ऊपर बताया है कि समाज की व्यवस्थाओं का ढाँचा पक्का नहीं होता है। इसे हम उदाहरण से समझने का प्रयास करेंगे। किसी भी विशेष कौशल विधा में शोध और अनुसंधान की अलग से व्यवस्था की जा सकती है। लेकिन वह अनिवार्य तो नहीं है। वह तो उस कौशल विधा के जानकार व्यक्तिश: अपने स्तरपर करते ही रहनेवाले हैं। लेकिन व्यवस्था का अर्थ है चराचर के हित में ऐसी अध्ययन और अनुसंधान की, स्वाध्याय की भावना समाज में व्याप्त होने से है। प्राचीन काल से गुरूकुलों में समावर्तन के समय दिये गये उपदेश/आदेश ‘स्वाध्यायान् मा प्रमद:’ का यही अर्थ होता है। | ऊपर बताया है कि समाज की व्यवस्थाओं का ढाँचा पक्का नहीं होता है। इसे हम उदाहरण से समझने का प्रयास करेंगे। किसी भी विशेष कौशल विधा में शोध और अनुसंधान की अलग से व्यवस्था की जा सकती है। लेकिन वह अनिवार्य तो नहीं है। वह तो उस कौशल विधा के जानकार व्यक्तिश: अपने स्तरपर करते ही रहनेवाले हैं। लेकिन व्यवस्था का अर्थ है चराचर के हित में ऐसी अध्ययन और अनुसंधान की, स्वाध्याय की भावना समाज में व्याप्त होने से है। प्राचीन काल से गुरूकुलों में समावर्तन के समय दिये गये उपदेश/आदेश ‘स्वाध्यायान् मा प्रमद:’ का यही अर्थ होता है। |