Changes

Jump to navigation Jump to search
लेख सम्पादित किया
Line 1: Line 1: −
{{cleanup reorganize Dharmawiki Page}}
+
== प्रस्तावना ==
 +
समाज में एक विचार है - दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पडेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पडेगा। यह गीत की पंक्तियाँ जीने की विवशता बतातीं हैं। तो दूसरा विचार है कि मानव जन्म यह दुर्लभ है। यह हमें अपने जीवन का जो लक्ष्य “मोक्ष” है उसकी प्राप्ति के प्रयासों के लिए मिला हुआ सर्वश्रेष्ठ अवसर है। जीना मजबूरी है ऐसा मानना यह विकृत शिक्षा का लक्षण है।
   −
१९. आश्रम
+
मानव को परमात्मा ने अन्य प्राणियों से स्वरयंत्र, मन, बुद्धि जैसी कुछ विशेष नेमतें दीं हैं। प्राणी जीवन अव्यवस्थित होता है। अनिश्चितताओं से भरा होता है। मनुष्य अपनी परमात्मा प्रदत्त क्षमताओं के आधारपर जीवन को व्यवस्थित बनाकर अनिश्चितताओं से मुक्ति पा सकता है। इसी कारण विश्वभर में मानवों ने अपनी अपनी व्यवस्थाएं निर्माण की हैं।
प्रस्तावना
+
 
समाज में एक विचार है - दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पडेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पडेगा| यह गीत की पंक्तियाँ जीने की विवशता बतातीं हैं| तो दूसरा विचार है कि मानव जन्म यह दुर्लभ है| यह हमें अपने जीवन का जो लक्ष्य “मोक्ष” है उसकी प्राप्ति के प्रयासों के लिए मिला हुआ सर्वश्रेष्ठ अवसर है| जीना यह मजबूरी है ऐसा मानना यह विकृत शिक्षा का लक्षण है|
+
स्त्री पुरूष सहजीवन प्राकृतिक है। इस का अच्छा या कम अच्छा विचार और व्यवस्था तो विश्व के हर समाज ने की थी। लेकिन इनमें भारतीय समाज छोडकर अन्य किसी भी समाज ने वर्ण और आश्रम की व्यवस्थाओं का निर्माण नहीं किया था। जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ये दोनों व्यवस्थाएँ इतनी श्रेष्ठ और उपयुक्त समझ में आयीं कि इन्हें वर्णाश्रम धर्म कहा गया। वर्ण व्यवस्था का विचार हम पूर्व के अध्याय में कर आये हैं। अब हम आश्रम व्यवस्था का विचार करेंगे।
मानव को परमात्मा ने अन्य प्राणियों से स्वरयंत्र, मन, बुद्धि जैसी कुछ विशेष नेमतें दीं हैं| प्राणी जीवन अव्यवस्थित होता है| अनिश्चितताओं से भरा होता है| मनुष्य अपनी परमात्मा प्रदत्त क्षमताओं के आधारपर जीवन को व्यवस्थित बनाकर अनिश्चितताओं से मुक्ति पा सकता है| इसी कारण विश्वभर में मानवों ने अपनी अपनी व्यवस्थाएं निर्माण की हैं|
+
 
स्त्री पुरूष सहजीवन प्राकृतिक है| इस का अच्छा या कम अच्छा विचार और व्यवस्था तो विश्व के हर समाज ने की थी| लेकिन इनमें भारतीय समाज छोडकर अन्य किसी भी समाज ने वर्ण और आश्रम की व्यवस्थाओं का निर्माण नहीं किया था| जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ये दोनों व्यवस्थाएँ इतनी श्रेष्ठ और उपयुक्त समझ में आयीं कि इन्हें वर्णाश्रम धर्म कहा गया| वर्ण व्यवस्था का विचार हम पूर्व के अध्याय में कर आये हैं| अब हम आश्रम व्यवस्था का विचार करेंगे|
+
== आश्रम की व्याख्या ==
आश्रम की व्याख्या : आश्रम्यती अस्मिन् अनेन वा इति आश्रम:
+
आश्रम की व्याख्या इस प्रकार दी गयी है:  
अर्थ है – जिस व्यवस्था में हर अवस्था में जीवन की लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सतत श्रम करने होते हैं|
+
 
मानवकी बढ़ती घटती क्षमताओं और उसके क्षमता विकास की और क्षमताओं के घटने की प्रकृति की रचना को आयु की अवस्थाओं के साथ समायोजित करने के लिए ही आश्रम व्यवस्था निम्न की गयी| मानवेतर प्राणियों को जीवन का कोई लक्ष्य होणा चाहिए इसकी समझ नहीं होती| इसलिए लक्ष्यप्राप्ति के लिए जीवन का नियोजन मानवेतर प्राणियों के लिए न तो संभव है और न ही आवश्यक| लेकिन मानव एक बुद्धिशील जीव है| वह सामाजिक जीव भी है| इसलिए वह अपने लक्ष्य की याने सुख से परमसुखातक के लक्ष्यों की प्राप्त के लिए व्यवस्थाएँ निर्माण करता है| आयु की प्रत्येक अवस्था को ठीक से समझकर जीवन की अनिश्चितताओं को दूर कर मानव जीवन को लक्ष्य प्राप्ति के लिए जीवन यापन के लिए श्रम करने के उपरांत भी अवकाश प्राप्त हो, इस हेतु से आश्रम व्यवस्था की रचना की गयी है|
+
आश्रम्यती अस्मिन् अनेन वा इति आश्रम:
आश्रम चार हैं| ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास| स्वस्थ मनुष्य की आयु १०० वर्ष की होगी ऐसा मानकर आयु की अवस्था के अनुसार इसका विभाजन किया गया है| इन चार आश्रमों का जन्म से लेकर २५ वर्षतक ब्रह्मचर्य आश्रम, २६ वें वर्ष से ५० वर्षतक गृहस्थ आश्रम, ५१ वर्ष से ७५ वर्षतक वानप्रस्थ आश्रम और ७६ वर्ष से १०० वर्षतक संन्यास आश्रम, ऐसा मोटा मोटा विभाजन किया गया है|    
+
 
 +
अर्थ है – जिस व्यवस्था में हर अवस्था में जीवन की लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सतत श्रम करने होते हैं।
 +
मानवकी बढ़ती घटती क्षमताओं और उसके क्षमता विकास की और क्षमताओं के घटने की प्रकृति की रचना को आयु की अवस्थाओं के साथ समायोजित करने के लिए ही आश्रम व्यवस्था निम्न की गयी। मानवेतर प्राणियों को जीवन का कोई लक्ष्य होणा चाहिए इसकी समझ नहीं होती। इसलिए लक्ष्यप्राप्ति के लिए जीवन का नियोजन मानवेतर प्राणियों के लिए न तो संभव है और न ही आवश्यक। लेकिन मानव एक बुद्धिशील जीव है। वह सामाजिक जीव भी है। इसलिए वह अपने लक्ष्य की याने सुख से परमसुखातक के लक्ष्यों की प्राप्त के लिए व्यवस्थाएँ निर्माण करता है। आयु की प्रत्येक अवस्था को ठीक से समझकर जीवन की अनिश्चितताओं को दूर कर मानव जीवन को लक्ष्य प्राप्ति के लिए जीवन यापन के लिए श्रम करने के उपरांत भी अवकाश प्राप्त हो, इस हेतु से आश्रम व्यवस्था की रचना की गयी है।
 +
आश्रम चार हैं। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। स्वस्थ मनुष्य की आयु १०० वर्ष की होगी ऐसा मानकर आयु की अवस्था के अनुसार इसका विभाजन किया गया है। इन चार आश्रमों का जन्म से लेकर २५ वर्षतक ब्रह्मचर्य आश्रम, २६ वें वर्ष से ५० वर्षतक गृहस्थ आश्रम, ५१ वर्ष से ७५ वर्षतक वानप्रस्थ आश्रम और ७६ वर्ष से १०० वर्षतक संन्यास आश्रम, ऐसा मोटा मोटा विभाजन किया गया है।    
 
ब्रह्मचर्य
 
ब्रह्मचर्य
वर्तमाँ की विकृत शिक्षा और अभारतीय प्रतिमानिक वातावरण ने ब्रह्मचर्य कको युवकों के मजाक का विषय बना दिया है+ लडके और लड़कियों की बाल्यावस्था से आगे भी चलाई जा रही सहशिक्षा ने ब्रह्मचर्य को नष्ट और मजाक का विषय बना दिया है|
+
वर्तमाँ की विकृत शिक्षा और अभारतीय प्रतिमानिक वातावरण ने ब्रह्मचर्य कको युवकों के मजाक का विषय बना दिया है+ लडके और लड़कियों की बाल्यावस्था से आगे भी चलाई जा रही सहशिक्षा ने ब्रह्मचर्य को नष्ट और मजाक का विषय बना दिया है।
 
* ब्रह्मचर्य की आवश्यकता
 
* ब्रह्मचर्य की आवश्यकता
 
* ब्रह्मचर्य और संतान निर्माण  
 
* ब्रह्मचर्य और संतान निर्माण  
 
* ब्रह्मचर्य की व्याख्या   
 
* ब्रह्मचर्य की व्याख्या   
 
स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं  । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥ एतन्मैथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:    । विपरीतं ब्रह्मचर्यामेतदेवाष्ट लक्षणम्      ॥
 
स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणं  । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रिया निष्पत्तीरेव च ॥ एतन्मैथुनमष्टांगम् प्रवदन्ति मनीषिन:    । विपरीतं ब्रह्मचर्यामेतदेवाष्ट लक्षणम्      ॥
अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तू की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तू का दर्शन, विषयवस्तू की चर्चा, विषयवस्तू की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तू पाने का ध्यास और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषयवस्तू का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है| इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य का पालन|
+
अर्थ : वासनाओं का स्मरण, मन में चिंतन, विषयवस्तू की कल्पना कर किया व्यवहार, विषयवस्तू का दर्शन, विषयवस्तू की चर्चा, विषयवस्तू की प्राप्ति का संकल्प, विषयवस्तू पाने का ध्यास और सब से अंतिम प्रत्यक्ष विषयवस्तू का उपभोग ऐसे आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य का भंग होता है। इन से दूर रहने का अर्थ है ब्रह्मचर्य का पालन।
 
* ब्रह्मचारी से अपेक्षाएं  
 
* ब्रह्मचारी से अपेक्षाएं  
गृहस्थ * प्रजातन्तुम् माँ व्यवच्छेत्सी| * स्वाध्यायान्माप्रमद: * चारों आश्रमों का आश्रयस्थान * विवाह * गृहिणी * गृहस्थ * कुटुंब एकात्मता/सामाजिकता की पाठशाला * उद्योग   * अपेक्षाएँ  - सामाजिक व्यवस्थाओं में योगदान  
+
गृहस्थ * प्रजातन्तुम् माँ व्यवच्छेत्सी। * स्वाध्यायान्माप्रमद: * चारों आश्रमों का आश्रयस्थान * विवाह * गृहिणी * गृहस्थ * कुटुंब एकात्मता/सामाजिकता की पाठशाला * उद्योग   * अपेक्षाएँ  - सामाजिक व्यवस्थाओं में योगदान  
 
गृहस्थाश्रम - आश्रम व्यवस्था का महत्वपूर्ण घटक  
 
गृहस्थाश्रम - आश्रम व्यवस्था का महत्वपूर्ण घटक  
 
आयु के अनुसार मानव की शारिरिक क्षमताएं और आवश्यकताएं इन का समीकरण बिगड जाना यह प्रकृति का नियम है । शैशव और बाल्यावस्था में बच्चे की सुधबुध कम होती है । उस की शारिरिक क्षमताएं भी कम होने से वह परावलंबी रहता है । इसी प्रकार से यौवन के ढलते काल में मनुष्य की क्षमताएं अधिक गति से कम होती है किंतु उस गति से उसकी आवष्यकताएं कम नही होतीं । इसलिये यौवन के बाद फिर वह कुछ मात्रा में परावलंबी बन जाता है । किंतु जीवन का अनुभवजन्य और चिंतनजन्य ज्ञान उस के पास होता है । इस के साथ ही मानव को और मानव समाज को उनके लक्ष्य की ओर आगे बढाने में भी इन व्यवस्थाओं की आवश्यकता आदी बातें ध्यान मे रखकर, इन सभी बातों का समायोजन करने की दृष्टि से चार आश्रमों की व्यवस्था की गयी थी । यह चार आश्रम थे ब्राह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास । ब्राह्मचर्य में बच्चा अपनी वृत्ति - प्रवृत्ती के अनुसार शिक्षण प्राप्त करता है । शैशव काल मे वह अपने माता - पिता के घर में रहकर संस्कार पाता है । बडों जैसा व्यवहार करने की स्वाभाविक अनुकरण की मानसिकता से घर में संस्कार संक्रमण का काम अत्यंत सहजता से पहली पीढी से दूसरी पीढी मे होता जाता है । गृहस्थाश्रम में मानव यौवनावस्था में होता है । अपनी पूरी क्षमताओं का उपयोग करता हुवा वह अपने साथ पूरे समाज के योगक्षेम का वहन करता है । वानप्रस्थ और संन्यास में मानव की शारिरिक क्षमताएं कम होती जाती है । वानप्रस्थ में वह अपने पारिवारिक मोह से मुक्ति के लिये प्रयासरत रहता है । और संन्यास में तो वह चराचर से एकात्मता हेतु प्रयोगशील रहता है । वह अधिक समय मोक्षप्राप्ति हेतु चिंतन, मनन, मार्गदर्शन आदी के लिये दे सकता है । ब्राह्मचर्य काल में अर्जित, गृहस्थाश्रम मे विकसित अनुभवजन्य ज्ञान को चिंतन, मनन कर नयी पीढी के अनुरूप बनाकर देने का बौद्धिक और मानसिक सामथ्र्य वह रखता है ।   
 
आयु के अनुसार मानव की शारिरिक क्षमताएं और आवश्यकताएं इन का समीकरण बिगड जाना यह प्रकृति का नियम है । शैशव और बाल्यावस्था में बच्चे की सुधबुध कम होती है । उस की शारिरिक क्षमताएं भी कम होने से वह परावलंबी रहता है । इसी प्रकार से यौवन के ढलते काल में मनुष्य की क्षमताएं अधिक गति से कम होती है किंतु उस गति से उसकी आवष्यकताएं कम नही होतीं । इसलिये यौवन के बाद फिर वह कुछ मात्रा में परावलंबी बन जाता है । किंतु जीवन का अनुभवजन्य और चिंतनजन्य ज्ञान उस के पास होता है । इस के साथ ही मानव को और मानव समाज को उनके लक्ष्य की ओर आगे बढाने में भी इन व्यवस्थाओं की आवश्यकता आदी बातें ध्यान मे रखकर, इन सभी बातों का समायोजन करने की दृष्टि से चार आश्रमों की व्यवस्था की गयी थी । यह चार आश्रम थे ब्राह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास । ब्राह्मचर्य में बच्चा अपनी वृत्ति - प्रवृत्ती के अनुसार शिक्षण प्राप्त करता है । शैशव काल मे वह अपने माता - पिता के घर में रहकर संस्कार पाता है । बडों जैसा व्यवहार करने की स्वाभाविक अनुकरण की मानसिकता से घर में संस्कार संक्रमण का काम अत्यंत सहजता से पहली पीढी से दूसरी पीढी मे होता जाता है । गृहस्थाश्रम में मानव यौवनावस्था में होता है । अपनी पूरी क्षमताओं का उपयोग करता हुवा वह अपने साथ पूरे समाज के योगक्षेम का वहन करता है । वानप्रस्थ और संन्यास में मानव की शारिरिक क्षमताएं कम होती जाती है । वानप्रस्थ में वह अपने पारिवारिक मोह से मुक्ति के लिये प्रयासरत रहता है । और संन्यास में तो वह चराचर से एकात्मता हेतु प्रयोगशील रहता है । वह अधिक समय मोक्षप्राप्ति हेतु चिंतन, मनन, मार्गदर्शन आदी के लिये दे सकता है । ब्राह्मचर्य काल में अर्जित, गृहस्थाश्रम मे विकसित अनुभवजन्य ज्ञान को चिंतन, मनन कर नयी पीढी के अनुरूप बनाकर देने का बौद्धिक और मानसिक सामथ्र्य वह रखता है ।   
Line 117: Line 121:  
शिक्षा क्षेत्र की भूमिका :  किंतु उस से भी अधिक महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षा क्षेत्र को निभानी होगी । समाज के जिस घटक की मानसिकता अभी घटी नही है एैसे छोटे बच्चों को सुसंस्कारित और सुशिक्षित करते हुवे आगे बढना होगा । बच्चों को एक अच्छा मानव बनाने के साथ ही श्रेष्ठ माता/पिता और समाज का एक अच्छे घटक बनाना होगा । पूरी शिक्षा प्रणालि, शिक्षा व्यवस्था और पाठ¬क्रम मे योग्य परिवर्तन करना होगा । बच्चों की, समाज की और राष्ट्र और विश्व की चिंता जिन्हें है एैसे अभिभावकों को साथ में लेकर इस प्रक्रिया को बलवान बनाना होगा ।
 
शिक्षा क्षेत्र की भूमिका :  किंतु उस से भी अधिक महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षा क्षेत्र को निभानी होगी । समाज के जिस घटक की मानसिकता अभी घटी नही है एैसे छोटे बच्चों को सुसंस्कारित और सुशिक्षित करते हुवे आगे बढना होगा । बच्चों को एक अच्छा मानव बनाने के साथ ही श्रेष्ठ माता/पिता और समाज का एक अच्छे घटक बनाना होगा । पूरी शिक्षा प्रणालि, शिक्षा व्यवस्था और पाठ¬क्रम मे योग्य परिवर्तन करना होगा । बच्चों की, समाज की और राष्ट्र और विश्व की चिंता जिन्हें है एैसे अभिभावकों को साथ में लेकर इस प्रक्रिया को बलवान बनाना होगा ।
 
वानप्रस्थ
 
वानप्रस्थ
वानप्रस्थ का अर्थ है जिसने वन को प्रस्थान किया है| वानप्रस्थ शब्द में वन शब्द आता है| वन क्या होता है? वन में मानवों की बस्ती नहीं होती| इसलिए परस्परावलंबन भी नहीं होता| अपनी क्षमताओं के आधारपर ही जीना होता है| समाज के नियम नहीं चलते| कोइ अधिकार नहीं होते| लेकिन कर्तव्य तो होते हैं| उपनिषदों का अधिक गहराई से विचार आरण्यकों में हुआ था| सामाजिक पार्श्वभूमी से बाहर आकर त्रयस्थ भूमिका से अपने ज्ञान और अनुभवों का चिंतन करा उसे परिष्कृत करने का काम वन में याने समाज से दूर रहकर ही हो सकता है|
+
वानप्रस्थ का अर्थ है जिसने वन को प्रस्थान किया है। वानप्रस्थ शब्द में वन शब्द आता है। वन क्या होता है? वन में मानवों की बस्ती नहीं होती। इसलिए परस्परावलंबन भी नहीं होता। अपनी क्षमताओं के आधारपर ही जीना होता है। समाज के नियम नहीं चलते। कोइ अधिकार नहीं होते। लेकिन कर्तव्य तो होते हैं। उपनिषदों का अधिक गहराई से विचार आरण्यकों में हुआ था। सामाजिक पार्श्वभूमी से बाहर आकर त्रयस्थ भूमिका से अपने ज्ञान और अनुभवों का चिंतन करा उसे परिष्कृत करने का काम वन में याने समाज से दूर रहकर ही हो सकता है।
आश्रम व्यवस्था में वानप्रस्थ की कल्पना यह मानव के क्रमिक समग्र विकास से जोड़कर ही की गई है| ब्रह्मचर्य में मनुष्य अपने विकास की ओर ही प्रमुखता से ध्यान देता है| गृहस्थाश्रम में वह चराचर के हित की जिम्मेदारी का वहन करता है| वानप्रस्थ में अब वह जिम्मेदारियों का अगली पीढी को याने सास है तो बहू को और पुरूष है तो अपने पुत्र को हस्तांतरण करता है| वर्त्तमान में हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के प्रचारकों का जीवन देखते हैं| इनका जीवन वास्तव में वानप्रस्थी का जीवन होता है| ये युवावस्था से ही गृहस्थ जीवन के स्थानपर वानप्रस्थी का जीवन जीते हैं| वर्त्तमान में समाज की आवश्यकता को समझकर इस प्रचारक व्यवस्था का प्रारम्भ किया गया था| वर्त्तमान में अभारतीय शिक्षा के कारण सामान्य गृहस्थ वानप्रस्थी बनने के लिए तैयार नहीं है| मरते दमतक गृहस्थ के अधिकार और उपभोगों का त्याग नहीं करता है| यह एक आपद्धर्म है| जब भी वानप्रस्थ जीवन जीनेवाले लोग निर्माण होंगे प्रचारक व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं रहेगी|
+
आश्रम व्यवस्था में वानप्रस्थ की कल्पना यह मानव के क्रमिक समग्र विकास से जोड़कर ही की गई है। ब्रह्मचर्य में मनुष्य अपने विकास की ओर ही प्रमुखता से ध्यान देता है। गृहस्थाश्रम में वह चराचर के हित की जिम्मेदारी का वहन करता है। वानप्रस्थ में अब वह जिम्मेदारियों का अगली पीढी को याने सास है तो बहू को और पुरूष है तो अपने पुत्र को हस्तांतरण करता है। वर्त्तमान में हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के प्रचारकों का जीवन देखते हैं। इनका जीवन वास्तव में वानप्रस्थी का जीवन होता है। ये युवावस्था से ही गृहस्थ जीवन के स्थानपर वानप्रस्थी का जीवन जीते हैं। वर्त्तमान में समाज की आवश्यकता को समझकर इस प्रचारक व्यवस्था का प्रारम्भ किया गया था। वर्त्तमान में अभारतीय शिक्षा के कारण सामान्य गृहस्थ वानप्रस्थी बनने के लिए तैयार नहीं है। मरते दमतक गृहस्थ के अधिकार और उपभोगों का त्याग नहीं करता है। यह एक आपद्धर्म है। जब भी वानप्रस्थ जीवन जीनेवाले लोग निर्माण होंगे प्रचारक व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
वानप्रस्थी और गृहस्थाश्रमी में निम्न बातों में भिन्नता होती है|
+
वानप्रस्थी और गृहस्थाश्रमी में निम्न बातों में भिन्नता होती है।
१. गृहस्थ गृहस्वामी होता है| वानप्रस्थी गृहस्वामी नहीं होता| घर में रहकर स्वामित्व छोड़ना कठिन होता है| लेकिन होना तो यही चाहिए|
+
१. गृहस्थ गृहस्वामी होता है। वानप्रस्थी गृहस्वामी नहीं होता। घर में रहकर स्वामित्व छोड़ना कठिन होता है। लेकिन होना तो यही चाहिए।
२. गृहस्थाश्रम उपभोग के लिए है| वानप्रस्थ में भोग कम करते जाना है| इन्द्रियों का दमन करना है|
+
२. गृहस्थाश्रम उपभोग के लिए है। वानप्रस्थ में भोग कम करते जाना है। इन्द्रियों का दमन करना है।
३. आसक्ति रहित बनना| धन की, यश और प्रतिष्ठा की, अधिकारों की आदि आसक्तियों से अलिप्त होना|
+
३. आसक्ति रहित बनना। धन की, यश और प्रतिष्ठा की, अधिकारों की आदि आसक्तियों से अलिप्त होना।
४. अधिकारों के साथ साथ ही कर्तव्यों से भी मुक्त होना|
+
४. अधिकारों के साथ साथ ही कर्तव्यों से भी मुक्त होना।
इसके अलावा भी कुछ काम वानप्रस्थी के लिए होते हैं|
+
इसके अलावा भी कुछ काम वानप्रस्थी के लिए होते हैं।
१. अध्ययन, अध्यापन करना ही है| वानप्रस्थाश्रम श्रम के लिए है| आराम के लिए नहीं है|
+
१. अध्ययन, अध्यापन करना ही है। वानप्रस्थाश्रम श्रम के लिए है। आराम के लिए नहीं है।
२. अपने अनुभवों का लाभ छोटों को मिले इस हेतु से मार्गदर्शन के लिए तत्पर रहना| लेकिन मांगे बिना मार्गदर्शन नहीं  करना|
+
२. अपने अनुभवों का लाभ छोटों को मिले इस हेतु से मार्गदर्शन के लिए तत्पर रहना। लेकिन मांगे बिना मार्गदर्शन नहीं  करना।
३. गृहस्थ की अधीनता से दुखी नहीं होना| और छोटों की सेवा लेने में बड़प्पन का अनुभव करना|
+
३. गृहस्थ की अधीनता से दुखी नहीं होना। और छोटों की सेवा लेने में बड़प्पन का अनुभव करना।
 
संन्यास
 
संन्यास
श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय १८-२ में कहा है – काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदु: | अर्थ : कामी करों के त्याग को संन्यास कहा गया है| नित्य, नैमित्तिक और काम्य ऐसे तीन प्रकार के कर्म होते हैं| काम्य कर्म का अर्थ है अपनी विशेष इच्छा की पूर्ती के लिए किया गया कर्म| याने प्राणिक आवेगों की पूर्ती से अधिक पाने की इच्छा से किये गए कर्म| निष्काम कर्म का भी फल भोगना ही पड़ता है| जैसे इच्छा नहीं थी फिर भी शकर खाई गई| अब उसकी मिठास का अनुभव तो होगा ही| उससे बच नहीं सकते| सातवलेकर कहते हैं – संन्यास याने विश्वकुटुंबवृत्ति का आश्रय| संन्यासी के लिए नियम –
+
श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय १८-२ में कहा है – काम्यानां कर्मणा न्यासं संन्यासं कवयो विदु: अर्थ : कामी करों के त्याग को संन्यास कहा गया है। नित्य, नैमित्तिक और काम्य ऐसे तीन प्रकार के कर्म होते हैं। काम्य कर्म का अर्थ है अपनी विशेष इच्छा की पूर्ती के लिए किया गया कर्म। याने प्राणिक आवेगों की पूर्ती से अधिक पाने की इच्छा से किये गए कर्म। निष्काम कर्म का भी फल भोगना ही पड़ता है। जैसे इच्छा नहीं थी फिर भी शकर खाई गई। अब उसकी मिठास का अनुभव तो होगा ही। उससे बच नहीं सकते। सातवलेकर कहते हैं – संन्यास याने विश्वकुटुंबवृत्ति का आश्रय। संन्यासी के लिए नियम –
१. भिक्षाटन – भिक्षा वृत्ति से जीवन का इन्र्वाह करना|
+
१. भिक्षाटन – भिक्षा वृत्ति से जीवन का इन्र्वाह करना।
२. एक जगह नहीं रहना| अतन करते रहना| एक गाँव में दो दिन से अधिक निवास नहीं करना| ममत्त्व भाव निर्माण न होवे इसलिए अतन करते रहना आवश्यक है|
+
२. एक जगह नहीं रहना। अतन करते रहना। एक गाँव में दो दिन से अधिक निवास नहीं करना। ममत्त्व भाव निर्माण न होवे इसलिए अतन करते रहना आवश्यक है।
३. अविरत भवगवान का नामस्मरण|
+
३. अविरत भवगवान का नामस्मरण।
४. ज्ञान का प्रसार करना|
+
४. ज्ञान का प्रसार करना।
५. समाज कल्याण की चिता करना|
+
५. समाज कल्याण की चिता करना।
६. करतल भिक्षा, तरुतल वास| संग्रह के लिए झोली या बर्तन की आसक्ति न हो|
+
६. करतल भिक्षा, तरुतल वास। संग्रह के लिए झोली या बर्तन की आसक्ति न हो।
७. ओंकार साधना करना| सर्वभूतों के प्रति आत्मभाव रखना|
+
७. ओंकार साधना करना। सर्वभूतों के प्रति आत्मभाव रखना।
८. अच्छी तरह से देखकर कदम रखना| कोई जीव कुचला न जाए| वस्त्र से छानकर जल पीना| जिससे जीवहत्या न हो| सत्य वाणी का उच्चारण करना|
+
८. अच्छी तरह से देखकर कदम रखना। कोई जीव कुचला न जाए। वस्त्र से छानकर जल पीना। जिससे जीवहत्या न हो। सत्य वाणी का उच्चारण करना।
 
श्रेष्ठ भारतीय कुटुंब  
 
श्रेष्ठ भारतीय कुटुंब  
घर में कमसे कम तीन पीढीयों के लोग सुख चैन से रहते हों| दो तीन बहुएँ अपने पुत्र पुत्रियों सहित रहती हों| ५-७ पुत्र पौत्रियाँ घर का गोकुल बनाते हों, वानाप्रस्थीद्वारा गृहस्थ को सभी अधिकारों का अंतरण किया गया हो, गृहस्थ अपने पिता से भी अधिक श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित हो और उसका गर्व पिता पुत्र दोनों को हो, सहजता से ही संस्कारमय वातावरण हो, बड़ों का आदर और सेवा होती हो, छोटों के लिए आदर्श उपस्थित हों, वानप्रस्थी संयमित उपभोग का वस्तुपाठ अपने आचरण से सिखाते हों, सबके व्यवहार में कुटुंब भावना ओतप्रोत हो| यह सब है एक अच्छे भारतीय संयुक्त कुटुंब का स्वरूप|
+
घर में कमसे कम तीन पीढीयों के लोग सुख चैन से रहते हों। दो तीन बहुएँ अपने पुत्र पुत्रियों सहित रहती हों। ५-७ पुत्र पौत्रियाँ घर का गोकुल बनाते हों, वानाप्रस्थीद्वारा गृहस्थ को सभी अधिकारों का अंतरण किया गया हो, गृहस्थ अपने पिता से भी अधिक श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित हो और उसका गर्व पिता पुत्र दोनों को हो, सहजता से ही संस्कारमय वातावरण हो, बड़ों का आदर और सेवा होती हो, छोटों के लिए आदर्श उपस्थित हों, वानप्रस्थी संयमित उपभोग का वस्तुपाठ अपने आचरण से सिखाते हों, सबके व्यवहार में कुटुंब भावना ओतप्रोत हो। यह सब है एक अच्छे भारतीय संयुक्त कुटुंब का स्वरूप।
    
वाचनीय साहित्य  
 
वाचनीय साहित्य  
890

edits

Navigation menu