Changes

Jump to navigation Jump to search
→‎अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा: लेख सम्पादित किया
Line 34: Line 34:  
* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है।
 
* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है।
 
* अर्थव्यवस्था क्रय-विक्रय की नहीं व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: विद्याकेंद्रों का और इस मानसिकता को दृढ बनाने का काम केंद्रों की शिक्षा व्यवस्था का होता है।
 
* अर्थव्यवस्था क्रय-विक्रय की नहीं व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: विद्याकेंद्रों का और इस मानसिकता को दृढ बनाने का काम केंद्रों की शिक्षा व्यवस्था का होता है।
* संपन्नता और समृध्दि में अन्तर होता है। धन-संचय होने से संपन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं हो तो उसे समृध्दि नहीं कह सकते। धन का कम अधिक होना नहीं , देने की मानसिकता ही व्यक्ति ओर समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक  सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचनेवाला १३२ आम देता था। यह लेखक ने अपने बचपन में प्रत्यक्ष अनुभव की हुई बात है। जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। इसलिए जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। इष्ट गति संकल्पना को जानने के लिए कृपया परिशिष्ट १६ देखें। अर्थ पुरुषार्थ के अन्य महत्त्वपूर्ण बिदू जानने के लिये कृपया अध्याय ३४ “समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि” में देखें। १.६ धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं। - अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म - ऐसी भी धर्म की अत्यंत सरल व्याख्या की गई है। - प्रकृति के नियम धर्म हैं। प्रकृति के नियमों का सब के हित में उपयोग करना संकृति है। सामान्य परिस्थितियों में धर्माचरण की समझ निर्माण करने के लिये धर्मशिक्षा होती है। - इच्छाओं को और प्रयासों को धर्म की सीमा में रखना सिखाना ही धर्म शिक्षा है। - अपने समाज, सृष्टि के विविध घटकों के प्रति कर्तव्यों के अनुसार व्यवहार करना सिखाना धर्मशिक्षा है। - सृष्टि में हर अस्तित्त्व का अपना अपना प्रयोजन है। इस प्रयोजन के अनुसार उसका उपयोग करना धर्म है।   जैसे मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना हुआ है। फिर भी मांसाहार करना अधर्म है। - करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है। ऊपर हमने धर्म का अनुपालन (बिंदू ८) में धर्म के विषय में जिन विविध बिंदुओं को लिखा है उन सबकी शिक्षा धर्मशिक्षा में अपेक्षित है। १.७ मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा : मोक्ष की शिक्षा नहीं होती। साधना होती है। यह व्यक्ति को स्वत: ही करनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रेरणा दी जा सकती है। अष्टांग योग में से बहिरंग योगतक मार्गदर्शन भी किया जा सकता है। लेकिन आगे का मार्ग तो साधना का ही होता है।
+
* संपन्नता और समृध्दि में अन्तर होता है। धन-संचय होने से संपन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं हो तो उसे समृध्दि नहीं कह सकते। धन का कम अधिक होना नहीं, देने की मानसिकता ही व्यक्ति और समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक  सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। जीवन की गति बढ जाने से समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। इसलिए जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। अर्थ पुरुषार्थ के अन्य महत्त्वपूर्ण बिदू जानने के लिये कृपया [[Bharat's Economic Systems (भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि)|यह]] अध्याय देखें।
 +
 
 +
=== धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा ===
 +
इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं:
 +
* अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म - ऐसी धर्म की अत्यंत सरल व्याख्या की गई है।
 +
* प्रकृति के नियम धर्म हैं। प्रकृति के नियमों का सब के हित में उपयोग करना संकृति है। सामान्य परिस्थितियों में धर्माचरण की समझ निर्माण करने के लिये धर्मशिक्षा होती है।
 +
* इच्छाओं को और प्रयासों को धर्म की सीमा में रखना सिखाना ही धर्म शिक्षा है।
 +
* अपने समाज, सृष्टि के विविध घटकों के प्रति कर्तव्यों के अनुसार व्यवहार करना सिखाना धर्मशिक्षा है।
 +
* सृष्टि में हर अस्तित्व का अपना अपना प्रयोजन है। इस प्रयोजन के अनुसार उसका उपयोग करना धर्म है। जैसे मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना हुआ है। इसलिए मांसाहार करना अधर्म है।
 +
* करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है।
 +
 
 +
=== मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा ===
 +
मोक्ष की शिक्षा नहीं होती। साधना होती है। यह व्यक्ति को स्वत: ही करनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रेरणा दी जा सकती है। अष्टांग योग में से बहिरंग योग तक मार्गदर्शन भी किया जा सकता है। लेकिन आगे का मार्ग तो साधना का ही होता है।
    
== शिक्षक ==
 
== शिक्षक ==
शिक्षक धर्मनिष्ठ हो। धर्म का जानकार हो। धर्म सिखाने की क्षमता और कौशल जिस के पास है ऐसा हो।
+
शिक्षक धर्मनिष्ठ हो। धर्म का जानकार हो। धर्म सिखाने की क्षमता और कौशल जिस के पास है ऐसा हो।  
धर्माचरण सिखाने के साथ ही विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन के लिये मार्गदर्शन की शिक्षक की क्षमता हो। शिष्य को अपनी संतान मानकर उसे शिक्षित करने में कोई कमी नहीं रखनेवाला ही श्रेष्ठ शिक्षक होता है। गुरूसे शिष्य सवाई - परंपरा का निर्माण : विवेक, ज्ञान, बल, श्रध्दा, कौशल आदि सभी बातों में गुरू से शिष्य सवाई बने ऐसा प्रयास होना चाहिये।  
+
 
शिक्षक सर्वप्रथम आचार्य होना चाहिये। आचार्य की व्याख्या है -
+
धर्माचरण सिखाने के साथ ही विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन के लिये मार्गदर्शन की शिक्षक की क्षमता हो। शिष्य को अपनी संतान मानकर उसे शिक्षित करने में कोई कमी नहीं रखनेवाला ही श्रेष्ठ शिक्षक होता है।
आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत ।
+
 
स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥
+
गुरू से शिष्य सवाई - परंपरा का निर्माण : विवेक, ज्ञान, बल, श्रध्दा, कौशल आदि सभी बातों में गुरू से शिष्य सवाई बने ऐसा प्रयास होना चाहिये।  
 +
 
 +
शिक्षक सर्वप्रथम आचार्य होना चाहिये।
 +
 
 +
आचार्य की व्याख्या है -  
 +
 
 +
आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत ।  
 +
 
 +
स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥  
 +
 
 
अर्थ : जो शास्त्रों का जानकार है, जो शास्त्रों के ज्ञान को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी वैसा आचरण करता है और छात्रों से आचरण करवाता है उसे आचार्य कहते हैं।
 
अर्थ : जो शास्त्रों का जानकार है, जो शास्त्रों के ज्ञान को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी वैसा आचरण करता है और छात्रों से आचरण करवाता है उसे आचार्य कहते हैं।
 
शिक्षक के अन्य गुण निम्न हैं।
 
शिक्षक के अन्य गुण निम्न हैं।
- जिसे ज्ञानार्जन में आनंद आता है, जो स्वयं भी ज्ञानवान है, श्रध्दा (अपने आपमें, ज्ञान में और विद्यार्थी में) रखता है, विद्यार्थी को अपने पुत्र की भाँति प्रेम करता है, विद्यार्थीप्रिय है, तत्त्वनिष्ठ है (सौदेबाज नहीं है), समाज को श्रेष्ठ बनाने की जिम्मेदारी मेरी है ऐसा माननेवाला, सभ्य, सुशील, गौरवशील, सुसंस्कृत, मन के विकारों को नियंत्रण में रखता है, सन्मार्गगामी, लालच, भय, खुशामद और निंदा से दूर रहनेवाला आदि।
+
- जिसे ज्ञानार्जन में आनंद आता है, जो स्वयं भी ज्ञानवान है, श्रध्दा (अपने आपमें, ज्ञान में और विद्यार्थी में) रखता है, विद्यार्थी को अपने पुत्र की भाँति प्रेम करता है, विद्यार्थीप्रिय है, तत्वनिष्ठ है (सौदेबाज नहीं है), समाज को श्रेष्ठ बनाने की जिम्मेदारी मेरी है ऐसा माननेवाला, सभ्य, सुशील, गौरवशील, सुसंस्कृत, मन के विकारों को नियंत्रण में रखता है, सन्मार्गगामी, लालच, भय, खुशामद और निंदा से दूर रहनेवाला आदि।
 
- शिशू, बाल, किशोर बच्चों का शिक्षक अपंग, अंध, अस्पष्ट उच्चारण वाला, गंदे दाँतवाला न हो। सुदृढ, सशक्त, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो।
 
- शिशू, बाल, किशोर बच्चों का शिक्षक अपंग, अंध, अस्पष्ट उच्चारण वाला, गंदे दाँतवाला न हो। सुदृढ, सशक्त, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो।
 
- आचार्य की नियुक्ति का अधिकार केवल उससे श्रेष्ठ आचार्य को है, अन्य किसी को नहीं है।  
 
- आचार्य की नियुक्ति का अधिकार केवल उससे श्रेष्ठ आचार्य को है, अन्य किसी को नहीं है।  
Line 57: Line 78:  
  : शासन समाज का मालिक नहीं होता। शासन व्यवस्था यह राष्ट्र के याने राष्ट्रीय समाज के सुचारू रूप से चले इस दृष्टि से दुर्जनों और मूर्खों से संरक्षण की व्यवस्था मात्र होती है। शासन का काम श्रेष्ठ शिक्षा को याने शिक्षकों और विद्याकेंद्रों को सुरक्षा, सहायता और समर्थन देने का है।  
 
  : शासन समाज का मालिक नहीं होता। शासन व्यवस्था यह राष्ट्र के याने राष्ट्रीय समाज के सुचारू रूप से चले इस दृष्टि से दुर्जनों और मूर्खों से संरक्षण की व्यवस्था मात्र होती है। शासन का काम श्रेष्ठ शिक्षा को याने शिक्षकों और विद्याकेंद्रों को सुरक्षा, सहायता और समर्थन देने का है।  
   −
== भारतीय शिक्षा के मूलतत्त्व ==
+
== भारतीय शिक्षा के मूलतत्व ==
 
२०वीं सदी तक भारत में शिक्षा का स्वरूप गुरुगृहवास के साथ जुड़ा हुआ था। गुरु के घर के काम करते करते बच्चे जीने की शिक्षा पाते थे। प्रत्यक्ष गणित, इतिहास आदि विषयों के सिखाने की हर शिक्षक की अपनी अपनी पद्धति हुआ करती थी। और यह पद्धति भी हर विद्यार्थी के अनुसार भिन्न हुआ करती थी। अध्येता की जीवन्तता को ध्यान में रखकर शिक्षा लेने और देने का काम होता था। यांत्रिकता को स्थान नहीं था। जीवन में अनंत प्रकार की विविधता होती है। हर बच्चे के पंचकोशों की क्षमताओं और विकास की संभावनाओं की असीम विविधता ध्यान में रखकर शिक्षक को बच्चे को शिक्षित करना होता है। और शिक्षा जैसी होती है समाज भी वैसा ही बनता है। इसे ध्यान में रखकर हमारे पूर्वजोंने एक श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया था। इस शिक्षा व्यवस्था के मोटे मोटे सूत्र निम्न होते हैं।
 
२०वीं सदी तक भारत में शिक्षा का स्वरूप गुरुगृहवास के साथ जुड़ा हुआ था। गुरु के घर के काम करते करते बच्चे जीने की शिक्षा पाते थे। प्रत्यक्ष गणित, इतिहास आदि विषयों के सिखाने की हर शिक्षक की अपनी अपनी पद्धति हुआ करती थी। और यह पद्धति भी हर विद्यार्थी के अनुसार भिन्न हुआ करती थी। अध्येता की जीवन्तता को ध्यान में रखकर शिक्षा लेने और देने का काम होता था। यांत्रिकता को स्थान नहीं था। जीवन में अनंत प्रकार की विविधता होती है। हर बच्चे के पंचकोशों की क्षमताओं और विकास की संभावनाओं की असीम विविधता ध्यान में रखकर शिक्षक को बच्चे को शिक्षित करना होता है। और शिक्षा जैसी होती है समाज भी वैसा ही बनता है। इसे ध्यान में रखकर हमारे पूर्वजोंने एक श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया था। इस शिक्षा व्यवस्था के मोटे मोटे सूत्र निम्न होते हैं।
 
१.  शिक्षा यह क्रय विक्रय की वस्तू नहीं है। समाज के हर बालक को उस की योग्यता और क्षमता के अनुसार शिक्षा प्राप्त हो यह सामाजिक जिम्मेदारी है। समाज के प्रत्येक घटक की जिम्मेदारी है। इसीलिए भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अन्न और औषधि के साथ ही शिक्षा नि:शुल्क ही हुआ करती थी। शिक्षा नि:शुल्क ही होनी चाहिए।
 
१.  शिक्षा यह क्रय विक्रय की वस्तू नहीं है। समाज के हर बालक को उस की योग्यता और क्षमता के अनुसार शिक्षा प्राप्त हो यह सामाजिक जिम्मेदारी है। समाज के प्रत्येक घटक की जिम्मेदारी है। इसीलिए भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अन्न और औषधि के साथ ही शिक्षा नि:शुल्क ही हुआ करती थी। शिक्षा नि:शुल्क ही होनी चाहिए।
Line 80: Line 101:  
१८. जिस देश में शिक्षक की प्रतिष्ठा सबसे ऊपर होती है वह देश या समाज विश्व में सबसे अधिक प्रतिष्ठित होता है। यह प्रतिष्ठा शिक्षक को अपने ज्ञान, कौशल, लोकसंग्रह, समर्पण भाव आदि से अर्जित करनी होती है।  
 
१८. जिस देश में शिक्षक की प्रतिष्ठा सबसे ऊपर होती है वह देश या समाज विश्व में सबसे अधिक प्रतिष्ठित होता है। यह प्रतिष्ठा शिक्षक को अपने ज्ञान, कौशल, लोकसंग्रह, समर्पण भाव आदि से अर्जित करनी होती है।  
 
१९. कहा गया है - माता प्रथमो गुरु:, पिता द्वितीय:। और भी कहा गया है – लालयेत पञ्चवर्षाणी दशवर्षाणी ताडयेत्। जन्म से पांच वर्षतक माता ही बच्चे की पहली गुरु होती है। पिता दूसरा गुरु होता है। इस आयु में बच्चे को अच्छी आदतें लगाना, उसकी रूचि को पहचानना, उसके इन्द्रियों का श्रेष्ठतम विकास करना इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी माँकी होती है। दुसरे क्रमांकपर यह जिम्मेदारी पिता की है। बालक की रूचि ध्यान में लेकर योग्य गुरु के पास उसे ले जाना पिता की जिम्मेदारी है।
 
१९. कहा गया है - माता प्रथमो गुरु:, पिता द्वितीय:। और भी कहा गया है – लालयेत पञ्चवर्षाणी दशवर्षाणी ताडयेत्। जन्म से पांच वर्षतक माता ही बच्चे की पहली गुरु होती है। पिता दूसरा गुरु होता है। इस आयु में बच्चे को अच्छी आदतें लगाना, उसकी रूचि को पहचानना, उसके इन्द्रियों का श्रेष्ठतम विकास करना इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी माँकी होती है। दुसरे क्रमांकपर यह जिम्मेदारी पिता की है। बालक की रूचि ध्यान में लेकर योग्य गुरु के पास उसे ले जाना पिता की जिम्मेदारी है।
२०.धर्म की शिक्षा देनेवाले श्रेष्ठ शिक्षा केन्द्रों को सहायता (संसाधन आदि), संरक्षण और समर्थन देना शासन की जिम्मेदारी है। विपरीत शिक्षा या असामाजिक या अधार्मिक तत्त्वों को शिक्षा क्षेत्र से दूर रखना भी शासन की जिम्मेदारी है।
+
२०.धर्म की शिक्षा देनेवाले श्रेष्ठ शिक्षा केन्द्रों को सहायता (संसाधन आदि), संरक्षण और समर्थन देना शासन की जिम्मेदारी है। विपरीत शिक्षा या असामाजिक या अधार्मिक तत्वों को शिक्षा क्षेत्र से दूर रखना भी शासन की जिम्मेदारी है।
 
२१. मानव के व्यक्तित्व के मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इन घटकों की शिक्षा का श्रेष्ठ साधन अष्टांग योग की शिक्षा है। अष्टांग योग में से पहले पांच चरणों की याने बहिरंग योग की शिक्षा बालक के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है।  
 
२१. मानव के व्यक्तित्व के मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इन घटकों की शिक्षा का श्रेष्ठ साधन अष्टांग योग की शिक्षा है। अष्टांग योग में से पहले पांच चरणों की याने बहिरंग योग की शिक्षा बालक के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है।  
 
२२.अनध्ययन के दिनों में मन अस्थिर हो जाता है। इसलिये प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पोर्णिमा इन अनध्ययन के दिनों में अध्ययन टालना चाहिए।  
 
२२.अनध्ययन के दिनों में मन अस्थिर हो जाता है। इसलिये प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पोर्णिमा इन अनध्ययन के दिनों में अध्ययन टालना चाहिए।  
Line 92: Line 113:  
अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं। सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं। गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है। और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है।
 
अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं। सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं। गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है। और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है।
 
२८.गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है। गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अबतक विकसित नहीं हुई है।
 
२८.गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है। गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अबतक विकसित नहीं हुई है।
२९.शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु फिर भी वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्त्व) निष्ठ होती है।
+
२९.शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु फिर भी वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्व) निष्ठ होती है।
 
३०.बच्चे के स्वधर्म को जानने की और उसके स्वधर्म के अनुसार उसे समाज के लिये उपयुक्त बनाने के लिये संस्कार और शिक्षा होते हैं।
 
३०.बच्चे के स्वधर्म को जानने की और उसके स्वधर्म के अनुसार उसे समाज के लिये उपयुक्त बनाने के लिये संस्कार और शिक्षा होते हैं।
 
३१.बच्चे को उसके स्वधर्म के अनुसार व्यवसाय और अर्थार्जन की विधा का चयन करने की प्रेरणा देना माता पिता और शिक्षक का काम है।  
 
३१.बच्चे को उसके स्वधर्म के अनुसार व्यवसाय और अर्थार्जन की विधा का चयन करने की प्रेरणा देना माता पिता और शिक्षक का काम है।  
890

edits

Navigation menu