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|समाज को विघटित कर उसे स्वार्थी व्यक्तियों  
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|समाज को विघटित कर उसे स्वार्थी  
का जमावडा बना देता है
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व्यक्तियों का जमावडा बना देता है
 
|कौटुम्बिक भावना के विकास से पूरे विश्व को  
 
|कौटुम्बिक भावना के विकास से पूरे विश्व को  
 
'वसुधैव कुटुम्बकम्' बना देता है
 
'वसुधैव कुटुम्बकम्' बना देता है
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|लोगों को जबरन अपने जैसा बनाना,
 
|लोगों को जबरन अपने जैसा बनाना,
 
यह कर्तव्य है (व्हाइट मॅन्स् बर्डन)
 
यह कर्तव्य है (व्हाइट मॅन्स् बर्डन)
|स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्' के माध्यम से विश्व को श्रेष्ठ बनाना।
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|स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्' के माध्यम से विश्व को  
 
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श्रेष्ठ बनाना। कृण्वंतो विश्वम् आर्यम्।
कृण्वंतो विश्वम् आर्यम्।
   
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|रिलीजन, मजहब या भौतिक शास्त्रीय दृष्टि जीवन
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|रिलीजन, मजहब या भौतिक शास्त्रीय दृष्टि  
का नियमन करते हैं
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जीवन का नियमन करते हैं
|समाज जीवन की धारणा करने वाला 'धर्म' मानव जीवन
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|समाज जीवन की धारणा करने वाला 'धर्म' मानव
का नियमन करता है
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जीवन का नियमन करता है
 
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== परिवर्तन की प्रक्रिया ==
 
== परिवर्तन की प्रक्रिया ==
इस विषय के भाग १ में हमने भारतीय और अभारतीय दोनों प्रतिमानों के विभिन्न पहलुओं और व्यवस्था समूह को समझने का प्रयास किया है। अभारतीय प्रतिमान को नकार कर भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया को समझने से पहले प्रतिमान के विभिन्न व्यवस्थाओं के परस्पर पूरक और पोषक संबंधों को समझना होगा। ऐसा करने से भारतीय प्रतिमान के युगानुकूल स्वरूप को समझने में सहायता होगी। भारतीय प्रतिमान का चिरंजीवी हिस्सा कौन सा है और युगानुकूल हिस्सा कौनसा है? पूर्णत: नई  व्यवस्थाओं का निर्माण करना होगा या नष्टप्राय व्यवस्थाओं को पुन: संजीवनी देनी होगी? यह पुरानी व्यवस्थाओं और पूर्णत: नयी निर्माण की हुई व्यवस्थाओं का समायोजन ठीक से होगा या नहीं? समायोजन के लिये क्या करना होगा? आदि को समझना सरल होगा।  
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इस विषय के भाग १ में हमने भारतीय और अभारतीय दोनों प्रतिमानों के विभिन्न पहलुओं और व्यवस्था समूह को समझने का प्रयास किया है। अभारतीय प्रतिमान को नकार कर भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया को समझने से पहले प्रतिमान के विभिन्न व्यवस्थाओं के परस्पर पूरक और पोषक संबंधों को समझना होगा। ऐसा करने से भारतीय प्रतिमान के युगानुकूल स्वरूप को समझने में सहायता होगी। भारतीय प्रतिमान का चिरंजीवी हिस्सा कौन सा है और युगानुकूल हिस्सा कौनसा है? पूर्णत: नई  व्यवस्थाओं का निर्माण करना होगा या नष्टप्राय व्यवस्थाओं को पुन: संजीवनी देनी होगी? यह पुरानी व्यवस्थाओं और पूर्णत: नयी निर्माण की हुई व्यवस्थाओं का समायोजन ठीक से होगा या नहीं? समायोजन के लिये क्या करना होगा? आदि को समझना सरल होगा।
पूर्णत: नयी व्यवस्थाओं के निर्माण में सब से बडी कठिनाई यह है की इस की प्रस्तुति ध्यानावस्था प्राप्त या ऋषि स्तर का व्यक्ति ही कर सकता है। और ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसा कोई महामानव आज दिखाई नहीं देता। ऐसा कोई होगा भी तो हमारी उसे पहचानने की योग्यता भी नहीं है। इस कारण व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने से यही समझ में आएगा की कोई प्रकांड पंडित जब तक भारतीय जीवन दृष्टि और अनुकूल व्यवहार के लिये आवश्यक व्यवस्था समूह की रूपरेखा की प्रस्तुति नहीं करता तब तक तो पुरानी व्यवस्थाओं के दोषों को दूर कर उन्हें निर्दोष स्वरूप में फिर से अपनाना होगा। पुरानी व्यवस्थाएँ जस की तस तो फिर नहीं लाई जा सकतीं। किंतु तत्व वही रखकर उनके कालानुरूप स्वरूप का विचार और प्रतिष्ठापना की जा सकती है।
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चिरंजीवी भारतीय प्रतिमान की पुन: प्रतिष्ठा
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पूर्णत: नयी व्यवस्थाओं के निर्माण में सब से बडी कठिनाई यह है की इस की प्रस्तुति ध्यानावस्था प्राप्त या ऋषि स्तर का व्यक्ति ही कर सकता है। और ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसा कोई महामानव आज दिखाई नहीं देता। ऐसा कोई होगा भी तो हमारी उसे पहचानने की योग्यता भी नहीं है। इस कारण व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने से यही समझ में आएगा की कोई प्रकांड पंडित जब तक भारतीय जीवन दृष्टि और अनुकूल व्यवहार के लिये आवश्यक व्यवस्था समूह की रूपरेखा की प्रस्तुति नहीं करता तब तक तो पुरानी व्यवस्थाओं के दोषों को दूर कर उन्हें निर्दोष स्वरूप में फिर से अपनाना होगा। पुरानी व्यवस्थाएँ जस की तस तो फिर नहीं लाई जा सकतीं। किंतु तत्व वही रखकर उनके कालानुरूप स्वरूप का विचार और प्रतिष्ठापना की जा सकती है।  
परिवर्तन जगत का नियम है। विश्व के हर घटक में हर क्षण परिवर्तन होता ही रहता है। इन में कुछ परिवर्तन प्राकृतिक होते हैं। यह परिवर्तन परमात्मा द्वारा किये होते हैं याने सृष्टी के नियमों के अनुसार होते हैं। और कुछ परिवर्तन मानव कृत होते हैं। मानव समाज के लिये यही बुध्दिमानी की बात है की वह जो परिवर्तन करता है वे परमात्मा कृत परिवर्तनों से सुसंगत रहें। कम से कम अविरोधी तो रहें। अर्थात् परमात्मा कृत परिवर्तनों का और प्रकृति का विरोध करने वाली कोई भी बात इस परिवर्तन की प्रक्रिया में वर्जित होगी। धर्म से संबंधित कुछ भारतीय संकल्पनाओं को इस संदर्भ में समझना ठीक होगा। -
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१.  धारणात् धर्ममित्याहू धर्मो धारयते प्रजा: : इस व्याख्या के अनुसार जिस से धारणा होती है उसे धर्म कहते हैं। समाज धर्म का अर्थ है, जिस से समाज की धारणा होती है। और समाज की धारणा का या समाज धर्म का अर्थ है समाज को यानी समाज के सभी घटकों को वह सब बातें करनी चाहिये जो उसे बनाए रखे, बलवान बनाए और बनाए रखे, निरोग बनाए और बनाए रखे, लचीला बनाए और बनाए रखे, तितिक्षावान बनाए और बनाए रखे। इस के विपरीत कुछ भी नहीं करे। पुत्रधर्म, गृहस्थ धर्म, समाज धर्म, राष्ट्र धर्म आदि अलग अलग संदर्भों में इसे समझना होगा।  
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== चिरंजीवी भारतीय प्रतिमान की पुन: प्रतिष्ठा ==
२.  यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म: : जो करने से मनुष्य को इस जन्म में प्रेय और अगले जन्म की दृष्टि से श्रेय की भी प्राप्ति हो वही 'धर्म' है। यहाँ प्रेय से तात्पर्य है जो मन और इंद्रियों को प्रिय लगता है याने भौतिक विकास। और श्रेय से तात्पर्य है कल्याण होने से। जीवन का अंतिम लक्ष्य जो मोक्ष है उस की प्राप्ति होने की दृष्टि से आगे बढना। ऐसे कर्म करना जिन से अगले जन्म में अधिक श्रेष्ठ जन्म या मोक्ष प्राप्त होगा। प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। साथ ही इस में एक पूर्व शर्त रखी गई है। वह है 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च' । मोक्ष प्राप्ति का मार्ग 'जगत् हिताय च' के रास्ते से जाता है, चराचर के सुख के रास्ते से जाता है।  
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परिवर्तन जगत का नियम है। विश्व के हर घटक में हर क्षण परिवर्तन होता ही रहता है। इन में कुछ परिवर्तन प्राकृतिक होते हैं। यह परिवर्तन परमात्मा द्वारा किये होते हैं याने सृष्टी के नियमों के अनुसार होते हैं। और कुछ परिवर्तन मानव कृत होते हैं। मानव समाज के लिये यही बुध्दिमानी की बात है की वह जो परिवर्तन करता है वे परमात्मा कृत परिवर्तनों से सुसंगत रहें। कम से कम अविरोधी तो रहें। अर्थात् परमात्मा कृत परिवर्तनों का और प्रकृति का विरोध करने वाली कोई भी बात इस परिवर्तन की प्रक्रिया में वर्जित होगी। धर्म से संबंधित कुछ भारतीय संकल्पनाओं को इस संदर्भ में समझना ठीक होगा:
३.  आचार: प्रभवो धर्म: : केवल श्रेष्ठ तत्वज्ञान को धर्म नहीं कहते। धर्म आचरण के लिये होता है। जो आचरण में लाया जा सकता है, लाया जाना चाहिये ऐसे आचरण को ही धर्म कहते हैं।  
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# धारणात् धर्ममित्याहू धर्मो धारयते प्रजा:<ref>महाभारत, धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः। यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः</ref>  इस व्याख्या के अनुसार जिस से धारणा होती है उसे धर्म कहते हैं। समाज धर्म का अर्थ है, जिस से समाज की धारणा होती है। और समाज की धारणा का या समाज धर्म का अर्थ है समाज को यानी समाज के सभी घटकों को वह सब बातें करनी चाहिये जो उसे बनाए रखे, बलवान बनाए और बनाए रखे, निरोग बनाए और बनाए रखे, लचीला बनाए और बनाए रखे, तितिक्षावान बनाए और बनाए रखे। इस के विपरीत कुछ भी नहीं करे। पुत्रधर्म, गृहस्थ धर्म, समाज धर्म, राष्ट्र धर्म आदि अलग अलग संदर्भों में इसे समझना होगा।  
४.  सामाजिक संगठन प्रणालियाँ और सामाजिक व्यवस्थाएं भी ऐसी बनें जो इन धर्म की संकल्पनाओं की अविरोधी हों।  
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# यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिध्दि स धर्म:<ref>वैशेषिक सूत्र 1.1.2 </ref> : जो करने से मनुष्य को इस जन्म में प्रेय और अगले जन्म की दृष्टि से श्रेय की भी प्राप्ति हो वही 'धर्म' है। यहाँ प्रेय से तात्पर्य है जो मन और इंद्रियों को प्रिय लगता है याने भौतिक विकास। और श्रेय से तात्पर्य है कल्याण होने से। जीवन का अंतिम लक्ष्य जो मोक्ष है उस की प्राप्ति होने की दृष्टि से आगे बढना। ऐसे कर्म करना जिन से अगले जन्म में अधिक श्रेष्ठ जन्म या मोक्ष प्राप्त होगा। प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। साथ ही इस में एक पूर्व शर्त रखी गई है। वह है 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref>' । मोक्ष प्राप्ति का मार्ग 'जगत् हिताय च' के रास्ते से जाता है, चराचर के सुख के रास्ते से जाता है।  
मानव कृत परिवर्तन धर्म से सुसंगत, अविरोधी या विरोधी ऐसे कुछ भी हो सकते हैं। जब मानव कृत परिवर्तन धर्म सुसंगत होते हैं तब वे सब के लिये हितकारी होते हैं। जब ये परिवर्तन धर्म अविरोधी होते हैं तब वे कुछ लोगों के या बहुत सारे लोगों के हित में होते हैं किन्तु किसी को हानी नहीं पहुंचाते। लेकिन जब यह परिवर्तन धर्म विरोधी होते हैं तब वे कुछ लोगों के या सभी के अहित के होते हैं।  
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# आचार: प्रभवो धर्म:<ref>मनुस्मृति 1.108</ref> : केवल श्रेष्ठ तत्वज्ञान को धर्म नहीं कहते। धर्म आचरण के लिये होता है। जो आचरण में लाया जा सकता है, लाया जाना चाहिये ऐसे आचरण को ही धर्म कहते हैं।  
किसी भी मानव कृत परिवर्तन की प्रक्रिया में यह परिवर्तन चराचर के हित में हो इस की सुनिश्चिति के लिये यह आवश्यक है कि परिवर्तन की योजना की प्रस्तुति करनेवाला, धर्म का अच्छा जानकार हो। ऐसे लोगों को धर्माचार्य कहते हैं। धर्माचार्यों द्वारा नियंत्रित, निर्देशित और नियमित शक्ति को धर्मसत्ता कहते हैं। धर्म सत्ता कोई संगठन नहीं होता। धर्मसत्ता यह धर्माचार्यों का जनजन पर जो नैतिक प्रभाव होता है उसका नाम है। श्रीमद्भगवद्गीता (८- ४२,४३,४४) में चार वर्णों के गुण और कर्मों का वर्णन आता है। यह वर्ण उन के स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ऐसे चार प्रकार के होते हैं। चराचर के हित में परिवर्तन करने के लिये यह आवश्यक है कि ब्राह्म-तेज और क्षात्रतेज का ठीक से समायोजन हो। ब्राह्मण वर्ग याने धर्मसत्ता का काम होगा चराचर के हित को ध्यान में रखते हुवे पुनरूत्थान की योजना (स्मृति) की प्रस्तुति करना। और धर्मशास्त्र के जानकार और अनुपालन कर्ता ऐसे क्षात्रतेज का यानी शासक का काम यह होगा कि वह धर्मसत्ता ने प्रस्तुत की हुई योजना को समाज में स्थापित करे। प्रत्यक्ष प्रक्रिया शायद निम्न जैसी होगी।
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# सामाजिक संगठन प्रणालियाँ और सामाजिक व्यवस्थाएं भी ऐसी बनें जो इन धर्म की संकल्पनाओं की अविरोधी हों। मानव कृत परिवर्तन धर्म से सुसंगत, अविरोधी या विरोधी ऐसे कुछ भी हो सकते हैं। जब मानव कृत परिवर्तन धर्म सुसंगत होते हैं तब वे सब के लिये हितकारी होते हैं। जब ये परिवर्तन धर्म अविरोधी होते हैं तब वे कुछ लोगों के या बहुत सारे लोगों के हित में होते हैं किन्तु किसी को हानी नहीं पहुंचाते। लेकिन जब यह परिवर्तन धर्म विरोधी होते हैं तब वे कुछ लोगों के या सभी के अहित के होते हैं।  
१. समर्पित, क्षमतावान और समाज तथा धर्म की योग्य समझ रखने वाले धर्माचार्यों के एक गट ने सामूहिक चिंतन के लिए एकत्रित आना।
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किसी भी मानव कृत परिवर्तन की प्रक्रिया में यह परिवर्तन चराचर के हित में हो इस की सुनिश्चिति के लिये यह आवश्यक है कि परिवर्तन की योजना की प्रस्तुति करनेवाला, धर्म का अच्छा जानकार हो। ऐसे लोगों को धर्माचार्य कहते हैं। धर्माचार्यों द्वारा नियंत्रित, निर्देशित और नियमित शक्ति को धर्मसत्ता कहते हैं। धर्म सत्ता कोई संगठन नहीं होता। धर्मसत्ता यह धर्माचार्यों का जनजन पर जो नैतिक प्रभाव होता है उसका नाम है।  
२. 'धर्म' इस शब्द को उस के सही अर्थों में सर्व प्रथम सभी धर्माचार्यों, संप्रदायाचार्यों में स्थापित करना।  
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३. कलि युगानुकूल और भारत देशानुकूल निर्दोष धर्मशास्त्र (स्मृति) की प्रस्तुति करना। इस हेतु आवश्यक अध्ययन, अनुसंधान और व्यापक प्रबोधन तथा विचार विमर्श करना।
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श्रीमद्भगवद्गीता (८- ४२,४३,४४) में चार वर्णों के गुण और कर्मों का वर्णन आता है। यह वर्ण उन के स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ऐसे चार प्रकार के होते हैं। चराचर के हित में परिवर्तन करने के लिये यह आवश्यक है कि ब्राह्म-तेज और क्षात्रतेज का ठीक से समायोजन हो। ब्राह्मण वर्ग याने धर्मसत्ता का काम होगा चराचर के हित को ध्यान में रखते हुवे पुनरूत्थान की योजना (स्मृति) की प्रस्तुति करना। और धर्मशास्त्र के जानकार और अनुपालन कर्ता ऐसे क्षात्रतेज का यानी शासक का काम यह होगा कि वह धर्मसत्ता ने प्रस्तुत की हुई योजना को समाज में स्थापित करे।
४. इस स्मृति के प्रति समाज में सर्वसहमति निर्माण करना। इस स्मृति को व्यापक समर्थन मिले ऐसे प्रयास करना।
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५. वर्तमान प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणालि के कारण और मेकॉले शिक्षा के कारण हिंदू समाज भी भारतीय 'धर्म' संकल्पना से अनभिज्ञ हो गया है। इस लिये सब से पहले तो 'धर्म' संकल्पना को सामान्य हिंदू समाज में स्थापित करने के प्रयास करने होंगे। धर्म यह समूचे समाज को जोडने वाली बात है। पंथ, संप्रदाय, मत आदि का भी महत्व है। लेकिन ये व्यक्तिगत बातें हैं। सामाजिक एकात्मता के संदर्भ में संप्रदाय समाज को अलग अलग पहचान देनेवाली संकल्पनाएं हैं। मजहब और रिलीजन तो समाज को तोडने वाली, अन्य समाजों से झगडे निर्माण करने वाली राजनीतिक संकल्पनाएं हैं। इन बातों को भी स्थपित करना होगा। इस लिये किसी भी मत, पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब की पुस्तकों में धर्म के विपरीत यदि कुछ है तो योग्य विचारों के आधारपर जन-जागरण कर उन विपरीत विचारों को निष्प्रभ करना होगा। केवल मात्र हिंदू समाज धर्म की संकल्पना के करीब है इसे भी प्रचारित करना होगा। साथ ही में जिन हिंदुओं का व्यवहार धर्म के विपरीत हो उन का प्रबोधन कर उन को भी बदलना होगा।  
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प्रत्यक्ष प्रक्रिया शायद निम्न जैसी होगी:
६. हमें अपने इतिहास से भी कुछ पाठ सीखने होंगे। स्व-धर्म और स्व-राज ये दोनों साथ में चलाने की बातें हैं। जब शासन धर्म का अधिष्ठान छोड देता है या धर्म व्यवस्था जब राज्य को धर्महीन या धर्म विरोधी बनने देती है तब ना तो स्व-धर्म बचता है और ना ही स्व-राज। इतिहास इस का साक्षी है कि हरिहर-बुक्कराय के साथ में स्वामी विद्यारण्य रहे, शिवाजी के साथ में रामदास रहे, राज करेगा खालसा के साथ सिख गुरू रहे तब ही स्व-धर्म की रक्षा भी हो पाई और स्व-राज्य की भी। तब ही स्व-राज वर्धिष्णू रहा। लेकिन जैसे ही और जब जब धर्म व्यवस्था और राज्यसत्ता में अन्तर निर्माण हुवा समाज गतानुगतिक स्थिति को प्राप्त हुवा।  
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# समर्पित, क्षमतावान और समाज तथा धर्म की योग्य समझ रखने वाले धर्माचार्यों के एक गट ने सामूहिक चिंतन के लिए एकत्रित आना।  
७. इस लिये जो धर्मशास्त्र (नव निर्मित स्मृति) का ज्ञाता, अनुपालन कर्ता और क्रियान्वयन करवाने वाला होगा ऐसा स्थिर शासन यह अपेक्षित परिवर्तन के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। ऐसे शासन की स्थिरता भी इसमें महत्वपूर्ण है। किन्तु ऐसा शासक तभी संभव होगा जब धर्मसत्ता प्रबल होगी, असामाजिक, अधार्मिक तत्वों द्वारा शासन पर आने वाले दबावों का जनमत के आधारपर सक्षमता से विरोध कर शासक को धर्म के अनुपालन के लिये बल देगी। सामान्य लोगों में जडता होती है। इस लिये परिवर्तन का विरोध यह स्वाभाविक बात है। हम कुछ कमजोर या बीमार बच्चों को, उन की इच्छा के विरूध्द, उन के ही हित के लिये कडवी दवा भी पिलाते हैं। उसी प्रकार से शासक को, स्वभाव के या आलस के कारण अधर्माचरण करनेवाले लोगों से धर्म का अनुपालन करवाना होगा।
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# 'धर्म' इस शब्द को उस के सही अर्थों में सर्व प्रथम सभी धर्माचार्यों, संप्रदायाचार्यों में स्थापित करना।  
८. इन प्रयासों के साथ या कुछ आगे ही शिक्षा व्यवस्था को चलना होगा। प्रभावी ढंग से समाज को धर्माचरण सिखाना होगा। समाज धर्म सिखाना होगा। प्रतिमान की शिक्षा देनी होगी। समाज जीवन की अन्य व्यवस्थाओं के संबंध में भी जीवन के भारतीय प्रतिमान से सुसंगत ऐसे परिवर्तन के समानांतर प्रयास करने होंगे। धर्म व्यवस्था से मार्गदर्शित शिक्षा व्यवस्था परिवर्तन के लिये युवा शक्ति का निर्माण करेगी।  
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# कलि युगानुकूल और भारत देशानुकूल निर्दोष धर्मशास्त्र (स्मृति) की प्रस्तुति करना। इस हेतु आवश्यक अध्ययन, अनुसंधान और व्यापक प्रबोधन तथा विचार विमर्श करना।  
९. धर्मशिक्षा की सुदृढ नींव डालनेवाली एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था को पुन: शक्तिशाली बनाना होगा।
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# इस स्मृति के प्रति समाज में सर्वसहमति निर्माण करना। इस स्मृति को व्यापक समर्थन मिले ऐसे प्रयास करना।  
१०. गाँवों को ग्रामकुल और समाज के योगक्षेम की व्यवस्था के लिये सुधारित व्यवस्था की भी प्रतिष्ठापना करनी होगी।
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# वर्तमान प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणालि के कारण और मेकॉले शिक्षा के कारण हिंदू समाज भी भारतीय 'धर्म' संकल्पना से अनभिज्ञ हो गया है। इस लिये सब से पहले तो 'धर्म' संकल्पना को सामान्य हिंदू समाज में स्थापित करने के प्रयास करने होंगे। धर्म यह समूचे समाज को जोडने वाली बात है। पंथ, संप्रदाय, मत आदि का भी महत्व है। लेकिन ये व्यक्तिगत बातें हैं। सामाजिक एकात्मता के संदर्भ में संप्रदाय समाज को अलग अलग पहचान देनेवाली संकल्पनाएं हैं। मजहब और रिलीजन तो समाज को तोडने वाली, अन्य समाजों से झगडे निर्माण करने वाली राजनीतिक संकल्पनाएं हैं। इन बातों को भी स्थपित करना होगा। इस लिये किसी भी मत, पंथ, संप्रदाय, रिलीजन या मजहब की पुस्तकों में धर्म के विपरीत यदि कुछ है तो योग्य विचारों के आधारपर जन-जागरण कर उन विपरीत विचारों को निष्प्रभ करना होगा। केवल मात्र हिंदू समाज धर्म की संकल्पना के करीब है इसे भी प्रचारित करना होगा। साथ ही में जिन हिंदुओं का व्यवहार धर्म के विपरीत हो उन का प्रबोधन कर उन को भी बदलना होगा।  
११. संघ शक्ति की इस परिवर्तन की प्रक्रिया में महति भूमिका होगी।  
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# हमें अपने इतिहास से भी कुछ पाठ सीखने होंगे। स्व-धर्म और स्व-राज ये दोनों साथ में चलाने की बातें हैं। जब शासन धर्म का अधिष्ठान छोड देता है या धर्म व्यवस्था जब राज्य को धर्महीन या धर्म विरोधी बनने देती है तब ना तो स्व-धर्म बचता है और ना ही स्व-राज। इतिहास इस का साक्षी है कि हरिहर-बुक्कराय के साथ में स्वामी विद्यारण्य रहे, शिवाजी के साथ में रामदास रहे, राज करेगा खालसा के साथ सिख गुरू रहे तब ही स्व-धर्म की रक्षा भी हो पाई और स्व-राज्य की भी। तब ही स्व-राज वर्धिष्णू रहा। लेकिन जैसे ही और जब जब धर्म व्यवस्था और राज्यसत्ता में अन्तर निर्माण हुवा समाज गतानुगतिक स्थिति को प्राप्त हुवा।
प्रतिमान के परिवर्तन के स्वरूप और परिवर्तन की प्रक्रिया का अधिक गहराई से विचार हम आगे करेंगे।  
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# इस लिये जो धर्मशास्त्र (नव निर्मित स्मृति) का ज्ञाता, अनुपालन कर्ता और क्रियान्वयन करवाने वाला होगा ऐसा स्थिर शासन यह अपेक्षित परिवर्तन के लिये अनिवार्य ऐसी बात है। ऐसे शासन की स्थिरता भी इसमें महत्वपूर्ण है। किन्तु ऐसा शासक तभी संभव होगा जब धर्मसत्ता प्रबल होगी, असामाजिक, अधार्मिक तत्वों द्वारा शासन पर आने वाले दबावों का जनमत के आधारपर सक्षमता से विरोध कर शासक को धर्म के अनुपालन के लिये बल देगी। सामान्य लोगों में जडता होती है। इस लिये परिवर्तन का विरोध यह स्वाभाविक बात है। हम कुछ कमजोर या बीमार बच्चों को, उन की इच्छा के विरूध्द, उन के ही हित के लिये कडवी दवा भी पिलाते हैं। उसी प्रकार से शासक को, स्वभाव के या आलस के कारण अधर्माचरण करनेवाले लोगों से धर्म का अनुपालन करवाना होगा।  
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# इन प्रयासों के साथ या कुछ आगे ही शिक्षा व्यवस्था को चलना होगा। प्रभावी ढंग से समाज को धर्माचरण सिखाना होगा। समाज धर्म सिखाना होगा। प्रतिमान की शिक्षा देनी होगी। समाज जीवन की अन्य व्यवस्थाओं के संबंध में भी जीवन के भारतीय प्रतिमान से सुसंगत ऐसे परिवर्तन के समानांतर प्रयास करने होंगे। धर्म व्यवस्था से मार्गदर्शित शिक्षा व्यवस्था परिवर्तन के लिये युवा शक्ति का निर्माण करेगी।
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# धर्मशिक्षा की सुदृढ नींव डालनेवाली एकत्रित कुटुम्ब व्यवस्था को पुन: शक्तिशाली बनाना होगा।  
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# गाँवों को ग्रामकुल और समाज के योगक्षेम की व्यवस्था के लिये सुधारित व्यवस्था की भी प्रतिष्ठापना करनी होगी।  
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# संघ शक्ति की इस परिवर्तन की प्रक्रिया में महति भूमिका होगी।  
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प्रतिमान के परिवर्तन के स्वरूप और परिवर्तन की प्रक्रिया का अधिक गहराई से विचार हम आगे करेंगे।  
    
== युगानुकूलता ==
 
== युगानुकूलता ==
जमाने के साथ चलना चाहिए, आजकल साईंस का ज़माना है, आजकल ज्ञानाधारित समाज का ज़माना है, आधुनिकता आदि शब्द प्रयोग युगानुकूल याने आज जैसा युग है उसके अनुकूल जीने के लिए उपयोग में किये जाते हैं। हमारा व्यवहार युगानुकूल होना चाइये ऐसा कहना ठीक ही है। लेकिन किसी बात का वर्तमान में चलन होना ही मात्र युगानुकूलता की कसौटी नहीं है। कुछ उदाहरणों से इसे स्पष्ट करेंगे।
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जमाने के साथ चलना चाहिए, आजकल साईंस का ज़माना है, आजकल ज्ञानाधारित समाज का ज़माना है, आधुनिकता आदि शब्द प्रयोग युगानुकूल याने आज जैसा युग है उसके अनुकूल जीने के लिए उपयोग में किये जाते हैं। हमारा व्यवहार युगानुकूल होना चाइये ऐसा कहना ठीक ही है। लेकिन किसी बात का वर्तमान में चलन होना ही मात्र युगानुकूलता की कसौटी नहीं है। कुछ उदाहरणों से इसे स्पष्ट करेंगे
१. वस्त्रों की आवश्यकता मुख्यत: वातावरण की विषमताओं से सुरक्षा और लज्जा रक्षण के लिए किया जाता है। लज्जा रक्षण के वस्त्रों से तात्पर्य है जिनमें आपको देखकर किसी के मन में कामवासना न जागे। वस्त्रों का रंगरूप, वस्त्रों में नवाचार यह वर्तमान में जो भी प्रचलित है उस के हिसाब से हो सकता है। जबतक वातावरण से सुरक्षा और लज्जा रक्षण होता है तबतक किसी भी प्रकार के वस्त्र युगानुकूल हो सकते हैं।  
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# वस्त्रों की आवश्यकता मुख्यत: वातावरण की विषमताओं से सुरक्षा और लज्जा रक्षण के लिए किया जाता है। लज्जा रक्षण के वस्त्रों से तात्पर्य है जिनमें आपको देखकर किसी के मन में कामवासना न जागे। वस्त्रों का रंगरूप, वस्त्रों में नवाचार यह वर्तमान में जो भी प्रचलित है उस के हिसाब से हो सकता है। जबतक वातावरण से सुरक्षा और लज्जा रक्षण होता है तबतक किसी भी प्रकार के वस्त्र युगानुकूल हो सकते हैं।  
२. आत्मिक सुख की सर्वोच्चता : इसी प्रकार से सुख के भिन्न भिन्न स्तर तो हमेशा ही रहेंगे। किसे किस प्रकार के सुख की अभिलाषा है वह अन्य कोई तय नहीं करेगा। लेकिन सुख प्राप्ति के मार्ग भिन्न हो सकते हैं। वह पूर्व काल से वर्तमान में भिन्न भी हो सकते हैं। जैसे कभी भारत में नाटक मंडलियाँ नाटक प्रस्तुत करतीं थीं। उस का स्थान यदि ड्रामा अकेडमी के नाम से तामझाम से प्रस्तुति होती है, वातानुकूलित भवन में होती है तो उसमें कोई आपत्ति लेने का कारण नहीं है।  
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# आत्मिक सुख की सर्वोच्चता : इसी प्रकार से सुख के भिन्न भिन्न स्तर तो हमेशा ही रहेंगे। किसे किस प्रकार के सुख की अभिलाषा है वह अन्य कोई तय नहीं करेगा। लेकिन सुख प्राप्ति के मार्ग भिन्न हो सकते हैं। वह पूर्व काल से वर्तमान में भिन्न भी हो सकते हैं। जैसे कभी भारत में नाटक मंडलियाँ नाटक प्रस्तुत करतीं थीं। उस का स्थान यदि ड्रामा अकेडमी के नाम से तामझाम से प्रस्तुति होती है, वातानुकूलित भवन में होती है तो उसमें कोई आपत्ति लेने का कारण नहीं है।  
    
== उपसंहार ==
 
== उपसंहार ==
 
यहाँ तो इस की एक मोटी मोटी कल्पना ही रखी जा सकती है। जैसे जैसे धर्मसत्ता प्रबल होगी तब धर्माचार्यों की टोली ही इस योजना की और अधिक व्यापकता और विस्तार से प्रस्तुति करेगी। धर्मसत्ता के नेतृत्व में ही यह परिवर्तन संभव होगा। अंग्रेज अपने प्रतिमान को भारत में स्थापित कर सके इस का मुख्य कारण यह है कि उन का प्रतिमान शासन अधिष्ठित था। जीवन के भारतीय प्रतिमान का अधिष्ठान धर्म है। इस लिये यदि धर्म के अधिष्ठान में समाज को चलाने वाला प्रतिमान निर्माण करना है तो पहल तो धर्मसत्ता को ही करनी होगी। सब से अधिक त्याग के लिये तैयार होना होगा। दूसरे महत्व क्रम पर शिक्षा और तीसरे महत्व क्रम पर शासन व्यवस्था इस परिवर्तन के साधन होंगे।
 
यहाँ तो इस की एक मोटी मोटी कल्पना ही रखी जा सकती है। जैसे जैसे धर्मसत्ता प्रबल होगी तब धर्माचार्यों की टोली ही इस योजना की और अधिक व्यापकता और विस्तार से प्रस्तुति करेगी। धर्मसत्ता के नेतृत्व में ही यह परिवर्तन संभव होगा। अंग्रेज अपने प्रतिमान को भारत में स्थापित कर सके इस का मुख्य कारण यह है कि उन का प्रतिमान शासन अधिष्ठित था। जीवन के भारतीय प्रतिमान का अधिष्ठान धर्म है। इस लिये यदि धर्म के अधिष्ठान में समाज को चलाने वाला प्रतिमान निर्माण करना है तो पहल तो धर्मसत्ता को ही करनी होगी। सब से अधिक त्याग के लिये तैयार होना होगा। दूसरे महत्व क्रम पर शिक्षा और तीसरे महत्व क्रम पर शासन व्यवस्था इस परिवर्तन के साधन होंगे।
आज कल भारतीय संविधान को ही “यही भारत की युगानुकूल स्मृति है” ऐसा लोग कहते हैं। इस में अनेकों दोष हैं। फिर इस में परिवर्तन कि प्रक्रिया जिन लोक-प्रतिनिधियों के अधिकार में चलती है, उन की विद्वत्ता और उन के धर्मशास्त्र के ज्ञान और आचरण के संबंध में न बोलना ही अच्छा है, ऐसी स्थिति है। इसलिये वर्तमान संविधान को ही वर्तमान भारत की स्मृति मान लेना ठीक नहीं है।
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गत दस ग्यारह पीढियों से हम इस अभारतीय प्रतिमान में जी रहे हैं। इस प्रतिमान के अनुसार सोचने और जीने के आदि बन गये हैं। इस लिये यह परिवर्तन संभव नहीं है ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। किन्तु हमें यह समझना होगा कि इस प्रतिमान को भारत पर सत्ता के बल पर लादने के लिये भी अंग्रेजों को १२५-१५० वर्ष तो लगे ही थे। हजारों लाखों वर्षों से चले आ रहे भारतीय प्रतिमान को वे केवल १५० वर्षों में बदल सके। फिर हमारे हजारों वर्षों से चले आ रहे जीवन के प्रतिमान को जो मुष्किल से १५० वर्षों के लिये खण्डित हो गया था, फिर से मूल स्थिति की दिशा में लाना ५०-६० वर्षों में असंभव नहीं है। शायद इस से भी कम समय में यह संभव हो सकेगा। किन्तु उस के लिये भगीरथ प्रयास करने होंगे। वैसे तो समाज भी ऐसे परिवर्तन की आस लगाये बैठा है। लेकिन क्या प्रबुध्द हिंदु इस के लिये तैयार है?
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आज कल भारतीय संविधान को ही “यही भारत की युगानुकूल स्मृति है” ऐसा लोग कहते हैं। इस में अनेकों दोष हैं। फिर इस में परिवर्तन कि प्रक्रिया जिन लोक-प्रतिनिधियों के अधिकार में चलती है, उन की विद्वत्ता और उन के धर्मशास्त्र के ज्ञान और आचरण के संबंध में न बोलना ही अच्छा है, ऐसी स्थिति है। इसलिये वर्तमान संविधान को ही वर्तमान भारत की स्मृति मान लेना ठीक नहीं है।
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गत दस ग्यारह पीढियों से हम इस अभारतीय प्रतिमान में जी रहे हैं। इस प्रतिमान के अनुसार सोचने और जीने के आदि बन गये हैं। इस लिये यह परिवर्तन संभव नहीं है ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। किन्तु हमें यह समझना होगा कि इस प्रतिमान को भारत पर सत्ता के बल पर लादने के लिये भी अंग्रेजों को १२५-१५० वर्ष तो लगे ही थे। हजारों लाखों वर्षों से चले आ रहे भारतीय प्रतिमान को वे केवल १५० वर्षों में बदल सके। फिर हमारे हजारों वर्षों से चले आ रहे जीवन के प्रतिमान को जो मुष्किल से १५० वर्षों के लिये खण्डित हो गया था, फिर से मूल स्थिति की दिशा में लाना ५०-६० वर्षों में असंभव नहीं है। शायद इस से भी कम समय में यह संभव हो सकेगा। किन्तु उस के लिये भगीरथ प्रयास करने होंगे। वैसे तो समाज भी ऐसे परिवर्तन की आस लगाये बैठा है। लेकिन क्या प्रबुध्द हिंदु इस के लिये तैयार है?
    
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
 
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