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# अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार जीने के लिये तथा लोगों के योगक्षेम के लिये समाज अपनी कुछ व्यवस्थाएँ, संस्थाएँ और प्रक्रियाएँ विकसित करता है। यह व्यवस्थाएँ मोटे तौरपर तीन उद्देष्यों के लिये होती हैं। रक्षण, पोषण और शिक्षण।
 
# अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार जीने के लिये तथा लोगों के योगक्षेम के लिये समाज अपनी कुछ व्यवस्थाएँ, संस्थाएँ और प्रक्रियाएँ विकसित करता है। यह व्यवस्थाएँ मोटे तौरपर तीन उद्देष्यों के लिये होती हैं। रक्षण, पोषण और शिक्षण।
 
# मानव समाज में परमात्मा निर्मित चार वर्ण होते हैं । अब इन वर्णों का लाभ व्यक्ति और समाज दोनों को मिले इस लिये हमारे पूर्वजों ने जो व्यवस्था की थी उसका विचार करेंगे। वेद सत्य ज्ञान के ग्रंथ हैं। वेदों के अनुसार जो विभिन्न वर्णों की योग्यता है उसी के लिये व्यवस्था बनाना उचित होगा। इस के चरण निम्न हैं:
 
# मानव समाज में परमात्मा निर्मित चार वर्ण होते हैं । अब इन वर्णों का लाभ व्यक्ति और समाज दोनों को मिले इस लिये हमारे पूर्वजों ने जो व्यवस्था की थी उसका विचार करेंगे। वेद सत्य ज्ञान के ग्रंथ हैं। वेदों के अनुसार जो विभिन्न वर्णों की योग्यता है उसी के लिये व्यवस्था बनाना उचित होगा। इस के चरण निम्न हैं:
#* प्रत्येक जन्मे हुए बालक को परखकर उसका वर्ण जानना। यह काम माता पिता अपने कुल पुरोहित के मार्गदर्शन में करें यह परंपरा थी
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#* प्रत्येक जन्मे हुए बालक को परखकर उसका वर्ण जानना। यह काम माता पिता अपने कुल पुरोहित के मार्गदर्शन में करें यह परंपरा थी
 
#* वर्ण को जानकर बालक जिस वर्ण का है उस वर्ण के संस्कार उसे मिले ऐसी योजना बनाना। सामान्यत: आजकल के माता-पिता अपघात से बच्चों को जन्म देते हैं। किंतु बालक को यदि विचारपूर्वक, योजनापूर्वक तथा विशेष प्रयासों से जन्म दिया जाये तो पैदा होनेवाले बच्चे अपने पिता के वर्ण के ही होते हैं। इस तरह पिता का वर्ण आगे चलता है। समाज में वर्ण संतुलन बना रहता है। पिता जब अपने वर्ण के अनुसार कर्म करता है तब उसके घर का वातावरण स्वाभाविक रूप से बच्चों को योग्य वर्ण संस्कारोंसे संस्कारित करता है।
 
#* वर्ण को जानकर बालक जिस वर्ण का है उस वर्ण के संस्कार उसे मिले ऐसी योजना बनाना। सामान्यत: आजकल के माता-पिता अपघात से बच्चों को जन्म देते हैं। किंतु बालक को यदि विचारपूर्वक, योजनापूर्वक तथा विशेष प्रयासों से जन्म दिया जाये तो पैदा होनेवाले बच्चे अपने पिता के वर्ण के ही होते हैं। इस तरह पिता का वर्ण आगे चलता है। समाज में वर्ण संतुलन बना रहता है। पिता जब अपने वर्ण के अनुसार कर्म करता है तब उसके घर का वातावरण स्वाभाविक रूप से बच्चों को योग्य वर्ण संस्कारोंसे संस्कारित करता है।
 
#* ‘वर्णानुरूप शिक्षा’ का काम श्रेष्ठ आचार्यों के आश्रमों में या गुरुकुलों में देने की व्यवस्था करना उचित होता है। केवल माता पिता ने कहा है इसपर निर्भर नहीं रहकर आचार्य बच्चे को अच्छी तरह परखकर उसके वर्ण को समझते हैं। तब उस वर्ण के तीव्र संस्कार और शास्त्रीय शिक्षा की व्यवस्था आचार्य उनके लिये करते हैं।
 
#* ‘वर्णानुरूप शिक्षा’ का काम श्रेष्ठ आचार्यों के आश्रमों में या गुरुकुलों में देने की व्यवस्था करना उचित होता है। केवल माता पिता ने कहा है इसपर निर्भर नहीं रहकर आचार्य बच्चे को अच्छी तरह परखकर उसके वर्ण को समझते हैं। तब उस वर्ण के तीव्र संस्कार और शास्त्रीय शिक्षा की व्यवस्था आचार्य उनके लिये करते हैं।
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