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| # कलि युगानुकूल और भारत देशानुकूल निर्दोष धर्मशास्त्र (स्मृति) की प्रस्तुति करना। इस हेतु आवश्यक अध्ययन, अनुसंधान और व्यापक प्रबोधन तथा विचार विमर्श करना। | | # कलि युगानुकूल और भारत देशानुकूल निर्दोष धर्मशास्त्र (स्मृति) की प्रस्तुति करना। इस हेतु आवश्यक अध्ययन, अनुसंधान और व्यापक प्रबोधन तथा विचार विमर्श करना। |
| # इस स्मृति के प्रति समाज में सर्वसहमति निर्माण करना। इस स्मृति को व्यापक समर्थन मिले ऐसे प्रयास करना। | | # इस स्मृति के प्रति समाज में सर्वसहमति निर्माण करना। इस स्मृति को व्यापक समर्थन मिले ऐसे प्रयास करना। |
− | # वर्तमान प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणालि के कारण और मेकॉले शिक्षा के कारण हिंदू समाज भी भारतीय 'धर्म' संकल्पना से अनभिज्ञ हो गया है। इस लिये सब से पहले तो 'धर्म' संकल्पना को सामान्य हिंदू समाज में स्थापित करने के प्रयास करने होंगे। धर्म यह समूचे समाज को जोडने वाली बात है। पंथ, संप्रदाय, मत आदि का भी महत्व है। लेकिन ये व्यक्तिगत बातें हैं। सामाजिक एकात्मता के संदर्भ में संप्रदाय समाज को अलग अलग पहचान देनेवाली संकल्पनाएं हैं। मजहब और रिलीजन तो समाज को तोडने वाली, अन्य समाजों से झगडे निर्माण करने वाली राजनीतिक संकल्पनाएं हैं। इन बातों को भी स्थपित करना होगा। इस लिये किसी भी मत, पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब की पुस्तकों में धर्म के विपरीत यदि कुछ है तो योग्य विचारों के आधारपर जन-जागरण कर उन विपरीत विचारों को निष्प्रभ करना होगा। केवल मात्र हिंदू समाज धर्म की संकल्पना के करीब है इसे भी प्रचारित करना होगा। साथ ही में जिन हिंदुओं का व्यवहार धर्म के विपरीत हो उन का प्रबोधन कर उन को भी बदलना होगा। | + | # वर्तमान प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणालि के कारण और मेकॉले शिक्षा के कारण हिंदू समाज भी भारतीय 'धर्म' संकल्पना से अनभिज्ञ हो गया है। इस लिये सब से पहले तो 'धर्म' संकल्पना को सामान्य हिंदू समाज में स्थापित करने के प्रयास करने होंगे। धर्म यह समूचे समाज को जोडने वाली बात है। पंथ, संप्रदाय, मत आदि का भी महत्व है। लेकिन ये व्यक्तिगत बातें हैं। सामाजिक एकात्मता के संदर्भ में संप्रदाय समाज को अलग अलग पहचान देनेवाली संकल्पनाएं हैं। मजहब और रिलीजन तो समाज को तोडने वाली, अन्य समाजों से झगडे निर्माण करने वाली राजनीतिक संकल्पनाएं हैं। इन बातों को भी स्थपित करना होगा। इस लिये किसी भी मत, पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब की पुस्तकों में धर्म के विपरीत यदि कुछ है तो योग्य विचारों के आधारपर जन-जागरण कर उन विपरीत विचारों को निष्प्रभ करना होगा। केवल मात्र हिंदू समाज धर्म की संकल्पना के करीब है इसे भी प्रचारित करना होगा। साथ ही में जिन हिन्दूओं का व्यवहार धर्म के विपरीत हो उन का प्रबोधन कर उन को भी बदलना होगा। |
| # हमें अपने इतिहास से भी कुछ पाठ सीखने होंगे। स्व-धर्म और स्व-राज ये दोनों साथ में चलाने की बातें हैं। जब शासन धर्म का अधिष्ठान छोड देता है या धर्म व्यवस्था जब राज्य को धर्महीन या धर्म विरोधी बनने देती है तब ना तो स्व-धर्म बचता है और ना ही स्व-राज। इतिहास इस का साक्षी है कि हरिहर-बुक्कराय के साथ में स्वामी विद्यारण्य रहे, शिवाजी के साथ में रामदास रहे, राज करेगा खालसा के साथ सिख गुरू रहे तब ही स्व-धर्म की रक्षा भी हो पाई और स्व-राज्य की भी। तब ही स्व-राज वर्धिष्णू रहा। लेकिन जैसे ही और जब जब धर्म व्यवस्था और राज्यसत्ता में अन्तर निर्माण हुवा समाज गतानुगतिक स्थिति को प्राप्त हुवा। | | # हमें अपने इतिहास से भी कुछ पाठ सीखने होंगे। स्व-धर्म और स्व-राज ये दोनों साथ में चलाने की बातें हैं। जब शासन धर्म का अधिष्ठान छोड देता है या धर्म व्यवस्था जब राज्य को धर्महीन या धर्म विरोधी बनने देती है तब ना तो स्व-धर्म बचता है और ना ही स्व-राज। इतिहास इस का साक्षी है कि हरिहर-बुक्कराय के साथ में स्वामी विद्यारण्य रहे, शिवाजी के साथ में रामदास रहे, राज करेगा खालसा के साथ सिख गुरू रहे तब ही स्व-धर्म की रक्षा भी हो पाई और स्व-राज्य की भी। तब ही स्व-राज वर्धिष्णू रहा। लेकिन जैसे ही और जब जब धर्म व्यवस्था और राज्यसत्ता में अन्तर निर्माण हुवा समाज गतानुगतिक स्थिति को प्राप्त हुवा। |
| # इस लिये जो धर्मशास्त्र (नव निर्मित स्मृति) का ज्ञाता, अनुपालन कर्ता और क्रियान्वयन करवाने वाला होगा ऐसा स्थिर शासन यह अपेक्षित परिवर्तन के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। ऐसे शासन की स्थिरता भी इसमें महत्वपूर्ण है। किन्तु ऐसा शासक तभी संभव होगा जब धर्मसत्ता प्रबल होगी, असामाजिक, अधार्मिक तत्वों द्वारा शासन पर आने वाले दबावों का जनमत के आधारपर सक्षमता से विरोध कर शासक को धर्म के अनुपालन के लिये बल देगी। सामान्य लोगों में जडता होती है। इस लिये परिवर्तन का विरोध यह स्वाभाविक बात है। हम कुछ कमजोर या बीमार बच्चों को, उन की इच्छा के विरूध्द, उन के ही हित के लिये कडवी दवा भी पिलाते हैं। उसी प्रकार से शासक को, स्वभाव के या आलस के कारण अधर्माचरण करनेवाले लोगों से धर्म का अनुपालन करवाना होगा। | | # इस लिये जो धर्मशास्त्र (नव निर्मित स्मृति) का ज्ञाता, अनुपालन कर्ता और क्रियान्वयन करवाने वाला होगा ऐसा स्थिर शासन यह अपेक्षित परिवर्तन के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। ऐसे शासन की स्थिरता भी इसमें महत्वपूर्ण है। किन्तु ऐसा शासक तभी संभव होगा जब धर्मसत्ता प्रबल होगी, असामाजिक, अधार्मिक तत्वों द्वारा शासन पर आने वाले दबावों का जनमत के आधारपर सक्षमता से विरोध कर शासक को धर्म के अनुपालन के लिये बल देगी। सामान्य लोगों में जडता होती है। इस लिये परिवर्तन का विरोध यह स्वाभाविक बात है। हम कुछ कमजोर या बीमार बच्चों को, उन की इच्छा के विरूध्द, उन के ही हित के लिये कडवी दवा भी पिलाते हैं। उसी प्रकार से शासक को, स्वभाव के या आलस के कारण अधर्माचरण करनेवाले लोगों से धर्म का अनुपालन करवाना होगा। |
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| आज कल भारतीय संविधान को ही “यही भारत की युगानुकूल स्मृति है” ऐसा लोग कहते हैं। इस में अनेकों दोष हैं। फिर इस में परिवर्तन कि प्रक्रिया जिन लोक-प्रतिनिधियों के अधिकार में चलती है, उन की विद्वत्ता और उन के धर्मशास्त्र के ज्ञान और आचरण के संबंध में न बोलना ही अच्छा है, ऐसी स्थिति है। इसलिये वर्तमान संविधान को ही वर्तमान भारत की स्मृति मान लेना ठीक नहीं है। | | आज कल भारतीय संविधान को ही “यही भारत की युगानुकूल स्मृति है” ऐसा लोग कहते हैं। इस में अनेकों दोष हैं। फिर इस में परिवर्तन कि प्रक्रिया जिन लोक-प्रतिनिधियों के अधिकार में चलती है, उन की विद्वत्ता और उन के धर्मशास्त्र के ज्ञान और आचरण के संबंध में न बोलना ही अच्छा है, ऐसी स्थिति है। इसलिये वर्तमान संविधान को ही वर्तमान भारत की स्मृति मान लेना ठीक नहीं है। |
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− | गत दस ग्यारह पीढियों से हम इस अभारतीय प्रतिमान में जी रहे हैं। इस प्रतिमान के अनुसार सोचने और जीने के आदि बन गये हैं। इस लिये यह परिवर्तन संभव नहीं है ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। किन्तु हमें यह समझना होगा कि इस प्रतिमान को भारत पर सत्ता के बल पर लादने के लिये भी अंग्रेजों को १२५-१५० वर्ष तो लगे ही थे। हजारों लाखों वर्षों से चले आ रहे भारतीय प्रतिमान को वे केवल १५० वर्षों में बदल सके। फिर हमारे हजारों वर्षों से चले आ रहे जीवन के प्रतिमान को जो मुष्किल से १५० वर्षों के लिये खण्डित हो गया था, फिर से मूल स्थिति की दिशा में लाना ५०-६० वर्षों में असंभव नहीं है। शायद इस से भी कम समय में यह संभव हो सकेगा। किन्तु उस के लिये भगीरथ प्रयास करने होंगे। वैसे तो समाज भी ऐसे परिवर्तन की आस लगाये बैठा है। लेकिन क्या प्रबुध्द हिंदु इस के लिये तैयार है? | + | गत दस ग्यारह पीढियों से हम इस अभारतीय प्रतिमान में जी रहे हैं। इस प्रतिमान के अनुसार सोचने और जीने के आदि बन गये हैं। इस लिये यह परिवर्तन संभव नहीं है ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। किन्तु हमें यह समझना होगा कि इस प्रतिमान को भारत पर सत्ता के बल पर लादने के लिये भी अंग्रेजों को १२५-१५० वर्ष तो लगे ही थे। हजारों लाखों वर्षों से चले आ रहे भारतीय प्रतिमान को वे केवल १५० वर्षों में बदल सके। फिर हमारे हजारों वर्षों से चले आ रहे जीवन के प्रतिमान को जो मुष्किल से १५० वर्षों के लिये खण्डित हो गया था, फिर से मूल स्थिति की दिशा में लाना ५०-६० वर्षों में असंभव नहीं है। शायद इस से भी कम समय में यह संभव हो सकेगा। किन्तु उस के लिये भगीरथ प्रयास करने होंगे। वैसे तो समाज भी ऐसे परिवर्तन की आस लगाये बैठा है। लेकिन क्या प्रबुध्द हिन्दू इस के लिये तैयार है? |
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