Difference between revisions of "छात्र के शैक्षिक कार्य"

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दूसरा बिंदु यह है कि इस बात पर विचार किया जाय कि गृहकार्य हमेशा लिखित ही क्यों होना चाहिए । पढ़ाई केवल लिखकर नहीं होती है । पढ़ाई अनेक प्रकार की गतिविधियों के माध्यम से होती है। अभिभावकों और शिक्षकों की यह भी पक्की धारणा बन गई है कि लिखना ही मुख्य कार्य है । ज्ञान कितना भी
 
दूसरा बिंदु यह है कि इस बात पर विचार किया जाय कि गृहकार्य हमेशा लिखित ही क्यों होना चाहिए । पढ़ाई केवल लिखकर नहीं होती है । पढ़ाई अनेक प्रकार की गतिविधियों के माध्यम से होती है। अभिभावकों और शिक्षकों की यह भी पक्की धारणा बन गई है कि लिखना ही मुख्य कार्य है । ज्ञान कितना भी
  
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मौखिक रूप से अवगत हो तो भी जबतक लिखा नहीं जाता तबतक वह अधूरा है, ऐसा माना जाता है । यह धारणा सही नहीं है । कर्मन्द्रियों की कुशलता, आत्मविश्वास, व्यवहारदक्षता, सद्धावना, विचारशीलता और आकलनक्षमता लिखित रूप में व्यक्त ही नहीं हो सकते । लिखित रूप में गृहकार्य करने के लिए इन बातों की कोई आवश्यकता नहीं होती । तो भी गृहकार्य लिखित स्वरूप का दिया जाता है । इसके पीछे बड़ा विचित्र कारण सुनने को मिलता है । शिक्षक कहते हैं कि लिखित गृहकार्य नहीं दिया तो छात्र ने गृहकार्य किया कि नहीं इसका पता कैसे चलेगा । पढ़ने के लिए दिया तो वे नहीं करने पर भी किया है, ऐसा कहेंगे । अभिभावकों को भी लिखित कार्य ही प्रमाण लगता है । यह तो अविश्वास का मामला हुआ । शिक्षक को छात्र पर या अभिभावकों को शिक्षकों पर विश्वास नहीं होता कि वे सच बोलेंगे या जिसका प्रमाण नहीं देना पड़ता ऐसा भी निश्चित रूप से करेंगे ही । इसलिए गृहकार्य से कोई अर्थ साध्य न होता हो तो भी लिखित गृहकार्य देने का प्रचलन हो गया है । अब तो यह बात चुभने वाली भी नहीं रह गई है ।
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यह ठीक तो नहीं है । इस विषय में विद्यालय ने अभिभावकों के साथ विश्वास का सम्बन्ध बनाना चाहिए । दोनों को यह ध्यान में लेना चाहिए की छात्र को ज्ञान प्राप्त होना महत्त्वपूर्ण है, कापी में लिखना नहीं । इसलिए पहली बात अविश्वास से और लिखित गृहकार्य से मुक्त होना है । इसका अर्थ यह नहीं है की लिखना सर्वथा निषिद्ध है । जहाँ आवश्यक है वहाँ लिखित अवश्य होना चाहिए । उदाहरण के लिए सुलेख ही पक्का करना हो तो लिखना ही चाहिए । वर्तनी सीखना हो तो लिखना ही चाहिए । लिखित अभिव्यक्ति लिखकर ही हो सकती है । गणित के कुछ सवाल लिखकर ही किये जाएंगे । अत: तात्पर्य समझकर लिखित गृहकार्य का प्रयोग कर सकते हैं ।
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इसी प्रकार से यह भी विचार करने लायक तथ्य है कि गृहकार्य आखिर दिया क्यों जाता है । कया विद्यालय में पढ़ाई करना पर्याप्त नहीं है ? यदि पर्याप्त नहीं है तो विद्यालय का समय ही क्यों नहीं बढ़ाया जाना चाहिए ? घर वापस आने के बाद पुनः पढ़ाई क्यों करनी चाहिए ? इसके विविध कारण हो सकते हैं । एक कारण यह हो सकता है कि अभी जो चलता है उतने समय से अधिक विद्यालय चलाना संभव नहीं है । इसके कई व्यावहारिक कारण हैं । छात्रों को एकसाथ इतना समय पढ़ाई करना सुविधाजनक नहीं होता । शारीरिक रूप से थकान हो जाना भी सम्भव है । भोजन की सुविधा विद्यालय में सम्भव नहीं होती है । अतः विद्यालय की पढ़ाई पाँच घंटे से अधिक नहीं हो सकती । बारह वर्ष से अधिक आयु के छात्रों के लिए छः घंटे की पढ़ाई भी हो सकती है परन्तु उससे अधिक नहीं ।
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अधिक महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि विद्यालय के समय के अतिरिक्त औपचारिक पढ़ाई की आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए । वास्तव में दिन के चौबीस घंटों में औपचारिक पढ़ाई के साथ-साथ बहुत कुछ और भी करना होता है । व्यायाम, खेल, घर के काम, घर से बाहर के काम, दिनचर्या के आवश्यक कार्य आदि बहुत सारी बातों के लिए समय मिलना चाहिए । शिक्षा केवल विद्यालय की औपचारिक पढ़ाई में ही सीमित नहीं होती है । जीवन-व्यवहार के अन्य कार्य भी शिक्षा के ही अंग हैं । अत: पहले तो गृहकार्य के नाम पर औपचारिक पढ़ाई का ही समय बढ़ाना नहीं चाहिए । इस दृष्टि से गृहकार्य का स्वरूप बदलने की नितान्त आवश्यकता है |
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सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विद्यालय की औपचारिक पढ़ाई को व्यावहारिक जीवन के साथ जोड़कर सार्थक बनाने वाले गृहकार्य के विषय में विचार करना चाहिए । यह गृहकार्य केवल लिखित नहीं हो सकता यह स्वाभाविक है । यदि लिखित नहीं तो यह कैसा होगा इसके कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा सकते हैं ।
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१२. पाँचवीं के छात्रों को विद्यालय से घर जाते समय रास्ते में पड़ने वाली दुकानों के फ़लक अपनी कापी में लिखो । घर जाकर उनकी भाषा शुद्ध है कि नहीं यह जाँचो । यदि शुद्ध है तो दुकानदारों को अभिनन्दनपरक पत्र लिखो । यदि उनमें कोई अशुद्धि है तो उसे दूर कर शुद्ध करो और दुकानदार को उसकी उचित भाषा में सूचना दो । इस कार्य में समय जायेगा, सम्पर्क करना होगा, शब्दकोश देखना होगा, व्याकरण के नियम याद करने होंगे, पत्रलेखन करना होगा । कई बार ऐसे कामों को प्रोजेक्ट कहा जाता है । यदि विद्यालय में किया तो वह प्रोजेक्ट है, घर में किया तो गृहकार्य । इस प्रकार के गृहकार्य में भाषा का व्यावहारिक और शैक्षिक पक्ष समाविष्ट हो जाता है , केवल भाषाज्ञान के साथ-साथ अन्य व्यावहारिक पक्ष भी समझ में आते हैं ।
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घर के सभी कमरों का नाप निकालकर प्रत्येक का क्षेत्रफल कितना है, इसकी तालिका बनाने का गृहकार्य दे सकते हैं । इसी पद्धति से भूमिति विद्यालय में भी पढ़ाई जा सकती है ।
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घर का तीन या सात दिन का खर्च लिखकर उसका जोड़ करने का गणित गृहकार्य के रूप में दिया जा सकता है ।
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हमारे घर में कौन-कौन क्या-क्या काम करता है और घर के सभी सदस्यों का एक दिन कैसे बीतता है, इसका वर्णन कर निबंध लिखने को बता सकते हैं ।
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एक सप्ताह का अल्पाहार स्वयं बनाकर ले आने का गृहकार्य भी हो सकता है । उस पदार्थ का वर्णन, उसमें कया क्या सामाग्री प्रयुक्त हुई है और उसका पोषक मूल्य तथा सात्त्विकता कैसी है, इसका वर्णन करने को कहा जा सकता है । कोई गीत, संवाद, सूत्र आदि कंठस्थ करने का गृहकार्य भी दिया जा सकता है । यह सूची शिक्षक की मौलिकता से बहुत बड़ी हो सकती है । तात्पर्य यह है कि पढ़ी हुई, सीखी हुई बातों को व्यवहार में लागू करना आए, इस दृष्टि से गृहकार्य का स्वरूप बनाना चाहिए ।
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विद्यार्थी की जीवनचर्या का मुख्य कार्य अध्ययन करना है इस लिए उसकी सम्पूर्ण जीवनचर्या को अध्ययन के विषयों के अनुसार ढालना चाहिए । इस बात को ध्यान में रखकर      गृहकार्य की योजना करनी चाहिए ।
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==== गृहकार्य की जाँच कैसे करें ====
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जो बातें लिखित स्वरूप की होती हैं उनकी जाँच शिक्षक को करनी तो चाहिए ही, परंतु यह कार्य अत्यन्त परेशान करने वाला होता है । बहुत समय उसमें जाता है । उतना समय उसके लिए दिया जाय तो अध्ययन जैसी अन्य आवश्यक बातों के लिए समय नहीं रहता । कई स्थानों पर शिक्षकों के लिए कापियाँ जाँचने का कार्य अनिवार्य किया जाता है, परंतु यह अविश्वास के कारण होता है । शिक्षक जहाँ अधिक विश्वासपात्र होते हैं, वहाँ ऐसा अविश्वास नहीं होता । विश्वास के वातावरण में लिखित गृहकार्य और उसे जाँचने की अनिवार्यता नहीं होगी । तब लिखित कार्य जाँचने की वैकल्पिक व्यवस्था कर शिक्षक अधिक अध्ययन करने के लिए समय प्राप्त कर सकता है । लिखित गृहकार्य जाँचने के लिए अभिभावकों की तथा स्वयं छात्रों की सहायता ली जा सकती है । यहाँ भी परस्पर सौहार्द और विश्वास की आवश्यकता रहेगी । सौहार्द नहीं रहा तो अभिभावक कहते हैं की यह काम शिक्षक का है, उसे वेतन ऐसे कामों के लिए ही दिया जाता है । छात्रों को यह काम नहीं देना चाहिए क्योंकि एक तो वे इस काम के लिए नहीं आते हैं, पढ़ने के लिए आते हैं, और दूसरा, वे विश्वसनीय नहीं हैं । छात्रों की अविश्वसनीयता और अक्षमता के कारण और छात्रों पर अन्याय होता है, इसलिये यह कार्य उन्हें नहीं सॉपना चाहिये । ऐसा तर्क अभिभावकों और संचालकों का रहता है । इसका और इसके जैसे अन्य प्रश्नों का समाधान तो सज्जनता और विश्वास बढ़ाने का ही है , अन्य किसी भी उपायों से विश्वास का संकट दूर नहीं हो सकता । गृहकार्य यदि लिखित है तो स्वयं सुधार हो सके ऐसा होना चाहिए ताकि छात्र अपने आप ही अपना गृहकार्य जाँच सकें ।
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जो भी प्रायोगिक कार्य दिया होता है, उसकी जाँच भी प्रायोगिक पद्धति से ही होती है । वह इतनी व्यक्ति और कार्यसापेक्ष होती है कि उसको नियमों में बांधना संभव नहीं होता है । इसलिए उसकी चर्चा नहीं करेंगे । गृहकार्य के संबंध में इतनी चर्चा पर्याप्त है ।
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=== विद्यालय की दैनंदिन गतिविधियाँ ===
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क्या इतने प्रकार की गतिविधियाँ विद्यालय में
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नियमित रूप से हो सकती हैं -
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पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि की सेवा
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वृक्ष वनस्पति की सेवा
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स्वच्छता
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aca
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कारसेवा एवं यज्ञ
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व्यायाम
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योगाभ्यास
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साजसज्जा
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९. गुरुसेवा, गुरुवन्दना
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१०, भोजन
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विद्यालय के समय में इन्हें किस प्रकार से बिठा
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सकते हैं ?
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इन सब बातों का शैक्षिक मूल्य कितना है ?
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इनको करने में किस प्रकार के अवरोध निर्माण हो
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सकते हैं ?
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उन्हें दूर कैसे करें ?
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और कौन सी गतिविधियाँ जोड़ी जा सकती हैं ?
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इन सब गतिविधियों के लिये आर्थिक बोज
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कितना उठाना पडेगा ?
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SoM SK ww ~
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प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर
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गुजरात में नवसारी के सरस्वती विद्यामंदिर में समग्र
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विकास पाठ्यक्रम चलता है वहाँ के आचार्य जिज्ञाबेन
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पटेल जो रोज निम्न गतिविधियाँ अपने विद्यालय में करते हैं
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उन्होंने इस प्रश्नावली के उत्तर अपने अनुभव के आधार पर
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लिखे है ।
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दस प्रकार की गतिविधियाँ नियमित रूप से होना
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संभव है क्या ? विद्यालय के समय पत्रक में उन्हें कैसे
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बिठायें ? उनका शैक्षिक मूल्य क्या है ? करने में किस
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प्रकार के अवरोध आते हैं ? उन अवरोधों को कैसे दूर
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किया जाय ? ऐसे पांच प्रश्न हैं ।
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विद्यालय की दैनंदिन गतिविधियाँ
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gut
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चर्चा एवं अभिमत
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सर्व गतिविधियाँ महत्त्वपूर्ण है । नियोजित समय में
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नित्य करवाना कुशलता है । उनका महत्त्व यदि समझ में
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आता है तो कुशलता अपने आप आयेगी । उसके लिए इस
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प्रकार की योजना कर सकते हैं ।
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गतिविधियाँ
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१. पशु पक्षी कीट पतंग आदि की सेवा
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इसमें पक्षिओं को दाना डालना एवं उन्होंने की हुई
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अस्वच्छता स्वच्छ करना ये दो प्रकार के काम होंगे
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विद्यालय के ५-६ बच्चों का गट प्रार्थना में न बैठे उस
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समय यह काम करेगा । एक सप्ताह के बाद गट बदलेगा
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काम वही रहेगा । उचित जगह पर पक्षिओं के लिए मिट्टी
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के पात्रों में पानी रखना । ये पात्र साफ करना, उनमें ताजा
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पानी भरना । मैदान या छज्जेपर दाने डालना (बाजरा
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चावल) पक्षिओं द्वारा की हुई गंदगी साफ करना
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शैक्षिक मूल्य : पक्षी निर्भयता से कहाँ आते हैं ।
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चींटियाँ कहाँ रहती हैं ? उन्हें कितनी मात्रा में दाना पानी
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चाहिये ? इसका अंदाज लगाना । मन में प्राणीद्या निर्माण
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होती है । चित्त निर्मल रहता है ।
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अवरोध - १. प्रार्थना मे न जाते हुए यह काम
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करवाना मन को अच्छा नहीं लगता । २. अभिभावक ऐसे
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सामान्य कामों को फालतू एवं अशैक्षिक समझते हैं ।
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उपाय - १. शान्त बैठकर प्रार्थना करना और
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पक्षीकी सेवा करना दोनों समान ही है, यह विचार करना ।
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बच्चों को इस का अर्थ समझाना रे. यह भी महत्त्वपूर्ण
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शिक्षा है इस बात को धयान में रखना ।
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२. वृक्ष वनस्पती सेवा
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पौंधो को पानी पिलाना, वृक्षों के तनों को रंग
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लगाना, पतझड में गिरे हुई पत्ते, कचरा इकट्ठा करना, गमले
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साफ रखना, पौधों को खाद देना इत्यादी प्रकार के काम
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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सेवाकार्य ही हैं । १० बालकों का गट अवरोध - कुछलोग पूजापाठ के विरोधी होते हैं ।
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बनाना, गट प्रमुख बनाना । इससे कार्यविभाजन होगा । उपाय - उनकी ओर ध्यान नहीं देना । उनसे
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खेल के कालांश में यह सेवाकार्य करना । भयभीत भी नहीं होना ।
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शैक्षिक मूल्य - वृक्ष वनस्पति का परिचय, उनकी
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आवश्यकताएँ समझना उनके प्रति आत्मीयता निर्माण होती
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है । ये सारी बातें हमारे विद्यालय की हैं, उनका रक्षण एवं
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संवर्धन करना हमारा दायित्व है यह भाव जागृत होता है ।
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अवरोध - सभी छात्र ठीक से काम करेंगे या नहीं ?
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आपस में झगड़ेंगे ऐसी आशंका निर्माण होती है । यह काम
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क्या पढ़ाई है ? ऐसा प्रश्न अभिभावक पूछ सकते हैं ।
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उपाय - इस गतिविधी का स्वरूप और महत्त्व छात्रों
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को समझाना । शिक्षक ने थोडीबहुत देखरेख रखना । किताबी
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पढ़ाई से हटकर इस अभ्यास से छात्रों की मनःस्थिति में अच्छा
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बदलाव आता है । फिर अभिभावक भी शिकायत नहीं करेंगे ।
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५. कारसेवा एवं यज्ञ
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विद्यालय में अग्िहोत्र नित्य करें । विद्यालय की ५
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वीं से ऊपर की कक्षाओं में से प्रतिदिन एक कक्षा के छात्र
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अग्निहोत्र करे । उस समय वे वन्दना में नहीं जायेंगे । बैठक
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व्यवस्था करना, यज्ञ की सामग्री रखना, बाद में उठाकर
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यथास्थान रखना, ४ छात्रोंने प्रत्यक्ष हवन करना इस प्रकार
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की योजना बने । उपरोक्त सर्व गतिविधियों में कुछ न कुछ
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कारसेवा हर विद्यर्थी को करनी ही है । अतः अलगसे
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कारसेवा न लगाए तो भी चलेगा ।
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शैक्षिक मूल्य - पर्यावरण शुद्धि, वेदमंत्र कंठस्थ
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होना, उच्चारण स्पष्टता एवं आध्यात्मिक संस्कार साध्य होते
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३. स्वच्छता हैं।
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सफाई करना, श्यामपट स्वच्छ करना, डेस्क बेंच अवरोध - घी और हवन सामग्री रोज खर्च होती है
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साफ रखना, कागज कचरा उठाकर कचरा पात्र में डालना ।.... ऐसा कुछ लोग सोचते हैं ।
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इस प्रकार के सारे काम होंगे । रोज प्रार्थना के Ged ae उपाय - समिधा इकट्टी कर सकते हैं । घी खर्च
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१० मिनट यह स्वच्छता कार्य होगा । कक्षा शिक्षक इसका... होगा परंतु अन्य उपलब्धिओं की तुलना मे खर्च नगण्य है ।
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ठीक से नियोजन करेंगे । सब को अपना कार्य समझायेंगे । घी जलकर नष्ट होता है और वह फिजूल खर्च है, यह
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अवरोध - कुछ बालक काम करेंगे, कुछ मस्ती विचार दूर करे ।
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उपाय - अच्छे काम करने वालों का गौरव करना ।
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न करनेवालों को डाँट नहीं, अपितु उनकी समझ बढ़ाना ।
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कक्षाचार्य ने स्वयं इसमें सहभागी होना ।
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शैक्षिक मूल्य - समूह में काम करने की आदत,
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विद्यालय के प्रति आत्मीय भाव जागृत करना ।
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६. व्यायाम
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दिन भर के समयपत्रक मे रोज १५ मिनिट व्यायाम के
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लिए निकालना चाहिये । व्यायाम का स्वरूप छात्रों की
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आयु के अनुसार निश्चित करें । वर्गशिक्षक रोज उपस्थिति
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लेता है उसी प्रकार व्यायाम भी अनिवार्य रूप से हो ।
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शैक्षिक मूल्य - शरीर मे स्फूर्ति उत्साह एव लोच
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विद्यालय सरस्वती का मन्दिर है । अध्ययन रोज उसी. बढ़ता है । ये बातें ज्ञानार्जन के लिए अत्यावश्यक है ।
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की वन्दना से शुरु होना चाहिये । पूजन करना शुद्ध एवं अवरोध - शिक्षक ही प्रमुख रूप से इसमें अवरोध
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सुस्वर में वन्दना करना । वन्दना मे शिक्षक, मुख्याध्यापक, .. है । येन केन प्रकारेण इसे मुख्याध्यापक ही दूर को ।
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उपस्थित अतिथि एवं अभिभावकों को भी सम्मिलित करें ।
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४. वन्दना
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शैक्षिकमूल्य - सरस्वती वन्दना में संगीत, संस्कृत. '*ः योगाभ्यास
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और योग तीनों बातों का संयोग होता है । स्थिरता नित्य वंदना के बाद १० मिनिट प्रार्थना कक्ष में ही
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अनुशासन संयम आदि संस्कार होते है । योगाभ्यास हो । योगाभ्यास अर्थात्‌ केवल आसन प्राणायाम
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श्५६्द
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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
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ही नहीं । अनेक प्रकार से इसका अभ्यास हो सकता है ।
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शैक्षिक मूल्य - छात्रों की ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति
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बढ़ती है उसका प्रयोग और मापन करके देखे ।
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अवरोध - शिक्षक को इस विषय मे रुचि और
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महत्त्व कम रहता है, समझ कम और श्रम ज्यादा होते है ।
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उपाय - योग्य एवं जानकार व्यक्ति से इसे ठीक से
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समझ ले, अभिभावकों से भी अनुकूलता प्राप्त करे ।
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८... साजसज्ा :
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नियमित रूप से भले अल्पमात्रा मे साजसज्जा अवश्य
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करे । सभी चीजे यथास्थान रखना वर्ग मे गुलदस्ता सजाना
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और अन्य कई प्रकार हो सकते है ।
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शैक्षिक मूल्य - कलागुणों में वृद्धी, सौन्दर्य दूष्ठी बढती
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है, कल्पकता का आनंद एवं उत्साह वर्धन होता है ।
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इस काम का नियोजन व पालन व्यवस्थित करना
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अन्यथा साजसज्जा कम और गडबड ज्यादा जैसा होगा ।
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९. गुरुसेवा गुरु वन्दना :
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आचार्यों को आदर देना, उनकी सेवा करना, गुरु
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निन्‍्दा उपहास न करना ।
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१०, भोजन :
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मध्यावकाश को भोजन के रूप में यह विद्यालयों में
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होने वाली नित्य गतिविधि है । भोजन बडा संस्कार है ।
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अन्न से शरीर और मन की पुष्ठी होती है । इस विषय में
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विस्तृत विवेचन मध्यावकाश का भोजन इस प्रश्नावली में
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किया है ।
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पाँच छ घण्टे के विद्यालय में ऐसी गतिविधियाँ संभव
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है । उसके लिए खर्च अधिक नहीं आता । कल्पकता एवं
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उत्कृष्ट योजकता मात्र आवश्यक है। मानसिकता भी
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आवश्यक है । आज विद्यालयों में ये गतिविधियाँ करवाना
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झंझट, बोझ भी लग सकता है । परन्तु भारतीय शिक्षा का
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प्रयोग करना है तो सब समझकर करना । छात्रों को इनका
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अच्छा परिणाम मिलेगा । शिक्षक एवं अभिभावकों को
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छात्रो के व्यवहार में अनुकूल परिवर्तन जरूर दिखेगा ।
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श्प७
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शुद्ध पढ़ने पढ़ाने के अतिरिक्त अनेक बातें ऐसी हैं
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जो पढाई की सहयोगी के रूप में विद्यालयों में होती है ।
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इनका शैक्षिक दृष्टि से विचार किया जाना चाहिये क्योंकि
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इनका सीधा सम्बन्ध पढ़ाई से है ।
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१, प्रार्थना
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प्रार्थथा से किसी भी शुभ कार्य का प्रारम्भ होना
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भारत में केवल स्वाभाविक ही नहीं तो अनिवार्य माना
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गया है । हमने कल्याणकारी सभी बातों को देवता का
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स्वरूप दिया है। यहाँ तक की पानी को जलदेवता
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अथवा वरुण देवता, अग्नि को अग्थिदेवता, वायु को
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वायुदेवता, पृथ्वी को पृथ्वीदेवता कहा है | पृथ्वी को तो
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हम माता ही कहते हैं। तब विद्या को, ज्ञान को हम
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देवता न मानें ऐसा हो ही नहीं सकता । विद्या की, वाणी
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की, कला की, संगीत की देवता सरस्वती विद्यालयों की
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अधिष्ठात्री देवी है । अध्ययन अध्यापन के रूप में हम
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उसकी उपासना करते हैं। ज्ञान के सभी लक्षणों को
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साकार रूप देकर हमने सरस्वती की प्रतिमा बनाई है । इस
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देवता की प्रार्थना से प्रारम्भ करना नितान्त आवश्यक है ।
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परन्तु इसमें केवल कर्मकाण्ड नहीं चलेगा । कुछ बातें
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ध्यान देने योग्य हैं
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जो भी करें शाख्रशुद्ध करें । विद्याकेन्द्रों में अशास्त्रीय
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नहीं चलता । सुशोभन अवश्य करना चाहिये और
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वह पर्यावरण और सौन्दर्य दृष्टि को ध्यान में रखकर
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किया जाना चाहिये ।
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फूल, दीप और अगरबत्ती का प्रयोग यदि करते हैं
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तो ध्यान में रखें कि अगरबत्ती सिन्थेटिक न हो,
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दीप जर्सी के घी का न हो और फूल कृत्रिम न
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हों । इस निमित्त से विद्यालय में अन्यान्य चित्रों पर
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जो प्लास्टिक के फूलों की मालायें चढ़ाई जाती हैं
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वे उतार दी जाय । सरस्वती को यह मान्य नहीं है ।
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प्रार्थथा शुद्ध स्वर और शुद्ध उच्चारण से गाई जानी
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चाहिये । सरस्वती वाणी और संगीत दोनों की देवता
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है । बेसूरा गायन, बेसूरे और बेढब वाद्य और बेताल
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वादन, चिछ्ठा चिक्लाकर गाना, गलत
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उच्चारण करना उसे मान्य नहीं है। वह इसे क्षमा
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नहीं करेगी । कृपा करने की तो बात ही दूर की है ।
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०... प्रार्थना सभा का वातावरण पवित्र होना भी उतना
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ही आवश्यक है । यदि हम कर सकें तो प्रार्थनाकक्ष
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में प्रार्थना के अलावा मौन रहना, अन्य किसी प्रकार
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की बातें नहीं करना भी होना चाहिये । अधिकांश
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विद्यालयों में विद्यालय का प्रारम्भ सभा से होता
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है । जिसमें सूचनायें, समाचार वाचन, पंचांग कथन,
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किसी विद्यार्थी या कक्षा की प्रस्तुति, शिक्षक द्वारा
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प्रेरक उदूबोधन होता है और इस सभा का एक अंग
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 +
प्रार्थथा है। यह विद्यालय के कामकाज का
 +
 
 +
उपयोगितावादी दृष्टिकोण है जिससे प्रार्थना का
 +
 
 +
महत्त्व कम हो जाता है ।
 +
 
 +
०". एक बात विशेष उल्लेखनीय है । कई विद्यालयों में
 +
 
 +
wet केवल विद्यार्थियों के लिये होती है । कुछ
 +
 
 +
विद्यालय ऐसे हैं जहाँ शिक्षकगण प्रार्थना में सहभागी
 +
 
 +
होता है परन्तु लगभग एक भी विद्यालय ऐसा नहीं
 +
 
 +
है जहाँ सेवक, कार्यालयीन कर्मचारी, या उसी समय
 +
 
 +
उपस्थित अभिभावक प्रार्थना में सम्मिलित होते हों ।
 +
 
 +
यह अवश्य आश्चर्यकारक है ।
 +
 
 +
०... और एक आश्चर्यकारक बात यह है कि
 +
 
 +
महाविद्यालय और विश्वविद्यालय ऐसे विद्याकेन्द्र हैं
 +
 
 +
जहाँ प्रार्थना अनिवार्य या आवश्यक नहीं मानी
 +
 
 +
जाती । अपवाद स्वरूप ही कहीं प्रार्थना होती
 +
 
 +
दिखाई देती है ।
 +
 
 +
०... सरकारी या गैरसरकारी शिक्षाविभाग के कार्यालयों या
 +
 
 +
संस्थानों में भी प्रार्थना का प्रचलन नहीं है । प्रार्थना
 +
 
 +
करना मानो धर्म निरपेक्ष देश में बच बच कर करने
 +
 
 +
का विषय बन गया है । इस विषय को गम्भीरता से
 +
 
 +
लेने की आवश्यकता है ।
 +
 
 +
२. संकल्प
 +
 
 +
विद्यालयों को यह परिचित नहीं है परन्तु भारत में
 +
 
 +
हर शुभ कार्य के प्रारम्भ में संकल्प किया जाता है जिसमें
 +
 
 +
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 +
 
 +
स्थान, काल, उद्देश्य आदि का उच्चारण किया जाता है ।
 +
 
 +
यह परिचित नहीं होने का एक कारण यह भी है कि इस
 +
 
 +
संकल्प में वर्णित सन्दर्भ भूगोल, कालगणना आदि की
 +
 
 +
भारतीय संकल्पना के अनुसार हैं और विद्यालयों में पढाई
 +
 
 +
जानेवाली इतिहास और भूगोल की बातें कुछ और हैं ।
 +
 
 +
परन्तु विट्रज्जनों को इस बात का विचार करना चाहिये
 +
 
 +
और भारतीय शास्त्रीय तथा सांस्कृतिक परम्पराओं को हम
 +
 
 +
पुनः किस प्रकार स्थापित कर सकते हैं इसका विचार
 +
 
 +
करना चाहिये। यह संकल्प संस्कृत में होता है।
 +
 
 +
व्यावहारिक उद्देश्यों से उसे हिन्दी या अपनी अपनी भाषामें
 +
 
 +
अनुदित किया जा सकता है ।
 +
 
 +
३८ यज्ञ
 +
 
 +
भारत की संस्कृति यज्ञसंस्कृति है । सृष्टि और समष्टि
 +
 
 +
के लिये आवश्यक त्याग करना और उन्हें सन्तुष्ट करना ही
 +
 
 +
यज्ञ है। ना समझ लोग इसे कुछ उपयोगी पदार्थों को
 +
 
 +
जलाना कहते हैं। यज्ञ के सांस्कृतिक और भौतिक
 +
 
 +
वैज्ञानिक खुलासे तो अनेक हैं परन्तु उन्हें ये खुलासे
 +
 
 +
जानने का धैर्य नहीं होता और मानने का साहस नहीं
 +
 
 +
होता । परन्तु जानकार और समझदार लोगों ने विचार कर
 +
 
 +
लोगों को समझाना चाहिये । विशेषकर विद्यालयों में तो
 +
 
 +
इसका प्रारम्भ हो ही सकता है ।
 +
 
 +
४. मध्यावकाश का भोजन अथवा अल्पाहार
 +
 
 +
लगभग सभी विद्यालयों में यह होता ही है। इसे
 +
 
 +
संस्कृति और सभ्यता की गतिविधि बनाना चाहिये ।
 +
 
 +
भोजन कहीं भी बैठकर कैसे भी करने की बात नहीं है ।
 +
 
 +
उसे व्यवस्थित ढंग से करना चाहिये ।
 +
 
 +
इन बातों पर विचार किया जा सकता है
 +
 
 +
०. भोजन करने का स्थान पवित्र और साफ हो ।
 +
 
 +
०... जूते पहनकर भोजन न किया जाय ।
 +
 
 +
०... विद्यालय में भोजन करने का स्थान निश्चित किया
 +
 
 +
जाय । यह बड़े हॉल जैसा कक्ष भी हो सकता है
 +
 
 +
जहाँ सब एक साथ बैठें या अपने अपने कक्षाकक्ष
 +
 
 +
के बाहर का बरामदा हो जहाँ छोटे समूहों में बैठा
 +
 
 +
 +
 
 +
............. page-175 .............
 +
 
 +
पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
 +
 
 +
जाय या मैदानमें वृक्ष के नीचे भी हो जहाँ फिर छोटे
 +
 
 +
समूहों में बैठा जाय । मैदान में या वृक्ष के नीचे
 +
 
 +
गोबर से लीपी भूमि स्वास्थ्य और स्वच्छता की
 +
 
 +
दृष्टि से बहुत लाभदायी होती है ।
 +
 
 +
भोजन से पूर्व हाथ पैर धोने का रिवाज बनाया
 +
 
 +
जाय |
 +
 
 +
भोजन सीधे डिब्बे से नहीं अपितु छोटी थाली में
 +
 
 +
किया जाय । भोजन के पात्र विद्यालय में ही रखे
 +
 
 +
जा सकते हैं ।
 +
 
 +
गोबर से लीपी भूमि पर सीधा बिना आसन के बैठा
 +
 
 +
जा सकता है परन्तु अन्यत्र बिना आसन के नहीं
 +
 
 +
बैठने का आग्रह होना चाहिये ।
 +
 
 +
भोजनमन्त्र बोलकर ही भोजन किया जाय ।
 +
 
 +
गोग्रास निकालकर ही भोजन किया जाय ।
 +
 
 +
आसपास के लोगों के साथ बाँटकर भोजन किया
 +
 
 +
जाय |
 +
 
 +
थाली में जूठन नहीं छोड़ना अनिवार्य बनाया जाय ।
 +
 
 +
भोजन के बाद हाथ धोना, कुछ्ला करना, भोजन के
 +
 
 +
स्थान की सफाई करना, भोजन के पात्र साफ करना
 +
 
 +
ah ver व्यवस्थित रखना सिखाया जाय ।
 +
 
 +
अधिक चर्चा इसी ग्रन्थ में अन्यत्र की गई है ।
 +
 
 +
५. राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान का गायन
 +
 
 +
“जन गण मन हमारा राष्ट्रगीत है और “वन्दे मातरम्‌'
 +
 
 +
राष्ट्रगान । प्रतिदिन दोनों का गायन होना चाहिये । “वन्दे
 +
 
 +
मातरमू पूर्ण गाना चाहिये । प्रार्थथा की तरह ही शुद्ध
 +
 
 +
स्वर, शुद्ध उच्चारण, ताल और गाने की, खड़े रहने की
 +
 
 +
सही पद्धति का आग्रह अपेक्षित है । पूर्ण कण्ठस्थ होना
 +
 
 +
भी अपेक्षित ही है ।
 +
 
 +
६. सर्वेभवन्तु सुखिन:
 +
 
 +
जिस प्रकार अध्ययन प्रार्भ करने से पूर्व संकल्प
 +
 
 +
करते हैं उसी प्रकार आज का अध्ययन पूर्ण होने के बाद
 +
 
 +
सब के मंगल की कामना करनी चाहिये । अतः सर्वे
 +
 
 +
wag Ghat: से विद्यालय पूर्ण होना अच्छा है ।
 +
 
 +
848
 +
 
 +
इतनी बातें तो लगभग सर्वत्र
 +
 
 +
होती हैं, जो नहीं होतीं वे भी हो सकती हैं । परन्तु और
 +
 
 +
एक दो व्यवस्थाओं की बातें इनमें जोड़ी जा सकती हैं ।
 +
 
 +
१, घर जाने से पूर्व अपने अपने कक्ष की पूर्ण
 +
 
 +
स्वच्छता और व्यवस्था करके जाना । इसमें झाड़ू
 +
 
 +
पोंछा, कक्षा के श्यामफलक का लेखन, सारी साधन
 +
 
 +
सामग्री की व्यवस्था आदि बातें हो सकती हैं ।
 +
 
 +
२... प्रार्थना कक्ष, बरामदे, आँगन, मैदान, कार्यालय के
 +
 
 +
कमरे आदि की स्वच्छता करके जाना ।
 +
 
 +
3. सूचना फलक, सुशोभन के स्थान, फलक लेखन,
 +
 
 +
विशेष बातें, सुविचार आदि काम करना ।
 +
 
 +
६... बगीचे की सेवा करना ।
 +
 
 +
विद्यालय अपनी सुविधा और आवश्यकता के
 +
 
 +
अनुसार इस सूची को घटा बढ़ा सकता है ।
 +
 
 +
इन सभी बातों का उद्देश है
 +
 
 +
विद्यालयीन शिक्षा को जीवमान बनाना । विद्यालय
 +
 
 +
कहने से महाविद्यालय और विश्वविद्यालय को भी
 +
 
 +
गिनना है ।
 +
 
 +
विद्यालय के साथ पारिवारिक भाव और जिम्मेदारी
 +
 
 +
का भाव जगाना । यह हमारा विद्यालय है और हमे
 +
 
 +
 +
 
 +
उसे स्वच्छ और व्यवस्थित रखना है ऐसा सबको
 +
 
 +
लगना चाहिये ।
 +
 
 +
इन सभी गतिविधियों में विद्यार्थी, शिक्षक और
 +
 
 +
कार्यालयीन लोग भी जुड़ें तभी पूर्ण विद्यालय
 +
 
 +
परिवार बनता है ।
 +
 
 +
अपनी संस्कृति के साथ जुड़ना भी इन गतिविधियों
 +
 
 +
का उद्देश्य है । हर गतिविधि को कर्मकाण्ड बनने से
 +
 
 +
रोककर ज्ञाननिष्ठ और भावनात्मक बनाना चाहिये ।
 +
 
 +
कक्षाकक्ष के विज्ञान, गणित, अंग्रेजी जैसे विषयों से
 +
 
 +
भी इनका महत्त्व अधिक है ।
 +
 
 +
इन गतिविधियों को मूल्यांकन, स्पर्धा या अंकों के
 +
 
 +
साथ जोड़ने की गलती नहीं करनी चाहिये । ऐसा
 +
 
 +
किया तो इनसे अधिक अंकों की चिन्ता होने लगेगी
 +
 
 +
और हर बात कृत्रिम हो जायेगी ।
 +
 
 +
श्,
 +
 
 +
 +
 
 +
............. page-176 .............
 +
 
 +
विद्यालय में पुस्तकालय क्यों होना चाहिये ?
 +
 
 +
विद्यालय के पुस्तकालय में पुस्तकों की संख्या
 +
 
 +
कितनी होनी चाहिये ?
 +
 
 +
ये पुस्तके कैसी हों ? कितने प्रकार की हों ?
 +
 
 +
पुस्तकालय के साथ वाचनालय भी क्यों होना
 +
 
 +
चाहिये ?
 +
 
 +
पुस्तकालय एवं वाचनालय का उपयोग छात्र एवं
 +
 
 +
आचार्य कर सर्के इसलिये क्या क्या व्यवस्थायें
 +
 
 +
करनी चाहिये ?
 +
 
 +
पुस्तकालय एवं वाचनालय का उपयोग करने के
 +
 
 +
लिये छात्रों को कैसे प्रेरित कर सकते हैं ?
 +
 
 +
एक एक कक्षा का कशक्षापुस्तकालय कैसे
 +
 
 +
बनायें ?
 +
 
 +
पुस्तकालय में पुस्तकों के साथ साथ और क्या
 +
 
 +
क्या हो सकता है ?
 +
 
 +
पुस्तकालय एवं वाचनालय को केन्द्र में रखकर
 +
 
 +
किस प्रकार के कार्यक्रम अथवा गतिविधियों की
 +
 
 +
रचना हो सकती है ?
 +
 
 +
पुस्तकालय का उपयोग अभिभावक भी कर सर्के
 +
 
 +
ऐसी व्यवस्था किस प्रकार से कर सकते हैं ?
 +
 
 +
१०,
 +
 
 +
ग्रत्यक्ष वार्तालाप से प्राप्त उत्तर
 +
 
 +
इस संबंध में जो प्रश्नावली दो तीन लोगों को भरवाने
 +
 
 +
के लिए भेजी गयी वे नियोजित समय से प्राप्त नहीं हुई ।
 +
 
 +
अतः अनेक लोगों से प्रत्यक्ष बातचीत करके उनके उत्तर
 +
 
 +
और अनुभव यहा सम्मिलित किये है ।
 +
 
 +
अध्ययन अध्यापन के लिए अत्यंत उपयुक्त एवं पूरक
 +
 
 +
भूमिका पुस्तकालय की होती है । ग्रंथ एवं पुस्तके ज्ञाननिधी
 +
 
 +
है। जहा ज्ञान की साधना होती है वहाँ पुस्तकालय
 +
 
 +
अनिवार्य है । विद्यालय का स्तर प्राथमिक, माध्यमिक
 +
 
 +
अथवा उच्चशिक्षा भले ही हो स्तर के अनुसार पुस्तकालयों
 +
 
 +
में पुस्तकों की संख्या रहे । विद्यार्थी संख्या तथा पुस्तकों की
 +
 
 +
संख्या इनका अनुपात कम से कम १:१० होना चाहिए ।
 +
 
 +
विद्यालय में पुस्तकालय
 +
 
 +
१६०
 +
 
 +
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 +
 
 +
महाविद्यालयों में पुस्तकालय समृद्ध होना चाहिए कारण वहाँ
 +
 
 +
अध्यापन की अपेक्षा भारतीय भाषाओं में अध्यात्म, दर्शन,
 +
 
 +
धर्म-संस्कृति, राष्ट्र, विभिन्न विचारधारायें, इतिहास, भूगोल,
 +
 
 +
विज्ञान आदि की पुस्तकें, कोष, एटलस, बालसाहित्य,
 +
 
 +
दृश्य-श्राव्य सामग्री आदि सभी प्रकार की पुस्तकें आवश्यक
 +
 
 +
होंगी । पुस्तकालय में बैठकर पढ़ सके इस प्रकार की
 +
 
 +
पुस्तकालय की व्यवस्था होनी चाहिये । छात्र शिक्षक सभी
 +
 
 +
आराम से पढ़ सके ऐसी स्वना व स्थान हो तो अच्छा ।
 +
 
 +
दैनिक वृत्तपत्र पाक्षिक मासिक शैक्षिक पत्रिका्ें पर्याप्त मात्रा
 +
 
 +
मे उपलब्ध हो । पुस्तकालयों में वेद उपनिषद आदि
 +
 
 +
साहित्य अवश्य हो । पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है अपितु
 +
 
 +
हमारी संस्कृति का दर्शन है । इनका दर्शन छात्र इस आयु में
 +
 
 +
करेंगे तो आगे जाकर इनका अध्ययन भी होगा । विषय के
 +
 
 +
शिक्षक छात्रों को अपने विषय की संदर्भ पुस्तकों के नाम
 +
 
 +
बताए और उन्हें पढने के लिए प्रेरित करे । एक विद्यालय
 +
 
 +
के ग्रंथपाल स्वयं सभी विषयों का अध्ययन करते थे और
 +
 
 +
वर्गशः उपयुक्त संदर्भ साहित्य से छात्रों को परिचित करवाते
 +
 
 +
थे । वाचनालय में खरिदी हुई नवीन पुस्तकों के परिचय
 +
 
 +
सूचना फलक पर लिखते और छात्रों को वाचन हेतु प्रेरित
 +
 
 +
व आकर्षित करते थे ।
 +
 
 +
पुस्तकों को कब्हर चढाना, पुस्तकालय की स्वच्छता
 +
 
 +
एवं पुर्नरचना करना, पुस्तकों की मरम्मत करना आदि कार्यों
 +
 
 +
में बड़े छात्रों का सहयोग लेने से उनकी वाचन की ओर
 +
 
 +
उत्कंठा जाग्रत होती है । ज्ञान प्राप्ति की भूख निर्माण होती
 +
 
 +
है । कक्षाकक्ष का स्वतंत्र पुस्तकालय हो ऐसी भी व्यवस्था
 +
 
 +
कर सकते हैं । इसलिए चरित्र, कहानी, काव्य आदि प्रकार
 +
 
 +
की पुस्तकें घर घर से भेंट रूप में छात्र प्राप्त कर और अपनी
 +
 
 +
कक्षा का वर्ग पुस्तकालय तैयार करे । अपने जन्मदिन पर
 +
 
 +
कुछ पुस्तकें भेंट दें । बड़े बड़े शहरों में बड़े बड़े पुस्तकालय
 +
 
 +
होते हैं । वहाँ वाचक वर्ग अत्यधिक कम है । उनसे
 +
 
 +
सहयोग लेकर हम वर्गपुस्तकालय के लिए छात्रों के लायक
 +
 
 +
पुस्तकें लाना और वर्ष के बाद पुनः लौटाना ऐसा करने से
 +
 
 +
विद्यालय का वर्ग पुस्तकालय नित्यनूतन रहेगा । एक
 +
 
 +
 +
 
 +
............. page-177 .............
 +
 
 +
पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
 +
 
 +
विद्यालय ने यह प्रयोग बहुत सफलता पूर्वक किया |
 +
 
 +
पुस्तकों के साथ साथ सी.डी., इ लर्निंग सेवा भी हो सकती
 +
 
 +
है। गाँव के वाचनालयों का स्थान पुनर्जीवित करने हेतु
 +
 
 +
ग्रंथयात्रा, ग्रंथप्रदर्शनी, लेखकों से प्रत्यक्ष वार्तालाप जैसे
 +
 
 +
प्रकट कार्यक्रमों का आयोजन करें ।
 +
 
 +
ज्ञान प्रबोधिनी निगडी के विद्यालय में छात्रों के लिए
 +
 
 +
समृद्ध एवं चैतन्यमय वाचनालय है । छात्रों के लिए वह
 +
 
 +
निःशुल्क है और नगरवासियों के लिए सायंकाल के समय
 +
 
 +
Beh ASIC चलता है । यह एक यशस्वी प्रयोग है ।
 +
 
 +
विमर्श
 +
 
 +
पुस्तकालय का नाम पढ़ते ही गौरवमयी ज्ञानसृष्टि
 +
 
 +
कल्पना चक्षु के समक्ष अवतरित हो जाती है । जब से
 +
 
 +
भगवान गणेशने लिपि का आविष्कार किया, ज्ञान लिखित
 +
 
 +
रूप में सुरक्षित होने लगा । अब तक श्रुति और श्रुतज्ञान की
 +
 
 +
महिमा थी अब पुस्तकों की महिमा होने लगी । पुस्तक धीरे
 +
 
 +
धीरे ज्ञान का प्रतीक बन गया । पुस्तक ज्ञान के समान
 +
 
 +
पवित्र माना जाने लगा और उसका सम्मान होने लगा ।
 +
 
 +
आज भी पुस्तक को ज्ञानसम्पदा के रूप में ही सम्माननित
 +
 
 +
किया जाता है ।
 +
 
 +
पुस्तकालय की पवित्रता बनाये रखना
 +
 
 +
विद्यालय का पुस्तकालय इसी कारण से एक पवित्र
 +
 
 +
स्थान है । प्रथम आवश्यकता उसकी पवित्रता की रक्षा
 +
 
 +
करने की है । इस दृष्टि से कुछ नियम बनाने चाहिये ।
 +
 
 +
०... पुस्तकालय में जूते पहनकर प्रवेश नहीं करना
 +
 
 +
चाहिये ।
 +
 
 +
पुस्तकालय स्वच्छ रखना चाहिये । पुस्तकालय की
 +
 
 +
पुस्तकों, आल्मारियों, अन्य फर्नीचर, सम्पूर्ण कक्ष को
 +
 
 +
स्वच्छ रखने का काम विद्यार्थियों और शिक्षकों ने
 +
 
 +
सेवा के रूप में करना चाहिये, नौकरों द्वारा नहीं
 +
 
 +
करवाना चाहिये ।
 +
 
 +
पुस्तकालय में खाना, चाय पीना, शोर मचाना,
 +
 
 +
अशिष्ट बातें करना, अशिष्ट भाषा प्रयोग करना वर्जित
 +
 
 +
होना चाहिये ।
 +
 
 +
Fak
 +
 
 +
पुस्तकालय में ज्ञान की देवी
 +
 
 +
सरस्वती की प्रतिमा और ज्ञान के आदि ग्रन्थ वेद
 +
 
 +
पूजा स्थान में रखने से पुस्तकालय का सम्मान होता
 +
 
 +
है । वातावरण और मानसिकता पवित्र बनते हैं ।
 +
 
 +
पुस्तकालय का सम्मान करने का दूसरा आयाम है
 +
 
 +
उसका उपयोग करना । विद्यालय के मुख्याध्यायक से लेकर
 +
 
 +
छोटी से छोटी कक्षा के छोटे से छोटे विद्यार्थी तक सभी
 +
 
 +
लोगों में वाचन संस्कृति का विकास होना चाहिये । पुस्तक
 +
 
 +
पढने का रस निर्मिण करना शिक्षाक्रम का अत्यन्त
 +
 
 +
महत्त्वपूर्ण आयाम है ।
 +
 
 +
इस दृष्टि से सभी आयु वर्ग के विद्यार्थियों के लायक
 +
 
 +
पुस्तकें पुस्तकालय में होनी चाहिये । शिशुओं के लिये
 +
 
 +
चित्रपुस्तिकाओं से लेकर देशविदेश के लेखकों की विभिन्न
 +
 
 +
विषयों की. गम्भीर अध्यनय करने लायक पुस्तकें
 +
 
 +
पुस्तकालय में होनी चाहिये ।
 +
 
 +
पढ़ने की रुचि निर्माण करना
 +
 
 +
विद्यार्थियों में पुस्तक पढ़ने की रुचि निर्माण हो इस
 +
 
 +
दृष्टि से कुछ इस प्रकार विशेष प्रयास करने चाहिये ।
 +
 
 +
०". कक्षा में पुस्तकों का पर्विय करवा कर उन्हें पढ़ने
 +
 
 +
हेतु प्रेरित करना । पढ़ी जाने वाली पुस्तकों के
 +
 
 +
सम्बन्ध में चर्चा करना ।
 +
 
 +
पुस्तकों की प्रदर्शनी आयोजित करना । सबको उसे
 +
 
 +
देखने का अवसर देना ।
 +
 
 +
नगर में लगने वाले पुस्तक मेलों में जाने के लिये
 +
 
 +
विद्यार्थियों को प्रेरित करना । पुस्तकों की खरीदी को
 +
 
 +
प्रोत्साहित करना ।
 +
 
 +
समय समय पर वाचन शिबिरों का आयोजन करना
 +
 
 +
और समूहवाचन का भी प्रयोग करना ।
 +
 
 +
छोटे छोटे गटों में एक पढ़े और शेष सुनें ऐसी योजना
 +
 
 +
करना । बारी बारी से सब पढ़ें ।
 +
 
 +
घर में दादाजी या दादीमाँ को पढकर सुनाने का
 +
 
 +
गृहकार्य देना । आदत विकसित होने के बाद गृहकार्य
 +
 
 +
देने की आवश्यकता न रहे यह लक्ष्य रखना ।
 +
 
 +
 +
 
 +
............. page-178 .............
 +
 
 +
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 +
 
 +
०... आसपास के लोग पढ़ते होंगे तो... की दृश्यश्राव्य सामग्री का प्रचलन बढा है। ये अधिक
 +
 
 +
विद्यार्थियों को पढ़ने की प्रेरणा अपने आप मिलेगी । .... प्रभावी हैं ऐसा भी बोला जाता है । परन्तु अनुभवी और
 +
 
 +
०... विद्यार्थियों को पढ़ने हेतु समय मिले इस दृष्टि से अन्य... जानकार लोगों का कहना है कि स्थायी प्रभाव की दृष्टि से
 +
 
 +
गृहकार्य या क्रियाकलाप कम करना । यह सामग्री पुस्तकों का स्थान नहीं ले सकती । पुस्तकों से
 +
 
 +
तीसरा मुद्दा है पुस्तकों का चयन और व्यवस्था इस... अधिक प्रभावी प्रत्यक्ष वार्तालाप, प्रत्यक्ष शिक्षा या प्रत्यक्ष
 +
 
 +
दृष्टि से इस प्रकार विचार करना चाहिये... भाषण ही हो सकता है । अन्य सभी बातों का क्रम बाद में
 +
 
 +
०... विद्यालय का एक केन्द्रीय पुस्तकालय होना चाहिये ही आता है। इस दृष्टि से पुस्तकों का महत्त्व स्थापित
 +
 
 +
करना चाहिये ।
 +
 
 +
उसी प्रकार प्रत्येक कक्षा का भी पुस्तकालय होना
 +
 
 +
चाहिये । कक्षा में छात्रों की संख्या जितनी पुस्तकें at पुस्तकों का जतन करना
 +
 
 +
उसमें होनी ही चाहिये । जिससे वाचन के कालांश में अन्तिम मुद्दा है पुस्तकों का जतन करने का । कुछ
 +
 
 +
सबको पढ़ने के लिये स्वतन्त्र पुस्तक मिल सके |
 +
 
 +
पुस्तकें सभी विद्यार्थियों इस प्रकार से विचार करना चाहिये...
 +
 
 +
<nowiki>*</nowiki>.. कक्षा पुस्तकालय की सभी पुस्तकें सभी विद्यार्थियों ने _ ०»... अपनी पदों A) aterert पिया चाहिये |
 +
 
 +
पढ़ी हुई हों ऐसी अपेक्षा करनी चाहिये । ०... पुस्तकों में चित्रविचित्र आकृतियाँ बनाकर उन्हें खराब
 +
 
 +
०... कक्षा में पढ़ाई हेतु जो विषय और पाठ्यक्रम होता है नहीं करना चाहिये ।
 +
 
 +
उससे सम्बन्धित पुस्तकें कक्षा पुस्तकालय में होनी. ०... पुस्तकों को व्यवस्थित रखना सिखाना चाहिये । वे
 +
 
 +
चाहिये ताकि उन्हें पढ़ने से विद्यार्थियों की समझ फटे नहीं, उनका बन्धन शिथिल न हो ऐसी सावधानी
 +
 
 +
स्पष्ट हो और जानकारी ae | रखना सिखाना चाहिये ।
 +
 
 +
०... कक्षाकक्ष के पुस्तकालय के समान ही प्रत्येक घरमें .. *.. पुस्तकों को आवरण चढाना सिखाना चाहिये ।
 +
 
 +
पुस्तकालय a tar ame ear चाहिये । शिक्षित ° Ms पुस्तकालय को व्यवस्थित रखने का काम घर
 +
 
 +
व्यक्ति के घर की शोभा पुस्तकें ही होती हैं । शिक्षित में रहनेवाले विद्यार्थियों का होना चाहिये । उन्हें यह
 +
 
 +
लोगों का व्यसन पुस्तक पढ़ना होता है । घर में बड़ों सिखाने का काम घर सकी बड़े लोगों का है । हि
 +
 
 +
और छोटों सबके लिये पुस्तकें होनी चाहिये । सब... *... विद्यालय के पुस्तकों की स्वच्छता, सम्हाल, उन
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साथ मिलकर पढते हों ऐसी कल्पना भी सम्य है । आवरण चढ़ाने का काम विद्यार्थियों की शिक्षा का
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एक अंग होना चाहिये ।
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वस्तु न खरीदकर पुस्तक खरीदी जाय इस के लिये... बहुपाठी बनें ऐसी सभी शिक्षकों और अभिभावकों की
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विद्यार्थियों को प्रेरित करना चाहिये । आकांक्षा होनी चाहिये । इस दृष्टि से हर प्रकार से सार्थक
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आजकल पुस्तकों के पर्याय के रूप में अनेक प्रकार... प्रयास करने चाहिये ।
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Revision as of 09:53, 23 December 2019

अध्याय ९

छात्रों का बस्ता

  1. कक्षा के अनुसार छात्रों के बस्ते में क्या क्या होना चाहिये ?
  2. छात्रों के बस्ते में अनावश्यक चीजें होती हैं क्या ? यदि हां तो किस प्रकार की ?
  3. आजकल आम शिकायत होती है कि छात्रों का बस्ता बहुत भारी होता है। इस शिकायत में कितनी सत्यता है ?
  4. यदि बस्ता भारी है तो इसके क्या कारण हैं ? उसका बोझ कम करने के लिये क्या कर सकते
  5. बस्ता किसे कहते हैं ?
  6. बस्ते का थैला कैसा होना चाहिये ?
  7. बस्ते में क्या क्या होना चाहिये ?
  8. बिना बस्ते के विद्यालय में अध्ययन हो सकता है क्या ?
  9. बस्ता भारी होगा तो महंगा भी होगा । इस महंगे

बस्ते को सस्ता कैसे बनाया जाय ?

१०. बस्ते का बोझ एवं खर्च कम करने के लिये हम विद्यालयमें क्या क्या उपाय करते हैं ?

प्रश्नावली से पात उत्तर

इस प्रकार है :

  1. बस्ते में क्या-क्या होना चाहिए ? इसके उत्तर में कॉपी, कम्पास, किताबें और साथ में पानी की बोटल की अनिवार्यता सबने बताई ।
  2. बस्ते में अनावश्यक सामग्री के उत्तर में चॉकलेट व खिलौने बताये । निरीक्षण में कुछ बालकों के बस्ते में रिमोट, मोबाइल भी मिल जाते हैं। एक बार कक्षा तीन के छात्रों के बस्ते देखे गये, उसमें काम की १५ वस्तुएँ, काम की वस्तुएँ जो भूल गये १०, और जो किसी काम की नहीं थी, ऐसी ४० वस्तुएँ थीं। इनके अतिरिक्त वस्तुओं में गत वर्ष की कॉपी-किताबें कहानियों की पुस्तकें, शंख-शीप, कंचे, भँवरे, १०-१५ पैन तथा प्लास्टिक की थैलियाँ भी थीं। बस्तों का निरीक्षण करने से ध्यान में आता है कि वे व्यर्थ में ही फालतू वस्तुओं का बोझ लादकर लाते हैं । और काम की वस्तुओं को भूलकर आते हैं। आजकल हाईस्कूल के बड़े छात्र के बस्ते में चाकू जैसी अनर्थकारी वस्तुएँ दिखाई दे जाती हैं।
  3. बस्ते में इन सभी वस्तुओं के कारण बोझ बढ़ना तो स्वाभाविक है । बोझ बढ़ने का दूसरा कारण यह बताया जाता है कि प्रतिदिन सभी विषयों की कॉपी-किताबें ले जानी पड़ती हैं, क्योंकि समय सारिणी के अनुसार अध्यापन नहीं होता।
  4. बस्ता किसे कहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में सबने एक ही मत व्यक्त किया है कि बस्ता कॉपी-किताब ले जाने का साधन मात्र है।
  5. थैला कैसा होना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर में यह मत उभरकर आया कि अध्ययन से सम्बन्धित सारी शैक्षिक सामग्री थैले में समा जाय इतना बड़ा हो, सामग्री भीगे नहीं इसलिए प्लास्टिक कॉटेड हो । बिना बस्ते के अध्ययन संभव नहीं है, यह समीकरण सबके मन में गहरा बैठ गया है।
  6. बस्तों की कीमतें भी ७०० से १००० रुपये तक होती हैं। जो बस्ते में रखी हुई कॉपी किताबों से भी अधिक होती है। कुल मिलाकर बस्ते बहुत अधिक खर्चीले हो गये हैं; जो वास्तव में अनावश्यक खर्च है।

फिर भी प्रतिवर्ष नया बस्ता चाहिए, नई कक्षा, नया बस्ता की माँग बनी ही रहती है । एक शिक्षक ने यह सुझाव अवश्य दिया है कि यदि बस्ता घर पर ही सिलाया जाय तो बहुत सस्ता पड़ सकता है ।

बस्ते का बोझ कम करने के उपायों में ये सुझाव आये - १. समय सारिणी के अनुसार किताबें-कॉपियाँ ले जाना। २. संगणक, टेब आदि इलेक्ट्रोनिक साधनों का उपयोग । ३. स्लेट-पेंसिल, कृष्णफलक का अधिकाधिक मात्रा में उपयोग । कुल मिलाकर कहें तो शिक्षा माने भारी बस्ता, यह गृहीत आज सर्वसामान्य होने के कारण, इतना बोझ अच्छा नहीं यह समझते हुए भी व्यवहार में यही चल रहा है।

अभिमत :

शिक्षा के बारे में जो चित्र-विचित्र धारणायें मन में बैठ गई हैं उनका ही परिपाक उत्तरो में दिखाई देता है। साध्य-साधन विवेक न होने के कारण साधन को श्रेष्ठ मानने का अविवेकी व्यवहार सर्वत्र दिखाई देता है । विद्या के बारे में एक सुभाषित में कहा गया है - 'न चौर्यहारं न च भारकारी' फिर भी बस्तों का महत्त्व आज अकारण बढ़ गया है। के. जी. कक्षा से ही बालक ज्ञानवाही (ज्ञान को वहन करने वाला) न होकर भारवाही बन गया है। शालेय वस्तुओं का व्यवसाय होने के कारण आकर्षक छूट, कमिशन, रंग-रूप में नवीनता एवं विविधता ये सब अभिभावकों पर भारी पड़ रहे हैं, ऐसा लगता है।

शिशु वाटिका में डिब्बे के लिए थैली पर्याप्त होती है। और प्राथमिक कक्षाओं में स्लेट पेंसिल एवं एक दो किताब कॉपी बहुत होती हैं। आज भारी बस्ता उठाना

कठिन है, इसलिए बस, रिक्शा, दादा-दादी या नौकर चाहिए । छात्रों के मन में बस्ते के प्रति आदर व पवित्रता का भाव न होने के कारण वे उसे मालगाड़ी के सामान की तरह फेंक देते हैं। बस्ते के पाँव लग जाने पर सौरी शब्द बोलकर उसका परिमार्जन कर लेते हैं । बस्ते का बोझ कम करने के लिए एक विद्यालय ने अच्छा उपक्रम किया। प्रत्येक छात्र ने अपनी वार्षिक परीक्षाएँ पूर्ण होने के बाद अपनी सारी पुस्तकों की मरम्मत

यह प्रश्नावली छत्तीसगढ के प्रधानाचार्य श्री हंसा रागीजी के द्वारा भरकर भेजी है। उनके उत्तरों का आशय

की, उन पर कवर चढ़ाया और पूरा संच विद्यालय में जमा करवा दिया । अगले वर्ष नई पुस्तकें खरीदकर उन्हें घर पर ही अध्ययन के लिए रखा । और विद्यालय में पूर्व छात्रों द्वारा जमा की हुई पुस्तकें उपयोग में ली। इस उपक्रम से पूरे विद्यालय के सभी बालकों के बस्तों में से पुस्तकों का बोझ दूर हो गया ।

विमर्श

लम्बे अरसे से बस्ते के बोज की बहुत चर्चा हो रही है । उच्च पदस्थ अधिकारी, शिक्षाशास्त्री, अभिभावक बस्ते के बोझ से चिन्तित हैं । डॉक्टर और मनोविज्ञानी भी चिन्ता कर रहे हैं ।

इधर बस्ता भारी से और भारी होता जा रहा है । विद्यार्थी परेशान हैं, अभिभावक त्रस्त हैं और व्यापारी खुश हैं। परेशानी भले ही बढ़े, बस्ता हल्का होने का नाम ही नहीं लेता ।

विद्यालयीन के विद्यार्थियों की ही कहानी है। प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में ही बस्ते के बोझ की समस्या है । जैसे ही विद्यार्थी महाविद्यालय में आते हैं, उन्हें बस्ते की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती । प्रगत अध्ययन करने वाले अनेक विद्यार्थी छात्रावास में रहते हैं । उन्हें बस्ता उठाना नहीं पड़ता । अधिकांश विद्यार्थी ऐसे हैं जो कम से कम पुस्तकें और लेखन सामग्री लेकर महाविद्यालय में जाते हैं । हाँ, इधर टेबलेट या लेपटॉप ले जाने लगे हैं ।

प्राथमिक विद्यालय के विद्यार्थी तो अपना बस्ता उठा भी नहीं सकते, ऐसा भारी होता है ।

इसके उपाय के रूप में लोग क्या करते हैं ?

बच्चों की मातायें बस्ता उठाकर वाहन तक छोड़ने के लिये जाती हैं ।

कई विद्यालयों में बस्ता रखने की व्यवस्था की जाती है । वहाँ पुस्तकों और लेखन सामग्री के दो संच रखे जाते हैं । एक विद्यालय के लिये और दूसरा घर के लिये । इसमें सुविधा होती है, परन्तु खर्च बढ़ता है ।

आश्चर्य इस बात का है कि आवासीय विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थी भी अपना पूरा बस्ता लेकर विद्यालय जाते हैं ।

बस्ते के सम्बन्ध में विचारणीय बातें

विद्यार्थियों के बस्ते के सम्बन्ध में कुछ इस प्रकार विचार करना चाहिये ।

  • शैक्षिक दृष्टि से विचार करें तो भाषा और गणित के अलावा एक भी विषय पुस्तकों से नहीं पढ़ा जाता । इसलिये इन पुस्तकों को विद्यालय में ले जाने की आवश्यकता ही नहीं है ।

प्राथमिक विद्यालयों में प्रथम एक भाषा होती है, क्रमशः बढ़ते-बढ़ते यह संख्या चार तक पहुँच जाती है । कई विद्यालयों में सामान्य गणित के साथ वैदिक गणित पढ़ाया जाता है। यदि चार भाषा और गणित ऐसे पांच विषय दिन की समयसारिणी में हैं तो एक साथ पांच पुस्तकें ले जानी पड़ेंगी । समयसारिणी के नियोजन से यह संख्या आधी हो सकती है ।

लेखन पुस्तिका के साथ-साथ स्वाध्याय पुस्तिका का प्रचलन भी बढ़ा है । यदि दिन की समयसारिणी में सात विषय हैं तो चौदह पुस्तिकायें ले जानी पढड़ेंगी । यह अत्याचार है ।

स्वाध्याय पुस्तिका अनिवार्य नहीं है। अभ्यास पुस्तिका भी नहीं । इसे कम कर देने से बोझ आधा हो जायेगा । मानसिकता तो यह बनानी चाहिये कि इन सारी पुस्तकों तथा सामग्री की अध्ययन के लिये कोई आवश्यकता ही नहीं है ।

लेखन पुस्तिकाओं के कद और संख्या भी कम की जा सकती है ।

  • विद्यार्थियों का अनवधान भी बस्ता भारी होने का बड़ा कारण होता है ।

विद्यार्थी समयसारिणी देखते ही नहीं और जितनी पुस्तकें तथा अन्य सामग्री होती है, सारी बस्ते में भर देते हैं और उठाकर ले आते हैं । वाहन के कारण से उन्हें बहुत दूर तक उठाने की आवश्यकता भी नहीं होती है, इसलिये उन्हें चिन्ता नहीं होती ।

इस विषय में कभी-कभी विद्यालय की समयसारिणी में भी अचानक परिवर्तन हो जाता है और विद्यार्थी नहीं लाये हैं, ऐसी सामग्री की आवश्यकता पड जाती है । तब विद्यार्थियों का मानस सबकुछ एक साथ उठा कर लाने का बन जाता है ।

विद्यार्थियों के बस्ते में विद्यालय के कार्य से सम्बन्धित नहीं हैं, ऐसी भी चीजें होती हैं । गेंद, कंचे, सी.डी., स्टीकर, एक्टरों और क्रिकेटरों के चित्र, फिल्म की पत्रिकायें, मोबाइल आदि हम कल्पना भी न कर सकें, ऐसी वस्तुरयें वे साथ लेकर आते हैं । इन वस्तुओं के कारण भी बोझ बढ जाता है । साथ में पानी की बोतल, भोजन का डिब्बा, तौलिया, कम्पासपेटिका, चित्रपुस्तिका आदि भी बोझ बढ़ाते हैं ।

वास्तव में बस्ते के शारीरिक बोझ की नहीं अपितु इस अव्यवस्थितता की चिन्ता करने की आवश्यकता है । शारीरिक बोझ के सम्बन्ध में तो लोग सैद्धान्तिक रूप से ही परेशान हैं । वह खास किसी को उठाना नहीं पड़ता इसलिये कोई चिन्ता भी नहीं करता । अव्यवस्थितता दूर करना मुख्य विषय है ।

बोझ कम करने के उपाय

विद्यालय और माता-पिता को मिलकर कुछ इस प्रकार उपाय करने चाहिये

  • विद्यार्थियों को समझ में आये उस पद्धति से क्या लाना है और क्या नहीं लाना है, यह समय-समय पर सूचित किया जाना चाहिये । सूचना एक ही बार देने से काम नहीं चलेगा । आवश्यकता के अनुसार उसका पुनरावर्तन करना चाहिये |
  • कौन सी सामग्री क्यों लाना है और क्यों नहीं लाना है, यह भी उचित समय पर समझाना चाहिये ।
  • केवल सूचना देना पर्याप्त नहीं है । सबके पास अपनी अपनी कक्षा की समयसारिणी है कि नहीं, यह देखना चाहिये । सबके पास हो इसका आग्रह भी रखा जाना चाहिये ।
  • विद्यालय ने स्वयं एक बार अच्छी तरह से निश्चित कर लेना चाहिये कि हर कक्षा के विद्यार्थी के पास अधिक से अधिक और कम से कम कितनी सामग्री हो सकती है, उसमें से सप्ताह में कब सबसे अधिक सामग्री लाने की आवश्यकता पड़ती है और वह कितनी है । साथ ही एक साथ अधिक सामग्री न लानी पड़े इस प्रकार से नियोजन भी करना चाहिये |
  • इसके बाद विद्यार्थियों को बस्ता कैसे जमाना यह भी प्रायोगिक पद्धति से सिखाना चाहिये । उत्तम पद्धति से बस्ता जमाना एक कुशलता है और सबको उसे प्राप्त करना ही चाहिये । विद्यार्थियों ने अपना बस्ता स्वयं जमाना चाहिये और स्वयं उठाना चाहिये । घर में माता-पिता ने इसका ध्यान रखना चाहिये |
  • समय-समय पर विद्यार्थियों के बस्तों का निरीक्षण होना चाहिये । अनावश्यक और फालतू बातें नहीं लाने के लिए आग्रहपूर्वक समझाना चाहिये । यह स्वभाव फिर अन्य बातों में भी परिलक्षित होता है, जीवन में व्यवस्थितता आती है।
  • बस्ते का बोझ तो कम करना ही चाहिये, साथ में व्यवस्थितता भी आनी चाहिये । इसके अलावा अन्य छोटी बातें भी विचारणीय हैं।
  • आजकल बस्ता बहुत महँगा और सिन्थेटिक होता है। दोनों बातें हानिकारक हैं। इसका उपाय करना चाहिये । बस्ते के कद और आकार का विचार कर, उसे कितना भार उठाना है उसका विचार कर, उसकी डिजाइन कैसी होगी इसका विचार कर, योग्य कपड़े का चयन कर विद्यालय ने ही एक नमूना तैयार करना चाहिये । उसकी विशेषताओं को देखकर, समझकर, अपनी मौलिकता का विनियोग कर अभिभावक स्वयं बस्ता बनवा सकते हैं अथवा विद्यालय सबके लिये बस्ते की व्यवस्था कर सकते हैं । बस्तों की सिलाई के लिये दर्जी को बुलाया जा सकता है । यह भी एक बहुत अच्छा और उपयोगी कार्य ही होगा ।
  • पानी की बोतल एक अनावश्यक बोझ है । इसकी चर्चा पहले की गई है ।
  • अपना बस्ता स्वयं उठाने की शिक्षा भी दी जानी चाहिये । इसका सम्बन्ध बोझ के साथ नहीं, मानसिकता के साथ है । आगे चलकर स्वावलम्बन विकसित होता है ।
  • कुल मिलाकर साधन सामग्री कम करने की आवश्यकता लगनी चाहिये ।
  • बस्ता किस प्रकार कम किया जा सके, इसकी चर्चा में विद्यार्थियों को सहभागी बनाना चाहिये । इससे उनकी विचारशक्ति और कल्पनाशक्ति को चालना मिलती है ।
  • लेखन पुस्तिकाओं की संख्या कम करने हेतु पत्थर की पाटी का उपयोग बढ़ाना चाहिये । पाटी घर और विद्यालय दोनों स्थानों पर रह सकती है । खड़िया से भूमि पर लिखना और फिर साफ कर देना भी अच्छा ही है । लेखन पुस्तिकाओं के स्थान पर खुले कागज और धारिका लाने का विकल्प भी अच्छा है ।
  • कुल मिलाकर बस्ते के निमित्त से अन्य बातों की शिक्षा का ही विशेष महत्व है, यह बात ध्यान में आती है ।
  • ऐसी तो अनेक बातें हैं जिनमें विचारहीनता के कारण कष्ट और खर्च अनावश्यक रूप से बढ़ जाते हैं । शिक्षा से वास्तव में व्यावहारिक बुद्धि का विकास होना चाहिये परन्तु आज की शिक्षा में व्यावहारिकता का विचार किया ही नहीं जाता है ।

जीवन के साथ शिक्षा का कोई सम्बन्ध नहीं होने के कारण ऐसा होता है ।

यह स्थिति इस बात की ओर संकेत करती है कि शिक्षा को केवल अंकों के खेल से मुक्त कर अधिक अर्थपूर्ण बनाना चाहिये ।

(अ) विद्यालय में छात्रों द्वारा प्रयुक्त साधनसामग्री

  1. छात्रों के लिये कौन कौन सी साधनसामग्री होती है?
  2. इन चीजों की उपयोगिता क्या क्या है - (१) पुस्तकें (२) कापी (३) लेखनी, पेन्सिल रंगीन पेन्सिल आदि
  3. कंपासपेटिक
  4. मार्दर्शिकायें , स्वाध्याय, पुस्तिकायें, सहायक पुस्तिकार्यें आदि
  5. यांत्रिक उपकरण यथा कैल्क्यूलेटर, संगणक, टेपरेकोर्डर, ऑडियो, वीडियो कैसेट्स ।
  6. विद्यालय में लाने योग्य एवं घर में उपयोग करने योग्य कौन कौन सी सामग्री उपयोगी है, कौन सी निरुपयोगी है और कौन सी हानिकारक है ?
  7. आर्थिक दृष्टि से साधनसामग्री के विषय में किस प्रकार से विचार करना चाहिये ?
  8. शैक्षिक दृष्टि से साधनसामग्री के विषय में किस प्रकार से विचार करना चाहिये ?
  9. साधनसामग्री आचार्य का पर्याय बन सकती है क्या ?
  10. साधनसामग्री किसे कहते हैं ?

(ब) शिक्षक के द्वारा प्रयुक्त साधनसामग्री

आचार्य के लिये साधनसामग्री की क्या उपयोगिता है ?

1. आचार्य के लिये कौन कौन सी साधनसामग्री की क्या उपयोगिता होती है ?

2. आचार्य के लिए कौन कौन सी साधनसामग्री होती है ?

3. आचार्य के लिये साधनसामग्री की उपयोगिता एवं निरुपयोगिता के मापदंड क्या हैं ?

४. उपयोगी सामग्री किन किन स्रोतों से प्राप्त होती है?

५. साधनसामग्री का आर्थिक पक्ष क्या है ?

६. साधनसामग्री के सुविधापूर्ण उपयोग के लिये विद्यालयों में किस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिये ?

७. साधनसामग्री के रखरखाव एवं उपयोग के सम्बन्ध में कौन कौन से बिन्दु ध्यान देने योग्य हैं ?

८. आचार्य स्वयं के स्वाध्याय के लिये कौन कौन सी सामग्री का उपयोग कर सकता है ?

९. आवश्यक साधनसामग्री के स्रोत कितने प्रकार के होते हैं ?

१०, साधनसामग्री निर्माण करने में किन किन लोगों का सहयोग प्राप्त हो सकता है ? कैसे ?

विद्यालय में प्रयुक्त साधन-सामग्री छात्र एवं आचार्य दोनों के लिए ही उपयोगी होती है, अतः यह प्रश्नवावली थोडी बडी बनी है |

छात्रों के लिए साधन सामग्री : प्राप्त उत्तर

विद्यार्थियों की शिक्षण प्रक्रिया को अधिक सुलभ एवं सुस्पष्ट बनाने के लिए जो सामग्री उपयोग में ली जाती है उसे साधन-सामग्री कहते हैं ऐसी व्याख्या सबने की है । पैन पेंसिल, कॉपी, रजिस्टर, कम्पास, किताबें, एटलस, शब्दकोष आदि । इसी प्रकार यांत्रिक उपकरणों में संगणक, लेपटोप, टेब, केल्क्यूलेटर, ऑडियो-न्हीडियो सीडीज आदि सभी उपकरण साधन सामग्री के अन्तर्गत ही आते हैं । कौनसी आयु में कौनसी सामग्री उपयुक्त है और कौनसी हानिकारक है इसका विवेक करना आना चाहिए । उदा, दृष्टि कमजोर है तो ऐनक आवश्यक हो जाती है, लेकिन दृष्टि बिल्कुल ठीक है फिर भी केवल फेशन के लिए एनक पहना जायेगा तो निश्चित है कि यह हानि पहुँचायेगा । इसलिए स्तर के अनुसार साधनों का वर्गीकरण करना चाहिए :

अभिमत :

भारतीय शिक्षा पद्धति की विस्मृति के कारण प्राथमिक विद्यालयों में स्लेट पेंसिल को छोड़कर अन्य साधन-सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ती यह बात हमें समझ में ही नहीं आती । इसके विपरीत विद्यालय में क्या पढ़ाया और घर पर क्या गृहकार्य किया इसकी ओर ही सारा ध्यान रहता है। इसलिए शिशुवाटिका से ही कॉपी- किताबों का बोझ बच्चों को सहना पड़ता है । वास्तव में अभिभावक और शिक्षक के परस्पर विश्वास और सहयोग से ही बालक की शिक्षा एवं विकास संभव होता है । स्लेट का उपयोग करके पर्यावरण की अपरिमित हानि हम रोक सकते हैं । 'शिक्षक' रूपी चेतनायुक्त मार्गदर्शक होते हुए भी विषयों की गाइडबुक उपयोग में लानी पड़े यह विपरीत विचार ही है । माध्यमिक विद्यालयों में ओडियो-वीडियों सीडीज़ कुछ मात्रा में उपयोगी होते हैं। परन्तु उसमें ज्ञानार्जन का प्रमाण कम और मनोरंजन का प्रमाण अधिक होता है । संगणक, केलक्युलेटर आदि उच्च शिक्षा में उपयोगी हो सकते हैं, अन्यत्र हानिकारक ही होते हैं । विवेक जाग्रत होने से पहले इन साधनों का उपयोग करने से विकास नहीं विनाश की ही अधिक सम्भावना है ।

इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय शिक्षा पद्धति में शैक्षिक साधन-सामग्री के लिए कोई स्थान ही नहीं है । स्थान है, परन्तु वह विषय सापेक्ष है । यथा संगीत सीखना है तो तानपुरा, हार्मानियम, तबला आवश्यक है । जबकि निर्स्थक साधन-सामग्री का उपयोग वर्जित है । होना तो यह चाहिए कि ईश्वर प्रदत्त साधन ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्ट्रियों का विकास करें, उन्हें सक्षम बनायें और उपकरणों का उपयोग कम से कम करें । यही श्रेष्ठ भारतीय विचार है । महँगे साधनों का उपयोग करके ही हमने शिक्षा को महँगी बना दी है । विद्यालय शुरु होने से पहले ही कॉपी-किताब, बस्ता, गणवेश आदि साधन-सामग्री का व्यवसाय शुरु हो जाता है और लाखों रूपयों का व्यवहार होता है । कुछ भी हो यह अनुभव सिद्ध है कि साधन-सामग्री कभी भी शिक्षक का विकल्प नहीं बन सकती ।

शिक्षक द्वारा प्रयुक्त साधन-सामग्री : प्राप्त उत्तर

विषय वस्तु का अध्यापन सरल एवं सुस्पष्ट हो, इसलिए साधन-सामग्री का प्रयोग किया जाता है । इसमें प्रयोगशाला के उपकरण, भूगोल के मानचित्र, ग्लोब, कृष्णफलक, डस्टर व चॉक आदि सामग्री शिक्षक के लिए उपयोगी होती है यह सबका मानना है । आजकल सरकार विद्यालयों में विज्ञान पेटी, गणित पेटी आदि निःशुल्क देते है । परन्तु इनका यथायोग्य उपयोग नहीं होता । तालाबन्द पड़ी रहती है और खराब हो जाती है । ऐसे अनेक लोगों के अनुभव हैं । छात्रों की सहायता से चार्ट्स-मॉडल्स आदि बनवाये जाते हैं। परिसर में प्राप्त प्राकृतिक वस्तुएँ भी एक कल्पक शिक्षक उपयोग में ले लेता है ।

आजकल ऐसा माना जाने लगा है कि जो शिक्षक जितनी अधिक साधन-सामग्री उपयोग में लाता है, वह उतना ही अच्छा अध्यापक होता है । इसलिए भी इन सामग्रियों का व्यापार बढ़ता जा रहा है । शिक्षा का बजट खर्च करने हेतु लाखों रुपयों का धन्धा हो रहा है । बहुत बार वह सामग्री अनावश्यक होती है या ऐसी बेकार होती है कि काम में ली नहीं जा सकती । इस प्रकार सरकारी धन का दुरुपयोग होता है ।

सारी सामग्री की देखभाल अच्छी तरह से होनी आवश्यक है । इसके लिए कपाट, नक्शा स्टैण्ड जैसी वयवस्थाएँ विद्यालय में होनी चाहिए । शिक्षक का स्वयं का स्वाध्याय गहन एवं विस्तृत होना चाहिए ।

विमर्श

शिशु से लेकर युवा तक के विद्यार्थी क्या क्या लेकर विद्यालय में जाते हैं इसकी सूची बनायेंगे तो आश्चर्यचकित रह जायेंगे । यह सूची भी केवल शैक्षिक सामग्री की ही बनाने की बात है । विद्यालय में शैक्षिक सामग्री के अलावा भी बहुत कुछ ले जाया जाता है, यह होना तो चाहिये अस्वाभाविक परन्तु वैसा लगता नहीं है। फिर भी हम अभी उसकी बात नहीं करेंगे ।

विद्यार्थी जिस प्रकार का प्रयोग करते हैं, उसे तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है । १. आवश्यक, २. अनावश्यक, ३. निर्रर्थक और अनर्थक ।

1. आवश्यक सामग्री

१, पाठ्यपुस्तकें, सन्दर्भ पुस्तकें, लेखन सामग्री आवश्यक सामग्री हैं । गणित और विज्ञान के सन्दर्भ में कम्पास पेटिका, मापनपट़िका आवश्यक सामग्री हैं। पेन्सिल के साथ रबड़ आवश्यक है । स्लेट के साथ खड़िया पेन और स्लेट पोंछने का कपडा आवश्यक है । चित्र बनाने हेतु पेन्सिल, रंग आदि आवश्यक है । भूगोल के लिये स्लेट के साथ-साथ लेखन पुस्तिका भी आवश्यक है ।

आवश्यक सामग्री किसे कहते हैं ? जिसके बिना पढ़ना सम्भव ही नहीं हो, वह अनिवार्य सामग्री है । शिक्षा का शास्त्र कहता है कि पढने के लिये शिक्षक और विद्यार्थी के अलावा और कुछ भी अनिवार्य नहीं है । दोनों को एक ही शब्द प्रयोग लागू करना है तो विद्यार्थी संज्ञा ही उपयुक्त है। पढाना भी पढ़ने का ही प्रगत रूप है । विद्या प्राप्त करने के लिये इच्छुक व्यक्ति विद्यार्थी है और शिक्षक भी अपने मूल रूप में विद्यार्थी ही है । विद्यार्थी को विद्या प्राप्त करने के लिये उपयोगी साधन उसे जन्मजात मिले हैं । वे हैं कर्मन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रिया, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । ये साधन प्राथमिक हैं, मुख्य हैं और अनिवार्य हैं । स्मृति, धारणा, ग्रहणशीलता, समझ, कौशल आदि इनके गुण हैं । इन मुख्य साधनों की सहायता के लिये उनके द्वारा उपयोग किये जाने के लिये जो सामग्री है, वह आवश्यक सामग्री है । प्राचीन काल में जब लेखन कला का आविष्कार नहीं हुआ था, तब तक पढ़ाई के लिये किसी भी प्रकार की सामग्री का प्रयोग नहीं करना पड़ता था । शिक्षक का बोलना और विद्यार्थी का सुनना ही पर्याप्त होता था । इससे भी अदूभुत बातों का उल्लेख मिलता है । पढाई के ईश्वरप्रदतत साधन जब सर्वाधिक सक्षम होते हैं, तब बिना कहे भी बातें सुनी और समझी जाती हैं ।

दो उदाहरण देखें...

१, चित्रं वटतरोमूँले वृद्धा शिष्याः गुररु्युवा ।

गुरोइस्तु मौन॑ व्याख्यानं शिष्याइस्तु छिन्न संशया: ।।

अर्थात्‌ अहो, आश्चर्य है ! वटवृक्ष के नीचे वृद्ध शिष्य और युवा गुरु बैठे हैं । गुरु का मौन ही व्याख्यान है और शिष्यों के संशय दूर हो जाते हैं ।

अर्थात्‌ पढ़ने के लिये उपयोगी ईश्वरप्रदत्त साधनों की क्षमता कितनी अधिक है इसका यहाँ वर्णन किया गया है ।

यह वर्णन काल्पनिक नहीं है, सत्य है ।

२. गर्भावस्‍था में तथा सद्योजात, बहुत छोटे बच्चे बड़ों के द्वारा अनकही बातें भी समझ जाते हैं, जिन्हें वे संस्कारों के रूप में ग्रहण करते हैं ।

ये उदाहरण दृशते हैं कि पढ़ने के लिये ये साधन अनिवार्य हैं । इनके बिना अध्ययन सम्भव नहीं । हम इन साधनों की चर्चा यहाँ नहीं कर रहे हैं । इन साधनों द्वारा उपयोग में लिये जाने वाले साधन, आवश्यक साधन हैं ।

लेखन का आविष्कार हुआ है तब से लेखन से सम्बन्धित सारी सामग्री आवश्यक बन गई है । शर्त केवल यह है कि पढ़ाई के मुख्य साधनों की शक्ति में अवरोध रूप न बने और उनका काम सुकर बनाये, ऐसी सामग्री आवश्यक मानी जानी चाहिये । ईश्वर प्रदत्त साधनों पर हम अधिकाधिक निर्भर रह सर्के, उनकी क्षमता बढ़ाये, ऐसी सामग्री उपयोगी और आवश्यक मानी जानी चाहिये । कौन सी सामग्री कब कितनी आवश्यक है यह निश्चित करना शिक्षक के विवेक का काम है, उसके सर्व सामान्य नियम नहीं बनाये जा सकते ।

2. अनावश्यक सामग्री

शैक्षिक दृष्टि से जिससे न लाभ होता न हानि होती है परन्तु आर्थिक दृष्टि से हानि होती है और जिसका निर्र्थक बोझ उठाना पड़ता है, वह अनावश्यक सामग्री है ।

लिखने के लिये स्लेट के स्थान पर कागज का प्रयोग करना अनावश्यक है । एक पेन्सिल पर्याप्त है तब दो तीन साथ में लाना अनावश्यक है, सस्ती सामग्री से काम होता है तब महँगी लाना अनावश्यक है । पेन्सिल से लिखा हुआ मिटाने के लिये जो रबड़ होता है वह सुगन्धित हो यह अनावश्यक है, विभिन्न आकृतियों की कम्पास पेटिका होना अनावश्यक है, आकर्षक परन्तु महँगे बस्ते अनावश्यक हैं । कौन सी सामग्री कब अनावश्यक है, इसका विवेक शिक्षक को करना चाहिये । विद्यार्थियों को प्रथम अनावश्यक, अतिरिक्त सामग्री रखने से परावृत्त करना चाहिये । सामग्री का संयमित उपयोग करना भी एक सदगुण है, मूल्य है । उसके बाद सामग्री कम करते जाना शैक्षिक विकास है, यह बात अभिभावकों, विद्यार्थियों और समाज को सिखानी चाहिये ।

3. निरर्थक और अनर्थक सामग्री

जो सामग्री शरीर, मन, बुद्धि आदि को हानि पहुँचाती है और शैक्षिक विकास को अवस्द्ध करती है, वह अनर्थक सामग्री है । गाइड बुक्स अनर्थक हैं क्योंकि वे पढ़ने के लिये आवश्यक बौद्धिक पुरुषार्थ करने से रोकती हैं ।

सी.डी., संगणक आदि अनर्थक होते हैं क्योंकि उनसे स्मरणशक्ति कम होती है, आँख-कान की शक्ति क्षीण होती है और ज्ञान का रक्षण करने के प्रति लापरवाह बनाते हैं । नसों-नाडियों को भी उनसे नुकसान होता है ।

संगणक के उपयोग से लेखन कौशल कम होता है । कहानी की फिल्म देखने से कल्पनाशक्ति कम होती है, कल्पनाशक्ति कम होने से सृजनशीलता भी कम होती है ।

अन्तर्जाल (इण्टरनेट) से सामग्री इकट्टी करने के अभ्यास से पुस्तक पढ़ने का आनन्द अदृश्य होता है, स्वाध्याय कम होता है, जानकारी को ही हम ज्ञान मानने लगते हैं ।

संगणक, मोबाइल, अन्तर्जाल आदि अपने अन्य माध्यमों - खेल, चित्र, फिल्म आदि से हमारे मन को भटका देते हैं, अनेक प्रकार की उत्तेजनाओं से मन को अशान्त बना देते हैं । इसका परिणाम बुद्धि की शक्तियों का हास होने में ही होता है। पढ़ाई अत्यन्त सतही और अल्पजीवी हो जाती है ।

ये महान अनर्थ हैं ।

ये तो शैक्षिक अनर्थ हैं । आर्थिक और पर्यावरणीय अनर्थ कम गम्भीर नहीं हैं । इनके चलते स्वास्थ्य खराब होता है, प्रदूषण बढ़ता है, शिक्षा महँगी होती है । अनर्थक साधनों का आकर्षण अधिक है । यही बौद्धिक हास का प्रमाण है । बाजार और विज्ञापन को बुद्धि परास्त नहीं कर सकती, यही आज की वास्तविकता है । जो अनर्थकारी है उन्हीं को हम उपयोगी मानते हैं ।

साधनसामग्री से भी अधिक सामग्री को उपयोगी बताने वाली बुद्धि हमारी चिन्ता का विषय बननी चाहिये ।

साधन-सामग्री के बारे में करणीय बातें

हमें इस दिशा में दृढतापूर्वक प्रयास करने की आवश्यकता है । कुछ इस प्रकार से विचार किया जा सकता है...

1 . बहुत बड़े पैमाने पर अभिभावक प्रबोधन करने की आवश्यकता है । लोक प्रबोधन की भी उतनी ही आवश्यकता है। शिक्षकों ने, शिक्षाशाखियों ने अभिभावक सम्मेलनों, अखबारों में लेखों, टीवी चैनलों पर वार्तालापों तथा ऐसे ही अन्य माध्यमों से ये तथ्य प्रस्तुत करने चाहिये कि :-

  • शिक्षा साधनों से नहीं, साधना से होती है ।
  • पढने के साधन शरीर, मन, बुद्धि आदि हैं, इन्हें सक्षम बनाने चाहिये, कमजोर नहीं ।
  • जिनके मन, बुद्धि आदि कमजोर होते हैं उन्हें अधिक साधनों की आवश्यकता होती है ।
  • जिस प्रकार बिना पैर के जूते, बिना बाल के कंघी निरूपयोगी और हास्यास्पद्‌ हैं, उसी प्रकार बिना बुद्धि के पुस्तक, कापी आदि निरुपयोगी हैं ।

इस प्रकार के प्रबोधन की आज बहुत आवश्यकता है ।

2. कक्षाकक्षों में कम से कम सामग्री से अध्ययन करना सिखाना चाहिये । विद्यार्थियों को अपनी स्मरणशक्ति, ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति, कार्यकौशल बढ़ाने हेतु अवसर दिये जाने चाहिये, उनका अपनी शक्ति में विश्वास बढ़ाना चाहिये और शक्तियों का विकास करने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिये ।

3. साधनसामग्री को लेकर आर्थिक चिन्तन विकसित करना चाहिये । अभिभावकों के साथ इस विषयमें बात करनी चाहिये । विद्यार्थियों में इस दृष्टि का विकास करना चाहिये ।

कुल मिलाकर साधन-सामग्री के उपयोग का विवेक ही सबसे महत्त्वपूर्ण विषय है । शिक्षक के अनेक गुणों में यह भी एक महत्त्वपूर्ण गुण है ।

अनेकों लोगों को अपने महाविद्यालयीन दिनों का स्मरण होगा जब अनेक प्राध्यापक अपने विषय के नोट्स लिखवाते थे और विद्यार्थी लिखते थे । रट्टा मार कर परीक्षा में लिख देते थे और उत्तीर्ण हो जाते थे । अनेक प्राध्यापक ऐसे थे जो विद्यार्थियों को गाइड बुक्स में से प्रश्नों के उत्तर तैयार कर लेने का परामर्श देते थे ।

माध्यमिक विद्यालयों में भी प्रश्नों के उत्तर लिखवाना सहज बात थी । अनेक चतुर अथवा आलसी विद्यार्थी पाठ्यपुस्तकों में ही प्रश्नों के उत्तरों पर निशानी कर लेते हैं ।

आज तो इतना भी कष्ट करने की आवश्यकता किसी को नहीं लगती है । नोटस तैयार कर, उनकी प्रतियाँ बनाकर उचित दाम लेकर वितरित कर देने से कार्य सम्पन्न हो जाता है।

भाषणों की सी.डी. बन जाती है, उसे मोबाइल में डाउनलोड कर दी जाती है और आते-जाते सुनकर याद कर लिया जाता है । ग्रन्थालय में जाने की, चिन्तन-मन्थन करने की, लिखने की झंझट ही नहीं है । कम्प्यूटर, इण्टरनेट, वोट्सएप, सी.डी., ई-बुक्स आदि ने अध्ययन को बहुत सुविधापूर्ण बना दिया है ।

अध्यापकों का दूसरा बहुत आवश्यक और प्रिय साधन है पावर पोइण्ट प्रेजण्टेशन । व्याख्यान वक्ता और श्रोता दोनो के लिये बहुत सरल हो जाता है । वक्ता को मुद्दे याद रखने की आवश्यकता नहीं और श्रोताओं को लिखने की आवश्यकता नहीं, सीधी प्रिण्ट मिल जाती है ।

वेबसाइट पर लिंक देने से भी विद्यार्थियों तक जानकारी पहुँचाई जा सकती है । फेसबुक, वोट्सएप, एसएमएस से भी विद्यार्थियों के साथ सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है । स्काइप से कॉन्फरन्स कॉल द्वारा विद्यार्थियों को पढ़ाया जा सकता है । इतनी सुविधा है कि सब अपने-अपने घरों में एक दूसरे से दूर रहकर भी पढ़ाई कर सकते हैं ।

ई-लर्निंग एक ऐसी सुविधा है, जिससे अध्यापक और विद्यार्थी एकदूसरे से दूर रहकर भी पढ़ाई करवा सकते हैं, कर सकते हैं । प्राथमिक विद्यालयों के सारे विषय सी.डी. और कम्प्यूटर का उपयोग कर पढ़े जाते हैं, शिक्षक को केवल मोनिटरिंग करना है ।

संगणक के आविष्कार के बाद की यह सारी सामग्री है, जो शिक्षक की बहुत सहायता करती है । कभी-कभी यह इतनी स्वयंपूर्ण लगती है कि कक्षाकक्ष में शिक्षक की प्रासंगिकता पर भी प्रश्नचचिह्न लगने लगे हैं ।

संगणक के आविष्कार से पूर्व भी अध्यापक की सहायता के लिये पर्याप्त सामग्री थी । पुस्तकालय की पुस्तकें, पाठ्यपुस्तकें, गणित के विभिन्न प्रकार के सवालों का संग्रह, भूगोल हेतु मानचित्र, एटलास, पृथ्वी का गोल, खगोल हेतु विभिन्न ग्रह-नक्षत्रों आदि के मोडेल, इतिहास हेतु अनेक चित्र, चित्रावली, चरित्र-पुस्तिकायें, प्रदर्शनी, आलेख, विज्ञान हेतु सज्ज प्रयोगशाला, संगीत के साधन, उद्योग सिखाने के साधन आदि अनेक प्रकार से सज्जता होती थी । कहीं-कहीं तो भाषा की प्रयोगशाला भी होती थी, आज भी होती है ।

अर्थात्‌ विभिन्न प्रकार की साधन-सामग्री से सज्ज होना शिक्षक के लिये आवश्यक है ।

विद्यार्थी के लिये जहाँ कम से कम सामग्री चाहिये वहाँ शिक्षक के लिये पर्याप्त सामग्री होना सहज है ।

मुख्य मुद्दे इस प्रकार हैं

१. पर्याप्त सामग्री होना

२. शिक्षक ट्वारा सामग्री का समुचित उपयोग करना

३. केवल सामग्री पर निर्भर नहीं रहना

४. सामग्री से शिक्षक का महत्त्व अधिक होना

५. आवश्यक सामग्री का निर्माण कर लेना

१, शिक्षक के पास पर्याप्त सामग्री होना

विभिन्न विषयों का अध्यापन प्रभावी ढंग से करने के लिये विद्यालय में विभिन्न प्रकार की सामग्री चाहिये । परन्तु अनेक विद्यालयों में ऐसी सामग्री होती ही नहीं । पुस्तकालय, प्रयोगशाला, क्रीडांगण आदि के लिये पैसे खर्च नहीं किये जाते हैं । न तो सामग्री होती है, न उसे रखने की व्यवस्था । पढ़ाई केवल कक्षाकक्षों में बैठकर बोलकर, सुनकर, पढ़कर, लिखकर ही होती है। यहाँ तक कि संगीत भी बिना हास्मोनियम - तबला के सिखाया जाता है, भूगोल बिना नक्शे के सिखाई जाती है ।

यदि सामग्री होती भी है तो वह उत्तम गुणवत्ता की और पर्याप्त नहीं होती । उदाहरण के लिये हार्मोनियम बेसूरा और तबला उतरा हुआ रहता है।

पुस्तकें सबके हाथ में जा सकें इतनी नहीं होतीं । नक्शे आदि भी पर्याप्त नहीं होते । यही बात शब्दकोश, विज्ञान के प्रयोग के साधनों की है ।

२. शिक्षकों द्वारा सामग्री का समुचित उपयोग

अनेक बार ऐसा होता है कि विद्यालय में अनेक प्रकार की साधन सामग्री खरीदी जाती है, परन्तु शिक्षक उसे देखते तक नहीं । पुस्तकों के गट्ढे बिना खोले, प्रयोग के साधनों के बक्से बिना खोले रहते हैं । शब्दकोश, नक्शे, पुस्तकें नये नये ओर कोरे ही रहते हैं। कोई भी बात शिक्षकों को इनका उपयोग करने के लिये प्रेरित नहीं कर सकती ।

अनेक शिक्षक ऐसे हैं, जिन्हें साधनों का प्रयोग करना आता ही नहीं । शब्दकोश से शब्द ढूँढना, पुस्तकों से सन्दर्भ ढूँढना, पृथ्वी के गोले पर देश ढूँढना उसके लिये अजनबी बात होती है । ऐसे विद्यालयों में सामग्री होना न होना एक ही बात है ।

सामग्री का उपयोग कैसे करना, यह विद्यार्थियों को सिखाना भी महत्त्वपूर्ण है । जब स्वयं को ही नहीं आता तो विद्यार्थियों को कैसे सिखायेंगे ? इसका कारण यह है कि ये शिक्षक जब विद्यार्थी होते थे, तब उन्होंने कभी साधनसामग्री को न देखा न छुआ था |

३. केवल सामग्री पर निर्भर नहीं रहा जाता

सामग्री कितनी भी अच्छी हो तो भी वह निर्जीव होती है । शिक्षा जीवमान व्यक्तियों के मध्य होने वाली जीवमान प्रक्रिया है । इसलिये उसका उपयोग जिन्दा लोगों द्वारा होता है । किसी भी विषय का ज्ञान होने के बाद उस विषय की सामग्री का प्रयोग होना उचित है ।

४. सामग्री से शिक्षक का महत्त्व अधिक होना

सामग्री का समुचित उपयोग वही शिक्षक कर सकता है जब शिक्षक विषय को अच्छी तरह जानता है, उसे विषय में, अध्यापन में और विद्यार्थियों में रुचि होती है । शिक्षा सामग्री से नहीं होती है, शिक्षक से होती है । विद्वान, जानकार, कुशल, सहदयी, कल्पनाशील शिक्षक ही सामग्री का समुचित उपयोग कर सकता है। इसलिये अच्छा शिक्षक विद्यालय की प्रथम आवश्यकता है । अतः विद्यालयों को चाहिये कि प्रथम शिक्षकों की ओर ध्यान दें बाद में सामग्री की ओर । शिक्षक अच्छा हो और सामग्री पर्याप्त हो तो शिक्षा अच्छी होती है ।

५. आवश्यक सामग्री का निर्माण कर लेना

सामग्री आवश्यक है, वह अनेक कठिन बातों को सरल बनाती है, परन्तु उसके प्रयोग में कुशलता और मौलिकता होने की आवश्यकता है । यान्त्रिक या भौतिक, गाणितिक विषयों के लिये कदाचित बनी बनाई सामग्री चल जाती है परन्तु तात्त्विक, संकल्पनात्मक विषयों के लिये मौलिकता की आवश्यकता होती है । भौतिक बातों के लिये भी मौलिकता उपकारक होती है ।

दो उदाहरण देखने लायक हैं....

(१) ज्योर्ज वॉर्शिंग्टन कार्वर नामक एक महान नीग्रो कृषितज्ञ एक ऐसे संस्थान में नियुक्त हुए जिसकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त विकट थी । विज्ञान की कोई प्रयोगशाला ही नहीं थी । बिना प्रयोग किये कोई अनुसन्धान कैसे हो सकता है ? डॉ. कार्वरने पहले ही दिन अपने विद्यार्थियों को साथ लेकर नगर भ्रमण किया और लोगोंने कूडे में फेंके हुए डिब्बे, शीशियाँ आदि इकट्टे कर, उन्हें साफ कर प्रयोगशाला के सारे साधन बनाये और प्रयोगशाला सज्ज की । आज भी वह प्रयोगशाला “कार्वर्स म्यूजियम' के रूप में हम देख सकते हैं ।

(२) मुनि उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को बता रहे थे कि ब्रह्म है और इस सृष्टि में सर्वत्र है । श्वेतकेतुने कहा कि कैसे मानें, ब्रह्म तो दिखाई नहीं देता । पिताने उसे पानी से भरा हुआ लोटा और नमक लाने को कहा । श्वेतकेतु दोनों वस्तुयें लेकर आया, पिताने उसे नमक को पानी में डालने के लिये और पानी को हिलाने के लिये कहा । पुत्रने वैसा ही किया । पिताने पूछा कि नमक कहाँ है । पुत्रने पानी में है ऐसा कहा । पिता ने कहा कि कैसे पता चलता है, जरा चख कर देखो । पुत्रने कहा कि नमक पानी में है यद्यपि वह दिखाई नहीं देता । पिताने पुत्र को पानी को ऊपर से, मध्य से और नीचे से चखने को कहा । श्वेतकेतु ने चखकर कहा कि नमक पानी में है और सर्वत्र है । पिता ने कहा कि उसी प्रकार से ब्रह्म भी सृष्टि में है और सर्वत्र है ।

यह संकल्पना सबके ट्वारा सबको सदा-सर्वदा एक ही तरीके से नहीं सिखाई जाती । स्थान, समय, शिक्षक, विद्यार्थी, परिस्थिति के सन्दर्भ में वह विशेष रूप से सिखाई जाती है । तात्पर्य यह है कि सामग्री नहीं शिक्षक ही अधिक महत्त्वपूर्ण होता है ।

गृहकार्य

  1. छात्रों को गृहकार्य क्यों देना चाहिये ?
  2. गृहकार्य का अर्थ क्या होता है ?
  3. गृहकार्य कितना देना चाहिये ?
  4. गृहकार्य कितने प्रकार का हो सकता है ?
  5. गृहकार्य के लाभालाभ कौनसे हैं ?
  6. गुृहकार्य की जांच किसने करनी चाहिये ?
  7. गृहकार्य की जांच कैसे करनी चाहिये ?
  8. गृहकार्य की जांच करने के लिये कितना समय लगाना चाहिये ?
  9. गृहकार्य के सम्बन्ध में अभिभावक की भूमिका क्या होती है ? कैसी होनी चाहिये ?
  10. गृहकार्य के सम्बन्ध में छात्र की वृत्ति, प्रवृत्ति कैसी होती है ? कैसी होनी चाहिये ?

प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर

गृहकार्य विषयक यह प्रश्नावली भुसावल (महाराष्ट्र) के महाविद्यालय के अरुण महाजन ने ४९ शिक्षकों, अभिभावकों एवं प्राध्यापकों से भरवाकर भेजी है ।

  1. विद्यालय में पढ़ाये हुए पाठ को दूढ करने हेतु गृहकार्य की आवश्यकता होती है, ऐसा सबका मत है ।
  2. गृहकार्य की जाँच करना विषय शिक्षक एवं अभिभावकों की जिम्मेदारी है, ऐसा सबने माना है ।
  3. गृहकार्य कितना और किस प्रकार का हो ? इस प्रश्न के उत्तर में सबने लिखा है कि विद्यार्थी कर सके उतना एवं विविध प्रकार का होना चाहिए । गृहकार्य की विविधता के सम्बन्ध में किसी ने भी स्पष्टता नहीं की । शिक्षकों द्वारा गृहकार्य देने का प्रकार जैसे : पाठ ३ के प्रश्न २, ५ व ९ करना । ऐसा ही रहता है । इस यान्त्रिकता के कारण विविधता का लोप हो जाता है । शिक्षक में कल्पनाशीलता के अभाव के कारण रोचकता नहीं आ पाती । विविध प्रकार के गृहकार्य देने के लाभालाभ क्या होते हैं जैसे प्रश्न अनुत्तरित रहे । मिला हुआ गृहकार्य कैसे भी पूरा करने की छात्रों की वृत्ति होती है, जबकि अभिभावक चाहते हैं कि छात्र उत्साह व जिज्ञासा से गृहकार्य पूर्ण करे । अनेक बार अत्यधिक दिया गया गृहकार्य सहानुभूति पूर्वक अभिभावक स्वयं ही पूरा कर देते हैं । गृहकार्य पूरा नहीं किया तो सजा मिलेगी, इसलिए उसे मात्र पूरा करने का उद्देश्य छात्रों का रहता है ।

अभिमत :

शिक्षक के अध्यापन का उत्तरार्ध छात्रों द्वारा किया हुआ गृहकार्य है, ऐसा भी कह सकते हैं । विद्यालय में आज जो पढ़ाया है उसका पुनरावर्तन, स्वअध्ययन करने के लिए गृहकार्य दिया जाता है । गृहकार्य में विविधता हो, रुचि जाग्रत हो, कुछ अनुभव प्राप्त हो आदि उद्देश्यों का समावेश होना चाहिए । कंठस्थीकरण हेतु शिक्षा के मूलभूत सूत्र, स्पेलिंग, पहाड़े, श्लोक-सुभाषित, स्तोत्रादि अनिवार्य रूप से नित्य करने का गृहपाठ होना चाहिए । इस गृहकार्य को घर पर अभिभावकों को करवाना चाहिए ।

विमर्श

गृहकार्य कैसा हो

विद्यालय में गणित विषय के अन्तर्गत मापन करना सिखाया है तो घर पर गृहपाठ के रूप में घर के टेबल-कुर्सी की लम्बाई-चौड़ाई नापना, खिड़कियों व दरवाजों को नापना, साड़ी-धोती, चहदर-नेपकिन

आदि वस्त्रों की लम्बाई नापना । इसी प्रकार घर में उपलब्ध भौमितिक आकृतियों वाली वस्तुओं के नाम लिखना । बाजार से खरीदी हुई सामग्री पर छपी हुई कीमत व वजन की सूची बनाना और इस सूची के आधार पर गणित के सवाल बनाना । घर में किराणा के समान की सूची वजन सहित लिखना । दवाइयों की कीमत एवं एक्सपायरी डेट की जाँच करना । घर में आने वाले समाचार पत्र एवं दूध का हिसाब रखना और मासिक बिल बनाना । अपने घर का मानचित्र बनाना, घर से विद्यालय जाने का मार्ग दिग्दर्शित करना । अपने गाँव के नक्शे में महत्त्वपूर्ण स्थान यथा - मंदिर, विद्यालय, चिकित्सालय, तालाब आदि भरना । गाँव में स्थित मंदिरों का इतिहास जानना जैसे अनेक प्रकार के गृहकार्य दिये जा सकते हैं । ऐसे वैविध्यपूर्ण गृहकार्य छात्र उत्साह से करेंगे और सीखेंगे । घर एवं शाला दोनों शिक्षा के केन्द्र हैं । 'विद्यालय शास्त्रों के अध्ययन का केन्द्र है तो घर उस अध्ययन की प्रयोगशाला है ।' विधिवत सही पद्धति से सूर्यनमस्कार करना सिखाना विद्यालय का काम है, और सीखे हुए सूर्यनमस्कार को घर में प्रतिदिन करना, यह घर का काम है । स्वच्छता, पर्यावरण रक्षा, जल संरक्षण के नियम व सिद्धान्त विद्यालय में सिखाना और घर में उन्हें लागू करना ।

इस प्रकार का रुचिपूर्ण गृहकार्य देना शिक्षक की कल्पनाशीलता और हेतुपूर्णता पर निर्भर करता है । आज ऐसे कुशल आचार्यों का अभाव दिखाई देता है । आजकल अलग-अलग प्रोजेक्ट (उपक्रम) देने की पद्धति चल पड़ी है। परन्तु प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए नेट से सम्पूर्ण जानकारी लेना, झेरोक्स करवाना, साज सज्ञा करके फाइल बनाना और उसमें माता-पिता का पूर्ण सहयोग लेना आदि बातों का समावेश होता है । यांत्रिक एवं तांत्रिक कार्यों की यह दशा है । ज्ञानार्जन के लिए नहीं अपितु अंकार्जन के लिए यह सब किया जाता है । अतः हेतुपूर्वक सार्थक गृहकार्य देने पर और अधिक चिन्तन-मनन की आवश्यकता है । अध्ययन अध्यापन से ज्ञानार्जन हो और गृहकार्य उसमें सहयोगी बने, ऐसी योजना एवं रचना करनी चाहिए ।

कुछ विचारणीय बातें

गृहकार्य शालेय जीवन का अनिवार्य अंग बन गया है । परन्तु इसके सम्बन्ध में विचारणीय बातें बहुत हैं । हम एक के बाद एक इनका विचार करेंगे ।

गृहकार्य का अर्थ है, घर का काम । घर में तो अनेक काम होते हैं। खाना, सोना, स्वच्छता करना, अतिथिसत्कार करना, अखबार पढ़ना, टीवी देखना आदि काम घर में ही होते हैं । हम जिसकी बात करते हैं अथवा गृहकार्य कहकर जो बात समझ में आती है वह ये सब काम नहीं हैं । विद्यालय में जो पढ़ाया जाता है उससे संबन्धित जो कार्य घर में किया जाना है, वह गृहकार्य है । गृहकार्य का अर्थ है घर में पढ़ाई ।

सामान्य रूप से गृहकार्य ऊपर कहा वैसे प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में होता है, उच्चशिक्षा में नहीं । उन्चशिक्षा में सर्वथा नहीं होता है ऐसा तो नहीं है परन्तु बहुत कम मात्रा में होता है ।

सामान्य रूप से विद्यालयों में जो गृहकार्य दिया जाता है वह लिखित रूप में होता है। कोई भी विषय हो लिखना ही मुख्य काम है । भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल आदि सभी विषयों में लिखित कार्य ही करवाया जाता है । भाषा में वर्तनी, व्याकरण, वाक्य, प्रश्नों के उत्तर, निबन्ध आदि, गणित में सवाल, सूत्र, प्रमेय आदि, विज्ञान में प्रयोग, प्रश्नों के उत्तर, कुछ विषयों में कंठस्थीकरण आदि के रूप में गृहकार्य होता है ।

सामान्य रूप में छोटी कक्षाओं में एक घण्टा और बड़ी में दो घण्टे का गृहकार्य होता है। भिन्न-भिन्न विद्यालयों में उसका समय भिन्न-भिन्न हो सकता है परन्तु औसत लगभग यही होता है ।

गृहकार्य जाँचे जाने के सम्बन्ध में दो प्रकार होते हैं । वह या तो जाँचा जाता है अथवा नहीं जांचा जाता । जाँचा जाता है वहाँ भी सुधार होता है कि नहीं, यह निश्चित नहीं है । सुधार के लिए उसे पुन: पुन: लिखने को कहा जाता है । गृहकार्य जाँचना शिक्षकों के लिए बहुत झंझट वाला काम होता है। इस विषय में अभिभावक और शिक्षक दोनों में वाद-विवाद होता ही रहता है । सामान्य विद्यालयों में अभिभावकों की बात सुनी-अनसुनी कर भी दी जाती है परन्तु ऊँचे शुल्क वाले विद्यालयों में अभिभावकों की बात सुननी ही पड़ती है ।

गृहकार्य कापी में किया जाता है । कभी पेंसिल से और कभी पेन से लिखा जाता है । प्रत्येक विषय की गृहकार्य की कापी अलग होती है । इन कापियों के कारण से ही बस्ते का बोझ कुछ मात्रा में बढ़ जाता है ।

गृहकार्य के सम्बन्ध में जो पुनर्विचार किया जाना चाहिए, उसका पहला बिंदु यह है कि शिक्षा की अन्य अनेक बातों की तरह गृहकार्य भी यांत्रिक हो गया है । शिक्षा के उद्देश्यों के साथ इसका सम्बन्ध है कि नहीं, इसका प्रायः विचार किए बिना ही एक कर्मकाण्ड की भाँति यह चलता है । कभी-कभी तो गृहकार्य देने से बच्चे घर में उधम नहीं मचाएँगे ऐसा भी माताओं को लगता है । वे गृहकार्य देने का आग्रह करती हैं ।

अधिक पढ़ने से अधिक अच्छा पढ़ा जाता है, ऐसी एक भ्रांत धारणा बन गई है । ऐसा नहीं है कि यह केवल अभिभावकों की ही धारणा है । जिन्हें शिक्षा के विषय में सही धारणा होनी चाहिए उन शिक्षकों की भी ऐसी धारणा बनती है । यह धारणा सर्वथा अनुचित है । अधिक समय पढ़ने से अधिक अच्छा पढ़ा जाता है ऐसा नियम नहीं है । जो पढ़ना चाहिए वह पढ़ने से और जिस पद्धति से पढ़ना चाहिए उस पद्धति से पढ़ने से अच्छा पढ़ा जाता है । यांत्रिक पद्धति से गृहकार्य देने से या करने से समय, शक्ति और धन का व्यर्थ व्यय ही होता है । इसलिए यांत्रिक रूप से किया जाय ऐसा गृहकार्य नहीं देना चाहिए |

दूसरा बिंदु यह है कि इस बात पर विचार किया जाय कि गृहकार्य हमेशा लिखित ही क्यों होना चाहिए । पढ़ाई केवल लिखकर नहीं होती है । पढ़ाई अनेक प्रकार की गतिविधियों के माध्यम से होती है। अभिभावकों और शिक्षकों की यह भी पक्की धारणा बन गई है कि लिखना ही मुख्य कार्य है । ज्ञान कितना भी

मौखिक रूप से अवगत हो तो भी जबतक लिखा नहीं जाता तबतक वह अधूरा है, ऐसा माना जाता है । यह धारणा सही नहीं है । कर्मन्द्रियों की कुशलता, आत्मविश्वास, व्यवहारदक्षता, सद्धावना, विचारशीलता और आकलनक्षमता लिखित रूप में व्यक्त ही नहीं हो सकते । लिखित रूप में गृहकार्य करने के लिए इन बातों की कोई आवश्यकता नहीं होती । तो भी गृहकार्य लिखित स्वरूप का दिया जाता है । इसके पीछे बड़ा विचित्र कारण सुनने को मिलता है । शिक्षक कहते हैं कि लिखित गृहकार्य नहीं दिया तो छात्र ने गृहकार्य किया कि नहीं इसका पता कैसे चलेगा । पढ़ने के लिए दिया तो वे नहीं करने पर भी किया है, ऐसा कहेंगे । अभिभावकों को भी लिखित कार्य ही प्रमाण लगता है । यह तो अविश्वास का मामला हुआ । शिक्षक को छात्र पर या अभिभावकों को शिक्षकों पर विश्वास नहीं होता कि वे सच बोलेंगे या जिसका प्रमाण नहीं देना पड़ता ऐसा भी निश्चित रूप से करेंगे ही । इसलिए गृहकार्य से कोई अर्थ साध्य न होता हो तो भी लिखित गृहकार्य देने का प्रचलन हो गया है । अब तो यह बात चुभने वाली भी नहीं रह गई है ।

यह ठीक तो नहीं है । इस विषय में विद्यालय ने अभिभावकों के साथ विश्वास का सम्बन्ध बनाना चाहिए । दोनों को यह ध्यान में लेना चाहिए की छात्र को ज्ञान प्राप्त होना महत्त्वपूर्ण है, कापी में लिखना नहीं । इसलिए पहली बात अविश्वास से और लिखित गृहकार्य से मुक्त होना है । इसका अर्थ यह नहीं है की लिखना सर्वथा निषिद्ध है । जहाँ आवश्यक है वहाँ लिखित अवश्य होना चाहिए । उदाहरण के लिए सुलेख ही पक्का करना हो तो लिखना ही चाहिए । वर्तनी सीखना हो तो लिखना ही चाहिए । लिखित अभिव्यक्ति लिखकर ही हो सकती है । गणित के कुछ सवाल लिखकर ही किये जाएंगे । अत: तात्पर्य समझकर लिखित गृहकार्य का प्रयोग कर सकते हैं ।

इसी प्रकार से यह भी विचार करने लायक तथ्य है कि गृहकार्य आखिर दिया क्यों जाता है । कया विद्यालय में पढ़ाई करना पर्याप्त नहीं है ? यदि पर्याप्त नहीं है तो विद्यालय का समय ही क्यों नहीं बढ़ाया जाना चाहिए ? घर वापस आने के बाद पुनः पढ़ाई क्यों करनी चाहिए ? इसके विविध कारण हो सकते हैं । एक कारण यह हो सकता है कि अभी जो चलता है उतने समय से अधिक विद्यालय चलाना संभव नहीं है । इसके कई व्यावहारिक कारण हैं । छात्रों को एकसाथ इतना समय पढ़ाई करना सुविधाजनक नहीं होता । शारीरिक रूप से थकान हो जाना भी सम्भव है । भोजन की सुविधा विद्यालय में सम्भव नहीं होती है । अतः विद्यालय की पढ़ाई पाँच घंटे से अधिक नहीं हो सकती । बारह वर्ष से अधिक आयु के छात्रों के लिए छः घंटे की पढ़ाई भी हो सकती है परन्तु उससे अधिक नहीं ।

अधिक महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि विद्यालय के समय के अतिरिक्त औपचारिक पढ़ाई की आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए । वास्तव में दिन के चौबीस घंटों में औपचारिक पढ़ाई के साथ-साथ बहुत कुछ और भी करना होता है । व्यायाम, खेल, घर के काम, घर से बाहर के काम, दिनचर्या के आवश्यक कार्य आदि बहुत सारी बातों के लिए समय मिलना चाहिए । शिक्षा केवल विद्यालय की औपचारिक पढ़ाई में ही सीमित नहीं होती है । जीवन-व्यवहार के अन्य कार्य भी शिक्षा के ही अंग हैं । अत: पहले तो गृहकार्य के नाम पर औपचारिक पढ़ाई का ही समय बढ़ाना नहीं चाहिए । इस दृष्टि से गृहकार्य का स्वरूप बदलने की नितान्त आवश्यकता है |

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विद्यालय की औपचारिक पढ़ाई को व्यावहारिक जीवन के साथ जोड़कर सार्थक बनाने वाले गृहकार्य के विषय में विचार करना चाहिए । यह गृहकार्य केवल लिखित नहीं हो सकता यह स्वाभाविक है । यदि लिखित नहीं तो यह कैसा होगा इसके कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा सकते हैं ।

१२. पाँचवीं के छात्रों को विद्यालय से घर जाते समय रास्ते में पड़ने वाली दुकानों के फ़लक अपनी कापी में लिखो । घर जाकर उनकी भाषा शुद्ध है कि नहीं यह जाँचो । यदि शुद्ध है तो दुकानदारों को अभिनन्दनपरक पत्र लिखो । यदि उनमें कोई अशुद्धि है तो उसे दूर कर शुद्ध करो और दुकानदार को उसकी उचित भाषा में सूचना दो । इस कार्य में समय जायेगा, सम्पर्क करना होगा, शब्दकोश देखना होगा, व्याकरण के नियम याद करने होंगे, पत्रलेखन करना होगा । कई बार ऐसे कामों को प्रोजेक्ट कहा जाता है । यदि विद्यालय में किया तो वह प्रोजेक्ट है, घर में किया तो गृहकार्य । इस प्रकार के गृहकार्य में भाषा का व्यावहारिक और शैक्षिक पक्ष समाविष्ट हो जाता है , केवल भाषाज्ञान के साथ-साथ अन्य व्यावहारिक पक्ष भी समझ में आते हैं ।

घर के सभी कमरों का नाप निकालकर प्रत्येक का क्षेत्रफल कितना है, इसकी तालिका बनाने का गृहकार्य दे सकते हैं । इसी पद्धति से भूमिति विद्यालय में भी पढ़ाई जा सकती है ।

घर का तीन या सात दिन का खर्च लिखकर उसका जोड़ करने का गणित गृहकार्य के रूप में दिया जा सकता है ।

हमारे घर में कौन-कौन क्या-क्या काम करता है और घर के सभी सदस्यों का एक दिन कैसे बीतता है, इसका वर्णन कर निबंध लिखने को बता सकते हैं ।

एक सप्ताह का अल्पाहार स्वयं बनाकर ले आने का गृहकार्य भी हो सकता है । उस पदार्थ का वर्णन, उसमें कया क्या सामाग्री प्रयुक्त हुई है और उसका पोषक मूल्य तथा सात्त्विकता कैसी है, इसका वर्णन करने को कहा जा सकता है । कोई गीत, संवाद, सूत्र आदि कंठस्थ करने का गृहकार्य भी दिया जा सकता है । यह सूची शिक्षक की मौलिकता से बहुत बड़ी हो सकती है । तात्पर्य यह है कि पढ़ी हुई, सीखी हुई बातों को व्यवहार में लागू करना आए, इस दृष्टि से गृहकार्य का स्वरूप बनाना चाहिए ।

विद्यार्थी की जीवनचर्या का मुख्य कार्य अध्ययन करना है इस लिए उसकी सम्पूर्ण जीवनचर्या को अध्ययन के विषयों के अनुसार ढालना चाहिए । इस बात को ध्यान में रखकर गृहकार्य की योजना करनी चाहिए ।

गृहकार्य की जाँच कैसे करें

जो बातें लिखित स्वरूप की होती हैं उनकी जाँच शिक्षक को करनी तो चाहिए ही, परंतु यह कार्य अत्यन्त परेशान करने वाला होता है । बहुत समय उसमें जाता है । उतना समय उसके लिए दिया जाय तो अध्ययन जैसी अन्य आवश्यक बातों के लिए समय नहीं रहता । कई स्थानों पर शिक्षकों के लिए कापियाँ जाँचने का कार्य अनिवार्य किया जाता है, परंतु यह अविश्वास के कारण होता है । शिक्षक जहाँ अधिक विश्वासपात्र होते हैं, वहाँ ऐसा अविश्वास नहीं होता । विश्वास के वातावरण में लिखित गृहकार्य और उसे जाँचने की अनिवार्यता नहीं होगी । तब लिखित कार्य जाँचने की वैकल्पिक व्यवस्था कर शिक्षक अधिक अध्ययन करने के लिए समय प्राप्त कर सकता है । लिखित गृहकार्य जाँचने के लिए अभिभावकों की तथा स्वयं छात्रों की सहायता ली जा सकती है । यहाँ भी परस्पर सौहार्द और विश्वास की आवश्यकता रहेगी । सौहार्द नहीं रहा तो अभिभावक कहते हैं की यह काम शिक्षक का है, उसे वेतन ऐसे कामों के लिए ही दिया जाता है । छात्रों को यह काम नहीं देना चाहिए क्योंकि एक तो वे इस काम के लिए नहीं आते हैं, पढ़ने के लिए आते हैं, और दूसरा, वे विश्वसनीय नहीं हैं । छात्रों की अविश्वसनीयता और अक्षमता के कारण और छात्रों पर अन्याय होता है, इसलिये यह कार्य उन्हें नहीं सॉपना चाहिये । ऐसा तर्क अभिभावकों और संचालकों का रहता है । इसका और इसके जैसे अन्य प्रश्नों का समाधान तो सज्जनता और विश्वास बढ़ाने का ही है , अन्य किसी भी उपायों से विश्वास का संकट दूर नहीं हो सकता । गृहकार्य यदि लिखित है तो स्वयं सुधार हो सके ऐसा होना चाहिए ताकि छात्र अपने आप ही अपना गृहकार्य जाँच सकें ।

जो भी प्रायोगिक कार्य दिया होता है, उसकी जाँच भी प्रायोगिक पद्धति से ही होती है । वह इतनी व्यक्ति और कार्यसापेक्ष होती है कि उसको नियमों में बांधना संभव नहीं होता है । इसलिए उसकी चर्चा नहीं करेंगे । गृहकार्य के संबंध में इतनी चर्चा पर्याप्त है ।

विद्यालय की दैनंदिन गतिविधियाँ

क्या इतने प्रकार की गतिविधियाँ विद्यालय में

नियमित रूप से हो सकती हैं -

पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि की सेवा

वृक्ष वनस्पति की सेवा

स्वच्छता

aca

कारसेवा एवं यज्ञ

व्यायाम

योगाभ्यास

साजसज्जा

९. गुरुसेवा, गुरुवन्दना

१०, भोजन

विद्यालय के समय में इन्हें किस प्रकार से बिठा

सकते हैं ?

इन सब बातों का शैक्षिक मूल्य कितना है ?

इनको करने में किस प्रकार के अवरोध निर्माण हो

सकते हैं ?

उन्हें दूर कैसे करें ?

और कौन सी गतिविधियाँ जोड़ी जा सकती हैं ?

इन सब गतिविधियों के लिये आर्थिक बोज

कितना उठाना पडेगा ?

SoM SK ww ~

प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर

गुजरात में नवसारी के सरस्वती विद्यामंदिर में समग्र

विकास पाठ्यक्रम चलता है वहाँ के आचार्य जिज्ञाबेन

पटेल जो रोज निम्न गतिविधियाँ अपने विद्यालय में करते हैं

उन्होंने इस प्रश्नावली के उत्तर अपने अनुभव के आधार पर

लिखे है ।

दस प्रकार की गतिविधियाँ नियमित रूप से होना

संभव है क्या ? विद्यालय के समय पत्रक में उन्हें कैसे

बिठायें ? उनका शैक्षिक मूल्य क्या है ? करने में किस

प्रकार के अवरोध आते हैं ? उन अवरोधों को कैसे दूर

किया जाय ? ऐसे पांच प्रश्न हैं ।

विद्यालय की दैनंदिन गतिविधियाँ

gut

चर्चा एवं अभिमत

सर्व गतिविधियाँ महत्त्वपूर्ण है । नियोजित समय में

नित्य करवाना कुशलता है । उनका महत्त्व यदि समझ में

आता है तो कुशलता अपने आप आयेगी । उसके लिए इस

प्रकार की योजना कर सकते हैं ।

गतिविधियाँ

१. पशु पक्षी कीट पतंग आदि की सेवा

इसमें पक्षिओं को दाना डालना एवं उन्होंने की हुई

अस्वच्छता स्वच्छ करना ये दो प्रकार के काम होंगे

विद्यालय के ५-६ बच्चों का गट प्रार्थना में न बैठे उस

समय यह काम करेगा । एक सप्ताह के बाद गट बदलेगा

काम वही रहेगा । उचित जगह पर पक्षिओं के लिए मिट्टी

के पात्रों में पानी रखना । ये पात्र साफ करना, उनमें ताजा

पानी भरना । मैदान या छज्जेपर दाने डालना (बाजरा

चावल) पक्षिओं द्वारा की हुई गंदगी साफ करना

शैक्षिक मूल्य : पक्षी निर्भयता से कहाँ आते हैं ।

चींटियाँ कहाँ रहती हैं ? उन्हें कितनी मात्रा में दाना पानी

चाहिये ? इसका अंदाज लगाना । मन में प्राणीद्या निर्माण

होती है । चित्त निर्मल रहता है ।

अवरोध - १. प्रार्थना मे न जाते हुए यह काम

करवाना मन को अच्छा नहीं लगता । २. अभिभावक ऐसे

सामान्य कामों को फालतू एवं अशैक्षिक समझते हैं ।

उपाय - १. शान्त बैठकर प्रार्थना करना और

पक्षीकी सेवा करना दोनों समान ही है, यह विचार करना ।

बच्चों को इस का अर्थ समझाना रे. यह भी महत्त्वपूर्ण

शिक्षा है इस बात को धयान में रखना ।

२. वृक्ष वनस्पती सेवा

पौंधो को पानी पिलाना, वृक्षों के तनों को रंग

लगाना, पतझड में गिरे हुई पत्ते, कचरा इकट्ठा करना, गमले

साफ रखना, पौधों को खाद देना इत्यादी प्रकार के काम

............. page-172 .............

भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

सेवाकार्य ही हैं । १० बालकों का गट अवरोध - कुछलोग पूजापाठ के विरोधी होते हैं ।

बनाना, गट प्रमुख बनाना । इससे कार्यविभाजन होगा । उपाय - उनकी ओर ध्यान नहीं देना । उनसे

खेल के कालांश में यह सेवाकार्य करना । भयभीत भी नहीं होना ।

शैक्षिक मूल्य - वृक्ष वनस्पति का परिचय, उनकी

आवश्यकताएँ समझना उनके प्रति आत्मीयता निर्माण होती

है । ये सारी बातें हमारे विद्यालय की हैं, उनका रक्षण एवं

संवर्धन करना हमारा दायित्व है यह भाव जागृत होता है ।

अवरोध - सभी छात्र ठीक से काम करेंगे या नहीं ?

आपस में झगड़ेंगे ऐसी आशंका निर्माण होती है । यह काम

क्या पढ़ाई है ? ऐसा प्रश्न अभिभावक पूछ सकते हैं ।

उपाय - इस गतिविधी का स्वरूप और महत्त्व छात्रों

को समझाना । शिक्षक ने थोडीबहुत देखरेख रखना । किताबी

पढ़ाई से हटकर इस अभ्यास से छात्रों की मनःस्थिति में अच्छा

बदलाव आता है । फिर अभिभावक भी शिकायत नहीं करेंगे ।

५. कारसेवा एवं यज्ञ

विद्यालय में अग्िहोत्र नित्य करें । विद्यालय की ५

वीं से ऊपर की कक्षाओं में से प्रतिदिन एक कक्षा के छात्र

अग्निहोत्र करे । उस समय वे वन्दना में नहीं जायेंगे । बैठक

व्यवस्था करना, यज्ञ की सामग्री रखना, बाद में उठाकर

यथास्थान रखना, ४ छात्रोंने प्रत्यक्ष हवन करना इस प्रकार

की योजना बने । उपरोक्त सर्व गतिविधियों में कुछ न कुछ

कारसेवा हर विद्यर्थी को करनी ही है । अतः अलगसे

कारसेवा न लगाए तो भी चलेगा ।

शैक्षिक मूल्य - पर्यावरण शुद्धि, वेदमंत्र कंठस्थ

होना, उच्चारण स्पष्टता एवं आध्यात्मिक संस्कार साध्य होते

३. स्वच्छता हैं।

सफाई करना, श्यामपट स्वच्छ करना, डेस्क बेंच अवरोध - घी और हवन सामग्री रोज खर्च होती है

साफ रखना, कागज कचरा उठाकर कचरा पात्र में डालना ।.... ऐसा कुछ लोग सोचते हैं ।

इस प्रकार के सारे काम होंगे । रोज प्रार्थना के Ged ae उपाय - समिधा इकट्टी कर सकते हैं । घी खर्च

१० मिनट यह स्वच्छता कार्य होगा । कक्षा शिक्षक इसका... होगा परंतु अन्य उपलब्धिओं की तुलना मे खर्च नगण्य है ।

ठीक से नियोजन करेंगे । सब को अपना कार्य समझायेंगे । घी जलकर नष्ट होता है और वह फिजूल खर्च है, यह

अवरोध - कुछ बालक काम करेंगे, कुछ मस्ती विचार दूर करे ।

उपाय - अच्छे काम करने वालों का गौरव करना ।

न करनेवालों को डाँट नहीं, अपितु उनकी समझ बढ़ाना ।

कक्षाचार्य ने स्वयं इसमें सहभागी होना ।

शैक्षिक मूल्य - समूह में काम करने की आदत,

विद्यालय के प्रति आत्मीय भाव जागृत करना ।

६. व्यायाम

दिन भर के समयपत्रक मे रोज १५ मिनिट व्यायाम के

लिए निकालना चाहिये । व्यायाम का स्वरूप छात्रों की

आयु के अनुसार निश्चित करें । वर्गशिक्षक रोज उपस्थिति

लेता है उसी प्रकार व्यायाम भी अनिवार्य रूप से हो ।

शैक्षिक मूल्य - शरीर मे स्फूर्ति उत्साह एव लोच

विद्यालय सरस्वती का मन्दिर है । अध्ययन रोज उसी. बढ़ता है । ये बातें ज्ञानार्जन के लिए अत्यावश्यक है ।

की वन्दना से शुरु होना चाहिये । पूजन करना शुद्ध एवं अवरोध - शिक्षक ही प्रमुख रूप से इसमें अवरोध

सुस्वर में वन्दना करना । वन्दना मे शिक्षक, मुख्याध्यापक, .. है । येन केन प्रकारेण इसे मुख्याध्यापक ही दूर को ।

उपस्थित अतिथि एवं अभिभावकों को भी सम्मिलित करें ।

४. वन्दना

शैक्षिकमूल्य - सरस्वती वन्दना में संगीत, संस्कृत. '*ः योगाभ्यास

और योग तीनों बातों का संयोग होता है । स्थिरता नित्य वंदना के बाद १० मिनिट प्रार्थना कक्ष में ही

अनुशासन संयम आदि संस्कार होते है । योगाभ्यास हो । योगाभ्यास अर्थात्‌ केवल आसन प्राणायाम

श्५६्द

............. page-173 .............

पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

ही नहीं । अनेक प्रकार से इसका अभ्यास हो सकता है ।

शैक्षिक मूल्य - छात्रों की ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति

बढ़ती है उसका प्रयोग और मापन करके देखे ।

अवरोध - शिक्षक को इस विषय मे रुचि और

महत्त्व कम रहता है, समझ कम और श्रम ज्यादा होते है ।

उपाय - योग्य एवं जानकार व्यक्ति से इसे ठीक से

समझ ले, अभिभावकों से भी अनुकूलता प्राप्त करे ।

८... साजसज्ा :

नियमित रूप से भले अल्पमात्रा मे साजसज्जा अवश्य

करे । सभी चीजे यथास्थान रखना वर्ग मे गुलदस्ता सजाना

और अन्य कई प्रकार हो सकते है ।

शैक्षिक मूल्य - कलागुणों में वृद्धी, सौन्दर्य दूष्ठी बढती

है, कल्पकता का आनंद एवं उत्साह वर्धन होता है ।

इस काम का नियोजन व पालन व्यवस्थित करना

अन्यथा साजसज्जा कम और गडबड ज्यादा जैसा होगा ।

९. गुरुसेवा गुरु वन्दना :

आचार्यों को आदर देना, उनकी सेवा करना, गुरु

निन्‍्दा उपहास न करना ।

१०, भोजन :

मध्यावकाश को भोजन के रूप में यह विद्यालयों में

होने वाली नित्य गतिविधि है । भोजन बडा संस्कार है ।

अन्न से शरीर और मन की पुष्ठी होती है । इस विषय में

विस्तृत विवेचन मध्यावकाश का भोजन इस प्रश्नावली में

किया है ।

पाँच छ घण्टे के विद्यालय में ऐसी गतिविधियाँ संभव

है । उसके लिए खर्च अधिक नहीं आता । कल्पकता एवं

उत्कृष्ट योजकता मात्र आवश्यक है। मानसिकता भी

आवश्यक है । आज विद्यालयों में ये गतिविधियाँ करवाना

झंझट, बोझ भी लग सकता है । परन्तु भारतीय शिक्षा का

प्रयोग करना है तो सब समझकर करना । छात्रों को इनका

अच्छा परिणाम मिलेगा । शिक्षक एवं अभिभावकों को

छात्रो के व्यवहार में अनुकूल परिवर्तन जरूर दिखेगा ।

श्प७

शुद्ध पढ़ने पढ़ाने के अतिरिक्त अनेक बातें ऐसी हैं

जो पढाई की सहयोगी के रूप में विद्यालयों में होती है ।

इनका शैक्षिक दृष्टि से विचार किया जाना चाहिये क्योंकि

इनका सीधा सम्बन्ध पढ़ाई से है ।

१, प्रार्थना

प्रार्थथा से किसी भी शुभ कार्य का प्रारम्भ होना

भारत में केवल स्वाभाविक ही नहीं तो अनिवार्य माना

गया है । हमने कल्याणकारी सभी बातों को देवता का

स्वरूप दिया है। यहाँ तक की पानी को जलदेवता

अथवा वरुण देवता, अग्नि को अग्थिदेवता, वायु को

वायुदेवता, पृथ्वी को पृथ्वीदेवता कहा है | पृथ्वी को तो

हम माता ही कहते हैं। तब विद्या को, ज्ञान को हम

देवता न मानें ऐसा हो ही नहीं सकता । विद्या की, वाणी

की, कला की, संगीत की देवता सरस्वती विद्यालयों की

अधिष्ठात्री देवी है । अध्ययन अध्यापन के रूप में हम

उसकी उपासना करते हैं। ज्ञान के सभी लक्षणों को

साकार रूप देकर हमने सरस्वती की प्रतिमा बनाई है । इस

देवता की प्रार्थना से प्रारम्भ करना नितान्त आवश्यक है ।

परन्तु इसमें केवल कर्मकाण्ड नहीं चलेगा । कुछ बातें

ध्यान देने योग्य हैं

जो भी करें शाख्रशुद्ध करें । विद्याकेन्द्रों में अशास्त्रीय

नहीं चलता । सुशोभन अवश्य करना चाहिये और

वह पर्यावरण और सौन्दर्य दृष्टि को ध्यान में रखकर

किया जाना चाहिये ।

फूल, दीप और अगरबत्ती का प्रयोग यदि करते हैं

तो ध्यान में रखें कि अगरबत्ती सिन्थेटिक न हो,

दीप जर्सी के घी का न हो और फूल कृत्रिम न

हों । इस निमित्त से विद्यालय में अन्यान्य चित्रों पर

जो प्लास्टिक के फूलों की मालायें चढ़ाई जाती हैं

वे उतार दी जाय । सरस्वती को यह मान्य नहीं है ।

प्रार्थथा शुद्ध स्वर और शुद्ध उच्चारण से गाई जानी

चाहिये । सरस्वती वाणी और संगीत दोनों की देवता

है । बेसूरा गायन, बेसूरे और बेढब वाद्य और बेताल

............. page-174 .............

वादन, चिछ्ठा चिक्लाकर गाना, गलत

उच्चारण करना उसे मान्य नहीं है। वह इसे क्षमा

नहीं करेगी । कृपा करने की तो बात ही दूर की है ।

०... प्रार्थना सभा का वातावरण पवित्र होना भी उतना

ही आवश्यक है । यदि हम कर सकें तो प्रार्थनाकक्ष

में प्रार्थना के अलावा मौन रहना, अन्य किसी प्रकार

की बातें नहीं करना भी होना चाहिये । अधिकांश

विद्यालयों में विद्यालय का प्रारम्भ सभा से होता

है । जिसमें सूचनायें, समाचार वाचन, पंचांग कथन,

किसी विद्यार्थी या कक्षा की प्रस्तुति, शिक्षक द्वारा

प्रेरक उदूबोधन होता है और इस सभा का एक अंग

प्रार्थथा है। यह विद्यालय के कामकाज का

उपयोगितावादी दृष्टिकोण है जिससे प्रार्थना का

महत्त्व कम हो जाता है ।

०". एक बात विशेष उल्लेखनीय है । कई विद्यालयों में

wet केवल विद्यार्थियों के लिये होती है । कुछ

विद्यालय ऐसे हैं जहाँ शिक्षकगण प्रार्थना में सहभागी

होता है परन्तु लगभग एक भी विद्यालय ऐसा नहीं

है जहाँ सेवक, कार्यालयीन कर्मचारी, या उसी समय

उपस्थित अभिभावक प्रार्थना में सम्मिलित होते हों ।

यह अवश्य आश्चर्यकारक है ।

०... और एक आश्चर्यकारक बात यह है कि

महाविद्यालय और विश्वविद्यालय ऐसे विद्याकेन्द्र हैं

जहाँ प्रार्थना अनिवार्य या आवश्यक नहीं मानी

जाती । अपवाद स्वरूप ही कहीं प्रार्थना होती

दिखाई देती है ।

०... सरकारी या गैरसरकारी शिक्षाविभाग के कार्यालयों या

संस्थानों में भी प्रार्थना का प्रचलन नहीं है । प्रार्थना

करना मानो धर्म निरपेक्ष देश में बच बच कर करने

का विषय बन गया है । इस विषय को गम्भीरता से

लेने की आवश्यकता है ।

२. संकल्प

विद्यालयों को यह परिचित नहीं है परन्तु भारत में

हर शुभ कार्य के प्रारम्भ में संकल्प किया जाता है जिसमें

भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

स्थान, काल, उद्देश्य आदि का उच्चारण किया जाता है ।

यह परिचित नहीं होने का एक कारण यह भी है कि इस

संकल्प में वर्णित सन्दर्भ भूगोल, कालगणना आदि की

भारतीय संकल्पना के अनुसार हैं और विद्यालयों में पढाई

जानेवाली इतिहास और भूगोल की बातें कुछ और हैं ।

परन्तु विट्रज्जनों को इस बात का विचार करना चाहिये

और भारतीय शास्त्रीय तथा सांस्कृतिक परम्पराओं को हम

पुनः किस प्रकार स्थापित कर सकते हैं इसका विचार

करना चाहिये। यह संकल्प संस्कृत में होता है।

व्यावहारिक उद्देश्यों से उसे हिन्दी या अपनी अपनी भाषामें

अनुदित किया जा सकता है ।

३८ यज्ञ

भारत की संस्कृति यज्ञसंस्कृति है । सृष्टि और समष्टि

के लिये आवश्यक त्याग करना और उन्हें सन्तुष्ट करना ही

यज्ञ है। ना समझ लोग इसे कुछ उपयोगी पदार्थों को

जलाना कहते हैं। यज्ञ के सांस्कृतिक और भौतिक

वैज्ञानिक खुलासे तो अनेक हैं परन्तु उन्हें ये खुलासे

जानने का धैर्य नहीं होता और मानने का साहस नहीं

होता । परन्तु जानकार और समझदार लोगों ने विचार कर

लोगों को समझाना चाहिये । विशेषकर विद्यालयों में तो

इसका प्रारम्भ हो ही सकता है ।

४. मध्यावकाश का भोजन अथवा अल्पाहार

लगभग सभी विद्यालयों में यह होता ही है। इसे

संस्कृति और सभ्यता की गतिविधि बनाना चाहिये ।

भोजन कहीं भी बैठकर कैसे भी करने की बात नहीं है ।

उसे व्यवस्थित ढंग से करना चाहिये ।

इन बातों पर विचार किया जा सकता है

०. भोजन करने का स्थान पवित्र और साफ हो ।

०... जूते पहनकर भोजन न किया जाय ।

०... विद्यालय में भोजन करने का स्थान निश्चित किया

जाय । यह बड़े हॉल जैसा कक्ष भी हो सकता है

जहाँ सब एक साथ बैठें या अपने अपने कक्षाकक्ष

के बाहर का बरामदा हो जहाँ छोटे समूहों में बैठा

............. page-175 .............

पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

जाय या मैदानमें वृक्ष के नीचे भी हो जहाँ फिर छोटे

समूहों में बैठा जाय । मैदान में या वृक्ष के नीचे

गोबर से लीपी भूमि स्वास्थ्य और स्वच्छता की

दृष्टि से बहुत लाभदायी होती है ।

भोजन से पूर्व हाथ पैर धोने का रिवाज बनाया

जाय |

भोजन सीधे डिब्बे से नहीं अपितु छोटी थाली में

किया जाय । भोजन के पात्र विद्यालय में ही रखे

जा सकते हैं ।

गोबर से लीपी भूमि पर सीधा बिना आसन के बैठा

जा सकता है परन्तु अन्यत्र बिना आसन के नहीं

बैठने का आग्रह होना चाहिये ।

भोजनमन्त्र बोलकर ही भोजन किया जाय ।

गोग्रास निकालकर ही भोजन किया जाय ।

आसपास के लोगों के साथ बाँटकर भोजन किया

जाय |

थाली में जूठन नहीं छोड़ना अनिवार्य बनाया जाय ।

भोजन के बाद हाथ धोना, कुछ्ला करना, भोजन के

स्थान की सफाई करना, भोजन के पात्र साफ करना

ah ver व्यवस्थित रखना सिखाया जाय ।

अधिक चर्चा इसी ग्रन्थ में अन्यत्र की गई है ।

५. राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान का गायन

“जन गण मन हमारा राष्ट्रगीत है और “वन्दे मातरम्‌'

राष्ट्रगान । प्रतिदिन दोनों का गायन होना चाहिये । “वन्दे

मातरमू पूर्ण गाना चाहिये । प्रार्थथा की तरह ही शुद्ध

स्वर, शुद्ध उच्चारण, ताल और गाने की, खड़े रहने की

सही पद्धति का आग्रह अपेक्षित है । पूर्ण कण्ठस्थ होना

भी अपेक्षित ही है ।

६. सर्वेभवन्तु सुखिन:

जिस प्रकार अध्ययन प्रार्भ करने से पूर्व संकल्प

करते हैं उसी प्रकार आज का अध्ययन पूर्ण होने के बाद

सब के मंगल की कामना करनी चाहिये । अतः सर्वे

wag Ghat: से विद्यालय पूर्ण होना अच्छा है ।

848

इतनी बातें तो लगभग सर्वत्र

होती हैं, जो नहीं होतीं वे भी हो सकती हैं । परन्तु और

एक दो व्यवस्थाओं की बातें इनमें जोड़ी जा सकती हैं ।

१, घर जाने से पूर्व अपने अपने कक्ष की पूर्ण

स्वच्छता और व्यवस्था करके जाना । इसमें झाड़ू

पोंछा, कक्षा के श्यामफलक का लेखन, सारी साधन

सामग्री की व्यवस्था आदि बातें हो सकती हैं ।

२... प्रार्थना कक्ष, बरामदे, आँगन, मैदान, कार्यालय के

कमरे आदि की स्वच्छता करके जाना ।

3. सूचना फलक, सुशोभन के स्थान, फलक लेखन,

विशेष बातें, सुविचार आदि काम करना ।

६... बगीचे की सेवा करना ।

विद्यालय अपनी सुविधा और आवश्यकता के

अनुसार इस सूची को घटा बढ़ा सकता है ।

इन सभी बातों का उद्देश है

विद्यालयीन शिक्षा को जीवमान बनाना । विद्यालय

कहने से महाविद्यालय और विश्वविद्यालय को भी

गिनना है ।

विद्यालय के साथ पारिवारिक भाव और जिम्मेदारी

का भाव जगाना । यह हमारा विद्यालय है और हमे

उसे स्वच्छ और व्यवस्थित रखना है ऐसा सबको

लगना चाहिये ।

इन सभी गतिविधियों में विद्यार्थी, शिक्षक और

कार्यालयीन लोग भी जुड़ें तभी पूर्ण विद्यालय

परिवार बनता है ।

अपनी संस्कृति के साथ जुड़ना भी इन गतिविधियों

का उद्देश्य है । हर गतिविधि को कर्मकाण्ड बनने से

रोककर ज्ञाननिष्ठ और भावनात्मक बनाना चाहिये ।

कक्षाकक्ष के विज्ञान, गणित, अंग्रेजी जैसे विषयों से

भी इनका महत्त्व अधिक है ।

इन गतिविधियों को मूल्यांकन, स्पर्धा या अंकों के

साथ जोड़ने की गलती नहीं करनी चाहिये । ऐसा

किया तो इनसे अधिक अंकों की चिन्ता होने लगेगी

और हर बात कृत्रिम हो जायेगी ।

श्,

............. page-176 .............

विद्यालय में पुस्तकालय क्यों होना चाहिये ?

विद्यालय के पुस्तकालय में पुस्तकों की संख्या

कितनी होनी चाहिये ?

ये पुस्तके कैसी हों ? कितने प्रकार की हों ?

पुस्तकालय के साथ वाचनालय भी क्यों होना

चाहिये ?

पुस्तकालय एवं वाचनालय का उपयोग छात्र एवं

आचार्य कर सर्के इसलिये क्या क्या व्यवस्थायें

करनी चाहिये ?

पुस्तकालय एवं वाचनालय का उपयोग करने के

लिये छात्रों को कैसे प्रेरित कर सकते हैं ?

एक एक कक्षा का कशक्षापुस्तकालय कैसे

बनायें ?

पुस्तकालय में पुस्तकों के साथ साथ और क्या

क्या हो सकता है ?

पुस्तकालय एवं वाचनालय को केन्द्र में रखकर

किस प्रकार के कार्यक्रम अथवा गतिविधियों की

रचना हो सकती है ?

पुस्तकालय का उपयोग अभिभावक भी कर सर्के

ऐसी व्यवस्था किस प्रकार से कर सकते हैं ?

१०,

ग्रत्यक्ष वार्तालाप से प्राप्त उत्तर

इस संबंध में जो प्रश्नावली दो तीन लोगों को भरवाने

के लिए भेजी गयी वे नियोजित समय से प्राप्त नहीं हुई ।

अतः अनेक लोगों से प्रत्यक्ष बातचीत करके उनके उत्तर

और अनुभव यहा सम्मिलित किये है ।

अध्ययन अध्यापन के लिए अत्यंत उपयुक्त एवं पूरक

भूमिका पुस्तकालय की होती है । ग्रंथ एवं पुस्तके ज्ञाननिधी

है। जहा ज्ञान की साधना होती है वहाँ पुस्तकालय

अनिवार्य है । विद्यालय का स्तर प्राथमिक, माध्यमिक

अथवा उच्चशिक्षा भले ही हो स्तर के अनुसार पुस्तकालयों

में पुस्तकों की संख्या रहे । विद्यार्थी संख्या तथा पुस्तकों की

संख्या इनका अनुपात कम से कम १:१० होना चाहिए ।

विद्यालय में पुस्तकालय

१६०

भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

महाविद्यालयों में पुस्तकालय समृद्ध होना चाहिए कारण वहाँ

अध्यापन की अपेक्षा भारतीय भाषाओं में अध्यात्म, दर्शन,

धर्म-संस्कृति, राष्ट्र, विभिन्न विचारधारायें, इतिहास, भूगोल,

विज्ञान आदि की पुस्तकें, कोष, एटलस, बालसाहित्य,

दृश्य-श्राव्य सामग्री आदि सभी प्रकार की पुस्तकें आवश्यक

होंगी । पुस्तकालय में बैठकर पढ़ सके इस प्रकार की

पुस्तकालय की व्यवस्था होनी चाहिये । छात्र शिक्षक सभी

आराम से पढ़ सके ऐसी स्वना व स्थान हो तो अच्छा ।

दैनिक वृत्तपत्र पाक्षिक मासिक शैक्षिक पत्रिका्ें पर्याप्त मात्रा

मे उपलब्ध हो । पुस्तकालयों में वेद उपनिषद आदि

साहित्य अवश्य हो । पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है अपितु

हमारी संस्कृति का दर्शन है । इनका दर्शन छात्र इस आयु में

करेंगे तो आगे जाकर इनका अध्ययन भी होगा । विषय के

शिक्षक छात्रों को अपने विषय की संदर्भ पुस्तकों के नाम

बताए और उन्हें पढने के लिए प्रेरित करे । एक विद्यालय

के ग्रंथपाल स्वयं सभी विषयों का अध्ययन करते थे और

वर्गशः उपयुक्त संदर्भ साहित्य से छात्रों को परिचित करवाते

थे । वाचनालय में खरिदी हुई नवीन पुस्तकों के परिचय

सूचना फलक पर लिखते और छात्रों को वाचन हेतु प्रेरित

व आकर्षित करते थे ।

पुस्तकों को कब्हर चढाना, पुस्तकालय की स्वच्छता

एवं पुर्नरचना करना, पुस्तकों की मरम्मत करना आदि कार्यों

में बड़े छात्रों का सहयोग लेने से उनकी वाचन की ओर

उत्कंठा जाग्रत होती है । ज्ञान प्राप्ति की भूख निर्माण होती

है । कक्षाकक्ष का स्वतंत्र पुस्तकालय हो ऐसी भी व्यवस्था

कर सकते हैं । इसलिए चरित्र, कहानी, काव्य आदि प्रकार

की पुस्तकें घर घर से भेंट रूप में छात्र प्राप्त कर और अपनी

कक्षा का वर्ग पुस्तकालय तैयार करे । अपने जन्मदिन पर

कुछ पुस्तकें भेंट दें । बड़े बड़े शहरों में बड़े बड़े पुस्तकालय

होते हैं । वहाँ वाचक वर्ग अत्यधिक कम है । उनसे

सहयोग लेकर हम वर्गपुस्तकालय के लिए छात्रों के लायक

पुस्तकें लाना और वर्ष के बाद पुनः लौटाना ऐसा करने से

विद्यालय का वर्ग पुस्तकालय नित्यनूतन रहेगा । एक

............. page-177 .............

पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ

विद्यालय ने यह प्रयोग बहुत सफलता पूर्वक किया |

पुस्तकों के साथ साथ सी.डी., इ लर्निंग सेवा भी हो सकती

है। गाँव के वाचनालयों का स्थान पुनर्जीवित करने हेतु

ग्रंथयात्रा, ग्रंथप्रदर्शनी, लेखकों से प्रत्यक्ष वार्तालाप जैसे

प्रकट कार्यक्रमों का आयोजन करें ।

ज्ञान प्रबोधिनी निगडी के विद्यालय में छात्रों के लिए

समृद्ध एवं चैतन्यमय वाचनालय है । छात्रों के लिए वह

निःशुल्क है और नगरवासियों के लिए सायंकाल के समय

Beh ASIC चलता है । यह एक यशस्वी प्रयोग है ।

विमर्श

पुस्तकालय का नाम पढ़ते ही गौरवमयी ज्ञानसृष्टि

कल्पना चक्षु के समक्ष अवतरित हो जाती है । जब से

भगवान गणेशने लिपि का आविष्कार किया, ज्ञान लिखित

रूप में सुरक्षित होने लगा । अब तक श्रुति और श्रुतज्ञान की

महिमा थी अब पुस्तकों की महिमा होने लगी । पुस्तक धीरे

धीरे ज्ञान का प्रतीक बन गया । पुस्तक ज्ञान के समान

पवित्र माना जाने लगा और उसका सम्मान होने लगा ।

आज भी पुस्तक को ज्ञानसम्पदा के रूप में ही सम्माननित

किया जाता है ।

पुस्तकालय की पवित्रता बनाये रखना

विद्यालय का पुस्तकालय इसी कारण से एक पवित्र

स्थान है । प्रथम आवश्यकता उसकी पवित्रता की रक्षा

करने की है । इस दृष्टि से कुछ नियम बनाने चाहिये ।

०... पुस्तकालय में जूते पहनकर प्रवेश नहीं करना

चाहिये ।

पुस्तकालय स्वच्छ रखना चाहिये । पुस्तकालय की

पुस्तकों, आल्मारियों, अन्य फर्नीचर, सम्पूर्ण कक्ष को

स्वच्छ रखने का काम विद्यार्थियों और शिक्षकों ने

सेवा के रूप में करना चाहिये, नौकरों द्वारा नहीं

करवाना चाहिये ।

पुस्तकालय में खाना, चाय पीना, शोर मचाना,

अशिष्ट बातें करना, अशिष्ट भाषा प्रयोग करना वर्जित

होना चाहिये ।

Fak

पुस्तकालय में ज्ञान की देवी

सरस्वती की प्रतिमा और ज्ञान के आदि ग्रन्थ वेद

पूजा स्थान में रखने से पुस्तकालय का सम्मान होता

है । वातावरण और मानसिकता पवित्र बनते हैं ।

पुस्तकालय का सम्मान करने का दूसरा आयाम है

उसका उपयोग करना । विद्यालय के मुख्याध्यायक से लेकर

छोटी से छोटी कक्षा के छोटे से छोटे विद्यार्थी तक सभी

लोगों में वाचन संस्कृति का विकास होना चाहिये । पुस्तक

पढने का रस निर्मिण करना शिक्षाक्रम का अत्यन्त

महत्त्वपूर्ण आयाम है ।

इस दृष्टि से सभी आयु वर्ग के विद्यार्थियों के लायक

पुस्तकें पुस्तकालय में होनी चाहिये । शिशुओं के लिये

चित्रपुस्तिकाओं से लेकर देशविदेश के लेखकों की विभिन्न

विषयों की. गम्भीर अध्यनय करने लायक पुस्तकें

पुस्तकालय में होनी चाहिये ।

पढ़ने की रुचि निर्माण करना

विद्यार्थियों में पुस्तक पढ़ने की रुचि निर्माण हो इस

दृष्टि से कुछ इस प्रकार विशेष प्रयास करने चाहिये ।

०". कक्षा में पुस्तकों का पर्विय करवा कर उन्हें पढ़ने

हेतु प्रेरित करना । पढ़ी जाने वाली पुस्तकों के

सम्बन्ध में चर्चा करना ।

पुस्तकों की प्रदर्शनी आयोजित करना । सबको उसे

देखने का अवसर देना ।

नगर में लगने वाले पुस्तक मेलों में जाने के लिये

विद्यार्थियों को प्रेरित करना । पुस्तकों की खरीदी को

प्रोत्साहित करना ।

समय समय पर वाचन शिबिरों का आयोजन करना

और समूहवाचन का भी प्रयोग करना ।

छोटे छोटे गटों में एक पढ़े और शेष सुनें ऐसी योजना

करना । बारी बारी से सब पढ़ें ।

घर में दादाजी या दादीमाँ को पढकर सुनाने का

गृहकार्य देना । आदत विकसित होने के बाद गृहकार्य

देने की आवश्यकता न रहे यह लक्ष्य रखना ।

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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

०... आसपास के लोग पढ़ते होंगे तो... की दृश्यश्राव्य सामग्री का प्रचलन बढा है। ये अधिक

विद्यार्थियों को पढ़ने की प्रेरणा अपने आप मिलेगी । .... प्रभावी हैं ऐसा भी बोला जाता है । परन्तु अनुभवी और

०... विद्यार्थियों को पढ़ने हेतु समय मिले इस दृष्टि से अन्य... जानकार लोगों का कहना है कि स्थायी प्रभाव की दृष्टि से

गृहकार्य या क्रियाकलाप कम करना । यह सामग्री पुस्तकों का स्थान नहीं ले सकती । पुस्तकों से

तीसरा मुद्दा है पुस्तकों का चयन और व्यवस्था इस... अधिक प्रभावी प्रत्यक्ष वार्तालाप, प्रत्यक्ष शिक्षा या प्रत्यक्ष

दृष्टि से इस प्रकार विचार करना चाहिये... भाषण ही हो सकता है । अन्य सभी बातों का क्रम बाद में

०... विद्यालय का एक केन्द्रीय पुस्तकालय होना चाहिये ही आता है। इस दृष्टि से पुस्तकों का महत्त्व स्थापित

करना चाहिये ।

उसी प्रकार प्रत्येक कक्षा का भी पुस्तकालय होना

चाहिये । कक्षा में छात्रों की संख्या जितनी पुस्तकें at पुस्तकों का जतन करना

उसमें होनी ही चाहिये । जिससे वाचन के कालांश में अन्तिम मुद्दा है पुस्तकों का जतन करने का । कुछ

सबको पढ़ने के लिये स्वतन्त्र पुस्तक मिल सके |

पुस्तकें सभी विद्यार्थियों इस प्रकार से विचार करना चाहिये...

*.. कक्षा पुस्तकालय की सभी पुस्तकें सभी विद्यार्थियों ने _ ०»... अपनी पदों A) aterert पिया चाहिये |

पढ़ी हुई हों ऐसी अपेक्षा करनी चाहिये । ०... पुस्तकों में चित्रविचित्र आकृतियाँ बनाकर उन्हें खराब

०... कक्षा में पढ़ाई हेतु जो विषय और पाठ्यक्रम होता है नहीं करना चाहिये ।

उससे सम्बन्धित पुस्तकें कक्षा पुस्तकालय में होनी. ०... पुस्तकों को व्यवस्थित रखना सिखाना चाहिये । वे

चाहिये ताकि उन्हें पढ़ने से विद्यार्थियों की समझ फटे नहीं, उनका बन्धन शिथिल न हो ऐसी सावधानी

स्पष्ट हो और जानकारी ae | रखना सिखाना चाहिये ।

०... कक्षाकक्ष के पुस्तकालय के समान ही प्रत्येक घरमें .. *.. पुस्तकों को आवरण चढाना सिखाना चाहिये ।

पुस्तकालय a tar ame ear चाहिये । शिक्षित ° Ms पुस्तकालय को व्यवस्थित रखने का काम घर

व्यक्ति के घर की शोभा पुस्तकें ही होती हैं । शिक्षित में रहनेवाले विद्यार्थियों का होना चाहिये । उन्हें यह

लोगों का व्यसन पुस्तक पढ़ना होता है । घर में बड़ों सिखाने का काम घर सकी बड़े लोगों का है । हि

और छोटों सबके लिये पुस्तकें होनी चाहिये । सब... *... विद्यालय के पुस्तकों की स्वच्छता, सम्हाल, उन

साथ मिलकर पढते हों ऐसी कल्पना भी सम्य है । आवरण चढ़ाने का काम विद्यार्थियों की शिक्षा का

एक अंग होना चाहिये ।

०... विद्यालय के सभी पुरस्कार पुस्तक के रूप में देने का पंजिका पुस्तकों

Sens दे © पंजिका के साथ पुस्तकों का मिलान करने का काम

प्रचलन बढ़ाना चाहिये ।

मे जब पुस्तकें आयें उनकी भी विद्यार्थियों को सिखाना चाहिये ।

*. विद्यालय में जब भी नई पुस्तकें आयें उनकी . |e से आनेवाले अतिथियों को पुस्ताकालय

सम्मानपूर्वक शोभायात्रा निकाली जाय, पूजा की जाय “दिखाया, Sees aoe सता

और बाद में पुस्तकालय में स्थापित की जाय । विद्यार्थियों को आना चाहिये ।

सम्मान करने के और तरीके भी सोचे जाय । ज्ञानजगत में जिस प्रकार बहुश्नुत होने की महिमा है

° एक खाने का पदार्थ, पहनने का वख्र, खेलने की. उसी प्रकार बहुपाठी होने का भी महत्त्व है। विद्यार्थी

वस्तु न खरीदकर पुस्तक खरीदी जाय इस के लिये... बहुपाठी बनें ऐसी सभी शिक्षकों और अभिभावकों की

विद्यार्थियों को प्रेरित करना चाहिये । आकांक्षा होनी चाहिये । इस दृष्टि से हर प्रकार से सार्थक

आजकल पुस्तकों के पर्याय के रूप में अनेक प्रकार... प्रयास करने चाहिये ।

BGR

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