| ## विवेक की शिक्षा या ‘विचार कैसे करना’ – इस की शिक्षा : सामान्यत: बुद्धि सत्यान्वेषी ही होती है। वह मनुष्य के विवेक को जाग्रत करती है। गलत काम करने से रोकती है। ऐसे समय इन्द्रियों की सुख की लालसा से प्रभावित मन इस बुद्धि को गलत दिशा में ले जाता है। विवेक की शिक्षा या विचार कैसे करना इस की शिक्षा से तात्पर्य मन को बुद्धि पर हावी न होने देने की मन को बुद्धि का अनुगामी बने रहने की शिक्षा से है। विचार कैसे करना चाहिए इस विषय में हमने [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|इस]] अध्याय खंड १ में सीखा है। | | ## विवेक की शिक्षा या ‘विचार कैसे करना’ – इस की शिक्षा : सामान्यत: बुद्धि सत्यान्वेषी ही होती है। वह मनुष्य के विवेक को जाग्रत करती है। गलत काम करने से रोकती है। ऐसे समय इन्द्रियों की सुख की लालसा से प्रभावित मन इस बुद्धि को गलत दिशा में ले जाता है। विवेक की शिक्षा या विचार कैसे करना इस की शिक्षा से तात्पर्य मन को बुद्धि पर हावी न होने देने की मन को बुद्धि का अनुगामी बने रहने की शिक्षा से है। विचार कैसे करना चाहिए इस विषय में हमने [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|इस]] अध्याय खंड १ में सीखा है। |
| # शिक्षक: शिक्षक धर्मनिष्ठ हो। धर्म का जानकार हो। धर्म सिखाने की क्षमता और कौशल जिस के पास है ऐसा हो। धर्माचरण सिखाने के साथ ही विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन के लिये मार्गदर्शन की शिक्षक की क्षमता हो। शिष्य को अपनी संतान मानकर उसे शिक्षित करने में कोई कमी नहीं रखनेवाला ही श्रेष्ठ शिक्षक होता है। गुरू से शिष्य सवाई-परंपरा का निर्माण : विवेक, ज्ञान, बल, श्रध्दा, कौशल आदि सभी बातों में गुरू से शिष्य सवाई बने ऐसा प्रयास होना चाहिये। शिक्षक सर्वप्रथम आचार्य होना चाहिये। | | # शिक्षक: शिक्षक धर्मनिष्ठ हो। धर्म का जानकार हो। धर्म सिखाने की क्षमता और कौशल जिस के पास है ऐसा हो। धर्माचरण सिखाने के साथ ही विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन के लिये मार्गदर्शन की शिक्षक की क्षमता हो। शिष्य को अपनी संतान मानकर उसे शिक्षित करने में कोई कमी नहीं रखनेवाला ही श्रेष्ठ शिक्षक होता है। गुरू से शिष्य सवाई-परंपरा का निर्माण : विवेक, ज्ञान, बल, श्रध्दा, कौशल आदि सभी बातों में गुरू से शिष्य सवाई बने ऐसा प्रयास होना चाहिये। शिक्षक सर्वप्रथम आचार्य होना चाहिये। |
− | ## आचार्य की व्याख्या है: आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत । स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥ अर्थ : जो शास्त्रों का जानकार है, जो शास्त्रों के ज्ञान को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी वैसा आचरण करता है और छात्रों से आचरण करवाता है उसे आचार्य कहते हैं। | + | ## आचार्य की व्याख्या है: आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत । स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥{{Citation needed}} अर्थ : जो शास्त्रों का जानकार है, जो शास्त्रों के ज्ञान को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी वैसा आचरण करता है और छात्रों से आचरण करवाता है उसे आचार्य कहते हैं। |
| ##* जिसे ज्ञानार्जन में आनंद आता है, जो स्वयं भी ज्ञानवान है, श्रध्दा (अपने आपमें, ज्ञान में और विद्यार्थी में) रखता है, विद्यार्थी को अपने पुत्र की भाँति प्रेम करता है, विद्यार्थीप्रिय है, तत्वनिष्ठ है (सौदेबाज नहीं है), समाज को श्रेष्ठ बनाने की जिम्मेदारी मेरी है ऐसा मानने वाला, सभ्य, सुशील, गौरवशील, सुसंस्कृत, मन के विकारों को नियंत्रण में रखता है, सन्मार्गगामी, लालच, भय, खुशामद और निंदा से दूर रहनेवाला आदि। | | ##* जिसे ज्ञानार्जन में आनंद आता है, जो स्वयं भी ज्ञानवान है, श्रध्दा (अपने आपमें, ज्ञान में और विद्यार्थी में) रखता है, विद्यार्थी को अपने पुत्र की भाँति प्रेम करता है, विद्यार्थीप्रिय है, तत्वनिष्ठ है (सौदेबाज नहीं है), समाज को श्रेष्ठ बनाने की जिम्मेदारी मेरी है ऐसा मानने वाला, सभ्य, सुशील, गौरवशील, सुसंस्कृत, मन के विकारों को नियंत्रण में रखता है, सन्मार्गगामी, लालच, भय, खुशामद और निंदा से दूर रहनेवाला आदि। |