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#* स्वतंत्रता  
 
#* स्वतंत्रता  
 
#* पुरूषार्थ  
 
#* पुरूषार्थ  
# व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में व्यक्ति केवल अपने पुरूषार्थ के बल पर बडा होता है। किन्तु ऐसा करते समय वह कितना सुख पाता है यह विवाद का विषय नही है। सब सुखों का त्याग करने के उपरांत ही उसे सफलता प्राप्त होती है। उस की आजीविका सुसाध्य नहीं रहती । व्यावसायिक गलाकाट स्पर्धा का उसे सामना करना पडता है । इस स्पर्धा का सामना करना है तो शांति कैसे मिल सकती है ? किन्तु जातिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में व्यक्ति को अपनी जाति के अंदर ही स्पर्धा का सामना करना पडता है। जातियाँ हजारों होने से इस स्पर्धा की तीव्रता का स्तर हर जाति में तो बहुत ही कम होता है। जातिगत व्यवस्था में परस्परावलंबन होता है। फिर जातिगत अनुशासन भी होता है, जो गलाकाट स्पर्धा होने नहीं देता। इसलिये व्यक्ति के लिये सुखप्राप्ति की संभावनाएं कई गुना बढ जाती हैं।  
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<p> व्यक्तिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में व्यक्ति केवल अपने पुरूषार्थ के बल पर बडा होता है। किन्तु ऐसा करते समय वह कितना सुख पाता है यह विवाद का विषय नही है। सब सुखों का त्याग करने के उपरांत ही उसे सफलता प्राप्त होती है। उस की आजीविका सुसाध्य नहीं रहती । व्यावसायिक गलाकाट स्पर्धा का उसे सामना करना पडता है । इस स्पर्धा का सामना करना है तो शांति कैसे मिल सकती है ? किन्तु जातिगत व्यवसाय के चयन की प्रणाली में व्यक्ति को अपनी जाति के अंदर ही स्पर्धा का सामना करना पडता है। जातियाँ हजारों होने से इस स्पर्धा की तीव्रता का स्तर हर जाति में तो बहुत ही कम होता है। जातिगत व्यवस्था में परस्परावलंबन होता है। फिर जातिगत अनुशासन भी होता है, जो गलाकाट स्पर्धा होने नहीं देता। इसलिये व्यक्ति के लिये सुखप्राप्ति की संभावनाएं कई गुना बढ जाती हैं। </p>
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में ‘मुझे अधिक से अधिक सुख प्राप्ति के लिये अधिक से अधिक धन प्राप्त करना है। और अधिक से अधिक धन प्राप्ति के लिये के लिये उत्पादन करना है’ इस भावना से व्यक्ति काम करता है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में व्यक्ति 'मैं मेरा कर्तव्य कर रहा हूँ’, मैं परोपकार के लिये उत्पादन कर रहा हूँ, ‘मैं मेरे जातिधर्म का पालन कर रहा हूँ’ इस भावना से उत्पादन करता है। स्वार्थत्याग में मनुष्य कमियों को सहन कर लेता है। किंतु जब वह स्वार्थ के (व्यक्तिगत चयन) लिये काम करता है तो वह कमियों को सहन नहीं कर पाता। वह या तो लाचार हो जाता है या अपराधी बन जाता है।  
 
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में ‘मुझे अधिक से अधिक सुख प्राप्ति के लिये अधिक से अधिक धन प्राप्त करना है। और अधिक से अधिक धन प्राप्ति के लिये के लिये उत्पादन करना है’ इस भावना से व्यक्ति काम करता है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में व्यक्ति 'मैं मेरा कर्तव्य कर रहा हूँ’, मैं परोपकार के लिये उत्पादन कर रहा हूँ, ‘मैं मेरे जातिधर्म का पालन कर रहा हूँ’ इस भावना से उत्पादन करता है। स्वार्थत्याग में मनुष्य कमियों को सहन कर लेता है। किंतु जब वह स्वार्थ के (व्यक्तिगत चयन) लिये काम करता है तो वह कमियों को सहन नहीं कर पाता। वह या तो लाचार हो जाता है या अपराधी बन जाता है।  
# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में नौकरों (गैर या अल्प जिम्मेदार, लाचार और आत्मविश्वासहीन ) की संख्या बहुत अधिक होती हप्रै। मालिकों (जिम्मेदार, स्वाभिमानयुक्त और आत्मविश्वासयुक्त ) की संख्या अत्यल्प होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में मालिकों की संख्या बहुत अधिक और नौकरों की संख्या कम रहती है। इस कारण सारा समाज जिम्मेदार, स्वाभिमानी और आत्मविश्वासयुक्त बनता है। १२. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में लाभ (जितना अधिक से अधिक संभव है उतना) पर आधारित अर्थशास्त्र जन्म लेता है। इसलिये फिर विज्ञापनबाजी, झूठ, फरेब का उपयोग किया जाना सामान्य बन जाता है। सामान्य जन को इस से बचाने के लिये (मँहंगे) न्यायालय का दिखावा होता है। लेकिन वह मुश्किल से शायद एकाध प्रतिशत लोगों को ही न्याय दिला पाता है। केवल व्यक्तिगत चयन आधारित व्यवसाय पर आधारित अर्थव्यवस्था में निम्न प्रकारों से सामाजिक हानी होती हप्रै। क) पूरे समाज के लिये मैं अकेला ही उत्पादन करूँगा, उस से मिलनेवाले लाभ का मैं एकमात्र हकदार बनूँं ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सारे समाज में व्याप्त हो जाती है। इस वातावरण और उपजी स्पर्धा में समाज का एक बहुत छोटा वर्ग ही सफल होता है। बाकी सब लोग चूहे की मानसिकता वाले बन जाते हैं। जो अपने से दुर्बल और निश्चेष्ट किसी को भी खाते जाते हैं ।  ख) व्यवसाय व्यक्तिगत और विशालतम बनते जाते हैं। जैसे मायक्रोसॉफ्ट या फोर्ड आदि। आर्थिक दृष्टि से कुछ लोग बहुत बडे बन जाते हैं । अन्य कुछ लोगों की जो बडे बन रहे हैं ऐसे लोगों की एक सीढी बनीं दिखाई देती है। किंतु इस सीढी पर बहुत कम लोग होते हैं। बहुजन तो चींटियों की तरह रेंगने लग जाते हैं । समाज में आर्थिक विषमता बढती है। ग) आर्थिक सत्ता के केंद्रीकरण के कारण पैसे का प्रभाव दिखाई देने लगता है। इस से गुण्डागर्दि, झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी की मदद से भी आर्थिक विकास की सीढी पर शीघ्रातिशीघ्र ऊपर चढने की मानसिकता बनने लगती है। संचार माध्यमों के दुरूपयोग के लिये निमित्त बन जाता है। घ) ज्ञान तो व्यक्ति में अंतर्निहीत ही होता है। उस का विकास वह कर सकता है। ज्ञानप्राप्ति का अधिकार हर व्यक्ति को है। किंतु कुशलता यह हर व्यक्ति की भिन्न होती है। हर व्यक्ति उस की विशिष्ट व्यावसायिक कौशल की विधा और उस विधा के विकास की संभावनाएँ लेकर ही जन्म लेता है। जन्म के उपरांत उस में परिवर्तन की संभावनाएँ बहुत कम होतीं है। परिवर्तन बहुत लम्बे और कठिन तप से ही हो सकता है। यह तप करने की तैयारी सामान्य मनुष्य की नहीं होने से वह असफल हो जाता है। दौड में पीछे रह जाता है। फिर व्यावसायिक तरीके  नहीं अन्य हथकंडे अपनाने लग जाता है। लाचार बन जाता है या निराश हो जाता है। च)  हर बच्चे के कुशलताओं के विकास के स्तर की मर्यादा भिन्न भिन्न होती हैं। जन्मजात कुशलताओं से भिन्न व्यवसाय के चयन के कारण अपने विकास के उच्चतम संभाव्य स्तर तक पहुँचने के लिये व्यक्तिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में अवसर ही नहीं होता। यह अवसर जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में सहज ही प्राप्त हो जाता है। छ)  जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में माँग के अनुसार उत्पादन होता है। ग्राहक को परमात्मा मानकर ही उत्पादन होता है। झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी से निर्माण की जानेवाली आभासी आवश्यकताओं की संभावना नहीं रहती॥ १३. जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली सर्व सहमति का लोकतंत्र छोडकर अन्य शासन व्यवस्थाओं में चल नहीं सकती। कम से कम वर्तमान अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र की प्रणाली में तो संभव ही नहीं है। छोटे भौगोलिक क्षेत्र में सर्वसहमति का लोकतंत्र अन्य किसी भी शासन व्यवस्था से ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये अधिक उपयुक्त होता है। अल्पमत और बहुमत के लोकतंत्र में जातिगत व्यवसाय चयन पध्दति कभी नहीं रह सकती। अल्पमत और बहुमत का लोकतंत्र हर एक मनुष्य को व्यक्तिवादी यानि स्वार्थी बनाता है, सामाजिकता को पनपने नहीं देता है और इस जातिगत व्यवसाय चयन पध्दति को उस के पूरे लाभाप्त के साथ नष्ट कर देता है, जैसे वर्तमान में हो रहा है। जातिगत व्यवसाय चयन पध्दति ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये अधिक उपयुक्त समझमें आती है। १४. अमर्याद व्यक्तिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में अधिक पैसा मिलने की संभावना होनेवाला व्यवसाय करने का प्रयास सब लोग करते  हैं । ऐसी स्थिती में बहुत बडे प्रमाण में लोगों की जन्मगत व्यावसायिक कुशलताओं का मेल उन्होंने स्वीकार किये हुए (अधिक लाभ देनेवाले) व्यावसायिक कुशलता से नहीं बैठ पाता। व्यवसाय उन्हें बोझ लगने लग जाता है। वे आप भी दुखी रहते हैं और औरों में दुख और निराशा संक्रमित करते हैं । जिन लोगों के चयनित व्यावसायिक कुशलता के साथ उन की जन्मगत व्यावसायिक कुशलताएँ मेल खातीं हैं उन्हें व्यवसाय बोझ नहीं लगता। उस व्यवसाय के करने में उन्हें आनंद प्राप्त होता है। ऐसे व्यावसायिक खुद भी आनंद से जीते हैं और औरों को भी आनंद बाँटते रहते हैं। १५. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं के विकास के लिये बडे पैमाने पर औपचारिक ढंग से खर्चिले व्यावसायिक शिक्षा के विद्यालय चलाना अनिवार्य हो जाता है। विद्यार्थी को कुशलताओं की प्राप्ति के लिये स्वतंत्र रूप से समय देना पडता है। इन कुशलताओं की प्राप्ति का सीधा संबंध अर्थार्जन से होता है। पेट पालन से होता है। इसलिये प्राथमिकता इस व्यावसायिक कुशलता प्राप्ति को ही देनी पडती है। इस के कारण अच्छा मानव बनने की या सामाजिकता की शिक्षा से व्यक्ति वंचित रह जाता है। इस का नुकसान पूरे समाज को भुगतना पडता है। जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में बच्चा अपने पारिवारिक व्यावसायिक उद्योग में अनायास ही कुशलता संपादित कर लेता है। इस के कारण बचे हुए समय में उसपर अच्छे संस्कार करने की गुंजाईश रहती है।  १६. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में अधिक पैसा देने वाले पाठयक्रमों के कारण एक और समस्या निर्माण होती है। लोग अधिकतम पैसा प्राप्त होनेवाले व्यवसायों का चयन करते हैं । वर्तमान में पढाए जाने वाले समाजशास्त्र, राज्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि पाठयक्रम कोई सार्थक हैं ऐसी बात नहीं है। लेकिन वे सार्थक होते तब भी इन पाठयक्रमों के लिये विद्यार्थी उपलब्ध नहीं होते। और जो होते हैं वे बहुत ही सामान्य बुध्दि रखनेवाले होते हैं । सब से अधिक हानी शिक्षा के क्षेत्र की होती है। निम्न स्तर की क्षमता और बुध्दि रखनेवाले लोग शिक्षक बनते हैं और समाज का पीढी दर पीढी पतन होता जाता है। सामाजिकता के क्षेत्र में प्रतिभा का संकट निर्माण होता है और राजनीति में चालाक लोग घुसकर बुध्दिमानोंपर शासन करते हैं ।  १७. जातिगत व्यवसाय चयन के अनुसार जब सेना में या सुरक्षा बलों में क्षत्रिय वृत्ति के लोग काम करते हैं तब वे उस व्यवस्था को श्रेष्ठ बनाते हैं । क्षत्रियों की मानसिकता, उन का प्राण की बाजी लगाने का स्वभाव, उन की शारीरिक बलोपासना स्वास्थ्य रक्षण और युध्द आदि कार्यों के अनुरूप होते हैं । कितु जब बलपूर्वक सेना में भरती होती है तब सैनिक की उस काम में अनास्था होती है। उस का मन ठीक से सहयोग नहीं करता। दूसरी ओर कुछ लोग अन्य कुछ भी काम नहीं आता इसलिये सेना और रक्षा बलों में भरती होते हैं । इन में क्षत्रिय के गुण और लक्षण नहीं होने के कारण इन महत्वपूर्ण सामाजिक आवश्यकता की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। उन का स्तर घट जाता है। यह संकट वर्तमान में सभी शिक्षा, सैनिक / पुलिस / अर्धसैनिक सामाजिक सुरक्षा और राजनीति जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अनुभव किया जा सकता है। १८. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली पारिवारिक भावना और परिवार व्यवस्था को सेन्ध लगाती है। पारिवारिक व्यवसायों को तोडती है। पारिवारिक अर्थव्यवस्था को हटाकर आर्थिक बकासुरी (कारपोरेट) कारखानों और नौकरशाही की अर्थव्यवस्था स्थापित होती है। करोडों परिवारों में सुवितरित संपत्ति उन से छीनकर चंद बकासुरी (कारपोरेट) कारखानों तक ले जाती है। समाज पारिवारिक व्यवसायों को सामाजिक आवश्यकता के अनुसार समाज नियन्त्रित करता है। जब की बकासुरी (कारपोरेट) कारखाने अपनी आर्थिक आसुरी सत्ता के जरिये, नौकरशाही के माध्यम से अनैतिक, आक्रमक, भ्रामक, विज्ञापनबाजी से समाज का नियन्त्रण और शोषण करते हैं । १९. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली समाज को पगढीला बनाती है। पगढीले लोगों की संख्या एक प्रमाण से अधिक बढने से समाज की संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। जिस तरह शीत जल के पात्र में रखा मेंढक जल धीरे धीरे गरम करनप्र से मर जाता है लेकिन बाहर निकलने के प्रयास नहीं करता या कर पाता। उसी तरह संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है और पता भी नहीं चलता।  २०. जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में पूरे समाज की जातियों के लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अन्य जातियोंपर निर्भर रहते हैं। इस तरह परस्परावलंबन, के कारण समाज संगठित हो जाता है। समाज के विरोध में या राष्ट्र विरोधी गुट इस प्रणाली में पनप नहीं सकते। २१. जिस समाज की प्रजा ओजस्वी और तेजस्वी होती है वह समाज अन्यों से श्रेष्ठ होता है। जब स्त्री और पुरूष विवाह में कोइ बंधन नहीं रहता तब स्वैराचार पनपता है। हर सुन्दर लड़की की चाहत हर युवक को और हर सुन्दर और सुडौल युवक की चाहत हर लड़की को होती है। इसमें लडके और लड़की का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं भी बनता तब भी इस चाहत के कारण होनेवाले चिंतन के कारण दोनों के ब्रह्मचर्य की हानी तो होती ही है। संयम के लिए कुछ मात्रा में लोकलाज ही बंधन रह जाता है। वर्त्तमान के मुक्त वातावरण के कारण लडकों और लड़कियों के सम्बन्ध भी मुक्त होने लग गए हैं। ब्रह्मचर्य पालन यह मजाक का विषय बन गया है। लेकिन जब विवाहों को जातियों का बंधन होता है तो युवक और युवातियों की दिलफेंकू वृत्ती को लगाम लग जाती है। इससे युवा वर्ग शारीरिक और मानसिक दृष्टी से अधिक संयमी बनाता है। समाज का स्वास्थ्य सुधरता है। समाज सुसंस्कृत बनता है। २२. भारत अब भी भारत है, इस का एकमात्र कारण है की भारत में हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है। लगभग ३०० वर्षों के मुस्लिम और १९० वर्षों के अंग्रेजी शासन के उपरांत भी हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है, इस का एक  कारण है, हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था।  धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र.१४ पर लिखते हैं, ‘अंग्रेजों के लिये जाति एक  बडा प्रश्न था। … इसलिये नहीं कि वे जातिरहित या वर्गव्यवस्था के अभाववाली पध्दति में मानते थे, किन्तु इसलिये कि यह जाति व्यवस्था उन के भारतीय समाज को तोडने के कार्य में विघ्नस्वरूप थी’। भारत के अलावा अन्य किसी भी देश में जब मुस्लिम शासन रहा उसने २५-५० वर्षों में स्थानीय समाज को पूरा का पूरा मुसलमान बना दिया था । ५०० वर्षों के मुस्लिम शासन के उपरांत भी हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है। हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था इस का मुख्य कारण है। जाति व्यवस्था के ढेर सारे लाभ हैं । काल के प्रवाह में जाति व्यवस्था में दोष भी निर्माण हुए हैं। उन्हें दूर करना ही होगा। इस के ढेर सारे लाभ दुर्लक्षित नहीं किये जा सकते* धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र.१४ पर और लिखते हैं ‘आज के जातिप्रथा के विरूध्द आक्रोश के मूल में अंग्रेजी शासन ही है’*  
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# व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में नौकरों (गैर या अल्प जिम्मेदार, लाचार और आत्मविश्वासहीन ) की संख्या बहुत अधिक होती हप्रै। मालिकों (जिम्मेदार, स्वाभिमानयुक्त और आत्मविश्वासयुक्त ) की संख्या अत्यल्प होती है। जब की जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में मालिकों की संख्या बहुत अधिक और नौकरों की संख्या कम रहती है। इस कारण सारा समाज जिम्मेदार, स्वाभिमानी और आत्मविश्वासयुक्त बनता है। १२. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में लाभ (जितना अधिक से अधिक संभव है उतना) पर आधारित अर्थशास्त्र जन्म लेता है। इसलिये फिर विज्ञापनबाजी, झूठ, फरेब का उपयोग किया जाना सामान्य बन जाता है। सामान्य जन को इस से बचाने के लिये (मँहंगे) न्यायालय का दिखावा होता है। लेकिन वह मुश्किल से शायद एकाध प्रतिशत लोगों को ही न्याय दिला पाता है। केवल व्यक्तिगत चयन आधारित व्यवसाय पर आधारित अर्थव्यवस्था में निम्न प्रकारों से सामाजिक हानी होती हप्रै। क) पूरे समाज के लिये मैं अकेला ही उत्पादन करूँगा, उस से मिलनेवाले लाभ का मैं एकमात्र हकदार बनूँं ऐसी राक्षसी महत्वाकांक्षा सारे समाज में व्याप्त हो जाती है। इस वातावरण और उपजी स्पर्धा में समाज का एक बहुत छोटा वर्ग ही सफल होता है। बाकी सब लोग चूहे की मानसिकता वाले बन जाते हैं। जो अपने से दुर्बल और निश्चेष्ट किसी को भी खाते जाते हैं ।  ख) व्यवसाय व्यक्तिगत और विशालतम बनते जाते हैं। जैसे मायक्रोसॉफ्ट या फोर्ड आदि। आर्थिक दृष्टि से कुछ लोग बहुत बडे बन जाते हैं । अन्य कुछ लोगों की जो बडे बन रहे हैं ऐसे लोगों की एक सीढी बनीं दिखाई देती है। किंतु इस सीढी पर बहुत कम लोग होते हैं। बहुजन तो चींटियों की तरह रेंगने लग जाते हैं । समाज में आर्थिक विषमता बढती है। ग) आर्थिक सत्ता के केंद्रीकरण के कारण पैसे का प्रभाव दिखाई देने लगता है। इस से गुण्डागर्दि, झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी की मदद से भी आर्थिक विकास की सीढी पर शीघ्रातिशीघ्र ऊपर चढने की मानसिकता बनने लगती है। संचार माध्यमों के दुरूपयोग के लिये निमित्त बन जाता है। घ) ज्ञान तो व्यक्ति में अंतर्निहीत ही होता है। उस का विकास वह कर सकता है। ज्ञानप्राप्ति का अधिकार हर व्यक्ति को है। किंतु कुशलता यह हर व्यक्ति की भिन्न होती है। हर व्यक्ति उस की विशिष्ट व्यावसायिक कौशल की विधा और उस विधा के विकास की संभावनाएँ लेकर ही जन्म लेता है। जन्म के उपरांत उस में परिवर्तन की संभावनाएँ बहुत कम होतीं है। परिवर्तन बहुत लम्बे और कठिन तप से ही हो सकता है। यह तप करने की तैयारी सामान्य मनुष्य की नहीं होने से वह असफल हो जाता है। दौड में पीछे रह जाता है। फिर व्यावसायिक तरीके  नहीं अन्य हथकंडे अपनाने लग जाता है। लाचार बन जाता है या निराश हो जाता है। च)  हर बच्चे के कुशलताओं के विकास के स्तर की मर्यादा भिन्न भिन्न होती हैं। जन्मजात कुशलताओं से भिन्न व्यवसाय के चयन के कारण अपने विकास के उच्चतम संभाव्य स्तर तक पहुँचने के लिये व्यक्तिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में अवसर ही नहीं होता। यह अवसर जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में सहज ही प्राप्त हो जाता है। छ)  जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में माँग के अनुसार उत्पादन होता है। ग्राहक को परमात्मा मानकर ही उत्पादन होता है। झूठ, फरेब और विज्ञापनबाजी से निर्माण की जानेवाली आभासी आवश्यकताओं की संभावना नहीं रहती॥ १३. जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली सर्व सहमति का लोकतंत्र छोडकर अन्य शासन व्यवस्थाओं में चल नहीं सकती। कम से कम वर्तमान अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र की प्रणाली में तो संभव ही नहीं है। छोटे भौगोलिक क्षेत्र में सर्वसहमति का लोकतंत्र अन्य किसी भी शासन व्यवस्था से ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये अधिक उपयुक्त होता है। अल्पमत और बहुमत के लोकतंत्र में जातिगत व्यवसाय चयन पध्दति कभी नहीं रह सकती। अल्पमत और बहुमत का लोकतंत्र हर एक मनुष्य को व्यक्तिवादी यानि स्वार्थी बनाता है, सामाजिकता को पनपने नहीं देता है और इस जातिगत व्यवसाय चयन पध्दति को उस के पूरे लाभाप्त के साथ नष्ट कर देता है, जैसे वर्तमान में हो रहा है। जातिगत व्यवसाय चयन पध्दति ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये अधिक उपयुक्त समझमें आती है। १४. अमर्याद व्यक्तिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में अधिक पैसा मिलने की संभावना होनेवाला व्यवसाय करने का प्रयास सब लोग करते  हैं । ऐसी स्थिती में बहुत बडे प्रमाण में लोगों की जन्मगत व्यावसायिक कुशलताओं का मेल उन्होंने स्वीकार किये हुए (अधिक लाभ देनेवाले) व्यावसायिक कुशलता से नहीं बैठ पाता। व्यवसाय उन्हें बोझ लगने लग जाता है। वे आप भी दुखी रहते हैं और औरों में दुख और निराशा संक्रमित करते हैं । जिन लोगों के चयनित व्यावसायिक कुशलता के साथ उन की जन्मगत व्यावसायिक कुशलताएँ मेल खातीं हैं उन्हें व्यवसाय बोझ नहीं लगता। उस व्यवसाय के करने में उन्हें आनंद प्राप्त होता है। ऐसे व्यावसायिक खुद भी आनंद से जीते हैं और औरों को भी आनंद बाँटते रहते हैं। १५. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में कुशलताओं के विकास के लिये बडे पैमाने पर औपचारिक ढंग से खर्चिले व्यावसायिक शिक्षा के विद्यालय चलाना अनिवार्य हो जाता है। विद्यार्थी को कुशलताओं की प्राप्ति के लिये स्वतंत्र रूप से समय देना पडता है। इन कुशलताओं की प्राप्ति का सीधा संबंध अर्थार्जन से होता है। पेट पालन से होता है। इसलिये प्राथमिकता इस व्यावसायिक कुशलता प्राप्ति को ही देनी पडती है। इस के कारण अच्छा मानव बनने की या सामाजिकता की शिक्षा से व्यक्ति वंचित रह जाता है। इस का नुकसान पूरे समाज को भुगतना पडता है। जातिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में बच्चा अपने पारिवारिक व्यावसायिक उद्योग में अनायास ही कुशलता संपादित कर लेता है। इस के कारण बचे हुए समय में उसपर अच्छे संस्कार करने की गुंजाईश रहती है।  १६. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली में अधिक पैसा देने वाले पाठयक्रमों के कारण एक और समस्या निर्माण होती है। लोग अधिकतम पैसा प्राप्त होनेवाले व्यवसायों का चयन करते हैं । वर्तमान में पढाए जाने वाले समाजशास्त्र, राज्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि पाठयक्रम कोई सार्थक हैं ऐसी बात नहीं है। लेकिन वे सार्थक होते तब भी इन पाठयक्रमों के लिये विद्यार्थी उपलब्ध नहीं होते। और जो होते हैं वे बहुत ही सामान्य बुध्दि रखनेवाले होते हैं । सब से अधिक हानी शिक्षा के क्षेत्र की होती है। निम्न स्तर की क्षमता और बुध्दि रखनेवाले लोग शिक्षक बनते हैं और समाज का पीढी दर पीढी पतन होता जाता है। सामाजिकता के क्षेत्र में प्रतिभा का संकट निर्माण होता है और राजनीति में चालाक लोग घुसकर बुध्दिमानोंपर शासन करते हैं ।  १७. जातिगत व्यवसाय चयन के अनुसार जब सेना में या सुरक्षा बलों में क्षत्रिय वृत्ति के लोग काम करते हैं तब वे उस व्यवस्था को श्रेष्ठ बनाते हैं । क्षत्रियों की मानसिकता, उन का प्राण की बाजी लगाने का स्वभाव, उन की शारीरिक बलोपासना स्वास्थ्य रक्षण और युध्द आदि कार्यों के अनुरूप होते हैं । कितु जब बलपूर्वक सेना में भरती होती है तब सैनिक की उस काम में अनास्था होती है। उस का मन ठीक से सहयोग नहीं करता। दूसरी ओर कुछ लोग अन्य कुछ भी काम नहीं आता इसलिये सेना और रक्षा बलों में भरती होते हैं । इन में क्षत्रिय के गुण और लक्षण नहीं होने के कारण इन महत्वपूर्ण सामाजिक आवश्यकता की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। उन का स्तर घट जाता है। यह संकट वर्तमान में सभी शिक्षा, सैनिक / पुलिस / अर्धसैनिक सामाजिक सुरक्षा और राजनीति जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अनुभव किया जा सकता है। १८. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली पारिवारिक भावना और परिवार व्यवस्था को सेन्ध लगाती है। पारिवारिक व्यवसायों को तोडती है। पारिवारिक अर्थव्यवस्था को हटाकर आर्थिक बकासुरी (कारपोरेट) कारखानों और नौकरशाही की अर्थव्यवस्था स्थापित होती है। करोडों परिवारों में सुवितरित संपत्ति उन से छीनकर चंद बकासुरी (कारपोरेट) कारखानों तक ले जाती है। समाज पारिवारिक व्यवसायों को सामाजिक आवश्यकता के अनुसार समाज नियन्त्रित करता है। जब की बकासुरी (कारपोरेट) कारखाने अपनी आर्थिक आसुरी सत्ता के जरिये, नौकरशाही के माध्यम से अनैतिक, आक्रमक, भ्रामक, विज्ञापनबाजी से समाज का नियन्त्रण और शोषण करते हैं । १९. व्यक्तिगत व्यवसाय चयन की प्रणाली समाज को पगढीला बनाती है। पगढीले लोगों की संख्या एक प्रमाण से अधिक बढने से समाज की संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है। जिस तरह शीत जल के पात्र में रखा मेंढक जल धीरे धीरे गरम करनप्र से मर जाता है लेकिन बाहर निकलने के प्रयास नहीं करता या कर पाता। उसी तरह संस्कृति धीरे धीरे नष्ट हो जाती है और पता भी नहीं चलता।  २०. जातिगत व्यवसाय चयन प्रणाली में पूरे समाज की जातियों के लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अन्य जातियोंपर निर्भर रहते हैं। इस तरह परस्परावलंबन, के कारण समाज संगठित हो जाता है। समाज के विरोध में या राष्ट्र विरोधी गुट इस प्रणाली में पनप नहीं सकते। २१. जिस समाज की प्रजा ओजस्वी और तेजस्वी होती है वह समाज अन्यों से श्रेष्ठ होता है। जब स्त्री और पुरूष विवाह में कोइ बंधन नहीं रहता तब स्वैराचार पनपता है। हर सुन्दर लड़की की चाहत हर युवक को और हर सुन्दर और सुडौल युवक की चाहत हर लड़की को होती है। इसमें लडके और लड़की का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं भी बनता तब भी इस चाहत के कारण होनेवाले चिंतन के कारण दोनों के ब्रह्मचर्य की हानी तो होती ही है। संयम के लिए कुछ मात्रा में लोकलाज ही बंधन रह जाता है। वर्त्तमान के मुक्त वातावरण के कारण लडकों और लड़कियों के सम्बन्ध भी मुक्त होने लग गए हैं। ब्रह्मचर्य पालन यह मजाक का विषय बन गया है। लेकिन जब विवाहों को जातियों का बंधन होता है तो युवक और युवातियों की दिलफेंकू वृत्ती को लगाम लग जाती है। इससे युवा वर्ग शारीरिक और मानसिक दृष्टी से अधिक संयमी बनाता है। समाज का स्वास्थ्य सुधरता है। समाज सुसंस्कृत बनता है। २२. भारत अब भी भारत है, इस का एकमात्र कारण है की भारत में हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है। लगभग ३०० वर्षों के मुस्लिम और १९० वर्षों के अंग्रेजी शासन के उपरांत भी हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है, इस का एक  कारण है, हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था।  धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र.१४ पर लिखते हैं, ‘अंग्रेजों के लिये जाति एक  बडा प्रश्न था। … इसलिये नहीं कि वे जातिरहित या वर्गव्यवस्था के अभाववाली पध्दति में मानते थे, किन्तु इसलिये कि यह जाति व्यवस्था उन के भारतीय समाज को तोडने के कार्य में विघ्नस्वरूप थी’। भारत के अलावा अन्य किसी भी देश में जब मुस्लिम शासन रहा उसने २५-५० वर्षों में स्थानीय समाज को पूरा का पूरा मुसलमान बना दिया था । ५०० वर्षों के मुस्लिम शासन के उपरांत भी हिन्दू समाज अब भी बहुसंख्या में है। हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था इस का मुख्य कारण है। जाति व्यवस्था के ढेर सारे लाभ हैं । काल के प्रवाह में जाति व्यवस्था में दोष भी निर्माण हुए हैं। उन्हें दूर करना ही होगा। इस के ढेर सारे लाभ दुर्लक्षित नहीं किये जा सकते* धर्मपालजी ‘भारत का पुनर्बोंध’ में पृष्ठ क्र.१४ पर और लिखते हैं ‘आज के जातिप्रथा के विरूध्द आक्रोश के मूल में अंग्रेजी शासन ही है’*
    
== जाति व्यवस्था पर किये गये दोषारोपों की वास्तविकता ==
 
== जाति व्यवस्था पर किये गये दोषारोपों की वास्तविकता ==
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