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→‎शिक्षा व्यवस्था: लेख सम्पादित किया
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१.१ शिक्षा के विषय
 
१.१ शिक्षा के विषय
 
अध्ययन के प्रत्येक विषय का संदर्भ काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने के साथ होता है। पुरूषार्थों के पालन हेतु विद्यार्थी को विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन करना आवश्यक होता है। किसी भी विषय के अध्ययन का अर्थ होता है उस विषय के लक्षणों को जीवन में उतारना।
 
अध्ययन के प्रत्येक विषय का संदर्भ काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने के साथ होता है। पुरूषार्थों के पालन हेतु विद्यार्थी को विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन करना आवश्यक होता है। किसी भी विषय के अध्ययन का अर्थ होता है उस विषय के लक्षणों को जीवन में उतारना।
    १.१.१ विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन : मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तुका निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना।
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१.१.१ विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन : मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तुका निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना।
    १.१.२ करणीय अकरणीय विवेक : करणीय वे बातें होतीं हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत होतीं हैं। और अकरणीय वे बातें होतीं हैं जिन के करने से किसी को हानी होती हो। किसी बात के सरल होने से वह करणीय नहीं हो जाती और ना ही किसी बात के कठिन होने से या असंभव लगनेपर वह अकरणीय बन जाती है। असंभव लगनेपर भी यदि वह सब के हित में है तो करणीय तो वही रहता है। उसे संभव चरणों में बाँटकर करना होता है।  
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१.१.२ करणीय अकरणीय विवेक : करणीय वे बातें होतीं हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत होतीं हैं। और अकरणीय वे बातें होतीं हैं जिन के करने से किसी को हानी होती हो। किसी बात के सरल होने से वह करणीय नहीं हो जाती और ना ही किसी बात के कठिन होने से या असंभव लगनेपर वह अकरणीय बन जाती है। असंभव लगनेपर भी यदि वह सब के हित में है तो करणीय तो वही रहता है। उसे संभव चरणों में बाँटकर करना होता है।  
 
किसी भी प्राप्त परिस्थिति में करणीय और अकरणीय क्या है यह समझना कभी कभी कठिन ही नहीं तो बहुत कठिन होता है। सामान्य लोगों के लिये ऐसे समय में श्रेष्ठ लोगों के अनुकरण की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है।
 
किसी भी प्राप्त परिस्थिति में करणीय और अकरणीय क्या है यह समझना कभी कभी कठिन ही नहीं तो बहुत कठिन होता है। सामान्य लोगों के लिये ऐसे समय में श्रेष्ठ लोगों के अनुकरण की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है।
    १.१.३ स्वभाव शुध्दि और वृद्धि की शिक्षा : मोटे मोटे तौरपर जो भी स्वभाव धर्म व्यवस्था निर्धारित करे उन स्वभावों की शुध्दि और वृद्धि की व्यवस्था करना। यह करते समय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सभी स्वभावों के सन्तुलन  और समायोजन का भी ध्यान रखना।
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१.१.३ स्वभाव शुध्दि और वृद्धि की शिक्षा : मोटे मोटे तौरपर जो भी स्वभाव धर्म व्यवस्था निर्धारित करे उन स्वभावों की शुध्दि और वृद्धि की व्यवस्था करना। यह करते समय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सभी स्वभावों के सन्तुलन  और समायोजन का भी ध्यान रखना।
    १.१.४ काम पुरूषार्थ की शिक्षा : मनुष्य के जीवन का पहला पुरूषार्थ काम है। काम का अर्थ कामना है, इच्छा है। इच्छाएँ धर्म के दायरे में रहें इसलिये काम की शिक्षा आवश्यक होती है। इछाएँ मन करता है। इसलिये काम की शिक्षा का अर्थ है मन की शिक्षा। सामान्यत: बुद्धि सत्यानुगामी होती है। मन के विकार ही उसे भटकाते हैं। मन की शिक्षा के लिये पहले मन को ठीक से समझना होगा। मनकी शिक्षा का अर्थ है मन को बुद्धि के नियंत्रण में विवेक के नियंत्रण में रखने की शिक्षा।  
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१.१.४ काम पुरूषार्थ की शिक्षा : मनुष्य के जीवन का पहला पुरूषार्थ काम है। काम का अर्थ कामना है, इच्छा है। इच्छाएँ धर्म के दायरे में रहें इसलिये काम की शिक्षा आवश्यक होती है। इछाएँ मन करता है। इसलिये काम की शिक्षा का अर्थ है मन की शिक्षा। सामान्यत: बुद्धि सत्यानुगामी होती है। मन के विकार ही उसे भटकाते हैं। मन की शिक्षा के लिये पहले मन को ठीक से समझना होगा। मनकी शिक्षा का अर्थ है मन को बुद्धि के नियंत्रण में विवेक के नियंत्रण में रखने की शिक्षा।  
काम की याने मन की शिक्षा के विषय में अधिक जानने के लिये कृपया अध्याय ३२ देखें|
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काम की याने मन की शिक्षा के विषय में अधिक जानने के लिये कृपया अध्याय ३२ देखें|
    १.१.५ अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा : अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल पैसे से नहीं है। कामनाओं की पूर्ति के इये किये गये प्रयास और साथ में उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन भी अर्थ पुरूषार्थ के हिस्से हैं। जिस प्रकार काम पुरुषार्थ जीवनव्यापी है उसी प्रकार अर्थ पुरूषार्थ भी जीवन व्यापनेवाला है।  
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१.१.५ अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा : अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल पैसे से नहीं है। कामनाओं की पूर्ति के इये किये गये प्रयास और साथ में उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन भी अर्थ पुरूषार्थ के हिस्से हैं। जिस प्रकार काम पुरुषार्थ जीवनव्यापी है उसी प्रकार अर्थ पुरूषार्थ भी जीवन व्यापनेवाला है।  
जब लेने के स्थानपर देनेपर बल दिया जाता है तब समृद्धिव्यवस्था अच्छी चलती है। सर्वहितकारी होती है। दिया तो वही जा सकता है जो अर्जित किया हो या अपने पास पहले से ही हो| अपने पास जो है उस में से सर्वश्रेष्ठ जो है उसे देने की मानसिकता समाज को श्रेष्ठ बनाती है। ऐसी मानसिकतावाले समाज का मनुष्य जो भी करता है वह सर्वश्रेष्ठ बने इसका प्रयास करता है। और ऐसा प्रयास जिस समाज के लोग करेंगे उस समाज का सम्मान तो अन्य समाज करेंगे ही। दान की भी यही संकल्पना है। जो सर्वश्रेष्ठ है उसी का तो दान किया जाता है(नचिकेत की कथा)| अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा के कुछ बिंदु निम्न हैं|
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जब लेने के स्थानपर देनेपर बल दिया जाता है तब समृद्धिव्यवस्था अच्छी चलती है। सर्वहितकारी होती है। दिया तो वही जा सकता है जो अर्जित किया हो या अपने पास पहले से ही हो| अपने पास जो है उस में से सर्वश्रेष्ठ जो है उसे देने की मानसिकता समाज को श्रेष्ठ बनाती है। ऐसी मानसिकतावाले समाज का मनुष्य जो भी करता है वह सर्वश्रेष्ठ बने इसका प्रयास करता है। और ऐसा प्रयास जिस समाज के लोग करेंगे उस समाज का सम्मान तो अन्य समाज करेंगे ही। दान की भी यही संकल्पना है। जो सर्वश्रेष्ठ है उसी का तो दान किया जाता है(नचिकेत की कथा)| अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा के कुछ बिंदु निम्न हैं|
 
- भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं।
 
- भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं।
 
- खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है।
 
- खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है।
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जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। इसलिए जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन की इष्ट गति, इस संकल्पना को हम विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टी के विषय में जानने का प्रयास करेंगे|
 
जीवन की गति बढ जानेसे समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। इसलिए जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। जीवन की इष्ट गति, इस संकल्पना को हम विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टी के विषय में जानने का प्रयास करेंगे|
 
अर्थ पुरुषार्थ के धन और आर्थिक समृद्धि से जुड़े महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का ज्ञान हम भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टी के विषय में प्राप्त करेंगे|
 
अर्थ पुरुषार्थ के धन और आर्थिक समृद्धि से जुड़े महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का ज्ञान हम भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टी के विषय में प्राप्त करेंगे|
  १.१.६ धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं।
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१.१.६ धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा : इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं।
 
- अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म - ऐसी भी धर्म की एक अत्यंत सरल व्याख्या की गई है।
 
- अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म - ऐसी भी धर्म की एक अत्यंत सरल व्याख्या की गई है।
 
- प्रकृति के नियम धर्म हैं। प्रकृति के नियमों का सब के हित में उपयोग करना संकृति है। सामान्य परिस्थितियों में धर्माचरण की समझ निर्माण करने के लिये धर्मशिक्षा होती है।
 
- प्रकृति के नियम धर्म हैं। प्रकृति के नियमों का सब के हित में उपयोग करना संकृति है। सामान्य परिस्थितियों में धर्माचरण की समझ निर्माण करने के लिये धर्मशिक्षा होती है।
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- सृष्टि में हर अस्तित्त्व का अपना अपना प्रयोजन है। पत्थर, जल, पहाड़, नदियाँ, वनस्पति, पशु, पक्षी, प्राणी और मनुष्य इन सभी अस्तित्वों के निर्माण का कुछ प्रयोजन है| इन अस्तित्वों में जो भिन्नता है उस के कारण उन अस्तित्वों के निर्माण के प्रयोजन भी भिन्न होते हैं| इस प्रयोजन के अनुसार उस अस्तित्व का उपयोग करना या उससे व्यवहार करना धर्म है। जैसे मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना हुआ है। इसलिए शाकाहार उपलब्ध होनेपर भी मांसाहार करना यह अधर्म है।  
 
- सृष्टि में हर अस्तित्त्व का अपना अपना प्रयोजन है। पत्थर, जल, पहाड़, नदियाँ, वनस्पति, पशु, पक्षी, प्राणी और मनुष्य इन सभी अस्तित्वों के निर्माण का कुछ प्रयोजन है| इन अस्तित्वों में जो भिन्नता है उस के कारण उन अस्तित्वों के निर्माण के प्रयोजन भी भिन्न होते हैं| इस प्रयोजन के अनुसार उस अस्तित्व का उपयोग करना या उससे व्यवहार करना धर्म है। जैसे मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना हुआ है। इसलिए शाकाहार उपलब्ध होनेपर भी मांसाहार करना यह अधर्म है।  
 
- करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है।
 
- करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है।
१.१.७ मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा : मोक्ष की शिक्षा नहीं होती। साधना होती है। यह व्यक्ति को स्वत: ही करनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रेरणा दी जा सकती है। अष्टांग योग में से बहिरंग योगतक मार्गदर्शन भी किया जा सकता है। लेकिन आगे का मार्ग तो साधना का ही होता है। वैसे धर्माचरण की शिक्षा भी मोक्ष की शिक्षा ही होती है|  
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१.१.७ मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा : मोक्ष की शिक्षा नहीं होती। साधना होती है। यह व्यक्ति को स्वत: ही करनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रेरणा दी जा सकती है। अष्टांग योग में से बहिरंग योगतक मार्गदर्शन भी किया जा सकता है। लेकिन आगे का मार्ग तो साधना का ही होता है। वैसे धर्माचरण की शिक्षा भी मोक्ष की शिक्षा ही होती है|  
१.१.८ विवेक की शिक्षा या ‘विचार कैसे करना’ – इस की शिक्षा : सामान्यत: बुद्धि सत्यान्वेषी ही होती है| वह मनुष्य के विवेक को जाग्रत करती है| गलत काम करने से रोकती है| ऐसे समय इन्द्रियों की सुख की लालसा से प्रभावित मन इस बुद्धि को गलत दिशा में ले जाता है| विवेक की शिक्षा या विचार कैसे करना इस की शिक्षा से तात्पर्य मन को बुद्धिपर हावी न होने देने की मन को नुद्धि का अनुगामी बने रहने की शिक्षा से है| विचार कैसे करना चाहिए इस विषय में हमने अध्याय ८ खंड १ में जाना है|
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१.१.८ विवेक की शिक्षा या ‘विचार कैसे करना’ – इस की शिक्षा : सामान्यत: बुद्धि सत्यान्वेषी ही होती है| वह मनुष्य के विवेक को जाग्रत करती है| गलत काम करने से रोकती है| ऐसे समय इन्द्रियों की सुख की लालसा से प्रभावित मन इस बुद्धि को गलत दिशा में ले जाता है| विवेक की शिक्षा या विचार कैसे करना इस की शिक्षा से तात्पर्य मन को बुद्धिपर हावी न होने देने की मन को नुद्धि का अनुगामी बने रहने की शिक्षा से है| विचार कैसे करना चाहिए इस विषय में हमने अध्याय ८ खंड १ में जाना है|
 
१.२ शिक्षक  
 
१.२ शिक्षक  
 
शिक्षक धर्मनिष्ठ हो। धर्म का जानकार हो। धर्म सिखाने की क्षमता और कौशल जिस के पास है ऐसा हो। धर्माचरण सिखाने के साथ ही विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन के लिये मार्गदर्शन की शिक्षक की क्षमता हो। शिष्य को अपनी संतान मानकर उसे शिक्षित करने में कोई कमी नहीं रखनेवाला ही श्रेष्ठ शिक्षक होता है। गुरूसे शिष्य सवाई - परंपरा का निर्माण : विवेक, ज्ञान, बल, श्रध्दा, कौशल आदि सभी बातों में गुरू से शिष्य सवाई बने ऐसा प्रयास होना चाहिये।  
 
शिक्षक धर्मनिष्ठ हो। धर्म का जानकार हो। धर्म सिखाने की क्षमता और कौशल जिस के पास है ऐसा हो। धर्माचरण सिखाने के साथ ही विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन के लिये मार्गदर्शन की शिक्षक की क्षमता हो। शिष्य को अपनी संतान मानकर उसे शिक्षित करने में कोई कमी नहीं रखनेवाला ही श्रेष्ठ शिक्षक होता है। गुरूसे शिष्य सवाई - परंपरा का निर्माण : विवेक, ज्ञान, बल, श्रध्दा, कौशल आदि सभी बातों में गुरू से शिष्य सवाई बने ऐसा प्रयास होना चाहिये।  
शिक्षक सर्वप्रथम आचार्य होना चाहिये। आचार्य की व्याख्या है -
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शिक्षक सर्वप्रथम आचार्य होना चाहिये। आचार्य की व्याख्या है -
 
आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत ।
 
आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत ।
 
स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥
 
स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥
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१.४ नि:शुल्क शिक्षा - सामाजिक जिम्मेदारी : शिक्षा नि:शुल्क हो। श्रेष्ठ मानव का निर्माण यही शिक्षा का लक्ष्य होता है। और श्रेष्ठ मानव निर्माण से अधिक श्रेष्ठ काम दुनियाँ में अन्य कोई नहीं हो सकता। इसीलिये शिक्षा बिकाऊ नहीं होती। शिक्षा जब पैसे से खरीदी जाती है शिक्षा 'शिक्षा' नहीं रहती। वैसे भी धन के अभाव में समाज की प्रतिभा अविकसित रह जाए यह किसी भी श्रेष्ठ समाज के लिये लांछन की बात है। नि:शुल्क शिक्षा का ही अर्थ है शिक्षा समाज पोषित होना। शिक्षक जब अपनी आजीविका से आश्वस्त होगा तब ही वह अपनी पूरी शक्ति श्रेष्ठ मानव निर्माण में लगा सकता है। अन्यथा नहीं। इसलिये यह अनिवार्य है कि शिक्षक की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज स्वत: होकर करे।
 
१.४ नि:शुल्क शिक्षा - सामाजिक जिम्मेदारी : शिक्षा नि:शुल्क हो। श्रेष्ठ मानव का निर्माण यही शिक्षा का लक्ष्य होता है। और श्रेष्ठ मानव निर्माण से अधिक श्रेष्ठ काम दुनियाँ में अन्य कोई नहीं हो सकता। इसीलिये शिक्षा बिकाऊ नहीं होती। शिक्षा जब पैसे से खरीदी जाती है शिक्षा 'शिक्षा' नहीं रहती। वैसे भी धन के अभाव में समाज की प्रतिभा अविकसित रह जाए यह किसी भी श्रेष्ठ समाज के लिये लांछन की बात है। नि:शुल्क शिक्षा का ही अर्थ है शिक्षा समाज पोषित होना। शिक्षक जब अपनी आजीविका से आश्वस्त होगा तब ही वह अपनी पूरी शक्ति श्रेष्ठ मानव निर्माण में लगा सकता है। अन्यथा नहीं। इसलिये यह अनिवार्य है कि शिक्षक की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज स्वत: होकर करे।
 
१.५ शासन की भूमिका : शासन समाज का मालिक नहीं होता। शासन व्यवस्था यह राष्ट्र के याने राष्ट्रीय समाज के सुचारू रूप से चलाने के लिये निर्मित एक व्यवस्था मात्र है। इस का अधिष्ठान राष्ट्रहित के अलावा अन्य नहीं है। इसलिये शिक्षा व्यवस्था श्रेष्ठ बनीं रहे यह देखना शासन का कर्तव्य होता है। इस दृष्टि से श्रेष्ठ शिक्षा को सहायता, समर्थन और संरक्षण देने की जिम्मेदारी शासन की होती है। शासन भी समाज का ही एक अंग होता है। इस दृष्टि से शिक्षक की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आवश्यकतानुसार शासन भी जिम्मेदार होता है। अंग्रेजपूर्व भारतमें इसीलिये एक ओर तो किसी भी राजा या महाराजा का कभी भी शिक्षा विभाग नहीं रहा। और दूसरी ओर ये शासक अपने राज्य में और कभी कभी तो अन्य राज्यों में भी स्थित श्रेष्ठ शिक्षा केंद्रों को सहायता कर अपने आप को धन्य समझते थे।   
 
१.५ शासन की भूमिका : शासन समाज का मालिक नहीं होता। शासन व्यवस्था यह राष्ट्र के याने राष्ट्रीय समाज के सुचारू रूप से चलाने के लिये निर्मित एक व्यवस्था मात्र है। इस का अधिष्ठान राष्ट्रहित के अलावा अन्य नहीं है। इसलिये शिक्षा व्यवस्था श्रेष्ठ बनीं रहे यह देखना शासन का कर्तव्य होता है। इस दृष्टि से श्रेष्ठ शिक्षा को सहायता, समर्थन और संरक्षण देने की जिम्मेदारी शासन की होती है। शासन भी समाज का ही एक अंग होता है। इस दृष्टि से शिक्षक की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आवश्यकतानुसार शासन भी जिम्मेदार होता है। अंग्रेजपूर्व भारतमें इसीलिये एक ओर तो किसी भी राजा या महाराजा का कभी भी शिक्षा विभाग नहीं रहा। और दूसरी ओर ये शासक अपने राज्य में और कभी कभी तो अन्य राज्यों में भी स्थित श्रेष्ठ शिक्षा केंद्रों को सहायता कर अपने आप को धन्य समझते थे।   
समाज में जब लोगों में काम और मोह बढ जाते हैं, लोगों के अपने नियंत्रण में नहीं रहते तब शासन की आवश्यकता होती है। अपने काम और मोह को लोग अपने नियंत्रण में रख सकें इस के लिये ही धर्म शिक्षा होती है। जब शासन धर्म की शिक्षा में योगदान देता है तब समाज में धर्माचरण बढता है। समाज में धर्माचरण की मात्रा जितनी बढेगी उतना ही शासन करने का काम  सरल हो जाता है। इस दृष्टि से भी शासन के लिये अपने शासित क्षेत्र में प्रत्येक बच्चे को श्रेष्ठ शिक्षा मिलती रहे यह सुनिश्चित करना जरूरी होता है।  
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समाज में जब लोगों में काम और मोह बढ जाते हैं, लोगों के अपने नियंत्रण में नहीं रहते तब शासन की आवश्यकता होती है। अपने काम और मोह को लोग अपने नियंत्रण में रख सकें इस के लिये ही धर्म शिक्षा होती है। जब शासन धर्म की शिक्षा में योगदान देता है तब समाज में धर्माचरण बढता है। समाज में धर्माचरण की मात्रा जितनी बढेगी उतना ही शासन करने का काम  सरल हो जाता है। इस दृष्टि से भी शासन के लिये अपने शासित क्षेत्र में प्रत्येक बच्चे को श्रेष्ठ शिक्षा मिलती रहे यह सुनिश्चित करना जरूरी होता है।  
१.६ शिक्षा केंद्र के लिए धन पूर्ति : शिक्षा केंद्र के लिए धन की पूर्ति के लिए निम्न प्रणालियों का प्रयोग किया जा सकता है।  
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१.६ शिक्षा केंद्र के लिए धन पूर्ति : शिक्षा केंद्र के लिए धन की पूर्ति के लिए निम्न प्रणालियों का प्रयोग किया जा सकता है।  
 
- गुरुदक्षिणा - सामाजिक दान - भिक्षा - अपने उत्पादन - पूर्व विद्यार्थी योगदान
 
- गुरुदक्षिणा - सामाजिक दान - भिक्षा - अपने उत्पादन - पूर्व विद्यार्थी योगदान
दान और भीख में अन्तर होता है। दान स्वत: होकर दिया जाता है। भीख माँगी जाती है। वैसे तो भिक्षा भी माँगी ही जाती है। लेकिन भिक्षा माँगनेवाला और देनेवाला दोनों श्रेष्ठ काम कर रहे हैं ऐसा होने से उसमें गौरव अनुभव करते हैं। जब कि भीख में भीख देनेवाला दया या गौरव अनुभव करता है, और मांगनेवाला लाचारीका| देने की संस्कृति होने से भारत में सामान्यत: भीख माँगने की प्रथा नहीं थी। भोजन के समय आया हुआ अतिथी भोजन का आदरपात्र अधिकारी माना जाता था।      
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दान और भीख में अन्तर होता है। दान स्वत: होकर दिया जाता है। भीख माँगी जाती है। वैसे तो भिक्षा भी माँगी ही जाती है। लेकिन भिक्षा माँगनेवाला और देनेवाला दोनों श्रेष्ठ काम कर रहे हैं ऐसा होने से उसमें गौरव अनुभव करते हैं। जब कि भीख में भीख देनेवाला दया या गौरव अनुभव करता है, और मांगनेवाला लाचारीका| देने की संस्कृति होने से भारत में सामान्यत: भीख माँगने की प्रथा नहीं थी। भोजन के समय आया हुआ अतिथी भोजन का आदरपात्र अधिकारी माना जाता था।
    
== शासन व्यवस्था ==
 
== शासन व्यवस्था ==
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