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== प्रस्तावना ==
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वर्तमान में अपने को हिन्दुत्ववादी कहलाने वाले कई लोगों में भारतीय शास्त्रों की समझ और श्रध्दा का अभाव दिखाई देता है। गोहत्या का विषय तो ताजा है। कई हिन्दुत्ववादी लोगों के मन में वर्तमान पत्रों में जो विपरीत समाचार आते हैं उन के कारण संभ्रम निर्माण हुवा दिखाई देता है। यज्ञ में बलि के विषय को लेकर भी बहुत संभ्रम है। इस संभ्रम के मुख्य कारण भारतीय शास्त्रों में श्रध्दा का अभाव और अभारतीय शिक्षा के फलस्वरूप विचार करने की संशयात्मक दृष्टि यह हैं।
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एक बार चर्चा में विषय निकला कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक पू. श्री. गुरूजी का वृत्तपत्र में छपा कोई कथन श्रीमद्भगवद्गीता के विरोधी है। संघ के कुछ कार्यकर्ता सोचने लगे कि पू. श्री. गुरूजी जब ऐसा कहते हैं तो क्या श्रीमद्भगवद्गीता गलत है? या गुरूजी गलत हैं? वास्तव में विचार तो इस तरह करना चाहिये कि पहली बात तो यह है कि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गलत नहीं हो सकता, इस बात पर श्रध्दा हो। दूसरी बात यह है कि पू. श्री. गुरूजी पर भी श्रध्दा हो कि वे ऐसा कह ही नहीं सकते। यह तो छापने वाले की गलती ही हो सकती है। किन्तु इतनी प्रगल्भता कम ही लोगों में होती है। सामान्य लोगों में यह संभ्रम शायद क्षम्य माना जा सकता है। किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के या शोध के क्षेत्र में काम करने वाले शोध कर्ताओं को तो इस संभ्रम से ऊपर उठना ही होगा।
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विचार या शोध के क्षेत्र में काम करनेवाले और हिंदुत्ववादी कहलाने वाले लोगों के पाँच प्रकार हैं। पहले प्रकार के अपने को हिंदुत्ववादी कहलाने वाले लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय शास्त्रों का और वर्तमान साईंस का भी ज्ञान है किन्तु उन में शास्त्रों के प्रति या तो श्रध्दा नहीं है या भारतीय शास्त्रों के समर्थन में खडे होने की हिम्मत नहीं है। दूसरे ऐसे लोग हैं जो भारतीय शास्त्रों के जानकार तो हैं, भारतीय शास्त्रों पर श्रध्दा भी रखते हैं किन्तु वर्तमान साईंस की प्रगति से अनभिज्ञ हैं। तीसरे लोग ऐसे हैं जो भारतीय शास्त्रों को जानते नहीं हैं। लेकिन उन की श्रेष्ठता में श्रध्दा रखते हैं। उन्हें भारतीय शास्त्रों की जानकारी नहीं होने से वे निम्न स्तर के तथाकथित साईंटिस्टों द्वारा आतंकित हो जाते हैं। चौथे प्रकार के लोग वे हैं जो प्रामाणिकता से यह मानते हैं कि साईंस युगानुकूल है। शास्त्र अब कालबाह्य हो गये हैं। पाँचवे प्रकार के लोग वे हैं जो दोनों की समझ रखते हैं। लेकिन ये एक तो संख्या में नगण्य हैं और दूसरे ये मुखर नहीं हैं। भारतीय शोध दृष्टी की अच्छी समझ ऐसे सभी लोगों के लिये आवश्यक है|
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== भारतीय विद्वानों में हीनता बोध ==
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गुलामी गई किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि जिस तपस्वी ने सत्य दर्शन किये हैं वह यह कहता है, ऐसा जब कोई कहता है तो हमारे विद्वान उसे मूर्ख कहते हैं। किन्तु वही बात जब किसी मिश्टर हक्सले या मिश्टर टिंडल ने कही है ऐसा कहा जाता है तब उसे सत्य मान लिया जाता है। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है|
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यह हीनता बोध १० पीढियों से चली आ रही अभारतीय शिक्षा के कारण और गहरा होता जा रहा है। इस शिक्षा के कारण लोगों को लगने लगा है कि भारत के पास विश्व को देने के लिये कुछ भी नहीं है। विश्व में कुछ भी श्रेष्ठ है तो वह यूरो अमरिकी देशों की देन है। डॉ राधाकृष्णन जैसे कई ख्याति प्राप्त भारतीय विद्वानों ने भी कुछ लेखन ऐसा किया है जो भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रति हीनता का भाव निर्माण करने वाला है। (संदर्भ : भारतीय विद्या भवन प्रकाशित व्हॉट इंडिया शुड नो) भारतीयता की विकृत समझ रखने वाले नौकरशाहों और शासकीय नीतियों ने भी इस हीनता बोध को बढाया ही है।
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== जीवन का पूरा प्रतिमान ही अभारतीय ==
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अंग्रेजों ने हमारे पूरे जीवन के भारतीय प्रतिमान को ही नष्ट कर उस के स्थान पर अपना अंग्रेजी जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया है। जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं इन को मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। हमारी जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं सभी अभारतीय बन गये हैं। यदि कुछ शेष है तो पिछली पीढियों के कुछ लोग जो भारतीय जीवनदृष्टि को जानने वाले हैं। व्यवहार तो उन के भी मोटे तौर पर अभारतीय जीवनदृष्टि के अनुरूप ही होते हैं। युवा पीढी के तो शायद ही कोई भारतीय जीवन दृष्टि से परिचित होंगे। जब जीवन दृष्टि से ही युवा पीढी अपरिचित है तो भारतीय जीवनशैली और जीवन व्यवस्थाओं की समझ की उन से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
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१९४७ में हम स्वाधीन हुए। स्वतंत्र नहीं। स्वतंत्र होने का तो कोई विचार भी हमारे मन में कभी आता नहीं है। स्वतंत्र का अर्थ है अपने तंत्रों के साथ याने अपनी व्यवस्थाओं के साथ जीनेवाले। अंग्रेजों ने भारत में स्थापित की हुई शासन, प्रशासन, न्याय, अर्थ, उद्योग, कृषी, जल प्रबंधन, शिक्षा आदि में से एक भी व्यवस्था को हमने अपनी जीवन दृष्टि और जीवन शैली के अनुसार बदलने का विचार भी नहीं किया है। प्रत्यक्ष बदलना तो बहुत दूर की बात है।
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भारतीय शोध दृष्टि 
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== साईंटिफिक टेम्परामेंट का आतंक ==
पृष्ठभूमि
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वर्तमान में साईंटिफिक टेम्परामेंट जिसे हम गलती से वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहते हैं, को अनन्य साधारण महत्व प्राप्त हो गया है। जीवन के किसी भी पहलू से जुडी बात हो उसे साईंस की कसौटि पर तौला जाता है। वर्तमान में जिसे साईंस कहा जाता है वह प्रमुखत: पंचमहाभौतिक तत्त्वों से संबंध रखता है। इन पंचमहाभूतों से संबंधित जो भी सिध्दांत साईंटिस्टों ने प्रस्तुत किये है वे सत्य ही हैं। पंचमहाभूतों के संबंध में तो कसौटि साईंस के नियमों के आधार पर लगाई जाये यह उचित ही है। किन्तु विश्व केवल पंचमहाभूतों से ही नहीं बना। अन्य भी कुछ घटक मिलकर विश्व का निर्माण हुवा है। इस दृष्टि से साईंस की कसौटियों की मर्यादाएं खींच जातीं हैं। मन, बुध्दि, अहंकार जैसी अनुभव जन्य बातों के लिये जो पंचमहाभूतों से अति सूक्ष्म है उन के लिये और परमात्व तत्त्व जैसी अनूभूति जन्य बात के लिये साईंस की कसौटियाँ लागू नहीं होतीं। किन्तु आज के साईंटिस्ट सामान्यत: यह समझते नहीं हैं।  
वर्तमान में अपने को हिन्दुत्ववादी कहलाने वाले कई लोगों में भारतीय शास्त्रों की समझ और श्रध्दा का अभाव दिखाई देता है। गोहत्या का विषय तो ताजा है। कई हिन्दुत्ववादी लोगों के मन में वर्तमान पत्रों में जो विपरीत समाचार आते हैं उन के कारण संभ्रम निर्माण हुवा दिखाई देता है। यज्ञ में बलि के विषय को लेकर भी बहुत संभ्रम है। इस संभ्रम के मुख्य कारण भारतीय शास्त्रों में श्रध्दा का अभाव और अभारतीय शिक्षा के फलस्वरूप विचार करने की संशयात्मक दृष्टि यह हैं।
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एक बार चर्चा में विषय निकला कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक पू. श्री. गुरूजी का वृत्तपत्र में छपा कोई कथन श्रीमद्भगवद्गीता के विरोधी है। संघ के कुछ कार्यकर्ता सोचने लगे कि पू. श्री. गुरूजी जब ऐसा कहते हैं तो क्या श्रीमद्भगवद्गीता गलत है? या गुरूजी गलत हैं? वास्तव में विचार तो इस तरह करना चाहिये कि पहली बात तो यह है कि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गलत नहीं हो सकता, इस बात पर श्रध्दा हो। दूसरी बात यह है कि पू. श्री. गुरूजी पर भी श्रध्दा हो कि वे ऐसा कह ही नहीं सकते। यह तो छापने वाले की गलती ही हो सकती है। किन्तु इतनी प्रगल्भता कम ही लोगों में होती है। सामान्य लोगों में यह संभ्रम शायद क्षम्य माना जा सकता है। किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के या शोध के क्षेत्र में काम करने वाले शोध कर्ताओं को तो इस संभ्रम से ऊपर उठना ही होगा।
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विचार या शोध के क्षेत्र में काम करनेवाले और हिंदुत्ववादी कहलाने वाले लोगों के पाँच प्रकार हैं। पहले प्रकार के अपने को हिंदुत्ववादी कहलाने वाले लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय शास्त्रों का और वर्तमान साईंस का भी ज्ञान है किन्तु उन में शास्त्रों के प्रति या तो श्रध्दा नहीं है या भारतीय शास्त्रों के समर्थन में खडे होने की हिम्मत नहीं है। दूसरे ऐसे लोग हैं जो भारतीय शास्त्रों के जानकार तो हैं, भारतीय शास्त्रों पर श्रध्दा भी रखते हैं किन्तु वर्तमान साईंस की प्रगति से अनभिज्ञ हैं। तीसरे लोग ऐसे हैं जो भारतीय शास्त्रों को जानते नहीं हैं। लेकिन उन की श्रेष्ठता में श्रध्दा रखते हैं। उन्हें भारतीय शास्त्रों की जानकारी नहीं होने से वे निम्न स्तर के तथाकथित साईंटिस्टों द्वारा आतंकित हो जाते हैं। चौथे प्रकार के लोग वे हैं जो प्रामाणिकता से यह मानते हैं कि साईंस युगानुकूल है। शास्त्र अब कालबाह्य हो गये हैं। पाँचवे प्रकार के लोग वे हैं जो दोनों की समझ रखते हैं। लेकिन ये एक तो संख्या में नगण्य हैं और दूसरे ये मुखर नहीं हैं। भारतीय शोध दृष्टी की अच्छी समझ ऐसे सभी लोगों के लिये आवश्यक है|
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भारतीय विद्वानों में हीनता बोध
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गुलामी गई किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि जिस तपस्वी ने सत्य दर्शन किये हैं वह यह कहता है, ऐसा जब कोई कहता है तो हमारे विद्वान उसे मूर्ख कहते हैं। किन्तु वही बात जब किसी मिश्टर हक्सले या मिश्टर टिंडल ने कही है ऐसा कहा जाता है तब उसे सत्य मान लिया जाता है। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है|
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यह हीनता बोध १० पीढियों से चली आ रही अभारतीय शिक्षा के कारण और गहरा होता जा रहा है। इस शिक्षा के कारण लोगों को लगने लगा है कि भारत के पास विश्व को देने के लिये कुछ भी नहीं है। विश्व में कुछ भी श्रेष्ठ है तो वह यूरो अमरिकी देशों की देन है। डॉ राधाकृष्णन जैसे कई ख्याति प्राप्त भारतीय विद्वानों ने भी कुछ लेखन ऐसा किया है जो भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रति हीनता का भाव निर्माण करने वाला है। (संदर्भ : भारतीय विद्या भवन प्रकाशित व्हॉट इंडिया शुड नो) भारतीयता की विकृत समझ रखने वाले नौकरशाहों और शासकीय नीतियों ने भी इस हीनता बोध को बढाया ही है।
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जीवन का पूरा प्रतिमान ही अभारतीय
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अंग्रेजों ने हमारे पूरे जीवन के भारतीय प्रतिमान को ही नष्ट कर उस के स्थान पर अपना अंग्रेजी जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया है। जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं इन को मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। हमारी जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं सभी अभारतीय बन गये हैं। यदि कुछ शेष है तो पिछली पीढियों के कुछ लोग जो भारतीय जीवनदृष्टि को जानने वाले हैं। व्यवहार तो उन के भी मोटे तौर पर अभारतीय जीवनदृष्टि के अनुरूप ही होते हैं। युवा पीढी के तो शायद ही कोई भारतीय जीवन दृष्टि से परिचित होंगे। जब जीवन दृष्टि से ही युवा पीढी अपरिचित है तो भारतीय जीवनशैली और जीवन व्यवस्थाओं की समझ की उन से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
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१९४७ में हम स्वाधीन हुए। स्वतंत्र नहीं। स्वतंत्र होने का तो कोई विचार भी हमारे मन में कभी आता नहीं है। स्वतंत्र का अर्थ है अपने तंत्रों के साथ याने अपनी व्यवस्थाओं के साथ जीनेवाले। अंग्रेजों ने भारत में स्थापित की हुई शासन, प्रशासन, न्याय, अर्थ, उद्योग, कृषी, जल प्रबंधन, शिक्षा आदि में से एक भी व्यवस्था को हमने अपनी जीवन दृष्टि और जीवन शैली के अनुसार बदलने का विचार भी नहीं किया है। प्रत्यक्ष बदलना तो बहुत दूर की बात है। 
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साईंटिफिक टेम्परामेंट का आतंक
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वर्तमान में साईंटिफिक टेम्परामेंट जिसे हम गलती से वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहते हैं, को अनन्य साधारण महत्व प्राप्त हो गया है। जीवन के किसी भी पहलू से जुडी बात हो उसे साईंस की कसौटि पर तौला जाता है। वर्तमान में जिसे साईंस कहा जाता है वह प्रमुखत: पंचमहाभौतिक तत्त्वों से संबंध रखता है। इन पंचमहाभूतों से संबंधित जो भी सिध्दांत साईंटिस्टों ने प्रस्तुत किये है वे सत्य ही हैं। पंचमहाभूतों के संबंध में तो कसौटि साईंस के नियमों के आधार पर लगाई जाये यह उचित ही है। किन्तु विश्व केवल पंचमहाभूतों से ही नहीं बना। अन्य भी कुछ घटक मिलकर विश्व का निर्माण हुवा है। इस दृष्टि से साईंस की कसौटियों की मर्यादाएं खींच जातीं हैं। मन, बुध्दि, अहंकार जैसी अनुभव जन्य बातों के लिये जो पंचमहाभूतों से अति सूक्ष्म है उन के लिये और परमात्व तत्त्व जैसी अनूभूति जन्य बात के लिये साईंस की कसौटियाँ लागू नहीं होतीं। किन्तु आज के साईंटिस्ट सामान्यत: यह समझते नहीं हैं।  
   
वास्तव में भारतीय शास्त्रों के ज्ञाता जब वर्तमान साईंस का भी ठीक अध्ययन कर दोनों की संतुलित विश्लेषणात्मक प्रस्तुति करेंगे तब न केवल कसौटि की समस्या दूर होगी साथ ही में साईंस का मार्ग जो आज पंचमहाभौतिक में उलझ जाने के कारण अवरूध्द हुवा है, वह भी प्रशस्त होगा। वैसे तो एस्ट्रो फिजिक्स या पार्टिकल फिजिक्स जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले वैज्ञानिक अपने प्रगत प्रयोगों के माध्यम से पंचमहाभौतिक से आगे मन और बुद्धि के क्षेत्र में विचार करने को बाध्य हो रहे हैं। आईन्स्टीन, नील बोर, हायज़ेनबर्ग, व्हीलर आदि और उन के अनुयायी ऐसे वैज्ञानिकों में रहे हैं जो भारतीय दर्शनों में साईंस को आगे बढाने की सम्भावनाएँ देखते हैं। उन के लिये भी ऐसा संतुलित और बुध्दियुक्त विश्लेषण लाभदायी होगा।  
 
वास्तव में भारतीय शास्त्रों के ज्ञाता जब वर्तमान साईंस का भी ठीक अध्ययन कर दोनों की संतुलित विश्लेषणात्मक प्रस्तुति करेंगे तब न केवल कसौटि की समस्या दूर होगी साथ ही में साईंस का मार्ग जो आज पंचमहाभौतिक में उलझ जाने के कारण अवरूध्द हुवा है, वह भी प्रशस्त होगा। वैसे तो एस्ट्रो फिजिक्स या पार्टिकल फिजिक्स जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले वैज्ञानिक अपने प्रगत प्रयोगों के माध्यम से पंचमहाभौतिक से आगे मन और बुद्धि के क्षेत्र में विचार करने को बाध्य हो रहे हैं। आईन्स्टीन, नील बोर, हायज़ेनबर्ग, व्हीलर आदि और उन के अनुयायी ऐसे वैज्ञानिकों में रहे हैं जो भारतीय दर्शनों में साईंस को आगे बढाने की सम्भावनाएँ देखते हैं। उन के लिये भी ऐसा संतुलित और बुध्दियुक्त विश्लेषण लाभदायी होगा।  
 
श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का नाम ही ज्ञान-विज्ञान योग है। इस में श्लोक ४ में की हुई विज्ञान की व्याख्या निम्न है।
 
श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का नाम ही ज्ञान-विज्ञान योग है। इस में श्लोक ४ में की हुई विज्ञान की व्याख्या निम्न है।
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मनसस्तु परा बुध्दिर्यो बुध्दे: परतस्तु स: ॥
 
मनसस्तु परा बुध्दिर्यो बुध्दे: परतस्तु स: ॥
 
अर्थात् इंद्रियों से मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि सूक्ष्म है। और आत्म तत्त्व तो बुद्धि से भी कहीं अधिक सूक्ष्म है। संस्कृत में सूक्ष्म का अर्थ होता है बलवान और व्यापक। पंचमहाभूतों से बनीं इंद्रियाँ स्थूल महाभूतों से तो सूक्ष्म है किन्तु मन उन से भी अधिक सूक्ष्म है। बुद्धि मन से और आत्म तत्त्व बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म है। जो सूक्ष्म होता है उस की मापन पट्टी से तो जो उस से स्थूल है उस का मापन किया जा सकता है, किन्तु जो उस से अधिक सूक्ष्म है उस का मापन नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से आत्म तत्त्व की मापन पट्टी से बुद्धि का, बुद्धि की मापन पट्टी से मन का और मन की मापन पट्टी से इंद्रियों का और इंद्रियों की मापन पट्टी से स्थूल पंचमहाभूतों का मापन किया जा सकता है। किन्तु इस से उलट नहीं किया जा सकता। भौतिक उपकरणों से मन, बुद्धि और आत्म तत्त्व के व्यापारों का मापन नहीं किया जा सकता। वर्तमान साईंस के मापन के जो उपकरण हैं वे प्रकृति के पंचमहाभौतिक घटकों का तो मापन कर सकते है लेकिन इस से सूक्ष्म घटकों का मापन नहीं कर सकते|  
 
अर्थात् इंद्रियों से मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि सूक्ष्म है। और आत्म तत्त्व तो बुद्धि से भी कहीं अधिक सूक्ष्म है। संस्कृत में सूक्ष्म का अर्थ होता है बलवान और व्यापक। पंचमहाभूतों से बनीं इंद्रियाँ स्थूल महाभूतों से तो सूक्ष्म है किन्तु मन उन से भी अधिक सूक्ष्म है। बुद्धि मन से और आत्म तत्त्व बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म है। जो सूक्ष्म होता है उस की मापन पट्टी से तो जो उस से स्थूल है उस का मापन किया जा सकता है, किन्तु जो उस से अधिक सूक्ष्म है उस का मापन नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से आत्म तत्त्व की मापन पट्टी से बुद्धि का, बुद्धि की मापन पट्टी से मन का और मन की मापन पट्टी से इंद्रियों का और इंद्रियों की मापन पट्टी से स्थूल पंचमहाभूतों का मापन किया जा सकता है। किन्तु इस से उलट नहीं किया जा सकता। भौतिक उपकरणों से मन, बुद्धि और आत्म तत्त्व के व्यापारों का मापन नहीं किया जा सकता। वर्तमान साईंस के मापन के जो उपकरण हैं वे प्रकृति के पंचमहाभौतिक घटकों का तो मापन कर सकते है लेकिन इस से सूक्ष्म घटकों का मापन नहीं कर सकते|  
इस तरह इस से यह स्पष्ट होता है कि आत्म तत्त्व (इस मुख्य सेट का) यानी अध्यात्म के क्षेत्र के बुध्दि, मन और इन्द्रियाँ यह एक-एक हिस्से (सब-सेट) हैं। इसे समझने के उपरांत साईंस जो आज पंचमहाभूतों में उलझ गया है उस का मन, बुद्धि और अहंकार के अध्ययन का क्षेत्र खुल जाता है।  
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इस तरह इस से यह स्पष्ट होता है कि आत्म तत्त्व (इस मुख्य सेट का) यानी अध्यात्म के क्षेत्र के बुध्दि, मन और इन्द्रियाँ यह एक-एक हिस्से (सब-सेट) हैं। इसे समझने के उपरांत साईंस जो आज पंचमहाभूतों में उलझ गया है उस का मन, बुद्धि और अहंकार के अध्ययन का क्षेत्र खुल जाता है।
एँथ्रॉपॉलॉजी के तहत् शोध कार्य
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अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य शुरू हुवे उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार इस में “पराधीन, पराजित और खंडित समाज” इस की विषय वस्तू होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु भारतीय समाज के विद्वान अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार किये जा रहे हैं। (धर्मपाल- भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १४)| आज भारत में यह सब अध्ययन भारतीय दृष्टि से नहीं तो यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं। इस का चोटी का उदाहरण धर्मपाल देते हैं। पं सातवळेकरजी द्वारा तत्कालीन अंग्रेजी शासन के विभागों के आधार पर पुरूष सूक्त का श्रेष्ठत्व समझाना (भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १५)। ऐसे सब काम बुध्दिमत्ता के तो होते है। किन्तु इस का कोई लाभ भारत को या भारतीय समाज को नहीं मिलता। यह सब शोध कार्य भारत के विषय में होते हैं। भारत के लिये नहीं। इस लिये इन शोध कार्यों का वर्तमान और भावि भारत से कोई लेना देना नहीं होता। भारत में जाति व्यवस्था के विषय में कई शोध कार्य चल रहे होंगे। लेकिन उन का स्वरूप इस व्यवस्था को निर्दोष और युगानुकूल बनाने का नहीं है और ना ही किसी वैकल्पिक व्यवस्था का विचार इन शोध कार्यों में है। हजारों वर्षों से जाति व्यवस्था भारत में रही है। तो उस के कुछ लाभ होंगे ही। उन लाभों का और उस के कारण हुई हानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना इन शोध कार्यों का उद्देष्य नहीं है। वास्तव में नई व्यवस्था के निर्माण से पहले पुरानी व्यवस्था को तोडना या टूटने देना यह बुध्दिमान समाज का लक्षण नहीं है। लेकिन हम ठीक ऐसा ही कर रहे हैं। महाकवि कालिदास कहते हैं –
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== एँथ्रॉपॉलॉजी के तहत् शोध कार्य ==
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अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य शुरू हुवे उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार इस में “पराधीन, पराजित और खंडित समाज” इस की विषय वस्तू होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु भारतीय समाज के विद्वान अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार किये जा रहे हैं। (धर्मपाल- भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १४)| आज भारत में यह सब अध्ययन भारतीय दृष्टि से नहीं तो यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं। इस का चोटी का उदाहरण धर्मपाल देते हैं। पं सातवळेकरजी द्वारा तत्कालीन अंग्रेजी शासन के विभागों के आधार पर पुरूष सूक्त का श्रेष्ठत्व समझाना (भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १५)। ऐसे सब काम बुध्दिमत्ता के तो होते है। किन्तु इस का कोई लाभ भारत को या भारतीय समाज को नहीं मिलता। यह सब शोध कार्य भारत के विषय में होते हैं। भारत के लिये नहीं। इस लिये इन शोध कार्यों का वर्तमान और भावि भारत से कोई लेना देना नहीं होता। भारत में जाति व्यवस्था के विषय में कई शोध कार्य चल रहे होंगे। लेकिन उन का स्वरूप इस व्यवस्था को निर्दोष और युगानुकूल बनाने का नहीं है और ना ही किसी वैकल्पिक व्यवस्था का विचार इन शोध कार्यों में है। हजारों वर्षों से जाति व्यवस्था भारत में रही है। तो उस के कुछ लाभ होंगे ही। उन लाभों का और उस के कारण हुई हानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना इन शोध कार्यों का उद्देष्य नहीं है। वास्तव में नई व्यवस्था के निर्माण से पहले पुरानी व्यवस्था को तोडना या टूटने देना यह बुध्दिमान समाज का लक्षण नहीं है। लेकिन हम ठीक ऐसा ही कर रहे हैं। महाकवि कालिदास कहते हैं –
 
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्  |
 
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्  |
 
और यह भी कहा गया है –
 
और यह भी कहा गया है –
 
युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यं बालादपि शुकादपि  |
 
युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यं बालादपि शुकादपि  |
 
अयुक्तियुक्तं वचो त्याज्यं बालादपि शुकादपि  ||
 
अयुक्तियुक्तं वचो त्याज्यं बालादपि शुकादपि  ||
एकात्म मानव दृष्टि
+
 
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== एकात्म मानव दृष्टि ==
 
हम कहते तो हैं कि भारतीय दृष्टि हर बात को समग्रता से देखने की है। अभारतीयों जैसा हम टुकडों में विचार नहीं करते। किन्तु १० पीढियों की अभारतीय शिक्षा के कारण प्रत्यक्ष में तो हम भी टुकडों में ही विचार करने लग गये हैं। अधिकारों के लिये लडने लग गये हैं। एकात्मता की भावना में स्पर्धा के लिये कोई स्थान नहीं रहता। किन्तु हम स्पर्धाओं का आयोजन करते हैं? किसानों की आत्महत्याओं की समस्या क्या मात्र किसानों की है? या पूरे सामाजिक जीवन के प्रतिमान की है? कुटुम्ब टूटने की समस्या क्या केवल पारिवारों की समस्या है या पूरे जीवन के प्रतिमान की? किन्तु हम प्रतिमान के परिवर्तन का विचार नहीं करते। एकात्म मानव दृष्टि में अधिकारों के लिये संघर्ष नहीं किया जाता। कर्तव्य पालन के लिये संघर्ष होते हैं। किन्तु हमने अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले बडे बडे संगठन बनाये हैं। बनाने की हमारी मजबूरी होगी। लेकिन बनाए तो हैं। गाँव नष्ट हो रहे हैं। जन, धन, उत्पादन के केन्द्रिकरण की समस्या क्या केवल गाँव के विकास की समस्या है? या वह अभारतीय प्रतिमान के कारण निर्माण हुई है?  
 
हम कहते तो हैं कि भारतीय दृष्टि हर बात को समग्रता से देखने की है। अभारतीयों जैसा हम टुकडों में विचार नहीं करते। किन्तु १० पीढियों की अभारतीय शिक्षा के कारण प्रत्यक्ष में तो हम भी टुकडों में ही विचार करने लग गये हैं। अधिकारों के लिये लडने लग गये हैं। एकात्मता की भावना में स्पर्धा के लिये कोई स्थान नहीं रहता। किन्तु हम स्पर्धाओं का आयोजन करते हैं? किसानों की आत्महत्याओं की समस्या क्या मात्र किसानों की है? या पूरे सामाजिक जीवन के प्रतिमान की है? कुटुम्ब टूटने की समस्या क्या केवल पारिवारों की समस्या है या पूरे जीवन के प्रतिमान की? किन्तु हम प्रतिमान के परिवर्तन का विचार नहीं करते। एकात्म मानव दृष्टि में अधिकारों के लिये संघर्ष नहीं किया जाता। कर्तव्य पालन के लिये संघर्ष होते हैं। किन्तु हमने अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले बडे बडे संगठन बनाये हैं। बनाने की हमारी मजबूरी होगी। लेकिन बनाए तो हैं। गाँव नष्ट हो रहे हैं। जन, धन, उत्पादन के केन्द्रिकरण की समस्या क्या केवल गाँव के विकास की समस्या है? या वह अभारतीय प्रतिमान के कारण निर्माण हुई है?  
विभिन्न विषयों का परस्पर संबंध होता है। वह संबंध भी अंग और अंगी के स्वरूप का होता है। अंगांगी होता है। अंग का व्यवहार अंगी के हित के अविरोधी ही होना चाहिये। यह अंग और अंगी दोनों के हित में होता है। लेकिन हम धर्म व्यवस्था, शासन व्यवस्था, कुटुम्ब व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदि व्यवस्थाओं के अंगांगी संबंध ध्यान में रखकर विचार नहीं करते। विभिन्न अध्ययन के विषयों में भी अंग और अंगी संबंध होता है। लेकिन हम इन संबंधों की उपेक्षा कर देते हैं। गणित, विज्ञान को समाज शास्त्र पर, अर्थ व्यवस्था को समाज व्यवस्था पर वरीयता दे देते है।
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विभिन्न विषयों का परस्पर संबंध होता है। वह संबंध भी अंग और अंगी के स्वरूप का होता है। अंगांगी होता है। अंग का व्यवहार अंगी के हित के अविरोधी ही होना चाहिये। यह अंग और अंगी दोनों के हित में होता है। लेकिन हम धर्म व्यवस्था, शासन व्यवस्था, कुटुम्ब व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदि व्यवस्थाओं के अंगांगी संबंध ध्यान में रखकर विचार नहीं करते। विभिन्न अध्ययन के विषयों में भी अंग और अंगी संबंध होता है। लेकिन हम इन संबंधों की उपेक्षा कर देते हैं। गणित, विज्ञान को समाज शास्त्र पर, अर्थ व्यवस्था को समाज व्यवस्था पर वरीयता दे देते है।
अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान
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आजकल वर्तमान भारतीय शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगों को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। भारतीय जीवन दृष्टि के अनुसार कहा गया है 'ना मूलं लिख्यते किंचित'। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। बगैर प्रमाण के, का अर्थ है जो सत्य नहीं है उसे नहीं लिखना। केवल कहीं किसी ने कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में लिखे जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता।  
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== अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान ==
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आजकल वर्तमान भारतीय शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगों को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। भारतीय जीवन दृष्टि के अनुसार कहा गया है 'ना मूलं लिख्यते किंचित'। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। बगैर प्रमाण के, का अर्थ है जो सत्य नहीं है उसे नहीं लिखना। केवल कहीं किसी ने कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में लिखे जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता।  
 
सत्य की व्याख्या की गई है 'यदभूत हितं अत्यंत' याने जिस में चराचर का हित हो या किसी का भी अहित नहीं हो वही सत्य है। इसी का अर्थ है जिसे चराचर का हित किस या किन बातों में है यह नहीं समझ में आता वह सत्य को स्वत: नहीं समझ सकता। ऐसे लोगों के लिये कहा गया है 'महाजनो येन गत: स पंथ:'। ऐसे लोगों ने श्रेष्ठ लोगों का अनुकरण करना चाहिये। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है 'यद्यदाचरति श्रेष्ठ: तत्त देवेतरो जना:।  स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनु वर्तंते'। केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता।  
 
सत्य की व्याख्या की गई है 'यदभूत हितं अत्यंत' याने जिस में चराचर का हित हो या किसी का भी अहित नहीं हो वही सत्य है। इसी का अर्थ है जिसे चराचर का हित किस या किन बातों में है यह नहीं समझ में आता वह सत्य को स्वत: नहीं समझ सकता। ऐसे लोगों के लिये कहा गया है 'महाजनो येन गत: स पंथ:'। ऐसे लोगों ने श्रेष्ठ लोगों का अनुकरण करना चाहिये। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है 'यद्यदाचरति श्रेष्ठ: तत्त देवेतरो जना:।  स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनु वर्तंते'। केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता।  
 
किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। फिर प्रमाण का क्षेत्र कौनसा है?  
 
किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। फिर प्रमाण का क्षेत्र कौनसा है?  
वर्तमान में तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण को या केवल साईंस ही को प्रमाण माना जा सकता है ऐसी धारणा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये सब से पहले वैज्ञानिक दृष्टिकोण का या साईंस के स्वरूप (साईंटिफिक एप्रोच) के आधार पर विश्लेषण करना ठीक होगा।
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वर्तमान में तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण को या केवल साईंस ही को प्रमाण माना जा सकता है ऐसी धारणा सार्वत्रिक हो गई है। इस लिये सब से पहले वैज्ञानिक दृष्टिकोण का या साईंस के स्वरूप (साईंटिफिक एप्रोच) के आधार पर विश्लेषण करना ठीक होगा।  
वर्तमान साईंस के विकास की पृष्ठभूमि
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वर्तमान साईंस का विकास युरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुवा है। इस विकास में ईसाई मत के करण कई साईंटिस्टों को कष्ट सहन करने पडे ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जप्रसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी। फिर भी यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय ऐसा पराक्रम कर दिखाया। तन्त्रज्ञान  के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है।  
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== वर्तमान साईंस के विकास की पृष्ठभूमि ==
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वर्तमान साईंस का विकास युरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुवा है। इस विकास में ईसाई मत के करण कई साईंटिस्टों को कष्ट सहन करने पडे ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जप्रसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी। फिर भी यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय ऐसा पराक्रम कर दिखाया। तन्त्रज्ञान  के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है।  
 
रेने देकार्ते को इस साईंटिफिक टेम्परामेंट का जनक माना जाता है। रेने देकार्ते एक गणिति तथा फिलॉसॉफर था। इस साईंटिफिक टेम्परामेंट के महत्वपूर्ण पहलू निम्न है।  
 
रेने देकार्ते को इस साईंटिफिक टेम्परामेंट का जनक माना जाता है। रेने देकार्ते एक गणिति तथा फिलॉसॉफर था। इस साईंटिफिक टेम्परामेंट के महत्वपूर्ण पहलू निम्न है।  
 
१.  द्वैतवाद : इस का भारतीय द्वैतवाद से कोई संबंध नहीं है। इस में यह माना गया है कि विश्व में मैं और अन्य सारी सृष्टि ऐसे दो घटक है। मैं इस सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने वाला हूं। मैं इस सृष्टि से भिन्न हूं। मैं इस सृष्टि का भोग करने वाला हूं।
 
१.  द्वैतवाद : इस का भारतीय द्वैतवाद से कोई संबंध नहीं है। इस में यह माना गया है कि विश्व में मैं और अन्य सारी सृष्टि ऐसे दो घटक है। मैं इस सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने वाला हूं। मैं इस सृष्टि से भिन्न हूं। मैं इस सृष्टि का भोग करने वाला हूं।
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इस में समझने की कुछ बातें है। नहीं तो दूरचित्र वाहिनी वाले और ना ही वह साईंटिस्ट साईंस की सीमाएं या मर्यादाएं जानते है। इन मर्यादाओं को नहीं समझने के कारण वह साईंटिस्ट भी अपने अधिकार के क्षेत्र (भौतिक शास्त्र) के बाहर के विषयों में भी साईंस के आधार पर अपनी राय देता है। किन्तु वास्तव में तो यह पूरा कार्यक्रम साईंस की मर्यादा को ही स्पष्ट करते है।  
 
इस में समझने की कुछ बातें है। नहीं तो दूरचित्र वाहिनी वाले और ना ही वह साईंटिस्ट साईंस की सीमाएं या मर्यादाएं जानते है। इन मर्यादाओं को नहीं समझने के कारण वह साईंटिस्ट भी अपने अधिकार के क्षेत्र (भौतिक शास्त्र) के बाहर के विषयों में भी साईंस के आधार पर अपनी राय देता है। किन्तु वास्तव में तो यह पूरा कार्यक्रम साईंस की मर्यादा को ही स्पष्ट करते है।  
 
साईंस की कसौटि की मर्यादा समझने के उपरांत साईंस की मर्यादा से बाहर किसे प्रमाण मानना यह प्रश्न रह ही जाता है। इसे कैसे सुलझाएं?
 
साईंस की कसौटि की मर्यादा समझने के उपरांत साईंस की मर्यादा से बाहर किसे प्रमाण मानना यह प्रश्न रह ही जाता है। इसे कैसे सुलझाएं?
सत्य जानने के तरीके
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सामान्यत: सत्य जानने के तरीके निम्न माने जाते है।
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== सत्य जानने के तरीके ==
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सामान्यत: सत्य जानने के तरीके निम्न माने जाते है।
 
१.  प्रत्यक्ष प्रमाण : जिस का ऑंख, कान, नाक,जीभ और त्वचा के द्वारा याने ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है।  
 
१.  प्रत्यक्ष प्रमाण : जिस का ऑंख, कान, नाक,जीभ और त्वचा के द्वारा याने ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है।  
 
२.  अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता।  
 
२.  अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता।  
 
३.  शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है की हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगों के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगों का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगों को ही आप्त कहा गया है।
 
३.  शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है की हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगों के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगों का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगों को ही आप्त कहा गया है।
 
सामान्यत: अभारतीय समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु भारतीय परंपरा में और भी एक प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिध्दि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है।  
 
सामान्यत: अभारतीय समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु भारतीय परंपरा में और भी एक प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिध्दि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है।  
किन्तु सभी प्रमाणों का आधार तो प्रत्यक्ष प्रमाण ही होता है। शास्त्र वचन भी शास्त्र निर्माण कर्ता का कथन होता है। इस कथन का आधार भी उस शास्त्र कर्ता के अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति के माध्यम से प्राप्त हुई जानकारी ही होती है। इसी जानकारी की प्रस्तुति को शास्त्र कहते है।  
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किन्तु सभी प्रमाणों का आधार तो प्रत्यक्ष प्रमाण ही होता है। शास्त्र वचन भी शास्त्र निर्माण कर्ता का कथन होता है। इस कथन का आधार भी उस शास्त्र कर्ता के अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति के माध्यम से प्राप्त हुई जानकारी ही होती है। इसी जानकारी की प्रस्तुति को शास्त्र कहते है।
शास्त्र की प्रस्तुति का अधिकार
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किसी ने भी लिखी बात को शास्त्र के रूप में मान्यता नहीं मिलती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसे व्यक्ति ने ध्यानावस्था में जो प्रस्तुति की होती है केवल उसी को शास्त्र कहते है। हजारों मूर्धन्य विद्वानों ने एकत्रित आकर भी की हुई प्रस्तुति शास्त्र नहीं हो सकती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त है ऐसे मनुष्य के समक्ष समूची सृष्टि एक खुले पुस्तक के रूप में प्रस्तुत हो जाती है। वह हर वस्तु को उस के आदि से लेकर अंत तक जान जाता है। अंतर्बाह्य जान जाता है। इस लिये उस की प्रस्तुति त्रिकालाबाधित सत्य होती है।  
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== शास्त्र की प्रस्तुति का अधिकार ==
प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान - प्रस्थान त्रयी
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किसी ने भी लिखी बात को शास्त्र के रूप में मान्यता नहीं मिलती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसे व्यक्ति ने ध्यानावस्था में जो प्रस्तुति की होती है केवल उसी को शास्त्र कहते है। हजारों मूर्धन्य विद्वानों ने एकत्रित आकर भी की हुई प्रस्तुति शास्त्र नहीं हो सकती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त है ऐसे मनुष्य के समक्ष समूची सृष्टि एक खुले पुस्तक के रूप में प्रस्तुत हो जाती है। वह हर वस्तु को उस के आदि से लेकर अंत तक जान जाता है। अंतर्बाह्य जान जाता है। इस लिये उस की प्रस्तुति त्रिकालाबाधित सत्य होती है।
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== प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान ==
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- प्रस्थान त्रयी
 
भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण है। वेद की ऋचाएं तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है| लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त अनुभूति की उन ऋषियों की अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद ऐसी ऋचाओं का संग्रह है। यह मानव की बुद्धि के स्तर की रचनाएं नहीं है। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है। और स्वत: प्रमाण भी माना जाता है। महर्षी व्यास ने इन ऋचाओं को चार वेदों में सूत्रबध्द किया। वेदों के सार की सूत्र रूप में प्रस्तुति ही वेदान्त दर्शन याने ब्रह्मसूत्र है।  
 
भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण है। वेद की ऋचाएं तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है| लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त अनुभूति की उन ऋषियों की अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद ऐसी ऋचाओं का संग्रह है। यह मानव की बुद्धि के स्तर की रचनाएं नहीं है। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है। और स्वत: प्रमाण भी माना जाता है। महर्षी व्यास ने इन ऋचाओं को चार वेदों में सूत्रबध्द किया। वेदों के सार की सूत्र रूप में प्रस्तुति ही वेदान्त दर्शन याने ब्रह्मसूत्र है।  
 
वेदों की विषय वस्तू के मोटे मोटे तीन हिस्से किये जा सकते है। पहला है इस का उपासना पक्ष।दूसरा है कर्मकांड पक्ष। और तीसरा है इन का ज्ञान का पक्ष। यह ज्ञान पक्ष उपनिषदों में अधिक विस्तार से वर्णित है। और उपनिषदों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता।  
 
वेदों की विषय वस्तू के मोटे मोटे तीन हिस्से किये जा सकते है। पहला है इस का उपासना पक्ष।दूसरा है कर्मकांड पक्ष। और तीसरा है इन का ज्ञान का पक्ष। यह ज्ञान पक्ष उपनिषदों में अधिक विस्तार से वर्णित है। और उपनिषदों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता।  
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निष्कर्ष :
 
निष्कर्ष :
 
संक्षेप में कहें तो -
 
संक्षेप में कहें तो -
१) हीनता बोध के कारण पश्चिम की अधूरी बातों को भी प्रमाण मान लिया जाता है। किन्तु  
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१) हीनता बोध के कारण पश्चिम की अधूरी बातों को भी प्रमाण मान लिया जाता है। किन्तु
 
   भारतीय शास्त्रों को प्रमाण नहीं माना जाता।
 
   भारतीय शास्त्रों को प्रमाण नहीं माना जाता।
 
२) भारत में भारत के विषय में शोध कार्य होते हैं। किन्तु भारत के लिये नहीं।
 
२) भारत में भारत के विषय में शोध कार्य होते हैं। किन्तु भारत के लिये नहीं।
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