उसकी सहयोगी है ।घर और विद्यालय की शिक्षा में कुछ बातें समान हो सकती हैं परन्तु अनेक बातें ऐसी हैं जो स्वतन्त्र हैं। |
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| − | विद्यालय में होता है वह घर में नहीं हो. आयाम हैं । | + | ''विद्यालय में होता है वह घर में नहीं हो. आयाम हैं ।'' |
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| − | सकता, घर में होता है वह विद्यालय में नहीं । हम यहाँ दस किसी भी वस्तु की कीमत कैसे निश्चित होती है यह | + | ''सकता, घर में होता है वह विद्यालय में नहीं । हम यहाँ दस किसी भी वस्तु की कीमत कैसे निश्चित होती है यह'' |
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| − | वर्ष की घर में होने वाली शिक्षा का ही विचार कर रहे हैं।.. समझना, वस्तु की गुणवत्ता की परीक्षा करना, महँगी और | + | ''वर्ष की घर में होने वाली शिक्षा का ही विचार कर रहे हैं।.. समझना, वस्तु की गुणवत्ता की परीक्षा करना, महँगी और'' |
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| − | विद्यालय में होने वाली शिक्षा का विचार “बालशिक्षा'.... मूल्यबान वस्तु का अन्तर समझना, हिसाब करना, | + | ''विद्यालय में होने वाली शिक्षा का विचार “बालशिक्षा'.... मूल्यबान वस्तु का अन्तर समझना, हिसाब करना,'' |
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| − | नामक अध्याय में पूर्व में ही की गई है । आवश्यक और अनावश्यक खर्च का अन्तर समझना, कम | + | ''नामक अध्याय में पूर्व में ही की गई है । आवश्यक और अनावश्यक खर्च का अन्तर समझना, कम'' |
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| − | दस वर्ष में घर में होनेवाली शिक्षा के आयाम इस... से कम खर्च में काम कैसे चलाना - ये सब अर्थसंयम के | + | ''दस वर्ष में घर में होनेवाली शिक्षा के आयाम इस... से कम खर्च में काम कैसे चलाना - ये सब अर्थसंयम के'' |
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| − | प्रकार हैं - आयाम है । खरीदी करने की कला अवगत होना, घर का | + | ''प्रकार हैं - आयाम है । खरीदी करने की कला अवगत होना, घर का'' |
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| − | खर्च कैसे चलता है इसका भान होना, किस बात पर | + | ''खर्च कैसे चलता है इसका भान होना, किस बात पर'' |
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| − | कितना खर्च होना चाहिये इसकी वरीयता समझना | + | ''कितना खर्च होना चाहिये इसकी वरीयता समझना'' |
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| − | यह ज्ञानेन्द्रियों की, और मुख्य रूप से मन की शिक्षा... किशोरवयीन सन्तानों से अपेक्षा की जानी चाहिये । उन्हें | + | ''यह ज्ञानेन्द्रियों की, और मुख्य रूप से मन की शिक्षा... किशोरवयीन सन्तानों से अपेक्षा की जानी चाहिये । उन्हें'' |
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| − | है। इन्ट्रियाँ और मन स्वभाव से स्वैराचारी €1 यह सब सिखाना मातापिता की बड़ी जिम्मेदारी है। जो | + | ''है। इन्ट्रियाँ और मन स्वभाव से स्वैराचारी €1 यह सब सिखाना मातापिता की बड़ी जिम्मेदारी है। जो'' |
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| − | व्यक्तित्वविकास में वे बड़ा अवरोध बनते हैं। वे यदि... मातापिता यह नहीं सिखाते उन्हें स्वयं को और सन्तानों को | + | ''व्यक्तित्वविकास में वे बड़ा अवरोध बनते हैं। वे यदि... मातापिता यह नहीं सिखाते उन्हें स्वयं को और सन्तानों को'' |
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| − | नियन्त्रण में रखे जाय तो बहुत उपयोगी हो सकते हैं क्योंकि... आगे चलकर भारी कीमत चुकानी पड़ती है । | + | ''नियन्त्रण में रखे जाय तो बहुत उपयोगी हो सकते हैं क्योंकि... आगे चलकर भारी कीमत चुकानी पड़ती है ।'' |
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| − | उनमें शक्ति बहुत है । उनको नियन्त्रण में रखना ही संयम (४) समयसंयम : धनवान हो या निर्धन, राजा हो | + | ''उनमें शक्ति बहुत है । उनको नियन्त्रण में रखना ही संयम (४) समयसंयम : धनवान हो या निर्धन, राजा हो'' |
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| − | है । बालअवस्था में संयम का स्वरूप कुछ इस प्रकार है - .... या रंक, अधिकारी हो या मजदूर, समय सबके पास समान | + | ''है । बालअवस्था में संयम का स्वरूप कुछ इस प्रकार है - .... या रंक, अधिकारी हो या मजदूर, समय सबके पास समान'' |
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| − | (१) स्वाद संयम : भोजन मनुष्य के हर तरह के. ही होता है। समय का उपयोग कैसे करना इसका सबसे | + | ''(१) स्वाद संयम : भोजन मनुष्य के हर तरह के. ही होता है। समय का उपयोग कैसे करना इसका सबसे'' |
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| − | विकास का साधन है परन्तु उसके लिये स्वादसंयम बहुत. सावधानीपूर्वक विचार करना है । अतः अनावश्यक कामों | + | ''विकास का साधन है परन्तु उसके लिये स्वादसंयम बहुत. सावधानीपूर्वक विचार करना है । अतः अनावश्यक कामों'' |
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| − | आवश्यक है । घर में जो बना है वह प्रेमपूर्वक खाना, यह. में समय बर्बाद नहीं करना, किसी काम को कम से कम | + | ''आवश्यक है । घर में जो बना है वह प्रेमपूर्वक खाना, यह. में समय बर्बाद नहीं करना, किसी काम को कम से कम'' |
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| − | अच्छा लगता है और यह नहीं ऐसा नहीं करना, भोजन के... समय में करना, अच्छी तरह करना ताकि फिर से न करना | + | ''अच्छा लगता है और यह नहीं ऐसा नहीं करना, भोजन के... समय में करना, अच्छी तरह करना ताकि फिर से न करना'' |
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| − | समय पेट भर खाना, सब खाना, थाली में जूठन नहीं. पड़े, अच्छे कामों के लिये समय निकालना, सारे काम | + | ''समय पेट भर खाना, सब खाना, थाली में जूठन नहीं. पड़े, अच्छे कामों के लिये समय निकालना, सारे काम'' |
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| − | छोड़ना, खाने के समय पर ही खाना आदि छोटी छोटी... यथासमय करना समय संयम है । इस प्रकार विविध उपायों | + | ''छोड़ना, खाने के समय पर ही खाना आदि छोटी छोटी... यथासमय करना समय संयम है । इस प्रकार विविध उपायों'' |
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| − | बातों का आग्रहपूर्वक पालन ही स्वाद संयम है । यह बहुत. से अपनी सन्तानों को संयम सिखाना मातापिता का परम | + | ''बातों का आग्रहपूर्वक पालन ही स्वाद संयम है । यह बहुत. से अपनी सन्तानों को संयम सिखाना मातापिता का परम'' |
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| − | कठिन है परन्तु उतना ही अधिक लाभकारी भी है । कर्तव्य है । बालक के चरित्रविकास में इसका बड़ा महत्त्व | + | ''कठिन है परन्तु उतना ही अधिक लाभकारी भी है । कर्तव्य है । बालक के चरित्रविकास में इसका बड़ा महत्त्व'' |
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| − | (2) वाणीसंयम : अच्छा बोलना, मधुर बोलना, . है। | + | ''(2) वाणीसंयम : अच्छा बोलना, मधुर बोलना, . है।'' |
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| − | आवश्यक हो वही बोलना, अनावश्यक बड़ बड़ नहीं | + | ''आवश्यक हो वही बोलना, अनावश्यक बड़ बड़ नहीं'' |
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| − | करना, अविनयपूर्वक नहीं बोलना, आदर, श्रद्धा, स्नेहपूर्वक | + | ''करना, अविनयपूर्वक नहीं बोलना, आदर, श्रद्धा, स्नेहपूर्वक'' |
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| − | बोलना, गाली या अपशब्द् नहीं बोलना, शुद्ध बोलना, मन की शिक्षाका यह दूसरा आयाम है । बड़ों की | + | ''बोलना, गाली या अपशब्द् नहीं बोलना, शुद्ध बोलना, मन की शिक्षाका यह दूसरा आयाम है । बड़ों की'' |
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| − | चीखना या चिछ्ठाना नहीं, शिष्ट भाषा का प्रयोग करना वाणी... आज्ञा का पालन करना ही चाहिये इसका आग्रह घर के | + | ''चीखना या चिछ्ठाना नहीं, शिष्ट भाषा का प्रयोग करना वाणी... आज्ञा का पालन करना ही चाहिये इसका आग्रह घर के'' |
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| − | संयम है । यह भी मन को संयमित करने में बहुत उपयोगी. सभी बड़ों का होना चाहिये । बड़ों को आज्ञा देना आना भी | + | ''संयम है । यह भी मन को संयमित करने में बहुत उपयोगी. सभी बड़ों का होना चाहिये । बड़ों को आज्ञा देना आना भी'' |
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| − | है। चाहिये । बड़ों की अनुमति के बिना कोई काम नहीं करना, | + | ''है। चाहिये । बड़ों की अनुमति के बिना कोई काम नहीं करना,'' |
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| − | (3) अर्थसंयम : आज के समय में तो इसकी. छिपा कर नहीं करना, कोई काम नहीं करने हेतु बहाने नहीं | + | ''(3) अर्थसंयम : आज के समय में तो इसकी. छिपा कर नहीं करना, कोई काम नहीं करने हेतु बहाने नहीं'' |
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| − | अत्यधिक आवश्यकता है। किसी भी चीजवस्तु का... बनाना, बड़ों ने बताया हुआ काम करना आदि अत्यन्त | + | ''अत्यधिक आवश्यकता है। किसी भी चीजवस्तु का... बनाना, बड़ों ने बताया हुआ काम करना आदि अत्यन्त'' |
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| − | अपव्यय नहीं करना, चीजों को सम्हालकर रखना, उन्हें... आवश्यक है । इस आयु की सन्तानों के लिए नियम बनाने | + | ''अपव्यय नहीं करना, चीजों को सम्हालकर रखना, उन्हें... आवश्यक है । इस आयु की सन्तानों के लिए नियम बनाने'' |
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| − | Gi, deat a फैंकना नहीं, मितव्ययिता का ध्यान... चाहिये । उदाहरण के fed wear जल्दी उठना, | + | ''Gi, deat a फैंकना नहीं, मितव्ययिता का ध्यान... चाहिये । उदाहरण के fed wear जल्दी उठना,'' |
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| − | रखना, अनावश्यक खर्च नहीं करना आदि अर्थसंयम के... प्रतिदिन व्यायाम करना, सायंकाल खेलना, सायंकाल सात | + | ''रखना, अनावश्यक खर्च नहीं करना आदि अर्थसंयम के... प्रतिदिन व्यायाम करना, सायंकाल खेलना, सायंकाल सात'' |
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| − | १, संयम | + | ''१, संयम'' |
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| − | २. अनुशासन, नियम पालन आदि | + | ''२. अनुशासन, नियम पालन आदि'' |
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| − | २०४ | + | ''२०४'' |
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| − | ............. page-221 ............. | + | ''............. page-221 .............'' |
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| − | पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा | + | ''पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा'' |
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| − | बजे से पूर्व घर में आ जाना आदि नियमों का पालन | + | बजे से पूर्व घर में आ जाना आदि नियमों का पालन सन्तानों के लिये अनिवार्य बनाना चाहिये । व्यवहार के अनेक नियम भी आवश्यक हैं । |
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| − | सन्तानों के लिये अनिवार्य बनाना चाहिये । व्यवहार के
| + | == घर के काम सिखाना == |
| | + | हर मनुष्य को आजीवन घर में ही रहना होता है । इस घर को चलाना घर के ही लोगों का काम होता है । घर चलाने के लिये घर के सारे काम आने चाहिये । कर्तव्यबुद्धि से और प्रेम से ये सारे काम करने का मानस बनना चाहिये । इस बात को ध्यान में रखकर मातापिता अपनी सन्तानों को घर के सारे काम सिखायें यह आवश्यक है । विद्यालय से समानान्तर दस वर्ष का पाठ्यक्रम पाँच वर्ष की आयु से प्रारम्भ होकर पन्द्रह वर्ष की आयु तक घर के सारे काम अच्छी तरह से, जिम्मेदारी पूर्वक, निपुणता से करना आना चाहिये । जो मातापिता अपनी सन्तानों को यह नहीं सिखाते वे उनका भला नहीं कर रहे हैं । आज ऐसा ही हो रहा है । यह सही है परन्तु इससे कठिनाई बढ़ रही है यह भी सत्य है । इस कठिनाई का सब अनुभव कर रहे हैं । इससे तो कम से कम पुनर्विचार की प्रेरणा मिलनी चाहिये । |
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| − | अनेक नियम भी आवश्यक हैं ।
| + | == तितिक्षा == |
| | + | संयम और अनुशासन के समान तितिक्षा भी महत्त्वपूर्ण गुण है । तितिक्षा का अर्थ है शारीरिक और मानसिक कष्ट सहने की शक्ति । ठण्डी, गरमी, भूख, जागरण आदि सहना, चलना, भागना, थककर चूर हो जाने पर भी काम करना, छोटी मोटी बीमारी को नहीं गिनना आदि शारीरिक तितिक्षा है । अवमानना, उपेक्षा, भय, लालच आदि से परेशान होकर सत्य का पक्ष नहीं छोड़ना मानसिक तितिक्षा है । संसार के अटेपटे व्यवहार में इस गुण की बहुत आवश्यकता होती है । |
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| − | ३. घर के काम सिखाना
| + | == मनुष्य को और परिस्थिति को समझना == |
| | + | संसार में टेढे और सीधे, कपटी और भोले, सज्जन और दुर्जन, गुण्डे और सेवाभावी, चतुर और शठ ऐसे अनेक प्रकार के लोग होते हैं । इन सबके व्यवहार बड़े अटपटे होते हैं । इन विविध स्वभाव वाले लोगों को जानना, उनके इरादे पहचानना और उनके साथ कैसे व्यवहार करना यह समझना बहुत बड़ा काम है । इसके लिये बहुत अच्छी शिक्षा की आवश्यकता होती है । इसे समय निकालकर, ध्यान देकर, परिश्रमपूर्वक सन्तानों को सिखाना मातापिता का ही दायित्व है । लोगों के ही समान स्थितियाँ भी अटपटी बनती हैं । जीवनपथ हमेशा फूलों से बिछा नहीं होता, कण्टकों से भी छाया हुआ होता है। कण्टकों को दूर करना एक काम है, संकटों को पार करना दूसरा काम है। समस्याओं को सुलझाना धैर्य और बुद्धिमानी का काम है । कैसी भी विपरीत स्थिति में हिम्मत नहीं हारना भी महत्तवपूर्ण शिक्षा है। चिन्ता, भय, तनाव, उत्तेजना, हताशा आदि से तथा आकर्षण, लोभ, लालच, खुशामद आदि से कैसे बचे रहना यह भी सिखाना चाहिये । |
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| − | हर मनुष्य को आजीवन घर में ही रहना होता है ।
| + | == परिश्रम == |
| | + | कठोर परिश्रम, मेहनत के काम और व्ययाम किशोर के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं । प्रतिदिन मैदानी खेल खेलना आवश्यक है । मजबूत और स्वस्थ शरीर होना मन अच्छा होने के लिये भी आवश्यक है । |
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| − | इस घर को चलाना घर के ही लोगों का काम होता है । घर | + | == स्त्रीत्व और पुरुषत्व का विकास == |
| | + | बालक और बालिका बारह या तेरह वर्षों के होते हैं तब स्त्रीत्व और पुरुषत्व के प्रति सजग होते हैं । उनके स्वभाव और व्यवहार में मनोवैज्ञानिक रूप से परिवर्तन होता है। विजातीय आकर्षण प्रारम्भ होता है । अपने आपको कभी वे छोटे मानते हैं तो कभी बड़े । कब छोटे होते हैं और कब बड़े इसका उन्हें भी पता नहीं चलता । कभी उन्हें मातापिता की छनत्रछाया चाहिये होती है कभी स्वतन्त्रता की चाह होती है । इस समय उन्हें सुरक्षा और स्वतन्त्रता देना, स्वतन्त्रता के साथ जिम्मेदारी जुड़ी है इसका अनुभव करवाना अत्यन्त आवश्यक है । जिनके घर में बारह से पन्द्रह वर्ष की आयु की सन्तानें हैं उन मातापिताओं को सावधान रहने की आवश्यकता होती है । इस समय संयम, अनुशासन, नियमपालन उन्हें बहुत उपयोगी होते हैं । चरित्र की रक्षा करने की इस समय बड़ी आवश्यकता होती है । |
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| − | चलाने के लिये घर के सारे काम आने चाहिये ।
| + | == स्वतन्त्रता की रक्षा == |
| | + | आयु की यह अवस्था पूर्ण होते होते बालक या बालिका को स्वतन्त्रता का आभास होता है । वह होना भी चाहिये क्योंकि हर किसी को अपने बलबूते पर ही अपना जीवन गढ़ना होता है । बच्चे जन्मते हैं तब स्वयं चल नहीं सकते इसलिये बड़े उन्हें गोद में उठाकर चलते हैं परन्तु समय आते ही उन्हें अपने पैरों से चलना होता है । शिशु को माता खिलाती है परन्तु समय आने पर उसे अपने हाथ से खाना ही होता है । उसी प्रकार से बाल किशोर अवस्था तक मातापिता की छत्रछाया में रहता है परन्तु तरुण अवस्था में आते ही उन्हें अपने ही भरोसे जीना है । |
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| − | कर्तव्यबुद्धि से और प्रेम से ये सारे काम करने का मानस
| + | मातापिता को चाहिये कि वे अपनी सन्तानों के हृदय में स्वतन्त्रता का अर्थ प्रतिष्ठित करें और व्यवहार में स्वतन्त्रता क्या होती है उसका अनुभव करवायें । अतः किशोर अवस्था में स्वतन्त्रता के प्रति ले जानेवाली शिक्षा देना आवश्यक है । उन्हें विचार करना सिखाना, कार्यकारण भाव समझाना, किसी भी घटना के कारण और परिणामों का विश्लेषण करना सिखाना अत्यन्त आवश्यक है । अनेक मातापिता अपने ढाई वर्ष के बच्चों को तो विद्यालय भेजने की जल्दी करते हैं और इधर पन्द्रह वर्ष के हो जाने पर भी बचकानापन करने वाली सन्तानों के विषय में चिन्तित नहीं होते । |
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| − | बनना चाहिये । इस बात को ध्यान में रखकर मातापिता | + | == भावी जीवन की तैयारी == |
| | + | पन्द्रह वर्ष की आयु होते होते भावी जीवन का आभास सन्तानों को होना चाहिये । भावी जीवन का अर्थ है गृहस्थाश्रम । बालिका को गृहिणी बनना है, बालक को गृहस्थ। बालिका को विवाह कर पति के घर जाना है, बालक को इस घर की गृहिणी लाना है । इस मामले में भी आज तो बच्चों जैसा ही नासमझी का व्यवहार होता है । परन्तु नासमझी को समझदारी में परिवर्तित करना मातापिता का काम है । भावी गृहस्थाश्रम के दो प्रमुख कार्य होंगे । |
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| − | अपनी सन्तानों को घर के सारे काम सिखायें यह आवश्यक
| + | एक होगा गृहसंचालन और दूसरा होगा अधथर्जिन । पन्द्रह वर्ष की आयु तक दोनों बातों की कल्पना यदि स्पष्ट होती है तो वह अत्यन्त लाभकारी होता है । अर्थात् अथर्जिन शुरू तो होगा दो चार वर्षों के बाद परन्तु उसकी निश्चिति होना आवश्यक है । विवाह होने के लिये तो अभी पर्याप्त समय है परन्तु कैसे परिवार में विवाह हो सकता है, होना चाहिये आदि की कल्पना स्पष्ट होना आवश्यक है । |
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| − | है । विद्यालय से समानान्तर दस वर्ष का पाठ्यक्रम पाँच | + | आज इन बातों में सहमति बनना जरा कठिन लगता है परन्तु शरीरविज्ञान, मनोविज्ञान, गृहविज्ञान, समाजविज्ञान, संस्कृतिशास्र आदि सभी शास्त्रों के अनुसार ऐसा होना अत्यन्त लाभकारी है । इन जीवनसिद्धान्तों को स्वीकार करने की मानसिक अनुकूलता बनाना मातापिता के लिये बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। परन्तु वह करना चाहिये । नियन्त्रणपूर्वक, जोर जबरदस्ती से कुछ नहीं हो सकता । अभी और बड़े होने पर वे कोई भी नियन्त्रण मानने वाले नहीं है । वह इष्ट भी नहीं है । इसलिये मातापिता को कठोर और मृदु एक साथ होना पड़ेगा । दोनों बातों की उन्हें आवश्यकता है । कई बार लोग कहते हैं कि कठोर होने से सन्तानों के मन में ग्रन्थियाँ बन जायेंगी और वे मानसिक रूप से परेशान होंगे । परन्तु ऐसा होता नहीं है । अभी उनकी विवेकशक्ति सक्रिय नहीं हुई है इसलिये नियन्त्रण की आवश्यकता तो है ही । नियन्त्रण के लिये कठोर भी होना पड़ेगा । उस समय सन्तान नाराज हो सकती हैं, दुखी भी हो सकती हैं । परन्तु अनेक किस्सों में देखा गया है कि बड़ी आयु में ये ही सन्तानें अपने मित्रों को या अपनी सन्तानों को बताती हैं कि उनके मातापिता ने उनके साथ कड़ाई करके उनका भला ही किया है । ऐसा सबके बारे में हो सकता है । |
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| − | वर्ष की आयु से प्रारम्भ होकर पन्द्रह वर्ष की आयु तक घर
| + | इस प्रकार दस वर्ष का यह समय चरित्रगठन का है । मातापिता के लिये यह बड़ा काम है । उन्होंने इसे पूरी गम्भीरता से लेना चाहिये । मातापिता केवल अपनी ही दुनिया में नहीं जी सकते, न अपनी सन्तानों को उनकी दुनिया में जीने दे सकते हैं । दो पीढ़ियों को साथ साथ जीना है, साथ साथ बढ़ना है। एकदूसरे के जीवन में सहभागी बनकर ही साथ जीना सम्भव हो सकता है। परस्पर विश्वास और मातापिता में श्रद्धा इस अवस्था की आवश्यकता है, श्रद्धय बनना मातापिता की परीक्षा है। सन्ताने अपने जीवन के लिये अपने ले सकें यह दोनों के लिये सौभाग्य का विषय है । इसका प्रारम्भ इस अवस्था में हो जाता है । इस प्रकार से घड़ा पक्का हो जाता है । कुम्हार अपने कार्य के लिये सन्तुष्टि का अनुभव कर सकता है । परन्तु घड़े को अभी अपनी योग्यता सिद्ध करनी शेष है । वह कितना मूल्यवान है, कितना उपयोगी है यह तो उसका प्रयोग शुरू होगा तब पता चलेगा । पके घड़े की शिक्षा का आगे का स्वरूप कैसा होगा यह अगले अध्याय में देखेंगे । |
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| − | के सारे काम अच्छी तरह से, जिम्मेदारी पूर्वक, निपुणता से
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| − | | |
| − | करना आना चाहिये । जो मातापिता अपनी सन्तानों को यह
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| − | | |
| − | नहीं सिखाते वे उनका भला नहीं कर रहे हैं । आज ऐसा ही
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| − | | |
| − | हो रहा है । यह सही है परन्तु इससे कठिनाई बढ़ रही है
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| − | | |
| − | यह भी सत्य है । इस कठिनाई का सब अनुभव कर रहे हैं ।
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| − | | |
| − | इससे तो कम से कम पुनर्विचार की प्रेरणा मिलनी चाहिये ।
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| − | ४. तितिक्षा
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| − | संयम और अनुशासन के समान तितिक्षा भी
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| − | महत्त्वपूर्ण गुण है । तितिक्षा का अर्थ है शारीरिक और
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| − | मानसिक कष्ट सहने की शक्ति । ठण्डी, गरमी, भूख,
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| − | | |
| − | जागरण आदि सहना, चलना, भागना, थककर चूर हो जाने
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| − | | |
| − | पर भी काम करना, छोटी मोटी बीमारी को नहीं गिनना
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| − | | |
| − | आदि शारीरिक तितिक्षा है । अवमानना, उपेक्षा, भय,
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| − | | |
| − | लालच आदि से परेशान होकर सत्य का पक्ष नहीं छोड़ना
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| − | | |
| − | मानसिक तितिक्षा है । संसार के अटेपटे व्यवहार में इस गुण
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| − | | |
| − | की बहुत आवश्यकता होती है ।
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| − | | |
| − | ५. मनुष्य को और परिस्थिति को समझना
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| − | | |
| − | संसार में टेढे और सीधे, कपटी और भोले, सज्जन
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| − | | |
| − | और दुर्जन, गुण्डे और सेवाभावी, चतुर और शठ ऐसे
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| − | | |
| − | अनेक प्रकार के लोग होते हैं । इन सबके व्यवहार बड़े
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| − | Fok
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| − | अटपटे होते हैं । इन विविध स्वभाव
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| − | | |
| − | वाले लोगों को जानना, उनके इरादे पहचानना और उनके
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| − | | |
| − | साथ कैसे व्यवहार करना यह समझना बहुत बड़ा काम है ।
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| − | | |
| − | इसके लिये बहुत अच्छी शिक्षा की आवश्यकता होती है ।
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| − | इसे समय निकालकर, ध्यान देकर, परिश्रमपूर्वक सन्तानों
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| − | | |
| − | को सिखाना मातापिता का ही दायित्व है । लोगों के ही
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| − | | |
| − | समान स्थितियाँ भी अटपटी बनती हैं । जीवनपथ हमेशा
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| − | | |
| − | फूलों से बिछा नहीं होता, कण्टकों से भी छाया हुआ होता
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| − | | |
| − | है। कण्टकों को दूर करना एक काम है, संकटों को
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| − | | |
| − | पार करना दूसरा काम है। समस्याओं को सुलझाना
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| − | | |
| − | धैर्य और बुद्धिमानी का काम है । कैसी भी विपरीत स्थिति
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| − | | |
| − | में हिम्मत नहीं हारना भी महत्तवपूर्ण शिक्षा है। चिन्ता,
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| − | | |
| − | भय, तनाव, उत्तेजना, हताशा आदि से तथा आकर्षण,
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| − | | |
| − | लोभ, लालच, खुशामद आदि से कैसे बचे रहना यह भी
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| − | | |
| − | सिखाना चाहिये ।
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| − | ६. परिश्रम
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| − | कठोर परिश्रम, मेहनत के काम और व्ययाम किशोर
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| − | के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं । प्रतिदिन मैदानी खेल
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| − | खेलना आवश्यक है । मजबूत और स्वस्थ शरीर होना मन
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| − | | |
| − | अच्छा होने के लिये भी आवश्यक है ।
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| − | ७. ख्रीत्व और पुरुषत्व का विकास
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| − | बालक और बालिका बारह या तेरह वर्षों के होते हैं
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| − | तब सख्त्रीत्व और पुरुषत्व के प्रति सजग होते हैं । उनके
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| − | स्वभाव और व्यवहार में मनोवैज्ञानिक रूप से परिवर्तन होता
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| − | है । विजातीय आकर्षण प्रारम्भ होता है । अपने आपको
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| − | कभी वे छोटे मानते हैं तो कभी बड़े । कब छोटे होते हैं
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| − | और कब बड़े इसका उन्हें भी पता नहीं चलता । कभी उन्हें
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| − | | |
| − | मातापिता की छनत्रछाया चाहिये होती है कभी स्वतन्त्रता की
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| − | चाह होती है । इस समय उन्हें सुरक्षा और स्वतन्त्रता देना,
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| − | | |
| − | स्वतन्त्रता के साथ जिम्मेदारी जुड़ी है इसका अनुभव
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| − | | |
| − | करवाना अत्यन्त आवश्यक है । जिनके घर में बारह से
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| − | | |
| − | पन्द्रह वर्ष की आयु की सन्तानें हैं उन मातापिताओं को
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| − | सावधान रहने की आवश्यकता होती है । इस समय संयम,
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| − | अनुशासन, नियमपालन उन्हें बहुत
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| − | उपयोगी होते हैं । चरित्र की रक्षा करने की इस समय बड़ी
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| − | आवश्यकता होती है ।
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| − | ८. स्वतन्त्रता की रक्षा
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| − | आयु की यह अवस्था पूर्ण होते होते बालक या
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| − | बालिका को स्वतन्त्रता का आभास होता है । वह होना भी
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| − | चाहिये क्योंकि हर किसी को अपने बलबूते पर ही अपना
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| − | जीवन गढ़ना होता है । बच्चे जन्मते हैं तब स्वयं चल नहीं
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| − | सकते इसलिये बड़े उन्हें गोद में उठाकर चलते हैं परन्तु
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| − | समय आते ही उन्हें अपने पैरों से चलना होता है । शिशु
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| − | को माता खिलाती है परन्तु समय आने पर उसे अपने हाथ
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| − | से खाना ही होता है । उसी प्रकार से बाल किशोर अवस्था
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| − | तक मातापिता की छत्रछाया में रहता है परन्तु तरुण
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| − | अवस्था में आते ही उन्हें अपने ही भरोसे जीना है ।
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| − | मातापिता को चाहिये कि वे अपनी सन्तानों के हृदय में
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| − | स्वतन्त्रता का अर्थ प्रतिष्ठित करें और व्यवहार में स्वतन्त्रता
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| − | क्या होती है उसका अनुभव करवायें । अतः किशोर
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| − | अवस्था में स्वतन्त्रता के प्रति ले जानेवाली शिक्षा देना
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| − | आवश्यक है । उन्हें विचार करना सिखाना, कार्यकारण भाव
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| − | समझाना, किसी भी घटना के कारण और परिणामों का
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| − | विश्लेषण करना सिखाना अत्यन्त आवश्यक है । अनेक
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| − | मातापिता अपने ढाई वर्ष के बच्चों को तो विद्यालय भेजने
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| − | की जल्दी करते हैं और इधर पन्द्रह वर्ष के हो जाने पर भी
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| − | बचकानापन करने वाली सन्तानों के विषय में चिन्तित नहीं
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| − | होते ।
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| − | ९. भावी जीवन की तैयारी
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| − | पन्द्रह वर्ष की आयु होते होते भावी जीवन का
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| − | आभास सन्तानों को होना चाहिये । भावी जीवन का अर्थ
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| − | है गृहस्थाश्रम । बालिका को गृहिणी बनना है, बालक को
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| − | गृहस्थ । बालिका को विवाह कर पति के घर जाना है,
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| − | बालक को इस घर की गृहिणी लाना है । इस मामले में भी
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| − | आज तो बच्चों जैसा ही नासमझी का व्यवहार होता है ।
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| − | परन्तु नासमझी को समझदारी में परिवर्तित करना मातापिता
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| − | २०६
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| − | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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| − | का काम है । भावी गृहस्थाश्रम के दो प्रमुख कार्य होंगे ।
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| − | एक होगा गृहसंचालन और दूसरा होगा अधथर्जिन । पन््द्रह
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| − | वर्ष की आयु तक दोनों बातों की कल्पना यदि स्पष्ट होती
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| − | है तो वह अत्यन्त लाभकारी होता है । अर्थात् अथर्जिन
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| − | शुरू तो होगा दो चार वर्षों के बाद परन्तु उसकी निश्चिति
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| − | होना आवश्यक है । विवाह होने के लिये तो अभी पर्याप्त
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| − | समय है परन्तु कैसे परिवार में विवाह हो सकता है, होना
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| − | चाहिये आदि की कल्पना स्पष्ट होना आवश्यक है । आज
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| − | इन बातों में सहमति बनना जरा कठिन लगता है परन्तु
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| − | शरीरविज्ञान, . मनोविज्ञान, . गृहविज्ञान, . समाजविज्ञान,
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| − | संस्कृतिशास्र आदि सभी शास्त्रों के अनुसार ऐसा होना
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| − | अत्यन्त लाभकारी है ।
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| − | इन जीवनसिद्धान्तों को स्वीकार करने की मानसिक
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| − | अनुकूलता बनाना मातापिता के लिये बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य
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| − | है। परन्तु वह करना चाहिये । नियन्त्रणपूर्वक, जोर
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| − | जबरदस्ती से कुछ नहीं हो सकता । अभी और बड़े होने पर
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| − | वे कोई भी नियन्त्रण मानने वाले नहीं है । वह इष्ट भी नहीं
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| − | है । इसलिये मातापिता को कठोर और मृदु एक साथ होना
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| − | पड़ेगा । दोनों बातों की उन्हें आवश्यकता है ।
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| − | कई बार लोग कहते हैं कि कठोर होने से सन्तानों के
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| − | मन में ग्रन्थियाँ बन जायेंगी और वे मानसिक रूप से परेशान
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| − | होंगे । परन्तु ऐसा होता नहीं है । अभी उनकी विवेकशक्ति
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| − | सक्रिय नहीं हुई है इसलिये नियन्त्रण की आवश्यकता तो है
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| − | ही । नियन्त्रण के लिये कठोर भी होना पड़ेगा । उस समय
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| − | SHI नाराज हो सकती हैं, Gat भी हो सकती हैं । परन्तु
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| − | अनेक किस्सों में देखा गया है कि बड़ी आयु में ये ही
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| − | सन्तानें अपने मित्रों को या अपनी सन्तानों को बताती हैं
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| − | कि उनके मातापिता ने उनके साथ कड़ाई करके उनका भला
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| − | ही किया है । ऐसा सबके बारे में हो सकता है ।
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| − | इस प्रकार दस वर्ष का यह समय चरित्रगठन का है । | |
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| − | मातापिता के लिये यह बड़ा काम है । उन्होंने इसे पूरी | |
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| − | गम्भीरता से लेना चाहिये । मातापिता केवल अपनी ही | |
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| − | दुनिया में नहीं जी सकते, न अपनी सन्तानों को उनकी | |
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| − | दुनिया में जीने दे सकते हैं । दो पीढ़ियों को साथ साथ | |
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| − | जीना है, साथ साथ बढ़ना है। एकदूसरे के जीवन में | |
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| − | पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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| − | सहभागी बनकर ही साथ जीना सम्भव हो सकता है। | |
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| − | परस्पर विश्वास और मातापिता में श्रद्धा इस अवस्था की | |
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| − | आवश्यकता है, श्रद्धय बनना मातापिता की परीक्षा है। | |
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| − | सन्ताने अपने जीवन के लिये अपने crafter ar atest | |
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| − | ले सकें यह दोनों के लिये सौभाग्य का विषय है । इसका | |
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| − | प्रारम्भ इस अवस्था में हो जाता है । | |
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| − | इस प्रकार से घड़ा पक्का हो जाता है । कुम्हार अपने | |
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| − | कार्य के लिये सन्तुष्टि का अनुभव कर | |
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| − | सकता है । परन्तु घड़े को अभी अपनी योग्यता सिद्ध करनी | |
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| − | शेष है । वह कितना मूल्यवान है, कितना उपयोगी है यह | |
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| − | तो उसका प्रयोग शुरू होगा तब पता चलेगा । पके घड़े की | |
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| − | शिक्षा का आगे का स्वरूप कैसा होगा यह अगले अध्याय | |
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| − | में देखेंगे । | |
| | ==References== | | ==References== |
| | <references /> | | <references /> |
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| | [[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]] | | [[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]] |