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जल भूमि पर जीवन का आधार तत्व है। भारतीय ज्ञान परंपरा में 'जलमेव जीवनम्' अर्थात जल को जीवन मानकर इसके सभी स्वरूपों के संरक्षण की भावना रही है। वैदिक साहित्य में जल अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व के रूप में विवेचित है। वेदों में अनेक आपः (जल देवता) या जल सूक्त विद्यमान हैं।<ref>अमित कुमार एवं कृष्ण कुमार शर्मा, [https://www.ijhssi.org/papers/vol10(4)/Ser-2/J1004026063.pdf वेदों में निरूपित जल संसाधनों की महत्ता एवं उनका संरक्षण], सन - २०२१, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ हुमैनिटीज एण्ड सोशल साइंस इन्वेंशन (पृ० ६०)।</ref>
 
जल भूमि पर जीवन का आधार तत्व है। भारतीय ज्ञान परंपरा में 'जलमेव जीवनम्' अर्थात जल को जीवन मानकर इसके सभी स्वरूपों के संरक्षण की भावना रही है। वैदिक साहित्य में जल अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व के रूप में विवेचित है। वेदों में अनेक आपः (जल देवता) या जल सूक्त विद्यमान हैं।<ref>अमित कुमार एवं कृष्ण कुमार शर्मा, [https://www.ijhssi.org/papers/vol10(4)/Ser-2/J1004026063.pdf वेदों में निरूपित जल संसाधनों की महत्ता एवं उनका संरक्षण], सन - २०२१, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ हुमैनिटीज एण्ड सोशल साइंस इन्वेंशन (पृ० ६०)।</ref>
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== परिचय ==
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== परिचय॥ Introduction==
 
वैदिक एवं संस्कृत साहित्य में समुद्र, नदी, झील, तालाब, कूप आदि के रूप में जल व्यवस्था का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। वनस्पति और जीव-जन्तु दोनों ही वर्गों के समुदायों को अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए जल अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व है। पञ्च महाभूतों में पृथ्वी के उपरान्त जल तत्व हमारे जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्राणियों के रक्त में ८० प्रतिशत मात्रा जल की होती है किन्तु वनस्पति में ये मात्रा अधिक होती है। दोनों ही वर्गों के लिए जल जीवन का आधार है। जीव-जन्तु और पशु-पक्षी जल पीकर तथा वनस्पति जडो द्वारा जल ग्रहण कर जीवित रहते हैं।<ref>मृत्युञ्जय कुमार तिवारी, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95272/1/Unit-3.pdf जल व्यवस्था], सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २२०)।</ref>
 
वैदिक एवं संस्कृत साहित्य में समुद्र, नदी, झील, तालाब, कूप आदि के रूप में जल व्यवस्था का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। वनस्पति और जीव-जन्तु दोनों ही वर्गों के समुदायों को अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए जल अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व है। पञ्च महाभूतों में पृथ्वी के उपरान्त जल तत्व हमारे जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्राणियों के रक्त में ८० प्रतिशत मात्रा जल की होती है किन्तु वनस्पति में ये मात्रा अधिक होती है। दोनों ही वर्गों के लिए जल जीवन का आधार है। जीव-जन्तु और पशु-पक्षी जल पीकर तथा वनस्पति जडो द्वारा जल ग्रहण कर जीवित रहते हैं।<ref>मृत्युञ्जय कुमार तिवारी, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95272/1/Unit-3.pdf जल व्यवस्था], सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २२०)।</ref>
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== भूमिगत जल ==
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==जलव्यवस्था की वैदिक अवधारणा==
शिलाओं के आधार पर भूमिगत जल शिराओं की पहचान की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। इस विद्या को 'दकार्गल' कहा गया है। प्राचीन मान्यता रही है कि जिस प्रकार मनुष्यों के अंग में नाडियां हैं उसी तरह भूमि में ऊंची, नीची शिराएं हैं। भूमि भेद एवं पाषाण आदि के आधार पर इनकी पहचान होती है। आकाश से केवल एक ही स्वाद का जल पृथ्वी पर पतित होता है लेकिन पृथ्वी की विशेषता से स्थान के अनुरूप अनेक रस एवं स्वाद वाला हो जाता है।<ref>पत्रिका - वास्तुशास्त्र विमर्श, डॉ० सुशील कुमार, वास्तु शास्त्र एवं जलव्यवस्था, सन २०१५, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली (पृ० १०३)।</ref>
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वेदों में जल की ४ अवस्थाएं वर्णित हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में बताया गया है कि आत्मा-रूप मूल तत्त्व ने जिस जल को (अप्-तत्त्व को) उत्पन्न किया, वह चार अवस्थाओं में चार नामों से चार लोकों में व्याप्त है। जैसा कि -<ref>पं० श्री गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, [https://ia800709.us.archive.org/20/items/VaidikaVishvaAurBharatiyaSanskriti/Vaidika-Vishva-aur-Bharatiya-Sanskriti.pdf वैदिक विज्ञान और भारतीय संस्कृति], सन २०००, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना (पृ० १०६)।</ref><blockquote>आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीन्नान्यत्किञ्चन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति। स इमांल्लोकानसृजत अम्भो मरीचिर्भर आपः। अदोऽम्भः परेण दिवम् द्यौः प्रतिष्ठाः अन्तरिक्षं मरीचयः, पृथिवी भरः, या अधस्तात्ता आपः। स ईंक्षतेमे नु लोका लोकपालान्नु सृजा इति सोऽद्भ्य एव पुरुषं समुद्धृत्यामूर्च्छयत्। (ऐतरेय ब्राह्मण)</blockquote>'''भाषार्थ -''' अम्भ, मरीचि, भर् और आप् रूप में इन चार अवस्थाओं एवं नामों के द्वारा चार लोकों में व्याप्त है। अम्भः इनमें वह है, जो सूर्य-मण्डल से (द्युलोक से) भी ऊर्ध्व-प्रदेश में महः, जनः आदि लोकों में व्याप्त है। अन्तरिक्ष में जो जल व्याप्त है, वह मरीचि-रूप है।
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'''वापी'''
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===अपः सूक्त एवं नासदीय सूक्त में जल===
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'''कूप'''
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===पञ्चमहाभूतों में जल का स्थान===
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'''कुण्ड'''
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===जल के प्रकार (पार्थिव, दिव्य, अन्तरिक्षीय जल)===
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'''तालाब'''
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==जलसंरचना एवं वास्तु: एक परम्परा==
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'''सरोवर'''
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===प्राचीन नगरों में जल प्रबंधन===
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भारतीय लोगों के सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन पर जल का हमेशा एक व्यापक प्रभाव रहा हि। प्राचीन भारतीय सभ्यता में सिंधु घाटी या हडप्पा सभ्यता के लोगों के पास पानी की आपूर्ति और सीवरेज की परिष्कृत प्रणालियाँ थीं। मोहन जोदडों का 'महान स्नान गृह' इस बात का अद्भुत प्रमाण है।<ref>शरद कुमार जैन, [https://nihroorkee.gov.in/sites/default/files/Ancient_Hydrology_Hindi_Edition.pdf प्राचीन भारत में जलविज्ञानीय ज्ञान], सन २०१९, राष्ट्रीय जलविज्ञान सम्स्थान, उत्तराखण्ड (पृ० ३)।</ref>
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== निष्कर्ष ==
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===यज्ञवेदियों के समीप जल स्रोतों की व्यवस्था===
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== उद्धरण ==
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==वास्तुशास्त्र में जलस्थान का निर्धारण==
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===भूमिगत जल॥ Underground Water===
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{{Main|Groundwater (भूगर्भ जल)}}
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शिलाओं के आधार पर भूमिगत जल शिराओं की पहचान की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। इस विद्या को 'उदकार्गल' कहा गया है अर्थात भूगर्भ में निहित जलस्रोतों की खोज।<ref>डॉ० इला घोष, [https://archive.org/details/wg628/page/78/mode/1up वेदविज्ञानश्रीः-जलस्रोतों की खोज का विज्ञान-उदकार्गलम्], सन २००२, आर्य कन्या डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद (पृ० ७९)।</ref> बृहत्संहिता में - <blockquote>वदाम्यतोऽहं दकार्गलं येन जलोपलब्धिः। (बृहत्संहिता)</blockquote>पृथिवी के गर्भ से ऊपर भूतल पर लाया गया जल उदक है। किन्तु इस उदक के मार्ग में प्रस्तर, मृदा आदि आवरण रूप अवरोध हैं। अर्गल का अर्थ है साँकल या अवरोध। इस अवरोध को दूर कर ही जल को भूतल पर लाया जा सकता है। 'उदकार्गलम्' इन अवरोधों के पीछे अन्तर्निहित जलस्रोतों की उपलब्धि का मार्ग बताता है। प्राचीन मान्यता रही है कि जिस प्रकार मनुष्यों के अंग में नाडियां हैं उसी तरह भूमि में ऊंची, नीची शिराएं हैं। भूमि भेद एवं पाषाण आदि के आधार पर इनकी पहचान होती है। आकाश से केवल एक ही स्वाद का जल पृथ्वी पर पतित होता है लेकिन पृथ्वी की विशेषता से स्थान के अनुरूप अनेक रस एवं स्वाद वाला हो जाता है।<ref>पत्रिका - वास्तुशास्त्र विमर्श, डॉ० सुशील कुमार, वास्तु शास्त्र एवं जलव्यवस्था, सन २०१५, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली (पृ० १०३)।</ref>
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===जलसंरचना के प्रकार===
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====कूप॥ Well====
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====वापी॥ Stepwell====
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वापी का अर्थ है "छोटे तालाब" (पानी के जलाशय)। इन्हें राजा द्वारा दो गांवों के बीच सीमा-जोड़ पर बनाया जाना चाहिए। मनुस्मृति में -<blockquote>तडागान्युदपानानि वाप्यः प्रस्रवणानि च। सीमासंधिषु कार्याणि देवतायतनानि च॥ (मनु स्मृति ८.२४८)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय-८, श्लोक-२४८।</ref></blockquote>
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कूप, कुण्ड, तालाब, सरोवर आदि।
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====सरोवर॥ Tank====
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====तालाब॥ Pond====
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====धनुषाकार कुआं॥ Arched-Well====
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====घट एवं जलमंडप ॥ Ghat and Jalmandapa====
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==नगर नियोजन एवं जलसंरचना==
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===हड़प्पा, लोथल, धोलावीरा में जल निकास===
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===मंदिरों में कूप–सरोवर–जलमंडप की योजना===
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==आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जलसंरचना==
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'''वर्षाजल-संग्रह (Rainwater Harvesting) और वास्तु'''
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'''जल पुनःचक्रण प्रणाली'''
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'''स्मार्ट सिटी और प्राचीन जल प्रणालियों की तुलनात्मक समीक्षा'''
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==निष्कर्ष॥ conclusion==
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==उद्धरण॥ References==
 
[[Category:Hindi Articles]]
 
[[Category:Hindi Articles]]
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<references />
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