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ये चार पुरुषार्थ हैं: '''धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष'''। इनमें काम का अर्थ इच्छाएँ है, अर्थ पुरुषार्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये जानेवाले प्रयासों तथा उपयोग में लाये जानेवाले धन, साधन और संसाधनों से है। अर्थ पुरुषार्थ इच्छाओं पर याने काम पुरुषार्थ पर निर्भर होता है। इच्छाएँ ही यह तय करती हैं कि प्रयास कैसे हों, धन, साधन और संसाधनों की प्राप्ति और विनिमय कैसे किया जाए। इसलिए काम पुरुषार्थ ही मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जा सकता है।
 
ये चार पुरुषार्थ हैं: '''धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष'''। इनमें काम का अर्थ इच्छाएँ है, अर्थ पुरुषार्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये जानेवाले प्रयासों तथा उपयोग में लाये जानेवाले धन, साधन और संसाधनों से है। अर्थ पुरुषार्थ इच्छाओं पर याने काम पुरुषार्थ पर निर्भर होता है। इच्छाएँ ही यह तय करती हैं कि प्रयास कैसे हों, धन, साधन और संसाधनों की प्राप्ति और विनिमय कैसे किया जाए। इसलिए काम पुरुषार्थ ही मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जा सकता है।
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श्रीमद्भगवद्गीता में इसीलिये भगवान कहते हैं<blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।</blockquote>अर्थ है धर्म का अविरोधी जो काम है वह मैं हूँ।  
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श्रीमद्भगवद्गीता में इसीलिये भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद्भगवद्गीता (7-11)</ref><blockquote>धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।। 7.11 ।।</blockquote>अर्थ है धर्म का अविरोधी जो काम है वह मैं हूँ।  
    
अब इसमें धर्म पुरुषार्थ आ जाता है। मनुष्य की कामनाएँ याने इच्छाएँ जब धर्म से नियमित, मार्गदर्शित और निर्देशित होती हैं तो वे इच्छाएँ मनुष्य को मेरे निकट लातीं हैं। मैं उसे प्राप्त हो जाता हूँ। इस तरह से इच्छाओं की पूर्ति जब धर्म के दायरे में की जाती है तब मोक्ष प्राप्ति होती है।  
 
अब इसमें धर्म पुरुषार्थ आ जाता है। मनुष्य की कामनाएँ याने इच्छाएँ जब धर्म से नियमित, मार्गदर्शित और निर्देशित होती हैं तो वे इच्छाएँ मनुष्य को मेरे निकट लातीं हैं। मैं उसे प्राप्त हो जाता हूँ। इस तरह से इच्छाओं की पूर्ति जब धर्म के दायरे में की जाती है तब मोक्ष प्राप्ति होती है।  
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मोक्ष - यह जीवन का लक्ष्य है। और इसकी दिशा में ले जानेवाली हर कृति संस्कृति है। यह हर कृति जब धर्म के दायरे में होती है तब ही वह मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाती है। इस का अर्थ है कि भारतीय दृष्टि से धर्म के अनुसार कृति ही संस्कृति है।
 
मोक्ष - यह जीवन का लक्ष्य है। और इसकी दिशा में ले जानेवाली हर कृति संस्कृति है। यह हर कृति जब धर्म के दायरे में होती है तब ही वह मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाती है। इस का अर्थ है कि भारतीय दृष्टि से धर्म के अनुसार कृति ही संस्कृति है।
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एक अलग तरीके से भी धर्म और संस्कृति का संबंध समझा जा सकता है। मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। मोक्षप्राप्ति का साधन पुरुषार्थ चतुष्टय है याने धर्म के अविरोधी काम या इच्छाओं को रखने में है। धर्म के अच्छे अनुपालना के लिए सर्वश्रेष्ठ साधन है शरीर (शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्)। अपने शरीर को ठीक रखने के लिए समाज की मदद आवश्यक होती है। समाज के द्वारा निर्माण की गई वस्तुओं, सेवाओं के बिना हम सुख से जी नहीं सकते। समाज यदि सुखी होगा तो हम भी सुखी हो सकते हैं। इसलिए समाज के सुखी रहने से ही हम अपने जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ सकते हैं। इसलिए कहा गया है:<blockquote>आत्मनो मोक्षार्थम् जगद् हिताय च।</blockquote>जगत का याने समाज का और पर्यावरण का दोनों का हित करने के लिए किये गए व्यवहार का ही नाम संस्कृति है। समाज ओर पर्यावरण दोनों के हित की कृति ही संस्कृति है।
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एक अलग तरीके से भी धर्म और संस्कृति का संबंध समझा जा सकता है। मानव जीवन का लक्ष्य मोक्ष है। मोक्षप्राप्ति का साधन पुरुषार्थ चतुष्टय है याने धर्म के अविरोधी काम या इच्छाओं को रखने में है।  
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धर्म के अच्छे अनुपालना के लिए सर्वश्रेष्ठ साधन है शरीर:<blockquote>शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। <ref>कुमारसंभव ५.३३</ref></blockquote>अपने शरीर को ठीक रखने के लिए समाज की मदद आवश्यक होती है। समाज के द्वारा निर्माण की गई वस्तुओं, सेवाओं के बिना हम सुख से जी नहीं सकते। समाज यदि सुखी होगा तो हम भी सुखी हो सकते हैं। इसलिए समाज के सुखी रहने से ही हम अपने जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ सकते हैं। इसलिए कहा गया है:<blockquote>आत्मनो मोक्षार्थम् जगद् हिताय च।<ref>ऋग्वेद</ref></blockquote>जगत का याने समाज का और पर्यावरण का दोनों का हित करने के लिए किये गए व्यवहार का ही नाम संस्कृति है। समाज ओर पर्यावरण दोनों के हित की कृति ही संस्कृति है।
    
धर्म और मजहब या रिलीजन में अंतर है। इसलिए मजहबी या रिलीजन के अनुसार की हुई कोई भी कृति जब तक धर्म के अनुसार ठीक नहीं है तब तक वह कृति भारतीय संस्कृति नहीं है। इसी तरह किसी मत, पंथ या सम्प्रदाय के द्वारा बताई हुई या समर्थित या पुरस्कृत कोई भी कृति जब धर्म के अनुकूल होगी तब ही वह भारतीय संस्कृति कहलाएगी।
 
धर्म और मजहब या रिलीजन में अंतर है। इसलिए मजहबी या रिलीजन के अनुसार की हुई कोई भी कृति जब तक धर्म के अनुसार ठीक नहीं है तब तक वह कृति भारतीय संस्कृति नहीं है। इसी तरह किसी मत, पंथ या सम्प्रदाय के द्वारा बताई हुई या समर्थित या पुरस्कृत कोई भी कृति जब धर्म के अनुकूल होगी तब ही वह भारतीय संस्कृति कहलाएगी।
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== अंग्रेजी शासन का भारत राष्ट्र की संस्कृति पर परिणाम ==
 
== अंग्रेजी शासन का भारत राष्ट्र की संस्कृति पर परिणाम ==
१. गुलामी की मानसिकता  
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१. गुलामी की मानसिकता
२. हीनताबोध, आत्मनिंदाग्रस्तता
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३. आत्मविश्वासहीनता  
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२. हीनताबोध, आत्मनिंदाग्रस्तता
४. आत्म-विस्मृति  
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३. आत्मविश्वासहीनता
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४. आत्म-विस्मृति
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५. अभारतीय याने अंग्रेजी जीवन के प्रतिमान के स्वीकार की मानसिकता
 
५. अभारतीय याने अंग्रेजी जीवन के प्रतिमान के स्वीकार की मानसिकता
  
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