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==परिचय॥ Introduction==
 
==परिचय॥ Introduction==
 
दत्तक का सामान्य आशय है- किसी अन्य की संतान को विधिवत् स्वीकार कर अपना बनाना। यह एक ऐसी विधि है जिसके माध्यम से संतानहीन व्यक्ति के हितों की पूर्ति होती है। दत्तक-विधान सन्तानविहीन को सन्तान-संपन्न बनाने का साधन है। जब एक व्यक्ति किसी अन्य को अपना अपत्य प्रदान करता है, तब संतान के इस आदान-प्रदान के संस्कार को दत्तक कहा जाता है। भारतीय परंपरा में संतानहीनता की समस्या का समाधान अत्यन्त प्राचीन काल से ही दत्तक के रूप में विकसित हो चुका था और इसे सदैव एक धार्मिक कृत्य के रूप में ही देखा गया। शास्त्रीय वाङ्मय में यह उल्लेख प्राप्त होता है कि - <blockquote>शुक्रशोणितसम्भवः पुत्त्रो मातापितृनिमित्तकः। तस्य प्रदानविक्रयत्यागेषु मातापितरौ प्रभवतः॥
 
दत्तक का सामान्य आशय है- किसी अन्य की संतान को विधिवत् स्वीकार कर अपना बनाना। यह एक ऐसी विधि है जिसके माध्यम से संतानहीन व्यक्ति के हितों की पूर्ति होती है। दत्तक-विधान सन्तानविहीन को सन्तान-संपन्न बनाने का साधन है। जब एक व्यक्ति किसी अन्य को अपना अपत्य प्रदान करता है, तब संतान के इस आदान-प्रदान के संस्कार को दत्तक कहा जाता है। भारतीय परंपरा में संतानहीनता की समस्या का समाधान अत्यन्त प्राचीन काल से ही दत्तक के रूप में विकसित हो चुका था और इसे सदैव एक धार्मिक कृत्य के रूप में ही देखा गया। शास्त्रीय वाङ्मय में यह उल्लेख प्राप्त होता है कि - <blockquote>शुक्रशोणितसम्भवः पुत्त्रो मातापितृनिमित्तकः। तस्य प्रदानविक्रयत्यागेषु मातापितरौ प्रभवतः॥
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नत्वेकं पुत्त्रं दद्यात् प्रतिगृह्णीयाद्वा स हि सन्तानाय पूर्ब्बेषाम्। स्त्री पुत्त्रं न दद्यात् प्रतिगृह्णीयाद्वा अन्यत्रानुज्ञानाद्भर्त्तुः॥ (शब्द कल्पद्रुम)</blockquote>संतान उत्पन्न करने या दत्तक के रूप में संतान देने-लेने का अधिकार माता-पिता के समीचीन कर्तव्यों से संबद्ध है। शुक्र (बीज) एवं शोणित से उत्पन्न संतान अपने जन्म हेतु माता एवं पिता की ऋणी मानी गई है; अतः माता-पिता संतानहीन को स्व-संतान देने में समर्थ हैं। किन्तु जैसा कि - <blockquote>ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः। पितॄणामनृणश्चैव स तस्माल्लब्धमर्हति॥ (मनु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय ९, श्लोक १०६।</ref></blockquote>कोई व्यक्ति अपने एकमात्र पुत्र को न तो किसी अन्य को प्रदान करे और न ही बिना उचित विचार के किसी अन्य का पुत्र स्वीकार करे, क्योंकि वंश-परंपरा को आगे बढ़ाना तथा पूर्वजों के कुल का संरक्षण करना प्रथम पुत्र का दायित्व है। शास्त्र यह भी निर्देश देते हैं कि पत्नी को पति की आज्ञा के बिना संतान को देना या स्वीकार करना उचित नहीं है। याज्ञवल्क्य स्मृति में -<blockquote>दद्यान्माता पिता वा यं स पुत्रो दत्तको भवेत्॥(याज्ञवल्क्य स्मृति २.१३०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D याज्ञवल्क्य स्मृति], व्यवहाराध्याय २, दायविभाग प्रकरण, श्लोक १३०।</ref></blockquote>मनुस्मृति में दत्तक का उल्लेख प्राप्त होता है, कि - <blockquote>माता पिता वा दद्यातां यमद्भिः पुत्रमापदि।  सदृशं प्रीतिसंयुक्तं स ज्ञेयो दत्रिमः सुतः॥ (मनु स्मृति  ९.१६८)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय ९, श्लोक १६८।</ref></blockquote>'''भाषार्थ-''' आपातकाल में माता-पिता जब विधि-विधानपूर्वक तथा समान रूप से प्रसन्नचित्त होकर समान वर्ण के किसी व्यक्ति को अपना पुत्र दे दें, तो वह दत्तक (दत्रिम) पुत्र कहा जाता है।
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==धर्मशास्त्र में पुत्र==
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भारतीय ज्ञान परंपरा में परिवार की संकल्पना विवाह से आरम्भ होकर सन्तति द्वारा पूर्ण मानी गई है। विवाह का एक प्रमुख उद्देश्य सन्तानोत्पत्ति है, इसके अभाव में मनुष्य को पारिवारिक दृष्टि से अपूर्ण माना गया है। इसी कारण धर्मशास्त्रों में पुत्रप्राप्ति हेतु पुंसवन आदि संस्कारों का विधान मिलता है। शास्त्रों के अनुसार पुत्र वंशपरम्परा का संवाहक होने के साथ-साथ धार्मिक कर्तव्यों विशेषतः श्राद्धादि कर्मों का अधिकारी भी माना गया है। धर्मशास्त्रों में पुत्रों के विविध प्रकारों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि उनकी संख्या, नाम तथा अधिकारों के विषय में स्मृतिकारों के मतों में भिन्नता दिखाई देती है, तथापि मनुस्मृति में इस विषय का सुव्यवस्थित निरूपण प्राप्त होता है।
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धर्मशास्त्रों में मनुष्य पर तीन ऋण माने गए हैं- देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण। पितृऋण की निवृत्ति श्राद्ध, तर्पण एवं वंशवृद्धि द्वारा होती है, जिसका प्रमुख साधन पुत्र है। इसी कारण मनु, याज्ञवल्क्य, नारद आदि स्मृतिकारों ने पुत्र को धार्मिक कर्तव्यों का अधिकारी स्वीकार किया है। मनुस्मृति में कहा गया है कि पुत्र पिता का प्रतिरूप होता है- वह न केवल संपत्ति का उत्तराधिकारी है, अपितु धर्म का भी वाहक है।<ref>शोधकर्त्री- डॉ. प्रीति श्रीवास्तव, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/161350 स्मृति साहित्य में दायभाग विचार: एक तुलनात्मक अध्ययन] (2009), अध्याय- 5, शोधकेंद्र- एस. एन. डी. टी. महिला विश्वविद्यालय, मुंबई (पृ० १९७)।</ref>
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नत्वेकं पुत्त्रं दद्यात् प्रतिगृह्णीयाद्वा स हि सन्तानाय पूर्ब्बेषाम्। स्त्री पुत्त्रं न दद्यात् प्रतिगृह्णीयाद्वा अन्यत्रानुज्ञानाद्भर्त्तुः॥ (शब्द कल्पद्रुम)</blockquote>संतान उत्पन्न करने या दत्तक के रूप में संतान देने-लेने का अधिकार माता-पिता के समीचीन कर्तव्यों से संबद्ध है। शुक्र (बीज) एवं शोणित से उत्पन्न संतान अपने जन्म हेतु माता एवं पिता की ऋणी मानी गई है; अतः माता-पिता संतानहीन को स्व-संतान देने में समर्थ हैं। किन्तु जैसा कि - <blockquote>ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः। पितॄणामनृणश्चैव स तस्माल्लब्धमर्हति॥ (मनु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय , श्लोक १०६।</ref></blockquote>कोई व्यक्ति अपने एकमात्र पुत्र को न तो किसी अन्य को प्रदान करे और न ही बिना उचित विचार के किसी अन्य का पुत्र स्वीकार करे, क्योंकि वंश-परंपरा को आगे बढ़ाना तथा पूर्वजों के कुल का संरक्षण करना प्रथम पुत्र का दायित्व है। शास्त्र यह भी निर्देश देते हैं कि पत्नी को पति की आज्ञा के बिना संतान को देना या स्वीकार करना उचित नहीं है। याज्ञवल्क्य स्मृति में -<blockquote>दद्यान्माता पिता वा यं स पुत्रो दत्तको भवेत्॥(याज्ञवल्क्य स्मृति २.१३०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D याज्ञवल्क्य स्मृति], व्यवहाराध्याय २, दायविभाग प्रकरण, श्लोक १३०।</ref></blockquote>मनुस्मृति में दत्तक का उल्लेख प्राप्त होता है, कि - <blockquote>माता पिता वा दद्यातां यमद्भिः पुत्रमापदि।  सदृशं प्रीतिसंयुक्तं स ज्ञेयो दत्रिमः सुतः॥ (मनु स्मृति  ९.१६८)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय ९, श्लोक १६८।</ref></blockquote>'''भाषार्थ-''' आपातकाल में माता-पिता जब विधि-विधानपूर्वक तथा समान रूप से प्रसन्नचित्त होकर समान वर्ण के किसी व्यक्ति को अपना पुत्र दे दें, तो वह दत्तक (दत्रिम) पुत्र कहा जाता है।
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==पुत्रों के प्रकार==
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गौतम (२८।३०-३१), बौधायन (२।२।१४-३७), वसिष्ठ (१७।१२-१३), अर्थशास्त्र (३।७), शंख-लिखित (२८-१३२), नारद (दायभाग; व्यवहाराध्याय २०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BF/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%83 नारद स्मृति], व्यवहारपद, अध्याय १३, श्लोक ४५।</ref>, हारीत, मनु (९।१५८-१६०), याज्ञवल्क्य (४५-४६)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D याज्ञवल्क्य स्मृति], व्यवहाराध्याय, दायभागप्रकरण, अध्याय २, श्लोक १२६।</ref>, कात्यायन, बृहस्पति, देवल, विष्णु (१५।१-३०), महाभारत (आदिपर्व १२०।३१-३४), ब्रह्मपुराण तथा यम आदि धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में पुत्रों के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख प्राप्त होता है। इन ग्रंथों में पुत्रों की संख्या, नामकरण, क्रम तथा महत्त्व को लेकर पर्याप्त मतभेद दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक आचार्य ने सामाजिक, धार्मिक एवं उत्तराधिकार संबंधी दृष्टि से पुत्रों की कोटि का निर्धारण अपने-अपने सिद्धांतों के अनुसार किया है।
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ऋग्वेदीय वचन में पुत्र को पिता की आत्मा तथा दीर्घायु का साधन कहा गया है। क्रमशः यह धारणा विकसित हुई कि पुत्र ‘पुत्’ नामक नरक से पिता का उद्धार करता है- जिसका उल्लेख मनु, महाभारत (आदिपर्व) और विष्णुधर्मसूत्र में मिलता है। प्राचीन वैदिक ग्रन्थों में पुत्र का पिण्डदान से घनिष्ठ सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है, किन्तु सूत्रों और स्मृतियों (विशेषतः मनु) में पिण्डदान द्वारा पितृकल्याण पर बल दिया गया है। मनु के अनुसार पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र पितरों को पिण्ड प्रदान कर प्रशंसा के पात्र होते हैं; पुत्र से उच्च लोक, पौत्र से अमरता और प्रपौत्र से सूर्यलोक की प्राप्ति बतायी गयी है - <blockquote>पुत्रेण लोकाञ्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते। अथ पुत्रस्य पौत्रैण व्रध्नस्याप्नोति विष्टपम्॥ (मनु ९।१३७)</blockquote>विष्णुधर्मसूत्र और बृहस्पति-स्मृति में बहुपुत्रकामना का आधार गया-श्राद्ध, यज्ञ, दान और लोककल्याण (तालाब, चिकित्सालय, वृक्षारोपण, मन्दिर आदि) बताया गया है; मत्स्यपुराण भी इसी परम्परा की पुष्टि करता है -
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तदेतदृक्श्लोकाभ्यामभ्युक्तम्। अङ्गादङ्गात् संभवसिहृदयादधिजायसे। आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम्॥ (निरुक्त ४।३)
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बौधायनगृह्यपरिभाषा (१।२।५) में उद्धृत है- <blockquote>पुदिति नरकस्याख्या दुःखं च नरकं विदुः। पुदित्राणात्ततः पुत्रमिहेच्छन्ति परत्र च॥</blockquote>शंख-लिखित (वि०र०, पृ० ५५५) का कहना है-<blockquote>आत्मा पुत्र इति प्रोक्तः पितुर्मातुरनुग्रहात्। पुन्नाम्नस्त्रायते यस्मात्पुत्त्रस्तेनासि संज्ञितः॥
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एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोपि गयां व्रजेत्। यजेत् वाश्वमेधेन नीलं वा वृषमुत्सृजेत्॥ (विष्णु ८५।६७)
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कांक्षन्ति पितरः पुत्रान्नरकापातभोरवः । गयां यास्यति यः कश्चित्सोस्मान्सन्तारयिष्यति॥(अत्रिस्मृति-५५)
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करिष्यति वृषोत्सर्गमिष्टापूतं तथैव च। पालयिष्यति वृद्धत्वे श्रद्धं दास्यति चान्वहम्॥ (बृहस्पति, परा० मा० ११२, ५० ३०५)</blockquote>विशेषतः मनुस्मृति में पुत्र-वर्गीकरण को अपेक्षाकृत सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया गया है, जहाँ बारह प्रकार के पुत्रों का उल्लेख करते हुए उनकी संख्या, श्रेणी एवं सामाजिक मान्यता पर विचार किया गया है। मनु द्वारा प्रतिपादित इस वर्गीकरण के आधार पर निर्मित निम्नलिखित तालिका पुत्रों की कोटि, उनके क्रम तथा महत्त्व को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती है, जो अन्य स्मृतिकारों की तुलनात्मक समीक्षा हेतु एक सुदृढ़ आधार प्रदान करती है -<ref>डॉ० विभा, [https://ia800408.us.archive.org/34/items/DharmaShastraSahityaMeinApradhEvamDandVidhanDr.Vibha/Dharma%20Shastra%20Sahitya%20Mein%20Apradh%20Evam%20Dand%20Vidhan%20-%20Dr.%20Vibha.pdf धर्मशास्त्र साहित्य में अपराध एवं दण्ड विधान] (२००२), संस्कृत ग्रन्थागार-संस्कृत नगर, दिल्ली (पृ० १२)।</ref><blockquote>पुत्रान्द्वादश यानाह नॄणां स्वायंभुवो मनुः। तेषां षड्बन्धुदायादाः षडदायादबान्धवाः॥
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औरसः क्षेत्रजश्चैव दत्तः कृत्रिम एव च। गूढोत्पन्नोऽपविद्धश्च दायादा बान्धवाश्च षट्॥
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कानीनश्च सहोढश्च क्रीतः पौनर्भवस्तथा। स्वयंदत्तश्च शौद्रश्च षडदायादबान्धवाः॥ (मनु स्मृति ९.१५८-१६०)</blockquote>स्वायम्भुव मनु ने मनुष्यों के बारह प्रकार के पुत्र बताए हैं। इन्हें दो वर्गों में बाँटा गया है- षड् बन्धु दायाद ये पुत्र कुटुम्ब से सम्बद्ध हैं और उत्तराधिकार के अधिकारी माने गए हैं, औरस (स्वाभाविक), क्षेत्रज, दत्त (दत्तक), कृत्रिम, गूढोत्पन्न, अपविद्ध और षड् दायाद-अबान्धव ये छः उत्तराधिकार के पात्र तो हैं, पर रक्त-सम्बन्ध (बन्धुता) नहीं रखते- कानीन, सहोढ, क्रीत, पौनर्भव, स्वयंदत्त, और शौद्र।
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{| class="wikitable"
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|+विभिन्न प्रकार के पुत्र<ref>डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे, [https://archive.org/details/GaMX_dharma-shastra-ka-itihas-part-2-of-dr.-panduranga-vamana-kane-hindi-trans-by-arj/page/n334/mode/1up धर्मशास्त्र का इतिहास-द्वितीय भाग], उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ (पृ० ८79)।</ref>
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!पुत्रों के प्रकार
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(मनु के अनुसार)
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!गौतम
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!बौधायन
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!कौटिल्य
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!वसिष्ठ
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!हारीत
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!शंख-लिखित
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!याज्ञवल्क्य
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!नारद
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!बृहस्पति
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!देवल
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!यम
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!ब्रह्मपुराण
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|13. शौद्र
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'''1. औरस -''' जो पुत्र विवाह संस्कार युक्त समान वर्ण की पत्नी से उत्पन्न किया जाय तो उसे औरस पुत्र कहते हैं। यद्यपि आपस्तम्ब और बौधायन इसके लिये सवर्णा पत्नी ही आवश्यक मानते हैं। किन्तु मनुस्मृति इसका कोई बन्धन नहीं मानते हैं। औरस पुत्र की अपेक्षा अन्य पुत्रों को गौण माना गया है। मनुस्मृति के अनुसार पिता की सम्पत्ति का वास्तविक अधिकारी केवल वही है। वह गौण पुत्रों को बराबर का हिस्सा नहीं देगा, किन्तु भरण पोषण का खर्चा देगा। आशय यह है कि औरस पुत्र, अपने पिता का सच्चे रूप में अकेला ही उत्तराधिकारी होता है।
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'''2. क्षेत्रज -''' जो पुत्र मरे हुए, नपुंसक या रोगी पति की स्त्री के द्वारा शास्त्र प्रतिपादित नियोग प्रथा से उत्पन्न होता है उसे क्षेत्रज पुत्र कहते हैं। गौण पुत्रों में क्षेत्रज का स्थान बहुत ऊँचा है। गौतम, वशिष्ठ, नारद, विष्णु और यम इसे दूसरा स्थान देते हैं। लेकिन बौधायन, कौटिल्य, याज्ञवल्क्य, देवल, महाभारत और ब्रह्मपुराण के साथ-साथ मनु तीसरा स्थान देते हैं। आपस्तम्ब ने इसका इस आधार पर निषेध किया कि क्षेत्रज पर उत्पादक का ही अधिकार है पति का नहीं। मनु इसकी घोर निन्दा करते हैं और इसको मानते हैं। क्षेत्रज पुत्र पर अधिकार के सम्बन्ध में स्मृतिकारों में बहुत विवाद हैं। आपस्तम्ब और बौधायन के अनुसार बीजी ही पुत्र का स्वामी होता है।
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'''3. दत्तक''' - जब माता-पिता अपने सदृश (समान जातीय) किसी मनुष्य को जल से संकल्प करके प्रीतिपूर्वक अपने पुत्र को देते हैं तब उसे दत्तक पुत्र कहते हैं। गौतम और वशिष्ठ दत्तकपुत्र को आठवाँ, याज्ञवल्क्य ने सातवाँ, तथा कौटिल्य और नारद ने नवाँ स्थान दिया है। जबकि मनु ने इसे बारह पुत्रों में तीसरा स्थान देते हैं। मनु दत्तक पुत्रों को माता-पिता को कठिनाई देने वाला मानते हैं।
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'''4. कृत्रिम''' - जब गुण दोष के विचार में चतुर पुत्र के गुणों से युक्त अपने सदृश (समान-जातीय) बालक को अपना पुत्र बनाया जाय, तो कृत्रिम पुत्र कहलाता है।
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'''5. गूढज''' - यदि किसी परिवार के पुत्र के बारे में ज्ञान नहीं है, कि वह किसके वीर्य से उत्पन्न हुआ है, तो उसे गूढोत्पन्न मान, उसी आर्या के पति का पुत्र माना जाता है। वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य तथा कौटिल्य ने भी इसका उल्लेख किया है। यह पुत्र प्रभावित व्यभिचार वाला नहीं, किन्तु संदिग्ध पितृत्व वाला माना जाता है।
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'''6. अपविद्ध''' - जब माता-पिता या दोनों में से कोई एक अपने पुत्र छोड़ दें और कोई दूसरा ग्रहण कर ले तो वह अपविद्ध पुत्र कहलाता है।
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'''7. कानीन -''' कन्या अवस्था में पिता के घर उत्पन्न पुत्र कानीन पुत्र कहलाता है। मनु के साथ-साथ विष्णु, नारद तथा ब्रह्मपुराण कानीन पुत्र पर उस कन्या के साथ विवाह करने वाले का स्वामित्व स्वीकार करते हैं।
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'''8. सहोढ़ -''' बिना जाने अथवा जानकर जब गर्भवती कन्या से विवाह किया जाता है, तो उस पुत्र को सहोढ़ पुत्र कहते हैं। वह पुत्र विवाह करने वाले का होता है। सहोढ़ को पुत्रों की सुची में गूढ़ज के पश्चात् रखा गया है। क्योंकि गर्भवती कन्या के साथ विवाह लज्जास्पद माना गया है।
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'''9. क्रीतक -''' पुत्र बनाने के लिए जिस पुत्रको माता-पिता से मूल्य देकर खरीद लिया जाता है तो वह क्रीत या क्रीतक पुत्र कहलाता है।
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'''10. पौनर्भव -''' जब स्त्री पति द्वारा छोड़े जाने पर अथवा विधवा होने पर अपनी इच्छा से पुनः अन्य पुरुष की भार्या बनकर जब पुत्र उत्पन्न करती है, तो वह पुनर्भव कहलाता है। विधवा विवाह को बुरा माने जाने से पुनर्भव पुत्र को औरस होते हुए भी बड़ी हीन स्थिति प्रदान की गई है।
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'''11. स्वयंदत्त -''' माता पिता से हीन अनाथ या बिना कारण माता द्वारा छोड़ा हुआ जो पुत्र स्वयं जाकर, किसी का पुत्र बनता है। तो वह उस लेने वाले का स्वयंदत्त पुत्र होता है।
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'''12. पारशव -''' जिस पुत्र को ब्राह्मण कामवश शूद्र से उत्पन्न करे उसको पारशव कहते हैं। स्मृतिकारों ने ब्राह्मण के शूद्र के साथ विवाह की घोर निन्दा की है। इसी कारण पारशव या निषाद संज्ञा को 12 पुत्रों में बहुत नीचा स्थान दिया गया है। पारशव के सम्पत्ति के अधिकार को केवल कौटिल्य ने स्वीकार किया है। कौटिल्य के अनुसार पारशव को पैतृक सम्पत्ति का तीसरा हिस्सा प्राप्त होता है।
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'''पुत्री का पुत्र व दौहित्र -''' औरस पुत्र के अभाव में पिता वंश चलाने के लिए जब लड़की के लड़के को अपना पुत्र बना लेता था, तब वह पुत्री का पुत्र कहलाता है। पिता अपनी भ्रातृहीन पुत्री का विवाह करने से पहले जामाता के साथ स्पष्ट रूप से यह समझौता कर लेता है कि इससे उत्पन्न सन्तान मेरी होगी। मनु की दृष्टि में पौत्र और दोहित्र में कोई अन्तर नहीं है। 21 मनु के साथ-साथ बौधायन कौटिल्य, याज्ञवल्क्य और महाभारत में उसे औरस के बाद दूसरा स्थान देते हैं। विष्णु, वशिष्ठ, गौतम, पुत्रों की सूची में इसे बहुत बाद में रखते हैं।
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इस प्रकार मनु ने पुत्रों के बारह प्रकारों के साथ-साथ दौहित्र व पुत्रि का पुत्र के जन्म व उनके अधिकारों की विशद विवेचना की है।
    
==दत्तक विधि की उपयोगिता॥ Usefulness of adopted method==
 
==दत्तक विधि की उपयोगिता॥ Usefulness of adopted method==
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