Changes

Jump to navigation Jump to search
→‎धर्म: लेख सम्पादित किया
Line 19: Line 19:     
== धर्म ==
 
== धर्म ==
इस सृष्टि में असंख्य पदार्थ हैं। ये सारे पदार्थ
+
इस सृष्टि में असंख्य पदार्थ हैं। ये सारे पदार्थ गतिमान हैं। सबकी भिन्न भिन्न गति होती है, भिन्न भिन्न दिशा भी होती है। पदार्थों के स्वभाव भी भिन्न भिन्न हैं। वे व्यवहार भी भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं। फिर भी वे एक दूसरे से टकराते नहीं हैं। परस्पर विरोधी स्वभाव वाले पदार्थों का भी सहजीवन सम्भव होता है। हम देखते ही हैं कि उनका अस्तित्व सृष्टि में बना ही रहता है। इसका अर्थ है इस सृष्टि में कोई न कोई महती व्यवस्था है जो सारे पदार्थों का नियमन करती है। सृष्टि का नियमन करने वाली यह व्यवस्था सृष्टि के साथ ही उत्पन्न हुई है। इस व्यवस्था का नाम धर्म है। इसे नियम भी कहते हैं। ये विश्वनियम है, धर्म का यह मूल स्वरूप है। इस व्यवस्था से सृष्टि की धारणा होती है। इसलिए धर्म की परिभाषा हुई:<blockquote>धारणार्द्धर्ममित्याहु:।<ref>Mahabharata, 69.58(Karna Parva)</ref></blockquote><blockquote>धारण करता है इसलिए उसे धर्म कहते हैं।</blockquote>इस मूल धर्म के आधार पर “धर्म' शब्द के अनेक आयाम बनते हैं।
गतिमान हैं। सबकी भिन्न भिन्न गति होती है, भिन्न भिन्न
  −
दिशा भी होती है। पदार्थों के स्वभाव भी भिन्न भिन्न हैं। वे
  −
व्यवहार भी भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं। फिर भी वे एक
  −
दूसरे से टकराते नहीं हैं। परस्पर विरोधी स्वभाव वाले
  −
पदार्थों का भी सहजीवन सम्भव होता है। हम देखते ही हैं
  −
कि उनका अस्तित्व सृष्टि में बना ही रहता है। इसका अर्थ
  −
है इस सृष्टि में कोई न कोई महती व्यवस्था है जो सारे
  −
पदार्थों का नियमन करती है। सृष्टि का नियमन करने वाली
  −
यह व्यवस्था सृष्टि के साथ ही उत्पन्न हुई है। इस व्यवस्था
  −
का नाम धर्म है। इसे नियम भी कहते हैं। ये विश्वनियम
  −
@ | धर्म का यह मूल स्वरूप है। इस व्यवस्था से सृष्टि की
  −
धारणा होती है। इसलिए धर्म कि परिभाषा हुई,
  −
*धारणार्द्धर्ममित्याहु:। धारण करता है इसलिए उसे धर्म
  −
कहते हैं।
     −
इस मूल धर्म के आधार पर “धर्म' शब्द के अनेक
+
पदार्थों के स्वभाव को गुणधर्म कहते हैं। अग्नि उष्ण होती है। उष्णता अग्नि का गुणधर्म है। शीतलता पानी का गुणधर्म है। प्राणियों के स्वभाव को धर्म कहते हैं। सिंह घास नहीं खाता। यह सिंह का धर्म है। गाय घास खाती है और मांस नहीं खाती, यह गाय का धर्म है।
आयाम बनते हैं।
  −
 
  −
पढ़ार्थों के स्वभाव को गुणधर्म कहते हैं। अग्नि उष्ण
  −
होती है। उष्णता अग्नि का गुणधर्म है। शीतलता पानी का
  −
गुणधर्म है।
  −
 
  −
प्राणियों के स्वभाव को धर्म कहते हैं। सिंह घास
  −
नहीं खाता। यह सिंह का धर्म है। गाय घास खाती है और
  −
मांस नहीं खाती, यह गाय का धर्म है।
      
यह धर्म विश्वनियम का ही एक आयाम है।
 
यह धर्म विश्वनियम का ही एक आयाम है।
   −
इस प्रकृतिधर्म का अनुसरण कर मनुष्य ने भी अपने
+
इस प्रकृतिधर्म का अनुसरण कर मनुष्य ने भी अपने जीवन के लिए व्यवस्था बनाई है। इस व्यवस्था को भी धर्म कहते हैं। अर्थात्‌ समाज को धारण करने हेतु जो भी अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था आदि होती हैं वे व्यवस्था धर्म है। इस धर्म का पालन करना नीति है। यह नीति भी धर्म कहलाती है।
जीवन के लिए व्यवस्था बनाई है। इस व्यवस्था को भी
  −
धर्म कहते हैं। अर्थात्‌ समाज को धारण करने हेतु जो भी
  −
अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था आदि होती हैं वे व्यवस्थाधर्म
  −
है। इस धर्म का पालन करना नीति है। यह नीति भी धर्म
  −
कहलाती है।
  −
 
  −
व्यक्ति की समाजजीवन में विभिन्न भूमिकायें होती
  −
हैं। एक व्यक्ति जब अध्यापन करता है तो वह शिक्षक
  −
होता है। घर में होता है तो वह पिता होता है, पुत्र होता
  −
है, भाई होता है। बाजार में होता है तब वह ग्राहक होता
  −
है या व्यापारी होता है। इन सभी भूमिकाओं में उसके
  −
विभिन्न स्वरूप के कर्तव्य होते हैं। इन कर्तव्यों को भी धर्म
  −
कहते हैं। उदाहरण के लिए पुत्रधर्म, पितृधर्म, शिक्षकधर्म
  −
इत्यादि।
     −
मनुष्य का पंचमहाभूतात्मक जगत के प्रति, प्राणियों
+
व्यक्ति की समाजजीवन में विभिन्न भूमिकायें होती हैं। एक व्यक्ति जब अध्यापन करता है तो वह शिक्षक होता है। घर में होता है तो वह पिता होता है, पुत्र होता है, भाई होता है। बाजार में होता है तब वह ग्राहक होता है या व्यापारी होता है। इन सभी भूमिकाओं में उसके विभिन्न स्वरूप के कर्तव्य होते हैं। इन कर्तव्यों को भी धर्म कहते हैं। उदाहरण के लिए पुत्रधर्म, पितृधर्म, शिक्षकधर्म इत्यादि।
के प्रति, वनस्पतिजगत के प्रति जो कर्तव्य है वह भी धर्म
  −
कहा जाता है।
     −
मनुष्य के इष्टदेवता, ग्रामदेवता, कुलदेवता, राष्ट्रदेवता
+
मनुष्य का पंचमहाभूतात्मक जगत के प्रति, प्राणियों के प्रति, वनस्पतिजगत के प्रति जो कर्तव्य है वह भी धर्म कहा जाता है।
होते हैं। इन धर्मों के अनेक प्रकार के आचार होते हैं। इन
  −
आचारों के आधार पर अनेक प्रकार के सम्प्रदाय होते हैं।
  −
इन संप्रदायों को भी धर्म कहते हैं।
     −
सृष्टि की धारणा हेतु मनुष्य को अपने में अनेक गुण विकसित करने होते हैं। ये सदुण कहे जाते हैं। ये सदुण भी धर्म के आयाम हैं। इसीलिए कहा गया है:<ref>मनुस्‍मृति ६.९२</ref><blockquote>धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।</blockquote><blockquote>धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।</blockquote>इन सभी आयामों में धर्म धारण करने का ही कार्य करता है। इन सभी धर्मों के पालन से व्यक्ति को और समष्टि को अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। अभ्युद्य
+
मनुष्य के इष्टदेवता, ग्रामदेवता, कुलदेवता, राष्ट्रदेवता होते हैं। इन धर्मों के अनेक प्रकार के आचार होते हैं। इन आचारों के आधार पर अनेक प्रकार के सम्प्रदाय होते हैं।इन संप्रदायों को भी धर्म कहते हैं।
   −
का अर्थ है सर्व प्रकार की भौतिक समृद्धि और निःश्रेयस का अर्थ है आत्यन्तिक कल्याण |
+
सृष्टि की धारणा हेतु मनुष्य को अपने में अनेक गुण विकसित करने होते हैं। ये सदुण कहे जाते हैं। ये सदुण भी धर्म के आयाम हैं। इसीलिए कहा गया है:<ref>मनुस्‍मृति ६.९२</ref><blockquote>धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।</blockquote><blockquote>धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।</blockquote>इन सभी आयामों में धर्म धारण करने का ही कार्य करता है। इन सभी धर्मों के पालन से व्यक्ति को और समष्टि को अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। अभ्युदय का अर्थ है सर्व प्रकार की भौतिक समृद्धि और निःश्रेयस का अर्थ है आत्यन्तिक कल्याण |
    
== वैश्विकता ==
 
== वैश्विकता ==

Navigation menu