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# माता प्रथमो गुरू: पिता द्वितीय:। शिक्षक तीसरे क्रमांक पर होता है। श्रेष्ठ जीवात्मा को जन्म देना और उसे संस्कारित करना माता पिता, दोनों का काम है।   
 
# माता प्रथमो गुरू: पिता द्वितीय:। शिक्षक तीसरे क्रमांक पर होता है। श्रेष्ठ जीवात्मा को जन्म देना और उसे संस्कारित करना माता पिता, दोनों का काम है।   
 
# मन के संयम की शिक्षा के लिए अभ्यास (एकाग्रता) तथा वैराग्य (अलिप्तता) आवश्यक हैं<ref>श्रीमदभगवद गीता ६-३४,३५</ref>।   
 
# मन के संयम की शिक्षा के लिए अभ्यास (एकाग्रता) तथा वैराग्य (अलिप्तता) आवश्यक हैं<ref>श्रीमदभगवद गीता ६-३४,३५</ref>।   
# लालयेत पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत् । ५ वर्ष की आयु तक लालन की जिम्मेदारी मुख्यत: माँ की तथा आगे दस वर्ष तक मुख्य भूमिका पिता की होती है। प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रं वदचरेत् । ऐसा करने से १६ वर्ष की आयु में युवक प्रगल्भ होकर स्वाध्याय करने में सक्षम हो जाता है।   
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# लालयेत पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्{{Citation needed}}  । ५ वर्ष की आयु तक लालन की जिम्मेदारी मुख्यत: माँ की तथा आगे दस वर्ष तक मुख्य भूमिका पिता की होती है। प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रं वदचरेत् {{Citation needed}} । ऐसा करने से १६ वर्ष की आयु में युवक प्रगल्भ होकर स्वाध्याय करने में सक्षम हो जाता है।   
# हर बालक दूसरे से भिन्न है। वह अपने विकास की संभावनाओं के साथ जन्म लेता है। इस भिन्नता को और सम्भावनाओं के सर्वोच्च स्तरको समझकर पूर्ण विकसित होने के लिए मार्गदर्शन करने हेतु पंडितों के मार्गदर्शन में शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करना समाज की जिम्मेदारी है। ६.६ लोकशिक्षा (कुटुम्ब शिक्षा भी) या अनौपचारिक शिक्षा का स्वरूप धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा का होता है। विद्यालयीन या औपचारिक शिक्षा का स्वरूप शास्त्रीय शिक्षा का होता है। ६.७. शिक्षा सभी विषयों को जीवन की समग्रता के सन्दर्भ में समझने के लिए होती है। कंठस्थीकरण के साथ ही प्रयोग, आत्मसातीकरण तथा संस्कार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक संगठनों और व्यवस्थाओं का संचालन करने के लिए श्रेष्ठ लोग निर्माण करना भी शिक्षा का ही काम है। ६.८ शिक्षा जन्मजन्मान्तर तथा आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है। शिक्षा तो धर्माचरण की ही होगी। आयु की अवस्था के अनुसार उसका स्वरूप कुछ भिन्न होगा। पाठ्यक्रम में एकात्मता और सातत्य होना चाहिए। ६.९ हर समाज की अपनी कोई भाषा होती है। इस भाषा का विकास उस समाज की जीवन दृष्टि के अनुसार ही होता है। समाज की भाषा बिगडने से या नष्ट होने से विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। फिर वह समाज पूर्व का समाज नहीं रह जाता। ६.१० मूलत: प्रत्येक व्यक्ति सर्वज्ञानी है। ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित होता है। उसके प्रकटीकरण की प्रक्रिया शिक्षा है।  
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# हर बालक दूसरे से भिन्न है। वह अपने विकास की संभावनाओं के साथ जन्म लेता है। इस भिन्नता को और सम्भावनाओं के सर्वोच्च स्तरको समझकर पूर्ण विकसित होने के लिए मार्गदर्शन करने हेतु पंडितों के मार्गदर्शन में शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करना समाज की जिम्मेदारी है। ६.६ लोकशिक्षा (कुटुम्ब शिक्षा भी) या अनौपचारिक शिक्षा का स्वरूप धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा का होता है। विद्यालयीन या औपचारिक शिक्षा का स्वरूप शास्त्रीय शिक्षा का होता है। ६.७. शिक्षा सभी विषयों को जीवन की समग्रता के सन्दर्भ में समझने के लिए होती है। कंठस्थीकरण के साथ ही प्रयोग, आत्मसातीकरण तथा संस्कार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक संगठनों और व्यवस्थाओं का संचालन करने के लिए श्रेष्ठ लोग निर्माण करना भी शिक्षा का ही काम है। ६.८ शिक्षा जन्मजन्मान्तर तथा आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है। शिक्षा तो धर्माचरण की ही होगी। आयु की अवस्था के अनुसार उसका स्वरूप कुछ भिन्न होगा। पाठ्यक्रम में एकात्मता और सातत्य होना चाहिए। ६.९ हर समाज की अपनी कोई भाषा होती है। इस भाषा का विकास उस समाज की जीवन दृष्टि के अनुसार ही होता है। समाज की भाषा बिगडने से या नष्ट होने से विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। फिर वह समाज पूर्व का समाज नहीं रह जाता। ६.१० मूलत: प्रत्येक व्यक्ति सर्वज्ञानी है। ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित होता है। उसके प्रकटीकरण की प्रक्रिया शिक्षा है।
    
== अर्थव्यवहार के सूत्र ==
 
== अर्थव्यवहार के सूत्र ==
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