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| | ==भवन कला॥ Bhavana Kala== | | ==भवन कला॥ Bhavana Kala== |
| | + | प्राचीन ऋषियों की गृह के संबंध में अवधारणा गृह की जगह सुगृह की परिकल्पना थी। जहाँ सुख, समृद्धि, शांति के साथ ही निरोगता विद्यमान हो, इसी का चिंतन वैदिक वास्तु में किया गया है।<ref>शोधकर्ता - अखिलेश्वर, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/301164/6/06-chapter-3.pdf वैदिक साहित्य में वास्तु विद्याः एक ऐतिहासिक अध्ययन], सन २००८, शोध केन्द्र - महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी (पृ० ८६)।</ref> |
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| | वास्तुशास्त्र लोकोपयोगी वैदिक विधाओं में एक प्रमुख शास्त्र है। यह गुरुत्व शक्ति, चुम्बकीय शक्ति एवं सौर ऊर्जा का प्रयोग करने के साथ-साथ पञ्चमहाभूतों से सामंजस्य स्थापित कर इस प्रकार के भवन का निर्माण करने की प्रविधि बन जाता है, जिससे वहाँ रहने वाले और काम करने वाले लोगों का तन, मन एवं जीवन स्फूर्तिमान रहे - | | वास्तुशास्त्र लोकोपयोगी वैदिक विधाओं में एक प्रमुख शास्त्र है। यह गुरुत्व शक्ति, चुम्बकीय शक्ति एवं सौर ऊर्जा का प्रयोग करने के साथ-साथ पञ्चमहाभूतों से सामंजस्य स्थापित कर इस प्रकार के भवन का निर्माण करने की प्रविधि बन जाता है, जिससे वहाँ रहने वाले और काम करने वाले लोगों का तन, मन एवं जीवन स्फूर्तिमान रहे - |
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| | *वास्तुशास्त्र का प्रधान लक्ष्य भवन निर्माण करते समय समग्र सृष्टि की प्रधान शक्तियों का प्रबन्धन अधिक से अधिक मात्रा में करना है। | | *वास्तुशास्त्र का प्रधान लक्ष्य भवन निर्माण करते समय समग्र सृष्टि की प्रधान शक्तियों का प्रबन्धन अधिक से अधिक मात्रा में करना है। |
| − | *वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में वास्तुविद्या को चौंसठ कलाओं में से एक कला माना है। | + | * वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में वास्तुविद्या को चौंसठ कलाओं में से एक कला माना है। |
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| | राजप्रासाद संबंधी प्रमाण, मान, संस्थान, संख्यान, उच्छ्राय आदि लक्षणों से लक्षित एवं प्राकार-परिखा-गुप्त, गोपुर, अम्बुवेश्म, क्रीडाराम, महानस, कोष्ठागार, आयुधस्थान, भाण्डागार, व्यायामशाला, नृत्यशाला, संगीतशाला, स्नानगृह, धारागृह, शय्यागृह, वासगृह, प्रेक्षा (नाट्यशाला), दर्पणगृह, दोलागृह, अरिष्टगृह, अन्तःपुर तथा उसके विभिन्न शोभा-सम्भार, कक्षाएँ, अशोकवन, लतामण्डप, वापी, दारु गिरि, पुष्पवीथियाँ, राजभवन की किस-किस दिशा में पुरोहित, सेनानी, जनावास, शालभवन, भवनाग, भवनद्रव्य, विशिष्ट भवन, चुनाई, भूषा, दारुकर्म, इष्टकाकर्म, द्वारविधान, स्तम्भ लक्षण, छाद्यस्थापन आदि के साथ वास्तुपदों की विभिन्न योजनाएँ, मान एवं वेध आदि। | | राजप्रासाद संबंधी प्रमाण, मान, संस्थान, संख्यान, उच्छ्राय आदि लक्षणों से लक्षित एवं प्राकार-परिखा-गुप्त, गोपुर, अम्बुवेश्म, क्रीडाराम, महानस, कोष्ठागार, आयुधस्थान, भाण्डागार, व्यायामशाला, नृत्यशाला, संगीतशाला, स्नानगृह, धारागृह, शय्यागृह, वासगृह, प्रेक्षा (नाट्यशाला), दर्पणगृह, दोलागृह, अरिष्टगृह, अन्तःपुर तथा उसके विभिन्न शोभा-सम्भार, कक्षाएँ, अशोकवन, लतामण्डप, वापी, दारु गिरि, पुष्पवीथियाँ, राजभवन की किस-किस दिशा में पुरोहित, सेनानी, जनावास, शालभवन, भवनाग, भवनद्रव्य, विशिष्ट भवन, चुनाई, भूषा, दारुकर्म, इष्टकाकर्म, द्वारविधान, स्तम्भ लक्षण, छाद्यस्थापन आदि के साथ वास्तुपदों की विभिन्न योजनाएँ, मान एवं वेध आदि। |
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| − | == आवासीय भवन एवं कक्ष विन्यास॥ Avasiya Bhavan evan Kaksh Vinyasa == | + | ==आवासीय भवन एवं कक्ष विन्यास॥ Avasiya Bhavan evan Kaksh Vinyasa== |
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| | वास्तु विज्ञान प्राकृतिक पंचमहाभूतों का भवन (गृह) में उचित सामंजस्य कर गृह को निवास के लिए अनुकूलता प्रदान करता है। मत्स्यपुराण में भवन में कक्ष-विन्यास के विषय में वर्णन किया गया है कि -<blockquote>तस्य प्रदेशाश्चत्वारस्तथोत्सर्गेऽग्रतः शुभः। पृष्ठतः पृष्ठभागस्तु सव्यावर्त्तः प्रशस्यते॥ | | वास्तु विज्ञान प्राकृतिक पंचमहाभूतों का भवन (गृह) में उचित सामंजस्य कर गृह को निवास के लिए अनुकूलता प्रदान करता है। मत्स्यपुराण में भवन में कक्ष-विन्यास के विषय में वर्णन किया गया है कि -<blockquote>तस्य प्रदेशाश्चत्वारस्तथोत्सर्गेऽग्रतः शुभः। पृष्ठतः पृष्ठभागस्तु सव्यावर्त्तः प्रशस्यते॥ |
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| | |७. | | |७. |
| | |शौचालय | | |शौचालय |
| − | | नैरृत्य-दक्षिण | + | |नैरृत्य-दक्षिण |
| | |ईशान, आग्नेय, पूर्व एवं भवन के मध्य को छोड़कर अन्य दिशाओं में | | |ईशान, आग्नेय, पूर्व एवं भवन के मध्य को छोड़कर अन्य दिशाओं में |
| | |- | | |- |
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| | |बरामदा | | |बरामदा |
| | |पूर्व एवं उत्तर | | |पूर्व एवं उत्तर |
| − | |ईशान, उत्तर-ईशान के मध्य | + | | ईशान, उत्तर-ईशान के मध्य |
| | |- | | |- |
| | |१०. | | |१०. |
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| | वास्तु विज्ञान में निर्देशित आवासीय गृह में भूखंड के अनुसार उक्त सोलह स्थानों पर विशेष कक्षों का जो विधान आया है उसका मूल आधार प्राकृतिक पञ्च तत्वों (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी तथा आकाश) का आवासीय भवन में सामंजस्य कर उस गृह को मनुष्य के लिए जीवनोपयोगी और दोष रहित बनाना है। | | वास्तु विज्ञान में निर्देशित आवासीय गृह में भूखंड के अनुसार उक्त सोलह स्थानों पर विशेष कक्षों का जो विधान आया है उसका मूल आधार प्राकृतिक पञ्च तत्वों (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी तथा आकाश) का आवासीय भवन में सामंजस्य कर उस गृह को मनुष्य के लिए जीवनोपयोगी और दोष रहित बनाना है। |
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| − | प्राचीन समय में आचार्यों ने गृह में कुल अलग-अलग दिशाओं के अनुसार सोलह (१६) कक्षों के निर्माण की बात कही है, परन्तु वर्तमान काल में सामान्यतः मनुष्य की आवश्यकता अनुसार इन सभी १६ कक्षों के निर्माण की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पहले भारत में अधिकतर सामान्य जन प्रायः कृषि करते थे और पशु पालन तथा गौधन (दूध, दही, घी आदि) इत्यादि सभी गृहों में पर्याप्त होता था इसलिए प्राचीन आचार्यों ने दधिमंथन कक्ष, घृतगृह, पशुगृह, शस्त्रागार इत्यादि कक्षों का भी सामान्यतः सभी गृहों में विधान किया है, परन्तु आज वर्तमान समय में प्रायः लोगों के लिए इन सभी कक्षों के पृथक-पृथक निर्माण की आवश्यकता नहीं है।<ref>शोधगंगा-शिवम अत्रे, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/518806/8/08_chapter%204.pdf भारतीय वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन], सन २०२३, शोधकेन्द्र-संस्कृतविद्याधर्मविज्ञानसंकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० २५७)।</ref> | + | शुक्रनीति में गृह-विन्यास के संबंध में इस प्रकार कहा गया है - <blockquote>वस्त्रादिमार्जनार्थं च स्नानार्थं यजनार्थकम्। भोजनार्थं च पाकार्थं पूर्वस्यां कल्पयेद् गृहान्॥ (शुक्रनीति)<ref>पं० श्री ब्रह्मशंकर मिश्र, [https://archive.org/details/20230223_20230223_0110/page/n118/mode/1up शुक्रनीतिः] विद्योतिनी-हिन्दी व्याख्या समेत, अध्याय ०१, श्लोक-२२३, सन १९६८, चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वाराणसी (पृ० ३३)।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' उसमें वस्त्र धोने के लिये और स्नान तथा यज्ञ करने के लिये पूर्व एवं भोजन खाने-पकाने के लिये पूर्व दिशा में गृहों का निर्माण करें।<blockquote>निद्रार्थं च विहारार्थं पानार्थं रोदनार्थकम्। धान्यार्थं घरटार्थं दासीदासार्थमेव च॥ |
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| | + | उत्सर्गार्थं गृहान्कुर्याद्दक्षिणस्यामनुक्रमात्। गोसृगोष्ट्रगजाद्यर्थं गृहान्प्रत्यक् प्रकल्पयेत्॥ (शुक्रनीति)</blockquote>प्राचीन समय में आचार्यों ने गृह में कुल अलग-अलग दिशाओं के अनुसार सोलह (१६) कक्षों के निर्माण की बात कही है, परन्तु वर्तमान काल में सामान्यतः मनुष्य की आवश्यकता अनुसार इन सभी १६ कक्षों के निर्माण की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पहले भारत में अधिकतर सामान्य जन प्रायः कृषि करते थे और पशु पालन तथा गौधन (दूध, दही, घी आदि) इत्यादि सभी गृहों में पर्याप्त होता था इसलिए प्राचीन आचार्यों ने दधिमंथन कक्ष, घृतगृह, पशुगृह, शस्त्रागार इत्यादि कक्षों का भी सामान्यतः सभी गृहों में विधान किया है, परन्तु आज वर्तमान समय में प्रायः लोगों के लिए इन सभी कक्षों के पृथक-पृथक निर्माण की आवश्यकता नहीं है।<ref>शोधगंगा-शिवम अत्रे, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/518806/8/08_chapter%204.pdf भारतीय वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन], सन २०२३, शोधकेन्द्र-संस्कृतविद्याधर्मविज्ञानसंकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० २५७)।</ref> |
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| | वर्तमान समय अनुसार सामान्य जन समुदाय के लिए अत्यावश्यक कक्षों में से सभी की आर्थिक सम्पन्नता एवं आवश्यकतानुसार वरीयता क्रम में चयन करते हुए भवन निर्माण का कार्य करना लाभप्रद हो सकता है। आज लोगों की प्राथमिक आवश्यकता अनुसार भवन (गृह) में - | | वर्तमान समय अनुसार सामान्य जन समुदाय के लिए अत्यावश्यक कक्षों में से सभी की आर्थिक सम्पन्नता एवं आवश्यकतानुसार वरीयता क्रम में चयन करते हुए भवन निर्माण का कार्य करना लाभप्रद हो सकता है। आज लोगों की प्राथमिक आवश्यकता अनुसार भवन (गृह) में - |
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| | कौबेरेशानयोर्मध्ये सर्ववस्तुषु संग्रहम्। सदनं कारयेदेवं क्रमादुक्तानि षोडश॥ नैरृत्यां सूतिकागेहं नृपाणां भूतिमिच्छता॥ (वास्तुसार संग्रह)</blockquote>भूखण्ड को सोलह भागों में विभक्त कर ईशान में देवपूजा कक्ष, ईशान ओर पूर्व के मध्य में सभी सामान्य उपयोग की वस्तुओं का संग्रह (भाण्डागार), पूर्व दिशा में स्नानगृह, आग्नेय एवं पूर्व के मध्य में दही मथने का का कमरा, आग्नेय कोण में रसोईघर (पाकशाला), आग्नेय और दक्षिण के मध्य में घीतेल का भण्डार, दक्षिण दिशा में शयनकक्ष, दक्षिण एवं नैर्ऋत्य के मध्य में शौचालय, नैऋत्य कोण में शस्त्रागार और भारी वस्तुएँ रखने का स्थान, नैर्ऋत्य और पश्चिम के बीच में अध्ययन कक्ष, पश्चिम दिशा में भोजन करने का स्थान, पश्चिम और वायव्य के मध्य में रोदन कक्ष, वायव्यकोण में पशुशाला, वायव्य एवं उत्तर के मध्य में रतिगृह, उत्तर दिशा में कोषागार तथा उत्तर- ईशान के बीच में औषधि कक्ष का निर्माण किया जाता था भवन के मध्यभाग को रिक्त रखने का विधान था जिसका कारण ब्रह्म स्थल और वास्तुपुरुष के मर्म स्थानों का रक्षण करना था। भवन के मध्य में तुलसी अथवा यज्ञशाला का निर्माण किया जा सकता था।<ref>डॉ० नित्यानन्द ओझा, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95180/1/Block-1.pdf गृह एवं व्यावसायिक वास्तु], सन २००३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० ३१)।</ref> इस प्रकार गृह निर्माण के महत्त्व का जितना ही विमर्श किया जाएगा, उतना ही महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आता जाएगा। शास्त्रों में कहा गया है -<blockquote>कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं मृण्मये दशसद्गुणम्। ऐष्टिके शतकोटिघ्नं शैलेऽनन्तं फलं भवेत्॥ (वास्तुरत्नाकर १/९) </blockquote>इसका भावार्थ यही है कि खर-पतवार युक्त गृह निर्माण करने पर लाख गुणा पुण्य मिट्टी से गृह निर्माण करने पर दस लाख गुणा पुण्य ईंट से गृह निर्माण करने पर एक सौ लाख (करोड़) गुणा पुण्य और पत्थर से भवन निर्माण करने पर गृहकर्त्ता को पुण्य फल मिलता है। | | कौबेरेशानयोर्मध्ये सर्ववस्तुषु संग्रहम्। सदनं कारयेदेवं क्रमादुक्तानि षोडश॥ नैरृत्यां सूतिकागेहं नृपाणां भूतिमिच्छता॥ (वास्तुसार संग्रह)</blockquote>भूखण्ड को सोलह भागों में विभक्त कर ईशान में देवपूजा कक्ष, ईशान ओर पूर्व के मध्य में सभी सामान्य उपयोग की वस्तुओं का संग्रह (भाण्डागार), पूर्व दिशा में स्नानगृह, आग्नेय एवं पूर्व के मध्य में दही मथने का का कमरा, आग्नेय कोण में रसोईघर (पाकशाला), आग्नेय और दक्षिण के मध्य में घीतेल का भण्डार, दक्षिण दिशा में शयनकक्ष, दक्षिण एवं नैर्ऋत्य के मध्य में शौचालय, नैऋत्य कोण में शस्त्रागार और भारी वस्तुएँ रखने का स्थान, नैर्ऋत्य और पश्चिम के बीच में अध्ययन कक्ष, पश्चिम दिशा में भोजन करने का स्थान, पश्चिम और वायव्य के मध्य में रोदन कक्ष, वायव्यकोण में पशुशाला, वायव्य एवं उत्तर के मध्य में रतिगृह, उत्तर दिशा में कोषागार तथा उत्तर- ईशान के बीच में औषधि कक्ष का निर्माण किया जाता था भवन के मध्यभाग को रिक्त रखने का विधान था जिसका कारण ब्रह्म स्थल और वास्तुपुरुष के मर्म स्थानों का रक्षण करना था। भवन के मध्य में तुलसी अथवा यज्ञशाला का निर्माण किया जा सकता था।<ref>डॉ० नित्यानन्द ओझा, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95180/1/Block-1.pdf गृह एवं व्यावसायिक वास्तु], सन २००३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० ३१)।</ref> इस प्रकार गृह निर्माण के महत्त्व का जितना ही विमर्श किया जाएगा, उतना ही महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आता जाएगा। शास्त्रों में कहा गया है -<blockquote>कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं मृण्मये दशसद्गुणम्। ऐष्टिके शतकोटिघ्नं शैलेऽनन्तं फलं भवेत्॥ (वास्तुरत्नाकर १/९) </blockquote>इसका भावार्थ यही है कि खर-पतवार युक्त गृह निर्माण करने पर लाख गुणा पुण्य मिट्टी से गृह निर्माण करने पर दस लाख गुणा पुण्य ईंट से गृह निर्माण करने पर एक सौ लाख (करोड़) गुणा पुण्य और पत्थर से भवन निर्माण करने पर गृहकर्त्ता को पुण्य फल मिलता है। |
| − | #'''पूजा कक्ष - ऐशान्यां देवतागृहम्।''' | + | #'''पूजा कक्ष -''' ऐशान्यां देवतागृहम्'''।''' |
| − | #'''भण्डार कक्ष - आग्नेयां स्यान्महानसम्।''' | + | #'''भण्डार कक्ष -''' आग्नेयां स्यान्महानसम्'''।''' |
| − | #'''स्नान घर - भोजनं पश्चिमायाम्।''' | + | #'''स्नान घर -''' भोजनं पश्चिमायाम्'''।''' |
| − | #'''दधि मंथन कक्ष -''' | + | #'''दधि मंथन कक्ष -''' इन्द्राग्नयोर्मथनम् '''।''' |
| − | #'''रसोई घर -''' | + | #'''रसोई घर -''' आग्नेयां स्यान्महानसम्'''।''' |
| − | #'''घृत तेल भण्डार कक्ष -''' | + | #'''घृत तेल भण्डार कक्ष -''' यमाग्नयोर्घृतमन्दिरम्'''।''' |
| − | #'''शयन कक्ष - शयनं दक्षिणस्याम्।''' | + | #'''शयन कक्ष -''' शयनं दक्षिणस्याम्'''।''' |
| − | #'''शौचालय - यमराक्षसयोर्मध्ये पुरीषत्यागमन्दिरम्।''' | + | #'''शौचालय -''' यमराक्षसयोर्मध्ये पुरीषत्यागमन्दिरम्'''।''' |
| − | #'''शस्त्रोपकरण भण्डार -''' | + | #'''शस्त्रोपकरण भण्डार -'''नैरृत्यामायुधाश्रयम्'''।''' |
| − | #'''अध्ययन कक्ष -''' | + | #'''अध्ययन कक्ष -''' राक्षसजलयोर्मध्य्ये विद्याभ्यासस्य मन्दिरम्'''।''' |
| − | #'''भोजन कक्ष -''' | + | #'''भोजन कक्ष -''' भोजनं पश्चिमायाम्'''।''' |
| − | #'''रोदन कक्ष - तोयेशानलयोर्मध्ये रोदनस्य च मन्दिरम्।''' | + | #'''रोदन कक्ष -''' तोयेशानलयोर्मध्ये रोदनस्य च मन्दिरम्'''।''' |
| − | #'''पशु शाला -''' | + | #'''पशु शाला -''' वायव्यां धनसंचयम्'''।''' |
| − | #'''रति गृह -''' | + | #'''रति गृह -''' कामोपभोगशमनं वायव्योत्तरयोर्गृहम्'''।''' |
| − | #'''कोषागार - उत्तरे द्रव्यसंस्थाम्।''' | + | #'''कोषागार -''' उत्तरे द्रव्यसंस्थाम्'''।''' |
| − | #'''औषधि कक्ष -''' | + | #'''औषधि कक्ष -''' कौबेरेशानयोर्मध्ये सर्ववस्तुषु संग्रहम्। |
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| | ==स्थापत्यवेद एवं भवन निर्माण॥ Sthapatyaved evam bhavan nirman== | | ==स्थापत्यवेद एवं भवन निर्माण॥ Sthapatyaved evam bhavan nirman== |
| | + | नारद पुराण के अनुसार घर के छः भेद होते हैं। एकशाला, द्विशाला, त्रिशाला, चतुश्शाला, सप्तशाला तथा दशशाला। इन छः शालाओं में से प्रत्येक के १६ भेद होते हैं। ध्रुव, धान्य, जय, नन्द , खर, कान्तः, मनोरम, सुमुख, दुर्मुख, क्रूर, शत्रुर, स्वर्णद, क्षय, आक्रन्द, विपुल और विजय नामक गृह होते हैं। चार अक्षरों के प्रस्तार से क्रमशः इन गृहों की गणना करनी चाहये।<ref>शोधकर्ता - हरिप्रसाद शर्मा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/149616 नारदपुराणीय ज्योतिष एवं वास्तु शास्त्र का विवेचनात्मक अध्ययन], अध्याय ०७, सन २०१४, शोधकेन्द्र- वनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान (पृ० ४६८)।</ref> |
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| | स्थापत्यवेद में नगरविन्यास, ग्रामविन्यास, जनभवन, राजभवन, देवभवन आदि के निर्माण से संबंधित वर्णन को तो सब जानते ही हैं, उसके साथ-साथ शय्यानिर्माण, आसनरचना, आभूषणनिर्माण, आयुधनिर्माण, अनेक प्रकार के चित्र-निर्माण, प्रतिमारचना, अनेक प्रकार के यन्त्रों की रचना तथा अनेक प्रकार के स्थापत्यकौशल का वर्णन स्थापत्यवेद तथा उसी से उद्भूत वास्तुशास्त्र के विविध ग्रन्थों में प्राप्त होता है।<ref>डॉ० देशबन्धु, [https://uou.ac.in/sites/default/files/slm/DVS-101.pdf वास्तु शास्त्र का स्वरूप व परिचय], सन २०२१, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी (पृ० १९)।</ref> | | स्थापत्यवेद में नगरविन्यास, ग्रामविन्यास, जनभवन, राजभवन, देवभवन आदि के निर्माण से संबंधित वर्णन को तो सब जानते ही हैं, उसके साथ-साथ शय्यानिर्माण, आसनरचना, आभूषणनिर्माण, आयुधनिर्माण, अनेक प्रकार के चित्र-निर्माण, प्रतिमारचना, अनेक प्रकार के यन्त्रों की रचना तथा अनेक प्रकार के स्थापत्यकौशल का वर्णन स्थापत्यवेद तथा उसी से उद्भूत वास्तुशास्त्र के विविध ग्रन्थों में प्राप्त होता है।<ref>डॉ० देशबन्धु, [https://uou.ac.in/sites/default/files/slm/DVS-101.pdf वास्तु शास्त्र का स्वरूप व परिचय], सन २०२१, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी (पृ० १९)।</ref> |
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| | #भवन कला॥ bhavan kala | | #भवन कला॥ bhavan kala |
| | #नगर कला॥ nagar kala | | #नगर कला॥ nagar kala |
| − | #प्रासाद कला॥ prasad kala | + | # प्रासाद कला॥ prasad kala |
| | #मूर्ति कला॥ murti kala | | #मूर्ति कला॥ murti kala |
| | #चित्र कला॥ chitra kala | | #चित्र कला॥ chitra kala |
| − | # यंत्र कला॥ yantra kala | + | #यंत्र कला॥ yantra kala |
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| | भवन स्वरूप के अनंतर उसकी दृढ़ता पर भी विचार आवश्यक है -<ref>डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://sanskrit.nic.in/books_archive/057_Raja_Nivesha_and_Rajasi_Kalaye.pdf राज-निवेश एवं राजसी कलायें], सन् १९६७, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन-शाला, लखनऊ (पृ० १७)।</ref> | | भवन स्वरूप के अनंतर उसकी दृढ़ता पर भी विचार आवश्यक है -<ref>डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://sanskrit.nic.in/books_archive/057_Raja_Nivesha_and_Rajasi_Kalaye.pdf राज-निवेश एवं राजसी कलायें], सन् १९६७, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन-शाला, लखनऊ (पृ० १७)।</ref> |
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Line 184: |
| | *भवन-निवेश | | *भवन-निवेश |
| | *रचना विच्छितियां तथा चित्रण | | *रचना विच्छितियां तथा चित्रण |
| − | *भवन-वेध | + | * भवन-वेध |
| | *वीथी-निवेश | | *वीथी-निवेश |
| | *भवन रचना | | *भवन रचना |