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एक बार दिशा बदली तो आगे का मार्ग सुगम होगा इसमें क्या सन्देह है !
 
एक बार दिशा बदली तो आगे का मार्ग सुगम होगा इसमें क्या सन्देह है !
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==== २. परम्परा गौरव ====
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१. हमारा कुछ बुद्धिविभ्रम ही ऐसा है कि हम परम्परा को हेय दृष्टि से देखते हैं और उसे आधुनिकता के विरोधी तत्त्व के रूप में जानते हैं। आधुनिकता अच्छी है। पारम्परिकता त्याज्य है ऐसी हमारी समझ बनी हैं। यह समझ यूरोपीय शिक्षा द्वारा हमारे मस्तिष्क में डाली है और दो सौ वर्षों में वह गहरी बैठ गई है।
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२. परन्तु परम्परा बहुत मूल्यवान तत्त्व है । परम्परा प्रवाहित है । परम्परा स्थान की नहीं अपितु समय की प्रवाहिता है । कोई भी पदार्थ जल के प्रवाह के साथ बहकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचता है। स्वयं जल भी प्रवाहित होकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचता है । उसी प्रकार कोई भी विचार, व्यवहार, घटना, चिन्तन, व्यवस्था समय के साथ प्रवाहित होकर अतीत से वर्तमान तक और वर्तमान से भविष्य की ओर प्रवाहित होकर जाती है । समय के साथ की इस यात्रा से परम्परा बनती है।
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समय तो बीतता ही रहता है परन्तु जो समय के साथ प्रवाहित होता नहीं उसमें स्थगितता आती है । वर्तमान अतीत से जुडता नहीं और भविष्य के लिये कोई थाती बनाता नहीं ।  अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य लाभान्वित हो सके इसलिये परम्परा का होना अनिवार्य है।
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भारत परम्परा का देश है । वह अपने अतीत के साथ जुडा रहने में विश्वास करता है। वह जुडा रहता है परन्तु अतीत में रहता नहीं है। वर्तमान भविष्य के लिये प्रेरक बनता है परन्तु लवचिकता के लिये प्रावधान रखता है।
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बहता हुआ पानी शुद्ध रहता है। प्रवाह के कारण, हवा और सूर्यप्रकाश के कारण अशुद्धियाँ अपने आप दूर होती रहती है। समय के साथ लवचिकता से बहती हुई गतिमान स्थिति भी परिष्कृत होती रहती है। वह स्वाभाविक रूप से परिवर्तित होते रहते भी अपरिवर्तित रहती है। खास बात यह है कि अवांछनीय तत्त्व ही दूर होते है, वांछनीय अपने शुद्ध रूप में अस्तित्व बनाये रखते हैं।
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भारत में दो प्रकार की परम्परायें हैं। एक है ज्ञान परम्परा और दूसरी है संस्कार या संस्कृति परम्परा । ज्ञान परम्परा का केन्द्र गुरुकुल है और वाहक गुरु शिष्य है। संस्कृति परम्परा का केन्द्र घर है और वाहक पितापुत्र है । गुरु से शिष्य को और पिता से पुत्र को हस्तान्तरित होते हुए ज्ञान और संस्कृति की परम्परा बनती है।
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७. वेदों का ज्ञान, ऋषियों का विज्ञान, महापुरुषों का कर्तृत्व, कारीगरों की कारीगरी का कौशल, कलाकारों की कलासाधना, सज्ञजनों और स्मृतिकारों द्वारा प्रणीत रीतिरिवाज और खानपानादि की पद्धति एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होते हुए पूर्वजों से हमारे तक पहुंची है। यदि यह परम्परा नहीं होती तो हर पीढी को सारी बातें नये से ही निर्धारित करनी पड़ती। इसलिये परम्परा का महत्त्व है।
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८. अब हमें स्मरण करना चाहिये कि हमारे पूर्वजों से हमें परम्परा में क्या क्या प्राप्त हआ है। ऐसी कौन सी बातें हैं जिससे हम गौरवान्वित हो सकते हैं ?
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९. जगत और जीवन के निःशेष सभी प्रश्नों के खलासे कर सके ऐसी अध्यात्म संकल्पना हमारे आर्षदृष्टा, सर्वज्ञ, आत्मज्ञानी, साक्षात्कारी पूर्वजों की देन है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में विश्व में कोई विचारधारा इसकी बराबरी नहीं कर सकती । समस्त भारतीय वाङ्मय में यह संकल्पना विभिन्न स्वरूप धारण कर प्रस्फुटित होती रही है और हम तक पहुंची है।
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१०. ज्ञानधारा के स्रोत वेद, उपनिषद, सूत्रग्रन्थ, शास्त्रग्रन्थ आदि युगों में मन्त्रगायकों, भाष्यकारों, पाठकों, उपदेशकों, अध्यापकों के माध्यम से, युगानुकूल सन्दर्भो में प्रस्तुत होते हुए आजतक पहुँचे हैं । आज भी ये साधु, सन्तों, संन्यासियों, धर्माचार्यों, अध्यापकों के द्वारा गाये जाते हैं । विवेचित किये जाते हैं, पढाये जाते हैं।
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११. युग के बाद युगों में स्मृतिकारों ने भारतीय ज्ञानधारा पर आधारित व्यवहार हेतु समाज के विभिन्न वर्गों के लिये रीतियों का निरूपण किया है। पुराणों ने लोक के लिये ज्ञानधारा को रोचक रूप प्रदान किया है। साहित्यकारों, कलाकारों, संगीतकारों ने उसी ज्ञानधारा को रसरूप प्रदान कर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया है। पीढी दर पीढी इस की उपासना, साधना, अध्ययन, विमर्श, व्यवहार होता रहा है । इस परम्परा का गौरव होना हमारे लिये स्वाभाविक है।
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१२. इसी प्रकार से वैज्ञानिकों ने ज्ञान तक पहुँचने हेतु, जगत के सम्यक् परिचय हेतु, व्यवहार को सुकर और समुचित बनाने हेतु प्रक्रियायें निर्धारित की हैं। प्रकृति को, प्राणियों को, मनुष्यों को शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और क्षमताओं की दृष्टि से हानि न हो, उपयोग के लिये अत्यन्त सुकर हो, कहीं भी अत्यन्त सुलभ हो और किसी भी विषय में निपुणता और उत्कृष्टता प्राप्त हो सके ऐसा तन्त्रज्ञान विकसित किया। इस विज्ञान और तन्त्रज्ञान की सार्थकता और इसकी पार्श्वभूमि में स्थित दृष्टि की बराबरी विश्व में कोई नहीं कर सकता।
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१३. ज्ञान अपने तात्त्विक रूप में अपरिवर्तित रहता है परन्तु उसका जो व्यावहारिक स्वरूप होता है वह देशकाल-परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तनशील रहता है। यह सत्य हमारे पूर्वजों ने जाना, उसे समझा, तत्त्व और व्यवहार के स्वरूप को जानने का निरक्षीरविवेक विकसित किया और समय समय पर व्यवहार में आवश्यक परिवर्तन करते हए स्मृति ग्रन्थों की रचना की। ऐसे व्यवहारदक्ष पूर्वजों के सम्बन्ध में गौरव का अनुभव करना स्वाभाविक है।
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१४. हमारे पूर्वजों ने मनुष्य स्वभाव को पहचानकर, उसकी वृत्तिप्रवृत्तियों का आकलन कर, उसके विकास की सम्भावनाओं को परखकर, सामुदायिक जीवन की आवश्यकताओं को समझकर समाजव्यवस्था का निर्माण किया, व्यवस्था के मूल आधार निश्चित किये, कर्तव्य धर्म का निरूपण किया और सब तक उसका ज्ञान पहुँचे ऐसी व्यवस्था की। इसके तहत हमें आश्रमचतुष्टय, पुरुषार्थ चतुष्टय, वर्णचतुष्टय, सोलह संस्कार आदि की व्यवस्था प्राप्त हुई। इन व्यवस्थाओं की महत्ता इस बात में है कि इनके चलते हमारा समाज युगों तक सुस्थिति में बना रहा ।
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१५. आज यदि इन में से अनेक बातें कालबाह्य हो गई हैं ऐसा लगता है तो इसका कारण यह है कि विगत पाँच से भी अधिक पीढियों में ये खण्डित हुई, इनका प्रवाह अवरुद्ध हुआ, इन्हें विकृत बनाया गया, इनका दुरुपयोग हुआ और इन्हें बदनाम किया गया । इसका संकेत यह है कि इनमें काल और परिस्थिति से सुसंगत परिवर्तन कर, इन्हें परिष्कृत कर आज के युग के लिये उचित रूप में प्रस्तुत किया जाय । अर्थात् आज के युग की एक स्मृति बनाई जाय । यह कार्य आज के मनीषियों को करना होगा।
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१६. हमारे पूर्वजों ने उस एक आत्मतत्त्व के अनेकरूपों के एक तत्त्व और पृथक व्यवहार, रुचियों, क्षमताओ, आवश्यकताओं को समझकर विविध सम्प्रदायों का सृजन किया, अनेकविध उपास्यों और उपासना पद्धतियों की रचना की और सबको उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान की साथ ही सर्व प्रकार की भिन्नता मूल में एक ही है ऐसा भी दढतापूर्वक बताया। इस कारण से भारत का समाज साम्प्रदायिक कट्टरता से बच गया, उल्टे सर्वपथसमादर की उदात्त भावना का विकास हुआ।
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१७. हमारे पूर्वजों ने अनेक व्यवहारशास्त्रों, विज्ञानशास्त्रों, तत्त्वज्ञानशास्त्रों की रचना की, अनुभूति को इनका आधार बनाया, साथ ही सर्वशास्रों का आन्तरिक और बाह्य संवादी सम्बन्ध भी बनाया । सभी विद्याशाखाओं को अंगांगी सम्बन्ध से जोडकर परस्पर अविरोधी और अध्यात्म के अधिष्ठान से युक्त बनाया । यह समग्रता का विचार भारत की विशेषता है। इसका गर्व होना स्वाभाविक है, न्याय्य है।
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१८. इसी प्रकार से राजाप्रजा के सम्बन्ध, यज्ञ, दान, तब की पर्यावरणीय, आर्थिक, सांस्कृतिक आवश्यकता, व्रत, उपवास, उत्सव, पर्व, त्योहार, मेले, सत्संग, कथा, कीर्तन, तीर्थयात्रा, तीर्थस्थान आदि का विधान बनाकर मनुष्य, पशुपक्षी प्राणी, पंचमहाभूत देवीदेवता, भावना, विचार, बुद्धि, मन, शरीर, आनन्द, उल्लास, रस, कारीगरी, शक्ति आदि पदार्थों, गुणों व्यक्तियों, स्वभावों को एक साथ जोडकर अनेकविध आयामों से युक्त, अनन्त लवचिकता से युक्त, ग्रहण करने की स्वतन्त्रता से युक्त, अनेकविध व्यवहारशैलियों का निरूपण किया। यह बुद्धि सामर्थ्य, कल्पनासामर्थ्य, रचनासामर्थ्य का निदर्शक है।
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१९. इसे ही नित्यनूतन, चिरपुरातन अर्थात् सनातन कहते हैं। भारत ऐसा सनातन राष्ट्र है । हमारे पूर्वजों ने इस राष्ट्र की निहित सनातनता की अनुभूति कर रचना में सनातन बनाया है।
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२०. हमें ऐसे पूर्वजों का, उनके द्वारा निर्मित परम्पराओं का, उनके वंशज होने के नाते अपने आपका गौरव होना स्वाभाविक है। इस परम्परा को परिष्कृत बनाते हुए बनाये रखना और भविष्य को सौंपना हमारा कर्तव्य है।
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==== ३. कानून नहीं धर्म ====
    
==References==
 
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