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प्लास्टिक में इन सभी गुणों की अनुपस्थिति है। इसलिये वह सर्वत्र ‘फोरेन बॉडी' - विजातीय पदार्थ की भाँति ही रहता है। अब आजकल 'रिसाईकिल' अर्थात् विघटित होकर पुनः बनने वाले प्लास्टिक की बात होती है। परन्तु य दोनों संज्ञायें परस्पर विरोधी हैं । जो विघटित होता है वह प्लास्टिक नहीं और प्लास्टिक है वह विघटित नहीं होता। यह अतार्किक संज्ञा है। यह प्लास्टिकवाद जब विचारों में छा जाता है तब संगठन, विघटन और समरसता की प्रक्रिया थम जाती है और सारी भौतिक और सामाजिक रचनायें बेमेल बन जाती हैं । सृष्टि में विचार और पदार्थ का सीधा सम्बन्ध रहता है। एक ही सत्ता का सूक्ष्म स्वरूप विचार है और स्थूल स्वरूप पदार्थ । प्लास्टिक के पदार्थों का भी सूक्ष्म वैचारिक स्वरूप रहता है जो सामाजिक संरचनाओं में प्रकट होता है । मनुष्य स्वभाव के साथ, अन्तःकरण की प्रवृत्तियों के साथ मेल नहीं रखने वाली ये संरचनायें होती हैं । प्सास्टिक सोच से सृजित एक प्लास्टिक की प्रतिसृष्टि है जिसका साम्राज्य आज छाया हुआ है। इसका भी एक आतंक विश्व पर छाया हुआ है । पश्चिम इस विचार का जनक है । आज भी प्लास्टिक का आतंक कम नहीं है। अपने आसपास सर्वत्र यह छाया हुआ है । सब से बड़ी बात यह है कि हम मानने लगे हैं कि प्लास्टिक अनिवार्य है, बहुत सुविधाजनक हैं, सुन्दर है, सस्ता है जब कि वह ऐसा नहीं है।
 
प्लास्टिक में इन सभी गुणों की अनुपस्थिति है। इसलिये वह सर्वत्र ‘फोरेन बॉडी' - विजातीय पदार्थ की भाँति ही रहता है। अब आजकल 'रिसाईकिल' अर्थात् विघटित होकर पुनः बनने वाले प्लास्टिक की बात होती है। परन्तु य दोनों संज्ञायें परस्पर विरोधी हैं । जो विघटित होता है वह प्लास्टिक नहीं और प्लास्टिक है वह विघटित नहीं होता। यह अतार्किक संज्ञा है। यह प्लास्टिकवाद जब विचारों में छा जाता है तब संगठन, विघटन और समरसता की प्रक्रिया थम जाती है और सारी भौतिक और सामाजिक रचनायें बेमेल बन जाती हैं । सृष्टि में विचार और पदार्थ का सीधा सम्बन्ध रहता है। एक ही सत्ता का सूक्ष्म स्वरूप विचार है और स्थूल स्वरूप पदार्थ । प्लास्टिक के पदार्थों का भी सूक्ष्म वैचारिक स्वरूप रहता है जो सामाजिक संरचनाओं में प्रकट होता है । मनुष्य स्वभाव के साथ, अन्तःकरण की प्रवृत्तियों के साथ मेल नहीं रखने वाली ये संरचनायें होती हैं । प्सास्टिक सोच से सृजित एक प्लास्टिक की प्रतिसृष्टि है जिसका साम्राज्य आज छाया हुआ है। इसका भी एक आतंक विश्व पर छाया हुआ है । पश्चिम इस विचार का जनक है । आज भी प्लास्टिक का आतंक कम नहीं है। अपने आसपास सर्वत्र यह छाया हुआ है । सब से बड़ी बात यह है कि हम मानने लगे हैं कि प्लास्टिक अनिवार्य है, बहुत सुविधाजनक हैं, सुन्दर है, सस्ता है जब कि वह ऐसा नहीं है।
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अब कितना भी कठिन हो भारत ने इसको नकारना चाहिये । इससे बहुत असुविधा निर्माण होगी यह सत्य है परन्तु हम उल्टी दिशा में इतने दुर गये हैं और अविवेकपूर्ण
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अब कितना भी कठिन हो भारत ने इसको नकारना चाहिये । इससे बहुत असुविधा निर्माण होगी यह सत्य है परन्तु हम उल्टी दिशा में इतने दुर गये हैं और अविवेकपूर्ण सुविधाओं के इतने आदी हो गये हैं कि उनके बिना जीवन सम्भव ही नहीं है ऐसा हमें लगता है। सुविधाओं के अभाव में हमें पिछडापन लगता है। इसका कारण यह है कि हमने सुविधाओं को ही सभ्यता और संस्कृति का पर्याय मान लिया है । सुविधाओं को ही सभ्यता और संस्कृति का पर्याय मानना भी खास पश्चिमी विचार है। भारत इसे संस्कृति नहीं मानता । जिस विचार और व्यवहार में सबका भला और सबका सुख नहीं वह सुसंस्कृत विचार और व्यवहार नहीं है और जिस व्यवस्था का आधार संस्कृति नहीं वह सभ्यता नहीं होती। अतः विवेकपूर्ण विचार कर भारत को प्लास्टिकवाद को नकारना होगा । इसका प्रारम्भ दैनन्दिन जीवन से प्लास्टिक को बहिष्कृत करने से ही होगा । समझदार लोग कहते हैं कि किसी भी बडे अभियान का प्रारम्भ छोटी और सरल बातों से होता है। प्लास्टिक निषेध का काम बड़ा है, इसका प्रारम्भ भी छोटी छोटी प्लास्टिक की वस्तुओं का त्याग करने से होगा। धीरे धीरे सामर्थ्य जुटाते हुए बडी वस्तुओं को भी छोड़ सकते हैं । हो सकता है इससे अनेक लोगों के व्यवसाय बन्द हो जाय, अनेक लोगों के रोजगार छिन जाय, अनेक लोग इसे अमानवीय बतायें, तो भी इसका निषेध तो करना ही होगा। प्लास्टिक का पर्याय ढूँढने की आवश्यकता नहीं है, वह तो पहले से है ही। पाल्सिटक ने उनका स्थान ले कर उन्हें विस्थापित कर दिया है। उन्हें पुनः स्थापित करना ही हमारा काम है।
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एक बार दिशा बदली तो आगे का मार्ग सुगम होगा इसमें क्या सन्देह है !
    
==References==
 
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