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| अयुक्तियुक्तं वचो त्याज्यं बालादपि शुकादपि ।। | | अयुक्तियुक्तं वचो त्याज्यं बालादपि शुकादपि ।। |
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− | == एकात्म मानव दृष्टि == | + | == मूल समस्या - एकात्म मानव दृष्टि का अभाव == |
− | हम कहते तो हैं कि भारतीय दृष्टि हर बात को समग्रता से देखने की है। अभारतीयों जैसा हम टुकडों में विचार नहीं करते। किन्तु १० पीढियों की अभारतीय शिक्षा के कारण प्रत्यक्ष में तो हम भी टुकडों में ही विचार करने लग गये हैं। अधिकारों के लिये लडने लग गये हैं। एकात्मता की भावना में स्पर्धा के लिये कोई स्थान नहीं रहता। किन्तु हम स्पर्धाओं का आयोजन करते हैं? किसानों की आत्महत्याओं की समस्या क्या मात्र किसानों की है? या पूरे सामाजिक जीवन के प्रतिमान की है? कुटुम्ब टूटने की समस्या क्या केवल पारिवारों की समस्या है या पूरे जीवन के प्रतिमान की? किन्तु हम प्रतिमान के परिवर्तन का विचार नहीं करते। एकात्म मानव दृष्टि में अधिकारों के लिये संघर्ष नहीं किया जाता। कर्तव्य पालन के लिये संघर्ष होते हैं। किन्तु हमने अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले बडे बडे संगठन बनाये हैं। बनाने की हमारी मजबूरी होगी। लेकिन बनाए तो हैं। गाँव नष्ट हो रहे हैं। जन, धन, उत्पादन के केन्द्रिकरण की समस्या क्या केवल गाँव के विकास की समस्या है? या वह अभारतीय प्रतिमान के कारण निर्माण हुई है? | + | हम कहते तो हैं कि भारतीय दृष्टि हर बात को समग्रता से देखने की है। अभारतीयों जैसा हम टुकडों में विचार नहीं करते। किन्तु १० पीढियों की अभारतीय शिक्षा के कारण प्रत्यक्ष में तो हम भी टुकडों में ही विचार करने लग गये हैं। अधिकारों के लिये लडने लग गये हैं। |
− | विभिन्न विषयों का परस्पर संबंध होता है। वह संबंध भी अंग और अंगी के स्वरूप का होता है। अंगांगी होता है। अंग का व्यवहार अंगी के हित के अविरोधी ही होना चाहिये। यह अंग और अंगी दोनों के हित में होता है। लेकिन हम धर्म व्यवस्था, शासन व्यवस्था, कुटुम्ब व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदि व्यवस्थाओं के अंगांगी संबंध ध्यान में रखकर विचार नहीं करते। विभिन्न अध्ययन के विषयों में भी अंग और अंगी संबंध होता है। लेकिन हम इन संबंधों की उपेक्षा कर देते हैं। गणित, विज्ञान को समाज शास्त्र पर, अर्थ व्यवस्था को समाज व्यवस्था पर वरीयता दे देते है।
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| + | एकात्मता की भावना में स्पर्धा के लिये कोई स्थान नहीं रहता। किन्तु हम स्पर्धाओं का आयोजन करते हैं? किसानों की आत्महत्याओं की समस्या क्या मात्र किसानों की है? या पूरे सामाजिक जीवन के प्रतिमान की है? कुटुम्ब टूटने की समस्या क्या केवल परिवारों की समस्या है या पूरे जीवन के प्रतिमान की? किन्तु हम प्रतिमान के परिवर्तन का विचार नहीं करते। एकात्म मानव दृष्टि में अधिकारों के लिये संघर्ष नहीं किया जाता। कर्तव्य पालन के लिये संघर्ष होते हैं। किन्तु हमने अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले बडे बडे संगठन बनाये हैं। बनाने की हमारी मजबूरी होगी। लेकिन बनाए तो हैं। गाँव नष्ट हो रहे हैं। जन, धन, उत्पादन के केन्द्रिकरण की समस्या क्या केवल गाँव के विकास की समस्या है? या वह अभारतीय प्रतिमान के कारण निर्माण हुई है? |
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| + | विभिन्न विषयों का परस्पर संबंध होता है। वह संबंध भी अंग और अंगी के स्वरूप का होता है। अंगांगी होता है। अंग का व्यवहार अंगी के हित के अविरोधी ही होना चाहिये। यह अंग और अंगी दोनों के हित में होता है। लेकिन हम धर्म व्यवस्था, शासन व्यवस्था, कुटुम्ब व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदि व्यवस्थाओं के अंगांगी संबंध ध्यान में रखकर विचार नहीं करते। विभिन्न अध्ययन के विषयों में भी अंग और अंगी संबंध होता है। लेकिन हम इन संबंधों की उपेक्षा कर देते हैं। गणित, विज्ञान को समाज शास्त्र पर, अर्थ व्यवस्था को समाज व्यवस्था पर वरीयता दे देते है। |
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| == अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान == | | == अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान == |
| आजकल वर्तमान भारतीय शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगों को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। भारतीय जीवन दृष्टि के अनुसार कहा गया है 'ना मूलं लिख्यते किंचित'। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। बगैर प्रमाण के, का अर्थ है जो सत्य नहीं है उसे नहीं लिखना। केवल कहीं किसी ने कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में लिखे जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता। | | आजकल वर्तमान भारतीय शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगों को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। भारतीय जीवन दृष्टि के अनुसार कहा गया है 'ना मूलं लिख्यते किंचित'। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। बगैर प्रमाण के, का अर्थ है जो सत्य नहीं है उसे नहीं लिखना। केवल कहीं किसी ने कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में लिखे जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता। |
− | सत्य की व्याख्या की गई है 'यदभूत हितं अत्यंत' याने जिस में चराचर का हित हो या किसी का भी अहित नहीं हो वही सत्य है। इसी का अर्थ है जिसे चराचर का हित किस या किन बातों में है यह नहीं समझ में आता वह सत्य को स्वत: नहीं समझ सकता। ऐसे लोगों के लिये कहा गया है 'महाजनो येन गत: स पंथ:'। ऐसे लोगों ने श्रेष्ठ लोगों का अनुकरण करना चाहिये। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है 'यद्यदाचरति श्रेष्ठ: तत्त देवेतरो जना:। स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनु वर्तंते'। केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता।
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| + | सत्य की व्याख्या की गई है 'यदभूत हितं अत्यंत' याने जिस में चराचर का हित हो या किसी का भी अहित नहीं हो वही सत्य है। इसी का अर्थ है जिसे चराचर का हित किस या किन बातों में है यह नहीं समझ में आता वह सत्य को स्वत: नहीं समझ सकता। ऐसे लोगों के लिये कहा गया है 'महाजनो येन गत: स पंथ:'। ऐसे लोगों ने श्रेष्ठ लोगों का अनुकरण करना चाहिये। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है 'यद्यदाचरति श्रेष्ठ: तत्त देवेतरो जना:। स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनु वर्तंते'। केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता। |
| किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। फिर प्रमाण का क्षेत्र कौनसा है? | | किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। फिर प्रमाण का क्षेत्र कौनसा है? |
| वर्तमान में तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण को या केवल साईंस ही को प्रमाण माना जा सकता है ऐसी धारणा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये सब से पहले वैज्ञानिक दृष्टिकोण का या साईंस के स्वरूप (साईंटिफिक एप्रोच) के आधार पर विश्लेषण करना ठीक होगा। | | वर्तमान में तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण को या केवल साईंस ही को प्रमाण माना जा सकता है ऐसी धारणा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये सब से पहले वैज्ञानिक दृष्टिकोण का या साईंस के स्वरूप (साईंटिफिक एप्रोच) के आधार पर विश्लेषण करना ठीक होगा। |
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| ५) एकात्मता का जप करते हुए अनात्मवादी, विखण्डित पध्दति से विचार हो रहा है। | | ५) एकात्मता का जप करते हुए अनात्मवादी, विखण्डित पध्दति से विचार हो रहा है। |
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− | == शोध विषय सूचि == | + | == शोध विषय सूची == |
| विज्ञान और तंत्रज्ञान | | विज्ञान और तंत्रज्ञान |
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| ५२ समाजिक सबंधोंका आधार स्वार्थ या कौटुम्बिक भावना अर्थात् कौटुम्बिक भावना आधारित समाज | | ५२ समाजिक सबंधोंका आधार स्वार्थ या कौटुम्बिक भावना अर्थात् कौटुम्बिक भावना आधारित समाज |
| ५३ वर्णानुक्रम - मनुष्य के व्यक्तित्व में सबसे प्रभावी वर्ण और दूसरे क्रमांक का वर्ण | | ५३ वर्णानुक्रम - मनुष्य के व्यक्तित्व में सबसे प्रभावी वर्ण और दूसरे क्रमांक का वर्ण |
− | ५४ अंग्रेजी में अनुवाद नहीं करना चाहिए ऐसे भारतीय संकल्पनात्मक शब्दोंकी सूचि | + | ५४ अंग्रेजी में अनुवाद नहीं करना चाहिए ऐसे भारतीय संकल्पनात्मक शब्दोंकी सूची |
| ५५ मम हिताय मम सुखाय से सर्वे भवन्तु सुखिन: की ओर - परिवर्तनकी प्रक्रिया | | ५५ मम हिताय मम सुखाय से सर्वे भवन्तु सुखिन: की ओर - परिवर्तनकी प्रक्रिया |
| ५६ शिक्षा से जुडे विभिन्न घटकोंकी जिम्मेदारी - शिक्षक, विद्वान, अभिभावक, शासन, समाज | | ५६ शिक्षा से जुडे विभिन्न घटकोंकी जिम्मेदारी - शिक्षक, विद्वान, अभिभावक, शासन, समाज |
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− | सूचना: यह सूचि तो नमूने के लिए दी गई है। इसे और बढानेकी आवश्यकता है। | + | सूचना: यह सूची तो नमूने के लिए दी गई है। इसे और बढानेकी आवश्यकता है। |
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| [[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]] | | [[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]] |