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६०. आज हम देखते हैं कि तीर्थयात्रा करनेवालों की, पैदल चलकर दर्शन करने के लिये जाने वालों की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है । उनकी सेवा करनेवालों की संख्या भी बढ़ी है । मन्दिरों को दान भी बहुत मिलता है । धार्मिक संगठनों के अनुयायियों की संख्या लाखों में है । धार्मिक संस्थानों में सेवा के लिये जाने वाले युवाओं की संखा भी कम नहीं है । कथाश्रवण के लिये जाने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है । परन्तु भक्तिभाव कम हुआ है, सहिष्णुता कम हुई है, दयाभाव कम हुआ है, पवित्रता और सदाचार कम हुए हैं। इसका कारण क्या है ? ऐसा उल्टा सम्बन्ध क्यों है ? कारण यह है कि हमने धार्मिक उपासना को कर्मकाण्ड बना दिया है और व्यवसाय से धर्म को अलग कर दिया है। इसलिये दोनों अनर्थक हो गये हैं । कर्मकाण्ड ऊपरी दिखावा बन गया और व्यवसाय अनैतिक । आवश्यकता है धर्म को कर्मकाण्ड से मुक्त कर व्यवसाय के साथ जोड़ने की । यह कार्य तो शुद्ध रूप से धर्माचार्यों का ही है क्योंकि अधर्म ने धर्म का छद्य वेश धारण कर लिया है ।
 
६०. आज हम देखते हैं कि तीर्थयात्रा करनेवालों की, पैदल चलकर दर्शन करने के लिये जाने वालों की संख्या में बहुत वृद्धि हुई है । उनकी सेवा करनेवालों की संख्या भी बढ़ी है । मन्दिरों को दान भी बहुत मिलता है । धार्मिक संगठनों के अनुयायियों की संख्या लाखों में है । धार्मिक संस्थानों में सेवा के लिये जाने वाले युवाओं की संखा भी कम नहीं है । कथाश्रवण के लिये जाने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है । परन्तु भक्तिभाव कम हुआ है, सहिष्णुता कम हुई है, दयाभाव कम हुआ है, पवित्रता और सदाचार कम हुए हैं। इसका कारण क्या है ? ऐसा उल्टा सम्बन्ध क्यों है ? कारण यह है कि हमने धार्मिक उपासना को कर्मकाण्ड बना दिया है और व्यवसाय से धर्म को अलग कर दिया है। इसलिये दोनों अनर्थक हो गये हैं । कर्मकाण्ड ऊपरी दिखावा बन गया और व्यवसाय अनैतिक । आवश्यकता है धर्म को कर्मकाण्ड से मुक्त कर व्यवसाय के साथ जोड़ने की । यह कार्य तो शुद्ध रूप से धर्माचार्यों का ही है क्योंकि अधर्म ने धर्म का छद्य वेश धारण कर लिया है ।
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६१. भारतीय परम्परा के अनुसार जो काम सामाजिक स्तर पर होना उचित और आवश्यक माना जाता रहा है वे अब अधिकाधिक मात्रा में सरकार को करने पड रहे हैं । उदाहरण के लिये समाज में कोई भूखा न रहे, कोई अशिक्षित न रहे, कोई बेरोजगार न रहे यह देखने का दायित्व समाज का है, सरकार का नहीं । इस दृष्टि से एक ओर अन्न्सत्र, सदाब्रत या भण्डारा चलना और दूसरी ओर अधथर्जिन के अवसर देकर मुक्त में नहीं खाने की प्रेरणा देना ऐसे दोनों काम एक साथ किये जाते थे । वानप्रस्थों की जिम्मेदारी है कि समाज में कोई अशिक्षित और असंस्कारी न रहे । मन्दिरों की जिम्मेदारी है कि कोई अनाश्रित न रहे । यात्रियों के लिये धर्मशाला, प्याऊ, अन्नसत्र आदि के होते होटलों की भी आवश्यकता नहीं और सरकार पर भी बोझ नहीं । ऐसी समाज की जिम्मेदारी आज सरकार पर चली गई है । वास्तव में वानप्रस्थियों ने मिलकर इस बात का विचार करना चाहिये और शीघ्र ही उचित परिवर्तन करना चाहिये ।
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६१. भारतीय परम्परा के अनुसार जो काम सामाजिक स्तर पर होना उचित और आवश्यक माना जाता रहा है वे अब अधिकाधिक मात्रा में सरकार को करने पड रहे हैं । उदाहरण के लिये समाज में कोई भूखा न रहे, कोई अशिक्षित न रहे, कोई बेरोजगार न रहे यह देखने का दायित्व समाज का है, सरकार का नहीं । इस दृष्टि से एक ओर अन्न्सत्र, सदाव्रत या भण्डारा चलना और दूसरी ओर अधथर्जिन के अवसर देकर मुक्त में नहीं खाने की प्रेरणा देना ऐसे दोनों काम एक साथ किये जाते थे । वानप्रस्थों की जिम्मेदारी है कि समाज में कोई अशिक्षित और असंस्कारी न रहे । मन्दिरों की जिम्मेदारी है कि कोई अनाश्रित न रहे । यात्रियों के लिये धर्मशाला, प्याऊ, अन्नसत्र आदि के होते होटलों की भी आवश्यकता नहीं और सरकार पर भी बोझ नहीं । ऐसी समाज की जिम्मेदारी आज सरकार पर चली गई है । वास्तव में वानप्रस्थियों ने मिलकर इस बात का विचार करना चाहिये और शीघ्र ही उचित परिवर्तन करना चाहिये ।
    
६२. आज वृद्धों को सिनियर सिटिझन्स अर्थात्‌ वरिष्ठ नागरिक कहा जाता है। उन्हें वानप्रस्थी भी कह सकते हैं। वानप्रस्थी कहते ही उसका अर्थ बदलजाता है । वानप्रस्थी हमेशा अपने कल्याण और समाजसेवा का विचार करता है । आज वानप्रस्थियों ने छोटे छोटे समूह बनाने चाहिये । प्रारम्भ में तो स्वाध्याय करना चाहिये । चिन्तन करना चाहिये । दूसरा समाजप्रबोधन का कार्य करना चाहिये । हर परिवार को दिन में एक घण्टा अथवा सप्ताह में एक दिन अर्थात्‌ चार या पाँच घण्टे ऐसे काम में देने चाहिये जिससे कोई भी भौतिक लाभ मिलता न हो । उदाहरण के लिये शिक्षित व्यक्ति बच्चों को पढ़ाने का और संस्कार देने का काम कर सकते हैं । मातापिता अपने बच्चे को प्रतिदिन ऐसे काम में ae करे जिसमें विद्यालय की पढाई, किसी भी प्रकार की परीक्षा या अन्य कोई भौतिक लाभ न हो । वानप्रस्थी उन्हें स्वदेशी, देशभक्ति, अच्छाई आदि बातों का महत्त्व समझायें । इस प्रकार सामाजिकता के प्रति अनुकूल मानस बनाने के प्रयास करने चाहिये ।
 
६२. आज वृद्धों को सिनियर सिटिझन्स अर्थात्‌ वरिष्ठ नागरिक कहा जाता है। उन्हें वानप्रस्थी भी कह सकते हैं। वानप्रस्थी कहते ही उसका अर्थ बदलजाता है । वानप्रस्थी हमेशा अपने कल्याण और समाजसेवा का विचार करता है । आज वानप्रस्थियों ने छोटे छोटे समूह बनाने चाहिये । प्रारम्भ में तो स्वाध्याय करना चाहिये । चिन्तन करना चाहिये । दूसरा समाजप्रबोधन का कार्य करना चाहिये । हर परिवार को दिन में एक घण्टा अथवा सप्ताह में एक दिन अर्थात्‌ चार या पाँच घण्टे ऐसे काम में देने चाहिये जिससे कोई भी भौतिक लाभ मिलता न हो । उदाहरण के लिये शिक्षित व्यक्ति बच्चों को पढ़ाने का और संस्कार देने का काम कर सकते हैं । मातापिता अपने बच्चे को प्रतिदिन ऐसे काम में ae करे जिसमें विद्यालय की पढाई, किसी भी प्रकार की परीक्षा या अन्य कोई भौतिक लाभ न हो । वानप्रस्थी उन्हें स्वदेशी, देशभक्ति, अच्छाई आदि बातों का महत्त्व समझायें । इस प्रकार सामाजिकता के प्रति अनुकूल मानस बनाने के प्रयास करने चाहिये ।

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