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== शासन की भूमिका ==
 
== शासन की भूमिका ==
शासन समाज का मालिक नहीं होता। शासन व्यवस्था यह राष्ट्र के याने राष्ट्रीय समाज के सुचारू रूप से चले इस दृष्टि से दुर्जनों और मूर्खों से संरक्षण की व्यवस्था मात्र होती है। शासन का काम श्रेष्ठ शिक्षा को याने शिक्षकों और विद्याकेंद्रों को सुरक्षा, सहायता और समर्थन देने का है।
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शासन समाज का मालिक नहीं होता। शासन व्यवस्था, राष्ट्र के याने राष्ट्रीय समाज के सुचारू रूप से चले इस दृष्टि से दुर्जनों और मूर्खों से संरक्षण की व्यवस्था मात्र होती है। शासन का काम श्रेष्ठ शिक्षा को याने शिक्षकों और विद्याकेंद्रों को सुरक्षा, सहायता और समर्थन देने का है।
    
== भारतीय शिक्षा के मूलतत्व ==
 
== भारतीय शिक्षा के मूलतत्व ==
२०वीं सदी तक भारत में शिक्षा का स्वरूप गुरुगृहवास के साथ जुड़ा हुआ था। गुरु के घर के काम करते करते बच्चे जीने की शिक्षा पाते थे। प्रत्यक्ष गणित, इतिहास आदि विषयों के सिखाने की हर शिक्षक की अपनी अपनी पद्धति हुआ करती थी। और यह पद्धति भी हर विद्यार्थी के अनुसार भिन्न हुआ करती थी। अध्येता की जीवन्तता को ध्यान में रखकर शिक्षा लेने और देने का काम होता था। यांत्रिकता को स्थान नहीं था। जीवन में अनंत प्रकार की विविधता होती है। हर बच्चे के पंचकोशों की क्षमताओं और विकास की संभावनाओं की असीम विविधता ध्यान में रखकर शिक्षक को बच्चे को शिक्षित करना होता है। और शिक्षा जैसी होती है समाज भी वैसा ही बनता है। इसे ध्यान में रखकर हमारे पूर्वजोंने एक श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया था। इस शिक्षा व्यवस्था के मोटे मोटे सूत्र निम्न होते हैं।
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२०वीं सदी तक भारत में शिक्षा का स्वरूप गुरुगृहवास के साथ जुड़ा हुआ था। गुरु के घर के काम करते करते बच्चे जीने की शिक्षा पाते थे। प्रत्यक्ष गणित, इतिहास आदि विषयों के सिखाने की हर शिक्षक की अपनी अपनी पद्धति हुआ करती थी। और यह पद्धति भी हर विद्यार्थी के अनुसार भिन्न हुआ करती थी। अध्येता की जीवन्तता को ध्यान में रखकर शिक्षा लेने और देने का काम होता था। यांत्रिकता को स्थान नहीं था। जीवन में अनंत प्रकार की विविधता होती है। हर बच्चे के पंचकोशों की क्षमताओं और विकास की संभावनाओं की असीम विविधता ध्यान में रखकर शिक्षक को बच्चे को शिक्षित करना होता है। और शिक्षा जैसी होती है समाज भी वैसा ही बनता है। इसे ध्यान में रखकर हमारे पूर्वजों ने एक श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया था। इस शिक्षा व्यवस्था के मोटे मोटे सूत्र निम्न होते हैं:
१.  शिक्षा यह क्रय विक्रय की वस्तू नहीं है। समाज के हर बालक को उस की योग्यता और क्षमता के अनुसार शिक्षा प्राप्त हो यह सामाजिक जिम्मेदारी है। समाज के प्रत्येक घटक की जिम्मेदारी है। इसीलिए भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अन्न और औषधि के साथ ही शिक्षा नि:शुल्क ही हुआ करती थी। शिक्षा नि:शुल्क ही होनी चाहिए।
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# शिक्षा क्रय विक्रय की वस्तू नहीं है। समाज के हर बालक को उस की योग्यता और क्षमता के अनुसार शिक्षा प्राप्त हो यह सामाजिक जिम्मेदारी है। समाज के प्रत्येक घटक की जिम्मेदारी है। इसीलिए भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अन्न और औषधि के साथ ही शिक्षा नि:शुल्क ही हुआ करती थी। शिक्षा नि:शुल्क ही होनी चाहिए।
२. ज्ञानी, समर्पित, कुशल शिक्षक को ऐश्वर्य तो नहीं मिलता था लेकिन उसे अपनी आजीविका की चिंता भी नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षक की आजीविका की जिम्मेदारी समाज की है। शासन भी समाज का ही एक हिस्सा होता है। शिक्षक के माँगे बिना ही उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज ने करनी होती है। गुरुदक्षिणा, समित्पाणिता, दान, भिक्षा आदि के माध्यम से समाज को अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए।  
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# ज्ञानी, समर्पित, कुशल शिक्षक को ऐश्वर्य तो नहीं मिलता था लेकिन उसे अपनी आजीविका की चिंता भी नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षक की आजीविका की जिम्मेदारी समाज की है। शासन भी समाज का ही एक हिस्सा होता है। शिक्षक के माँगे बिना ही उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज को करनी होती है। गुरुदक्षिणा, समित्पाणिता, दान, भिक्षा आदि के माध्यम से समाज को अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए।
३. मानव कोई यंत्र से उत्पादन की हुई वस्तू नहीं है। मानव एक जिवंत ईकाई है। इसलिये शिक्षा एक जीवमान प्रक्रिया है। हर बालक को उसकी अन्यों से भिन्नता को समझकर उसके और सभी के हित की दृष्टि से ढालने की प्रक्रिया है। इसलिए हर बालक के लिये शिक्षा की प्रक्रिया एक जैसी नहीं होगी।
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# मानव कोई यंत्र से उत्पादन की हुई वस्तू नहीं है। मानव एक जीवंत ईकाई है। इसलिये शिक्षा एक जीवमान प्रक्रिया है। हर बालक को उसकी अन्यों से भिन्नता को समझकर उसके और सभी के हित की दृष्टि से ढालने की प्रक्रिया है। इसलिए हर बालक के लिये शिक्षा की प्रक्रिया एक जैसी नहीं होगी।
४. हर बालक के ज्ञानार्जन के कारणों (साधनों) का विकास आयु की अवस्था के अनुसार होता है। इसी तरह ज्ञानार्जन की या शिक्षा की प्रक्रिया भी आयु की अवस्था के अनुसार भिन्न होती है।
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# हर बालक के ज्ञानार्जन के कारणों (साधनों) का विकास आयु की अवस्था के अनुसार होता है। इसी तरह ज्ञानार्जन की या शिक्षा की प्रक्रिया भी आयु की अवस्था के अनुसार भिन्न होती है।
५. शिक्षा मुख्यत: ज्ञानार्जन, कौशालार्जन, बलार्जन, गुनार्जन के लिये होती है। अर्थार्जन याने पैसा कमाना यह तो उसका आनुषंगिक लाभ है। यह भी जीवन के लिये महत्वपूर्ण होता है। लेकिन अन्य बातों के अर्जन से अर्थार्जन तो सहज ही किया जा सकता है।
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# शिक्षा मुख्यत: ज्ञानार्जन, कौशालार्जन, बलार्जन, गुनार्जन के लिये होती है। अर्थार्जन याने पैसा कमाना यह तो उसका आनुषंगिक लाभ है। यह भी जीवन के लिये महत्वपूर्ण होता है। लेकिन अन्य बातों के अर्जन से अर्थार्जन तो सहज ही किया जा सकता है।
६. अध्ययन यह शिक्षा की मूल प्रक्रिया है। अध्यापन यह तो अध्ययन की प्रक्रिया का प्रेरक रूप ही है। अध्ययन तो अध्यापन के बगैर भी हो सकता है। लेकिन बिना अध्ययनकर्ता के कोई अध्यापन संभव नहीं होता। इसलिए शिक्षा अच्छी होने के लिये बालक का विद्यार्थी होना अनिवार्य है। हर बालक प्रारंभ से ही विद्यार्थी नहीं होता। उसे विद्यार्थी बनाना यह माता-पिता की प्राथमिक और बाद में शिक्षक की जिम्मेदारी है।
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# अध्ययन शिक्षा की मूल प्रक्रिया है। अध्यापन तो अध्ययन की प्रक्रिया का प्रेरक रूप ही है। अध्ययन तो अध्यापन के बगैर भी हो सकता है। लेकिन बिना अध्ययनकर्ता के कोई अध्यापन संभव नहीं होता। इसलिए शिक्षा अच्छी होने के लिये बालक का विद्यार्थी होना अनिवार्य है। हर बालक प्रारंभ से ही विद्यार्थी नहीं होता। उसे विद्यार्थी बनाना यह माता-पिता की प्राथमिक और बाद में शिक्षक की जिम्मेदारी है।
७. बालक को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में और साथ ही में समाज को भी निकट से देखनेवाला शिक्षक जैसा अन्य घटक नहीं होता। इसीलिये शिक्षा श्रेष्ठ तब ही बन सकती है जब शिक्षा शिक्षक के अधीन रहे। शिक्षक धर्मनिष्ठ रहे, समाजनिष्ठ रहे, राष्ट्रनिष्ठ रहे और शिक्षा शिक्षकाधिष्ठित रहे यही भारतीय परंपरा है। जब शिक्षा शिक्षकाधिष्ठीत होती है शिक्षा को स्वायत्त कहा जाता है। क्यों की शिक्षक ही शिक्षा का मूर्तिमंत स्वरूप  होता है। राजा शिक्षा नियंत्रक तो प्रजा में अराजक।  
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# बालक को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में और साथ ही में समाज को भी निकट से देखनेवाला शिक्षक जैसा अन्य घटक नहीं होता। इसीलिये शिक्षा श्रेष्ठ तब ही बन सकती है जब शिक्षा शिक्षक के अधीन रहे। शिक्षक धर्मनिष्ठ रहे, समाजनिष्ठ रहे, राष्ट्रनिष्ठ रहे और शिक्षा शिक्षकाधिष्ठित रहे यही भारतीय परंपरा है। जब शिक्षा शिक्षकाधिष्ठीत होती है शिक्षा को स्वायत्त कहा जाता है। क्योंकि शिक्षक ही शिक्षा का मूर्तिमंत स्वरूप  होता है। राजा शिक्षा नियंत्रक तो प्रजा में अराजक।  
८. केवल शिक्षक के अधीन होने से शिक्षा श्रेष्ठ नहीं बनती। उसके लिये शिक्षक का ज्ञानी, कुशल, श्रेष्ठ समाज निर्माण के लिये समर्पित राष्ट्रनिष्ठ, शिक्षानिष्ठ और विद्यार्थीनिष्ठ होना भी आवश्यक है।
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# केवल शिक्षक के अधीन होने से शिक्षा श्रेष्ठ नहीं बनती। उसके लिये शिक्षक का ज्ञानी, कुशल, श्रेष्ठ समाज निर्माण के लिये समर्पित राष्ट्रनिष्ठ, शिक्षानिष्ठ और विद्यार्थीनिष्ठ होना भी आवश्यक है।
९. मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। इसलिये मूलत: वह सर्वज्ञानी है। अपने आप में पूर्ण है। लेकिन देहभाव के कारण वह अपने को कुछ भिन्न मानता है। मनुष्य को उसके देहभाव से मुक्त करना ही शिक्षा का काम है। समाज के साथ और आगे जड़-चेतन पर्यावरण के साथ आत्मीयता की भावना और व्यवहार का विकास ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है। यही व्यक्ति के समग्र विकास की भारतीय संकल्पना है।
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# मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। इसलिये मूलत: वह सर्वज्ञानी है। अपने आप में पूर्ण है। लेकिन देहभाव के कारण वह अपने को कुछ भिन्न मानता है। मनुष्य को उसके देहभाव से मुक्त करना ही शिक्षा का काम है। समाज के साथ और आगे जड़-चेतन पर्यावरण के साथ आत्मीयता की भावना और व्यवहार का विकास ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है। यही व्यक्ति के समग्र विकास की भारतीय संकल्पना है।
१०. मन बहुत चंचल होता है। इसे स्थिर किया जा सकता है। मन अनेकाग्र होता है। सदैव भटकता रहता है। इसे एकाग्र किया जा सकता है। मन महा-बलवान होता है। इसे नियंत्रण में लाया जा सकता है। मन द्वंद्वात्मक होता है। इसे निर्द्वंद्व किया जा सकता है। मन विकारों से ग्रस्त होता है। इसे विकारों से मुक्त किया जा सकता है। विषयों से आसक्ति मन का स्वभाव है। इसे अनासक्त बनाया जा सकता है। मन बुद्धिपर और विषयों के गुलाम इन्द्रिय मनपर नियंत्रण करते हैं तब अनर्थ होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में लाने के लिये ही शिक्षा होती है। इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे मन को नियंत्रण में रखना ही शिक्षा का मुख्य पहलू है।  
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# मन बहुत चंचल होता है। इसे स्थिर किया जा सकता है। मन अनेकाग्र होता है। सदैव भटकता रहता है। इसे एकाग्र किया जा सकता है। मन महा-बलवान होता है। इसे नियंत्रण में लाया जा सकता है। मन द्वंद्वात्मक होता है। इसे निर्द्वंद्व किया जा सकता है। मन विकारों से ग्रस्त होता है। इसे विकारों से मुक्त किया जा सकता है। विषयों से आसक्ति मन का स्वभाव है। इसे अनासक्त बनाया जा सकता है। मन बुद्धि पर और विषयों के गुलाम इन्द्रिय मन पर नियंत्रण करते हैं तब अनर्थ होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में लाने के लिये ही शिक्षा होती है। इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे मन को नियंत्रण में रखना ही शिक्षा का मुख्य पहलू है।
११. मनुष्य के पास मन, बुद्धि, चित्त आदि अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यंत विकासशील होते हैं। पशु पक्षी और प्राणियों में इनका स्तर बहुत निम्न होता है। अन्य योनियाँ भोग योनियाँ हैं। केवल मनुष्य योनि ही कर्मयोनि है। कर्म योनि का अर्थ है जो अपने मन बुद्धि के अनुसार कर्म करने के लिये स्वतन्त्र है। इसीलिये केवल मनुष्य को ही शिक्षा की आवश्यकता होती है।  
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# मनुष्य के पास मन, बुद्धि, चित्त आदि अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यंत विकासशील होते हैं। पशु पक्षी और प्राणियों में इनका स्तर बहुत निम्न होता है। अन्य योनियाँ भोग योनियाँ हैं। केवल मनुष्य योनि ही कर्मयोनि है। कर्म योनि का अर्थ है जो अपने मन बुद्धि के अनुसार कर्म करने के लिये स्वतन्त्र है। इसीलिये केवल मनुष्य को ही शिक्षा की आवश्यकता होती है।
१२. ज्ञानार्जन के लिये सात्विक होना बहुत उपयोगी होता है। अन्न के अति सूक्ष्म हिस्से से मन बनता है। बुद्धि बनती है। सात्विक अन्न खाने से ही सात्विकता निर्माण होती है। इसलिये विद्यार्थी दशा में सात्विक अन्न ही खाना चाहिए।
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# ज्ञानार्जन के लिये सात्विक होना बहुत उपयोगी होता है। अन्न के अति सूक्ष्म हिस्से से मन बनता है। बुद्धि बनती है। सात्विक अन्न खाने से ही सात्विकता निर्माण होती है। इसलिये विद्यार्थी दशा में सात्विक अन्न ही खाना चाहिए।
१३. किसी बात को बारबार करने से जब उसके करने में सहजता आती है तब उस बात का संस्कार हो जाता है।
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# किसी बात को बार बार करने से जब उसके करने में सहजता आती है तब उस बात का संस्कार हो जाता है।
१४. शिक्षा के तीन पहलू हैं। भावशिक्षा याने सदाचार की शिक्षा, कर्म-शिक्षा याने व्यवहार की याने प्रत्यक्ष करने की शिक्षा और शास्त्र शिक्षा याने व्यवहार के सैद्धांतिक पक्ष की शिक्षा। जबतक सदाचार की और प्रत्यक्ष व्यवहार की शिक्षा बालक प्राप्त नहीं करता तबतक वह शास्त्रीय शिक्षा का अधिकारी नहीं बनता। अच्छे बनने की याने सदाचार की शिक्षा तो सभी के लिये अनिवार्य है।
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# शिक्षा के तीन पहलू हैं। '''भाव-शिक्षा''' अर्थात सदाचार की शिक्षा, '''कर्म-शिक्षा''' अर्थात व्यवहार की, प्रत्यक्ष करने की शिक्षा और '''शास्त्र-शिक्षा''' अर्थात व्यवहार के सैद्धांतिक पक्ष की शिक्षा। जब तक सदाचार की और प्रत्यक्ष व्यवहार की शिक्षा बालक प्राप्त नहीं करता तब तक वह शास्त्रीय शिक्षा का अधिकारी नहीं बनता। अच्छे बनने की याने सदाचार की शिक्षा तो सभी के लिये अनिवार्य है।
१५. शिक्षा यह जन्मा-जन्मान्तर चलनेवाली प्रक्रिया है। इस जन्म में यह जन्म से मृत्युपर्यंत चलती है। आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा के तीन हिस्से बनते हैं। कुटुम्ब शिक्षा, विद्याकेन्द्र शिक्षा और लोकशिक्षा। धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा कुटुम्ब में, शास्त्र शिक्षा विद्याकेंद्रों में और लोकशिक्षा समाज में होती है।  
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# शिक्षा जन्म-जन्मान्तर चलने वाली प्रक्रिया है। एक जन्म में यह जन्म से मृत्युपर्यंत तक चलती है। आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा के तीन हिस्से बनते हैं। कुटुम्ब शिक्षा, विद्याकेन्द्र शिक्षा और लोकशिक्षा। धर्म-शिक्षा और कर्म-शिक्षा कुटुम्ब में, शास्त्र-शिक्षा विद्याकेंद्रों में और लोक-शिक्षा समाज में होती है।
१६. समाज में धर्म सर्वोपरि है। शिक्षा का काम धर्माचरण सिखाना है। शिक्षा धर्म की प्रतिनिधि होती है।
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# समाज में धर्म सर्वोपरि है। शिक्षा का काम धर्माचरण सिखाना है। शिक्षा धर्म की प्रतिनिधि होती है।
१७. वर्तमान में सभी विषयों की विषय वस्तू का स्वरूप राजनीतिक होता है। हारत में धर्म सर्वोपरि होने से विषयवस्तु धर्म सुसंगत ही होनी चाहिए।
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# वर्तमान में सभी विषयों की विषय वस्तू का स्वरूप राजनीतिक है। भारत में धर्म सर्वोपरि होने से विषयवस्तु धर्म सुसंगत ही होनी चाहिए।
१८. सामान्यत: बालक के ज्ञानार्जन के करणों का संभाव्य विकास लगभग १५ वर्ष की आयुतक पूरा हो जाता है। इसीलिये इस आयुतक शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन के करणों का विकास यह होता है। विविध विषयों की विषयवस्तु इस विकास के साधन के रूप में होती है। १६ वर्ष की आयु से विकसित ज्ञानार्जन के करण साधन बन जाते हैं और विषय का अध्ययन साध्य बन जाता है।
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# सामान्यत: बालक के ज्ञानार्जन के करणों का संभाव्य विकास लगभग १५ वर्ष की आयुतक पूरा हो जाता है। इसीलिये इस आयु तक शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन के करणों का विकास करना होता है। विविध विषयों की विषयवस्तु इस विकास के साधन के रूप में होती है। १६ वर्ष की आयु से विकसित ज्ञानार्जन के करण साधन बन जाते हैं और विषय का अध्ययन साध्य बन जाता है।
१७. शासन की या अभिभावकों की अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए शिक्षा नहीं होती। शिक्षा होती है उन्हें शिक्षा से किस प्रकार की अपेक्षा रखनी चाहिए यह सिखाने के लिये।
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# शासन की या अभिभावकों की अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए शिक्षा नहीं होती। शिक्षा होती है उन्हें शिक्षा से किस प्रकार की अपेक्षा रखनी चाहिए यह सिखाने के लिये।
१८. जिस देश में शिक्षक की प्रतिष्ठा सबसे ऊपर होती है वह देश या समाज विश्व में सबसे अधिक प्रतिष्ठित होता है। यह प्रतिष्ठा शिक्षक को अपने ज्ञान, कौशल, लोकसंग्रह, समर्पण भाव आदि से अर्जित करनी होती है।  
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# जिस देश में शिक्षक की प्रतिष्ठा सबसे ऊपर होती है वह देश या समाज विश्व में सबसे अधिक प्रतिष्ठित होता है। यह प्रतिष्ठा शिक्षक को अपने ज्ञान, कौशल, लोकसंग्रह, समर्पण भाव आदि से अर्जित करनी होती है।
१९. कहा गया है - माता प्रथमो गुरु:, पिता द्वितीय:। और भी कहा गया है – लालयेत पञ्चवर्षाणी दशवर्षाणी ताडयेत्। जन्म से पांच वर्षतक माता ही बच्चे की पहली गुरु होती है। पिता दूसरा गुरु होता है। इस आयु में बच्चे को अच्छी आदतें लगाना, उसकी रूचि को पहचानना, उसके इन्द्रियों का श्रेष्ठतम विकास करना इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी माँकी होती है। दुसरे क्रमांकपर यह जिम्मेदारी पिता की है। बालक की रूचि ध्यान में लेकर योग्य गुरु के पास उसे ले जाना पिता की जिम्मेदारी है।
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# कहा गया है - माता प्रथमो गुरु:, पिता द्वितीय:। और भी कहा गया है – लालयेत पञ्चवर्षाणी दशवर्षाणी ताडयेत्। जन्म से पांच वर्ष तक माता ही बच्चे की पहली गुरु होती है। पिता दूसरा गुरु होता है। इस आयु में बच्चे को अच्छी आदतें लगाना, उसकी रूचि को पहचानना, उसके इन्द्रियों का श्रेष्ठतम विकास करना इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी माँ की होती है। दुसरे क्रमांक पर यह जिम्मेदारी पिता की है। बालक की रूचि ध्यान में लेकर योग्य गुरु के पास उसे ले जाना पिता की जिम्मेदारी है।
२०.धर्म की शिक्षा देनेवाले श्रेष्ठ शिक्षा केन्द्रों को सहायता (संसाधन आदि), संरक्षण और समर्थन देना शासन की जिम्मेदारी है। विपरीत शिक्षा या असामाजिक या अधार्मिक तत्वों को शिक्षा क्षेत्र से दूर रखना भी शासन की जिम्मेदारी है।
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# धर्म की शिक्षा देनेवाले श्रेष्ठ शिक्षा केन्द्रों को सहायता (संसाधन आदि), संरक्षण और समर्थन देना शासन की जिम्मेदारी है। विपरीत शिक्षा या असामाजिक या अधार्मिक तत्वों को शिक्षा क्षेत्र से दूर रखना भी शासन की जिम्मेदारी है।
२१. मानव के व्यक्तित्व के मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इन घटकों की शिक्षा का श्रेष्ठ साधन अष्टांग योग की शिक्षा है। अष्टांग योग में से पहले पांच चरणों की याने बहिरंग योग की शिक्षा बालक के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है।  
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# मानव के व्यक्तित्व के मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इन घटकों की शिक्षा का श्रेष्ठ साधन अष्टांग योग की शिक्षा है। अष्टांग योग में से पहले पांच चरणों की याने बहिरंग योग की शिक्षा बालक के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है।
२२.अनध्ययन के दिनों में मन अस्थिर हो जाता है। इसलिये प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पोर्णिमा इन अनध्ययन के दिनों में अध्ययन टालना चाहिए।  
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# अनध्ययन के दिनों में मन अस्थिर हो जाता है। इसलिये प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा इन अनध्ययन के दिनों में अध्ययन टालना चाहिए।  
२३.मानव एक जिवंत ईकाई है, यंत्र नहीं। शिक्षा भी एक जैविक प्रक्रिया है, यांत्रिक नहीं। इसलिये शिक्षा को समयबद्ध घंटों में बांधना योग्य नहीं है। घंटी बजाकर एक विषय बंद कर दूसरा विषय शुरू करने के लिये मनुष्य कोई बिजली का खटका (स्विच) नहीं होता। इसे ध्यान में रखकर अध्ययन/ अध्यापन की रचना करनी चाहिए। बालक कोई मन, बुद्धि विहीन वस्तू नहीं होता। बालक घोडा भी नहीं होता जो सब घोड़े बारा टके की तरह उससे व्यवहार हो या सब्जी भी नहीं होता जो बीस रूपया किलो की दर से बेची जाए। परीक्षा की, मूल्याङ्कन की एक ही पट्टी से सभी बच्चों को नापा नहीं जा सकता। शिक्षा में यांत्रिकता शिक्षा को अक्षम बना देती है।
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# मानव एक जीवंत ईकाई है, यंत्र नहीं। शिक्षा भी एक जैविक प्रक्रिया है, यांत्रिक नहीं। इसलिये शिक्षा को समयबद्ध घंटों में बांधना योग्य नहीं है। घंटी बजाकर एक विषय बंद कर दूसरा विषय शुरू करने के लिये मनुष्य कोई बिजली का खटका (स्विच) नहीं होता। इसे ध्यान में रखकर अध्ययन/ अध्यापन की रचना करनी चाहिए। बालक कोई मन, बुद्धि विहीन वस्तू नहीं होता। परीक्षा की, मूल्याङ्कन की एक ही पट्टी से सभी बच्चों को नापा नहीं जा सकता। शिक्षा में यांत्रिकता शिक्षा को अक्षम बना देती है।
२४.अध्ययन का विकसित स्तर ही अध्यापन का स्तर होता है। जब किसी विषय में मेरा ज्ञान इतना श्रेष्ठ बन जाता है की मुझे लगने लगता है की अब मैं बताऊंगा तो लोग सुनेंगे तब में अध्यापक बन जाता हूँ। शिक्षक की नियुक्ति एक श्रेष्ठ शिक्षक ही कर सकता है। अन्य कोई नहीं। जब शिक्षक अध्ययन करना छोड़ देता है, समझो अब वह शिक्षक नहीं रहा। शिक्षक के लिए सदैव अध्येता बने रहना आवश्यक है।
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# अध्ययन का विकसित स्तर ही अध्यापन का स्तर होता है। जब किसी विषय में मेरा ज्ञान इतना श्रेष्ठ बन जाता है कि मुझे लगने लगता है कि अब मैं बताऊंगा तो लोग सुनेंगे, तब मैं अध्यापक बन जाता हूँ। शिक्षक की नियुक्ति एक श्रेष्ठ शिक्षक ही कर सकता है। अन्य कोई नहीं। जब शिक्षक अध्ययन करना छोड़ देता है, समझो अब वह शिक्षक नहीं रहा। शिक्षक के लिए सदैव अध्येता बने रहना आवश्यक है।
२५.जानकारी ग्रहण करना, जानकारी के अर्थ को समझना, जानकारी का उपयोग कैसे करना चाहिए इसपर चिंतन करना याने ज्ञान प्राप्त करना, प्रयोग कर अपने चिंतन से उपजे ज्ञान की पुष्टि करना और सबसे अंत में ज्ञान का औरों को अन्तरण करना। यही अध्ययन की प्रक्रिया है।
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# जानकारी ग्रहण करना, जानकारी के अर्थ को समझना, जानकारी का उपयोग कैसे करना चाहिए इसपर चिंतन करना याने ज्ञान प्राप्त करना, प्रयोग कर अपने चिंतन से उपजे ज्ञान की पुष्टि करना और सबसे अंत में ज्ञान का औरों को अन्तरण करना। यही अध्ययन की प्रक्रिया है।
२६.शैक्षिक व्यवस्थाओं के विषय में निर्णय की कसौटी का महत्त्वक्रम निम्न होना चाहिए। स्वास्थ्यप्रद होना, सुविधाजनक होना, सस्ती होना और सब से अंत में सुन्दर/शोभादायक होना।
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# शैक्षिक व्यवस्थाओं के विषय में निर्णय की कसौटी का महत्त्वक्रम निम्न होना चाहिए। स्वास्थ्यप्रद होना, सुविधाजनक होना, सस्ती होना और सब से अंत में सुन्दर/शोभादायक होना।
२७.श्रेष्ठ अध्यापन का वर्णन इस प्रकार किया जाता है –
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# श्रेष्ठ अध्यापन का वर्णन इस प्रकार किया जाता है– चित्रम् वटम् तरोर्मूले वृद्ध: शिष्य: गुरोर्युवा।। गुरोऽस्तु मौनम् व्याख्यानम् शिष्य: छिनना संशय: ।। अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं। सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं। गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है। और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है।
चित्रम् वटम् तरोर्मूले वृद्ध: शिष्य: गुरोर्युवा ।।
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# गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है। गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अब तक विकसित नहीं हुई है।
गुरोऽस्तु मौनम् व्याख्यानम् शिष्य: छिनना संशय: ।।
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# शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु फिर भी वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्व) निष्ठ होती है।
अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं। सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं। गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है। और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है।
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# बच्चे के स्वधर्म को जानने की और उसके स्वधर्म के अनुसार उसे समाज के लिये उपयुक्त बनाने के लिये संस्कार और शिक्षा होते हैं।
२८.गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है। गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अबतक विकसित नहीं हुई है।
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# बच्चे को उसके स्वधर्म के अनुसार व्यवसाय और अर्थार्जन की विधा का चयन करने की प्रेरणा देना माता पिता और शिक्षक का काम है।
२९.शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु फिर भी वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्व) निष्ठ होती है।
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# आश्रम व्यवस्था के वानप्रस्थी और संन्यासियों की जिम्मेदारी लोकशिक्षा की अर्थात् धर्म के प्रचार और प्रसार की है।
३०.बच्चे के स्वधर्म को जानने की और उसके स्वधर्म के अनुसार उसे समाज के लिये उपयुक्त बनाने के लिये संस्कार और शिक्षा होते हैं।
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# जब अधिकांश (९५ प्रतिशत) लोग स्वेच्छा से धर्म पालन करते है तब शिक्षा अच्छी है ऐसा माना जाएगा।
३१.बच्चे को उसके स्वधर्म के अनुसार व्यवसाय और अर्थार्जन की विधा का चयन करने की प्रेरणा देना माता पिता और शिक्षक का काम है।  
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३२.आश्रम व्यवस्था के वानप्रस्थी और संन्यासियों की जिम्मेदारी लोकशिक्षा की अर्थात् धर्म के प्रचार और प्रसार की है।
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३३.जब अधिकांश (९५ प्रतिशत) लोग स्वेच्छा से धर्म पालन करते है तब शिक्षा अच्छी है ऐसा माना जाएगा।
      
== समावर्तन संदेश ==
 
== समावर्तन संदेश ==
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