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<li> संस्कारों के तीन प्रकार होते हैं। सहज, कृत्रिम और अन्वयागत। सहज में फिर तीन संस्कार होते हैं। योनि संस्कार (मानव योनि के), वर्ण संस्कार और राष्ट्रीयता के संस्कार । कृत्रिम में १६ या कुछ लोगों के अनुसार ४९ संस्कार होते हैं। पितरों और माता-पिता की ओर से प्राप्त संस्कारों को अन्वयागत संस्कार कहते हैं। अन्वयागत में माता-पिता और पूर्वजों के सहज संस्कार और तीव्र कृत्रिम संस्कार होते हैं। तीव्र कृत्रिम संस्कार दीर्घ अभ्यास के कारण बनीं आदतों के कारण होते हैं। इन संस्कारों में माता की ओर से पाँच पीढ़ियों के मन से संबंधित और पिता की ओर से १४ पीढ़ियों के शरीर से संबंधित संस्कार होते हैं। करीब की पीढ़ी के संस्कार अधिक और दूर की पीढ़ी के संस्कार कम होते हैं।  
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<li> संस्कारों के तीन प्रकार होते हैं। सहज, कृत्रिम और अन्वयागत। सहज में फिर तीन संस्कार होते हैं। योनि संस्कार (मानव योनि के), वर्ण संस्कार और राष्ट्रीयता के संस्कार । कृत्रिम में १६ या कुछ लोगों के अनुसार ४९ संस्कार होते हैं। पितरों और माता-पिता की ओर से प्राप्त संस्कारों को अन्वयागत संस्कार कहते हैं। अन्वयागत में माता-पिता और पूर्वजों के सहज संस्कार और तीव्र कृत्रिम संस्कार होते हैं। तीव्र कृत्रिम संस्कार दीर्घ अभ्यास के कारण बनीं आदतों के कारण होते हैं। इन संस्कारों में माता की ओर से पाँच पीढ़ियों के मन से संबंधित और पिता की ओर से १४ पीढ़ियों के शरीर से संबंधित संस्कार होते हैं। करीब की पीढ़ी के संस्कार अधिक और दूर की पीढ़ी के संस्कार कम होते हैं।
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<li> हर मानव सुर और असुर प्रवृत्तियों से भरा होता है। इसी प्रकार से समाज में भी सुर और असुर दोनों प्रवृत्तियों के लोग होते हैं। भर्तृहरि के अनुसार अपना कोई हित नहीं होते हुए भी औरों के अहित में आनंद लेने वाले असुर से भी गये गुजरे लोग भी समाज में होते है। इन सभी के लिये सदाचार की शिक्षा की व्यवस्था करना समाज का दायित्व है। '''जो बात अपने को प्रिय होती है उसे प्रेय कहते हैं। और जो अंतिमत: कल्याणकारी बात होती है उसे श्रेय कहते हैं।''' अपने प्रेय के लिये अन्यों का अहित करनेवाले को असुर कहते हैं। ऐसे मानव को भी श्रेय ही प्रेय लगने लग जाए इसलिये शिक्षा होती है। कुल मिलाकर शिक्षा का स्वरूप धर्मशिक्षा का होता है। पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा का होता है।
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१५. हर मानव सुर और असुर प्रवृत्तियों से भरा होता है। इसी प्रकार से समाज में भी सुर और असुर दोनों प्रवृत्तियों के लोग होते हैं। भर्तृहरि के अनुसार अपना कोई हित नहीं होते हुए भी औरों के अहित में आनंद लेने वाले असुर से भी गये गुजरे लोग भी समाज में होते है। इन सभी के लिये सदाचार की शिक्षा की व्यवस्था करना समाज का दायित्व है।
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<li> मानव अच्छा डॉक्टर बनता है, अच्छा व्यावसायिक आदि बनता है यह समाज के लिये महत्वपूर्ण बात होती है। किंतु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात हर बालक के लिये यह है कि वह एक अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता, अच्छा देशभक्त और अच्छा मानव बने। इसी तरह हर बालिका अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी देशभक्त और अच्छी मानव बनें यह अधिक महत्वपूर्ण होता है।  इसे सुनिश्चित करने के लिये सब से अधिक अवसर माता को होता है इसलिए सबसे अधिक जिम्मेदारी माता की होती है। दूसरे स्थान पर पिता जिम्मेदार होता है। कहा गया है ‘माता प्रथमो गुरू: पिता द्वितीयो’। इस में माता पिता समान घर के सब ज्येष्ठ लोगों का भी योगदान होता है। तीसरी जिम्मेदारी शिक्षक की होती है। ऐसी मान्यता है कि बालक के विकास में २५ प्रतिशत हिस्सा उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का होता है। दूसरा २५ प्रतिशत उसे प्राप्त संस्कार और शिक्षा का होता है। तीसरा २५ प्रतिशत उसे मिले वातावरण, संगत, मित्र आदि का होता है। चौथा २५ प्रतिशत उसके अपने प्रयासों का होता है। इन हिस्सों का महत्वक्रम भी इसी क्रम से होता है। पूर्व कर्मों का प्रभाव सबसे अधिक, उसके उपरांत संस्कार और शिक्षा का आदि।  अन्य एक वर्गीकरण के अनुसार श्रेष्ठ मानव निर्माण के दो मुख्य पहलू हैं। पहला श्रेष्ठ जीवात्मा होना। और दूसरा है उसे अच्छी शिक्षा और संस्कार प्राप्त होना। इस दृष्टि से श्रेष्ठ मानव निर्माण में ५० प्रतिशत हिस्सा तो जन्म देनेवाले माता पिता का है। संस्कारों का काम भी घर में ही मुख्यत: चलता है। इसलिए संस्कारों का २५ प्रतिशत हिस्सा कुटुंब का होता है। शेष २५ प्रतिशत शिक्षा का जिसमें विद्यालयीन शिक्षा और लोकशिक्षा के माध्यमों का सहभाग होता है। समाज में यदि समस्याएँ हैं और बढ रहीं हैं तो माता, पिता और शिक्षक ये तीन लोग क्रम से इस के जिम्मेदार होते हैं।
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'''जो बात अपने को प्रिय होती है उसे प्रेय कहते हैं। और जो अंतिमत: कल्याणकारी बात होती है उसे श्रेय कहते हैं।'''
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<li> मानव के लिये कुछ बातें जन्मजात और कुछ समाज से प्राप्त होनेवाली होतीं हैं।
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<li> पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार आने वाली बातें - दस इंद्रिय, मन, बुध्दि, चित्त, अहंकार, श्रेष्ठ जीवात्मा, प्रारब्ध (पूर्व कर्मों का फल) जो जन्म कुंडली में दिखाई देता है, त्रिगुणयुक्त व्यक्तित्व, त्रिदोषयुक्त शरीर, माता पिता आदि।
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अपने प्रेय के लिये अन्यों का अहित करनेवाले को असुर कहते हैं। ऐसे मानव को भी श्रेय ही प्रेय लगने लग जाए इसलिये शिक्षा होती है। कुल मिलाकर शिक्षा का स्वरूप धर्मशिक्षा का होता है। पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा का होता है।
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<li> माता-पिता से जन्म से प्राप्त होने वाली बातें : पितर और उन की विरासत- सामाजिक प्रतिष्ठा, नाम, भौतिक समृध्दि,  शारीरिक स्वास्थ्य, जाति और आनुवांशिकता से आनेवाली बातें जैसे वर्ण, (त्रिदोषात्मक) शारीरिक स्वास्थ्य, व्यावसायिक और अन्य कुशलताएँ, परम्पराएँ आदि परिवार में और समाज में प्राप्त होनेवाली बातें : नाम, प्यार, आत्मीयता, रक्षण, पोषण, संस्कार, शिक्षण, आदतें, आर्थिक और पारिवारिक विरासत और परंपराएँ, सामाजिकता, सामाजिक प्रतिष्ठा, कुलधर्म, कुलाचार, विविध पारिवारिक यानी रक्तसंबंध के रिश्ते, विविध सामाजिक रिश्ते, सदाचार, धर्म आदि की शिक्षा आदि।
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१६. मानव अच्छा डॉक्टर बनता है, अच्छा व्यावसायिक आदि बनता है यह समाज के लिये महत्वपूर्ण बात होती है। किंतु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात हर बालक के लिये यह है कि वह एक अच्छा बेटा, अच्छा भाई, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ, अच्छा पिता, अच्छा देशभक्त और अच्छा मानव बने। इसी तरह हर बालिका अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नि, अच्छी गृहिणी, अच्छी देशभक्त और अच्छी मानव बनें यह अधिक महत्वपूर्ण होता है।  इसे सुनिश्चित करने के लिये सब से अधिक अवसर माता को होता है इसलिए सबसे अधिक जिम्मेदारी माता की होती है। दूसरे स्थान पर पिता जिम्मेदार होता है। कहा गया है ‘माता प्रथमो गुरू: पिता द्वितीयो’। इस में माता पिता समान घर के सब ज्येष्ठ लोगों का भी योगदान होता है। तीसरी जिम्मेदारी शिक्षक की होती है। ऐसी मान्यता है कि बालक के विकास में २५ प्रतिशत हिस्सा उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का होता है। दूसरा २५ प्रतिशत उसे प्राप्त संस्कार और शिक्षा का होता है। तीसरा २५ प्रतिशत उसे मिले वातावरण, संगत, मित्र आदि का होता है। चौथा २५ प्रतिशत उसके अपने प्रयासों का होता है। इन हिस्सों का महत्वक्रम भी इसी क्रम से होता है। पूर्व कर्मों का प्रभाव सबसे अधिक, उसके उपरांत संस्कार और शिक्षा का आदि।  अन्य एक वर्गीकरण के अनुसार श्रेष्ठ मानव निर्माण के दो मुख्य पहलू हैं। पहला श्रेष्ठ जीवात्मा होना। और दूसरा है उसे अच्छी शिक्षा और संस्कार प्राप्त होना। इस दृष्टि से श्रेष्ठ मानव निर्माण में ५० प्रतिशत हिस्सा तो जन्म देनेवाले माता पिता का है। संस्कारों का काम भी घर में ही मुख्यत: चलता है। इसलिए संस्कारों का २५ प्रतिशत हिस्सा कुटुंब का होता है। शेष २५ प्रतिशत शिक्षा का जिसमें विद्यालयीन शिक्षा और लोकशिक्षा के माध्यमों का सहभाग होता है। समाज में यदि समस्याएँ हैं और बढ रहीं हैं तो माता, पिता और शिक्षक ये तीन लोग क्रम से इस के जिम्मेदार होते हैं।
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<li> मानव के जन्म, जीवन और मृत्यू के चक्र में आयू की अवस्था के अनुसार निम्न बातें बदलतीं हैं।
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<li> प्यार-दुलार
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१७. मानव के लिये कुछ बातें जन्मजात और कुछ समाज से प्राप्त होनेवाली होतीं हैं।
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<li> रक्षण/पोषण
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पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार आने वाली बातें - दस इंद्रिय, मन, बुध्दि, चित्त, अहंकार, श्रेष्ठ जीवात्मा, प्रारब्ध (पूर्व कर्मों का फल) जो जन्म कुंडली में दिखाई देता है, त्रिगुणयुक्त व्यक्तित्व, त्रिदोषयुक्त शरीर, माता पिता आदि।
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<li> संस्कार और शिक्षण
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माता-पिता से जन्म से प्राप्त होने वाली बातें : पितर और उन की विरासत- सामाजिक प्रतिष्ठा, नाम, भौतिक समृध्दि,  शारीरिक स्वास्थ्य, जाति और आनुवांशिकता से आनेवाली बातें जैसे वर्ण, (त्रिदोषात्मक) शारीरिक स्वास्थ्य, व्यावसायिक और अन्य कुशलताएँ, परम्पराएँ आदि परिवार में और समाज में प्राप्त होनेवाली बातें : नाम, प्यार, आत्मीयता, रक्षण, पोषण, संस्कार, शिक्षण, आदतें, आर्थिक और पारिवारिक विरासत और परंपराएँ, सामाजिकता, सामाजिक प्रतिष्ठा, कुलधर्म, कुलाचार, विविध पारिवारिक यानी रक्तसंबंध के रिश्ते, विविध सामाजिक रिश्ते, सदाचार, धर्म आदि की शिक्षा आदि।
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<li> क्षमताएँ
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१८. मानव के जन्म, जीवन और मृत्यू के चक्र में आयू की अवस्था के अनुसार निम्न बातें बदलतीं हैं।
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<li> योग्यताएँ
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- प्यार-दुलार
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<li> भावनाएँ
   −
- रक्षण/पोषण
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<li> आवश्यकताएँ
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- संस्कार और शिक्षण
+
<li> इच्छाएँ
   −
- क्षमताएँ
+
<li> जिम्मेदारियाँ
   −
- योग्यताएँ
+
<li> कर्तव्य/बोध
   −
- भावनाएँ
+
<li> अधिकार/बोध
 
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- आवश्यकताएँ
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- इच्छाएँ
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- जिम्मेदारियाँ
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- कर्तव्य/बोध
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- अधिकार/बोध
      
इन का समायोजन सामाजिक संगठन और व्यवस्थाओं में होना आवश्यक है। इस हेतु से समाज भिन्न भिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं को चलाता है, भिन्न भिन्न संगठन और व्यवस्थाएँ निर्माण करता है।  
 
इन का समायोजन सामाजिक संगठन और व्यवस्थाओं में होना आवश्यक है। इस हेतु से समाज भिन्न भिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं को चलाता है, भिन्न भिन्न संगठन और व्यवस्थाएँ निर्माण करता है।  
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१९. सामान्यत: गृहस्थ के लिये चारों आश्रमों के लोगों तथा अन्य जीव जगत के योगक्षेम की जिम्मेदारी के अलावा दो और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होतीं हैं। पहली यह है कि वह धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करे। दूसरी है समाज की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सार्थक योगदान दे। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों की संख्या का समाज की कुल आबादी के साथ संतुलन भी महत्वपूर्ण है। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करने से वह नि:श्रेयस को और भौतिक वस्तुओं के उत्पादन से वह व्यक्तिगत और सामाजिक स्तरपर अभ्युदय को प्राप्त करता है।
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<li>सामान्यत: गृहस्थ के लिये चारों आश्रमों के लोगों तथा अन्य जीव जगत के योगक्षेम की जिम्मेदारी के अलावा दो और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होतीं हैं। पहली यह है कि वह धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करे। दूसरी है समाज की विभिन्न भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सार्थक योगदान दे। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों की संख्या का समाज की कुल आबादी के साथ संतुलन भी महत्वपूर्ण है। धर्म चिंतन, धर्म शिक्षण और धर्म रक्षण (शासन) में लगे लोगों के योगक्षेम की व्यवस्था करने से वह नि:श्रेयस को और भौतिक वस्तुओं के उत्पादन से वह व्यक्तिगत और सामाजिक स्तरपर अभ्युदय को प्राप्त करता है ।
 
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२०. भारतीय समाज में गृहस्थ के लिये तीन बातें आवश्यक मानीं गईं हैं।
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पहली बात यह है कि वह केवल धर्म की कमाई करे, दूसरे व्यय भी धर्मानुसार ही करे और तीसरे आवश्यकता से अतिरिक्त कमाई यथासंभव अधिक से अधिक दान में दे।
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<li>भारतीय समाज में गृहस्थ के लिये तीन बातें आवश्यक मानीं गईं हैं: पहली बात यह है कि वह केवल धर्म की कमाई करे, दूसरे व्यय भी धर्मानुसार ही करे और तीसरे आवश्यकता से अतिरिक्त कमाई यथासंभव अधिक से अधिक दान में दे।  
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२१. सुख और सुविधा में अंतर होता है। सुविधा से सुख बढेगा यह आवश्यक नहीं है। जब सुविधा मानव को पंगु बना देती है, उसकी स्वाभाविक क्षमताओं को कुंठित कर देती है या स्वाभाविक क्षमताओं का क्षरण करती है तब वह दुख का कारण बनती है। इसलिये कितना सुविधाभोगी बनना यह विवेक महत्वपूर्ण है। सुविधाओं के विकास में दो बातें ध्यान में रखना चाहिये। पहली यह कि सुविधा अक्षम लोगों की मदद के लिये होती है। दूसरी बात यह है कि उससे मानव की प्राकृतिक क्षमताओं में और सामाजिकता यानी पारिवारिक भावना और व्यवहार में वृध्दि हो। कम से कम हानि तो नहीं हो।
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<li>सुख और सुविधा में अंतर होता है। सुविधा से सुख बढेगा यह आवश्यक नहीं है। जब सुविधा मानव को पंगु बना देती है, उसकी स्वाभाविक क्षमताओं को कुंठित कर देती है या स्वाभाविक क्षमताओं का क्षरण करती है तब वह दुख का कारण बनती है। इसलिये कितना सुविधाभोगी बनना यह विवेक महत्वपूर्ण है। सुविधाओं के विकास में दो बातें ध्यान में रखना चाहिये। पहली यह कि सुविधा अक्षम लोगों की मदद के लिये होती है। दूसरी बात यह है कि उससे मानव की प्राकृतिक क्षमताओं में और सामाजिकता यानी पारिवारिक भावना और व्यवहार में वृध्दि हो। कम से कम हानि तो नहीं हो।  
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२२. कोई भी वस्तु खरीदते समय उस वस्तु की पर्यावरण सुसंगतता, सामाजिकता से सुसंगतता, उपयोगिता, सौंदर्यबोध और सबसे अंत में उसकी कीमत को महत्व देना चाहिये।
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<li>कोई भी वस्तु खरीदते समय उस वस्तु की पर्यावरण सुसंगतता, सामाजिकता से सुसंगतता, उपयोगिता, सौंदर्यबोध और सबसे अंत में उसकी कीमत को महत्व देना चाहिये।  
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२३. हर गृहस्थ को लोकहितकारी उत्पादक व्यवसाय करना चाहिये। इससे एक ओर तो वह अपनी सामजिक जिम्मेदारी का निर्वहन करता है तो दूसरी ओर वह (अधम गति से विपरीत) श्रेष्ठ गति को प्राप्त कर लेता है। २४. मनुष्य के शरीर की रचना शाकाहारी प्राणि के अनुसार है।
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<li>हर गृहस्थ को लोकहितकारी उत्पादक व्यवसाय करना चाहिये। इससे एक ओर तो वह अपनी सामजिक जिम्मेदारी का निर्वहन करता है तो दूसरी ओर वह (अधम गति से विपरीत) श्रेष्ठ गति को प्राप्त कर लेता है। २४. मनुष्य के शरीर की रचना शाकाहारी प्राणि के अनुसार है।  
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२५. हर मनुष्य शरीर, प्राण, मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी होता है। ये पाँचों बातें हर मनुष्य की भिन्न होतीं हैं। परमात्व तत्व भी इन पाँच घटकों के माध्यम से ही अभि‘व्यक्त’ होता है। इसीलिये मनुष्य को व्यक्ति कहते हैं। और व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताएँ, प्रभाव आदि को व्यक्तित्व कहते हैं।
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<li>हर मनुष्य शरीर, प्राण, मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी होता है। ये पाँचों बातें हर मनुष्य की भिन्न होतीं हैं। परमात्व तत्व भी इन पाँच घटकों के माध्यम से ही अभि‘व्यक्त’ होता है। इसीलिये मनुष्य को व्यक्ति कहते हैं। और व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताएँ, प्रभाव आदि को व्यक्तित्व कहते हैं। व्यक्तित्व से संबंधित कुछ बातें निम्न हैं:
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<li>प्राणिक आवेग : आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग हैं। ये मनुष्य और पशू दोनों में समान हैं। इसलिये मनुष्य भी प्राणि होता ही है।
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व्यक्तित्व से संबंधित कुछ बातें निम्न हैं।
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<li>प्रत्येक व्यक्ति को सुख, दु:ख, ममता, प्रेम, आत्मीयता, तथा द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे षड्विकार यानी मन की भावनाएँ होतीं हैं
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प्राणिक आवेग : आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग हैं। ये मनुष्य और पशू दोनों में समान हैं। इसलिये मनुष्य भी प्राणि होता ही है।
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<li>आवश्यकताएँ और इच्छाएँ : प्राणिक आवेगों की पूर्ति को आवश्यकता और मन की चाहतों को इच्छा कहते हैं। आवश्यकताएँ मर्यादित और इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं।  
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प्रत्येक व्यक्ति को सुख, दु:ख, ममता, प्रेम, आत्मीयता, तथा द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर जैसे षड्विकार यानी मन की भावनाएँ होतीं हैं।
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<li>कर्म योनि : प्राणिक आवेगों की पूर्ति के लिये और इच्छाओं की पूर्ति के लिये जो बातें की जातीं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। उसे प्राप्त मन और बुध्दि की श्रेष्ठता के कारण मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होता है। यह कर्म ही मनुष्य के जीवन का नियमन करते हैं। इस नियमन को कर्म सिध्दांत के माध्यम से समझा जा सकता है। कर्मसिध्दांत की जानकारी के लिये कृपया ‘ [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|भारतीय जीवन दृष्टि और जीवन शैली]] ‘ अध्याय में देखें।
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आवश्यकताएँ और इच्छाएँ : प्राणिक आवेगों की पूर्ति को आवश्यकता और मन की चाहतों को इच्छा कहते हैं। आवश्यकताएँ मर्यादित और इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। -  कर्म योनि : प्राणिक आवेगों की पूर्ति के लिये और इच्छाओं की पूर्ति के लिये जो बातें की जातीं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। उसे प्राप्त मन और बुध्दि की श्रेष्ठता के कारण मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होता है। यह कर्म ही मनुष्य के जीवन का नियमन करते हैं। इस नियमन को कर्म सिध्दांत के माध्यम से समझा जा सकता है। कर्मसिध्दांत की जानकारी के लिये कृपया ‘ [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|भारतीय जीवन दृष्टि और जीवन शैली]] ‘ अध्याय में देखें।
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<li>समाज में व्यक्ति के दो प्रकार हैं। स्त्री और पुरूष। परमात्मा ने इन्हें जैसे ये आज हैं इसी स्वरूप में निर्माण किया था। समाज धारणा के लिये यानि समाज बना रहने के लिये के लिये स्त्री और पुरूष दोनों की आवश्यकता होती है। एक की अनुपस्थिति में समाज जी नहीं सकता। स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं। बच्चे को जन्म देने का काम दोनों मिलकर करते हैं। अन्य एक भी ऐसा काम नहीं है जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु इनको एक दूसरे से कई बातों में भिन्न बनाने में परमात्मा का कुछ प्रयोजन अवश्य है। इस प्रयोजन के अनुसार इनमें कार्य विभाजन होने से समाज ठीक चलता है। सुखी, समृध्द और चिरंजीवी बनता है। स्त्री-पुरूष संबंधों के विषय में थोड़ा अधिक गहराई से अब हम विचार करेंगे।
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२६. समाज में व्यक्ति के दो प्रकार हैं। स्त्री और पुरूष। परमात्मा ने इन्हें जैसे ये आज हैं इसी स्वरूप में निर्माण किया था। समाज धारणा के लिये यानि समाज बना रहने के लिये के लिये स्त्री और पुरूष दोनों की आवश्यकता होती है। एक की अनुपस्थिति में समाज जी नहीं सकता। स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं। बच्चे को जन्म देने का काम दोनों मिलकर करते हैं। अन्य एक भी ऐसा काम नहीं है जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु इनको एक दूसरे से कई बातों में भिन्न बनाने में परमात्मा का कुछ प्रयोजन अवश्य है। इस प्रयोजन के अनुसार इनमें कार्य विभाजन होने से समाज ठीक चलता है। सुखी, समृध्द और चिरंजीवी बनता है। स्त्री-पुरूष संबंधों के विषय में थोड़ा अधिक गहराई से अब हम विचार करेंगे।
   
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