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| ==काम पुरुषार्थ<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>== | | ==काम पुरुषार्थ<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>== |
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− | आत्मतत्त्व के मन में संकल्प जगा “एकोइहम्
| + | आत्मतत्व के मन में संकल्प जगा 'एकोइहम् बहुस्याम' और इस सृष्टि का सृजन हुआ। सृष्टि का सृजन परमात्मा की इच्छाशक्ति का परिणाम है। यह इच्छाशक्ति मनुष्य के अन्तःकरण में काम बनकर निवास कर रही है । अर्थात् काम मनुष्य के जीवन का केन्द्रवर्ती तत्व है। उसकी उपेक्षा करना असम्भव है। |
− | wee और इस सृष्टि का सृजन हुआ । सृष्टि का सृजन
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− | परमात्मा की इच्छाशक्ति का परिणाम है । यह इच्छाशक्ति | |
− | मनुष्य के अन्तःकरण में काम बनकर निवास कर रही है । | |
− | अर्थात् काम मनुष्य के जीवन का केन्द्रवर्ती तत्त्व है। | |
− | उसकी उपेक्षा करना असम्भव है । | |
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− | काम का अर्थ है इच्छा । मनुष्य का मन इच्छाओं | + | काम का अर्थ है इच्छा। मनुष्य का मन इच्छाओं का आगर है। इच्छापूर्ति करना मनुष्य के मन का लक्ष्य है। इच्छापूर्ति करने के लिये मन अथक और अखण्ड प्रयास करता है। मन इंद्रियों का स्वामी है। इसलिये वह इंद्रियों को भी अपनी इच्छापूर्ति के काम में लगाता है। इंद्रियाँ अपने विषयों की ओर आकर्षित होती हैं। वे अपने स्वामी के लिये सदैव कार्यरत होती हैं। फूलों तथा अन्य पदार्थों की मधुर गन्ध को नासिका मन तक पहुँचाती हैं। |
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− | BC
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− | का आगर है । इच्छापूर्ति करना मनुष्य के मन का लक्ष्य | |
− | है । इच्छापूर्ति करने के लिये मन अथक और अखण्ड
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− | प्रयास करता है । | |
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− | मन इंद्रियों का स्वामी है । इसलिये वह इंट्रियों को | |
− | भी अपनी इच्छापूर्ति के काम में लगाता है । इंद्रियाँ अपने | |
− | विषयों की ओर आकर्षित होती हैं । वे अपने स्वामी के | |
− | लिये सदैव कार्यरत होती हैं । फूलों तथा अन्य पदार्थों की | |
− | मधुर गन्ध को नासिका मन तक पहुँचाती हैं । कान मधुर | |
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− | ध्वनियों को मन तक पहुँचाकर उसे सुख देते हैं । रसना
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− | विविध पदार्थों का स्वाद लेकर मन को सुख पहुँचाती है ।
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− | त्वचा अनेक प्रकार के मुलायम स्पर्श के अनुभव से मन
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− | को सुख पहुँचाती है । आँखें अनेक सुन्दर दृश्यों को ग्रहण
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− | कर मन को सुख पहुँचाती हैं । मनुष्य के बाहर का जो
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− | विश्व है उसके सारे सुखद अनुभव इंट्रियों के माध्यम से मन
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− | को प्राप्त होते हैं और मन उनका उपभोग करने में निरन्तर
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− | लगा रहता है ।
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− | परन्तु मन का यह सुख एकांगी नहीं है । सुन्दर
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− | अनुभवों के साथ असुन्दर अनुभव भी जुड़े हुए हैं । गन्ध
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− | यदि सुगन्ध है तो दुर्गन्ध भी है । स्वाद यदि मधुर है तो
| |
− | कट भी है । दृश्य यदि सुन्दर है तो कुरूप भी है । ध्वनि
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− | यदि मधुर है तो कर्कश भी है । स्पर्श यदि मुलायम है तो
| |
− | कठोर भी है । इसके अनुभव मन तक पहुँचते हैं तो वे
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− | सुख के स्थान पर दुःख देते हैं । मन इनसे विमुख होने का
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− | अथवा इन्हें दूर रखने का भी प्रयास करता है । वह सदैव
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− | सुख चाहता है और दुःख से दूर रहना चाहता है । परन्तु
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− | ऐसा होता नहीं है । सुख है तो दुःख भी है ही । इसलिये
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− | मन का सुख प्राप्त करने की और दुःख से दूर रहने की
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− | छटपटाहट निरन्तर चलती रहती है ।
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− | इंद्रियों से प्राप्त होने वाले इन सुखों के अनुभवों से
| |
− | भी मन का कामसंसार बहुत विशाल है। काम मन में
| |
− | लोभ, मोह, मद, मत्सर, क्रोध, आदि का रूप धारण कर
| |
− | के रहता है। ( यहाँ काम का अर्थ जातीय सुख है । )
| |
− | लोभ से प्रेरित होकर वह परिग्रह करता है। वह
| |
− | आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करने में लगा
| |
− | रहता है । मोह से प्रेरित होकर वह पदार्थों में, व्यक्तियों में,
| |
− | अनुभवों में आसक्त होता है। आसक्ति के कारण वह
| |
− | हमेशा उनके संग में ही रहना चाहता है । संग से सुख
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− | मिलता है और दूर जाना हुआ तो दुःखी होता है । मद से
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− | प्रेरित होकर वह सौजन्य भूल जाता है और दूसरों से
| |
− | पारुश्यपूर्ण अर्थात् कठोर व्यवहार करता है। लोगों को
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− | दुःख पहुँचाता है । मत्सर से प्रेरित होकर वह सुख पहुँचाने
| |
− | वाली वस्तुयें केवल अपने ही पास हो ऐसा चाहता है।
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| + | कान मधुर ध्वनियों को मन तक पहुँचाकर उसे सुख देते हैं। रसना विविध पदार्थों का स्वाद लेकर मन को सुख पहुँचाती है। त्वचा अनेक प्रकार के मुलायम स्पर्श के अनुभव से मन को सुख पहुँचाती है। आँखें अनेक सुन्दर दृश्यों को ग्रहण कर मन को सुख पहुँचाती हैं। मनुष्य के बाहर का जो विश्व है, उसके सारे सुखद अनुभव इंद्रियों के माध्यम से मन को प्राप्त होते हैं और मन उनका उपभोग करने में निरन्तर लगा रहता है। |
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| + | परन्तु मन का यह सुख एकांगी नहीं है। सुन्दर अनुभवों के साथ असुन्दर अनुभव भी जुड़े हुए हैं। गन्ध यदि सुगन्ध है तो दुर्गन्ध भी है। स्वाद यदि मधुर है तो कटु भी है। दृश्य यदि सुन्दर है तो कुरूप भी है। ध्वनि यदि मधुर है तो कर्कश भी है। स्पर्श यदि मुलायम है तो कठोर भी है। इसके अनुभव मन तक पहुँचते हैं तो वे सुख के स्थान पर दुःख देते हैं। मन इनसे विमुख होने का अथवा इन्हें दूर रखने का भी प्रयास करता है। वह सदैव सुख चाहता है और दुःख से दूर रहना चाहता है। परन्तु ऐसा होता नहीं है। सुख है तो दुःख भी है ही। इसलिये मन का सुख प्राप्त करने की और दुःख से दूर रहने की छटपटाहट निरन्तर चलती रहती है। |
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| + | इंद्रियों से प्राप्त होने वाले इन सुखों के अनुभवों से भी मन का कामसंसार बहुत विशाल है। काम, मन में लोभ, मोह, मद, मत्सर, क्रोध, आदि का रूप धारण कर के रहता है। (यहाँ काम का अर्थ जातीय सुख है ) |
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− | अपने पास नहीं है और दूसरे के पास
| + | लोभ से प्रेरित होकर वह परिग्रह करता है। वह आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करने में लगा रहता है। मोह से प्रेरित होकर वह पदार्थों में, व्यक्तियों में, अनुभवों में आसक्त होता है। आसक्ति के कारण वह हमेशा उनके संग में ही रहना चाहता है । संग से सुख मिलता है और दूर जाना हुआ तो दुःखी होता है । मद से प्रेरित होकर वह सौजन्य भूल जाता है और दूसरों से पारुश्यपूर्ण अर्थात् कठोर व्यवहार करता है। लोगों को दुःख पहुँचाता है। मत्सर से प्रेरित होकर वह सुख पहुँचाने वाली वस्तुयें केवल अपने ही पास हो ऐसा चाहता है। |
− | है तो उसे दुःख होता है। अपने पास है और दूसरे के
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− | पास है तो भी उसे दुःख होता है। अपने पास है और
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− | दूसरे के पास नहीं है तो उसे सुख मिलता है । मन में
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− | कामसुख की इच्छा भी सदैव रहती है और वह विविध
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− | रूप धारण करती है । मन को सुख देने वाली बात यदि न
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− | हो तो वह दुःखी होता है और दुःख क्रोध में परिवर्तित
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− | होता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर मनुष्य के | |
− | षडरिपु कहलाते हैं । वे सब मन में वास करते हैं और
| |
− | मनुष्य को अनेक प्रकार के क्रियाकलाप करने के लिये
| |
− | प्रेरित करते हैं । मन जिस सुख की इच्छा करता है उसके | |
− | चलते मनुष्य को मान, यश, गौरव, कीर्ति आदि की
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− | अपेक्षा निरन्तर बनी रहती है । इन्हें प्राप्त करने हेतु भी वह
| |
− | निरन्तर प्रयास करता रहता है ।
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− | मनुष्यों के ऐसे प्रयासों से संघर्ष होता है । संघर्ष
| + | अपने पास नहीं है और दूसरे के पास है तो उसे दुःख होता है। अपने पास है और दूसरे के पास है तो भी उसे दुःख होता है। अपने पास है और दूसरे के पास नहीं है तो उसे सुख मिलता है। मन में कामसुख की इच्छा भी सदैव रहती है और वह विविध रूप धारण करती है। मन को सुख देने वाली बात यदि न हो तो वह दुःखी होता है और दुःख क्रोध में परिवर्तित होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर मनुष्य के षड रिपु कहलाते हैं। वे सब मन में वास करते हैं और मनुष्य को अनेक प्रकार के क्रियाकलाप करने के लिये प्रेरित करते हैं। मन जिस सुख की इच्छा करता है उसके चलते मनुष्य को मान, यश, गौरव, कीर्ति आदि की अपेक्षा निरन्तर बनी रहती है। इन्हें प्राप्त करने हेतु भी वह निरन्तर प्रयास करता रहता है । |
− | हिंसा का रूप धारण करता है । हिंसा विनाश का कारण
| |
− | बनती है । हमारे आसपास के विश्व में हम संघर्ष, हिंसा
| |
− | और विनाश देख ही रहे हैं । इन सबका मूल काम ही है ।
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− | काम का एक अत्यंत मोहक और आकर्षक रूप भी
| + | मनुष्यों के ऐसे प्रयासों से संघर्ष होता है। संघर्ष हिंसा का रूप धारण करता है । हिंसा विनाश का कारण बनती है। हमारे आसपास के विश्व में हम संघर्ष, हिंसा और विनाश देख ही रहे हैं। इन सबका मूल काम ही है। |
− | है। ज्ञानेन्द्रियों को अनुभव में आने वाले शब्द, स्पर्श,
| |
− | रूप, रस, गन्ध के जगत में मन अपना एक सुन्दर और | |
− | मधुर संसार निर्माण करता है । निर्मिति के इस काम में वह
| |
− | कर्मन्ट्रि यों और बुद्धि को भी लगाता है। अपनी
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− | आवश्यकताओं को वह सुख देने वाले अनेक रूपों में प्राप्त
| |
− | करना चाहता है। इस वैविध्य के लिये उसके पास
| |
− | कल्पनाशक्ति है। अन्न उसके शरीर के पोषण के लिये
| |
− | आवश्यक है परन्तु काम उस अन्न को विभिन्न स्वाद से
| |
− | युक्त असंख्य खाद्य पदार्थों के रूप में प्राप्त करता है । वस्त्र
| |
− | उसके शरीर की रक्षा हेतु आवश्यक है परन्तु काम अनेक
| |
− | रंगों और आकृतियों से तथा अनेक प्रकार के आकारों
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− | और प्रकारों से सुशोभित करता है । आवास उसकी सुरक्षा
| |
− | के लिये आवश्यक है परन्तु काम उस आवास को अनेक
| |
− | प्रकार के आकार और प्रकार प्रदान कर अनेक प्रकार के
| |
− | विलासों और सुविधाओं के अनुकूल बनाता है । काम की
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− | �
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| + | काम का एक अत्यंत मोहक और आकर्षक रूप भी है। ज्ञानेन्द्रियों को अनुभव में आने वाले शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के जगत में मन अपना एक सुन्दर और मधुर संसार निर्माण करता है। निर्मिति के इस काम में वह कर्मेन्द्रियों और बुद्धि को भी लगाता है। अपनी आवश्यकताओं को वह सुख देने वाले अनेक रूपों में प्राप्त करना चाहता है। इस वैविध्य के लिये उसके पास कल्पनाशक्ति है। अन्न उसके शरीर के पोषण के लिये आवश्यक है परन्तु काम उस अन्न को विभिन्न स्वाद से युक्त असंख्य खाद्य पदार्थों के रूप में प्राप्त करता है। वस्त्र उसके शरीर की रक्षा हेतु आवश्यक है परन्तु काम अनेक रंगों और आकृतियों से तथा अनेक प्रकार के आकारों और प्रकारों से सुशोभित करता है। आवास उसकी सुरक्षा के लिये आवश्यक है परन्तु काम उस आवास को अनेक प्रकार के आकार और प्रकार प्रदान कर अनेक प्रकार के विलासों और सुविधाओं के अनुकूल बनाता है। |
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− | इस प्रवृत्ति से ही अनेक प्रकार की | + | काम की इस प्रवृत्ति से ही अनेक प्रकार की कलाओं और कारीगरियों का विकास हुआ है। कला और कारीगरी के क्षेत्र में मनुष्य ने उत्कृष्टता प्राप्त की है और कालजयी कलाकृतियों का सृजन किया है। संगीत, चित्रकला, काव्य, शिल्प, स्थापत्य आदि के अद्भुत आविष्कार इस विश्व की शोभा बढ़ाते हैं। मनुष्य के देह को अनेक प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधन और अनेक प्रकार के वस्त्रालंकार सुशोभित करते हैं । |
− | कलाओं और कारीगरियों का विकास हुआ है । कला और | |
− | कारीगरी के क्षेत्र में मनुष्य ने उत्कृष्टता प्राप्त की है. और | |
− | कालजयी कलाकृतियों का सृजन किया है। संगीत, | |
− | चित्रकला, काव्य, शिल्प, स्थापत्य आदि के अद्भुत | |
− | आविष्कार इस विश्व की शोभा बढ़ाते हैं । मनुष्य के देह | |
− | को अनेक प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधन और अनेक प्रकार के | |
− | वख्रालंकार सुशोभित करते हैं ।
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− | इसीमें से अनेक प्रकार के शास्त्रों की रचना हुई है।
| + | इसी में से अनेक प्रकार के शास्त्रों की रचना हुई है। अनेक प्रकार के उद्योगों का विकास हुआ है। अनेक प्रकार की शैलियों का विधान बना है। अनेक उत्सवों के आयोजन की परम्परा बनी है। दिनचर्या में, ऋतुचर्या में, जीवनचर्या में मनुष्य ने असंख्य प्रकार के आनन्द प्रमोद के आयोजनों को जोड़ दिया है उन सबका भी मूल प्रेरक तत्व काम ही है। मनुष्य इस आनन्दप्रमोद के संसार में इतना आकण्ठ डूब जाता है कि इसे ही अपना जीवनलक्ष्य मान लेता है। इन्हें प्राप्त करने का प्रयास करना ही उसे परम पुरुषार्थ लगता है। इसे प्राप्त कर लिया तो उसे जीवन सार्थक हो गया ऐसा लगता है। |
− | अनेक प्रकार के उद्योगों का विकास हुआ है। अनेक | |
− | प्रकार की शैलियों का विधान बना है । अनेक उत्सवों के | |
− | आयोजन की परम्परा बनी है । दिनचर्या में, ऋतुचर्या में, | |
− | जीवनचर्या में मनुष्य ने असंख्य प्रकार के आनन्द प्रमोद के | |
− | आयोजनों को जोड़ दिया है उन सबका भी मूल प्रेरक | |
− | तत्त्व काम ही है । मनुष्य इस आनन्दुप्रमोद के संसार में
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− | इतना आकण्ठ डूब जाता है कि इसे ही अपना जीवनलक्ष्य | |
− | मान लेता है । इन्हें प्राप्त करने का प्रयास करना ही उसे | |
− | परम पुरुषार्थ लगता है । इसे प्राप्त कर लिया तो उसे जीवन | |
− | सार्थक हो गया ऐसा लगता है । | |
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− | यह सारा संसार काम का ही आविष्कार है। | + | यह सारा संसार काम का ही आविष्कार है। भगवान शंकराचार्य इसे मनोराज्य कहते हैं और उसे मिथ्या मानते हैं। इसमें जितना भी सुख है वह सुख का आभास है, अपने परिणाम में तो वह दुःख ही है। हमारे सामाजिक सम्बन्ध, हमारी विभिन्न व्यवस्थायें, हमारे सारे शास्त्र इस संसार के ही अन्तर्गत अपना व्यवहार करते हैं। |
− | भगवान शंकराचार्य इसे मनोराज्य कहते हैं और उसे मिथ्या | |
− | मानते हैं । इसमें जितना भी सुख है वह सुख का आभास | |
− | है, अपने परिणाम में तो वह दुःख ही है । हमारे सामाजिक | |
− | सम्बन्ध, हमारी विभिन्न व्यवस्थायें, हमारे सारे शास्त्र इस | |
− | संसार के ही अन्तर्गत अपना व्यवहार करते हैं । | |
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− | काम मन का रूप धारण कर हमारे अस्तित्व का | + | काम मन का रूप धारण कर हमारे अस्तित्व का अंग बना है। वह अत्यन्त बलवान है, जिद्दी है, आग्रही है, प्रभावी है। उसके ऊपर विजय पाना अत्यन्त कठिन है। उसके ऊपर विजय पाना है ऐसा विचार भी हमारे मन में नहीं आता है। काम अपनी संतुष्टि के लिये इन्द्रियां, शरीर, बुद्धि आदि किसी की भी परवा नहीं करता । स्वाद |
− | अंग बना है । वह अत्यन्त बलवान है, जिद्दी है, आग्रही | |
− | है, प्रभावी है । उसके ऊपर विजय पाना अत्यन्त कठिन | |
− | है । उसके ऊपर विजय पाना है ऐसा विचार भी हमारे मन
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− | में नहीं आता है । काम अपनी संतुष्टि के लिये इंट्रियाँ, | |
− | शरीर, बुद्धि आदि किसी की भी परवा नहीं करता । स्वाद | |
| की संतुष्टि के लिये वह ऐसी कोई भी वस्तु खाने से परहेज | | की संतुष्टि के लिये वह ऐसी कोई भी वस्तु खाने से परहेज |
| नहीं करता जिससे स्वास्थ्य खराब हो । इंद्रियाँ उसके लिये | | नहीं करता जिससे स्वास्थ्य खराब हो । इंद्रियाँ उसके लिये |
Line 260: |
Line 150: |
| आज इस विषय में घोर अनवस्था दिखाई देती है । | | आज इस विषय में घोर अनवस्था दिखाई देती है । |
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− | शिक्षा की भूमिका विकासोन्मुख और विकसित समाज का यह महत्त्वपूर्ण | + | == शिक्षा की भूमिका == |
| + | विकासोन्मुख और विकसित समाज का यह महत्त्वपूर्ण |
| काम पुरुषार्थ अभ्युद्य का स्रोत है । सर्व प्रकार की... लक्षण है कि वह अपनी नई पीढ़ी को उचित समय पर ही | | काम पुरुषार्थ अभ्युद्य का स्रोत है । सर्व प्रकार की... लक्षण है कि वह अपनी नई पीढ़ी को उचित समय पर ही |
| भौतिक समृद्धि का क्षेत्र है। इसे व्यवस्थित करने हेतु काम पुरुषार्थ की शिक्षा दे । यह उचित समय frees | | भौतिक समृद्धि का क्षेत्र है। इसे व्यवस्थित करने हेतु काम पुरुषार्थ की शिक्षा दे । यह उचित समय frees |
Line 284: |
Line 175: |
| बालक जब कोख में होता है तब माता ने जो विचार किये करती है ऐसा हमें लगता है । इस विचार को बदलना | | बालक जब कोख में होता है तब माता ने जो विचार किये करती है ऐसा हमें लगता है । इस विचार को बदलना |
| हैं, जो आहार लिया है, बालक के विषय में जो कल्पनायें .. चाहिये । प्रारंभ विद्यालय से हो सकता है । विद्यालय से | | हैं, जो आहार लिया है, बालक के विषय में जो कल्पनायें .. चाहिये । प्रारंभ विद्यालय से हो सकता है । विद्यालय से |
− | की हैं, बालक से जो अपेक्षायें की हैं;जिन लोगों का संग. स्पर्धा का तत्त्व पूर्ण रूप से निकाल देना चाहिये । छोटे | + | की हैं, बालक से जो अपेक्षायें की हैं;जिन लोगों का संग. स्पर्धा का तत्व पूर्ण रूप से निकाल देना चाहिये । छोटे |
| किया है, उसका बालक के चरित्र पर गहरा प्रभाव होता... बच्चों में एकदूसरे को सहायता करने की प्रवृत्ति सहज रूप | | किया है, उसका बालक के चरित्र पर गहरा प्रभाव होता... बच्चों में एकदूसरे को सहायता करने की प्रवृत्ति सहज रूप |
| है । इसलिये हमारी परम्परा में गर्भवती की परिचर्या को. .. से होती है। बड़े होते होते हमारी व्यवस्थाओं के चलते | | है । इसलिये हमारी परम्परा में गर्भवती की परिचर्या को. .. से होती है। बड़े होते होते हमारी व्यवस्थाओं के चलते |