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== व्यक्तित्व का अर्थ ==
 
== व्यक्तित्व का अर्थ ==
व्यक्तित्व एक बहुत व्यापक अर्थवाला शब्द है। संसार में अनगिनत अस्तित्व हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ में कहा है:  <blockquote>भूमिराप: अनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।</blockquote><blockquote>अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।</blockquote><blockquote>अपरेयमितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।</blockquote><blockquote>जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्  ।।</blockquote>आगे और कहा है  <blockquote>एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।</blockquote><blockquote>अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यह सब परमात्मा के ही भिन्न भिन्न रूप हैं। ये दो तत्वों से बनें हैं। एक है भूमि, आप, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ऐसे आठ घटकों की अचेतन याने अपरा प्रकृति। और दूसरी है जीवरूप परा प्रकृति याने जीवात्मा। परा और अपरा दोनों ही परमात्मा के ही अंशों से बनें हैं। संसार में जितने भी भूतमात्र हैं वे सब मेरी इन दो प्रकृतियों से ही बनें हैं। मैं ही संसार की उत्पत्ति और प्रलय का मूल कारण हूँ।</blockquote>सभी अस्तित्वों की भिन्नता उनमें उपस्थित अष्टधा प्रकृति के आठों घटकों के अनगिनत भिन्न भिन्न प्रमाणों में संयोग (कोंबिनेशन) के कारण है। परमात्मा की अष्टधा प्रकृति के जिस संयोग-विशेष के साथ परमात्मा का अंश याने परा प्रकृति याने आत्मतत्व जुड़ता है उन्हें जीव कहते हैं, और परमात्मा के उस अंश को उस जीव का जीवात्मा। परमात्मा का अंश अस्तित्व में से अपने को अभिव्यक्त करता है, अपने गुण-लक्षण प्रकट करता है इसलिये उसे ‘व्यक्ति’ कहा जाता है। हर अस्तित्व की अभिव्यक्ति अष्टधा प्रकृति के भिन्न मेल-विशेष के कारण अन्य अस्तित्वों से भिन्न होती है। इसे ही उस अस्तित्व का ‘व्यक्तित्व‘ कहा जाता है। मनुष्य के संबंध में जब इस शब्द का प्रयोग किया जाता है तब व्यक्तित्व से तात्पर्य है उस मनुष्य की अष्टधा प्रकृतिके मेल-विशेष के कारण होनेवाली जीवात्मा की अभिव्यक्ति।   
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व्यक्तित्व एक बहुत व्यापक अर्थवाला शब्द है। संसार में अनगिनत अस्तित्व हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ७ में कहा है:  <blockquote>भूमिराप: अनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।</blockquote><blockquote>अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा  । ।  ७.५  । ।</blockquote><blockquote>अपरेयमितस्त्वन्याम् प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।</blockquote><blockquote>जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्  </blockquote>आगे और कहा है  <blockquote>एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।</blockquote><blockquote>अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यह सब परमात्मा के ही भिन्न भिन्न रूप हैं। ये दो तत्वों से बनें हैं। एक है भूमि, आप, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ऐसे आठ घटकों की अचेतन याने अपरा प्रकृति। और दूसरी है जीवरूप परा प्रकृति याने जीवात्मा। परा और अपरा दोनों ही परमात्मा के ही अंशों से बनें हैं। संसार में जितने भी भूतमात्र हैं वे सब मेरी इन दो प्रकृतियों से ही बनें हैं। मैं ही संसार की उत्पत्ति और प्रलय का मूल कारण हूँ।</blockquote>सभी अस्तित्वों की भिन्नता उनमें उपस्थित अष्टधा प्रकृति के आठों घटकों के अनगिनत भिन्न भिन्न प्रमाणों में संयोग (कोंबिनेशन) के कारण है। परमात्मा की अष्टधा प्रकृति के जिस संयोग-विशेष के साथ परमात्मा का अंश याने परा प्रकृति याने आत्मतत्व जुड़ता है उन्हें जीव कहते हैं, और परमात्मा के उस अंश को उस जीव का जीवात्मा। परमात्मा का अंश अस्तित्व में से अपने को अभिव्यक्त करता है, अपने गुण-लक्षण प्रकट करता है इसलिये उसे ‘व्यक्ति’ कहा जाता है। हर अस्तित्व की अभिव्यक्ति अष्टधा प्रकृति के भिन्न मेल-विशेष के कारण अन्य अस्तित्वों से भिन्न होती है। इसे ही उस अस्तित्व का ‘व्यक्तित्व‘ कहा जाता है। मनुष्य के संबंध में जब इस शब्द का प्रयोग किया जाता है तब व्यक्तित्व से तात्पर्य है उस मनुष्य की अष्टधा प्रकृतिके मेल-विशेष के कारण होनेवाली जीवात्मा की अभिव्यक्ति।   
    
== व्यक्तित्व का समग्र विकास ही पूर्णत्व ==
 
== व्यक्तित्व का समग्र विकास ही पूर्णत्व ==
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