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== व्यक्तित्व का अर्थ ==
 
== व्यक्तित्व का अर्थ ==
व्यक्तित्व एक बहुत व्यापक अर्थवाला शब्द है। संसार में अनगिनत अस्तित्व हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ में कहा है:  <blockquote>भूमिराप: अनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।</blockquote><blockquote>अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा  । ।  7.5 । ।</blockquote><blockquote>अपरेयमितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।</blockquote><blockquote>जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्  </blockquote>आगे और कहा है  <blockquote>एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।</blockquote><blockquote>अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यह सब परमात्मा के ही भिन्न भिन्न रूप हैं। ये दो तत्वों से बनें हैं। एक है भूमि, आप, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ऐसे आठ घटकों की अचेतन याने अपरा प्रकृति। और दूसरी है जीवरूप परा प्रकृति याने जीवात्मा। परा और अपरा दोनों ही परमात्मा के ही अंशों से बनें हैं। संसार में जितने भी भूतमात्र हैं वे सब मेरी इन दो प्रकृतियों से ही बनें हैं। मैं ही संसार की उत्पत्ति और प्रलय का मूल कारण हूँ।</blockquote>सभी अस्तित्वों की भिन्नता उनमें उपस्थित अष्टधा प्रकृति के आठों घटकों के अनगिनत भिन्न भिन्न प्रमाणों में संयोग (कोंबिनेशन) के कारण है। परमात्मा की अष्टधा प्रकृति के जिस संयोग-विशेष के साथ परमात्मा का अंश याने परा प्रकृति याने आत्मतत्व जुड़ता है उन्हें जीव कहते हैं, और परमात्मा के उस अंश को उस जीव का जीवात्मा। परमात्मा का अंश अस्तित्व में से अपने को अभिव्यक्त करता है, अपने गुण-लक्षण प्रकट करता है इसलिये उसे ‘व्यक्ति’ कहा जाता है। हर अस्तित्व की अभिव्यक्ति अष्टधा प्रकृति के भिन्न मेल-विशेष के कारण अन्य अस्तित्वों से भिन्न होती है। इसे ही उस अस्तित्व का ‘व्यक्तित्व‘ कहा जाता है। मनुष्य के संबंध में जब इस शब्द का प्रयोग किया जाता है तब व्यक्तित्व से तात्पर्य है उस मनुष्य की अष्टधा प्रकृतिके मेल-विशेष के कारण होनेवाली जीवात्मा की अभिव्यक्ति।   
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व्यक्तित्व एक बहुत व्यापक अर्थवाला शब्द है। संसार में अनगिनत अस्तित्व हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 7.4 and 7.5</ref>:  <blockquote>भूमिराप: अनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।</blockquote><blockquote>अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा  ।। 7.4 ।।</blockquote><blockquote>अपरेयमितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।</blockquote><blockquote>जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्  ।। 7.5 ।। </blockquote>आगे और कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 7.6</ref> <blockquote>एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।</blockquote><blockquote>अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यह सब परमात्मा के ही भिन्न भिन्न रूप हैं। ये दो तत्वों से बनें हैं। एक है भूमि, आप, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ऐसे आठ घटकों की अचेतन याने अपरा प्रकृति। और दूसरी है जीवरूप परा प्रकृति याने जीवात्मा। परा और अपरा दोनों ही परमात्मा के ही अंशों से बनें हैं। संसार में जितने भी भूतमात्र हैं वे सब मेरी इन दो प्रकृतियों से ही बनें हैं। मैं ही संसार की उत्पत्ति और प्रलय का मूल कारण हूँ।</blockquote>सभी अस्तित्वों की भिन्नता उनमें उपस्थित अष्टधा प्रकृति के आठों घटकों के अनगिनत भिन्न भिन्न प्रमाणों में संयोग (कोंबिनेशन) के कारण है। परमात्मा की अष्टधा प्रकृति के जिस संयोग-विशेष के साथ परमात्मा का अंश याने परा प्रकृति याने आत्मतत्व जुड़ता है उन्हें जीव कहते हैं, और परमात्मा के उस अंश को उस जीव का जीवात्मा। परमात्मा का अंश अस्तित्व में से अपने को अभिव्यक्त करता है, अपने गुण-लक्षण प्रकट करता है इसलिये उसे ‘व्यक्ति’ कहा जाता है। हर अस्तित्व की अभिव्यक्ति अष्टधा प्रकृति के भिन्न मेल-विशेष के कारण अन्य अस्तित्वों से भिन्न होती है। इसे ही उस अस्तित्व का ‘व्यक्तित्व‘ कहा जाता है। मनुष्य के संबंध में जब इस शब्द का प्रयोग किया जाता है तब व्यक्तित्व से तात्पर्य है उस मनुष्य की अष्टधा प्रकृतिके मेल-विशेष के कारण होनेवाली जीवात्मा की अभिव्यक्ति।   
    
== व्यक्तित्व का समग्र विकास ही पूर्णत्व ==
 
== व्यक्तित्व का समग्र विकास ही पूर्णत्व ==
स्वामी विवेकानंदजी ने शिक्षा की व्याख्या की है। वे बताते हैं – ‘मनुष्य में पहले से ही विद्यमान ‘पूर्णत्व’ के प्रकटीकरण को ही शिक्षा कहते हैं।’ इस पूर्णत्व शब्द को ठीक समझना होगा। पूर्णत्व का अर्थ है हर बात में पूर्णत्व। यह तो केवल परमात्मा में ही होता है। अन्य किसी में नहीं। स्वामीजी के कथन का अर्थ है की परमात्मपद प्राप्ति ही शिक्षा का लक्ष्य है। यही तो भारत की सहस्रकों से चली आ रही मान्यता है।   <blockquote>सा विद्या या विमुक्तये </blockquote><blockquote>अर्थात जो मुक्ति दिलाए, मोक्ष की प्राप्ति जिससे हो, जिससे प्रमात्मपद प्राप्त हो वही शिक्षा है। </blockquote>एकात्म मानव दर्शन में इसी समग्र विकास की व्याख्या पंडित दीनदयाल उपाध्यायजी ने सरल शब्दों में प्रस्तुत की। वे बताते हैं कि व्यक्तित्व का समग्र विकास उसके शरीर, मन, बुद्धि इन अंगों के विकास के साथ ही समष्टीगत और सृष्टिगत विकास होने से होता है। मनुष्य समाज और सृष्टि के बिना जी नहीं सकता। इन दोनों के साथ समायोजन अनिवार्य है। इसलिए इन के साथ समायोजन आवश्यक है।   
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स्वामी विवेकानंदजी ने शिक्षा की व्याख्या की है। वे बताते हैं – ‘मनुष्य में पहले से ही विद्यमान ‘पूर्णत्व’ के प्रकटीकरण को ही शिक्षा कहते हैं।’ इस पूर्णत्व शब्द को ठीक समझना होगा। पूर्णत्व का अर्थ है हर बात में पूर्णत्व। यह तो केवल परमात्मा में ही होता है। अन्य किसी में नहीं। स्वामीजी के कथन का अर्थ है की परमात्मपद प्राप्ति ही शिक्षा का लक्ष्य है। यही तो भारत की सहस्रकों से चली आ रही मान्यता है<ref>श्रीविष्णुपुराण 1-19-41
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तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
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आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्॥
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</ref>:   <blockquote>सा विद्या या विमुक्तये ।। 1-19-41 ।। </blockquote><blockquote>अर्थात जो मुक्ति दिलाए, मोक्ष की प्राप्ति जिससे हो, जिससे प्रमात्मपद प्राप्त हो वही शिक्षा है। </blockquote>एकात्म मानव दर्शन में इसी समग्र विकास की व्याख्या पंडित दीनदयाल उपाध्यायजी ने सरल शब्दों में प्रस्तुत की। वे बताते हैं कि व्यक्तित्व का समग्र विकास उसके शरीर, मन, बुद्धि इन अंगों के विकास के साथ ही समष्टीगत और सृष्टिगत विकास होने से होता है। मनुष्य समाज और सृष्टि के बिना जी नहीं सकता। इन दोनों के साथ समायोजन अनिवार्य है। इसलिए इन के साथ समायोजन आवश्यक है।   
    
यह समायोजन भी दो प्रकार से होता है। एक होता है अपने स्वार्थ के लिए और दूसरा होता है इन के साथ अपना संबंध आत्मीयता का है ऐसा मानने से। चिरकाल से मनुष्य के सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों के पीछे ‘स्वार्थ’ और ‘आत्मीयता’ यही दो कारण रहे हैं। इन संबंधों का आधार स्वार्थ है ऐसा माननेवाले लोगों को ‘असुर’ स्वभाव और संबंधों का आधार आत्मीयता है ऐसा माननेवालों को ‘सुर’ स्वभाव कहा गया है।   
 
यह समायोजन भी दो प्रकार से होता है। एक होता है अपने स्वार्थ के लिए और दूसरा होता है इन के साथ अपना संबंध आत्मीयता का है ऐसा मानने से। चिरकाल से मनुष्य के सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों के पीछे ‘स्वार्थ’ और ‘आत्मीयता’ यही दो कारण रहे हैं। इन संबंधों का आधार स्वार्थ है ऐसा माननेवाले लोगों को ‘असुर’ स्वभाव और संबंधों का आधार आत्मीयता है ऐसा माननेवालों को ‘सुर’ स्वभाव कहा गया है।   
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आनंदमय कोश के विकास का अर्थ है, चित्त का विकास । अपने शरीर में स्थित उस परमात्वतत्व को जैसा वह है वैसा ही जानने की क्षमता, सहजता, स्वतंत्रता, सौंदर्यबोध यह चित्त के विकास के लक्षण है ।   
 
आनंदमय कोश के विकास का अर्थ है, चित्त का विकास । अपने शरीर में स्थित उस परमात्वतत्व को जैसा वह है वैसा ही जानने की क्षमता, सहजता, स्वतंत्रता, सौंदर्यबोध यह चित्त के विकास के लक्षण है ।   
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मनुष्य और समाज  - इन का परस्पर संबंध अन्योन्याश्रित है । समाज के बिना मनुष्य जी नही सकता । इस समाज के संबंध में आत्मीयता की, एकात्मता की भावना का विकास ही समष्टिगत् विकास कहलाता है । समाज के हर घटक के दुख में दुख की अनुभूति होना इसका लक्षण है । इसी तरह मनुष्य और समाज सृष्टि के बिना जीवित नही रह सकते। इस चराचर सृष्टि के साथ आत्मीयता की, एकात्मता की भावना का विकास ही सृष्टिगत् विकास है । उपर्युक्त तीनों प्रकार से विकास होने से परमेष्ठिगत् विकास अपने आप हो जाता है ।  <blockquote>अहं ब्रह्मास्मि</blockquote><blockquote>तत् त्वं असि </blockquote><blockquote>सर्वं खल्विदं ब्रह्मं</blockquote>अर्थात् मैं ही वह परमात्मतत्व हूं, तुम भी वह परमात्वत्व ही हो और चराचर में वह परमात्मतत्व ही व्याप्त है इस की अनुभूति होना ही परमेष्ठिगत् विकास है । यही पूर्णत्व है । यही मोक्ष है । यही नर का नारायण बनाना है। यही अहंकार विजय है। यही मानव जीवन का लक्ष्य है ।   
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मनुष्य और समाज  - इन का परस्पर संबंध अन्योन्याश्रित है । समाज के बिना मनुष्य जी नही सकता । इस समाज के संबंध में आत्मीयता की, एकात्मता की भावना का विकास ही समष्टिगत् विकास कहलाता है । समाज के हर घटक के दुख में दुख की अनुभूति होना इसका लक्षण है । इसी तरह मनुष्य और समाज सृष्टि के बिना जीवित नही रह सकते। इस चराचर सृष्टि के साथ आत्मीयता की, एकात्मता की भावना का विकास ही सृष्टिगत् विकास है । उपर्युक्त तीनों प्रकार से विकास होने से परमेष्ठिगत् विकास अपने आप हो जाता है ।  <blockquote>अहं ब्रह्मास्मि<ref>बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद</ref></blockquote><blockquote>तत् त्वं असि<ref>Chandogya Upanishad 6.8.7</ref> </blockquote><blockquote>सर्वं खल्विदं ब्रह्मं<ref>छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद</ref></blockquote>अर्थात् मैं ही वह परमात्मतत्व हूं, तुम भी वह परमात्वत्व ही हो और चराचर में वह परमात्मतत्व ही व्याप्त है इस की अनुभूति होना ही परमेष्ठिगत् विकास है । यही पूर्णत्व है । यही मोक्ष है । यही नर का नारायण बनाना है। यही अहंकार विजय है। यही मानव जीवन का लक्ष्य है ।   
    
== मानव जीवन का लक्ष्य ==
 
== मानव जीवन का लक्ष्य ==
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भारतीय स्वर्ग और नरक की कल्पना भी इन से पूर्णत: भिन्न है। स्वर्ग या नरक की प्राप्ति में परमात्मा सीधा न्याय करता है। उसे किसी मध्यस्थ की कोई आवश्यकता नहीं होती। वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी होने से वह प्रत्येक द्वारा किये सत्कर्म और दुष्कर्म जानता है। प्रत्येक मनुष्य द्वारा किये इन सत्कर्मों के अनुसार ही परमात्मा उस के लिये स्वर्ग सुख या नरक यातनाओं की व्यवस्था करता है। जैसे ही स्वर्ग सुख या नरक यातनाओं के भोग पूरे हो जाते हैं, मनुष्य स्वर्ग सुख से वंचित और नरक यातनाओं से मुक्त हो जाता है। यह भोग हर मनुष्य अपने वर्तमान जन्म में और आगामी जन्मों में प्राप्त करता है। भारतीय सोच में तो सीधा सीधा गणित है। जितना सत्कर्म उतना सुख जितना दुष्कर्म उतना दु:ख। अभारतीय समाजों में सत्कर्म और दुष्कर्म की कोई संकल्पना ही नहीं है। हेवन या जन्नत का अर्थ है सदैव सुखी रहने की स्थिति और हेल और दोजख का अर्थ है हमेशा दुखी रहने की स्थिति।
 
भारतीय स्वर्ग और नरक की कल्पना भी इन से पूर्णत: भिन्न है। स्वर्ग या नरक की प्राप्ति में परमात्मा सीधा न्याय करता है। उसे किसी मध्यस्थ की कोई आवश्यकता नहीं होती। वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी होने से वह प्रत्येक द्वारा किये सत्कर्म और दुष्कर्म जानता है। प्रत्येक मनुष्य द्वारा किये इन सत्कर्मों के अनुसार ही परमात्मा उस के लिये स्वर्ग सुख या नरक यातनाओं की व्यवस्था करता है। जैसे ही स्वर्ग सुख या नरक यातनाओं के भोग पूरे हो जाते हैं, मनुष्य स्वर्ग सुख से वंचित और नरक यातनाओं से मुक्त हो जाता है। यह भोग हर मनुष्य अपने वर्तमान जन्म में और आगामी जन्मों में प्राप्त करता है। भारतीय सोच में तो सीधा सीधा गणित है। जितना सत्कर्म उतना सुख जितना दुष्कर्म उतना दु:ख। अभारतीय समाजों में सत्कर्म और दुष्कर्म की कोई संकल्पना ही नहीं है। हेवन या जन्नत का अर्थ है सदैव सुखी रहने की स्थिति और हेल और दोजख का अर्थ है हमेशा दुखी रहने की स्थिति।
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अभारतीय समाज तो मोक्ष की कल्पना तक नहीं कर सके हैं। भारतीय मोक्ष की कल्पना भारतीय सोच को आध्यात्मिक बना देती है। '''देहभाव से मुक्ति ही मोक्ष है'''। जीवात्मा जब देह-भाव से ग्रस्त होता है तब उसमें करता भाव, भोक्ता भाव और ज्ञाताभाव आ जाते हैं। इन के अभाव में जीवात्मा अपने देहभाव से मुक्त हो जाता है। फिर उसमें और परमात्मा में अंतर नहीं रहा जाता। अधि का अर्थ है श्रेष्ठ या उत्तम। श्रीमदभगवदगीता १५ वें अध्याय के १७ में परमात्मा को उत्तम पुरूष कहा है। अर्थात् अधि-आत्मा ही परमात्मा होता है। देहभाव से मुक्त होकर परमात्मा से तादात्म्य की दिशा में बढ़ना ही जीवन है। ऐसी भारतीय मान्यता के कारण सम्पूर्ण जीवन और जीवन का हर पहलू अध्यात्म से ओतप्रोत होता है।  भारतीय समाज ने अपने सम्मुख व्यक्तिगत, सामाजिक और सृष्टिगत ऐसे तीन प्रकार के एक दूसरे से सुसंगत ऐसे लक्ष्य रखे हैं। लक्ष्य का निर्धारण करते समय वे ‘स्वभावज’ हों इसका ध्यान रखा गया है। व्यक्तिगत स्तर का लक्ष्य और सामाजिक स्तर का लक्ष्य परस्पर पूरक और पोषक होना आवश्यक है। इसी तरह सृष्टिगत लक्ष्य, व्यक्तिगत और समष्टिगत लक्ष्य ये तीनों परस्पर पूरक पोषक होना आवश्यक हैं।  व्यक्तिगत स्तर का लक्ष्य मोक्ष या त्रिवर्ग के माध्यम से अभ्युदय है। यह सामाजिक लक्ष्य स्वतंत्रता को बाधक नहीं होना चाहिये। इसीलिये हमारे पूर्वजों ने कहा है:<blockquote>आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च।</blockquote>मुझे मोक्ष मिले लेकिन जगत् का हित करते हुए मिले। और त्रिवर्ग में तो मूलत: धर्म का ही अधिष्ठान है और धर्माचरण सृष्टिगत लक्ष्य है। तीनों स्तरों के लक्ष्यों का नियामक धर्म ही है। इसलिये तीनों स्तरों के लक्ष्य परस्पर पूरक और पोषक बनें रहते हैं।
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अभारतीय समाज तो मोक्ष की कल्पना तक नहीं कर सके हैं। भारतीय मोक्ष की कल्पना भारतीय सोच को आध्यात्मिक बना देती है। '''देहभाव से मुक्ति ही मोक्ष है'''। जीवात्मा जब देह-भाव से ग्रस्त होता है तब उसमें करता भाव, भोक्ता भाव और ज्ञाताभाव आ जाते हैं। इन के अभाव में जीवात्मा अपने देहभाव से मुक्त हो जाता है। फिर उसमें और परमात्मा में अंतर नहीं रहा जाता। अधि का अर्थ है श्रेष्ठ या उत्तम। श्रीमदभगवदगीता १५ वें अध्याय के १७ में परमात्मा को उत्तम पुरूष कहा है। अर्थात् अधि-आत्मा ही परमात्मा होता है। देहभाव से मुक्त होकर परमात्मा से तादात्म्य की दिशा में बढ़ना ही जीवन है। ऐसी भारतीय मान्यता के कारण सम्पूर्ण जीवन और जीवन का हर पहलू अध्यात्म से ओतप्रोत होता है।  भारतीय समाज ने अपने सम्मुख व्यक्तिगत, सामाजिक और सृष्टिगत ऐसे तीन प्रकार के एक दूसरे से सुसंगत ऐसे लक्ष्य रखे हैं। लक्ष्य का निर्धारण करते समय वे ‘स्वभावज’ हों इसका ध्यान रखा गया है। व्यक्तिगत स्तर का लक्ष्य और सामाजिक स्तर का लक्ष्य परस्पर पूरक और पोषक होना आवश्यक है। इसी तरह सृष्टिगत लक्ष्य, व्यक्तिगत और समष्टिगत लक्ष्य ये तीनों परस्पर पूरक पोषक होना आवश्यक हैं।  व्यक्तिगत स्तर का लक्ष्य मोक्ष या त्रिवर्ग के माध्यम से अभ्युदय है। यह सामाजिक लक्ष्य स्वतंत्रता को बाधक नहीं होना चाहिये। इसीलिये हमारे पूर्वजों ने कहा है:<blockquote>आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च।<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref></blockquote>मुझे मोक्ष मिले लेकिन जगत् का हित करते हुए मिले। और त्रिवर्ग में तो मूलत: धर्म का ही अधिष्ठान है और धर्माचरण सृष्टिगत लक्ष्य है। तीनों स्तरों के लक्ष्यों का नियामक धर्म ही है। इसलिये तीनों स्तरों के लक्ष्य परस्पर पूरक और पोषक बनें रहते हैं।
    
== मानव के व्यक्तित्व से संबंधित महत्वपूर्ण बातें ==
 
== मानव के व्यक्तित्व से संबंधित महत्वपूर्ण बातें ==
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#* शिशू अवस्था में बालक के इंद्रियों के विकास का काल होता है। पूर्वबाल्यावस्था में मन का या विचार शक्ति का, उत्तर बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था में बुध्दि, तर्क आदि का और उत्तर किशोरवस्था में तथा यौवन में अहंकार का यानी 'मै' का यानी कर्ता भाव (मैं करता हूँ), ज्ञाता भाव (मैं जानता हूँ) और भोक्ता भाव (मैं उपभोग करता हूँ) का विकास होता है। इसलिये व्यक्तित्व विकास के लिये संस्कारों का और शिक्षा का स्वरूप आयु की अवस्था के अनुसार बदलता है।  
 
#* शिशू अवस्था में बालक के इंद्रियों के विकास का काल होता है। पूर्वबाल्यावस्था में मन का या विचार शक्ति का, उत्तर बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था में बुध्दि, तर्क आदि का और उत्तर किशोरवस्था में तथा यौवन में अहंकार का यानी 'मै' का यानी कर्ता भाव (मैं करता हूँ), ज्ञाता भाव (मैं जानता हूँ) और भोक्ता भाव (मैं उपभोग करता हूँ) का विकास होता है। इसलिये व्यक्तित्व विकास के लिये संस्कारों का और शिक्षा का स्वरूप आयु की अवस्था के अनुसार बदलता है।  
 
# हर मानव जन्म लेते समय अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार विकास की कुछ संभाव्य सीमाएँ लेकर जन्म लेता है। अच्छा संगोपन मिलने से वह पूरी संभावनाओं तक विकास कर सकता है। कुछ विशेष इच्छाशक्ति रखने वाले बच्चे अपनी संभावनाओं से भी अधिक विकास कर लेते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे अल्प संख्या में ही होते हैं। अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अपवाद स्वरूप बच्चों के विकास के लिये सामान्य बच्चों के नियम और पद्धतियाँ पर्याप्त नहीं होतीं। सामान्य बच्चों के साथ भी विशेष प्रतिभा रखनेवाले बच्चों जैसा व्यवहार करने से सामान्य बच्चों की हानि होती है। समाज के सभी लोग प्रतिभावान या जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ‘श्रेष्ठ’ कहती है या जिन्हें ‘महाजनो येन गत: स: पंथ:’ में ‘महाजन’ कहा गया है ऐसे नहीं होते हैं। इनका समाज में प्रमाण ५-१० प्रतिशत से अधिक नहीं होता है।  इसीलिये भारतीय समाज के पतन के कालखण्ड छोड दें तो सामान्यत: भारतीय न्याय व्यवस्था में एक ही प्रकार के अपराध के लिये ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक, क्षत्रिय को वैश्य से अधिक और वैश्य को शूद्र से अधिक दण्ड का विधान था। इस विषय में चीनी प्रवासी द्वारा लिखी विक्रमादित्य की कथा ध्यान देने योग्य है। कुछ स्मृतियों में ब्राह्मण को अवध्य कहा गया है। अवध्यता से तात्पर्य है शारीरिक अवध्यता। ब्राह्मण का अपराधी सिध्द होना उसके सम्मान की समाप्ति होती है। और  ब्राह्मण का सम्मान छिन जाना मृत्यू से अधिक बडा दंड माना जाता था। ब्राह्मणों में क्षत्रियों में और वैश्यों में भी महाजन होते हैं। इनका प्रमाण ५-१० % से कम ही होता है।  
 
# हर मानव जन्म लेते समय अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार विकास की कुछ संभाव्य सीमाएँ लेकर जन्म लेता है। अच्छा संगोपन मिलने से वह पूरी संभावनाओं तक विकास कर सकता है। कुछ विशेष इच्छाशक्ति रखने वाले बच्चे अपनी संभावनाओं से भी अधिक विकास कर लेते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे अल्प संख्या में ही होते हैं। अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अपवाद स्वरूप बच्चों के विकास के लिये सामान्य बच्चों के नियम और पद्धतियाँ पर्याप्त नहीं होतीं। सामान्य बच्चों के साथ भी विशेष प्रतिभा रखनेवाले बच्चों जैसा व्यवहार करने से सामान्य बच्चों की हानि होती है। समाज के सभी लोग प्रतिभावान या जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ‘श्रेष्ठ’ कहती है या जिन्हें ‘महाजनो येन गत: स: पंथ:’ में ‘महाजन’ कहा गया है ऐसे नहीं होते हैं। इनका समाज में प्रमाण ५-१० प्रतिशत से अधिक नहीं होता है।  इसीलिये भारतीय समाज के पतन के कालखण्ड छोड दें तो सामान्यत: भारतीय न्याय व्यवस्था में एक ही प्रकार के अपराध के लिये ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक, क्षत्रिय को वैश्य से अधिक और वैश्य को शूद्र से अधिक दण्ड का विधान था। इस विषय में चीनी प्रवासी द्वारा लिखी विक्रमादित्य की कथा ध्यान देने योग्य है। कुछ स्मृतियों में ब्राह्मण को अवध्य कहा गया है। अवध्यता से तात्पर्य है शारीरिक अवध्यता। ब्राह्मण का अपराधी सिध्द होना उसके सम्मान की समाप्ति होती है। और  ब्राह्मण का सम्मान छिन जाना मृत्यू से अधिक बडा दंड माना जाता था। ब्राह्मणों में क्षत्रियों में और वैश्यों में भी महाजन होते हैं। इनका प्रमाण ५-१० % से कम ही होता है।  
# आवश्यकता और इच्छा एक नहीं हैं। आवश्यकताएँ शरीर और प्राण के लिये होती हैं। इसलिये वे मर्यादित होतीं हैं। इच्छाएँ मन करता है। मन की शक्ति असीम होती है। इसीलिये इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। इच्छाओं की पूर्ति से मन तृप्त नहीं होता। वह और इच्छा करने लग जाता है। इसी का वर्णन किया है:  
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# आवश्यकता और इच्छा एक नहीं हैं। आवश्यकताएँ शरीर और प्राण के लिये होती हैं। इसलिये वे मर्यादित होतीं हैं। इच्छाएँ मन करता है। मन की शक्ति असीम होती है। इसीलिये इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। इच्छाओं की पूर्ति से मन तृप्त नहीं होता। वह और इच्छा करने लग जाता है। इसी का वर्णन किया है<ref>श्रीमद्भागवत महापुराण 9।19।14</ref>:  
 
<blockquote>न जातु काम: कामानाम् उपभोगेन शाम्यम् ।</blockquote><blockquote>हविषा कृष्णवर्त्वेम् भूयं एवाभिवर्धते ॥</blockquote><blockquote>प्रत्येक मानव को उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति का अधिकार और सामर्थ्य होती है। लेकिन साथ ही में इच्छाओं को नियंत्रण में रखने का दायित्व भी होता है। इसलिए मन के संयम की शिक्षा, शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पहलू है। स्वाद संयम, वाणी संयम ऐसे सभी इन्द्रियों की तन्मात्राओं याने स्पर्श, रूप, रस, गंध और शब्द इन के विषय में संयम रखना चाहिए । सामान्यत: बुद्धि, जब तक कि इन्द्रिय नियंत्रित मन उसे प्रभावित नहीं करता, ठीक ही काम करती है। इसलिए हम ऐसा भी कह सकते हैं कि इन्द्रियों को मन के नियंत्रण में रखने की और मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखने की शिक्षा भी शिक्षा का आवश्यक पहलू है।</blockquote>
 
<blockquote>न जातु काम: कामानाम् उपभोगेन शाम्यम् ।</blockquote><blockquote>हविषा कृष्णवर्त्वेम् भूयं एवाभिवर्धते ॥</blockquote><blockquote>प्रत्येक मानव को उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति का अधिकार और सामर्थ्य होती है। लेकिन साथ ही में इच्छाओं को नियंत्रण में रखने का दायित्व भी होता है। इसलिए मन के संयम की शिक्षा, शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पहलू है। स्वाद संयम, वाणी संयम ऐसे सभी इन्द्रियों की तन्मात्राओं याने स्पर्श, रूप, रस, गंध और शब्द इन के विषय में संयम रखना चाहिए । सामान्यत: बुद्धि, जब तक कि इन्द्रिय नियंत्रित मन उसे प्रभावित नहीं करता, ठीक ही काम करती है। इसलिए हम ऐसा भी कह सकते हैं कि इन्द्रियों को मन के नियंत्रण में रखने की और मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखने की शिक्षा भी शिक्षा का आवश्यक पहलू है।</blockquote>
 
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* आर्थिक स्वतंत्रता : अर्थ के अभाव या प्रभाव के कारण मनुष्य के प्राकृतिक हित में कोई बाधा निर्माण नहीं होने की स्थिति को आर्थिक स्वतंत्रता कहते हैं। उपर्युक्त व्याख्याओं से यह समझ में आएगा कि स्वाभाविक स्वतंत्रता में अन्य दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश हो जाता है। इसी प्रकार से शासनिक स्वतंत्रता में आर्थिक स्वतंत्रता का समावेष हो जाता है।
 
* आर्थिक स्वतंत्रता : अर्थ के अभाव या प्रभाव के कारण मनुष्य के प्राकृतिक हित में कोई बाधा निर्माण नहीं होने की स्थिति को आर्थिक स्वतंत्रता कहते हैं। उपर्युक्त व्याख्याओं से यह समझ में आएगा कि स्वाभाविक स्वतंत्रता में अन्य दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश हो जाता है। इसी प्रकार से शासनिक स्वतंत्रता में आर्थिक स्वतंत्रता का समावेष हो जाता है।
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<li>इसीलिये ब्राह्मण वर्ण को सर्वोच्च जिम्मेदारी के अनुसार सर्वोच्च प्रतिष्ठा और क्षत्रिय को दूसरे क्रमांक की प्रातिष्ठा समाज में प्राप्त होनी चाहिये। इन स्वतंत्रताओं की प्राप्ति ही सामाजिक दृष्टि से मानव का लक्ष्य है । ऐसा देशिक शास्त्र का कहना है। श्रीमद्भगवद्गीता कर्म का महत्व विषद करती है। श्रीमद्भगवद्गीता कहती है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने ‘स्वभावज’ कर्म अनिवार्यता से करने चाहिये। स्वभावज का अर्थ है जन्म से ही जैसा स्वभाव है उस के अनुरूप। श्रीमद्भगवद्गीता में शब्दप्रयोग हैं: '''ब्रह्मकर्मस्वभावजम्''', '''वैश्यकर्मस्वभावजम्''' आदि। साथ में यह भी कहा है कि अपने वर्ण का काम भले ही अच्छा नहीं लगता हो तब भी वही करना चाहिये। सामान्य मानव को तो इसी तरह व्यवहार करना चाहिये।
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<li>इसीलिये ब्राह्मण वर्ण को सर्वोच्च जिम्मेदारी के अनुसार सर्वोच्च प्रतिष्ठा और क्षत्रिय को दूसरे क्रमांक की प्रातिष्ठा समाज में प्राप्त होनी चाहिये। इन स्वतंत्रताओं की प्राप्ति ही सामाजिक दृष्टि से मानव का लक्ष्य है । ऐसा देशिक शास्त्र का कहना है। श्रीमद्भगवद्गीता कर्म का महत्व विषद करती है। श्रीमद्भगवद्गीता कहती है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने ‘स्वभावज’ कर्म अनिवार्यता से करने चाहिये। स्वभावज का अर्थ है जन्म से ही जैसा स्वभाव है उस के अनुरूप। श्रीमद्भगवद्गीता में शब्दप्रयोग हैं: ब्रह्मकर्मस्वभावजम्, वैश्यकर्मस्वभावजम् आदि। साथ में यह भी कहा है कि अपने वर्ण का काम भले ही अच्छा नहीं लगता हो तब भी वही करना चाहिये। सामान्य मानव को तो इसी तरह व्यवहार करना चाहिये।
 
   
* जो प्रतिभावान हैं उन्हें शायद सामान्य नियम नहीं लगाये जाते। जैसे गुरू के बिना भवसागर तर नहीं सकते ऐसा कहते हैं। लेकिन जो विशेष प्रतिभावान हैं उन्हें यह बात अनिवार्य नहीं है। वे तो आप ही बिना गुरू के मोक्षगामी हो सकते हैं। वर्णों में परस्पर पूरकता और परस्पर अनुकूलता होती है। इसीलिये वेद कहते हैं कि चारों वर्ण एक शरीर के चार अंगों के समान हैं। जब ज्ञान का विषय होगा, स्वाभाविक स्ववतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो ब्राह्मण का, जब सुरक्षा का प्रश्न होगा,शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तब क्षत्रिय का, जब उदरभरण का, आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो वैश्य का और जब कला, कारीगरी, परिचर्या, मनोरंजन आदि का विषय होगा तो शूद्र का महत्व होगा।
 
* जो प्रतिभावान हैं उन्हें शायद सामान्य नियम नहीं लगाये जाते। जैसे गुरू के बिना भवसागर तर नहीं सकते ऐसा कहते हैं। लेकिन जो विशेष प्रतिभावान हैं उन्हें यह बात अनिवार्य नहीं है। वे तो आप ही बिना गुरू के मोक्षगामी हो सकते हैं। वर्णों में परस्पर पूरकता और परस्पर अनुकूलता होती है। इसीलिये वेद कहते हैं कि चारों वर्ण एक शरीर के चार अंगों के समान हैं। जब ज्ञान का विषय होगा, स्वाभाविक स्ववतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो ब्राह्मण का, जब सुरक्षा का प्रश्न होगा,शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तब क्षत्रिय का, जब उदरभरण का, आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा का विषय होगा तो वैश्य का और जब कला, कारीगरी, परिचर्या, मनोरंजन आदि का विषय होगा तो शूद्र का महत्व होगा।
 
* श्रेष्ठ और हीन का विवेक समझाने का, अभ्युदय के साथ नि:श्रेयस की प्राप्ति का मार्गदर्शन करने का काम ब्राह्मण का होने से वह समाज का शिक्षक बन जाता है। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वतंत्रता दोनों का समावेश होता है। पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा का दायित्व उठाने के कारण शिक्षक सर्वोच्च आदर प्राप्ति का अधिकारी होता है। मोक्ष - इस परम लक्ष्य के कारण शिक्षक या गुरू का सम्मान सबसे अधिक होना उचित ही है।
 
* श्रेष्ठ और हीन का विवेक समझाने का, अभ्युदय के साथ नि:श्रेयस की प्राप्ति का मार्गदर्शन करने का काम ब्राह्मण का होने से वह समाज का शिक्षक बन जाता है। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वतंत्रता दोनों का समावेश होता है। पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा का दायित्व उठाने के कारण शिक्षक सर्वोच्च आदर प्राप्ति का अधिकारी होता है। मोक्ष - इस परम लक्ष्य के कारण शिक्षक या गुरू का सम्मान सबसे अधिक होना उचित ही है।
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<li>हर गृहस्थ को लोकहितकारी उत्पादक व्यवसाय करना चाहिये। इससे एक ओर तो वह अपनी सामजिक जिम्मेदारी का निर्वहन करता है तो दूसरी ओर वह (अधम गति से विपरीत) श्रेष्ठ गति को प्राप्त कर लेता है।   
 
<li>हर गृहस्थ को लोकहितकारी उत्पादक व्यवसाय करना चाहिये। इससे एक ओर तो वह अपनी सामजिक जिम्मेदारी का निर्वहन करता है तो दूसरी ओर वह (अधम गति से विपरीत) श्रेष्ठ गति को प्राप्त कर लेता है।   
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<li>मनुष्य के शरीर की रचना शाकाहारी प्राणि के अनुसार है।  
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<li>मनुष्य के शरीर की रचना शाकाहारी प्राणि के अनुसार है।
 
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<li>हर मनुष्य शरीर, प्राण, मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी होता है। ये पाँचों बातें हर मनुष्य की भिन्न होतीं हैं। परमात्व तत्व भी इन पाँच घटकों के माध्यम से ही अभि‘व्यक्त’ होता है। इसीलिये मनुष्य को व्यक्ति कहते हैं। और व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताएँ, प्रभाव आदि को व्यक्तित्व कहते हैं। व्यक्तित्व से संबंधित कुछ बातें निम्न हैं:
 
<li>हर मनुष्य शरीर, प्राण, मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी होता है। ये पाँचों बातें हर मनुष्य की भिन्न होतीं हैं। परमात्व तत्व भी इन पाँच घटकों के माध्यम से ही अभि‘व्यक्त’ होता है। इसीलिये मनुष्य को व्यक्ति कहते हैं। और व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताएँ, प्रभाव आदि को व्यक्तित्व कहते हैं। व्यक्तित्व से संबंधित कुछ बातें निम्न हैं:
 
* प्राणिक आवेग : आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग हैं। ये मनुष्य और पशू दोनों में समान हैं। इसलिये मनुष्य भी प्राणि होता ही है।  
 
* प्राणिक आवेग : आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग हैं। ये मनुष्य और पशू दोनों में समान हैं। इसलिये मनुष्य भी प्राणि होता ही है।  
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