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== समावर्तन संदेश ==
 
== समावर्तन संदेश ==
तैत्तिरीय उपनिषद् में बताया हुआ यह शिक्षा पूर्ण करनेवाले स्नातकों को दिया जानेवाला सन्देश, उपदेश और आदेश है।
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तैत्तिरीय उपनिषद् में बताया हुआ यह शिक्षा पूर्ण करनेवाले स्नातकों को दिया जानेवाला सन्देश, उपदेश और आदेश है<ref>तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली </ref>:<blockquote>'''सत्यं वद।'''</blockquote><blockquote>अर्थात सदैव सत्य बोलो।</blockquote><blockquote>'''धर्मंचर।'''</blockquote><blockquote>अर्थात धर्म के अनुसार आचरण करो।</blockquote><blockquote>'''स्वाध्यायान्मा प्रमद:।'''</blockquote><blockquote>अर्थात आजीवन अपनी रुचि के विषय के माध्यम से मोक्षगामी कैसे हुआ जा सकता है इस ढँग से अध्ययन करो।</blockquote><blockquote>'''आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य।'''</blockquote><blockquote>अर्थात आचार्य को गुरुदक्षिणा देते रहो।</blockquote><blockquote>'''प्रजातंतुं मा व्यवच्छेत्सी।''' </blockquote><blockquote>अर्थात संतान निर्माण की परंपराको मत तोडो।</blockquote><blockquote>'''सत्यान्नप्रमदितव्यं।'''</blockquote><blockquote>अर्थात सत्य के पथ से कभी डिगो नहीं।</blockquote><blockquote>'''धर्मान्नप्रमदितव्यं।''' </blockquote><blockquote>अर्थात कभी भी धर्माचरण से मत डिगो।</blockquote><blockquote>'''कुशलान्नप्रमदितव्यं।'''</blockquote><blockquote>अर्थात शुभ कर्म करने से कभी नहीं चूको।</blockquote><blockquote>'''भूत्यैन्नप्रमदितव्यं।''' </blockquote><blockquote>अर्थात भौतिक उन्नति करते रहो।</blockquote><blockquote>'''स्वाध्यायप्रवचनाभ्यान्नप्रमदितव्यं।''' </blockquote><blockquote>अर्थात अपनी रुचि के विषय में पूर्व में प्राप्त ज्ञान में स्वाध्याय से वृद्धि करो और यह वृध्दिंगत ज्ञान अगली पीढी को अंतरित करो। </blockquote><blockquote>'''देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यं।''' </blockquote><blockquote>अर्थात देवताओं के (पृथ्वी, अग्नि, वायू, वरूण आदि) पर्यावरण के विषय में और पितरों के प्रति याने समाज के प्रति अपने कर्तव्यों से कभी न चूको। </blockquote><blockquote>आगे कहा है:</blockquote><blockquote>'''मातृदेवो भव।''' </blockquote><blockquote>अर्थात तुम माता में देवबुद्धि रखनेवाले बनों।</blockquote><blockquote>'''पितृदेवो भव।''' </blockquote><blockquote>अर्थात तुम पिता में देवबुद्धि रखनेवाले बनो। </blockquote><blockquote>'''आचार्य देवो भव'''</blockquote><blockquote>अर्थात आचार्यों में देवबुद्धि रखो। </blockquote><blockquote>'''अतिथिदेवो भव।''' </blockquote><blockquote>अर्थात अतिथि में देवबुद्धि रखनेवाले बनो। </blockquote><blockquote>'''यन्यनववद्यनि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि।''' </blockquote><blockquote>अर्थात जो जो अच्छे आचरण हैं उनका तुम सेवन करो। अन्य किसी का सेवन न करो याने बुरे कर्म कभी नहीं करो। </blockquote><blockquote>'''यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि। नो इतराणि।''' </blockquote><blockquote>अर्थात हमारे भी जो अच्छे कर्म हैं उन्हीं का अनुसरण करो। हमारे भी जो कर्म अच्छे नहीं हैं उनका अनुसरण न करो।</blockquote><blockquote>'''ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणा:। तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यं।'''</blockquote><blockquote>अर्थात जो अपने से या हमसे श्रेष्ठ हैं उन्हें आसन आदि देकर, उनका आदर सत्कार करना चाहिये। दान देना चाहिये।</blockquote><blockquote>'''श्रध्दया देयम्। अश्रध्दयाऽदेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भ्रिया देयम्। संविदा देयम्।'''</blockquote><blockquote>अर्थात दान भी श्रध्दा से दो अश्रध्दा से दान न दो। श्रिया याने आर्थिक स्थिति के अनुसार दो। लज्जा से दो, भय से दो लेकिन दान दो। जो कुछ भी दान दो वह विवेक से दो।</blockquote><blockquote>आगे और कहा है – </blockquote><blockquote>'''अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सावा स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणा: सम्मर्शिन:।''' </blockquote><blockquote>अर्थात तुम्हें कर्तव्य करने में या सदाचार के विषय में कुछ शंका हो तो उस विषय के ज्ञानी व्यक्ति से मार्गदर्शन प्राप्त करो।</blockquote><blockquote>'''युक्ता आयुक्ता:। अलूक्षा धर्मकामा: स्यू:। यथा ते तेषु वर्तेरन्। तथा ते तेषु वर्तेथा:। एष आदेश:। एष उपदेश:। एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्। एवमु चैतदुपास्यम्।'''</blockquote><blockquote>अर्थात किसी दोष से लांछित मनुष्य के साथ बर्ताव करने में शंका निर्माण हो जाए तो भी वहाँ जो परामर्श देने में कुशल, उत्तम कर्म और सदाचार में रत, स्निग्ध स्वभाव वाले, एकमात्र धर्म के अभिलाषी ऐसे जो ब्राह्मण जैसा बर्ताव करते हैं तुम्हें भी वैसा ही बर्ताव करना चाहिये। यही शास्त्र की आज्ञा है। यही गुरुजनों का उपदेश है। यही वेद और उपनिषदों का आदेश है। यही परंपरागत शिक्षा है। इसी प्रकार से तुम्हें अनुष्ठान करना चाहिये।</blockquote><blockquote>समावर्तन सन्देश एक तरह से भारतीय शिक्षण शास्त्रीय दृष्टि का सार है।</blockquote>
सत्यं वद। यनि सदैव सत्य बोलो।  
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धर्मंचर। धर्म के अनुसार आचरण करो।  
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स्वाध्यायान्मा प्रमद:। आजीवन अपनी रुचि के विषय के माध्यम से मोक्षगामी कैसे हुआ जा सकता है इस ढँग से अध्ययन करो।  
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आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य। याने आचार्य को गुरुदक्षिणा देते रहो।  
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प्रजातंतुं मा व्यवच्छेत्सी। यनि संतान निर्माण की परंपराको मत तोडो।  
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सत्यान्नप्रमदितव्यं। याने सत्य के पथ से कभी डिगो नहीं। धर्मान्नप्रमदितव्यं। याने कभी भी धर्माचरण से मत डिगो।  
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कुशलान्नप्रमदितव्यं। याने शुभ कर्म करने से कभी नहीं चूको।  
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भूत्यैन्नप्रमदितव्यं। भौतिक उन्नति करते रहो।  
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स्वाध्यायप्रवचनाभ्यान्नप्रमदितव्यं। याने अपनी रुचि के विषय में पूर्व में प्राप्त ज्ञान में स्वाध्याय से वृद्धि करो और यह वृध्दिंगत ज्ञान अगली पीढी को अंतरित करो।  
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देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यं। याने देवताओं के याने पृथ्वि, अग्नि, वायू, वरूण आदि पर्यावरण के विषय में और पितरों के प्रति याने समाज के प्रति अपने कर्तव्यों से कभी न चूको।  
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आगे कहा है
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मातृदेवो भव। याने तुम माता में देवबुद्धि रखनेवाले बनों।  
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पितृदेवो भव। याने तुम पिता में देवबुद्धि रखनेवाले बनो। आचार्य देवो भव यानी आचार्यों में देवबुद्धि रखो। अतिथिदेवो भव। याने तुम अतिथि में देवबुद्धि रखनेवाले बनो।  
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यन्यनववद्यनि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि। याने जो जो अच्छे आचरण हैं उनका तुम सेवन करो। अन्य किसी का सेवन न करो याने बुरे कर्म कभी नहीं करो।  
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यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि। नो इतराणि। याने हमारे भी जो अच्छे कर्म हैं उन्हीं का अनुसरण करो। हमारे भी जो कर्म अच्छे नहीं हैं उनका अनुसरण न करो।  
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ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणा:। तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यं। याने जो अपने से या हमसे श्रेष्ठ हैं उन्हें आसन आदि देकर, उनका आदर सत्कार करना चाहिये। दान देना चाहिये।  
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श्रध्दया देयम्। अश्रध्दयाऽदेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भ्रिया देयम्। संविदा देयम्। याने दान भी श्रध्दा से दो अश्रध्दा से दान न दो। श्रिया याने आर्थिक स्थिति के अनुसार दो। लज्जा से दो, भय से दो लेकिन दान दो। जो कुछ भी दान दो वह विवेक से दो।
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आगे और कहा है –  
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अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सावा स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणा: सम्मर्शिन:। याने तुम्हें कर्तव्य करने में या सदाचारके विषय में कुछ शंका हो तो उस विषय के ज्ञानी व्यक्ति से मार्गदर्शन प्राप्त करो।  
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युक्ता आयुक्ता:। अलूक्षा धर्मकामा: स्यू:। यथा ते तेषु वर्तेरन्। तथा ते तेषु वर्तेथा:। एष आदेश:। एष उपदेश:। एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्। एवमु चैतदुपास्यम्। याने किसी दोष से लांछित मनुष्य के साथ बर्ताव करने में शंका निर्माण हो जाए तो भी वहाँ जो परामर्श देने में कुशल, उत्तम कर्म और सदाचार में रत, स्निग्ध स्वभाववाले, एकमात्र धर्म के अभिलाषी ऐसे जो ब्राह्मण जैसा बर्ताव करते हैं तुम्हें भी वैसा ही बर्ताव करना चाहिये। यही शास्त्र की आज्ञा है। यही गुरुजनों का उपदेश है। यही वेद और उपनिषदों का आदेश है। यही परंपरागत शिक्षा है। इसी प्रकार से तुम्हें अनुष्ठान करना चाहिये।
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समावर्तन सन्देश एक तरह से भारतीय शिक्षण शास्त्रीय दृष्टि का सार है।
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[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
 
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