बाल संस्कार - भारत परिचय श्लोक द्वारा

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बच्चों में संस्कारो का वर्धन ५ वर्ष की आयु से पाठांतर पठन माध्यम से प्रारंभ कर देना चाहिए [1]। बच्चों में अपने धर्म के प्रति,अपने राष्ट्र के प्रति और अपने देशवासियों एवं माता-पिता गुरुजनों का आदर सम्मान करने की शिक्षा सर्वप्रथम देनी चाहिये। अतः हमें सर्वदा यह प्रयास करना चाहिए, कि विद्या का प्रारंभ अपनी प्राचीन भाषा संस्कृत में किया जाये। इसी विषय को अग्रेसर करते हुए सम्पूर्ण भारत का परिचय सभी अभिभावक सरल रूप में और सहजता से प्राप्त कर सके।

अतः एकात्मता स्तोत्र नामक यह पाठांतर आपके लिए प्रस्तुत है। एकात्मता-स्तोत्र के पूर्वरूप, भारत-भक्ति-स्तोत्र से हम लोग भली भाँति परिचित हैं, जो बोलचाल में 'प्रात: स्मरण' नाम से जाना जाता है, क्योंकि वह प्रात: स्मरण की हमारी प्राचीन परम्परा से ही प्रेरित था। यह भारत-एकात्मता-स्तोत्र भारत की सनातन और सर्वकष एकात्मता के प्रतीकभूत नामों का श्लोकबद्ध संग्रह है। सम्पूर्ण भारतवर्ष की एकात्मता के संस्कार दृढ़मूल करने के लिए इस नाममाला का ग्रथन किया गया है। राष्ट्र के प्रति अनन्य भक्ति, पूर्वजो के प्रति असीम श्रद्धा तथा सम्पूर्ण देश में निवास करने वालो के प्रति एकात्मता का भाव जागृत करने वाले इस मंत्र का नियमित रूप से पठान करना चाहिए ।

एकात्मतास्तोत्रम्

ॐ सच्चिदानन्दरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने।

ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमाङ्गल्यमूर्तये ॥१॥

विश्वकल्याण के प्रतिमूर्ति, ज्योतिर्मय, सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा को नमस्कार ॥१॥

प्रकृतिः पञ्च भूतानि ग्रहा लोका स्वरास्तथा।

दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुवन्तु मङ्गलम् ॥२॥

सत्व, रज और तमोगुण से युक्त प्रकृति; पंचभूत (अग्नि, जल,वायु, पृथ्वी, आकाश); नवग्रह; तीनों लोक; सात स्वर; दसों दिशाएं तथा सभी काल (भूत, भविष्य, वर्तमान) सर्वदा कल्याणकारी हों । ।२॥

रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम् ।

ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्यां वन्दे भारतमातरम् ॥ ३॥

सागर जिसके चरण धो रहा है, हिमालय जिसका मुकुट है।और जो ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि रूपी रत्नों से समृद्ध है, ऐसी भारतमाता की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ३ ॥

महेन्द्रो मलयः सह्यो, देवतात्मा हिमालयः ।

ध्येयो रैवतको विन्ध्यो, गिरिश्चारावलिस्तथा ॥ ४॥

महेन्द्र (उड़ीसा में), मलयगिरि (मैसूर में), सह्याद्रि (पश्चिमी घाट), देवतात्मा हिमालय, रैवतक (काठियावाड़ में गिरनार), विन्ध्याचल, तथा अरावली (राजस्थान) पर्वत ध्यान करने योग्य हैं॥ ४॥

गड्.गा सरस्वती सिन्धुर्ब्रह्मपुत्रश्च गण्डकी ।

कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी ॥ ५ ॥

गंगा, सरस्वती, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, गण्डकी, कावेरी, यमुना, रेवा (नर्मदा). कृष्णा, गोदावरी तथा महानदी आदि प्रमुख नदियाँ॥ ५॥

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्चि अवन्तिका ।

वैशाली द्वारिका ध्येया पुरी तक्षशिला गया॥ ६॥

अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी. कांचि.अवन्तिका (उज्जैन),. द्वारिका, वैशाली, तक्षशिला, जगन्नाथपुरी गया तथा ॥ ६॥

प्रयागः पाटलीपुत्रं विजयानगरं महत् ।

इन्द्रप्रस्थं सोमनाथः तथाऽमृतसरः प्रियम् ॥ ७॥

प्रयाग, पाटलीपुत्र, विजय नगर, इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) विख्यात सोमनाथ, अमृतसर ध्यान करने योग्य हैं । । ७ ॥

चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा।

रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ॥ ८ ॥

चारों वेद, १८ पुराण, सभी उपनिषद्. रामायण, महाभारत. गीता तथा अन्य श्रेष्ठ दर्शन और ॥ ८॥

जैनागमास्त्रिपिटका गुरुग्रन्थः सतां गिरः ।

एष ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा ॥ ९॥

जैनों के आगम ग्रन्थ, बौद्धों के त्रिपिटक (विनय पिटक. सुत्त पिटक, और अभिधम्म पिटक) तथा श्री गुरुग्रंथ की सत्य वाणी हिन्दू समाज के श्रेष्ठ ज्ञानकोष हैं। इनके प्रति हृदय में सदा श्रद्धा बनी रहे ॥ ९॥

अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती।

द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ॥ १० ॥

अरुन्धती, अनुसूया, सावित्री, सीता सती. द्रौपदी, कण्णगी. गार्गी, मीरा दुर्गावती तथा ॥ १० ॥

लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा ।

निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥

लक्ष्मीबाई, अहल्याबाई होलकर, चन्नम्मा आदि पराक्रमी नारियाँ, भगिनी निवेदिता तथा सारदा (स्वामी रामकृष्ण परमहंस की पत्नी) मातृस्वरूपा हैं, वन्दनीय हैं ॥ ११ ॥

श्रीरामो भरतः कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुनः ।

मार्कण्डेयो हरिशचन्द्रः प्रह्लादो नारदो धुवः ॥ १२ ॥

भगवान श्रीराम, भरत, कृष्ण, भीष्म, धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन. ऋषि मार्कण्डेय. हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, नारद, ध्रुव संत तथा ॥१२ ॥

हनुमान जनको व्यासो वशिष्ठश्च शुको बलिः।

दधीचि विश्वकर्माणौ पृथुवाल्मीकिभागर्गवाः ॥ १३ ॥

हनुमान, जनक, व्यास, वशिष्ठ, शुक देव, राजा बलि, दधीचि, विश्वकर्मा, पृथ, वाल्मीकि, भाग्गव (परशुराम) ॥ १३॥

भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा ।

शिबिश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद्गीतकीर्तयः ॥ १४ ॥

भगीरथ, एकलव्य मनु, धन्वन्तरि.. शिबि तथा रन्तिदेव की कीर्ति पुराणों में गाई गई है । । १४॥

बुद्धा जिनेन्द्रा गोरक्षः पाणिनिश्च पत०जलि ।

शंकरो मध्वनिम्बाकौं श्रीरामानुजवल्लभौ । । १५॥

बुद्ध के सभी अवतार, सभी तीर्थकर, गुरु गोरखनाथ, पाणिनि, पंतजलि, शंकाराचार्य, मध्वार्चा, निम्बाक्काचार्य. रामनुजाचार्य तथा बल्लभाचार्य, ॥ १५॥

झुलेलालोऽथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा।

नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ॥ १६॥

झूलेलाल, महाप्रभु चैतन्य, तिरुवल्लु वर, नायन्मार तथा आलवार सन्तपरम्मरा, कंब, बसवेश्वर तथा ॥ १६॥

देवलो रविवासश्च कबीरो गुरुनानकः ।

नरसिस्तुलसीदासो दशमेशो दुढव्रतः ॥ १७ ॥

महर्षि देवल, सन्त रविदास, कबीर, गुरुनानक, नरसी मेहता, तुलसीदास, दृढव्रती गुरुगोविन्दसिंह, ॥ १७॥

श्रीमत् शंकरदेवश्च बन्धू सायण-माधवौ ।

ज्ञानेश्वरस्तुकारामो रामदासा: पुरन्दरः ॥ १८ ॥

आसाम के वैष्णव सन्त श्रीमत् शंकरदेव, सायणाचार्य, माधवाचार्य संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, समर्थगुरु रामदास, पुरन्दरदास ॥ १८ ॥

बिरसा सहजानन्दो रामानन्दस्तथा महान् ।

वितरन्तु सदैवेते दैवीं सद्गुणसम्पदम् ॥ १९॥

बिरसामुण्डा, स्वामी सहजानन्द, रामानन्द आदि महान पुरुष सदैव समाज को श्रेष्ठ गुण प्रदान करें । १९॥

भरतर्षिः कालिदासः श्रीभोजो जकणस्तथा।

सूरदासस्त्यागराजो रसखानश्च सत्कविः । । २० ॥

नाट्यशास्त्र के आदि गुरु भरत ऋषि, संस्कृत के विद्वान कालिदास, महाराजा भोज, जकण, महात्मा सूरदास, त्यागराज,रसखान जैसे श्रेष्ठ कवि तथा॥ २० ॥

रविवर्मा भातखण्डे भाग्यचन्द्रः स भूपतिः।

कलावन्तश्च विख्याता स्मरणीया निरन्तरम् ॥ २१ ॥

महान चित्रकार रविवर्मा, वर्तमान संगीत कला के विख्यात उद्धारक भातखण्डे, मणिपुर के राजा भाग्यचन्द्र आदि विख्यात कलाकार सर्वदा स्मरणीय हैं॥२१ ॥

अगस्त्यः कम्बुकौण्डिन्यौ राजेन्द्रश्चोलवं शजः ।

अशोकः पुष्यमित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान् ॥ २२ ॥

अगस्त्य, कम्बु, कौण्डिन्य, चोलवंशज राजेन्द्र, अशोक, पुष्यमित्र तथा खारवेल नीतिज्ञ हैं ॥ २२ । ।

चाणक्य-चन्द्रगुप्तौ च विक्रमः शालिवाहन: ।

समुद्रगुप्तः श्रीहर्षः शैलेन्द्रो बप्परावलः ॥ २३॥

चाणक्य, चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य, शालिवाहन. समुद्रगुप्त, हर्षवर्धन, शैलेन्द्र, बेप्पारावल तथा॥ २३॥

लाचिद् भास्करवर्मा च यशोधर्मा च हुणजित् ।

श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बल: ॥ २४ ॥

लाचिद् बड़फुंकन, भास्करवर्मा, हूणविजयी यशोध्मा श्रीकृष्णदेवराय तथा ललितादित्य जैसे वलशाली॥ २४ ॥

मुसुनूरिनायकौ तौ प्रतापः शिवभूपतिः ।

रणजित्सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमाः । । २५ ॥

प्रोलय नायक, कप्पयनायक, महाराणाप्रताप, महाराज शिवाजी तथा रणजीत सिंह, इस देश में ऐसे विख्यात पराक्रमी वीर हुए हैं॥ २५॥

वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुतस्तथा।

चरको भास्कराचा्यों वराहमिहिरः सुधी:॥ २६ ॥

हमारे बुद्धिमान वैज्ञानिक कपिलमुनि, कणाद् ऋषि सुश्रुत चरक, भास्काराचार्य तथा वराहमिहिर। । २६ ॥

नागार्जुनो भरद्वाज आर्यभट्टो बसुर्बुधः ।

ध्येयो वेड्टरामश्च विज्ञा रामानुजादयः ॥ २७ ॥

नागार्जुन, भरद्वाज, आर्यभट्ट, जगदीशचन्द्र बसु चन्द्रशेखर वेंकट रमन तथा राजमानुजम् जैसे प्रतिभावान वैज्ञानिक स्मरणीय हैं॥ २७ ॥

रामकृष्णो दयानन्दो रवीन्द्रो राममोहनः ।

रामतीर्थोऽरविंदश्च विवेकानन्द उद्यशाः॥ २८ ॥

रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द. रवीन्द्रनाथ टैगोर राज राममोहनराय, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविन्द स्वामी विवेकानन्द तथा॥ २८ ॥

दादाभाई गोपबन्धुः तिलको गान्धिरादृता।

रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती॥ २९ ॥

दादाभाई नौरोजी. गोपबंध दवास महात्मा गॉँधी, बालगंगाधर तिलक. महर्षि रमण, महामना मालवीय तथा सुब्रह्मण्य भारती आदरणीय हैं॥२९ ॥

सुभाषः प्रणवानन्दः क्रान्तिवीरो विनायक:।

ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणो गुरु: तथा ॥ ३० ॥

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, प्रणवानन्द, क्रान्तिवीर विनायक दामोदर सावरकर, ठक्कर बाप्पा, भीमराव अम्बेडकर, ज्योतिराव फुले , नारायण गुरु तथा ॥ ३०॥

अनुक्ता ये भक्ताः प्रभुचरणसंसक्तहृदयाः

अनिर्दिष्टा वीरा अधिसमरमुद्ध्वस्तरिपवः ।

समाजोद्धर्तारः सुहितकरविज्ञाननिपुणाः

नमस्तेभ्यो भूयात् सकलसुजनेभ्यः प्रतिदिनम् ।॥ ३१ ॥

प्रभुचरण में अनुरक्त रहने वाले अनेक भक्त जो शेष रह गए, देश की अस्मिता और अखण्डता पर प्रहार करने वाले शत्रुओं युद्ध में परास्त करने वाले बहुत से वीर जिनके नामों का उल्लेख नहीं हो पाया, तथा अन्य समाजोद्धारक, समाज के हितचिन्तक तथा निपुण वैज्ञानिक एवं सभी श्रेष्ठजनों को प्रतिदिन हमारे प्रणाम समर्पित हों॥३२॥

इदमेकात्मतास्तोत्रं श्रद्धया यः सदा पठेत् !

स राष्ट्रधर्मनिष्ठावान् अखण्डं भारतं स्मरेत् ॥ ३२ ॥

इस एकात्मता स्तोत्र का जो सदा श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, राष्ट्रधर्म में निष्ठावान वह (व्यक्ति) अखण्ड भारत का स्मरण करेगा॥ ३२ ॥

॥ भारतमाता की जय ॥

एकात्मतास्तोत्र-व्याख्या

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ॐ सच्चिदानन्दरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने। ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमाङ्गल्यमूर्तये ॥१॥

अर्थ :- ऊँ ज्योतिर्मय स्वरूप वाले, विश्व का कल्याण करने वाले, सच्चिदानन्द-स्वरूप परमात्मा को नमस्कार है ॥ १ ॥

व्याख्या : - ॐ परब्रह्मवाचक शब्द है जो प्रणव मंत्र भी कहलाता है। इसे सृष्टि का आदि नाद माना जाता है। यही शब्दब्रह्म है जो सम्पूर्ण आकाश में अव्यक्त रूप में व्याप्त है। पुराणों और स्मृतियों के अनुसार यह ब्रह्मा के मुँह से निकला हुआ प्रथम शब्द है जो बड़ा मांगलिक माना जाता है और वेदपाठ या किसी भी शुभ कार्य के आरम्भ में तथा समापन के समय प्रयुक्त होता है। मन्त्र का आरम्भ भी ॐ से किया जाता है। ॐ त्रिदेव – ब्रह्मा,विष्णु और महेश का द्योतक है ,जिसमें अ = ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता),उ = विष्णु (पालनकर्ता), और म् = महेश (संहारकर्ता) का संकेतक माना जाता है। शुभ का द्योतक होने से भारत में स्वीकृति-वाचक "हाँ" या "बहुत अच्छा" अथवा “ठीक है" के अर्थ में भी 'अं%' कहने की प्रथा रही है। सच्चिदानन्द – सत् चित्(ज्ञानस्वरूप) आनन्दस्वरूप ब्रह्य।

ब्रह्माण्ड

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प्रकृतिः पञ्च भूतानि ग्रहा लोका स्वरास्तथा।दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुवन्तु मङ्गलम् ॥२॥

अर्थ : - (तीन गुणों से युक्त) प्रकृति, पाँच भूत, (नौ) ग्रह, (तीन) लोक अथवा (सात) ऊध्र्वलोक और (सात) अधोलोक, (सात) स्वर, (दसों) दिशाएं और (तीनों) काल सदा सबका मंगल करें ॥२ ॥

प्रकृति सृष्टि का मुल उपादान कारण , जो संख्या दर्शन के अनुसार जड़़ (अचेतन), अमूर्त (निराकार) और त्रिगुणात्मक है, प्रकृति के नाम से ज्ञात है। उसके तीन गुण हैं – सत्व, रज और तम, जिनकी साम्यावस्था में सब कुछ अमूर्त रहता है। किन्तु चेतन तत्व (ईश्वर या आत्मा) के सान्निध्य में जड़़ प्रकृति में चेतनाभास उत्पन्न हो जाने से वह साम्य भंग हो जाता है और तीनों गुण एक दूसरे को दबाकर स्वयं प्रभावी होने का प्रयत्न करने लगते हैं। इसके साथ ही सृष्टि का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। अद्वैत दर्शन में सृष्टि को मायाजनित विवर्त (मिथ्या आभास) माना जाता है। वस्तुत: भारतीय विचारधारा में प्रकृति और माया एक ही शक्ति के दो नाम हैं।

पंचभूत भारत का सामान्य जन भी इस दार्शनिक अवधारणा से सुपरिचित है कि सारे संसार और हमारे शरीर का भी निर्माण “क्षिति जल पावक गगन समीरा" अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – इन पाँच भूतों से हुआ है। सांख्य दर्शन के अनुसार भौतिक सृष्टि के क्रम में तीन गुणों की साम्यावस्था भंग होने पर प्रधान प्रकृति के प्रथम विकार महत् से शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध – ये पाँच तन्मात्र (गुण) और इन तन्मात्रों से क्रमश: आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी नामक पंचभूतों की सृष्टि होती है जिनसे यह विश्व बना है। ये पाँचों भूत सूक्ष्म मूल पदार्थ हैं, स्थूल मिट्टी, पानी, आग इत्यादि नहीं।

ग्रह

सामान्यत: सौरमण्डल में सूर्य की परिक्रमा करने वाले पदार्थ-पिण्डों को ग्रह कहते हैं, किन्तु ज्योतिष शास्त्र में हमारे सौरमण्डल के मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि नामक पाँच ग्रहों के अतिरिक्त सूर्य और चन्द्रमा की तथा राहु और केतु नामक दो खगोलीय चर बिन्दुओं (छायाग्रह) की गणना भी ग्रहों के रूप में की गयी है। इस प्रकार ये नौ ग्रह हैं। इन सभी की गतियों और उदय तथा अस्त होने के समय की गणना गणित ज्योतिष में की गयी है। फलित ज्योतिष की मान्यता है कि पृथ्वीवासी प्राणियों पर इन ग्रहों की गतियों और विभिन्न समयों में उनकी स्थिति का शुभाशुभ प्रभाव पड़ता है। गुरुत्वाकर्षण के कारण समुद्री ज्वार-भाटा जैसे स्थूल प्रभाव तथा दृश्य प्रकाश और अवरक्त एवं पराबैंगनी किरणों जैसे विद्युच्चुम्बकीय विकिरण के प्रभाव को आधुनिक विज्ञान भी मान्यता देता है।

पुराणों में राहु और केतु का उल्लेख एक राक्षस के कटे हुए शिर और धड़ के रूप में किया गया है, जिसने समुद्र-मन्थन के पश्चात् चुपके से देवों के मध्य जाकर अमृत पी लिया था। सूर्य-चन्द्र द्वारा यह सूचना मिलने पर भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उसका शिर काट दिया। मांगलिक कार्यों के पूजा-विधान में नवग्रह-पूजन भी सम्मिलित है।

लोक

वेदों में अनेक लोकों का उल्लेख है जिन में प्रकाश पूर्ण दैवी लोक भी हैं और अन्धकार में डूबे आसुरी लोक भी। पुराणों में चौदह लोकों का वर्णन किया गया है जिनमें भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक नामक सात ऊर्ध्वलोक हैं तथा अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल नामक सात अधोलोक हैं। इन्हें चौदह भुवन भी कहा जाता है। भूलोक कर्मलोक है और मनुष्य जन्म कर्म का आधार है। इस लोक से ऊर्ध्व लोकों में शुभ कर्मों और पावन प्रवृत्तियों के प्राणियों का वास है और निम्न लोकों में अशुभ कर्मों एवं अधम प्रवृत्ति के प्राणियों का वास।

स्वर

भारतीय दर्शन के अनुसार आकाश में शब्द गुण है। परन्तु वहाँ शब्द अभिप्राय ध्वनि न होकर 'कम्पन' अर्थात्तरंग- प्रचरण है। शब्द की ध्वनिमयी अभिव्यक्ति स्वर है। स्वर को नादब्रह्म भी कहा गया है। संगीत शास्त्र में ध्वनि की मूल इकाइयों को श्रुति नाम दिया गया है जिनकी संख्या 22 है। एक से अधिक श्रुतियों के नादमय संयुक्त रूप को स्वर कहते हैं। संगीत के एक सप्तक में सात स्वर होते हैं,जिनके नाम है : षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद (सा रे ग म प ध नि) । सात स्वरों का यह क्रम पूरा होने पर फिर से उसी क्रम में पूर्वापेक्षा दुगुनी आवृत्ति (तारत्व) का सप्तक आरम्भ हो जाता है। इस सप्तक का क्रम भी सातवें स्वर तक चलने के पश्चात् उससे दुगुनी आवृत्ति का सप्तक चल पड़ता है। उपर्युक्त शुद्ध स्वरों के अतिरिक्त जिन विक्कृत स्वरों को संगीत में मान्यता दे दी गयी है, वे हैं – कोमल ऋषभ, कोमल गान्धार, तीव्र मध्यम, कोमल धैवत और कोमल निषाद। भारतीय संगीत में प्रयुक्त तीन सप्तकों को क्रमश:मन्द्र, मध्य और तार सप्तक कहा जाता है।

व्याकरण में, भारतीय भाषाओं की वर्णमाला के अ आ इ ई उ ऊ आदि जिन 14 वर्णाक्षरों ९-९ -९ -९ -९ वणाक्षरों से मिलने पर उनकी ध्वनियों को अभिव्यक्त करने में भी सहायक होती हैं, वे स्वर कहलाते हैं। उच्चारण में नाद के विस्तार की दृष्टि से ये हृस्व, दीर्घ और प्लुत भेद से तीन प्रकार के होतेहैं। उच्चारण की तीव्रता की दृष्टि से भी स्वर उदात्त,अनुदात्त और स्वरित भेद से तीन प्रकार के होते हैं।

दिशा

पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेयया अग्निकोण (दक्षिण-पूर्व), नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम), वायव्य (उत्तर-पश्चिम), ईशान (पूर्वोत्तर), ऊध्र्व (ऊपर) और अध: (नीचे) – ये दश दिशाएँ या दिक हैं।

काल

घटनाओं के पूर्व और पश्चात् के अनुक्रम का बोध कराने वाला प्रत्यय, जिसका गति या परिवर्तन से अविच्छेद्य सम्बन्ध है। भारतीय तत्व दर्शियों ने काल को चक्रीय (पुनरावर्ती) बताया है, जिसके अनुसार सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, और कलियुग का बारम्बार पुनरावर्तन होता रहता है। इस प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्य का कालचक्र पुन: पुन: अपने को दुहराता रहता है। भारत में काल-गणना निमेष (पलक-झपकने) के भी अत्यंत सूक्ष्म अंश से लेकर कल्प (सृष्टि की अवधि) पर्यन्त बृहत् स्तर तक की गयी है। उपर्युक्त चार युगोंका एक महायुग (43,20,000 वर्ष) और 1000 महायुगों का एक कल्प होता है जो पुराणों के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का एक दिन और एक बार की सृष्टि की अवधि है। सृष्टि कल्प के ही बराबर प्रलयकाल होता है और तत्पश्चात् पुन: सृष्टि।

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रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम्। ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ़यां वन्दे भारतमातरम् ॥३॥

अर्थ :- सागर जिसके चरण धो रहा है, हिमालय जिसका मुकुट है।और जो ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि रूपी रत्नों से समृद्ध है, ऐसी भारतमाता की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ३ ॥

मुख्य पर्वत

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महेन्द्रो मलय: सह्यो देवतात्मा हिमालय: । ध्येयो रैवतको विन्ध्यो गिरिशचारावलिस्तथा ॥४॥

१.हिमालय २.अरावली ३. सह्याद्री ४.हिमालय ६. रैवतक ७. विन्ध्याचल

इन पर्वतों पर यह विस्तृत लेख देखें ।

मुख्य नदियाँ

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गड्.गा सरस्वती सिन्धुर्ब्रह्मपुत्रश्च गण्डकी । कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी ॥ ५ ॥

१. गंगा २. सरस्वती ३. सिन्धु ३.ब्रह्मपुत्र ४. गण्डकी ५. कावेरी ६. महानदी ७. यमुना ८. यमुना ९. रेवा १०. कृष्णा ११. गोदावरी

इन नदियों के बारें में विस्तृत जानकारी इस लेख में पढ़ें।

मुख्य नगर

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अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्चि अवन्तिका । वैशाली द्वारिका ध्येया पुरी तक्षशिला गया॥ ६॥

१.अयोध्या २.मथुरा ३. माया ( हरिद्वार ) ४. कशी ५.कांची ६.अवंतिका ७.वैशाली ८.द्वारिका ९.पूरी १०. तक्षशिला ११. गया

इन नगरों पर यह विस्तृत लेख देखें ।

धार्मिक स्थल

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प्रयागः पाटलीपुत्रं विजयानगरं महत् । इन्द्रप्रस्थं सोमनाथः तथाऽमृतसरः प्रियम् ॥ ७॥

१. प्रयाग २.पाटलीपुत्र ३.विजय नगर ४.इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) ५.सोमनाथ ६.अमृतसर

इस धार्मिक स्थलों की विस्तृत जानकारी यहाँ पढ़ें |

हमारे ग्रन्थ

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चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा। रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ॥ ८ ॥

इन सभी ग्रंथो के बारे में विस्तृत रूप से यहाँ पढ़े |

हमारे मार्गदर्शक ग्रन्थ

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जैनागमास्त्रिपिटका गुरुग्रन्थः सतां गिरः । एष ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा ॥ ९॥

१. जैनागम ( जैन ग्रन्थ ) २.त्रिपिटक ( बौद्ध ग्रन्थ ) ३. गुरुग्रंथ ( सिख ग्रन्थ )

इन ग्रंथो की विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ देखे |

विदूषी महिलाएं

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अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती। द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ॥ १० ॥

१. अरुन्धती २. अनुसूया ३. सावित्री ४. जानकी (सीता माता ) ५. सती ६.द्रोपदी ७. कण्णगी ८.गार्गी ९.मीरा १०.दुर्गावती

इन सभी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ देखे |

महिला वीरांगनाये

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लक्ष्मीरहल्या चेन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा । निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवता: ॥ ११ ॥

१.रानी लक्ष्मीबाई २. अहल्याबाई होलकर ३. चन्नम्मा ४.रुद्रमाम्बा ५. निवेदिता ६. सारदा

इन सभी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ देखे |

अनुकरणीय व्यक्तित्व

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श्रीरामो भरत: कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुन: । मार्कण्डेयो हरिश्चन्द्रः प्रह्लादो नारदो ध्रुवः ॥12 ॥

श्रीराम

भगवान विष्णु के सातवें अवतार के रूप में आराध्य श्री राम का जीवन और चरित्र भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों का प्रतीक है। मर्यादा-पालन का सर्वोत्तम आदर्श प्रस्तुत करने के कारण उन्हें मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में स्मरण किया जाता है। उन्होंने रावण की अनीतिपूर्ण राजसत्ता समाप्त कर रामराज्य के रूप में आदर्श व्यवस्था स्थापित की। श्री राम का दिव्य चरित्र सत्य, शील और सौन्दर्य से मण्डित है। भारतीय साहित्य में राम के दिव्य गुणों का आदि कवि वाल्मीकि से लेकर आजपर्यन्त अनेकानेक महर्षियों, संतों, दार्शनिकों, लेखकों और कवियों ने नानाविध वर्णन किया है। सूर्यवंशी राम का जन्म इक्ष्वाकु और रघु के कुल में हुआ था। दशरथ-पुत्र रघुकुल-तिलक राम ने भूमि को राक्षस-विहीन बनाने का संकल्प किया था। वनवास-काल में राम ने वनवासियों और वन-जातियों को संगठित एवं सुसंस्कारित कर उनकी सहायता से राक्षसों को पराजित कर लोक को निरापद बनाया। राम भारत के जन-जन के मन में बसे हुए हैं। वे भारतीय अस्मिता की पहचान, उसके हृदय का स्पन्दन और उसकी आकांक्षाओं के प्रतीक एवं केंद्र-बिन्दु हैं। भारत की चिरकालिक अभिलाषा का नाम रामराज्य है।

भरत

भरत नाम के पाँच प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं। पहले भरत तो प्रथम मन्वन्तर के एक राजा थे जो विष्णुभक्त थे। दूसरे भरत भी योद्धा एवं राजा थे जिनके नाम पर एक मानवकुल प्रसिद्ध है। तीसरे दाशरथि राम के भाई और परम उपासक एवं भक्त-शिरोमणि, कैकेयी-सुत भरत हुए हैं। चौथे भरत चन्द्रवंशी राजा पुरु के वंश में दुष्यंत एवं शकुन्तला के पुत्र थे। इन्हीं की नवीं पीढी में कुरु हुए जिनके वंशज कौरव कहलाये। पाँचवे भरत प्रसिद्ध ऋषि और नाट्यशास्त्र के प्रणेता आचार्य हुए। जिनके नाम पर हमारे देश का नाम 'भारत' पड़ा, कहा जाता है, ऐसे दो भरत प्रसिद्ध हुए हैं : एक महायोगी ऋषभदेव के सबसे बड़े पुत्र थे और दूसरे दुष्यंत-शकुंतला के पुत्र।दुष्यंत-शकुन्तला के पुत्र भरत चक्रवती, परमप्रतापी, प्रजापालक, धर्मात्मा, भगवद्भक्त एवं सैकड़ों बड़े-बड़े यज्ञों के करने वाले हुए हैं। ये पुरुवंशी थे। दुष्यंत का ऋषि की पालित कन्या शकुन्तला से गांधर्व विवाह हुआ था, जिससे भरत उत्पन्न हुए। दुष्यंत के बाद वे सम्राट् हुए। उन्होंने गंगा-तट पर 55 और यमुना-तट पर 78 अश्वमेध यज्ञ किये, दिग्विजय-यात्रा की और म्लेच्छों को पराजित कर निर्जन प्रदेशों में भगादिया, देवांगनाओं का दानवों से उद्धार किया तथा पृथ्वी के एकछत्र अधिपति बने।

कृष्ण

भगवान विष्णु के अष्टम्अवतार रूप में प्रसिद्ध, वसुदेव-देवकी के जाये तथा नन्द-यशोदा के लालित-पालित पुत्र, अनेक असुरों के संहारकर्ता, गोकुलवासियों की इन्द्रकोप से रक्षा-हेतु गोवर्धन धारण करने वाले, कंस के दुर्जन-राज्य का अंत कर जरासंध को सत्रह बार परास्त करने वाले, सुदामा के प्रति आत्मीयता—निर्वाह कर मित्रता का श्रेष्ठ आदर्श प्रस्थापित करने वाले, युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अग्रपूजा का सम्मान पाकर भी यज्ञ में उपस्थित ब्राह्मणों के पैर धोने वाले और भोज के पश्चात् सबके जूठे पत्तल उठाने वाले, महाभारत युद्ध में पाण्डवों को कौरवों पर विजय दिलाने वाले, धर्म-संस्थापक एवं कर्मयोगी, भगवद्गीता काउपदेश देने वाले, अपने वंश (यदुवंश) में उपजे दोषों के कारण उसका भी विध्वंस करने वाले श्रीकृष्ण षोडष कलायुक्त पूर्णावतार रूप में परम आराध्य हैं। न केवल भागवतपुराण के अपितु महाभारत महाकाव्य के भी वास्तविक नायक वही हैं। उनके चरित को आधार बनाकर भारत की सभी भाषाओं में उत्कृष्ट भक्ति-साहित्य का निर्माण हुआ है। श्रीकृष्ण के जन्म से पूर्व मथुरा में अन्धक और वृष्णि गणों का संघ था जिसके गणप्रमुख उग्रसेन श्रीकृष्ण के नाना देवक के बड़े भाई थे। कंस ने इसी गणराज्य को एकतन्त्र में परिणत कर दिया था जिसे कृष्ण ने पुन: गणराज्य बनाया। कंस का श्वसुर जरासंध प्रतिशोध के लिए बारम्बार आक्रमण करने के पश्चात् जब विदेशियों को भी अपनी सहायता के लिए आमंत्रित करने लगा तो श्रीकृष्ण ने विदेशी कालयवन का अन्त कराने के साथ ही इस प्रवृत्ति को बढ़ने न देने के लिए अन्धक-वृष्णि गण को द्वारिका स्थानान्तरित कर दिया तथा बाद में जरासन्ध को युक्तिपूर्वक भीम के हाथों समाप्त कराया। वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ राजनीतिज्ञ भी थे और महायोगी भी।

भीष्म

महाभारत कालीन श्रेष्ठ पुरुष तथा कौरव-पाण्डवों के पितामह। ये कुरुवंशी राजा शान्तनु के पुत्र थे, नाम था देवव्रत। भगवती गंगा इनकी माता थीं, अतः इन्हें गांगेय भी कहते हैं। ये परशुराम के शिष्य और महान् योद्धा थे। शान्तनु-सत्यवती के विवाह की बाधा को दूर करने के लिए इन्होंने आजीवन ब्रहमचारी रहने तथा सिंहासन पर न बैठने की कठोर प्रतिज्ञा की थी जिसका इन्होंने सदैव दृढ़ता से पालन किया। भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही ये भीष्म कहलाये। शस्त्र और शास्त्र दोनों विद्याओं में निष्णात भीष्म महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे और उनकी सेनाओं का सेनापतित्व भी किया था। अर्जुन के वाणों से बिंधा शरीर लिये भीष्म उत्तरायण होने तक शरशय्या पर लेटे रहे और धर्मराज युधिष्ठिर को राजधर्म का उत्कृष्ट उपदेश दिया, जो महाभारत के शान्तिपर्व में उपलब्ध है। इसमें भारतीय राजनीति, समाजनीति और धर्मनीति का विस्तृत वर्णन है।

युधिष्ठिर

पाँच पाण्डवों में सबसे बड़े और धर्मराज के नाम से विख्यात्। इन्होंने महाभारत युद्ध को टालने का यथासंभव प्रयास किया। ये कौरवों के अन्याय का बदला अन्यायी मार्ग से लेने के विरुद्ध थे। यही नहीं, अपितु कौरवों के शत्रुतापूर्ण छलों से बारम्बार पीड़ित होते रहने के उपरान्त भी इनके वनवास के समय जब चित्रसेन गन्धर्व ने दुर्योधन को बंदी बनाया तो धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा- “आपस के संघर्ष में हम पाँच और कौरव सौ हैं,परन्तु अन्य लोगोंं से संघर्ष में हम एक सौ पाँच रहेंगे।" यक्ष द्वारा पूछे गये प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर देकर उन्होंने एक भाई को जिलाने का वरदान पाया और विमाता माद्री के पुत्र को जिलाने की समदृष्टि का परिचय देकर अपने चारों मृत बन्धुओं को जिला लिया था। इन्होंने उजाड़ खाण्डवप्रस्थ को वासयोग्य बनाकर इन्द्रप्रस्थ नगर (दिल्ली) की स्थापना की और राजसूय यज्ञ का आयोजन किया था। महाभारत युद्ध के पश्चात् कलियुगारम्भ से 36 वर्ष पूर्व ये हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे और द्वापर के अन्त में (3101 ई०पू०) राज्य-शासन परीक्षित को सौंपकर भाइयों और द्रौपदी सहित तीर्थयात्रा के बाद हिमालय पर चढ़ते चले गये। युधिष्ठिर को छोड़कर अन्य सब पाण्डव और द्रौपदी एक-एक कर मार्ग में ही गिर गये। युधिष्ठिर के नाम से भारत में एक संवत् भी प्रचलित है।

अर्जुन

महाभारत के वीर, पाँच पाण्डवों में तीसरे, अद्वितीय धनुर्धर, पार्थ, सव्यसाची और धनंजय नामों से अभिहित, द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य, स्वयंवर में शस्त्र कौशल दिखाकर द्रौपदी को जीतने वाले, भारत के उत्तरीय प्रदेशों के दिग्विजयी, वीर अभिमन्यु के पिता, महाभारत युद्ध में पाण्डव पक्ष के मेरुदंड अर्जुन को महाभारत आरम्भ में कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों ओर स्वजनों के ही संहार की शोककारी परिस्थिति देखकर युद्ध से विरक्ति हो गयी थी। भगवान श्रीकृष्ण ने,जो अर्जुन के घनिष्ठ सखा, सम्बन्धी और मार्गदर्शक थे तथा महाभारत युद्ध में उनके सारथी बने थे, उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश देकर व्यामोह-मुक्त किया था। अर्जुन का चरित्र भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण का श्रेष्ठ उदाहरण है।

मार्कण्डेय

भूगुवंश में उत्पन्न नैष्ठिक ब्रह्मचारी और कठोर तपस्वी। बाल्यावस्था में ही भविष्यवक्ताओं ने इन्हें अल्पायु घोषित कर दिया था, अतः इन्होंने ऋषि-मुनियों से आशीर्वाद लेकर घोर तपस्या करके मृत्यु पर विजय पायी थी और कल्पान्त में सृष्टि का प्रलय प्रत्यक्ष देखा था। रामायण में सर्वत्र इनका निर्देश दीर्घायु नाम से किया गया है। मार्कण्डेय मुनि ने पाण्डवों को धर्म का उपदेश दिया था, विशेष रूप से युधिष्ठिर इनके धर्मोपदेश एवं तत्वज्ञान से बहुत प्रभावित थे।

हरिश्चन्द्र

अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशी राजा, जिन्होंने सत्य के दृढ़ व्रत का पालन किया। वसिष्ठ ऋषि से इनके सत्यव्रत की प्रशंसा सुनकर ईर्ष्या से विश्वामित्र ऋषि ने इनके सत्यव्रत की परीक्षा ली और इनसे राज्यदान करवाया। दान के पश्चात्दक्षिणा-पूर्ति के लिए हरिश्चन्द्र ने पुत्र रोहित, पत्नी तारामती तथा स्वयं को भी बेच डाला और एक चाण्डाल के दास बनकर शमशान-भूमि पर शव जलाने का काम करने लगे। पुत्र रोहित सर्पदंश से मर गया तो तारामती उसे दाह-संस्कार हेतु उसी शमशान में लेकर आयी। हरिश्चन्द्र ने दाह-संस्कार का शुल्क लिये बिना रोहित का दाह-संस्कार करने देने से इन्कार कर दिया। सत्य-परीक्षा में उन्हें खरा उतरा देखकर विश्वामित्र प्रसन्न हुए। उन्होंने रोहित को जीवित किया और हरिश्चन्द्र को न केवल पूर्वस्थिति अपितु अक्षय कीर्ति प्राप्त हुई।

प्रह्लाद

श्रेष्ठ भगवद्भक्त प्रह्लाद दैत्य-सम्राट् हिरण्यकशिपु के पुत्र थे। भक्ति-मार्ग के विरोधी पिता ने पुत्र को ईश्वर-भक्ति से विमुख करने के उद्देश्य से नाना प्रकार के कष्ट दिये। किन्तु प्रह्लाद की ईश-भक्ति में आस्था अडिग रही। हिरण्यकशिपु की योजना से प्रह्लाद की बुआ होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि-ज्वालाओं के मध्य जा बैठी, पर भगवद्भक्ति के प्रताप से होलिका जल गयी और प्रह्लाद का बाल भी बाँका नहीं हुआ। पिता ने इन्हें आग में तपे लोहे से बँधवाया, पर इससे भी प्रह्लाद को क्षति नहीं पहुँची। अपने इस अविचल भक्त की रक्षा के लिए स्वयं भगवान नृसिंह रूप में प्रकट हुए और हिरण्यकशिपु का वध किया।

नारद

चारों वेद, इतिहास-पुराण, स्मृति, व्याकरण, दर्शनादि नाना विद्याओं में पारंगत देवर्षि नारद भागवत धर्म के आधार पांचरात्र के प्रवर्तक, भक्ति,संगीत-विद्या, नीति आदि के मुख्याचार्य, नित्य परिव्राजक, रामकथा के आदिकवि वाल्मीकि तथा वैदिक संस्कृति के व्यवस्थापक एवं महाभारतकार वेदव्यास के प्रेरक,जीवमात्र के कल्याण के व्रती, बालक ध्रुव के उपदेष्टा, देव-दैत्य दोनों के ही सम्मान के पात्र और भगवद्भक्ति के प्रचारक, महान् वैष्णव हैं। इन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र कहा जाता है। भगवानब्रह्मा से प्राप्त वीणा लेकर बराबर भगवन्नामगुण गाते रहना ही इनका स्वभाव है। नारद सतत तीनों लोकों में भ्रमण करने वाले और कहाँ क्या चल रहा है, इसका ज्ञान रखने वाले आदि संवाददाता हैं। ये धर्म-संस्थापना के भगवत्कार्य में सदैव सहयोगी रहते हैं।

ध्रुव

राजा उत्तानपाद के पुत्र, श्रेष्ठ भगवद्भक्त, जिन्होंने सुकोमल बाल्यावस्था में ही कठोर तपस्या कर भगवान विष्णु को प्रसन्न किया और अपनी अटल भक्ति के प्रतीक बन आकाश में अविचल ध्रुव नक्षत्र के रूप में स्थित हुए। बचपन में इन्होंने अपनी विमाता सुरुचि के दुव्र्यवहार से भारी कष्ट झेला। माता सुनीति की आज्ञा और महर्षि नारद के उपदेश से पाँच वर्ष की सुकुमार अवस्था में ही राजकुमार ध्रुव के अन्त:करण में भगवद्भक्ति की प्रेरणा उत्पन्न हुई और उन्होंने यमुना-तट पर मधुवन में अखंड तप किया।

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हनुमान जनको व्यासो वशिष्ठश्च शुको बलिः। दधीचि विश्वकर्माणौ पृथुवाल्मीकिभागर्गवाः ॥ १३ ॥

हनुमान

भगवानराम के अनन्य भक्त एवं सेवक श्री हनुमान सुमेरु के राजा केसरी और गौतम-कन्या अंजनी के पुत्र हैं। इन्हें पवन—पुत्र और महाबली के नाम से भी स्मरण किया जाता है। बचपन में सूर्य को फल समझकर उसे तोड़ लाने के लिए झपटकर उसका अतिक्रमण किया, अपने मित्र किष्किन्धापति सुग्रीव से राम-लक्ष्मण की भेंट करायी, सीता की खोज में राम के सहायक बने, सागर लांघकर लंका गये, राम की मुद्रिका सीता माता तक पहुँचायी, अनेक राक्षसों को मारा, लंका-दहन किया, राम-रावण-युद्ध में महान् पराक्रम किया तथा शक्ति लगने के कारण लक्ष्मण के मूच्छित होने पर संजीवनी ओषधि के लिए द्रोणगिरि को उठा लाये। अतुल पराक्रमी, महाबली हनुमान् की उपासना को आधार बनाकर संतों-भक्तों ने समय-समय पर सद्धार्मिकों में शक्ति और बल का संचार करने के उपाय किये हैं। अजेय शक्ति के धनी, निष्कलंक चारित्र्य से सम्पन्न, ज्ञानगुण के आगार, विवेकशील व ध्येयनिष्ठा से युक्त हनुमान् ने एक समर्पित कार्यकर्ता का अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया है।

जनक

जनक की गणना राजर्षियों में की जाती है। ये विदेह नाम से प्रख्यात थे। मिथिला में इनका राज्य था। ये महान आत्मज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी थे। बड़े-बड़े योगी-तपस्वी इनसे आत्मज्ञान प्राप्त करने आते थे। राजा जनक की पुत्री होने से सीता जानकी कहलायीं। मत्र्यदेह का त्याग करजब जनक ऊध्र्वगमन करने लगे तो उन्होंने मार्ग में यमलोक देखा और अपना सारा पुण्य देकर वहाँ के दु:खी जीवों का उद्धार किया। संसार में रहकर भी कैसे निरासक्त रहा जा सकता है, इसका अनुपम उदाहरण राजर्षि जनक के पुण्यचरित से मिलता है। देहासक्ति से मुक्त होने के कारण ही इनके लिए विदेह विशेषण का प्रयोग किया जाता था।

व्यास

आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा का दिन व्यास-पूजा अर्थात् गुरुपूजा-दिवस के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि प्रत्येक मन्वन्तर में भगवान विष्णु 'व्यास' अवतारग्रहण कर वेदों का उद्धार करते हैं। आज तक 28 व्यासावतार हुए हैं। प्रचलित वैवस्वत मन्वन्तर में कृष्ण-द्वैपायन व्यास का आविर्भाव हुआ। पराशर और सत्यवती के पुत्र कृष्ण-द्वैपायन व्यास ने 18 पुराणों की रचना की और अपने कुछ शिष्यों को वेदों का ज्ञान प्रदान कर उनके द्वारा उन्होंने वेदों की भिन्न-भिन्न शाखाओं का विस्तार कराया, ब्रह्मसूत्रों की रचना कर उपनिषदों का रहस्य जगत के सामने रखा, महाभारत जैसे अत्युत्कृष्ट महाकाव्य की रचना की जिसमें भारतीय संस्कृति को सुन्दर आख्यानों-उपाख्यानों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। नारद की आज्ञा से भक्तिरसपूर्ण श्रीमद्भागवत ग्रंथ का प्रणयन कर उन्होंने मन:शान्ति प्राप्त की। व्यास ने वैदिक संस्कृति की परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए वेदों के तत्वों को विविध माध्यमों से लोक में प्रचारित किया।

वसिष्ठ

ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के द्रष्टाऋषि, जो यज्ञ प्रक्रिया के प्रथम ज्ञाता थे। वसिष्ठ सूर्यवंश के कुलगुरु थे। उन्होंने ब्रह्मा की आज्ञा से इस वंश का पौरोहित्य स्वीकार किया था। अपने तपोबल से रघुवंश के चक्रवर्ती नरेशों- दिलीप, रघु, रामचन्द्र आदि की श्रीवृद्धि की और अनेक संकटो से सूर्यवंश की रक्षा की। मध्य में एक बार कोई योग्य शासक न रहने पर उन्होंने राज्य-व्यव्स्था की भी स्वयं देखभाल की और उचित समय पर राज्य के उत्तराधिकारी को शासन सौंप दिया। वसिष्ठ के पास नन्दिनी नाम की एक कामधेनु थी जिसे हठात् बलपूर्वक प्राप्त करने के लिए विश्वामित्र ने वसिष्ठ से संघर्ष किया। विश्वामित्र ने क्षात्रतेज की तुलना में ब्रह्मतेज की श्रेष्ठता अनुभव की और राजपद त्याग कर तपस्या करके तपोबल से वसिष्ठ को हराने का प्रयत्न बहुत समय तक करते रहे। किन्तु अन्तत: उन्होंने अपनी भूल स्वीकार कर ली। वसिष्ठ ब्राह्मणत्व के आदर्श हैं। विश्वामित्र के हाथों अपने सौ पुत्रों के मारे जाने पर भी उनके मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ। अरुन्धती वसिष्ठ जी की पत्नी हैं, जो उनके साथ सप्तर्षि—मंडल में स्थित हैं।

शुकदेव

भगवान व्यास के पुत्र, जन्मना परम विरक्त, ब्रह्मविद्या के जिज्ञासु और भगवद्भक्ति के प्रचारक शुकदेवजी ने भागवत ग्रंथ का अध्ययन प्रमुखतया अपने पिता से किया था, भगवानशंकर से श्रीकृष्णचंद्र की अमृतकथा सुनी थी, मिथिला-नरेश राजाजनक से ब्रह्मविद्या प्राप्त की थी और पाण्डवों के पौत्र राजा परीक्षित को, जिन्हें सातवें दिन सर्पदंश से मृत्युका शाप मिला था, सात दिनों में सम्पूर्ण भागवत ग्रंथ सुनाया था।

बलि

महान विष्णुभक्त राजा बलि प्रसिद्ध भगवद्भक्त प्रह्लाद के पौत्र थे। इन्होंने अपने पराक्रम से देवलोक पर अधिकार कर लिया था। इन्द्रासन का अधिकारी बनने के लिए इन्होंने एक सौ अश्वमेध यज्ञ किये। अंतिम सौवें अश्वमेध यज्ञ के समय देवगण चिन्तित होकर भगवान विष्णु की शरण में गये। विष्णु वामन रूप धारण कर यज्ञ-स्थल पर पहुँचे और बलि से तीन पद (पग) भूमि माँगी। दैत्यगुरु शुक्राचार्य के निषेध करने पर भी बलि ने वामन को तीन पद भूमि दान दे दी। भगवानवामन ने प्रथम दो पदों से मत्र्यलोक और स्वर्गलोक नाप लिये। तब तीसरा पद रखने के लिएबलि ने अपना मस्तक झुका दिया। भगवानप्रसन्न हुए। उन्होंने बलि राजा को पाताल का अधिपति बना दिया। राजा बलि का चरित्र दानशीलता, वचनबद्धता और विष्णुभक्ति का अनुपम उदाहरण है। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा बलि-प्रतिपदा के रूप में मनायी जाती है और इस दिन बलिपूजन किया जाता है।

दधीचि

अथर्वा ऋषि के पुत्र महर्षि दधीचि त्याग और परोपकार के अद्वितीय आदर्श हैं। परम तपस्वी दधीचि के तप से देवराज इन्द्र को अपना सिंहासन छिनने की शंका हो गयी थी। उसने इनकी तपस्या में विध्न डालने के अनेक उपाय किये, पर असफल रहा। वही इन्द्र वृत्रासुर से पराजित होकर महर्षि दधीचि के यहाँ याचक के रूप मे उपस्थित हुआ और बोला," हम आपत्ति में पड़ आपसे याचना करने आये हैं। हमें आपके शरीर की अस्थि चाहिए।” उदारचेता महर्षि ने इन्द्र के पिछले कुत्यों को भुलाकर लोकहित के लिए योग-विधि से शरीर छोड़ दिया। तब इन्द्र ने उनकी अस्थियों से वज़ बनाया और वृत्रासुर को पराजित किया।

दधीचि उपनिषदों में वर्णित मधुविद्या के ज्ञाता थे। किन्त उसके साथ यह शाप भी जुड़ा हुआ था कि यदि वे किसी को वह विद्या बतायेंगे तो उनका शिर कटकर गिर जायेगा। इस बाधा से बचने के लिए अश्विनीकुमारों ने उन्हें अश्व का शिर लगा दिया और उन्होंने उसी से मधुविद्या का उपदेश अश्विनीकुमारों को दिया। अश्व का शिर गिर जाने पर अश्विनीकुमारों की भिषकविद्या से उन्हें अपना मूल शिर पुन: पूर्ववत् मिल गया।

विश्वकर्मा

विश्व के आदि स्थपति एवं शिल्पी,जिन्होंने देवलोक और मनुष्यलोक में अनेक भव्यनगरों का निर्माण किया। विष्णु के सुदर्शनचक्र, शिव के त्रिशूल, इन्द्र के वज़ और त्रिपुरदहनार्थ रुद्र के रथ के निर्माता भी विश्वकर्मा ही कहे जाते हैं। स्वयं कश्यप ऋषि ने विश्वकर्मा का अभिषेक किया था। समस्त शिल्पों के अधिदेवता विश्वकर्मा की माता का नाम महासती योगसिद्धा था जो प्रभास नामक वसु की पुत्री थीं। विश्वरूप और वृज विश्वकर्मा के पुत्र हुए। हिन्दू शिल्पी अपने कर्म की उन्नति के लिए सूर्य की सिंह राशि से कन्या राशि में संक्रान्ति के दिन इनकी आराधना करते हैं और इस दिन शिल्प के किसी उपकरण को व्यवहार में नहीं लाते।

पृथु

राजा पृथु ने धरती पर विभित्र प्रकार के धान्यों का आविष्कार किया, धरती में निहित रत्नों का अन्वेषण किया, धरती की सकल सम्पदाओं का दोहन किया, कृषि का अपूर्व विकास किया और प्रजा की समृद्धि के लिए पृथ्वी को वैभव सम्पन्न बनाया। फलत: यह धरती पृथु की कन्या कहलायी और पृथ्वी नाम से अभिहित हुई। ये अत्याचारी राजा वेन के पुत्र थे, अतः इन्हें वैन्य भी कहते हैं। राजा वेन का वध करके ऋषियों ने पृथु को राज्याभिषिक्त किया था।

वाल्मीकि

रामायण के रचयिता कवि, जिन्होंने संस्कृत में रामचरित का वर्णन किया। इनका महाकाव्य रामायण बाद में अनेकानेक कवियों-लेखकों के लिए उपजीव्य बना। कहा जाता है कि पहले ये लूटपाट का काम करते थे। नारद जी ने इन्हें राम का नाम स्मरण करने की प्रेरणा दी। एक बार एक व्याध ने क्रौंच युगल में से नर क्रौंच को बाण से मार गिराया। इस पर उसकी भार्या ने करुण क्रन्दन प्रारम्भ कर दिया। यह दृश्य देखकर वाल्मीकि के हृदय की करुणा काव्यधारा के रूप में फूट निकली । उनकी वाणी व्याध के प्रति शाप के रूप में प्रकट हुई, किन्तु विशेष बात यह रही कि वह अभिव्यक्ति छन्दोबद्ध थी। वही वाणी आद्य कविता कहलायी। जिस छन्द में शाप फूटा था, उसी अनुष्टुप छन्द में बाद में वाल्मीकि ने नारद जी के बताये श्री राम के अत्युज्ज्वल जीवन-चरित्र का वर्णन किया।

भार्गव (परशुराम)

भूगु कुल में उत्पन्न व्यक्तियों में जमदग्नि ऋषि और रेणुका देवी के पुत्र परशुराम का नाम सर्वप्रमुख है। इनकी गणना भगवान विष्णु के दश अवतारों में हुई है। ये छठे अवतार थे। इन्होंने कश्यप ऋषि से मंत्र-विद्या और भगवान शिव से धनुर्वेद प्राप्त किया था। ये महापराक्रमी हुए हैं। इनकी माता सूर्यवंश की राजकुमारी और इनकी पितामही (जमदग्नि की माता) कान्यकुब्ज के चंद्रवंश की राजकुमारी तथा विश्वामित्र की बड़ी बहिन थीं। इस प्रकार इनका निकट संबंध अपने समय के दोनों प्रसिद्ध क्षत्रिय राजवंशों से था। जब कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन ने इन की अनुपस्थिति में इनके तपस्यारत पिता जमदग्नि का वध कर दिया तो इन्होंने क्रोधावेश में सहस्त्रार्जुन सहित विश्वभर के सारे अत्याचारी राजाओं और उनके जन-उत्पीड़नकारी सहायकों का संहार किया तथा समस्त पृथ्वी जीतकर अपने मंत्रविद्या-गुरु कश्यप ऋषि को दान में दे दी और स्वयं पश्चिम-सागर के तट पर समुद्र में से नयी भूमि का निर्माण कर वहाँ तप करने लगे। इन्होंने कामरूप (असम) में भी तपस्या की और पर्वतों से घिरकर विशाल सागर सा बनाये ब्रह्मपुत्र महानद को, अपने परशु से पर्वत काटकर, भारत की ओर बहने का मार्ग दिया। उस तप:स्थान पर आज भी परशुरामकुंड प्रसिद्ध है। महाभारत के तीन दुर्धर्ष महावीर – भीष्म, द्रोण और कर्ण – इनके शिष्य और चौथे अर्जुन इनके शिष्य के शिष्य थे। शिव के परम भक्त परशुराम तेजस्विता, अत्याचार के प्रचंड प्रतिशोध एवं अनीतिविरोधी विकट प्रतिकार के प्रतीक हैं।

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भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा । शिबिश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद्गीतकीर्तयः ॥ १४ ॥

भगीरथ

राजा सगर के वंशज और इक्ष्वाकुवंशी राजा दिलीप के पुत्र भगीरथ की कीर्ति गंगा को भूलोक पर लाकर अपने उन पूर्वजों (राजा सगर के पुत्रों) का उद्धार करने के कारण है जो कपिल मुनि के कोप से दग्ध हुए थे। गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए राजा भगीरथ के पिता और पितामह ने भी प्रयास किये थे, पर वे सफल नहीं हो पाये थे। भगीरथ अपने कठोर तप से इस कार्य में सफल हुए, अतः गंगा को भागीरथी नाम से अभिहित किया जाता है। गंगा की धारा को भूतल पर लाकर राजा भगीरथ ने भारत को श्रीवृद्धि प्रदान की और पितृ-ऋण से भी मुक्त हुए। कठोर साधना के लिए भगीरथ-प्रयत्न एक मुहावरा बन गया है।

एकलव्य

आदर्श गुरुभक्त, श्रेष्ठ धनुर्धर, वचनधनी एकलव्य व्याधों के राजा हिरण्यधनु का पुत्र था। महाभारत काल के धनुर्विद्या के सर्वश्रेष्ठ आचार्य द्रोण से विद्या पाने की अभिलाषा लेकर एकलव्य उनके पास गया। किन्तु द्रोणाचार्य ने राज्य के उत्तराधिकारियों को दी जा रही शस्त्र-विद्या इस वनवासी बालक को देना राज्य के लिए अहितकर मानकर उसे सिखाने से इन्कार कर दिया। तब एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिमा बनायी,उसे गुरु मान्य किया अनुकरण करते हुए और मानो उनके आदेश-निर्देश से धनुर्विद्या का अभ्यास कर श्रेष्ठ धनुर्धारी बन गया। बाद में गुरुदक्षिणा में गुरु द्रोण द्वारा अंगूठा माँगे जाने पर बिना हिचक अपना अंगूठा देकर गुरुभक्ति का आदर्श प्रस्थापित किया। उसकी स्मृति में आज भी भील जनजाति के अनेक लोग धनुष-वाण चलाते समय अपने अंगूठे का प्रयोग नहीं करते।

मनु

मानव जाति के आदि-पुरुष और धर्मशास्त्र के प्रणेता मनु ने जलप्लावन के समय पृथ्वी के डूब जाने पर अपनी नौका में सृष्टि के सब बीज सुरक्षित रख लिये थे, जिनके आधार पर जलप्लावन उतर जाने के बाद उन्होंने धरती को सर्व सम्पन्नता प्रदान की और नूतन मानव संस्कृति का निर्माण किया। ईसाइयों और मुसलमानों में भी नोअह और हजरत नूह के नाम से यही कथा प्रचलित है। मनु अनेक हुए हैं। पुराणों के अनुसार प्रत्येक कल्प के चौदह मन्वन्तरों में अलग-अलग चौदह मनुओं का शासन होता है। वर्तमान मनुवैवस्वत अर्थात् सूर्यपुत्र कहलाते हैं और अतः यह मन्वन्तर भी वैवस्वत मन्वन्तर कहलाता है।

धन्वन्तरि

देवताओं के वैद्य एवं आयुर्वेद शास्त्र के प्रवर्तक। समुद्र-मंथन से आविभूत चौदह रत्नों में से एक धन्वन्तरि थे जो हाथ में अमृत-कलश धारण कर समुद्र में से प्रादुभूत हुए। भगवान विष्णु के आशीर्वचनानुसार धन्वन्तरि ने द्वापर युग में काशिराज धन्व के पुत्र के रूप में पुनर्जन्म लिया, आयुर्वेद को आठ विभागों में विभक्त किया और प्रजा को रोग-मुक्त किया। वैद्यक और शल्यशास्त्र में पारंगत व्यक्तियों को धन्वन्तरि कहने का प्रचलन है। धन्वन्तरि के नाम पर आयुर्वेद के अनेक ग्रंथ प्रसिद्ध हैं।

शिबि

शरणागत-रक्षण का आदर्श प्रस्तुत करने वाले राजा शिबि उशीनर के राजा थे। एक बार इन्द्र ने उनकी शरणागत-रक्षणशीलता की परीक्षा लेने की ठानी। इसके लिए अग्नि भयभीत कबूतर का रूप धारण कर उड़ते हुए आयें और राजा शिबि की गोद में छिपने का प्रयास करने लगे। पीछे से बाज बनकर झपटते हुए इन्द्र आये और कबूतर को अपना भोज्य बताकर शिबि से उसकी माँग करने लगे। कबूतर के बदले और कुछ न लेने के हठ पर अड़ा हुआ बाज अन्त में इस बात पर माना कि शिबि कबूतर के ही भार के बराबर अपना मांस काटकर देंगे। जब राजा शिबि के एक-एक अंग का मांस कट जाने पर भी कबूतर के भार के समतुल्य नहीं हुआ तो उन्होंने अपने को सम्पूर्णत:बाज के सामने प्रस्तुत कर दिया। राजा शिबि को शरणागत-रक्षण की परीक्षा में खरा उतरा देखकर देवों ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया और उनके शरीर को अक्षत कर दिया।

रन्तिदेव

महाराज संकुति के पुत्र, महाराज रन्तिदेव आतिथ्य-धर्म और परदु:खकातरता के मूर्तिमान प्रतीक थे। उन्होंने आगत की इच्छा जानते ही इच्छित वस्तु देने का व्रत धारण किया था। उदार आतिथ्य-सत्कार और दानशीलता के कारण राजकोष रिक्त हो गया। एक बार राज्य में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। दीन-दु:खी और आर्तजनों को सब कुछ बाँटकर पूर्णतया अकिचन बनकर राजा रन्तिदेव अपनी पत्नी और संतान को लेकर वन में चले गये। वन में अड़तालीस दिन भूखे रहने के पश्चात् जब थोड़ा सा भोजन मिला तो वहाँ भी देवता अतिथि रूप धारण कर इनकी परीक्षा लेने आ पहुँचे। अपने सामने प्रस्तुत भोजन आगन्तुकों को देकर वे स्वयं भूख-प्यास से मूच्छित होकर गिर पड़े, किन्तु अतिथि-सेवा की कड़ी परीक्षा में खरे उतरे। इनकी एकमात्र अभिलाषा थी-“न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नापुनर्भवम्। कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्।"

(मुझे न तो राज्य चाहिए, न स्वर्ग चाहिए और न ही मोक्ष चाहिए। मेरी एकमात्र कामना यह है कि दु:खों से पीड़ित प्राणियों के कष्ट समाप्त हो जायें।)

धर्माचार्य एवं संत

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बुद्धा जिनेन्द्रा गोरक्षः पाणिनिश्च पत०जलि ।शंकरो मध्वनिम्बाकौं श्रीरामानुजवल्लभौ । । १५॥

बुद्ध

बौद्ध मत के अनुसार सत्यज्ञान (बोध) – प्राप्त महापुरुष, जिनको बुद्ध कहा जाता है, अनेक हुए हैं। वर्तमान बौद्ध मत ('धर्मचक्र') के प्रवर्तक गौतमबुद्ध का बोध प्राप्त करने से पूर्व का नाम सिद्धार्थ था। इनका जन्म कपिलवस्तु में शाक्यगण-प्रमुख राजा शुद्धोधन के घर हुआ था। जगत के जीवों के दु:खों से द्रवित होकर तीस वर्ष की युवावस्था में सिद्धार्थ अपनी पत्नी यशोधरा, पुत्र राहुल और राजप्रासाद के सुख-आराम को छोड़कर शांति की खोज में निकल पड़े। कई वर्ष तक घोर तप करने पर भी उन्हें शांति नहीं मिली। अन्त में गया के समीप पिप्पलिवन में एक पीपल के नीचे जब वे ध्यानमग्न थे,उन्हें बोध (ज्ञान) प्राप्त हुआ। उन्होंने अपना प्रथम उपदेश वाराणसी के समीप सारनाथ में दिया। अब वे 'बुद्ध' कहलाने लगे और जिस वृक्ष के नीचे उन्हें बोध प्राप्त हुआ था वह 'बोधिवृक्ष' कहलाया। दार्शनिक वाद- विवाद में न पड़कर वे दु:ख निवृत्ति के मार्ग पर बल देते थे। उन्होंने चार आर्य सत्यों, अष्टांग मध्यम मार्ग, अहिंसा और करुणा का उपदेश दिया। अपने बताये मार्ग का प्रचार करने के लिए उन्होंने अनुयायी भिक्षुओं और भिक्षुणियों का संघ स्थापित किया। उनके उपदेशों का व्यापक प्रभाव पड़ा और बौद्धमत भारत तथा अन्य अनेक देशों में फैल गया। अस्सी वर्ष की आयु में कुशीनगर में उनका देहान्त हुआ। जातक ग्रंथों में बुद्ध के पूर्व-जन्मों की कथाएँँ हैं। बौद्ध मतानुसार आगे भविष्य में भी अनेक बुद्ध होंगे।

जिनेन्द्र

जैन मत के 24 तीर्थंकर (पूजनीय मुक्त पुरुष) माने गये हैं। इनमें प्रथम ऋषभदेव और वर्धमान महावीर अन्तिम तीर्थंकर थे। सभी तीर्थंकर 'जिन' या 'जिनेन्द्र' कहलाते हैं, जिसका अर्थ है— विजेता, जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है। जैन धर्ममत के दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रवर्तक महावीर स्वामी का जन्म वैशाली के समीप कुण्डिग्राम में वृजिगण के एक राजा सिद्धार्थ के घर हुआ था। राजकुमार होते हुए भी महावीर ने संन्यास लेकर तपोमय जीवन व्यतीत किया। बारह वर्ष की कठोर साधना के फलस्वरूप उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। अब 'जिन' महावीर मथुरा, कोसल आदि में भ्रमण कर अपने मत का प्रचार करने लगे। महावीर ने अहिंसा पर सवाधिक आग्रह रखा और मोक्षसाधना के लिए सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, उपवास और कठित तप को मुख्य उपाय बताया। ये गौतम बुद्ध के लगभग समकालीन कहे जाते हैं।

गोरखनाथ

महान् योगी, ज्ञानी तथा सिद्ध पुरुष गुरु गोरखनाथ प्रसिद्ध योगी मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे। भारत के अनेक भागों – यथा उत्तर प्रदेश, बंगाल, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र इत्यादि प्रांतों के अतिरिक्त नेपाल में भी इनके मठ पाये जाते हैं। इन्होंने हठयोग की साधना का प्रचार किया, मन के निग्रह पर बल दिया और भारतीय साधना तथा साहित्य को बहुत प्रभावित किया। गोरखनाथ जी की चमत्कारिक योग-सिद्धियों से संबंधित अनेक कथाएँँ प्रचलित हैं।

पाणिनी

महान् वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी। इनका रचा व्याकरण-ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' प्रचलित संस्कृत व्याकरण का आधार ग्रंथ है। प्रत्याहार एवं शब्दानुशासन, धातुपाठ, गणपाठ, उणादि सूत्र और लिंगानुशासन पाणिनीय व्याकरण के पाँच विभाग हैं। अष्टाध्यायी की रचना ईसा से सात सौ वर्ष पूर्व की प्रमाणित हुई है। पाणिनि के जीवन से संबंधित जानकारी अब भी अत्यल्प है। वे तक्षशिला के निकट शलातुर ग्राम में रहते थे। उनके असाधारण कार्य के स्वरूप को देखते हुए लगता है कि उन्होंने सम्पूर्ण देश की यात्रा करके शब्द-सम्पदा का चयन और भाषा-प्रयोग का व्यापक अध्ययन किया होगा। उनकी मृत्यु संभवतः व्याघ्र द्वारा हुई।

पाणिनीय व्याकरण 14 माहेश्वर सूत्रों के आधार पर प्रतिष्ठित है, जिनके बारे में किंवदन्ती है कि वे भगवान शिव के डमरू से निकले और शंकर के आदेश पर ही पाणिनि ने उन सूत्रों को आधार बनाकर व्याकरण-रचना की। सम्भव है कि पाणिनि के गुरु का नाम महेश्वर रहा हो जिन्होंने इन सूत्रों की रचना कर इनके आधार पर शेष कार्य करने का आदेश उन्हें दिया हो। पाणिनीय व्याकरण में शब्दोच्चारण का ध्वनिविज्ञान इतना उत्कृष्ट और परिपूर्ण है कि आज के ध्वनि-वैज्ञानिकों को भी दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। आज से ढाई सहस्त्र वर्ष से भी पूर्व भारत में विज्ञान के एक अंग की अत्युन्नत स्थिति किसी को भी सोचने के लिए विवश कर देने वाली है। आज माना जा रहा है कि संगणकों (कम्पूटर) के लिए मध्यवर्ती भाषा के रूप में संस्कृत ही सर्वाधिक योग्य भाषा है। उत्तम व्याकरण के द्वारा संस्कृत के उन्नत स्वरूप को सुरक्षित करने में पाणिनि का योगदान अनुपम है।

पतंजलि

महान् वैयाकरण, आयुर्वेदाचार्य और योगदर्शनाचार्य, जिन्होंने वाणी की शुद्धि के लिए व्याकरण शास्त्र का, शरीर-शुद्धि के लिए वैद्यक शास्त्र का और चित्त-शुद्धि के लिए योगशास्त्र का प्रणयन किया। गोनर्द प्रदेश में जन्मे पतंजलि ने पाणिनि की अष्टाध्यायी पर अपना उच्चकोटि का महाभाष्य लिखा तथा योगदर्शन के प्रतिपादन हेतु योगसूत्र की रचना की। प्रचलित राजयोग की सम्पूर्ण पद्धति, परिणाम और अन्तर्निहित सिंद्धात को इन्होंने 194 सूत्रों में संग्रहीत किया। योगसूत्रों में प्रतिपादित विषयों को साधारणत: चार भागों में बाँटा जा सकता है-योग-साधना सम्बन्धी विचार, यौगिक सिद्धियों का परिचय, योग के चरम बिंदुसमाधि का विवेचन और योग विद्या का दर्शन। पतङजलि के अनुसार चित्तवृत्तियों का निरोध योग है। चित्त की वृत्तियों के निरोध के बिना पुरुष (जीव) अपने शुद्ध रूप (कैवल्य) में नहीं स्थित होता। इस स्वरूपाव स्थान के लिए अष्टांग योग—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का प्रतिपादन किया गया है। पतङजलि वैदिक संस्कृति के रक्षक सम्राट पुष्यमित्र शुंग के कुलगुरु और मार्गदर्शक कहे जाते हैं। उनका महाभाष्य संस्कृत व्याकरण का सर्वोच्च प्रमाण-ग्रंथ माना जाता है।

शंकराचार्य

मालाबार (केरल के कालडी ग्राम में जन्मे महान् दार्शनिक [युगाब्द 2593-2625(ई०पू० 509-477)]। बत्तीस वर्ष की अल्पायु में देहावसान होने से पूर्व इन्होंने जो-जो कार्य कर दिखाये, उनका कोई समतुल्य नहीं। आचार्य शंकर ने गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों पर अत्युच्च कोटि के भाष्य लिखे, दक्षिण से उत्तर, पश्चिम से पूर्व, सारे देश की यात्राएँ कर शास्त्रार्थ में सब ओर दिग्विजय प्राप्त की और चारों दिशाओं में देश के चार कोनों में मठ स्थापित किये, जो राष्ट्रीय एकता के दिक्पाल बनकर खड़े हैं। बौद्ध मत में विकार आ जाने पर उसे प्रभावहीन बनाकर, वैदिक परम्परा की पुन:स्थापना करने में शंकर की महान भूमिका रही है। उन्होंने ब्रह्म को एकमात्र सत्य माना और अद्वैत मत एवं मायावाद का प्रतिपादन किया। इस मत पर उनका मुख्य ग्रंथ शारीरक भाष्य नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य शंकर के विराधी उनको प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, क्योंकि उन्हें शंकर के अद्वैतवाद में बौद्धों के शून्यवाद की झलक दिखाई देती थी। दूसरी बात यह भी थी कि शंकराचार्य महात्मा बुद्ध का बहुत आदर करते थे। शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन को नवचैतन्य प्रदान किया और देश को सांस्कृतिक एकता में आबद्ध किया। अखिल भारतीय स्तर पर लोगोंं के व्यापक मेल-मिलाप के कारण भूत कुम्भ मेले की विच्छिन्न हुई परम्परा और तीर्थयात्राओं को उन्होंने फिर से प्रारम्भ कराया और शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य आदि के पारस्परिक मतभेदों को मिटाते हुए मन्दिरों में सर्वमान्य पंचायतन पूजा की पद्धति डाली। अपने दार्शनिक विचारों में संसार को मिथ्या मानते हुए भी, मातृभूमि के कण-कण में पुण्यभूमि का भाव जगाते हुए आचार्य शंकर अपनी देशयात्रा में पड़ने वाले नदी-पर्वतादि की स्तुति में काव्य-रचना करते चलते थे। पिता शिवगुरु और माता आर्याम्बा के ऐसे अद्भुत, मेधावी, अद्भुतकर्मा पुत्र ने आठ वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था। इनके गुरु गोविन्द भगवत्पाद प्रसिद्ध अद्वैतवादी चिन्तक गौड़पादाचार्य के शिष्य थे।

मध्वाचार्य

युगाब्द की 44वीं अर्थात् ईसवी 13वीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध दार्शनिक एवं द्वैतवाद के प्रवक्ता वैष्णव आचार्य, जिनका जन्म कर्नाटक में उडुपी के समीप हुआ था। ग्यारह वर्ष की अवस्था में मध्व ने श्री अच्युत प्रज्ञाचार्य से संन्यास-दीक्षा ले ली। वैष्णव मत के प्रचारार्थ इन्होंने दीर्घकाल तक भारत में यात्राएँ कीं। आचार्य मध्व ने जीव की नित्य पृथक सत्ता का प्रतिपादन किया। प्रस्थानत्रयी अर्थात उपनिषद, ब्रह्मसूत्र तथा भगवद्गीता पर आचार्य ने भाष्य ग्रंथ लिखे। मध्यकाल में भारतीय भाषाओं के भक्ति-साहित्य को आचार्य मध्व के मत और विचारों ने प्रेरित तथा प्रभावित किया।

निम्बार्काचार्य

आन्ध्र में गोदावरी-तट पर वैदूर्यपत्तन के पास निम्बार्क का आविर्भाव हुआ। ये द्वैताद्वैत मत के प्रवक्ता थे, जिसके अनुसार जीव और जगत ब्रह्म से भिन्न भी हैं और अभिन्न भी। दक्षिण में जन्मे निम्बार्काचार्य मथुरा के समीप ध्रुव क्षेत्र मे आश्रम बनाकर रहते थे। वेदान्त-पारिजात-सौरभ इनका वेदान्त सूत्रों पर लिखा भाष्य है। इन्होंने प्रस्थानत्रयी के स्थान पर प्रस्थानचतुष्ट्य को प्रधान माना और उसमें से चौथे प्रस्थान श्रीमद्भागवत को ही परम प्रमाण स्वीकार किया। भारतीय भाषाओं में मध्य-काल में रचे गये वैष्णव भक्ति-साहित्य पर निम्बार्काचार्य के मत का बहुत प्रभाव पड़ा है।

रामानुजाचार्य

विशिष्टाद्वैत सिद्वांत के प्रवक्ता रामानुजाचार्य का जन्म दक्षिण भारत के तिरुकुन्नूर गाँव में केशव भट्ट के घर हुआ था (युगाब्द 4118-4237)। पिता की मृत्यु के समय रामानुज छोटे थे। कांची जाकर यादवप्रकाश नामक गुरु से इन्होंने विद्या प्राप्त की और बाद में यामुनाचार्य से वैष्णव दीक्षा प्राप्त की। महात्मा नाम्बि ने इन्हें श्री नारायण मंत्र की दीक्षा दी, जिसे लोक-कल्याण के लिए रामानुजाचार्य ने सब लोगोंं को सुनाया। अपने विशिष्टाद्वैत सिद्वांत के अनुसार इन्होंने प्रस्थानत्रयी पर 'श्रीभाष्य' लिखा। इन्होंने एक अंत्यज जाति के साधु से भी उपदेश प्राप्त किया था और अस्पृश्यता-निवारण के सामाजिक कार्य में लगे थे। इन्होंने शास्त्रीय आचार एवं भक्ति की भारत में पुन: प्रतिष्ठा की।

वल्लभाचार्य

कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसवी 15वीं) शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य, जिनका मत 'शुद्धाद्वैतवाद' के नाम से और जिनका भक्ति-मार्ग ‘पुष्टिमार्ग' के नाम से विख्यात है। आन्ध्र प्रदेश में जन्मे श्री वल्लभाचार्य गृहस्थ आचार्य थे। छोटी आयु में ही काशी में शास्त्राध्ययन पूर्ण कर चुकने पर ये वृन्दावन चले गये और कुछ दिन ब्रजवास करके तीर्थाटन को निकले। श्री विट्ठलनाथ इन के पुत्र थे। कहा जाता है कि वल्लभाचार्य की श्री चैतन्य महाप्रभु से भी भेंट हुई थी। भगवान का अनुग्रह ही पुष्टि है और इसी अनुग्रह से भक्ति का उदय होताहै, ऐसी श्री वल्लभाचार्य की मान्यता थी। इन्होंने 'अणुभाष्य' नाम से ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखा। 52 वर्ष की अवस्था में ये वाराणसी में ज्योतिरूप में विलीन हो गये।

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झुलेलालोऽथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा। नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ॥ १६॥

झूलेलाल

सिन्ध प्रान्त के युगाब्द 41वीं शती (अर्थात् ईसा की 10वीं शताब्दी) के पूज्य पुरुष। मुसलमान नवाब ने सारी प्रजा का बलात् सामूहिक धर्मान्तरण करना चाहा। श्री झूलेलाल ने अपने कर्तृत्व से उसकी इस दुष्ट योजना को विफल कर दिया। इन्हें वरुण देव का अवतार माना जाता है।

श्री चैतन्य

कलियुग की 45वीं (ईसा की 14वीं) शताब्दी में बंगाल प्रांत के नवद्वीप ग्राम में जन्मे गौर-सुन्दर निमाई अर्थात श्री चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति तथा कृष्ण-कीर्तन की धारा प्रवाहित कर लोकचित्त को श्रीकृष्ण के रंग में रंग दिया। 24 वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्याग कर चैतन्य ने केशव भारती नामक संन्यासी से संन्यास-दीक्षा ग्रहण की। आध्यात्मिक महापुरुष होने के साथ ही वे महान नैयायिक भी थे। उन्होंने न्यायशास्त्र पर एक उत्कृष्ट ग्रंथ भी लिखा था। उनकी कृष्ण-भक्ति उत्कृष्ट भाव वाली थी। उनके भाव विभोर नृत्य-कीर्तन में साथ देते हुए लोगोंं की भारी भीड़ उनके साथ चलती थी। नवद्वीप छोड़कर उन्होंने श्री जगन्नाथ धाम में निवास किया था। काशी, वृन्दावन, दक्षिण भारत और मध्य भारत की यात्राएँ भी उन्होंने कीं और अंत में जगन्नाथ धाम में पधार कर कहा जाता है कि जगन्नाथ जी के विग्रह में ही वे विलीन हो गये। जगन्नाथ पुरी में महाप्रभु चैतन्य का मठविद्यमान है।

तिरुवल्लुवर

'तिरुक्कुरल' नामक तमिल सुभाषित ग्रंथ के रचयिता तिरुवल्लुवर का जन्म कलियुग की 30वीं अर्थात् ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी में हुआ था। वे बुनकर का व्यवसाय करते थे। 'कुरल' (तिरुक्कुरल) में उन्होंने सम्पूर्ण मानवीय जीवन को प्रकाशित किया है। इस ग्रंथ में धर्म, अर्थ, काम, इन तीन पुरुषार्थों का प्रतिपादन हुआ है। 'कुरल' में 1330 द्विपदियाँ हैं। इसको तमिल साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है और इसका भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। तिरुक्कुरल में पारम्परिक हिन्दू विचार और जीवन-पद्धति की छाया सर्वत्र व्याप्त है।

नायन्मार

तमिलनाडु के 63 शैव संत, जिनका समय कलियुगाब्द 33वीं से 40वीं शती (अर्थात् ईसा की द्वितीय शताब्दी से नौवीं शताब्दी) तक माना जाता है। तमिलनाडु के प्रमुख शैव मन्दिरों में नायन्मार सन्तों की मूर्तियाँ स्थापित की गयी हैं। नायन्मार सन्त विभिन्न जातियों से सम्बन्धित थे। इनमें तीन महिलाएँ भी हैं। ये जातिभेद और छुआछूत को नहीं मानते थे। इन्हें समाज के सभी वर्गों और जातियों की श्रद्धा प्राप्त हुई थी। ऊंची जाति और तथाकथित छोटी जाति के नायन्मार सन्तों में परस्पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। शिव-भक्ति में और शिव-भक्तों की सेवा में पूर्णतया निमग्न नायन्मार संतों ने अपूर्व नि:स्वार्थ भावना, सामाजिक समता, सेवा और त्याग का आदर्श प्रस्तुत किया।

आलवार

दक्षिण भारत के वैष्णव सन्त, जिनकी संख्या बारह कही जाती है। इनमें नम्मालवार, कुलशेखर, तिरुमगई और आण्डाल का अधिक महत्व है। नायन्मार भक्तों के समान आलवार भी जातिप्रथा को नहीं मानते थे। इनके अनुयायियों और भक्तों में अनेक तथाकथित निम्न जातियों में से थे। आलवार भक्त भी थे और कवि भी। आलवार सन्तों के रचे गीतों का संग्रह 'प्रबन्धम' नामक ग्रंथ में हुआ है। तमिलनाडु के वैष्णव सम्प्रदाय में 'प्रबन्धम्' का स्थान श्रीमद्भगवदगीता के बराबर माना जाता है। श्री रामानुजाचार्य के प्रपतिवाद का मूल आलवारों की विचारधारा में मिलता है।

कम्ब

तमिल के महान रामकथा कवि, जिनकी लिखी रामायण को तमिलनाडु में वैसा ही ऊँचा स्थान प्राप्त है जैसा उत्तर भारत में तुलसीदास के रामचरित मानस को। ये तमिलनाडु के शैव और वैष्णव दोनों समाजों के श्रद्धेय महाकवि थे। तमिलनाडु के तिरुवयुन्दुर नामक गाँव में अब से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व जन्मे इस प्रतिभाशाली महाकवि को श्रीरंग के पण्डितों ने 'कवि चक्रवर्ती' उपाधि प्रदान करके इनके रामायण की श्रेष्ठता को स्वीकार किया था। दक्षिण में रामकथा-प्रचार का अविस्मरणीय कार्य कम्ब या (कम्बन्) के हाथों सम्पन्न हुआ।

बसवेश्वर

वीरशैव सम्प्रदाय के संस्थापक श्री बसवेश्वर ने कर्नाटक तथा आन्ध्र में अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तों और मान्यताओं का प्रचार किया। यह सम्प्रदाय मानव समाज में किसी प्रकार का भेदभाव स्वीकार नहीं करता। बाल्यावस्था से ही बसवेश्वर के अन्त:करण में प्रखर शिवभक्ति का उदय हुआ था। भगवान वीर महेश्वर में इनकी आस्था अडिग थी। पिता नादिराज और माता मदाम्बिका के घर इनका कलियुगाब्द 42 वीं शती (ई० 11वीं सदी) में कर्नाटक में बागवाड़ी ग्राम में जन्म हुआ। संगमनाथ नामक संन्यासी ने इनका लिंगधारण संस्कार करवाया। ये कुछ काल तक कल्याण के राजा विज्जल के मंत्री भी रहे थे।

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देवलो रविदासश्च कबीरो गुरुनानक: । नरसिस्तुलसीदासो दशमेशो दूढ़व्रत: ॥१७॥

देवल

इस नाम के दो ऋषि प्रसिद्ध हुए हैं। हरिवंश पुराण के अनुसार एक देवल प्रत्यूष वसु के पुत्र हुए हैं और दूसरे असित के पुत्र। ये दूसरे देवल रम्भा के शाप से ‘अष्टावक्र' हो गये थे। गीता में उल्लिखित यही देवल धर्मशास्त्र के प्रवक्ता थे। ये वेद-व्यास के शिष्य थे। आज भी देवल-स्मृति उपलब्ध है। इन्होंने धर्मान्तरितों को पुन: वापस लेने का विधान किया था।

रविदास

भक्तिकाल के प्रसिद्ध संत, जिनका काल युगाब्द 46-47वीं (अर्थात् ईसा की 16वीं) शताब्दी का रहा है। इनका जन्म चर्मकार परिवार में हुआ था। ये काशी के निवासी थे और प्रसिद्ध वैष्णव सन्त रामानन्द के अनुयायी थे। चर्मकार का व्यवसाय करते हुए इन्होंने अपनी असाधारण कृष्णभक्ति की अपनी रचनाओं में सहज निर्मल अभिव्यक्ति की। सन्त कबीर के विपरीत रविदास सौम्य स्वभाव के सन्त पुरुष थे। वृद्धावस्था की ओर बढ़ते कबीर के पास यदा-कदा वे सत्संग-लाभ करने जाते थे।

कबीर

कलियुग की 46वीं (अर्थात् ईसा की 15वीं) शताब्दी में काशी में जन्मे महात्मा कबीर प्रसिद्ध संत, कवि तथा समाज-सुधारक थे। इनका जन्म संभवतः हिन्दूघर में तथा पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ। ये स्वामी रामानन्द के शिष्य बने। निर्गुण बह्म के उपासक कबीर स्वभाव के फक्कड़ और वाणी के स्पष्टवक्ता थे। उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों, मूर्तिपूजा, छुआछूत और जाति-पाँति का तीव्र खंडन किया। उन्होंने ईश्वर को अपने अन्तर में खोजने का उपदेश दिया, संसार के प्रपंच में फंसे मनुष्य को ईश्वरोन्मुख करने के उद्देश्य से माया की कठोर भर्त्सना की। बाह्याडम्बरों का विरोध कर कबीर ने सच्ची मानसिक उपासना का मार्ग दिखाया। उन्होंने साखी (दोहे) और पद रचे, जो लोक में दूर-दूर तक व्याप्त हो गये। ‘बीजक' में कबीर की वाणी का संकलन है। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने कबीरपंथ नाम से एक सम्प्रदाय स्थापित किया।

गुरु नानक

महान संत और सिख परपंरा के प्रवर्तक (प्रथम गुरु), जिन्होंने वेदान्त का ज्ञान लोकभाषा में प्रस्तुत किया। इनका जन्म पंजाब के तलवंडी गाँव में (जो अब ननकाना साहिब कहलाता है) कालूराम मेहता के घर हुआ [युगाब्द 4570-4640 (1469-1539ई०)]। गुरु नानक शुद्ध हृदय के आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने जाति-पाँति और धर्म के बाह्याडम्बरों को अस्वीकार किया। उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया तथा मक्का, मदीना और काबुल भी गये। उनकी वाणी गुरुग्रंथ साहिब में लिखी हुई है जिसे उन्होंने वेद, पुराण, स्मृति और शास्त्रों का सार कहा है। वे बाबर के आक्रमण के साक्षी रहे और उसे पाप की बारात कहा। मन्दिरों और मूर्तियों के विध्वंस के काल में 'सगुण-निराकार' की उपासना का उपदेश देकर उन्होंने धर्म के मूल तत्वों की ओर ध्यान आकर्षित किया।

नरसी

भक्त नरसी मेहता के चरित्र का परिचय देने वाला यदि कोई एक शब्द हो सकता है तो वह है पूर्ण भगवद्विश्वास। इनका जन्म काठियावाड़ प्रान्त के जूनागढ़ राज्य में हुआ था। वैष्णवों का प्रिय भजन “वैष्णव जन तो तेणे कहिए, जे पीर परायी जाणे रे” इनकी ही रचना है। इनके जीवन में भगवत्कृपा और भगवत् भक्ति के अनेक चमत्कार घटित हुए। भगवान कुष्ण की भक्ति ही इनके जीवन का एकमात्र ध्येय था। भक्त का हठ इनके रचे पदों में अत्यंत भावमय रूप में अभिव्यक्त हुआ है। संत मीराबाई से इनका परिचय था। युगाब्द 46वीं (ई० 15वीं) शताब्दी के इस भक्त कवि के पद भारतीय मनीषा-कोश के अमूल्य रत्न हैं।

तुलसीदास

श्रेष्ठ रामभक्त एवं महाकवि, जिन्होंने संस्कृत काव्य-रचना में सिद्धहस्त होते हुए भी लोकचेतना के परिष्कार और उन्नयन के लिए लोक—भाषा में 'रामचरितमानस' रचकर रामकथा को जन-जन के जीवन में व्याप्त कर दिया और मुस्लिमों द्वारा आक्रान्त, हताश हिन्दू जाति को मनोबल प्रदान कर संस्कृति-रक्षण का महत्वपूर्ण कार्य किया। विक्रम संवत् 1600 के आसपास बाँदा जिले (उ०प्र०) में जन्मे रामबोला (तुलसीदास) का बाल्यकाल अति विषम परिस्थितियों में बीता, परन्तु प्रतिकूलताओं के बीच इनकी राम में आस्था उत्तरोत्तर दृढ़ होती गयी। अनाथ स्थिति में द्वार-द्वार ठोकरें खाते उस बालक को सौभाग्य से एक संत नरहरिदास ने अपने साथ ले जाकर शिक्षा दी और विस्तार से रामकथा सुनायी। युवावस्था में इनका रत्नावती से विवाह हुआ था, पर कुछ समय बाद ये गृहस्थ जीवन त्यागकर रामभक्ति की साधना में लग गये। विनय पत्रिका, दोहावली, गीतावली, कवितावली आदि इनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। रामकथा के पात्रों के रूप में तुलसीदास ने जीवन को बल देने वाले भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ आदर्शों और जीवन-मूल्यों को प्रस्तुत किया है तथा राम के रूप में मर्यादा के उच्चादर्श का निर्वाह करने वाले दिव्य चरित्र का सृजन किया है।

दशमेश (गुरु गोविन्द सिंह)

सिख पंथ के दस गुरुओं में अन्तिम। ये नवम गुरु तेगबहादुर के पुत्र थे । इनका मूल नाम गोविन्द राय था [युगाब्द 4767 से 4809 (1666 से 1708 ई०)] । इन्होंने केशगढ़ (आनन्दपुर) में खालसा पंथ की स्थापना की, जो विधर्मी और अन्यायी मुगल सल्तनत से लड़ने वाली सेना थी। धर्म-रक्षा के लिए दीक्षित इन योद्धा सैनिकों को गुरु गोविन्दराय ने 'सिंह' कहा और इसलिए अपने नाम के आगे भी 'सिंह' लगाकर गोविन्द सिंह कहलाये। इन्होंने हिन्दू समाज में क्षात्रतेज जगाया और उसे संगठित किया। इनके दो पुत्र मुगल सेनाओं से लड़ते हुए मारे गये और दो पुत्रों ने धर्म के लिए आत्मबलिदान किया। सरहिन्द के नवाब ने इनके पुत्रों को पकड़ लिया था और मुसलमान बन जाने के लिए दबाब डाला। किन्तु 11 और 13 वर्ष के उन वीर सपूतों ने जीवित ही दीवार में चिन दिये जाने पर भी इस्लाम स्वीकार नहीं किया। गुरु गोविन्द सिंह के पाँच प्यारों में तथाकथित छोटी जातियों के लोग भी थे। दशम गुरु एक साथ ही धर्मपंथ के संस्थापक, वीर सेनापति एवं योद्धा और कवि थे। गुरु गोविन्द सिंह के रचे ग्रंथों में विचित्र नाटक, अकाल-स्तुति, चौबीस अवतार कथा और चण्डी-चरित्र प्रसिद्ध हैं। 'चौबीस अवतार कथा' काव्यग्रंथ का ही एक भाग रामावतार कथा 'गोविन्द रामायण' नाम से भी प्रसिद्ध है। दशम गुरु जब महाराष्ट्र में नान्देड़ क्षेत्र में रह रहे थे, दो विश्वासघाती पठानों ने उन पर प्रहार कर उन्हें घायल कर दिया, जिससे कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो गयी। धार्मिक सिख समाज को जुझारू बनाने में गुरु गोविन्द सिंह की अपूर्व भूमिका रही।

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श्रीमत् शंकरदेवश्च बन्धू सायण-माधवौ । ज्ञानेश्वरस्तुकारामो रामदासा: पुरन्दरः ॥ १८ ॥

शंकरदेव

असमिया के महान कवि, धर्मसुधारक और प्रसिद्ध वैष्णव सन्त, जिन्होंने समाज को चारित्रिक अध:पतन से उबारने के लिए कृष्णभक्ति संबंधी अनेक ग्रंथ रचे, भागवत धर्म का प्रचार किया, सम्पूर्ण असम में सत्राधिकार की व्यवस्था की और नामधर स्थापित किये [युगाब्द4550-4669(1449-1568 ई०)] । इनकी अधिकांश रचनाएँ भागवत पुराण पर आधारित हैं। 'कीर्तन घोषा' इनकी सर्वोत्कृष्ट कृति है। असमिया साहित्य के प्रसिद्ध नाट्यरूप 'अंकीया नाटक' के प्रारम्भकर्ता भी शंकरदेव हैं। असमिया जनजीवन और संस्कृति को वैष्णव भक्ति या भागवत धर्म में ढालने का श्रेय शंकरदेव को ही है।

सायणाचार्य और माधवाचार्य

कलियुग की 44वीं—45वीं (ई० तेरहवीं-चौदहवीं) शताब्दी के भारत के इतिहास के दो महान व्यक्तित्व, जो सगे भाई थे, और जिन्होंने विद्या एवं पाण्डित्य के क्षेत्र के अतिरिक्त राजनीति के कर्मक्षेत्र में अपूर्व योगदान कर स्वधर्म और स्वराष्ट्र-रक्षण का कार्य किया। दोनों भाई शस्त्रों और शास्त्रों में निष्णात थे। सायणाचार्य ने चारों वेदों पर भाष्य लिखे हैं। उनके भाष्य वेदाध्ययन-परम्परा की सुरक्षा के लिए बहुत महत्वपूर्ण और नितान्त सामयिक आधार सिद्ध हुए। माधवाचार्य ने 'पंचदशी' नामक ग्रंथ लिखा, जो वेदान्त शास्त्र का सर्वमान्य ग्रंथ बना। मुस्लिम आक्रमणों से देश और धर्म की रक्षा के लिए हरिहर और बुक्कराय नामक दो वीर क्षत्रियों का मार्गदर्शन करते हुए विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करवाकर माधवाचार्य ने कुछ समय प्रधानमंत्री के नाते राज्य को व्यवस्थित किया और फिर वह दायित्व अनुज सायणाचार्य को सौंपकर स्वयं संन्यास ले लिया तथा विद्यारण्य स्वामी के नाम से श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य हुए।

संत ज्ञानेश्वर

महाराष्ट्र के श्रेष्ठ संत और मराठी भाषा के कविकुलशेखर। संत ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठल पंत एक बार संन्यास-दीक्षा ग्रहण कर लेने के बाद गुरु आज्ञा से पुन: गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुए थे, जिसमें उन्हें परिवार सहित सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा था [युगाब्द 4376-4397(ई० 1275-1296)]। किन्तु उनकी चारों संतानों ने असाधारण सिद्धियाँ प्राप्त कीं। चारों में सबसे बड़े भाई निवृत्तिनाथ एक नाथपंथी योगी से दीक्षित होकर सिद्ध योगी हो गये। ज्ञानेश्वर ने इन्हीं ज्येष्ठ भ्राता से योग दीक्षा प्राप्त की। इन दोनों भाइयों की यौगिक सिद्धियों के चमत्कार महाराष्ट्र में घर-घर की चर्चा का विषय बन गये। उनके लघु भ्राता-भगिनी ने भी आध्यात्मिक उच्चता प्राप्त कर ली। संत ज्ञानेश्वर के प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था में आ गये दोषों के प्रक्षालन का कार्य हुआ, हिन्दू समाज में समता की प्रस्थापना का स्वर तीव्र हुआ और भक्ति के लचीले सूत्र में बँधकर हिन्दू धर्म एवं समाज मत-मतान्तरों में बिखर जाने से बच सका। संत ज्ञानेश्वर ने अल्पायु में ही भावार्थ दीपिका (ज्ञानेश्वरी), अमृतानुभव, हरिपाठ के अभंग, चांगदेव पैंसठी और सैकड़ों फुटकर अभंगों की सरस रचना की। भावार्थ दीपिका (ज्ञानेश्वरी) श्रीमद्भगवद्गीता की काव्यमयी टीका है। ज्ञानेश्वर का यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति तथा धार्मिक एवं भक्ति-साहित्य को उनकी अद्वितीय देन है। श्रीमद्भगवद्गीता के भक्तियुक्त कर्मयोग द्वारा ज्ञानेश्वर ने दुर्गति में फंसे तत्सामयिक हिन्दू समाज का उपचार किया। उन्होंने वारकरी सम्प्रदाय (महाराष्ट्र का भक्तिधर्म या भागवत सम्प्रदाय) को सुदृढ़ कर अवैदिक मतों को परास्त किया।

संत तुकाराम

महाराष्ट्र के संत-शिरोमणि,जिनका जन्म विट्ठल भक्तों के घराने में हुआ [युगाब्द 4709-4751(ई०1608-1650)]। ये जाति के कुनबी थे, पर व्यवसाय किराये की दुकान चलाने का करते थे। गृहस्थ होते हुए भी विरक्त थे। परिवार-जनों के अकाल ही काल-कवलित हो जाने और सांसारिक जीवन में सुख-प्राप्ति की आशा के निरर्थक हो जाने के पश्चात् उन्हें तीव्र वैराग्य होगया और वे ध्यान-साधना में प्रवृत्त हुए। बाबाजी चैतन्य नामक सिद्धपुरुष ने उन्हें "राम कृष्ण हरि" मंत्र दिया और संत नामदेव ने स्वप्न में दर्शन देकर काव्य-रचना की प्रेरणा दी। उन्होंने 5000 से भी अधिक मधुर अभंग रचे जो महाराष्ट्र के जन-जन की जिह्वा पर सदैव विराजमान रहते हैं। इन अभंगों में उन्होंने अपने को विभिन्न भूमिकाओं में रखकर अपने आराध्य विट्ठल के प्रति निर्मल भक्ति-भावना व्यक्त की है। तुकाराम ने सांघिक प्रार्थना का महत्व समझा और उसका प्रचलन किया। उनके रचित सुभाषित जीवन को सुगठित एवं स्वस्थ बनाने की प्रेरणा देते हैं। लोकभाषा पर उनका असामान्य अधिकार था। सगुणवैष्णवी भक्ति के प्रचारक संत तुकाराम ने अपनी अभंगवाणी की सुधावृष्टि से लोकचित्त को भावुकता और आस्था से भर दिया।

समर्थ रामदास

हिन्दवी स्वराज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज ने जिनसे मंत्र-दीक्षा और मार्गदर्शन प्राप्त किया, ऐसे संत-श्रेष्ठ समर्थ रामदास परमार्थ और लोक-प्रपंच का मेल बिठाने वाले, हिन्दू जाति को दुर्बलता त्याग कर प्रतिकार के लिए सन्नद्ध करने वाले, कोदंडधारी भगवान श्री राम और बलभीम हनुमान की उपासना का जन-जन के बीच प्रचार करने वाले, सहस्राधिक मठों की स्थापना और प्रत्येक में अखाड़ों की स्थापना करजाति को हृष्ट-पुष्ट एवं बलवान बनाने की कल्पना रखने वाले तथा शक्ति की उपासना का संदेश देने वाले महाराष्ट्र के श्रेष्ठ कवि और संगठक हुए हैं [युगाब्द 4709-4781 (ई० 1608-1680)] । उनका रचा ‘दासबोध' परमार्थ-चितंन का ग्रंथ भी है और लोकप्रपंच का विवेकपूर्वक निर्वाह करने की सीख देने वाला ग्रंथ भी।

मराठवाड़ा के जाम्ब ग्राम में जन्मे समर्थ रामदास ने विवाह-मण्डप से भागकर पंचवटी में 12 वर्ष तपस्या की, सम्पूर्ण देश का भ्रमण कर प्रदेश-प्रदेश का अवलोकन किया और धर्मोद्धार एवं समाजोद्धार के कार्य में प्रवृत्त हुए तथा विदेशी-विधर्मी आक्रान्ताओं से त्रस्त हिन्दूजाति को समर्थ, स्फूर्त और तेजस्वी बनाने के लिए कर्मयोग का संदेश दिया।

पुरन्दरदास

कलियुगाब्द 47 वीं शताब्दी (ई० 16वीं) के कर्नाटक के महान् संत कवि, जिनके भजन कर्नाटक में जन-जन की जिह्वा पर हैं। ये मध्य सम्प्रदाय के वैरागी कृष्णभक्त थे। इन्होंने भारत की तीर्थयात्रा की थी और विभिन्न क्षेत्रों में कुछ काल तक निवास करते हुए वहाँ के देवताओं पर भक्तिरसयुक्त पदों की रचना की थी। बड़ी संख्या में लिखे इनके पदों में से आज थोड़े ही उपलब्ध हैं। ये ‘दसिरपदगलू' के नाम से प्रसिद्ध हैं।

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बिरसा सहजानन्दो रामानन्दस्तथा महान्। वितरन्तु सदैवैते दैवीं सद्गुणसम्पदम् ॥19 ॥

बिरसा

वनवासियों में बिरसा भगवान के नाम से स्मरण किये जाने वाले बिरसा मुण्डा उत्कट देशभक्त हुए हैं। इनका जन्म बिहार के जनजाति-बहुल छोटानागपुर क्षेत्र के राँची जिले में युगाब्द 4976 (ई०1875) में हुआ। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किये जाने वाले अत्याचारों और भारत की सम्पदा की उनके द्वारा की जा रही लूट को देखकर बिरसा ने उनका प्रतिरोध करने का निश्चय कर लिया। इन्होंने अंग्रेज शासकों के विरुद्ध वनवासियों को संगठित किया और सशस्त्र विद्रोह कर अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी। 25 वर्ष की आयु में बंदी बना लिये जाने पर इन्हें कारागार में ही मार दिया गया।

सहजानन्द

युगाब्द 4882 (ई० 1781) में अयोध्या के निकट छपैया ग्राम में जन्मे हरिकृष्ण की बाल्यावस्था में ही उसके माता-पिता परलोक सिधार गये और वह बालक विरक्त होकर एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में भ्रमण करने लगा। किसी योगी ने सुपात्र जानकर योगसाधना का मार्ग बता दिया। 16 वर्ष की आयु में सौराष्ट्र (गुजरात) के लोज ग्राम पहुँचे। वहाँ रामानन्द सम्प्रदाय का मठ था। उनके संचालक स्वामी रामानन्द ने हरिकृष्ण को संन्यास-दीक्षा देकर सहजानन्द नाम दिया। स्वामी सहजानन्द ने मठ में आचार्य का कार्य करने के अतिरिक्त समाज के खोजा, मोची, कारीगर आदि वर्गों में अध्यात्म—चेतना जगाने का विशेष कार्य किया। उन्होंने स्वामीनारायण सम्प्रदाय के माध्यम से वैष्णव धर्म का प्रचार किया और कच्छ-काठियावाड़ क्षेत्र में सामान्यजनों के अतिरिक्त अपराधकर्मियों की भी सन्मार्ग पर लगाया।

रामानन्द

काशीवासी सुप्रसिद्ध रामभक्त श्री रामानन्द का आविर्भाव कलियुगाब्द 45वीं (ई० 14वीं) शताब्दी में हुआ। इन्होंने शैव और वैष्णव सम्प्रदायों में बढ़ रहे वैमनस्य को मिटाया और वैष्णव सम्प्रदाय के कठोर नियमों में छूट देकर उसे सर्वजन-सुलभ बनाया। भक्ति के क्षेत्र में छुआछूत और जातिभेद के लिए कोई स्थान नहीं, भगवान का द्वार बिना किसी भेदभाव के सबके लिए खुला है, ऐसी अपनी मान्यता को उन्होंने व्यावहारिक रूप में स्थापित किया। महात्मा कबीर ने उन्हीं से राम-नाम का गुरु-मंत्र ग्रहण किया था। कबीर,रैदास, पीपा आदि अनेक संत और भक्त कवि उनके शिष्य थे। यवन शासन-काल में उन्होंने अपने रामानन्दीय सम्प्रदाय का प्रवर्तन कर समाज को संगठित किया और उसकी रक्षा की। उक्ति प्रसिद्ध है:

भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाये रामानन्द। प्रकट किया कबीर ने सप्त द्वीप नवखण्ड।

महाकवि

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भरतर्षि: कालिदास: श्रीभोजो जकणास्तथा। सूरदासस्त्यागराजो रसखानश्च सत्कविः ॥20 ॥

भरत ऋषि

नाट्यशास्त्र के आद्याचार्य। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में नाटक, संगीत, नृत्य और रस सिद्धान्त का सूक्ष्म विवेचन किया गया है। यही नहीं, चारों प्रकार के (सुषिर, तन्त्री, आतोद्य और घन) वाद्य यंत्रो के निर्माण की विधियाँ भी भरत मुनि ने अपने ग्रंथ में बतायीं। संगीतशास्त्र का उन्होंने केवल कला पक्ष ही नहीं, अपितु वैज्ञानिक पक्ष भी उजागर किया है।

कालिदास

संस्कृत के श्रेष्ठतम कवि और नाटककार कालिदास राजा विक्रमादित्य के समकालीन थे। कुछ विद्वान इन्हें ईसा से कुछ वर्ष पूर्व का तथा कुछ गुप्त-काल का मानते हैं। किंवदन्ती है कि इनका विवाह एक विदुषी राजकुमारी से करा दिया गया था, जिसने इन्हें मूर्ख कहकर अपमानित किया। अपमान के दंश ने उनके हृदय में संकल्प जगा दिया। कालिदास सरस्वती की कठिन साधना में जुटगये और काव्यकला में महानतम स्थान पर पहुँचकर ही शान्ति की साँस ली। इनके चारकाव्य तथा तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। काव्य हैं : रघुवंश, कुमारसम्भव, मेघदूत और ऋतुसंहार। नाटक हैं: अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्। अभिज्ञान शाकुन्तलम् नाटक पढ़कर प्रसिद्ध जर्मन कवि गेटे भाव-विभोर हो गया था। कालिदास ने अपनी रचनाओं में भारतीय संस्कृति की रसभीनी अभिव्यक्ति की है। इनकी रचनाओं में प्रेम के ललित औरउदात्त रूप उत्कृष्ट कलात्मकता से प्रस्तुत हुए हैं। उपमा अलंकार में कालिदास की कोई तुलना नहीं।

भोज

एक राजा जिन्होंने स्वप्न देखा था कि उन्होंने अपने शत्रुओं का उच्छिष्ठ खाया है तथा उनके शत्रुओं ने उन्हें राज्य तथा स्त्रियों से वंचित कर दिया है। उन्होंने इससे अत्यंत प्रभावित होकर गृहत्याग किया और साधना द्वारा ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त किया। मालवा के परमारवंशी राजा भोज भी प्रसिद्ध हुए हैं जो स्वयं बहुविद्याविशारद थे और विद्वानों को प्रश्रय देने के लिए उनकी बड़ी ख्याति थी। योगदर्शन पर भोजवृत्ति नाम से प्रसिद्ध टीकाग्रंथ के अतिरिक्त ज्योतिष, साहित्य, संगीत, अश्वशास्त्र आदि अनेक विषयों पर भोज के नाम से जो ग्रंथ उपलब्ध हैं, वे राजा भोज की ही कृतियाँ मानी जाती हैं। कुछ अन्य पौराणिक व्यक्तियों के भी भोज नाम से उल्लेख मिलते हैं।

जकणाचार्य

कर्नाटक के प्रसिद्ध शिल्पी। इन्होंने कर्नाटक के प्रसिद्ध हलेबीड़, बेलूर, सोमनाथपुर आदि मन्दिरों का निर्माण किया। शिल्पशास्त्र की 'होयसल शैली' इन्हीं की देन है।

सूरदास

सूरदास कलियुग की 47वीं (ई० 16वीं) शताब्दी में हुए, भक्तिकाल के सर्वश्रेष्ठ कृष्णभक्त महाकवि। ये अष्टछाप (आठउच्चकोटि के कृष्णभक्त कवियों का समूह) के कवि थे। इन्होंने श्रीकृष्ण की लीलाओं का विशेष रूप से बाल-लीलाओं और प्रेमलीलाओं का भक्ति-विह्वल भाव से वर्णन किया है। ये श्री वल्लभाचार्य के शिष्य थे और वृन्दावन में श्रीनाथ जी के समक्ष प्रतिदिन एक नया पद (भजन) बनाकर गाते थे। अंधे होते हुए भी इन्होंने अपने आराध्य श्रीकृष्ण की लीलाओं का अत्यंत सूक्ष्म एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। इसी कारण विद्वानों की मान्यता है कि वे जन्मांध नहीं रहे होंगे। बाद में ही किसी कारणवश उनकी दृष्टि हानि हुई होगी, क्योंकि जिसने कोई भी रूप कभी देखा ही न हो वह उसका इतना सजीव वर्णन नहीं कर सकता। इनका काव्य संगीत गुण से युक्त है। 'सूरसागर' इनका उत्कृष्ट ग्रंथ है। यह ब्रजभाषा में रचे पदों का विशाल संग्रह है।

त्यागराज

कर्नाटक संगीत के प्रख्यातगायक एवं निष्ठावान् रामभक्त त्यागराज का जन्म युगाब्द 4868 (ई० 1767) में तमिलनाडु के तंजौर जिले में तिरुवायूर में हुआ था। त्यागराज ने लौकिक मनुष्य के स्तुतिगान से इंकार किया और अपने उपास्य की समृति में पंचरत्न कीर्तन रचे तथा गाये। उनके गीत तेलुगू में रचे गये हैं। अस्सी वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई। उनकी समाधि पर तिरुवायूर में प्रति पाँचवे वर्ष त्यागराज-आराधना नाम से संगीतोत्सव आयोजित किया जाता है जिसमें देश के बड़े-बड़े संगीतकार भाग लेते हैं और त्यागराज के कीर्तनों का गायन करते हैं।

रसखान

सुप्रसिद्ध कृष्णभक्त कवि। इनका पूरा नाम सैयद इब्राहीम ‘रसखान' था [युगाब्द 4659-4719(1558-1618 ई०)]। ये दिल्ली के पठान सरदार थे। इनका देश की राष्ट्रीय परम्परा से अटूट नाता था। इन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के अलौकिक प्रेम के रंग में रंगकर ब्रजभाषा में भक्ति रस के कवित्त-सवैयों की रचना की। वृन्दावन में गोस्वामी विट्ठलनाथ ने इन्हें पुष्टिमार्ग की दीक्षा दी। इनकी रचनाओं में कृष्णभक्ति की सहज और निर्मल अभिव्यक्ति पूर्ण आन्तरिकता और मार्मिकता से हुई है। 'प्रेम-वाटिका' और 'सुजान रसखान' इनके प्रसिद्ध काव्य-संग्रह हैं।

महान चित्रकार एवं कलाकार

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रविवर्मा भातखण्डे भाग्यचन्द्रः स भूपतिः। कलावन्तश्च विख्याता स्मरणीया निरन्तरम् ॥ २१ ॥

रविवर्मा

केरल में जन्मे सुप्रसिद्ध चित्रकार [युगाब्द 4949-5006 (ई० 1848-1905)] । इन्होंने लगभग 30 वर्ष भारतीय चित्रकला की साधना में लगाये। इनके चित्रों में से अधिकांश पौराणिक विषयों के हैं। कुछ राजा-महाराजाओं के व्यक्ति-चित्र भी हैं। इनकी चित्रकला-शैली में भारतीय तथा यूरोपीय शैलियों का सम्मिश्रण है।

भातखण्डे

युगाब्द 51वींशताब्दी (ईसा की 20वीं शती) में भारतीय संगीत के पुनरुद्धार का महान्कार्य करने वाले मनीषियों में एक प्रमुख व्यक्तित्व, श्री भातखण्डे, व्यवसाय से अधिवक्ता थे। उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ था और वे बम्बई में सॉलिसिटर के रूप में कार्य करते थे। प्रारम्भ से ही संगीत में रुचि थी। मनरंग घराने के मुहम्मद अली खाँ और अन्य संगीताचार्यों से संगीत सीख कर उन्होंने अपना अधिकांश जीवन भारतीय संगीत में अनुसन्धान-कार्य और उसके प्रचार-प्रसार में लगा दिया। 'लक्ष्य मंजरी' और 'अभिनव राग मंजरी' उनकी बहुमूल्य कृतियाँ हैं तथा लखनऊ का 'भातखण्डे संगीत विद्यापीठ' उनके योगदान का स्मरण दिलाता हुआ खड़ा है।

भाग्यचन्द्र

मणिपुर के ललित कलाउन्नायक राजा, जिनका मणिपुर में भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में असाधारण योगदान रहा है। कृष्ण-कथाओं पर आधारित मणिपुरी नृत्य का विकास इनकी ही देन है।

महान व्यक्ति जिन्होंने भारतीय संस्कृति का रक्षण एवं विस्तार किया

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अगस्त्यः कम्बुकौण्डिन्यौ राजेन्द्रश्चोलवं शजः । अशोकः पुष्यमित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान् । २२ ॥

अगस्त्य

एक वैदिक ऋषि, जिनका उल्लेख ऋग्वेद में एकाधिक स्थानों पर मिलता है। इनके कर्तृत्व के सूचक तीन महत्वपूर्ण कार्य हैं- वातापि राक्षस का संहार, विन्ध्याचल की बाढ़ को रोकना तथा समुद्र आचमन। ये विन्ध्याचल लांघकर दक्षिण की ओर गये थे और आर्य सभ्यता का दक्षिण भारत में विस्तार किया था। बृहत्तर भारत में भी भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्रसार का महत्वपूर्ण कार्य इन्होंने सम्पन्न किया। दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों में अगस्त्य की मूर्ति की अर्चना आज भी की जाती है।

कम्बु

आधुनिक कम्बोडिया का प्राचीन नाम कम्बुज था। यह नाम कम्बु नामक महापुरुष के कारण रखा गया था। कम्बु मूलत: भारतवर्ष के निवासी राजा थे जिन्होंने पूर्व दिशा में दिग्विजय अभियान कर एक अरण्यमय प्रदेश में प्रवेश किया, वहाँ के नागपूजक राजा को परास्त कर उसकी कन्या से विवाह किया और उस प्रदेश का उद्धार किया। कम्बुज साम्राज्य का प्रारम्भ कलियुग की 32वीं अर्थात् ईसा की पहली शताब्दी के श्रुतवर्मा नामक सम्राट से हुआ। श्रुतवर्मा और उसके परवर्ती राजाओं ने कम्बुज साम्राज्य में हिन्दूधर्म तथा संस्कृति की पताका फहरायी। बाद में युगाब्द 38वीं से 46वीं (ईसा की 7वीं से 15वीं) शताब्दी तक शैलेन्द्र वंश के राजाओं ने कम्बुज पर शासन किया।

कौण्डिन्य

दक्षिण भारतवासी वीर पुरुष, जिन्होंने कलियुग की 32वीं (ईसा की प्रथम) शताब्दी में समुद्र-मार्ग से पूर्व की ओर जाकर महान् साम्राज्य की स्थापना की,जिसे (चीनी भाषा में) फूनान साम्राज्य के नाम से जाना जाता है और जिसमें कम्बोडिया, अनाम, स्याम, मलाया, इण्डो-चायना इत्यादि पौर्वात्य प्रदेशों का अन्तर्भाव था। युगाब्द 35वीं (ई० चौथी) शताब्दी में दक्षिण भारत से कौण्डिन्य नाम का ही एक दूसरा वीर पुरुष फूनान साम्राज्य में गया था, जिसने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति के पुनरुत्थान का अविस्मरणीय कार्य किया। कौण्डिन्य साम्राज्य के संस्थापक प्रथम कौण्डिन्य के राजवंश (सोमवंश) में चन्द्रवर्मा, जयवर्मा, रुद्रवर्मा इत्यादि महान् राजा हुए। फूनान के हिन्दू साम्राज्य की ओर से पूर्व के अन्य राज्यों में दूतमण्डल भेजे जाते थे। इसी वंश के युगाब्द 36वीं (ई० पाँचवी) शताब्दी के शासक कौण्डिन्य जयवर्मा ने शाक्य नागसेन नामक भिक्षु को धर्म-प्रचारार्थ चीन भेजा था।

राजेन्द्र चोल

दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध चोल वंश के पराक्रमी शासक, जिन्होंने चोल साम्राज्य का विस्तार समुद्रपार तक कर मलायाद्वीप पर अधिकार कर लिया।युगाब्द 42वीं (ई०11वीं) शताब्दी के इस पराक्रमी राजा ने दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों (मलाया, सुमात्रा, जावा) को जीतकर वहाँ भारतीय संस्कृति का प्रचार किया। इससे पूर्व वहाँ भारत से ही गये हुए शैलेन्द्र वंश का शासन था जिसके शिथिल पड़ने पर वह कार्य राजेन्द्र ने संभाल लिया। राजेन्द्र पराक्रमी शासक राजराज के पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता के साम्राज्य का दूर-दूर तक विस्तार किया। उनकी नौसेना बहुत शक्तिशाली थी। राजेन्द्र चोल ने अपने लगभग तीस वर्ष के सफल शासन में धर्म, साहित्य और कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण भी कराया।

अशोक

सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र तथा बिम्बसार के पुत्र सम्राट अशोक का शासनकाल पाश्चात्य इतिहासकार कलियुग की 28वीं (ईसा-पूर्व तीसरी) शताब्दी बताते हैं जबकि भारतीय परम्परा में यह उससे 1100 वर्ष पूर्व युगाब्द 17वीं शती माना जाता है। शासन के प्रारम्भ में अशोक ने साम्राज्य-विस्तार की नीति अपनायी। अशोक का साम्राज्य प्राय: सम्पूर्ण भारत पर और पश्चिमोत्तर में हिन्दूकुश एवं ईरान की सीमा तक था। कलिंग के भीषण युद्ध में विजयी होने पर भी, भयंकर नरसंहार देखकर अशोक का हृदय-परिवर्तन हुआ। तत्पश्चात् अशोक ने शस्त्र और हिंसा पर आधारित दिग्विजय की नीति छोड़कर धर्म-विजय की नीति अपनायी। उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर अपने साम्राज्य के सभी साधनों को लोकमंगल के कार्यों में लगाया। धर्म-विजय की प्राप्ति के लिए अशोक ने पर्वत-शिलाओं, प्रस्तर-स्तम्भों और गुहाओं में धर्मप्रेरक वाक्य अंकित कराये, प्रचारक-संघ का गठन किया तथा धर्मचक्र-प्रवर्तन हेतु विदेशों में प्रचारक भेजे।

पुष्यमित्र

मौर्यों के बाद मगध में शुंग वंश का राज्य प्रतिष्ठित करने वाले एक प्रतापी राजा [युगाब्द 1884 (ई० पू० 1218) में सिंहासनारूढ़] । इन्होंने अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथ का वध कर मगध का सिंहासन प्राप्त किया, क्योंकि बृहद्रथ की अहिंसा-नीति सेनापति पुष्यमित्र शुंग को देश की सीमाओं को आक्रान्त कर रहे विदेशियों के विरुद्ध सैनिक अभियान की अनुमति देनेमें सर्वथा बाधक थी। पुष्यमित्र ने पश्चिमी सीमान्त तक दिग्विजय कर यवनों को बाहर खदेड़ा और सिन्धु नदी के तट पर अश्वमेध यज्ञ किया। इन्होंने वैदिक धर्म की पुन:प्रतिष्ठा का महान कार्य सम्पादित किया। पाटलिपुत्र में भी पुष्यमित्र ने भारी अश्वमेध यज्ञ किया। इनके दो अश्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख अयोध्या के शिलालेख में मिलता है। भारतीय काल-गणना में पुष्यमित्र का समय कलियुग की 19वीं शताब्दी (ईसा से 1298 वर्ष पूर्व) माना जाताहै,किन्तु पाश्चात्य इतिहासकारों ने यह ईसा से दो शती पूर्व बताया है। इनके पुत्र अग्निमित्र का वृत्तान्त कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्' नाटक में आया है।

खारवेल

उत्कल प्रदेश के चेदि या चेत वंश के प्रतापी राजा, जिन्होंने समकालीन अनेक शत्रु राजाओं को परास्त करने के बाद मगधराज पुष्यमित्र शुंग से युद्ध प्रारम्भ किया, किन्तु उसी समय यवनराज दिमित्र के मध्यदेश पर आक्रमण की राष्ट्रीय विपत्ति को पहचानकर सम्राट पुष्यमित्र से सन्धि की और दिमित्र को परास्त किया। राजा खारवेल ने सातवाहन और उत्तरापथ के यवनों को परास्त करने के बाद अपने राज्य में जैन महासम्मेलन किया, जिसमें इन्हें 'खेमराजा' और 'धर्मराजा' की उपाधियाँ प्रदान की गयीं। जैन मतावलम्बी राजा खारवेल के शिलालेख भुवनेश्वर के निकट खंडगिरि और उदयगिरि में पाये गये हैं।

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चाणक्यचन्द्रगुप्तौ च विक्रम: शालिवाहन: । समुद्रगुप्त: श्रीहर्ष: शैलेन्द्रो बप्परावल: ॥23 ॥

चाणक्य

आचार्य चाणक्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु थे और साम्राज्य को स्थिरता प्रदान करने के लिए कुछ समय तक महामंत्री भी रहे। तक्षशिला के राजनीतिविद् चाणक्य को विष्णुगुप्त और कौटिल्य नामों से भी जाना जाता है। इन्होंने मगध के नन्दवंशी अत्याचारी राजा के अन्याय तथा कुशासन से क्रूद्ध होकर उसे अपदस्थ किया और धनानंद के हाथ गये हुए राज्य का उद्धार कर चन्द्रगुप्त को मगध के सिंहासन पर आरूढ़ किया। वीर युवक चन्द्रगुप्त को सहायता और मार्गदर्शन देकर चाणक्य ने भारत के पश्चिमी राज्यों पर हुए यवन आक्रमण का प्रतिकार किया। गुरु-शिष्य ने विशाल साम्राज्य का निर्माण कर उसमें उत्तम शासन की व्यवस्था की तथा ग्रीक सेनापति सेल्यूकस को पराजित करके भारत की नैसर्गिक सीमा हिन्दूकुश पर्वत तक साम्राज्य का विस्तार किया। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए (कौटिलीय) 'अर्थशास्त्र' नामक ग्रंथ की रचना की जो तत्कालीन राजनीति, अर्थनीति, सुरक्षा एवं युद्ध-नीति, विदेश-नीति, कृषि, पशुपालन, भूसम्पदा एवं उद्योगनीति, विधि, समाज-नीति तथा धर्मनीति पर प्रकाश डालने वाला महत्वपूर्ण ग्रंथ है।

चन्द्रगुप्त मौर्य

मौर्य वंश के महान् साम्राज्य के संस्थापक [युगाब्द 1568-1602 (ई०पू० 1534-1500) तक सिंहासनारूढ़], जिन्होंने चाणक्य जैसे गुरु के मार्गदर्शन में एक ओर मगध में नंद वंश के बल-वैभव से उन्मत्त राजा धननंद को परास्त किया और दूसरी ओर भारत के पश्चिमोत्तर में यवन आक्रमण का प्रतिकार कर यवनों को पराभूत किया। चन्द्रगुप्त ने मगध राज्य को इतना विस्तृत किया कि वह पश्चिमोत्तर में भारत की नैसर्गिक सीमा हिन्दूकुश पर्वत तक जा पहुँचा और दक्षिण का बहुत बड़ा भाग भी उसके अन्तर्गत आ गया। देश में इतना बड़ा साम्राज्य शताब्दियों से नहीं बना था। इससे राजनीतिक एकता के साथ-साथ देश की सांस्कृतिक एकता भी पुष्ट हुई और विदेशों में भी भारतवर्ष का प्रभाव-विस्तार हुआ। यूरोपीय इतिहासकारों के अनुसार यवन राजदूत मेगास्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र भेजा गया था।

विक्रमादित्य

शक आक्रान्ताओं से पराजित अवन्ती-नरेश के वीर पुत्र विक्रम [युगाब्द 3020 (ई०पू० 82) में सिंहासनारूढ़] ने निर्वासित स्थिति में ही युद्धविद्या सीखी, सैन्य संगठन किया और अपने पराक्रम से परकीय शक राजाओं को परास्त कर अवन्तिका राज्य को मुक्त कराया। शकों को परास्त करने के कारण ही उन्हें शकारि विक्रमादित्य कहा जाता है। शकों पर विजय की स्मृति के रूप में ही विक्रम संवत् का प्रवर्तन हुआ जो आज भी भारत में प्रचलित है। प्रजा-हितैषी सद्गुणसम्पन्न राजा के रूप में विक्रमादित्य की इतनी ख्याति हुई कि उनसे संबंधित कितनी ही कहानियाँ आज तक प्रचलित हैं।

शालिवाहन

प्राचीन भारत का एक प्रसिद्ध राजवंश, जो सातवाहन अथवा शालिवाहन नाम से जाना जाता है और जिसका आधिपत्य कुष्णा-गोदावरी के मध्य था। इस महान् राजवंश में तीस प्रमुख राजा हुए, जिनमें गौतमीपुत्र और शालिवाहन [युगाब्द 3179 (ई० 78) में सिंहासनारूढ़] विशेष प्रसिद्ध हैं। मूलत: इनकी राजधानी आन्ध्र प्रदेश के गुण्टूर जिले में धनकटक (धरणीकोट) नगर में थी। इन्होंने महाराष्ट्र पर छाये हुए विदेशी शक क्षत्रप को पराजित किया और गोदावरी के तट पर प्रतिष्ठानपुर (पैठण) में नयी राजधानी बनायी। शकों पर पुलुमायी शालिवाहन की विजय की स्मृति शालिवाहन शक संवत् के रूप में आज भी भारत में विद्यमान है।

समुद्रगुप्त

सुप्रसिद्ध गुप्तवंशीय सम्राट [युगाब्द 2782 (ई०पू० 320) में सिंहासनारूढ़] जिन्होंने अपने पराक्रम और सैन्य-अभियानों से गुप्त-साम्राज्य का पर्याप्त विस्तार किया। प्रयाग के स्तम्भ-लेख के अनुसार समुद्रगुप्त ने सम्पूर्ण भारत स्वायत्त किया था। भारत से बाहर के देशों से भी उनका सम्बन्ध था। समुद्रगुप्त के महान् पराक्रम और उदारता का वर्णन ईरान के एक प्राचीन अभिलेख में प्राप्त हुआ है, जिससे उनके दिग्विजय के विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है। दिग्विजय सम्पन्न करने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया था। जिन लोकोत्तर व्यक्तित्व सम्पन्न राजाओं के कारण गुप्तवंश का शासनकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहलाया, उनमें सम्राट समुद्रगुप्त का नाम सर्वोपरि है। वसुबन्धु नामक सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान को समुद्रगुप्त का आश्रय प्राप्त था।

हर्षवर्द्धन

कलियुग की 38 वीं (ईसा की सातवीं) शताब्दी के महान भारतीय सम्राट, जिन्होंने सम्पूर्ण उत्तर भारत को हूणों के वर्चस्व से मुक्त कर एकछत्र राज्य के अन्तर्गत संगठित किया। ये स्थानेश्वर-नरेश प्रभाकरवर्द्धन के पुत्र थे और बड़े भाई राज्यवर्द्धन की मृत्यु के बाद राजा बने। गुप्त साम्राज्य के अंत से छिन्न-भिन्न हुए भारत में फिर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर उन्होंने कान्यकुब्ज (कन्नौज) को अपनी राजधानी बनाया और देश को पुन: एकता के सूत्र में बाँधने का यशस्वी कार्य सम्पादित किया। चीनी यात्री युवान् (ह्वेनत्सांग) हर्ष के शासनकाल में भारत आया था। हर्ष प्रति पाँचवें वर्ष प्रयाग में एक विशाल सम्मेलन कर सर्वस्व दान करते थे और सभी सम्प्रदायों के देवताओं का सम्मान करते थे। वे श्रेष्ठ लेखक भी थे और साहित्यकारों का आदर करते थे। उन्होंने 'नागानन्द','रत्नावली' और'प्रियदर्शिका' नामक ग्रंथों की रचना की। संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट हर्ष के सखा और राज-सभा के रत्न थे।

शैलेन्द्र

उत्कल प्रदेश के पुरी जिले के अन्तर्गत बाणपुर राजवंश के राजा शैलेन्द्र कलियुगाब्द 38वीं (ई० सातवीं) शताब्दी के एक महाप्रतापी सम्राट हुये हैं, जिन्होंने भारत के बाहर बर्मा और सुवर्ण द्वीप (मलयेशिया, इण्डोनेशिया आदि द्वीप-समूह) तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। सात सौ वर्षों तक शैलेन्द्रवंशीय राजाओं ने हिन्दू धर्म और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन का कार्य किया, विशेष रूप से सुवर्णद्वीप में। युगाब्द 38वीं (ई० सातवीं) शताब्दी में शैलेन्द्र वंश का अधिराज्य बर्मा में स्थापित हुआ और 38 वीं शती के आरम्भ में सुवर्ण द्वीप में। जावा और सुमात्रा में इनके बनवाये मन्दिर अभी तक विद्यमान हैं। भारतीय नौ-वाणिज्य को भी इन शैलेन्द्रवंशीय राजाओं ने पर्याप्त विकसित किया।

बाप्पा रावल

राजस्थान में गुहिलोत राजवंश के संस्थापक बाप्पा रावल स्वधर्म के प्रखर अभियानी तथा अरबों को परास्त करने वाले प्रतापी-पराक्रमी राजा हुए हैं। उदयपुर के निकट एक छोटे से राज्य नागहृद (नागदा) के अधिपति पद से आरम्भ कर ये चित्तौड़ के अधिपति बने। युगाब्द 39वीं (ई० आठवीं) शताब्दी में अरबों के आक्रमण भारत पर होने लगे थे। बाप्पा रावल ने स्वदेश में तो उनकी पराजित किया ही, आगे अरब तक बढ़कर शत्रुओं का दमन भी किया। दीर्घकाल तक राज्य-शासन करके तथा आक्रमणकारी अरबों को अनेक बार पराभूत कर बाप्पा रावल ने अपने पुत्र को राज्य प्रदान किया और स्वयं शिवोपासक यति बने।

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लाचिद् भास्करवर्मा च यशोधर्मा च हूणाजित्। श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बल: ॥24 ॥

लाचित बरफूकन

असम के अहोम राज्यकाल के वीर सेनापति। इनका समय युगाब्द 48वीं (ई० 17वीं) शताब्दी था। इन्होंने मुगल सेना के दाँत खट्टे किये और युद्ध में अपने प्रमादी मामा का सिर यह कहते हुए काट दिया कि “मामा से देश बड़ा है।"

भास्कर वर्मा

असम के युगाब्द 38वीं (ईसा की सातवीं) शताब्दी के राजा। ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे। भास्कर वर्मा विद्या और कला के संरक्षक, वीर योद्धा और कुशल प्रशासक थे। सम्राट हर्षवर्द्धन से इनकी मैत्री-सन्धि थी।

यशोधर्मा

कलियुग की 36वीं (ई० पाँचवी) शताब्दी के राजा,जिनका साम्राज्य ब्रह्मपुत्र से महेन्द्र पर्वत (उत्कल) तक और हिमालय से पश्चिम सागर (सिन्धुसागर) तक फैला हुआ था। इनका उल्लेखनीय कतृत्व हूणवंश के क्रूर राजा मिहिरकुल को परास्त करना है। मंदसौर (मध्यप्रदेश) इनकी राजधानी थी, जिसके आसपास इनके शिलालेख पाये गये हैं।

कृष्णदेव राय

कलि संवत् की 47वीं (ई० 16वीं) शताब्दी के विजयनगर साम्राज्य के प्रसिद्ध राजा। ये तुलुववंशीय नरसिंह राय के पुत्र थे। इन्होंने इस्माइल आदिलशाह को पराभूत किया और दक्षिण में मुस्लिम प्रभुसत्ता का दर्प क्षीण किया। ये लोकोपकारी राजा के रूप में स्मरण किये जाते हैं। विजयनगर का प्रसिद्ध प्रत्युत्पन्नमति सभासद तेनालीराम महाराजा कृष्णदेव राय की ही राजसभा का रत्न था ।

ललितादित्य

कश्मीर के महाराज प्रतापादित्य के तृतीयपुत्र, महान् योद्धा और विजेता, जिनका कीर्तिगान कश्मीर के इतिहासकार कवि कल्हण ने अपने ग्रंथ 'राजतरंगिणी' में किया है [कलियुगाब्द 3825-3862 (ई०724-461)] । विश्व-विजय के आकांक्षी ललितादित्य का राज्यकाल विजयों का इतिहास है। उन्होंने अरब, तुर्क, तातार आदि मुस्लिम आक्रामकों को न केवल पराजित किया,अपितु उनका दूर तक पीछा कर ऐसा दमन किया कि आगे की तीन शताब्दियों तक उन्हें कश्मीर की ओर आँख उठाकर देखने का साहस नहीं हुआ। ललितादित्य ने पंजाब, कन्नौज, तिब्बत, बदख्शान को अपने राज्य में मिलाया और विजित राजाओं से उदार बर्ताव किया। उन्होंने भगवान विष्णु और बुद्ध के बहुत से मन्दिर बनवाये।

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मुसुनूरिनायकौ तौ प्रताप: शिवभूपति:। रणजित्सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमा: ॥25 ॥

मुसुनूरि नायक

कलि संवत् की 45वीं (ई० 14वीं) शताब्दी में वारंगल राज्य (आन्ध्रप्रदेश) में प्रोलय और कप्पय नामक दो मुसुनूरि नायक हुए। उन्होंने आन्ध्र प्रदेश से मुस्लिम शासन को उखाड़ फेंका। मुहम्मद बिन तुगलक ने काकतीय नरेश प्रतापरुद्र को पराजित कर राजधानी ओरूगल (वर्तमान वारंगल) को अपने अधीन कर लिया था और उसका नाम सुल्तानपुर रखा था। प्रतापरुद्र के आकस्मिक निधन से हिन्दू नेतृत्वविहीन हो गये थे। ऐसे समय सेनापति प्रोलय और उनके भतीजे कप्पय ने सेना, सामंतों और जनता को संगठित कर मुस्लिम शासन का विरोध किया। मुसुनूरि नायकों के प्रयास से ओरूगल मुक्त हुआ, वहाँ भगवा ध्वज पुन: फहराया, मुसलमानों के दक्षिण में और आगे बढ़ने पर रोक लगी, महासंघ की स्थापना में सहायता मिली, हिन्दुओं में आत्मविश्वास का उदय हुआ और धर्म की पुन: प्रतिष्ठा हुई।

महाराणा प्रताप

परतंत्रता के विरुद्ध आजीवन संघर्ष करने वाले और हिन्दुत्व की केसरिया पताका को सदैव ऊंचा रखने वाले, स्वदेश और स्वधर्म के रक्षक राणा प्रताप के चरित्र में भारतीय प्रतिकार और प्रतिरोध-चेतना को प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ [युगाब्द 3640-3698 (1539-1597 ई०)] । जिस कालखण्ड में अनेक राजपूत नरेश स्वधर्म का स्वाभिमान भुलाकर मुगल बादशाह से सन्धि करने के साथ-साथ अपनी कन्या तक देकर उससे संबंध जोड़ रहे थे और‘दीन-इलाही' के द्वारा हिन्दुओं को भ्रमित किया जा रहा था, उस युग में अकबर के दम्भ और चाल को विफल करने वाले वीर पुरुष थे राणा प्रताप। मेवाड़-मुकुटमणि राणा प्रताप का जन्म बाप्पा रावल के गौरवशाली कुल में हुआ था। ये महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) के पौत्र थे। राजपूताने की पावन भूमि हल्दीघाटी में राणा प्रताप और उनके अमर बलिदानी वीर भीलों एवं राजपूतों ने मुगल सेना से संग्राम में जो लोकोत्तर पराक्रम दिखाया उसकी कीर्ति-कथा हिन्दू जाति के इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ बन चुकी है। चित्तौड़ की स्वतंत्र कराने का संकल्प अपने हृदय में धारण किये राणा प्रताप ने वनवास स्वीकार किया और स्वदेश-स्वातंत्र्य हेतु अपार कष्ट सहन किये। देशभक्त भामाशाह से अकल्पित सहायता प्राप्त होने पर महाराणा प्रताप ने सैन्य-संगठन करके अपने जीवनकाल में 80 में से 77 किले पुन: जीत लिये।

शिवाजी

बीजापुर के आदिलशाही दरबार के सामन्त शाहजी भोंसले के द्वितीयपुत्र शिवाजी [युगाब्द 4728-4781 (1627-1680 ई०)] के बाल मन में ही उनकी माता जीजाबाई ने स्वधर्म, स्वदेश एवं स्वपरम्परा के प्रति गौरव-बोध जगाकर अत्याचारी मुस्लिम सत्ता की दासता से मातृभूमि को मुक्त कराने का जो संकल्प जगाया, उसे दादाजी कोंडदेव जैसे वीर शूरमा ने शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा द्वारा पुष्ट किया। परिणामस्वरूप शिवाजी ने सोलह वर्ष की अल्पायु में ही खेती-बाड़ी करने वाले पहाड़ी मावलों में शूरवृत्ति एवं देश-धर्म की निष्ठा जगाकर तोरण के किले की विजय से स्वराज्य-स्थापना का श्रीगणेश किया तो फिर वह क्रम रुका नहीं। मुगल सेनापति शाइस्ता खाँ का पराभव, अफजल खान का वध, औरंगजेब के आगरा बन्दीवास से युक्तिपूर्वक निकल भागना, जयसिंह को प्रताड़ना भरा पत्र लिखकर उसके मन में स्वदेश व स्वधर्म के प्रति अनुराग जगाने का प्रयत्न करना, आदि घटनाएँ ऐसी हैं जिनमें उनका साहस, कूटनीति, कुशलता, समय-सूचना, रणचातुरी, संगठन-कौशल आदि प्रकर्ष से प्रकट हुए हैं। अपने 53 वर्ष के छोटे से जीवन-काल में 36 छोटे-बड़े युद्धों में अपराजेय रहकर 'हिन्दवी स्वराज्य' की स्थापना द्वारा उन्होंने समस्त हिन्दू समाज में नवचेतना का संचार किया। राज्य व्यवहार-कोष के निर्माण, जहाजी बेड़े की स्थापना, मुद्रणालय प्रारम्भ करने के प्रयास आदि सबमें उनके परम्परा-प्रेम के साथ-साथ प्रशासनिक कौशल के दर्शन प्रकर्ष से होते हैं। इन सबने छत्रपति शिवाजी महाराज को युगपुरुष की श्रेणी में रख दिया।

रणजीत सिंह

पंजाब के सुप्रसिद्ध महाराजा [युगाब्द 4881-4940 (1780-1839 ई०)], जिन्होंने जम्मू और कश्मीर को भी मिलाकर पंजाब को एक शक्तिशाली, प्रभुता सम्पन्न राज्य का रूप दिया। हरिसिंह नलवा और जोरावर सिंह जैसे पराक्रमी सेनापतियों के नेतृत्व में संगठित सेना से उन्होंने राज्य की सीमाओं को तिब्बत के पश्चिम, सिन्धु के उत्तर और खैबर दर्रे से लेकर यमुना नदी के पश्चिमी तट तक बढ़ाकर उसे राजनीतिक और भौगोलिक एकता प्रदान की। उनका प्रशासन साम्प्रदायिक आग्रहों से मुक्त था और राज्य जनभावना पर आधारित था। गोहत्या पर उन्होंने कठोर प्रतिबंध लगाया था तथा अपने प्रभाव से अफगानिस्तान में भी वहाँ के शाह से गोहत्या बन्द करवायी थी। महमूद गजनवी द्वारा लूटे गये सोमनाथ मन्दिर के बहुमूल्य द्वार को वापस लाने का पराक्रम भी उन्हीं का था। उनके जीवित रहते तक अंग्रेजों की कुटनीति पंजाब में विफल हुई।

महान वैज्ञानिक एवं दार्शनिक

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वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुतस्तथा। चरको भास्कराचार्यों वराहमिहिर: सुधी: ॥26 ॥

कपिल

सांख्य सूत्रों के रचयिता दार्शनिक, जिन्हें श्रीमद्भागवत में विष्णु के 24 अवतारों में स्थान मिला है। इनके माता-पिता का नाम कर्दम ऋषि और देवहूति बताया गया है। प्रचलित सांख्यदर्शन के ये प्रवर्तक माने जाते हैं। कपिल वेदान्तदर्शन की भाँति ब्रह्म या आत्मा को ही एकमात्र सत् नहीं मानते थे। उन्होंने असंख्य जीवों या 'पुरुषों' तथा प्रकृति को भी स्वतंत्र तत्व माना। चेतन पुरुष और जड़़ प्रकृति कपिल के मत में मुख्य तत्व हैं। प्रकृति नित्य है, जगत् की सारी वस्तुएँ उसी के विकार हैं। पुरुष की समीपता मात्र से और उसके ही लिए प्रकृति में क्रिया उत्पन्न होती है, जिससे विश्व की वस्तुओं की उत्पत्ति और विनाश होता है। कपिल के उपदेशों का एक बड़ा संग्रह ‘षष्टितंत्र' कहा जाता है। 'सांख्य सूत्र' और 'सांख्य कारिका' सांख्यदर्शन के प्रमुख ग्रंथ हैं। पुराणों में कपिल मुनि का वर्णन महान् तपस्वी सिद्धपुरुष के रूप में हैं।

कणाद

वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक माने जाने वाले कणाद परमाणुवादी दार्शनिक थे। कणाद के ग्रंथ का नाम 'वैशेषिक सूत्र' है जो दस अध्यायों में लिखा गया है। प्रत्येक अध्याय में दो-दो आह्निक हैं। कणाद ने जिस प्रयोजन से वैशेषिक सूत्र की रचना की, उसे उन्होंने ग्रंथ के प्रथम सूत्र में स्पष्ट कर दिया: “अब मैं धर्म सम्बंधी जिज्ञासा पर व्याख्यान करता हूँ।” फिर कहा- “जिससे अभ्युदय और नि:श्रेयस् की सिद्धि होती है,वह धर्म है।” “उस (धर्म) को कहने में वेद प्रमाण है।" कणाद ने विश्व के तत्वों का छ: पदार्थों में वर्गीकरण किया है, वे हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय। बाद में भाष्यकार प्रशस्तपाद ने इनमें एक और पदार्थ - 'अभाव' को भी जोड़ दिया। वैशेषिक दर्शन अपने परमाणुवाद और क्रिया सम्बन्धी वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए प्रसिद्ध है।

सुश्रुत

आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य, जिनकी शल्य चिकित्सा के लिए विशेष ख्याति थी। इनका रचा ग्रंथ है 'सुश्रुत संहिता'। कहा जाता है कि इन्होंने काशीपति दिवोदास से शल्यतंत्र का उपदेश प्राप्त किया था। 'सुश्रुत संहिता' में वर्णित शल्यक्रिया-यंत्रों की उन्नत वैज्ञानिक संरचना का आधुनिक यंत्रों से सादृश्य वैज्ञानिकों को विस्मय में डालता है।

चरक

आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य। इनका रचित प्रसिद्ध 'चरक संहिता' ग्रंथ आयुर्वेद में कायचिकित्सा का संहिताबद्ध मूल ग्रंथ है, जो विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित हो चुका है। शतपथ ब्राह्मण में चरक का उल्लेख उनकी प्राचीनता का द्योतक है।

भास्कराचार्य

कलि संवत् की 43वीं (ई० 12वीं) शताब्दी के बहुत बड़े गणितज्ञ एवं ज्योतिषी। ये उज्जैन की वेधशाला के अध्यक्ष थे। इनके रचित गणित ज्योतिष के दो प्रसिद्ध ग्रंथ हैं - 'सिंद्धात शिरोमणि' और 'करण कुतूहल'। 'लीलावती बीजगणित' भी उनकी प्रसिद्ध रचना है। न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व ही उन्होंने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित कर दिया था। उनसे शताब्दियों पूर्व एक और गणितज्ञ भास्कराचार्य हो चुके हैं।

वराहमिहिर

विक्रमादित्य और कालिदास के समकालीन प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य। इनका रचित 'बृहत् संहिता' प्रसिद्ध ग्रंथ है। सम्भवत: ये उज्जैन-निवासी थे। विक्रमादित्य की राजसभा के नवरत्नों में वराहमिहिर की भी गणना की जाती है। आर्यभट्ट के सिद्धांतो के बारे में उनकी निरपेक्षता से भी यही प्रकट होता है कि वे पूर्ववर्ती रहे होंगे।

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नागार्जुनो भरद्वाज आर्यभट्टो वसुर्बुध: । ध्येयो वेडश्कटरामश्च विज्ञा रामानुजादयः ॥27 ॥

नागार्जुन

प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक, जिनका जन्म विदर्भ में हुआ था। उन्होंने ब्राह्मण तथा बौद्ध ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और आगे चलकर श्रीपर्वत (नागार्जुनी कोंडा, गुंटूर) को अपना निवास-स्थान बनाया। नागार्जुन आंध्र राजा गौतमीपुत्र यज्ञश्री (कलियुगाब्द 3267-3297 अर्थात् 166-196ई०) के समकालीन तथा सुहृद थे। वे वैद्यक तथा रसायन शास्त्र के भी आचार्य थे। उनका 'अष्टांग हृदय' वैद्यक एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। नागार्जुन के नाम से अनेक ग्रंथ प्रसिद्ध हैं, किन्तु उनकी प्रमुख कृतियाँ दो हैं - 'माध्यमिक कारिका' और 'विग्रहव्यावर्तनी'। नागार्जुन का दर्शन शून्यवाद कहलाता है जिसे बौद्ध दर्शन में प्रमुखता प्राप्त हुई है। उन्होंने वस्तुशून्यता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसका अर्थ है कि अविद्या के नष्ट हो जाने पर सभी वस्तुएँ शून्य में विलीन हो जाती हैं। कुछ भी शेष न रहना ही निर्वाण है। जिस काल के बारे में प्रचार किया जाता है कि ग्रीक देश से विज्ञान भारत में आया, उसी काल में नागार्जुन के रसायन शास्त्र का अनुवाद चीनी और जापानी भाषाओं में ही रहा था।

भरद्वाज

मंत्रद्रष्टा वैदिक ऋषि और विमान-विद्या के विद्वान् आचार्य महर्षि भरद्वाज ‘यंत्र सर्वस्व', 'अंशुतंत्र' और 'आकाश शास्त्र' ग्रंथों के निर्माता कहे जाते हैं। यंत्र-सर्वस्व के वैमानिक प्रकरण में विमान-विद्या का विवेचन किया गया है और विमान विषयक रचना-क्रम कहे गये हैं। 'वैमानिक प्रकरण' में विज्ञान विषय के प्राचीन पच्चीस ग्रंथों की सूची है तथा विमान शास्त्र के पूर्वाचार्यों और उनके रचे ग्रंथों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिससे ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में विमान-निर्माण एवं संचालन-क्रिया की पूरी जानकारी थी। प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर भरद्वाज का प्रसिद्ध गुरुकुल था।

आर्यभट्ट

कलि की 36वीं (ई०पाँचवी) शती में हुए भारत के महान ज्योतिषाचार्य। इन्होंने 'आर्यभटीयम्' नामक ग्रंथ की रचना की, जो उपलब्ध सबसे प्राचीन ज्योतिष-ग्रंथों में गिना जाता है। अन्य ज्योतिषियों ने 'आर्यभटीयम्' को 'आर्य सिद्धान्त' कहा है। आर्यभट्ट ने यह सिंद्धात प्रतिपादित किया था कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करता, प्रत्युत् पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है।

जगदीशचन्द्र बसु

पूर्वी बंगाल में जन्मे भारत के वैज्ञानिक [युगाब्द 4959-5038 (1858-1937 ई०)] । वनस्पति शास्त्र और भौतिकी में इनकी गहरी रुचि थी। इंग्लैड में अध्ययन करने के पश्चात संवत् 4986 (1885 ई०) में भारत लौटे और प्रेसीडेंसी कॉलेज में भौतिकी के प्रोफेसर बने। उन्होंने विद्युत-चुम्बकीय रेडियो तरंगें उत्पन्न करने के लिए एक यंत्र बनाया। संवत् 4996 (1895 ई०) में इन तरंगों की सहायता से उन्होंने 75 फुट दूरी पर टेलीफोन की घंटी बजायी। इन्हीं तरंगों के उपयोग का विकास करके मारकोनी ने रेडियो का आविष्कार किया। जगदीशचन्द्र बसु ने वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा वनस्पतियों की सजीवता और प्रतिक्रियाशीलता सिद्ध की और इस प्रकार समस्त जीवमात्र की एकता सिद्ध की। वे रायल सोसाइटी के सदस्य चुने गये। सं० 5018 (1917 ई०) में उन्होंने कलकत्ता में 'बोस रिसर्च इंस्टीट्यूट' की स्थापना की।

चन्द्रशेखर वेंकटरामन

सुप्रसिद्ध भौतिक वैज्ञानिक [4989-5071 (1888-1970 ई०)],जिन्हें प्रकाश-भौतिकी में ‘रमण प्रभाव' का अन्वेषण करने पर 1930 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। इनका जन्म त्रिचनापल्ली (तमिलनाडु) में हुआ था। आरम्भिक शिक्षा वाल्टेयर में और उच्च शिक्षा मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्राप्त की। वैज्ञानिक अनुसंधान विषयक प्रवृत्ति के कारण राज्य-सेवा में उच्च पद पर होते हुए भी समय निकालकर अनुसंधान में प्रवृत्त हुए। कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर, साइन्स एसोसिएशन के सचिव, लंदन की रॉयल सोसाइटी के फेलो और बंगलौर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के निदेशक रहे। अपना ऊंचे से ऊँचा अनुसन्धान-कार्य उन्होंने भारत में ही सम्पन्न किया। स्वाभिमान-सम्पन्न वे इतने थे कि अपने शिष्यों से कहते - विदेशियों की बातों का तब तक विश्वास न करो जब तक वे सिद्ध न हो जायें।

रामानुजम

इनका जन्म [4988-5021 (1887-1920 )] मद्रास राज्य के तंजौर जिले के कुम्भकोणम नगर में हुआ था। रामानुजम के पिता श्रीनिवास आयंगर एक निर्धन किन्तु स्वाभिमानी व्यक्ति थे। रामानुजम को गणित से बहुत प्रेम था। चौथी कक्षा से ही वे त्रिकोणमिति में रुचि लेने लगे थे। छात्र जीवन में ही उन्होंने गणित के अनेक सूत्रों का अपने आप पता लगाया था। उनकी अद्भुतप्रतिभा का पता लगने पर वे इंग्लैंड बुला लिये गये। इंग्लैड में प्रोफेसर हार्डी के सहयोग से उन्होंने गणित में अनुसंधान किये और रायल सोसाइटी के फेलो चुने गये। अथक शोधकार्य और ब्रिटेन में शाकाहारी पौष्टिक भोजन न मिल पाने के कारण उनका स्वास्थ्य बहुत गिर गया और 33 वर्ष की अल्पायु में उनकी क्षय रोग से मृत्यु हो गयी। गणित शास्त्र के जिन विषयों में रामानुजम ने योग दिया है, उनको संख्याओं का सिद्धांत, विभाजन (पार्टीशन) का सिद्धांत और सतत् भिन्नों का सिद्धांत कहते हैं। मृत्यु के समय भी उनका मस्तिष्क इतना सजग था कि जब एक कार के नं० 1729 का उल्लेख हुआ तो तुरंत उनके मुँह से निकला कि 'हाँ, यह संख्या मैं जानता हूँ। यह वह छोटी से छोटी संख्या है जिसे दो प्रकार से दो घनों के योग के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है – (10³ +9³) तथा (12³+1³)

आधुनिक युग के दार्शनिक एवं संत

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रामकृष्णो दयानन्दो रवीन्द्रो राममोहन: । रामतीथोंऽरविन्दश्च विवेकानन्द उद्यशा: ।28 ।

श्री रामकृष्ण परमहंस

बंगाल के प्रसिद्ध विरागी गृहस्थ सिद्ध पुरुष (युगाब्द 4936-4987; (1836-1886 ई०) । स्वामी विवेकानन्द उन्हीं के शिष्य थे। उनका बचपन का नाम गदाधर था। कलकत्ता के निकट दक्षिणेश्वर में काली के मन्दिर में पुजारी का काम करते-करते उनका सम्पूर्ण जीवन कालीमय हो गया। एक दीर्घ जीवी सिद्धपुरुष स्वामी तोतापुरी उनके गुरु थे, जिनसे उन्हें वेदान्त का ज्ञान प्राप्त हुआ। ज्ञान-साधना के अतिरिक्त उन्होंने तंत्र साधना भी की। कठिन साधना के काल में उनकी विक्षिप्त जैसी अवस्था देखकर लोग उन्हें पागल समझने लगे थे। उनकी जीवन-रक्षा तक हितैषियों के लिए चिन्ता का विषय बन गयी। किन्तु साधना पूरी होने पर वे परमहंस के रूप में विख्यात हो गये। उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों की साधना-पद्धतियों को अपनाकर देखा और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी धर्ममत मूलत: अविरोधी हैं और परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग हैं। उन दिनों बंगाल में बुद्धिवाद, नास्तिकता और परकीय संस्कृति के अंधानुकरण की प्रवृत्ति प्रबल थी। रामकृष्ण परमहंस ने सरल सुबोध शैली में आध्यात्मिकता की शिक्षा देकर उक्त प्रवृत्ति को रोका। बड़े-बड़े विद्वान और बुद्धिमान लोग उनके शिष्य बने। दूर विदेशों तक से लोग उनके दर्शन करने आते थे। उनके शिष्यों ने ‘रामकृष्ण मिशन' नामक संस्था की स्थापना की ताकि उनके दिव्य संदेश का प्रचार किया जा सके।

स्वामी दयानन्द सरस्वती

आर्य समाज के संस्थापक, वैदिक धर्म एवं विचार के प्रचारक, आधुनिक काल में हिन्दू समाज के उद्धारक तथा महान समाज-सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म काठियावाड़ (गुजरात) के मोरबी नामक ग्राम में हुआ था [कलि संवत् 4925-4984 (1824-1883 ई०)] । बचपन में ही उनके मन में मूर्तिपूजा के प्रति अनास्था उत्पन्न हो गयी। उन्होंने गृह त्यागकर ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली और अनेक वर्षों तक योग-साधना तथा शास्त्राध्ययन किया। आचार्य शंकर द्वारा स्थापित दशनामी सम्प्रदाय में संन्यास-दीक्षा लेने के पश्चात वे दयानन्द सरस्वती कहलाये। वेदाध्ययन के लिए व्याकरण के विशेष महत्व के कारण उन्होंने स्वामी विरजानन्द से व्याकरण पढ़ना प्रारम्भ किया। अपने विद्या-गुरुस्वामी विरजानन्द के आदेशानुसार वे वेदों के शुद्ध ज्ञान का प्रचार करने में लग गये। परम्परागत हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) के सुधार में स्वामी दयानन्द का बहुत योगदान रहा। आर्य धर्म के तत्वों का सुबोध भाषा-शैली में प्रतिपादन करने के उद्देश्य से उन्होंने 'सत्यार्थप्रकाश' लिखा। इस्लाम और ईसाइयत की अनेक भ्रामक बातों की उन्होंने कठोर आलोचना की। शास्त्रार्थ में विरोधियों को परास्त कर वैदिक मत की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया। आर्यत्व का अभिमान और स्वदेश का गौरव जगाया। युगाब्द 4984 (सन् 1883) में अजमेर में दीपावली के दिन विषघात से उनकी मृत्यु हुई।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर

'गीतांजलि' पर युगाब्द 5014 (ई० 1913) में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर [कलियुगाब्द 4962-5043 (1861-1942 ई०)] बंगला साहित्य में नवयुग के प्रवर्तक थे। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर बंगाल के प्रसिद्ध और आदरणीय ब्रह्मसमाजी थे। साहित्यिक रुचि सम्पन्न सुसंस्कृत परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंगला वाडमय की अपूर्व श्री वृद्धि की। बंगभंग के विरुद्ध जब बंगाल में आन्दोलन का प्रवर्तन हुआ तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उत्कुष्ट देशभक्तिपूर्ण कविताओं की रचना की। उन्होंने इंग्लैंड, चीन, जापान आदि देशों का प्रवास और पाश्चात्य साहित्य का गहन अध्ययन किया था। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान विशिष्ट रहा। वे 'विश्वभारती' और 'शांतिनिकेतन' संस्थाओं के संस्थापक थे। कहानी और कविता ही नहीं, रवीन्द्र-संगीत भी उनकी अनुपम देन है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विश्व को भारतीय संस्कृति के सार्वभौम स्वरूप से परिचित कराया।

रामतीर्थ

गोस्वामी तुलसीदास के कुल में जन्मे [कलि सं० 4964-5007 (1873-1906)], पंजाब के गुजराँवाला जिले के तीर्थराम ने 28 वर्ष की आयु में महाविद्यालय के व्याख्याता पद से त्यागपत्र देकर संन्यास-दीक्षा ली और रामतीर्थ नाम से प्रख्यात हुए। उन्होंने वेदान्त-प्रचार का अमित कार्य किया, विशेष रूप से विदेशों में। स्वामी विवेकानन्द के समान उन्होंने भी विदेशों में घूम-घूमकर वेदान्त-चर्चा की और अनेक पाश्चात्य लोगोंं को अपना अनुयायी बनाया। उर्दू तथा फारसी पर उनका प्रारम्भ से ही प्रभुत्व रहा; संस्कृत का अध्ययन किया; गणित विषय के तो वे प्राध्यापक रहे। ऋषिकेश के समीप वन में कठिन तपस्या की। उन्होंने देशभक्ति, निर्भयता तथा अद्वैत वेदान्त मत का प्रचार किया। अध्यात्मनिष्ठ, भक्तिमय जीवन बिताते हुए, भारतीय वेदान्त की ज्योति देश-विदेश में जला कर 33 वर्ष की आयु में स्वामी रामतीर्थ ने गंगा में जलसमाधि ले ली।

अरविन्द

श्री अरविन्द [युगाब्द 4973-5051 (1872-1950 ई०)] भारत के एक श्रेष्ठ राजनीतिक नेता, क्रान्तिकारी, योगी और भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ व्याख्याता थे। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा बंगाल में प्राप्त की। तदुपरान्त अध्ययन के लिए इंग्लैंड गये। भारत लौटने पर राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े और क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया। अलीपुर बम केस में जेल गये। 'कर्मयोगी', 'वन्देमातरम्' तथा 'आर्य' पत्रों का प्रकाशन किया। बाद में राजनीतिक आन्दोलन के मार्ग से निवृत्त होकर पांडिचेरी चले आये और योग साधना में रत हुए। युगाब्द 5021 (सन् 1920) में पांडिचेरी आश्रम की स्थापना की। 'पूर्णयोग', 'अतिमानस', 'अतिमानव' और 'दिव्य जीवन' की अवधारणाओं का प्रतिपादन करने वाले अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। भारतमाता का चेतनामयी परमात्म-शक्ति के रूप में साक्षात्कार कर भारतीय राष्ट्रवाद को उन्होंने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अधिष्ठान प्रदान किया तथा भविष्य में भारत को जो योगदान करना है उसका भी विवेचन किया। उन्होंने भारत के पुन: अखंड होने की भविष्यवाणी की है।

विवेकानन्द

विदेशों में हिन्दूधर्म की कीर्ति पताका फहराने वाले, स्वदेश में वेदान्त की युगानुरूप व्याख्या कर हताश एवं विभ्रान्त समाज में उत्साह, स्फूर्ति और बल का संचार करने वाले तथा भारतीय संस्कृति के अध्यात्म तत्व का व्यावहारिक प्रतिपादन करने वाले स्वामी विवेकानन्द [युगाब्द 4963-5003 (1863-1902 ई०)] का बचपन का नाम नरेन्द्र था। बालक नरेन्द्र खेल तथा अध्ययन दोनों में ही प्रवीण था और ईश्वर के विषय में उसके मन में तीव्र जिज्ञासा थी। रामकृष्ण परमहंस के दर्शन और आशीर्वाद से नरेन्द्र को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और मन की शंकाओं का समाधान हुआ। वे विवेकानन्द बन गये। युगाब्द 4994 (ई०1893) में अमेरिका में आयोजित 'सर्वधर्म सम्मेलन' में हिन्दूधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेकर अपनी ओजस्वी वक्तृता से वेदान्त की अनुपम ज्ञान-सम्पदा का रहस्योद्घाटन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम के मानस में हिन्दूधर्म के प्रति आकर्षण और रुचि उत्पन्न की। स्वदेश में भ्रमण कर स्वामी जी ने मानव-सेवा को ईश्वर-सेवा का पर्याय बताया। गुरुभाइयों के साथ मिलकर उन्होंने 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और धर्म-जागृति तथा सेवा पर आग्रह रखा। 39 वर्ष के अल्प जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के नवोन्मेष का महान् कार्य किया।

समाज सुधारक एवं गणमान्य नेतागण

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दादाभाई गोपबन्धु: तिलको गान्धिरादूता: । रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।29 ॥

दादा भाई नौरोजी

महाराष्ट्र के एक पारसी परिवार में जन्मे दादाभाई नौरोजी [युगाब्द 4936-5018 (1835-1917 ई०)] आधुनिक भारत के एक प्रमुख देशभक्त, राजनीतिक नेता एवं समाज-सुधारक हुए हैं। भारतीयों के स्वराज्य के अधिकार को ब्रिटिश संसद तक गुंजाने वाले दादाभाई भारतीय स्वातंत्र्य के वैधानिक आन्दोलन के जनक थे। वे कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे और तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1892 (युगाब्द4993) में ब्रिटेन की लिबरल पार्टी की ओर से ब्रिटिश संसद के सदस्य चुने जाने वाले वे प्रथम भारतीय थे। उन्होंने अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों का तथ्यपरक एवं गहन विश्लेषण कर यह सिद्ध किया कि भारत का धन इंग्लैंड की ओर प्रवाहित हो रहा है। इसे 'ड्रेन थ्योरी' कहते हैं।

गोपबन्धुदास

उड़ीसा में पुरी जिले के अन्तर्गत जन्मे पण्डित गोपबन्धुदास [युगाब्द 4973-5029 (1872-1928 ई०)] श्रेष्ठ कवि, लेखक, पत्रकार, दार्शनिक, समाज-सुधारक, कुशल संगठक, राजनीतिक नेता एवं हिन्दुत्ववादी चिंतक के रूप में विख्यात हैं। स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी के नेतृत्व के पूर्व एवं पश्चात् भी वे सम्पूर्ण उड़ीसा में अग्रणी रहे। उन्होंने अस्पृश्यता-निवारण हेतु अभियान चलाया और गांधी जी को भी हरिजन-उद्धार-कार्य की प्रेरणा दी। उनके साथ पुरी जिले में पदयात्रा के समय ही महात्मा गांधी ने 'एक वस्त्र परिधान' का संकल्प लिया था। गोपबन्धुदास ने आर्तजनों की सेवा के सामने निजी तथा पारिवारिक दु:खों एवं संकटों को सदा गौण माना। वे उड़ीसा के सर्वाधिक लोकप्रिय पत्र 'समाज' के प्रतिष्ठाता और अखिल भारतीय लोक-सेवक मंडल के प्रमुख कर्णधार थे।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक

“भारतीय असंतोष के जनक" तथा उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक विचारों के नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का जन्म रत्नागिरि (महाराष्ट्र) में हुआ था [युगाब्द 4957-5021 (1856-1920 ई०)]। राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार के उद्देश्य से तिलक ने अनेक शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना की। उनमें सुप्रसिद्ध फर्गयूसन कालेज भी था, जिसमें तिलक संस्कृत और गणित पढ़ाया करते थे। ब्रिटिश दमन-नीति का विरोध करने तथा लोगोंं में राष्ट्रीय चेतना जगाने के उद्देश्य से उन्होंने 'केसरी' और 'मराठा' पत्रों का प्रकाशन किया।

'स्वराज्य मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है' – यह गर्जना करने वाले भारत-केसरी तिलक ही थे। 1905 में बंगाल के विभाजन की घोषणा के बाद जब राष्ट्रीय आन्दोलन में उभार आया तो तिलक ने स्वराज्य, स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा की चतु:सूत्री योजना प्रस्तुत की। अंग्रेजों की दमन-नीति का प्रखर विरोध करने के कारण उन्हें छ: वर्ष का कठोर कारावास देकर मांडले बन्दीगृह में भेज दिया गया। कारागार में ही तिलक ने ‘गीता-रहस्य' नामक श्रेष्ठ ग्रंथ लिखकर गीता की कर्मयोगपरक व्याख्या की। ओरायन और आर्कटिक होम इन द वेदाज नामक शोध-प्रबन्ध भी लिखे। उन्होंने जनजागृति के लिए गणेशोत्सव तथा शिव-जयन्ती महोत्सवप्रारम्भ किये और उनके माध्यम से अंग्रेजी दासता के विरुद्ध जनरोष को मुखर किया।

महात्मा गांधी

राष्ट्रीय स्वातंत्र्य आन्दोलन के प्रमुख नेता,जो लगभग तीन दशक तक भारत के सार्वजनिक जीवन पर छाये रहे। काठियावाड़, गुजरात में जन्मे [कलि सं० 4970-5048 (1869-1948 ई०)] मोहनदास कर्मचन्द गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों को उनके न्यायोचित अधिकार प्राप्त कराने के लिए अहिंसात्मक सत्याग्रह की नूतन पद्धति का प्रयोग किया। युगाब्द 5021 (ई० 1920) में लोकमान्य तिलक की मृत्यु के पश्चात् राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व गांधी जी के कधों पर आ पड़ा। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में समाज के विभिन्न वर्गों का समावेश करके उसे व्यापक आधार प्रदान किया। युगाब्द 5021, 5031-32 और 5043 (सन् 1920, 1930-31 और 1942) में गांधी जी ने तीन बड़े राष्ट्रीय आंदोलनों का संचालन किया। सत्य, अहिंसा, गीता और रामनाम में उनकी प्रगाढ़ आस्था थी। वे उदार सनातनी हिन्दू थे। गांधी जी ने अस्पृश्यता-निवारण, गोरक्षण, ग्रामोद्योग, खादी, राष्ट्रभाषा, मद्यपान-निषेद्य जैसी अनेक राष्ट्रीय एवं रचनात्मक प्रवृत्तियों की श्रृंखला खड़ी की। राष्ट्रविरोधी तत्वों के प्रति भी सदाशयता जैसे उनके कुछ विचारों से असहमत नाथूराम गोडसे नामक उग्र व्यक्ति ने 30 जनवरी, 1948 को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।

रमण महर्षि

रमण महर्षि एक साक्षात्कारी पुरुष थे [युगाब्द 4980-5051 (1879-1950 ई०)], जिन्होंने प्रश्नोत्तर की सीधी-सरल पद्धति से उपदेश देकर अपने देशी-विदेशी शिष्यों एवं श्रद्धालुओं को दिव्य संदेश सुनाया। उनके विचारों का संकलन 'रमणगीता' नामक ग्रंथ में हुआ है। इनका जन्म दक्षिण में मदुरै के समीप हुआ था। इनका मूल नाम वेंकट रमण था। गृह-त्याग कर वे अरुणाचलम् पहाड़ी पर ध्यानस्थ रहने लगे और आत्मज्ञान प्राप्त किया। आध्यात्मिक विद्या के जिज्ञासु उनके पास देश-विदेश से आने लगे, जिन्हें उन्होंने अपने सुबोध, सरल उपदेशों से परितृप्त किया।

मदन मोहन मालवीय

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय [युगाब्द 4962-5047 (1861-1946 ई०)] ने अंग्रेजी दासता के युग में हिन्दूधर्म एवं परम्परा का स्वाभिमान जगाने का कार्य किया। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन की धारा से जुड़कर कांग्रेस तथा हिन्दू महासभा के माध्यम से अपने समय की सक्रिय राजनीति में प्रमुख भूमिका निभायी। कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष रहे। अपने निजी जीवन की पवित्रता तथा श्रेष्ठ चारित्रय की साख के बल पर धनसंग्रह कर लोकोपयोगी कार्यों का संयोजन किया। स्वातंत्रय-प्राप्ति हेतु किये जा रहे संघर्ष और सांस्कृतिक उन्नयन के प्रयासों में मालवीय जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार में उनका अविस्मरणीय योगदान है।

सुब्रह्मण्य भारती

तमिलनाडु के प्रमुख राष्ट्रीय कवि सुब्रह्मण्य भारती [युगाब्द 4983-5022 (1882-1921 ई०)] ने सहज-सुबोध भाषा में लिखी अपनी राष्ट्रीय कविताओं द्वारा हजारों-लाखों लोगोंं के हृदय में देशभक्ति का संचार किया। वे अपनी ओजपूर्ण राष्ट्रीय रचनाओं के कारण कई बार जेल गये। राजनीतिक विचारों की दृष्टि से वे गरमपंथी थे। वे श्री अरविन्द, चिदम्बरम् पिल्लै, वी०वी०एस० अय्यर आदि देशभक्तों और स्वाधीनता-संग्राम के योद्धाओं के निकट सम्पर्क में आये। आलवार और नायन्मार भक्तों की शैली में उन्होंने अनेक भक्तिगीत रचे। सुब्रह्मण्य भारती देशभक्त होने के साथ समाज-सुधारक भी थे। स्त्रियों की स्वतंत्रता, उच्च और निम्न जातियों की समानता तथा अस्पृश्यता-निवारण के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आधुनिक तमिल कविता की प्रवृत्ति का प्रारम्भ भारती ने ही किया। भारती ने ऋषियों और संतों के आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विचारों को जन-सामान्य तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।

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सुभाषः प्रणवानन्दः क्रान्तिवीरो विनायक: । ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणी गुरुः ॥30 ॥

सुभाषचन्द्र बसु

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (बसु) कटक (उड़ीसा) के प्रख्यात वकील जानकीनाथ बसु के पुत्र थे [जन्म युगाब्द 4997 (1897ई०)]। इन्होंने आई०सी०एस० परीक्षा उत्तीर्ण की, पर उस सर्वोच्च सरकारी सेवा को ठोकर मारकर स्वाधीनता-संघर्ष में कूद पड़े। गांधी जी के प्रत्याशी को पराजित कर कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। अंग्रेजों की नजरबंदी से गुप्त रूप से निकलकर विदेश पहुँचे। इंग्लैंड द्वितीय विश्वयुद्ध में फंसा था। इस स्थिति का लाभ उठाकर इंग्लैंड के शत्रु देश जापान की सहायता लेकर 'आजाद हिन्द फौज' का विस्तार किया तथा अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संग्राम करते हुए भारत के उत्तर-पूर्वी सीमान्त में पर्याप्त आगे बढ़ आये। युगाब्द 5046 (सन् 1945) में जापान की पराजय हो जाने पर वे एक विमान से किसी सुरक्षित स्थान को जा रहे थे। उनकी मृत्यु उसी विमान की दुर्घटना में हुई, ऐसा बताया गया, परन्तु उनकी मृत्यु का रहस्य अब भी बना हुआ है। देश के लिए स्वाधीनता लाने में उनका अति महत्वपूर्ण योगदान यह रहा कि सेना में उनकी जगायी चेतना के फलस्वरूप अंग्रेजों के लिए यह सम्भव नहीं रहा कि वे भारतीयों के ही कन्धों पर बन्दूक रखकर भारत को अपने अधीन रख सकें।

प्रणवानन्द

'भारत सेवाश्रम संघ' के संस्थापक स्वामी प्रणवानन्द जी पीड़ितों की सेवा-सहायता में सदैव अग्रणी रहे। उन्होंने प्रखर हिन्दुत्व का प्रतिपादन किया। हिन्दू संगठन हेतु संघशाखा के ही समान मिलन-मन्दिर के माध्यम से दैनिक एकत्रीकरण आयोजित करने की व्यवस्था विकसित की। वे विशेषत: बंगाल में संगठन-कार्य में रत रहे।

विनायक सावरकर

क्रान्तिकारियों में अग्रणी, हिन्दुत्व के प्रखर उद्घोषक, अस्पृश्यता-निवारण एवं सामाजिक समता जैसी समाज-सुधार प्रवृत्तियों के पुरस्कर्ता, ब्रिटिश दमन के प्रखर प्रतिकारक, आजीवन कठोर यातनाओं को सहर्ष भोगने वाले अद्वितीय साहसी, प्रतिभावान् कवि, सशक्त लेखक, ओजस्वी वक्ता स्वातंत्र्य-वीर विनायक दामोदर सावरकर [युगाब्द 4984—5067 (1883-1966 ई०)] ने भारत से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए सशस्त्र क्रान्ति के आन्दोलन में भाग लिया और देश तथा विदेश में अनेक तरुण विद्यार्थियों को विदेशी सत्ता के प्रतिकार की प्रेरणा दी। ब्रिटिश सत्ता का प्रखर विरोध करने और क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने के कारण उन्हें जब इंग्लैंड से बंदी बनाकर भारत लाया जा रहा था तो उन्होंने समुद्र में कूदकर भागने का प्रयत्न किया। दो आजीवन कारावासों का दंड देकर उन्हें अंडमान भेजा गया। रत्नागिरि में नजरबंद रहते हुए उन्होंने अस्पृश्यता-निवारण जैसे सामाजिक कार्य किये। युगाब्द 4958 (सन्1857) में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भारतवासियों के संघर्ष को उन्होंने स्वातंत्र्य-समर की संज्ञा दी। वीर सावरकर अनेक वर्षों तक हिन्दूमहासभा के अध्यक्ष रहे। हिन्दु राष्ट्रीयता का उन्होंने आधुनिक शब्दावली में सशक्त एवं तर्कशुद्ध मंडन किया।

ठक्कर बाप्पा

प्रसिद्ध समाज-सेवक, जिन्होंने वनवासियों की दुर्दशा से द्रवित होकर अपना सम्पूर्ण जीवन [युगाब्द 4960-5052 (1859-1951 ई०)] उन्हीं की दशा सुधारने और सेवा करने में लगा दिया। इनका जन्म गुजरात के भावनगर में एक समाजसेवा-परायण व्यक्ति विट्ठलदास ठक्कर के घर हुआ था। ठक्कर बाप्पा का पूरा नाम अमृतलाल ठक्कर था। इन्होंने वरिष्ठ अभियंता पद त्याग कर पूर्णकालिक सेवा-व्रत लिया। वे 'भारत सेवक समाज' के माध्यम से सेवाव्रती बने। उन्होंने 'भील सेवा मंडल' की स्थापना की, जो रचनात्मक कार्य की गंगोत्री बन गया। अपने समाज के उपेक्षित बन्धुओं वनवासी अथवा 'आदिम' जाति के लोगों की आर्त अवस्था से कातर होकर ठक्कर बाप्पा उन्हीं के हो गये।

भीमराव अम्बेडकर

महाराष्ट्र की महार जाति में जन्मे [युगाब्द 4992-5057 (1891-1956 ई०)] भीमराव ने जातिगत भेदभाव का तीव्र दंश स्वयं अनुभव किया था। उन्होंने विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त की और अपने उपेक्षित बन्धुओं को सम्मान और अधिकार प्राप्त कराने के लिए आजीवन अथक प्रयत्न किया। वे वित्त और विधिशास्त्र (कानून) के उच्चकोटि के विद्वान थे। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन [युगाब्द 5032 (1931 ई०)] में डा० अम्बेडकर ने हरिजनों के लिए पृथक निर्वाचक-मंडल की माँग की थी। किन्तु आगे चलकर 'पूना पैक्ट' को स्वीकार करते हुए उन्होंने अपना यह आग्रह छोड़ दिया और संयुक्त निर्वाचक-मंडल को स्वीकृति देकर हिन्दू समाज को 'सवर्ण' और 'हरिजन' में बँटने से बचा लिया। उन्होंने मुस्लिम और ईसाई प्रलोभनों को ठुकराकर अपने अनुयायियों सहित बौद्धमत स्वीकार किया। उनका स्पष्ट कहना था कि धर्मान्तरण करके विदेशी मूल के सम्प्रदायों में जाने से राष्ट्रनिष्ठा समाप्त होती है। स्वतंत्र भारत के संविधान-निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।

ज्योतिराव फुले

महाराष्ट्र के महान् समाज-सुधारक ज्योतिराव फुले [युगाब्द 4928-4991 (1827-1890 ई०)] ने उपेक्षितों, अछूतों और स्त्रियों की अवस्था सुधारने के लिए कठिन प्रयास किये। शिक्षा के द्वारा उपेक्षितों और स्त्रियों की अवस्था उन्नत की जा सकती है, ऐसी उनकी मान्यता थी। हरिजनों तथा स्त्रियों की शिक्षा के लिए विद्यालय खोलने वाले वे प्रथम समाज-सुधारक माने जाते हैं। हंटर कमीशन के सामने उन्होंने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दिये जाने की माँग भी की थी। वे सामाजिक समता के पक्षधर थे। छुआछूत के विरुद्ध उन्होंने डटकर संघर्ष किया। युगाब्द4975 (सन् 1874 ई०) में उन्होंने 'सत्यशोधक समाज' की स्थापना की ताकि लोगों की विशाल मानवधर्म की शिक्षा दी जा सके। विधवा स्त्रियों का मुंडन कर देने की प्रथा (केशवपन) का उन्होंने कड़ा विरोध किया। अनाथ बालकों और निराधार स्त्रियों के लिए 'अनाथाश्रम' और 'सूतिका-गृह' चलाये। रूढ़िवाद और अंधश्रद्धा पर प्रहार कर ज्योतिबा ने बुद्धिवाद की शिक्षा दी।

नारायण गुरु

हिन्दू समाज की धार्मिक आस्था पर अनैतिक साधनों से आक्रमण करने की कूट योजनाओं का प्रतिकार एवं निवारण करने और इस हेतु केरल में तथाकथित अछूतों के लिए मन्दिरों की स्थापना करने वाले नारायण गुरु का जन्म [युगाब्द 4954-5029 (1853-1928 ई०)] केरल में एक अछूत कहलाने वाली जाति में हुआ था। संस्कृत भाषा और वेदान्त का गहन अध्ययन कर उन्होंने योग-साधना और तपस्या की तथा रोगी, निर्धन, अस्पृश्य एवं वनवासी बन्धुओं की सेवा-सुश्रुषा में अपने को खपा दिया। उनके बनवाये मन्दिर हिन्दू संगठन के केन्द्र बन गये। केरल में हिन्दू समाज के धर्मान्तरण की प्रवृत्ति को रोकने का चिरस्मरणीय कार्य यदि नारायण गुरु ने न किया होता तो केरल का हिन्दू समाज बहुसंख्या में धर्मभ्रष्ट हो गया होता।

नवचेतना प्रदान करने वाली ये (उपर्युक्त) विभूतियाँ सदैव स्मरण रखने योग्य हैं।

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अनुक्ता ये भक्ता: प्रभुचरणसंसक्तहृदया:अनिर्दिष्टा वीरा अधिसमरमुदध्वस्तरिपव:। समाजोद्धतार: सुहितकरविज्ञाननिपुणा: नमस्तेभ्यो भूयात सकलसुजनेभ्य: प्रतिदिनम् ॥31 ॥

इस स्तोत्र में जिनका उल्लेख नहीं हुआ है, ऐसे भी भगवान के चरणों में हृदय से समर्पित अनेक भक्त इस भूमि पर हुए हैं, ऐसे अनेक अज्ञात वीर यहाँ हुए हैं जिन्होंने समरभूमि में शत्रुओं का विनाश किया है तथा अनेक समाजोद्धारक और लोकहितकारी विज्ञान के आविष्कर्ता यहाँ हुए, उन सभी सत्पुरुषों को प्रतिदिन हमारे प्रणाम समर्पित हों।

इदमेकात्मतास्तोत्र श्रद्धया यः सदा पठेत्। स राष्ट्रधर्मनिष्ठावान् अखण्ड भारतं स्मरेत् । 33 ।

इस एकात्मता स्तोत्र का जो सदा श्रद्धा सहित पाठ करेगा,वह राष्ट्रधर्म के प्रति निष्ठावान होकर अखंड भारत को स्मरण रखेगा।

॥ भारत माता की जय॥

References

  1. पुस्तक -भारत एकात्मता स्तोत्र -सचित्र प्रकाशन - सुरुचि प्रकाशन, झंडेवाला, नयी दिल्ली