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| == समाज में विभूति संयम == | | == समाज में विभूति संयम == |
− | देशिक शास्त्र (लेखक बद्रीशा ठुलधरिया, प्रकाशक पुनरुत्थान प्रकाशन पृष्ठ ९६) के अनुसार और पहले बताए वर्ण और जाति व्यवस्था के मूल आधार के अनुसार मनुष्य का स्वार्थ और समाज के हित में संतुलन बनाये रखने के लिये तथा समाज की आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति के लिये यह व्यवस्थाएं स्थापित की गईं थीं। हर समाज घटक को कुछ विशेष त्याग भी करना होता था याने जिम्मेदारियाँ थीं और अन्यों से कुछ विशेष महत्वपूर्ण, ऐसी कुछ श्रेष्ठ बातें याने कुछ विभूतियाँ प्राप्त होतीं थीं। मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह वे चार विभूतियाँ थीं। इन के बदले में समाज के लिये कुछ त्याग भी करना होता था। इनको हम इस [[Society (समाज)|लेख]] में देख सकते हैं। | + | देशिक शास्त्र<ref>बद्रीशा ठुलधरिया, प्रकाशक पुनरुत्थान प्रकाशन पृष्ठ ९६</ref> के अनुसार और पहले बताए वर्ण और जाति व्यवस्था के मूल आधार के अनुसार मनुष्य का स्वार्थ और समाज के हित में संतुलन बनाये रखने के लिये तथा समाज की आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति के लिये यह व्यवस्थाएं स्थापित की गईं थीं। हर समाज घटक को कुछ विशेष त्याग भी करना होता था याने जिम्मेदारियाँ थीं और अन्यों से कुछ विशेष महत्वपूर्ण, ऐसी कुछ श्रेष्ठ बातें याने कुछ विभूतियाँ प्राप्त होतीं थीं। मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह वे चार विभूतियाँ थीं। इन के बदले में समाज के लिये कुछ त्याग भी करना होता था। इनको हम इस [[Society (समाज)|लेख]] में देख सकते हैं। |
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| ब्राह्मण वर्ण के व्यक्ति को ज्ञानार्जन और ज्ञानदान की, समाज को श्रेष्ठतम आदर्शों का अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के माध्यम से मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी थी। भिक्षावृत्ति से जीने का आग्रह था। इस के प्रतिकार में ब्राह्मण समाज सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी माना जाता था। अपने बल, कौशल, निर्भयता, न्यायदृष्टि के आधारपर समाज का संरक्षण करने के लिये जान की बाजी लगाने की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे ऐश्वर्य और सत्ता की विभूति समाज से प्राप्त होती थी। समाज के पोषण के लिये उत्पादन, वितरण और व्यापार की जिम्मेदारी वैश्य को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे संपत्ति संचय और आरामयुक्त जीवन की, विलास की विभूति समाज की ओर से प्राप्त होती थी। शूद्र को विभूति के रूप में मिलती थी निश्चिन्तता। और इस के प्रतिकार में उस की जिम्मेदारी थी की वह अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों की सेवा करे। जिस से उन्हें अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये अध्ययन अनुसंधान, प्रयोग और व्यवहार के लिये अवकाश प्राप्त हो सके। | | ब्राह्मण वर्ण के व्यक्ति को ज्ञानार्जन और ज्ञानदान की, समाज को श्रेष्ठतम आदर्शों का अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के माध्यम से मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी थी। भिक्षावृत्ति से जीने का आग्रह था। इस के प्रतिकार में ब्राह्मण समाज सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी माना जाता था। अपने बल, कौशल, निर्भयता, न्यायदृष्टि के आधारपर समाज का संरक्षण करने के लिये जान की बाजी लगाने की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे ऐश्वर्य और सत्ता की विभूति समाज से प्राप्त होती थी। समाज के पोषण के लिये उत्पादन, वितरण और व्यापार की जिम्मेदारी वैश्य को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे संपत्ति संचय और आरामयुक्त जीवन की, विलास की विभूति समाज की ओर से प्राप्त होती थी। शूद्र को विभूति के रूप में मिलती थी निश्चिन्तता। और इस के प्रतिकार में उस की जिम्मेदारी थी की वह अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों की सेवा करे। जिस से उन्हें अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये अध्ययन अनुसंधान, प्रयोग और व्यवहार के लिये अवकाश प्राप्त हो सके। |
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| == वर्ण व्यवस्था और वर्ण अनुशासन == | | == वर्ण व्यवस्था और वर्ण अनुशासन == |
− | परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ बनाया है। संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था भी की है। अर्थात् मनुष्य निर्माण किया है तो उस की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधन भी बनाए है। मनुष्य समाज ठीक से जी सके इस लिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगों को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है। इसी लिये श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते है:<blockquote>चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टं गुणकर्म विभागश: (४-१३)</blockquote>जिस वर्ण का वह मनुष्य होता है उस के गुण लक्षण अन्य वर्ण के मनुष्य से भिन्न होते है। हिन्दू समाज की विशेषता यह रही की इस के मार्गदर्शकों ने, पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार नये जन्म में वर्ण विशेष का ‘स्वभाव ‘ लेकर आये मनुष्य के इन वर्णों के गुण लक्षणों को समझकर, समाज में इन का संतुलन बनाये रखने के लिये इन्हें एक व्यवस्था में ढाला। जन्म से या शिशु अवस्था से वर्ण तय होने से वर्ण के अनुसार संस्कार और शिक्षा के माध्यम से बालक के वर्णगत गुणों में शुध्दि और वृध्दि की जा सकती है। इसी व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था कहते है। वर्ण व्यवस्था के दो प्रमुख अंग है। | + | परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ बनाया है। संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था भी की है। अर्थात् मनुष्य निर्माण किया है तो उस की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधन भी बनाए है। मनुष्य समाज ठीक से जी सके इस लिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगों को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है। इसी लिये श्रीमद्भगवद्गीता<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 4-13</ref> में भगवान कहते है:<blockquote>चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टं गुणकर्म विभागश: (4-13)</blockquote>जिस वर्ण का वह मनुष्य होता है उस के गुण लक्षण अन्य वर्ण के मनुष्य से भिन्न होते है। हिन्दू समाज की विशेषता यह रही की इस के मार्गदर्शकों ने, पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार नये जन्म में वर्ण विशेष का ‘स्वभाव ‘ लेकर आये मनुष्य के इन वर्णों के गुण लक्षणों को समझकर, समाज में इन का संतुलन बनाये रखने के लिये इन्हें एक व्यवस्था में ढाला। जन्म से या शिशु अवस्था से वर्ण तय होने से वर्ण के अनुसार संस्कार और शिक्षा के माध्यम से बालक के वर्णगत गुणों में शुध्दि और वृध्दि की जा सकती है। इसी व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था कहते है। वर्ण व्यवस्था के दो प्रमुख अंग है। |
− | | + | # वर्ण विशेष के गुण लक्षण लेकर आये शिशु / बालक का ‘स्वभाव ‘ और गुण लक्षणों को समझना । अर्थात शिशु / बालक का वर्ण तय करना। |
− | १. वर्ण विशेष के गुण लक्षण लेकर आये शिशु / बालक का ‘स्वभाव ‘ और गुण लक्षणों को समझना । अर्थात शिशु / बालक का वर्ण तय करना।
| + | # शिशु / बालक के तय किये वर्ण के गुण लक्षणों में शुध्दि और वृध्दि के लिये अनुकूल और अनुरूप संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था करना। ऐसा करने से वर्णगत गुणों की तीव्रता में शुध्दि और वृध्दि होती है। समाज सुसंस्कृत बनता है। |
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− | २. शिशु / बालक के तय किये वर्ण के गुण लक्षणों में शुध्दि और वृध्दि के लिये अनुकूल और अनुरूप संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था करना। ऐसा करने से वर्णगत गुणों की तीव्रता में शुध्दि और वृध्दि होती है। समाज सुसंस्कृत बनता है।
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| == जीवंत इकाई के अंग == | | == जीवंत इकाई के अंग == |
| मनुष्यों के स्वभाव के वर्गीकरण के अनुसार चार वर्ग बनते है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन प्रवृत्तियों के अनुसार वह वर्ग विशिष्ट प्रकार के कर्म ही अच्छी तरह कर सकता है। इन वर्गों की विशिष्ट प्रवृत्तियों की चर्चा हम आगे करेंगे। अभी इतना हम समझ लें की हर जीवंत इकाई में इन चार प्रवृत्तियों के अनुसार कर्म करनेवाला उस समाज का या जीवंत इकाई का कोई अंग अवश्य होता है। जैसे मनुष्य का शरीर। यह एक जीवंत इकाई है। इस में भी ब्राह्मण की भूमिका में सिर, क्षत्रिय की भूमिका में हाथ, वैश्य की भूमिका में पेट और शूद्र की भूमिका में पैर काम करते है। | | मनुष्यों के स्वभाव के वर्गीकरण के अनुसार चार वर्ग बनते है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन प्रवृत्तियों के अनुसार वह वर्ग विशिष्ट प्रकार के कर्म ही अच्छी तरह कर सकता है। इन वर्गों की विशिष्ट प्रवृत्तियों की चर्चा हम आगे करेंगे। अभी इतना हम समझ लें की हर जीवंत इकाई में इन चार प्रवृत्तियों के अनुसार कर्म करनेवाला उस समाज का या जीवंत इकाई का कोई अंग अवश्य होता है। जैसे मनुष्य का शरीर। यह एक जीवंत इकाई है। इस में भी ब्राह्मण की भूमिका में सिर, क्षत्रिय की भूमिका में हाथ, वैश्य की भूमिका में पेट और शूद्र की भूमिका में पैर काम करते है। |
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− | ॠग्वेद के पुरूषसूक्त में (१०-९०) और यजुर्वेद (यजुर्वेद ३१-११)में भी यही बताया गया है। <blockquote>ब्राह्मणोऽस्य मुखमासिद् बाहू राजन्य: कृत: ।</blockquote><blockquote>ऊरू तदस्य यद्वैश्य पदभ्याँ शूद्रोऽअजायत ॥</blockquote>जीवंत इकाई के हर अंग का महत्व होता है। किसी भी अंग की हानि, अंगी की यानी जीवंत इकाई की हानि होती है। मनुष्य के शरीर में जैसे पैर की हानि शरीर की हानि होती है इसी तरह समाज में किसी भी मनुष्य की या वर्ण की या जाति की हानि होती है। किंतु इस का अर्थ यह नहीं की हाथ का काम कान करने लगे। हाथ का काम अलग है और कान का काम अलग है। प्रत्त्येक का मनुष्य के अस्तित्व का अलग महत्व है। अलग प्रयोजन है। जिस प्रकार हम शरीर के प्रत्येक अंग के स्वास्थ्य की चिंता करते है, उसी प्रकार से समाज में विभिन्न घटकों का महत्व कम अधिक होने पर भी सभी के साथ, हम अपने शरीर के प्रत्येक अंग के साथ, वह अपना अंग है यह ध्यान में रखकर जैसा व्यवहार करते है, वैसा यानी ‘मेरा अपना सगा’ जैसा व्यवहार तो होना ही चाहिये । | + | ॠग्वेद के पुरूषसूक्त में (१०-९०) और यजुर्वेद (यजुर्वेद ३१-११) में भी यही बताया गया है<ref>ॠग्वेद पुरूषसूक्त (१०-९०) और यजुर्वेद (३१-११)</ref>। <blockquote>ब्राह्मणोऽस्य मुखमासिद् बाहू राजन्य: कृत: ।</blockquote><blockquote>ऊरू तदस्य यद्वैश्य पदभ्याँ शूद्रोऽअजायत ॥</blockquote>जीवंत इकाई के हर अंग का महत्व होता है। किसी भी अंग की हानि, अंगी की यानी जीवंत इकाई की हानि होती है। मनुष्य के शरीर में जैसे पैर की हानि शरीर की हानि होती है इसी तरह समाज में किसी भी मनुष्य की या वर्ण की या जाति की हानि होती है। किंतु इस का अर्थ यह नहीं की हाथ का काम कान करने लगे। हाथ का काम अलग है और कान का काम अलग है। प्रत्त्येक का मनुष्य के अस्तित्व का अलग महत्व है। अलग प्रयोजन है। जिस प्रकार हम शरीर के प्रत्येक अंग के स्वास्थ्य की चिंता करते है, उसी प्रकार से समाज में विभिन्न घटकों का महत्व कम अधिक होने पर भी सभी के साथ, हम अपने शरीर के प्रत्येक अंग के साथ, वह अपना अंग है यह ध्यान में रखकर जैसा व्यवहार करते है, वैसा यानी ‘मेरा अपना सगा’ जैसा व्यवहार तो होना ही चाहिये । |
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| === वर्णों की विशेषताएं === | | === वर्णों की विशेषताएं === |
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| श्रीमद्भगवद्गीता में चारों वर्णों के ‘स्व ‘भावज कर्म बताये हैं। श्रीमद्भगवद्गीता योग ‘शास्त्र ‘ है। इस में प्रस्तुत सूत्र हजारों वर्षों से आजतक प्रासंगिक है और आगे भी रहेंगे। ‘स्व ‘ भावज कर्म यानी जिनको करने से करने वाले को बोझ नहीं लगता। | | श्रीमद्भगवद्गीता में चारों वर्णों के ‘स्व ‘भावज कर्म बताये हैं। श्रीमद्भगवद्गीता योग ‘शास्त्र ‘ है। इस में प्रस्तुत सूत्र हजारों वर्षों से आजतक प्रासंगिक है और आगे भी रहेंगे। ‘स्व ‘ भावज कर्म यानी जिनको करने से करने वाले को बोझ नहीं लगता। |
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− | ब्राह्मण के गुण और कर्मों के लक्षणों का वर्णन है - <blockquote>शमो दमस्तप: शाप्रचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।</blockquote><blockquote>ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ (१८-४२)</blockquote>अर्थात् शम ( मनपर नियंत्रण), दम (इंद्रियों का दमन), तप (कार्य के लिये कठिनाई का सामना करने की शक्ति), शौच (अंतर्बाह्य पवित्रता/शुचिता - जल और माटी से शरीर की और धनशुद्धि, आहारशुद्धि और आचारशुद्धि से आसक्ति, कपट, द्वेषभाव आदि को दूर करने वाली आंतरिक शुद्धि), शान्ति (बिना हडबडाए व्यवहार करना), आस्तिक्यम् (आस्तिक बुध्दि), ज्ञान (ब्रह्म) और विज्ञान(अष्टधा प्रकृति) की समझ और वैसा व्यवहार। | + | ब्राह्मण के गुण और कर्मों के लक्षणों का वर्णन है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-42</ref> <blockquote>शमो दमस्तप: शाप्रचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।</blockquote><blockquote>ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ 18-42 ॥</blockquote>अर्थात् शम ( मनपर नियंत्रण), दम (इंद्रियों का दमन), तप (कार्य के लिये कठिनाई का सामना करने की शक्ति), शौच (अंतर्बाह्य पवित्रता/शुचिता - जल और माटी से शरीर की और धनशुद्धि, आहारशुद्धि और आचारशुद्धि से आसक्ति, कपट, द्वेषभाव आदि को दूर करने वाली आंतरिक शुद्धि), शान्ति (बिना हडबडाए व्यवहार करना), आस्तिक्यम् (आस्तिक बुध्दि), ज्ञान (ब्रह्म) और विज्ञान(अष्टधा प्रकृति) की समझ और वैसा व्यवहार। |
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− | मनुस्मृति में ब्राह्मण के कर्म बताए गये हैं: <blockquote>अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।</blockquote><blockquote>दानं प्रतिग्रहंचैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ ( मनुस्मृति – १-८८)</blockquote>अर्थ : पढना / पढाना, यज्ञ करना/कराना और दान लेना/देना यह ब्राह्मण के कर्म है। | + | मनुस्मृति में ब्राह्मण के कर्म बताए गये हैं<ref>मनुस्मृति: 1-88</ref>: <blockquote>अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।</blockquote><blockquote>दानं प्रतिग्रहंचैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ 1-88 ॥</blockquote>अर्थ : पढना / पढाना, यज्ञ करना/कराना और दान लेना/देना यह ब्राह्मण के कर्म है। |
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− | इसी प्रकार से क्षत्रिय के गुण लक्षण बताए गये है। <blockquote>शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युध्दे चाप्यपलायनम् ।</blockquote><blockquote>दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् । । ( भ. गीता १८-४३)</blockquote>शौर्य, तेज, धैर्य, कार्य-दक्षता, युध्द में से भागना नहीं, दान देने का स्वभाव और ईश्वर भाव यानीं रक्षक के भाव से व्यवहार करना - क्षत्रिय के गुण/लक्षण है। | + | इसी प्रकार से क्षत्रिय के गुण लक्षण बताए गये है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-43</ref>: <blockquote>शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युध्दे चाप्यपलायनम् ।</blockquote><blockquote>दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।। 18-43 ।।</blockquote>शौर्य, तेज, धैर्य, कार्य-दक्षता, युध्द में से भागना नहीं, दान देने का स्वभाव और ईश्वर भाव यानीं रक्षक के भाव से व्यवहार करना - क्षत्रिय के गुण/लक्षण है। |
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− | क्षत्रिय के कर्म मनुस्मृति में बताए गये हैं: <blockquote>प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।</blockquote><blockquote>विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासत: ॥ ( मनुस्मृति १-८९)</blockquote>प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, विषयों में अनासक्त रहना यह क्षत्रिय के स्वभाविक कर्म है। | + | क्षत्रिय के कर्म मनुस्मृति में बताए गये हैं<ref>मनुस्मृति 1-89</ref>: <blockquote>प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।</blockquote><blockquote>विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासत: ॥ 1-89 ॥ </blockquote>प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, विषयों में अनासक्त रहना यह क्षत्रिय के स्वभाविक कर्म है। |
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− | वैश्य के विषय में कहा है <blockquote>कृषिगोरक्षवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् । (भ. गीता १८-४४)</blockquote>अर्थ : खेती करना, गौ आदि धन की रक्षा और संवर्धन करना और व्यापार करना यह वैश्य के स्वाभाविक कर्म है। | + | वैश्य के विषय में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-44</ref> <blockquote>कृषिगोरक्षवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।। 18-44 ।।</blockquote>अर्थ : खेती करना, गौ आदि धन की रक्षा और संवर्धन करना और व्यापार करना यह वैश्य के स्वाभाविक कर्म है। |
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− | वैश्यों के कर्म के विषय में लिखा है: <blockquote>पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।</blockquote><blockquote>वणिक्पथं कुसीदंच वैश्यस्य कृषिमेव च ॥ ( मनुस्मृति १-९०)</blockquote>अर्थ : पशूपालन, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, व्यापार करना, साहुकारी और खेती करना यह वैश्य के स्वाभाविक कर्म है। | + | वैश्यों के कर्म के विषय में लिखा है<ref>मनुस्मृति 1-90</ref>: <blockquote>पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।</blockquote><blockquote>वणिक्पथं कुसीदंच वैश्यस्य कृषिमेव च ॥ 1-90 ॥</blockquote>अर्थ : पशूपालन, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, व्यापार करना, साहुकारी और खेती करना यह वैश्य के स्वाभाविक कर्म है। |
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− | शूद्र का एकमेव कर्म परिचर्या बताया है। <blockquote>परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यपि स्वभावजम् । (भ. गीता १८-४४)</blockquote><blockquote>एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत् ।</blockquote><blockquote>एतेषामेव वर्णानाम् शुश्रुषामनसूयया ॥ ( मनुस्मृति १-९१)</blockquote>मन में द्वेषभाव न रखते हुए अन्य तीनों वर्णों के लोगों की असूया न रखते हुए सेवा आदि करना शूद्र के कर्म है। | + | शूद्र का एकमेव कर्म परिचर्या बताया है:<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-44</ref> <blockquote>परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यपि स्वभावजम् । </blockquote><blockquote>एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत् ।। 18-44।।</blockquote><blockquote>एतेषामेव वर्णानाम् शुश्रुषामनसूयया ॥<ref>मनुस्मृति 1-91</ref> </blockquote>मन में द्वेषभाव न रखते हुए अन्य तीनों वर्णों के लोगों की असूया न रखते हुए सेवा आदि करना शूद्र के कर्म है। |
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− | श्रीमद्भगवद्गीता में आगे बताया है: <blockquote>स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरा: (भ. गीता १८-४)</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है। अन्य वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से नहीं । आगे और बताया है <blockquote>श्रेयान स्वधर्मों विगुणा: परधर्मात्स्वनुष्ठितात (भ. गीता १८-४७)</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्म हेय लगने पर भी उन्हे ही करना चाहिये। | + | श्रीमद्भगवद्गीता में आगे बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-4</ref>: <blockquote>स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरा: (भ. गीता १८-४)</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है। अन्य वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से नहीं । आगे और बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-47</ref> <blockquote>श्रेयान स्वधर्मों विगुणा: परधर्मात्स्वनुष्ठितात (भ. गीता १८-४७)</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्म हेय लगने पर भी उन्हे ही करना चाहिये। |
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| महाभारत में शांतिपर्व १८९.४ और ८ में तथा अनुशासन पर्व में शंकर पार्वती से कहते हैं कि हीन कुल में जन्मा हुआ शूद्र भी यदि आगमसंपन्न याने धर्मज्ञानी हो तो उसे ब्राह्मण मानना चाहिए। इसका अर्थ है यदि वह इतनी योग्यतावाला है तो केवल शूद्र के घर में पैदा हुआ है इसलिए उसे ब्राह्मणत्व नकारना उचित नहीं है। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर जैसे लोगों के विषय में ही शायद ऐसा कहा होगा ऐसा लगता है। | | महाभारत में शांतिपर्व १८९.४ और ८ में तथा अनुशासन पर्व में शंकर पार्वती से कहते हैं कि हीन कुल में जन्मा हुआ शूद्र भी यदि आगमसंपन्न याने धर्मज्ञानी हो तो उसे ब्राह्मण मानना चाहिए। इसका अर्थ है यदि वह इतनी योग्यतावाला है तो केवल शूद्र के घर में पैदा हुआ है इसलिए उसे ब्राह्मणत्व नकारना उचित नहीं है। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर जैसे लोगों के विषय में ही शायद ऐसा कहा होगा ऐसा लगता है। |
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| ऐसा कहा जाता है कि किसी समय गुरूकुलों में वर्ण तय होते थे। गुरूकुलों में प्रवेश से पूर्व घरों में बच्चे की रुचि जानने के प्रयास होते थे। प्राचीन काल से हमारे समाज में बच्चे की वृत्ति शिशु अवस्था में जानने की प्रथा थी। ७,८,९, महीने का बच्चा जब बैठने लग जाता था तो उस के सामने भिन्न भिन्न विकल्प रखे जाते थे। लेखनी / पुस्तक, तलवार / अन्य कोई हथियार, तराजू / बाट और परिचर्या / सेवा के साधन आदि। बच्चा अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार उन में से एक वस्तू से खेलने लग जाता है। इस प्रकार वर्ण की एकदम मोटी पहचान कर तय किया जाता था कि बच्चे को गुरूकुल में प्रवेश किस आयु में देना चाहिये। किस वर्ण के शिशु को गुरूकुल में प्रवेश किस आयु में देना चाहिये यह हम आगे चलकर देखेंगे। | | ऐसा कहा जाता है कि किसी समय गुरूकुलों में वर्ण तय होते थे। गुरूकुलों में प्रवेश से पूर्व घरों में बच्चे की रुचि जानने के प्रयास होते थे। प्राचीन काल से हमारे समाज में बच्चे की वृत्ति शिशु अवस्था में जानने की प्रथा थी। ७,८,९, महीने का बच्चा जब बैठने लग जाता था तो उस के सामने भिन्न भिन्न विकल्प रखे जाते थे। लेखनी / पुस्तक, तलवार / अन्य कोई हथियार, तराजू / बाट और परिचर्या / सेवा के साधन आदि। बच्चा अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार उन में से एक वस्तू से खेलने लग जाता है। इस प्रकार वर्ण की एकदम मोटी पहचान कर तय किया जाता था कि बच्चे को गुरूकुल में प्रवेश किस आयु में देना चाहिये। किस वर्ण के शिशु को गुरूकुल में प्रवेश किस आयु में देना चाहिये यह हम आगे चलकर देखेंगे। |
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− | और भी कहा गया है-<blockquote>लालयेत् पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्</blockquote><blockquote>प्राप्ते तु षोडषे वर्षे पुत्रंमित्रवदाचरेत् ॥</blockquote>इस सूत्र में भी यही बताया गया है कि बच्चे को ५ वर्षतक लाड प्यार से बढाना चाहिये। उसे डाँटना मारना नहीं चाहिये। इन पाँच वर्षों में उस का निरीक्षण करते रहना चाहिये। ऐसा करने से बच्चे की अभिव्यक्ति मुक्त रहेगी। और उसकी रुचि, उस का स्वभाव, उस के गुण और लक्षण समझना सहज और सरल हो जाएगा। इस के उपरांत बच्चे की रुचि, स्वभाव, गुण और लक्षणों के अनुरूप योग्य आयु में गुरूकुल में प्रवेश के लिये ले जाना होता था।<blockquote>गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनयनम् ।</blockquote><blockquote>गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश: ॥ ( मनुस्मृति २-३६)</blockquote><blockquote>ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पंचमे</blockquote><blockquote>राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे ॥ ( मनुस्मृति २-३७)</blockquote><blockquote>आ षोडषाद् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते ।</blockquote><blockquote>आ द्वाविंशात्क्षत्रबंधोरा चतुर्विशतेर्विश: ॥ ( मनुस्मृति २-३८)</blockquote>अर्थ : ब्राह्मण के गुण लक्षण जिस बच्चे में दिखाई दिये हों ऐसे बच्चे को गर्भधारणा से या प्रत्यक्ष जन्म से ५ वें वर्ष में, क्षत्रिय को छठे वर्ष में और वैश्य को आठवें वर्ष में गुरुकुल में प्रवेश के लिये लाया जाता था ( उपर्युक्त २-३७)। | + | और भी कहा गया है-<blockquote>लालयेत् पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्</blockquote><blockquote>प्राप्ते तु षोडषे वर्षे पुत्रंमित्रवदाचरेत् ॥</blockquote>इस सूत्र में भी यही बताया गया है कि बच्चे को ५ वर्षतक लाड प्यार से बढाना चाहिये। उसे डाँटना मारना नहीं चाहिये। इन पाँच वर्षों में उस का निरीक्षण करते रहना चाहिये। ऐसा करने से बच्चे की अभिव्यक्ति मुक्त रहेगी। और उसकी रुचि, उस का स्वभाव, उस के गुण और लक्षण समझना सहज और सरल हो जाएगा। इस के उपरांत बच्चे की रुचि, स्वभाव, गुण और लक्षणों के अनुरूप योग्य आयु में गुरूकुल में प्रवेश के लिये ले जाना होता था:<ref>मनुस्मृति 2-36, 2-37, 2-38</ref><blockquote>गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनयनम् ।</blockquote><blockquote>गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश: ॥ ( मनुस्मृति २-३६)</blockquote><blockquote>ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पंचमे</blockquote><blockquote>राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे ॥ ( मनुस्मृति २-३७)</blockquote><blockquote>आ षोडषाद् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते ।</blockquote><blockquote>आ द्वाविंशात्क्षत्रबंधोरा चतुर्विशतेर्विश: ॥ ( मनुस्मृति २-३८)</blockquote>अर्थ : ब्राह्मण के गुण लक्षण जिस बच्चे में दिखाई दिये हों ऐसे बच्चे को गर्भधारणा से या प्रत्यक्ष जन्म से ५ वें वर्ष में, क्षत्रिय को छठे वर्ष में और वैश्य को आठवें वर्ष में गुरुकुल में प्रवेश के लिये लाया जाता था ( उपर्युक्त २-३७)। |
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| गुरूकुल प्रवेश के बाद बच्चे को परखा जाता था। उस के उपरांत ही उस का वर्ण निश्चित कर उपनयन किया जाता था। ब्राह्मण के गुण लक्षण जिस में प्रकट हुए है उस का उपनयन आठवें वर्ष में क्षत्रिय का ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य का बारहवें वर्ष में उपनयन होता था। (२-३८) | | गुरूकुल प्रवेश के बाद बच्चे को परखा जाता था। उस के उपरांत ही उस का वर्ण निश्चित कर उपनयन किया जाता था। ब्राह्मण के गुण लक्षण जिस में प्रकट हुए है उस का उपनयन आठवें वर्ष में क्षत्रिय का ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य का बारहवें वर्ष में उपनयन होता था। (२-३८) |
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| प्रत्यक्ष में भी जो अपने जन्म से प्राप्त वर्ण के अनुसार विहित कर्म नहीं करते थे उन के वर्ण बदल जाते थे। | | प्रत्यक्ष में भी जो अपने जन्म से प्राप्त वर्ण के अनुसार विहित कर्म नहीं करते थे उन के वर्ण बदल जाते थे। |
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− | महाभारत में लिखा है -<blockquote>शूद्रो राजन् भवति ब्रह्मबंधुर्दुश्चरित्रो यश्च धर्मादपेत: ।( महाभारत शांतिपर्व ६३-४)</blockquote>अर्थ है शूद्र क्षत्रिय बन जाते है। ब्राह्मण गलत कर्म करने से शूद्र बन जाते है। | + | महाभारत में लिखा है:<ref>महाभारत शांतिपर्व 63-4</ref><blockquote>शूद्रो राजन् भवति ब्रह्मबंधुर्दुश्चरित्रो यश्च धर्मादपेत: ।( महाभारत शांतिपर्व ६३-४)</blockquote>अर्थ है शूद्र क्षत्रिय बन जाते है। ब्राह्मण गलत कर्म करने से शूद्र बन जाते है। |
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| आगे और कहा है-<blockquote>शूद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते ।</blockquote><blockquote>न वै शूद्रो भवेच्छुद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मण: ॥ ( महाभारत शांतिपर्व १९८-८)</blockquote>अर्थ है ब्राह्मण के गुण यदि शूद्र में दिखाई देते है तो वह शूद्र नहीं (ब्राह्मण है) और शूद्र के गुण यदि ब्राह्मण में दिखाई देते है तो वह ब्राह्मण नहीं (शूद्र है)। महर्षि वेदव्यास, वाल्मिकी जैसे इस के कई उदाहरण हम जानते है। इन का जन्म ब्राह्मण कुल में नहीं हुआथा। मछुआरे के कुल में जन्म लेकर भी जैसे ही ‘वाल्या मछुआरे’ ने ब्राह्मण के गुण और लक्षण व्यक्त किये, उसे ब्राह्मण वर्ण प्राप्त हुआ। वह वाल्मिकी बन गये। लेकिन वाल्या से वाल्मिकी वह अकस्मात नहीं बने। इस के लिये उन्हें भी दीर्घ तप करना पडा। ब्राह्मण वर्ण का सा व्यवहार कई वर्षों तक करते रहने के उपरांत ही उन्हें ब्राह्मण का सम्मान प्राप्त हुआथा। उन में ब्राह्मण वर्ण के गुण लक्षण तो जन्म से हीं रहे होंगे, जो सूप्तावस्था में थे। महर्षि नारद के उपदेश से वही उभरकर प्रकट हो गये। | | आगे और कहा है-<blockquote>शूद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते ।</blockquote><blockquote>न वै शूद्रो भवेच्छुद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मण: ॥ ( महाभारत शांतिपर्व १९८-८)</blockquote>अर्थ है ब्राह्मण के गुण यदि शूद्र में दिखाई देते है तो वह शूद्र नहीं (ब्राह्मण है) और शूद्र के गुण यदि ब्राह्मण में दिखाई देते है तो वह ब्राह्मण नहीं (शूद्र है)। महर्षि वेदव्यास, वाल्मिकी जैसे इस के कई उदाहरण हम जानते है। इन का जन्म ब्राह्मण कुल में नहीं हुआथा। मछुआरे के कुल में जन्म लेकर भी जैसे ही ‘वाल्या मछुआरे’ ने ब्राह्मण के गुण और लक्षण व्यक्त किये, उसे ब्राह्मण वर्ण प्राप्त हुआ। वह वाल्मिकी बन गये। लेकिन वाल्या से वाल्मिकी वह अकस्मात नहीं बने। इस के लिये उन्हें भी दीर्घ तप करना पडा। ब्राह्मण वर्ण का सा व्यवहार कई वर्षों तक करते रहने के उपरांत ही उन्हें ब्राह्मण का सम्मान प्राप्त हुआथा। उन में ब्राह्मण वर्ण के गुण लक्षण तो जन्म से हीं रहे होंगे, जो सूप्तावस्था में थे। महर्षि नारद के उपदेश से वही उभरकर प्रकट हो गये। |