Line 121: |
Line 121: |
| | | |
| <li>हर मनुष्य शरीर, प्राण, मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी होता है। ये पाँचों बातें हर मनुष्य की भिन्न होतीं हैं। परमात्व तत्व भी इन पाँच घटकों के माध्यम से ही अभि‘व्यक्त’ होता है। इसीलिये मनुष्य को व्यक्ति कहते हैं। और व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताएँ, प्रभाव आदि को व्यक्तित्व कहते हैं। व्यक्तित्व से संबंधित कुछ बातें निम्न हैं: | | <li>हर मनुष्य शरीर, प्राण, मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी होता है। ये पाँचों बातें हर मनुष्य की भिन्न होतीं हैं। परमात्व तत्व भी इन पाँच घटकों के माध्यम से ही अभि‘व्यक्त’ होता है। इसीलिये मनुष्य को व्यक्ति कहते हैं। और व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताएँ, प्रभाव आदि को व्यक्तित्व कहते हैं। व्यक्तित्व से संबंधित कुछ बातें निम्न हैं: |
− | <li>प्राणिक आवेग : आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग हैं। ये मनुष्य और पशू दोनों में समान हैं। इसलिये मनुष्य भी प्राणि होता ही है।
| + | * प्राणिक आवेग : आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग हैं। ये मनुष्य और पशू दोनों में समान हैं। इसलिये मनुष्य भी प्राणि होता ही है। |
| | | |
− | <li>प्रत्येक व्यक्ति को सुख, दु:ख, ममता, प्रेम, आत्मीयता, तथा द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे षड्विकार यानी मन की भावनाएँ होतीं हैं
| + | * प्रत्येक व्यक्ति को सुख, दु:ख, ममता, प्रेम, आत्मीयता, तथा द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे षड्विकार यानी मन की भावनाएँ होतीं हैं |
| | | |
− | <li>आवश्यकताएँ और इच्छाएँ : प्राणिक आवेगों की पूर्ति को आवश्यकता और मन की चाहतों को इच्छा कहते हैं। आवश्यकताएँ मर्यादित और इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं।
| + | * आवश्यकताएँ और इच्छाएँ : प्राणिक आवेगों की पूर्ति को आवश्यकता और मन की चाहतों को इच्छा कहते हैं। आवश्यकताएँ मर्यादित और इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। |
| | | |
− | <li>कर्म योनि : प्राणिक आवेगों की पूर्ति के लिये और इच्छाओं की पूर्ति के लिये जो बातें की जातीं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। उसे प्राप्त मन और बुध्दि की श्रेष्ठता के कारण मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होता है। यह कर्म ही मनुष्य के जीवन का नियमन करते हैं। इस नियमन को कर्म सिध्दांत के माध्यम से समझा जा सकता है। कर्मसिध्दांत की जानकारी के लिये कृपया ‘ [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|भारतीय जीवन दृष्टि और जीवन शैली]] ‘ अध्याय में देखें। <li>समाज में व्यक्ति के दो प्रकार हैं। स्त्री और पुरूष। परमात्मा ने इन्हें जैसे ये आज हैं इसी स्वरूप में निर्माण किया था। समाज धारणा के लिये यानि समाज बना रहने के लिये के लिये स्त्री और पुरूष दोनों की आवश्यकता होती है। एक की अनुपस्थिति में समाज जी नहीं सकता। स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं। बच्चे को जन्म देने का काम दोनों मिलकर करते हैं। अन्य एक भी ऐसा काम नहीं है जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु इनको एक दूसरे से कई बातों में भिन्न बनाने में परमात्मा का कुछ प्रयोजन अवश्य है। इस प्रयोजन के अनुसार इनमें कार्य विभाजन होने से समाज ठीक चलता है। सुखी, समृध्द और चिरंजीवी बनता है। स्त्री-पुरूष संबंधों के विषय में थोड़ा अधिक गहराई से अब हम विचार करेंगे।
| + | * कर्म योनि : प्राणिक आवेगों की पूर्ति के लिये और इच्छाओं की पूर्ति के लिये जो बातें की जातीं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। उसे प्राप्त मन और बुध्दि की श्रेष्ठता के कारण मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होता है। यह कर्म ही मनुष्य के जीवन का नियमन करते हैं। इस नियमन को कर्म सिध्दांत के माध्यम से समझा जा सकता है। कर्मसिध्दांत की जानकारी के लिये कृपया ‘ [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|भारतीय जीवन दृष्टि और जीवन शैली]] ‘ अध्याय में देखें। <li>समाज में व्यक्ति के दो प्रकार हैं। स्त्री और पुरूष। परमात्मा ने इन्हें जैसे ये आज हैं इसी स्वरूप में निर्माण किया था। समाज धारणा के लिये यानि समाज बना रहने के लिये के लिये स्त्री और पुरूष दोनों की आवश्यकता होती है। एक की अनुपस्थिति में समाज जी नहीं सकता। स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं। बच्चे को जन्म देने का काम दोनों मिलकर करते हैं। अन्य एक भी ऐसा काम नहीं है जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु इनको एक दूसरे से कई बातों में भिन्न बनाने में परमात्मा का कुछ प्रयोजन अवश्य है। इस प्रयोजन के अनुसार इनमें कार्य विभाजन होने से समाज ठीक चलता है। सुखी, समृध्द और चिरंजीवी बनता है। स्त्री-पुरूष संबंधों के विषय में थोड़ा अधिक गहराई से अब हम विचार करेंगे। |
| | | |
| </ol> | | </ol> |