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* स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक के साथ साथ सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने हेतु और प्राप्त स्वतन्त्रता की रक्षा करने हेतु उसने समर्थ बनना चाहिए । परन्तु अपने अकेले की स्वतन्त्रता की रक्षा पर्याप्त नहीं है । अन्य सभी व्यक्तियों की तथा पदार्थों की स्वतन्त्रता की भी रक्षा करनी चाहिए । सबकी स्वतंत्र सत्ता का आदर करना उसका कर्तव्य है । अपनी निर्माणशील बुद्धि और कार्यकुशल हाथों का उपयोग कर मनुष्य को अनेक वस्तुओं का तथा कल्पनाशक्ति एवं सृूजनशीलता का उपयोग कर अनेक कलाकृतियों का सृजन करना चाहिए । साहित्य, संगीत, कला आदि उसकी प्रतिभा के क्षेत्र हैं । उसे इस क्षेत्र में भी प्रवीण बनाना शिक्षा का काम है ।
 
* स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक के साथ साथ सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने हेतु और प्राप्त स्वतन्त्रता की रक्षा करने हेतु उसने समर्थ बनना चाहिए । परन्तु अपने अकेले की स्वतन्त्रता की रक्षा पर्याप्त नहीं है । अन्य सभी व्यक्तियों की तथा पदार्थों की स्वतन्त्रता की भी रक्षा करनी चाहिए । सबकी स्वतंत्र सत्ता का आदर करना उसका कर्तव्य है । अपनी निर्माणशील बुद्धि और कार्यकुशल हाथों का उपयोग कर मनुष्य को अनेक वस्तुओं का तथा कल्पनाशक्ति एवं सृूजनशीलता का उपयोग कर अनेक कलाकृतियों का सृजन करना चाहिए । साहित्य, संगीत, कला आदि उसकी प्रतिभा के क्षेत्र हैं । उसे इस क्षेत्र में भी प्रवीण बनाना शिक्षा का काम है ।
 
* मनुष्य आध्यात्मिक सत्ता है इसकी अनुभूति तक पहुँचाना भी उसका लक्ष्य होना चाहिये । साधना करना सिखाना भी शिक्षा का ही काम है । संक्षेप में समर्थ मनुष्य से ही शेष सारे प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं इस बात को स्वीकार कर शिक्षा की योजना करने से ही समाज की संस्कृति और समृद्धि का विकास हो सकता है । श्रेष्ठ समाज सुसंस्कृत और समृद्ध होता है । व्यक्ति श्रेष्ठ समाज का अंग बनकर अभ्युद्य और निःश्रेयस को प्राप्त कर सकता है ।
 
* मनुष्य आध्यात्मिक सत्ता है इसकी अनुभूति तक पहुँचाना भी उसका लक्ष्य होना चाहिये । साधना करना सिखाना भी शिक्षा का ही काम है । संक्षेप में समर्थ मनुष्य से ही शेष सारे प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं इस बात को स्वीकार कर शिक्षा की योजना करने से ही समाज की संस्कृति और समृद्धि का विकास हो सकता है । श्रेष्ठ समाज सुसंस्कृत और समृद्ध होता है । व्यक्ति श्रेष्ठ समाज का अंग बनकर अभ्युद्य और निःश्रेयस को प्राप्त कर सकता है ।
इस प्रकार शिक्षा के प्रयोजन का विचार समग्रता में करना चाहिए । वर्तमान स्थिति से यह सर्वथा विपरीत है यह वस्तुस्थिति है । परन्तु केवल आज की स्थिति से विपरीत है इसलिए वह अनुचित या अव्यावहारिक नहीं हो जाता । उसे ठीक से समझकर व्यावहारिक बनाने की ही योजना करना अपेक्षित है । शिक्षा का अभारतीय प्रतिमान दूर कर यदि भारतीय प्रतिमान पुनः स्थापित करना है तो बहुत व्यापक प्रयास करने होंगे । यह केवल चिन्तन का विषय नहीं है, चिन्तन को व्यावहारिक बनाने हेतु कृति का भी विषय है । अनेक संस्थाओं और संगठनों को मिलकर करना चाहिए ऐसा यह कार्य है । कहीं पर भी समझौते न करते हुए मूल में जाकर, छोटी से छोटी बात पर ध्यान देते हुए करने का यह कार्य है । आज समझौते करने की प्रवृत्ति बहुत दिखाई देती है । उसको आग्रहपूर्वक छोड़ना चाहिए । भारत की शिक्षा यदि ठीक हो गई तो केवल भारत को ही नहीं तो सम्पूर्ण विश्व को लाभ होगा क्योंकि भारत हमेशा समग्र विश्व के कल्याण का ही विचार करता है ।
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इस प्रकार शिक्षा के प्रयोजन का विचार समग्रता में करना चाहिए। वर्तमान स्थिति से यह सर्वथा विपरीत वस्तुस्थिति है। परन्तु केवल आज की स्थिति से विपरीत है इसलिए वह अनुचित या अव्यावहारिक नहीं हो जाता। उसे ठीक से समझकर व्यावहारिक बनाने की ही योजना करना अपेक्षित है। शिक्षा का अभारतीय प्रतिमान दूर कर यदि भारतीय प्रतिमान पुनः स्थापित करना है तो बहुत व्यापक प्रयास करने होंगे। यह केवल चिन्तन का विषय नहीं है, चिन्तन को व्यावहारिक बनाने हेतु कृति का भी विषय है। अनेक संस्थाओं और संगठनों को मिलकर करना चाहिए ऐसा यह कार्य है। कहीं पर भी समझौते न करते हुए मूल में जाकर, छोटी से छोटी बात पर ध्यान देते हुए करने का यह कार्य है। आज समझौते करने की प्रवृत्ति बहुत दिखाई देती है। उसको आग्रहपूर्वक छोड़ना चाहिए। भारत की शिक्षा यदि ठीक हो गई तो केवल भारत को ही नहीं तो सम्पूर्ण विश्व को लाभ होगा क्योंकि भारत हमेशा समग्र विश्व के कल्याण का ही विचार करता है।
    
==References==
 
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