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# भारतीय जीवनदृष्टि एक ऐसी जीवनदृष्टि है जिसमें उपर्युक्त चिरंजीविता के लिए गिनाए गए आवश्यक बिन्दुओं में से पहले चार बिन्दुओं के विषय में अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मूलत: भारतीय जीवनदृष्टि में श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन और निर्माण, सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुसार व्यवहार, उसमें से सामाजिक सुख का समष्टीगत होना, पर्यावरण सुसंगत जीवनयापन और जीवनशैली आदि बातें आज भी कुछ मात्रा में भारतधर्मी लोगों के व्यवहार में हैं। भारतीय जीवनदृष्टि और वर्तनसूत्रों के विषय में हमने अध्याय ७ और ८ में जान लिया है। बस इस जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोग (बड़ी संख्या में) और उनके व्यवहार करने की सुविधा के लिए समुचित व्यवस्थाओं या तंत्रों के निर्माण के लिए परिश्रम करने होंगे।
 
# भारतीय जीवनदृष्टि एक ऐसी जीवनदृष्टि है जिसमें उपर्युक्त चिरंजीविता के लिए गिनाए गए आवश्यक बिन्दुओं में से पहले चार बिन्दुओं के विषय में अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मूलत: भारतीय जीवनदृष्टि में श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन और निर्माण, सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुसार व्यवहार, उसमें से सामाजिक सुख का समष्टीगत होना, पर्यावरण सुसंगत जीवनयापन और जीवनशैली आदि बातें आज भी कुछ मात्रा में भारतधर्मी लोगों के व्यवहार में हैं। भारतीय जीवनदृष्टि और वर्तनसूत्रों के विषय में हमने अध्याय ७ और ८ में जान लिया है। बस इस जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोग (बड़ी संख्या में) और उनके व्यवहार करने की सुविधा के लिए समुचित व्यवस्थाओं या तंत्रों के निर्माण के लिए परिश्रम करने होंगे।
 
# भारतीय जीवनदृष्टि  के अनुसार जीनेवाले लोगों के विश्वभर में विस्तार का शांतिपूर्ण पथ प्रशस्त करना। भारत के इतिहास में इस प्रकार के विस्तार के पुरोधा निम्न रहे हैं।
 
# भारतीय जीवनदृष्टि  के अनुसार जीनेवाले लोगों के विश्वभर में विस्तार का शांतिपूर्ण पथ प्रशस्त करना। भारत के इतिहास में इस प्रकार के विस्तार के पुरोधा निम्न रहे हैं।
  २.१ व्यापारी : भारत का व्यापार विश्वभर में चलता था। १५ वीं सदी पुर्तगाल से वास्को-द-गामा भारत में आया था। वह भारतीय व्यापारियोंके साथ में भारत आया था। उस समय भारत के व्यापारी जहाज यूरोप के देशों की तुलना में महाकाय हुआ करते थे।  
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२.१ व्यापारी : भारत का व्यापार विश्वभर में चलता था। १५ वीं सदी पुर्तगाल से वास्को-द-गामा भारत में आया था। वह भारतीय व्यापारियोंके साथ में भारत आया था। उस समय भारत के व्यापारी जहाज यूरोप के देशों की तुलना में महाकाय हुआ करते थे।  
 
सामान्यत: सभी समाजों में व्यापारी उनकी अप्रामाणिकता के लिए जाने जाते हैं। समाज में सबसे अधिक अप्रामाणिक व्यापारी ही होता है, ऐसा सामान्यत: आज भी विश्वभर के सभी समाज मानते हैं। लेकिन भारतीय जीवनदृष्टि के कारण, इसमें विद्यमान कर्म सिद्धान्तपर होनेवाली श्रद्धा के कारण भारतीय व्यापारी की यह विशेषता रही की यह भी प्रामाणिकता की मूर्तिस्वरूप हुआ करते थे। इसका परिणाम जिस भी समाजों से भारतीय व्यापारी व्यापार करते थे उन समाजोंपर होता था। जिस समाज का व्यापारी भी सत्य व्यापार की परतिमूरती है उस भारतीय समाज के प्रति आदर की भावना उस समाज में निर्माण होती थी। इससे वे भारत के लोगों, समाज से जीवन प्रामाणिकता से जीने की कला सीखने के लिए आते थे। यहाँ के विद्वानों को भारतीय तत्वज्ञान जानने के लिए अपने देशों में बुलाते थे। अपने देश के युवाओं को और विद्वानों को भी भारत में ज्ञानार्जन के लिए भेजते थे।  
 
सामान्यत: सभी समाजों में व्यापारी उनकी अप्रामाणिकता के लिए जाने जाते हैं। समाज में सबसे अधिक अप्रामाणिक व्यापारी ही होता है, ऐसा सामान्यत: आज भी विश्वभर के सभी समाज मानते हैं। लेकिन भारतीय जीवनदृष्टि के कारण, इसमें विद्यमान कर्म सिद्धान्तपर होनेवाली श्रद्धा के कारण भारतीय व्यापारी की यह विशेषता रही की यह भी प्रामाणिकता की मूर्तिस्वरूप हुआ करते थे। इसका परिणाम जिस भी समाजों से भारतीय व्यापारी व्यापार करते थे उन समाजोंपर होता था। जिस समाज का व्यापारी भी सत्य व्यापार की परतिमूरती है उस भारतीय समाज के प्रति आदर की भावना उस समाज में निर्माण होती थी। इससे वे भारत के लोगों, समाज से जीवन प्रामाणिकता से जीने की कला सीखने के लिए आते थे। यहाँ के विद्वानों को भारतीय तत्वज्ञान जानने के लिए अपने देशों में बुलाते थे। अपने देश के युवाओं को और विद्वानों को भी भारत में ज्ञानार्जन के लिए भेजते थे।  
  २.२ धर्म के जानकार/ सांस्कृतिक दूत : किसी भी समाज की नैतिकता का स्तर उस समाज की जीवनदृष्टि कितनी श्रेष्ठ है इसपर निर्भर होता है। साथ ही में उस श्रेष्ठ जीवनदृष्टि की शिक्षा को समाज में स्सर्वत्रिक करनेवाले शिक्षकों, विद्वानों के ज्ञान, आचरण और कुशलातापर भी निर्भर करता है। जब अन्य समाज देखते थे की भारत का सामान्य व्यापारी भी प्रामाणिक है तो ऐसे व्यापारी को निर्माण करनेवाले शिक्षक, विद्वान से मार्गदर्शन पाने की इच्छा उस समाज में बलवती होती होगी। फिर ऐसे शिक्षकों को/ विद्वानों को वे अपने देश में सम्मान के साथ बुलाते थे, विद्वानों के हर प्रकार के सुख सुविधा की चिंता करते थे और अपने देश में रहकर ऐसी ही शिक्षा की प्रतिष्ठापना का अनुरोध करते थे। ऐसे शिक्षक या आचार्य वहाँ राजा से भी अधिक सम्मान पाते थे। ऐसी एक कहावत है कि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, लेकिन विद्वान तो अन्य देशों में भी सम्मान पाता  है। ऐसे आचार्य फिर उस देश में भारतीय जीवनदृष्टि की सीख उन समाजों को देते थे। भारतीय जीवनदृष्टि या संस्कृति के विश्वसंचार का यही वास्तव है।  
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२.२ धर्म के जानकार/ सांस्कृतिक दूत : किसी भी समाज की नैतिकता का स्तर उस समाज की जीवनदृष्टि कितनी श्रेष्ठ है इसपर निर्भर होता है। साथ ही में उस श्रेष्ठ जीवनदृष्टि की शिक्षा को समाज में स्सर्वत्रिक करनेवाले शिक्षकों, विद्वानों के ज्ञान, आचरण और कुशलातापर भी निर्भर करता है। जब अन्य समाज देखते थे की भारत का सामान्य व्यापारी भी प्रामाणिक है तो ऐसे व्यापारी को निर्माण करनेवाले शिक्षक, विद्वान से मार्गदर्शन पाने की इच्छा उस समाज में बलवती होती होगी। फिर ऐसे शिक्षकों को/ विद्वानों को वे अपने देश में सम्मान के साथ बुलाते थे, विद्वानों के हर प्रकार के सुख सुविधा की चिंता करते थे और अपने देश में रहकर ऐसी ही शिक्षा की प्रतिष्ठापना का अनुरोध करते थे। ऐसे शिक्षक या आचार्य वहाँ राजा से भी अधिक सम्मान पाते थे। ऐसी एक कहावत है कि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, लेकिन विद्वान तो अन्य देशों में भी सम्मान पाता  है। ऐसे आचार्य फिर उस देश में भारतीय जीवनदृष्टि की सीख उन समाजों को देते थे। भारतीय जीवनदृष्टि या संस्कृति के विश्वसंचार का यही वास्तव है।  
  २.३ श्रेष्ठ वैश्विक विद्याकेंद्र : भारत हजारों वर्षों से श्रेष्ठ शिक्षा का केंद्र रहा है। विश्वभर से युवा, विद्वान, ज्ञानी ओसे सभी स्तर के लोग सीखने के लिए भारत के शिक्षा केन्द्रों में आते रहते थे। इनमें शिक्षा प्राप्त करना उनके देशों में गौरव की बात मानी जाती थी। इनमें सीखे हुए लोगों को उनके देशों में विशेष व्यक्ति के रूप में सम्मान मिलता था। ऐसे भारत के विद्याकेंद्रों से अध्ययन कर लौटे हुए लोगों से श्रेष्ठा आचरण और अपने ज्ञान को समष्टीगत करने की अपेक्षा रखी जाती थी। इस कारण भारतीय जीवनदृष्टि के विषय में आदर और स्वीकृति का वातावरण उन देशों में बनता था।           
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२.३ श्रेष्ठ वैश्विक विद्याकेंद्र : भारत हजारों वर्षों से श्रेष्ठ शिक्षा का केंद्र रहा है। विश्वभर से युवा, विद्वान, ज्ञानी ओसे सभी स्तर के लोग सीखने के लिए भारत के शिक्षा केन्द्रों में आते रहते थे। इनमें शिक्षा प्राप्त करना उनके देशों में गौरव की बात मानी जाती थी। इनमें सीखे हुए लोगों को उनके देशों में विशेष व्यक्ति के रूप में सम्मान मिलता था। ऐसे भारत के विद्याकेंद्रों से अध्ययन कर लौटे हुए लोगों से श्रेष्ठा आचरण और अपने ज्ञान को समष्टीगत करने की अपेक्षा रखी जाती थी। इस कारण भारतीय जीवनदृष्टि के विषय में आदर और स्वीकृति का वातावरण उन देशों में बनता था।           
  २.४ इस जीवनदृष्टि के विस्तार का विशेष परिस्थिति में उपयोग में लाया जानेवाला मार्ग याने “सम्राट व्यवस्था”। वह कितना भी बलशाली हो किसी राजा के मन में आ जाने से वह सम्राट नहीं बन सकता था। वैश्विक परिस्थितियाँ देखकर भारत के विद्वान सामर्थ्यवान और धर्मनिष्ठ राजा को अनुरोध करते थे कि वह “राजसूय” या “अश्वमेध” यग्य करे। इस यज्ञ के माध्यम से वह विश्व में फैल रहे आसुरी प्रभाव को नष्ट करे। विश्वभर के सज्जनों को वह आश्वस्त करे कि धर्माचरण करो। धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा। भारतीय सम्राट का काम ही धर्म को वैश्विक जीवन का अधिष्ठाता बनाना। धर्म विरोधी शक्तियों का नाश करना।  
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२.४ इस जीवनदृष्टि के विस्तार का विशेष परिस्थिति में उपयोग में लाया जानेवाला मार्ग याने “सम्राट व्यवस्था”। वह कितना भी बलशाली हो किसी राजा के मन में आ जाने से वह सम्राट नहीं बन सकता था। वैश्विक परिस्थितियाँ देखकर भारत के विद्वान सामर्थ्यवान और धर्मनिष्ठ राजा को अनुरोध करते थे कि वह “राजसूय” या “अश्वमेध” यग्य करे। इस यज्ञ के माध्यम से वह विश्व में फैल रहे आसुरी प्रभाव को नष्ट करे। विश्वभर के सज्जनों को वह आश्वस्त करे कि धर्माचरण करो। धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा। भारतीय सम्राट का काम ही धर्म को वैश्विक जीवन का अधिष्ठाता बनाना। धर्म विरोधी शक्तियों का नाश करना।
    
== चिरंजीविता की ओर ==
 
== चिरंजीविता की ओर ==
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