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सुधार जारी
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== परिचय॥ Introduction ==
 
== परिचय॥ Introduction ==
नगर विन्यास यह एक कला है, जिसका उद्देश्य नगर की भौतिक संरचना (physical growth) का विकास और मार्गदर्शन करना है  जिससे वहाँ की इमारतें और परिवेश (environments) सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मनोरंजन आदि जैसी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। वर्तमान में भी इसी प्रकार के नगर वसाने की परम्परा चली आ रही है। इसका मुख्य उद्देश्य -  
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नगर विन्यास यह एक कला है, जिसका उद्देश्य नगर की भौतिक संरचना (physical growth) का विकास और मार्गदर्शन करना है  जिससे वहाँ की इमारतें और परिवेश (environments) सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मनोरंजन आदि जैसी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। वर्तमान में भी इसी प्रकार के नगर वसाने की परम्परा चली आ रही है।<ref>शोधगंगा- उदय नारायण राय, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/568338 प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन], सन १९५७, शोधकेन्द्र - प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रयाग (पृ० ६)।</ref> इसका मुख्य उद्देश्य -  
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* समृद्ध और गरीब दोनों के लिए ऐसा वातावरण तैयार करना जिसमें वे समान रूप से रह सकें, काम कर सकें, खेल सकें और विश्राम कर सकें।
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*समृद्ध और गरीब दोनों के लिए ऐसा वातावरण तैयार करना जिसमें वे समान रूप से रह सकें, काम कर सकें, खेल सकें और विश्राम कर सकें।
* सामाजिक और आर्थिक रूप से अधिकतर लोगों के कल्याण (well-being) को सुनिश्चित करना।
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*सामाजिक और आर्थिक रूप से अधिकतर लोगों के कल्याण (well-being) को सुनिश्चित करना।
* सामाजिक और आर्थिक विकास का संतुलन (Well-balanced social and economic development) '''-''' समाज और अर्थव्यवस्था का समन्वित एवं संतुलित विकास।
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*सामाजिक और आर्थिक विकास का संतुलन (Well-balanced social and economic development) '''-''' समाज और अर्थव्यवस्था का समन्वित एवं संतुलित विकास।
* जीवन गुणवत्ता में सुधार (Improvement of life quality) '''-''' नागरिकों के जीवन स्तर और रहन-सहन की गुणवत्ता को बेहतर बनाना।
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*जीवन गुणवत्ता में सुधार (Improvement of life quality) '''-''' नागरिकों के जीवन स्तर और रहन-सहन की गुणवत्ता को बेहतर बनाना।
* संसाधनों का उत्तरदायी उपयोग और पर्यावरण संरक्षण (Responsible administration of resources and environment protection''') -''' प्राकृतिक संसाधनों का उचित और जिम्मेदार उपयोग तथा पर्यावरण की रक्षा।
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*संसाधनों का उत्तरदायी उपयोग और पर्यावरण संरक्षण (Responsible administration of resources and environment protection''') -''' प्राकृतिक संसाधनों का उचित और जिम्मेदार उपयोग तथा पर्यावरण की रक्षा।
* भूमि का तर्कसंगत उपयोग (Rational use of land) - भूमि का बुद्धिमत्तापूर्वक, सही उद्देश्य के लिए और नियोजित तरीके से उपयोग करना।
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*भूमि का तर्कसंगत उपयोग (Rational use of land) - भूमि का बुद्धिमत्तापूर्वक, सही उद्देश्य के लिए और नियोजित तरीके से उपयोग करना।
    
तैत्तिरीय संहिता में नगर शब्द का उल्लेख पुर के अर्थ में हुआ है - <blockquote>नैतमृषिं विदित्वा नगरं प्रविशेत्॥ (तैत्तिरीय संहिता)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%88%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A5%8D(%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0)/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A0%E0%A4%95%E0%A4%83_%E0%A5%A7prapaa तैत्तिरीय आरण्यकम्], प्रपाठकः - १, अनुवाक - ११।</ref></blockquote>अग्निपुराण के अनुसार नगर वसाने के लिए चार कोस, दो कोस या एक कोस तक का स्थान चुनना चाहिए तथा नगरवास्तु की पूजा करके परकोटा खिंचवा देना चाहिए।
 
तैत्तिरीय संहिता में नगर शब्द का उल्लेख पुर के अर्थ में हुआ है - <blockquote>नैतमृषिं विदित्वा नगरं प्रविशेत्॥ (तैत्तिरीय संहिता)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%88%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A5%8D(%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0)/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A0%E0%A4%95%E0%A4%83_%E0%A5%A7prapaa तैत्तिरीय आरण्यकम्], प्रपाठकः - १, अनुवाक - ११।</ref></blockquote>अग्निपुराण के अनुसार नगर वसाने के लिए चार कोस, दो कोस या एक कोस तक का स्थान चुनना चाहिए तथा नगरवास्तु की पूजा करके परकोटा खिंचवा देना चाहिए।
 
*नगर के पूर्व दिशा का द्वार सूर्य पद के सम्मुख
 
*नगर के पूर्व दिशा का द्वार सूर्य पद के सम्मुख
 
*दक्षिण दिशा का द्वार गन्धर्व पद में
 
*दक्षिण दिशा का द्वार गन्धर्व पद में
* पश्चिम दिशा का द्वार वरुण पद में
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*पश्चिम दिशा का द्वार वरुण पद में
 
*उत्तर दिशा का द्वार सोम पद सम्मुख रहना चाहिये।
 
*उत्तर दिशा का द्वार सोम पद सम्मुख रहना चाहिये।
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*नगर के सभी द्वार गोपुरों से परिवेष्ठित होने चाहिये।
 
*नगर के सभी द्वार गोपुरों से परिवेष्ठित होने चाहिये।
 
*नगरमें वास भवनों का सम्यक विन्यास होना चाहिये।
 
*नगरमें वास भवनों का सम्यक विन्यास होना चाहिये।
* नगर मापन
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*नगर मापन
 
*भूमि संग्रह -भूमि चयन
 
*भूमि संग्रह -भूमि चयन
 
*नगर दिक परीक्षा
 
*नगर दिक परीक्षा
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नगर-व्यवस्था के तीन प्रमुख अंग थे - 1. परिख (Moat), 2. प्राकार - नगर के चारों ओर बनी सुरक्षा दीवार (Rampart) 3. द्वार (Gate)। बौद्ध जातक ग्रंथो में पत्तन (Port Town), निगम (Market Town) एवं दुर्ग (Fort) का वर्णन है।
 
नगर-व्यवस्था के तीन प्रमुख अंग थे - 1. परिख (Moat), 2. प्राकार - नगर के चारों ओर बनी सुरक्षा दीवार (Rampart) 3. द्वार (Gate)। बौद्ध जातक ग्रंथो में पत्तन (Port Town), निगम (Market Town) एवं दुर्ग (Fort) का वर्णन है।
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==नगर विन्यास एवं भवन निवेश॥ Nagar Vinyasa evam Bhavan Nivesh==
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== नगर विन्यास एवं भवन निवेश॥ Nagar Vinyasa evam Bhavan Nivesh==
 
गृह में वास करने के कारण ही गृहस्थ कहा जाता है। एक निश्चित स्थान में स्थित रहकर त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ एवं काम) का सेवन करते हुए एक धार्मिक समाज का निर्माण करने वाला ही गृहस्थ कहलाता है -<ref>प्रो० देवीप्रसाद त्रिपाठी, [https://archive.org/details/bWMC_vastu-shastra-vimarsha-of-prof.-vachaspati-upadhyaya-with-prof.-prem-kumar-sharm/page/n3/mode/1up वास्तुशास्त्रविमर्श-सम्पादकीय,] सन २०१०, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नव देहली (पृ० ४)।</ref> <blockquote>त्रिवर्गसेवी सततं देवतानां च पूजनम्। कुर्यादहरहर्नित्यं नमस्येत् प्रयतः सुरान्॥
 
गृह में वास करने के कारण ही गृहस्थ कहा जाता है। एक निश्चित स्थान में स्थित रहकर त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ एवं काम) का सेवन करते हुए एक धार्मिक समाज का निर्माण करने वाला ही गृहस्थ कहलाता है -<ref>प्रो० देवीप्रसाद त्रिपाठी, [https://archive.org/details/bWMC_vastu-shastra-vimarsha-of-prof.-vachaspati-upadhyaya-with-prof.-prem-kumar-sharm/page/n3/mode/1up वास्तुशास्त्रविमर्श-सम्पादकीय,] सन २०१०, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नव देहली (पृ० ४)।</ref> <blockquote>त्रिवर्गसेवी सततं देवतानां च पूजनम्। कुर्यादहरहर्नित्यं नमस्येत् प्रयतः सुरान्॥
    
विभागशीलः सततः क्षमायुक्तो दयालुकः। गृहस्थस्तु समाख्यातो न गृहेण गृही भवेत्॥ (कूर्मपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D-%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A4%9E%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%A6%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%BD%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 कूर्म पुराण], उत्तर भाग, अध्याय-15, श्लोक-24-25।</ref></blockquote>गुण सम्पन्न कोई भी गृहस्थ अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन बिना स्वगृह के सम्यक्तया नहीं कर सकता है। दूसरे के गृह में किये गये श्रौत-स्मार्त कर्म का फल कर्ता को प्राप्त नहीं होता है। वह सम्पूर्ण फल गृहेश को ही चला जाता है। अतः सर्वप्रथम गृहस्थ को यत्नपूर्वक गृह का निर्माण करना चाहिए।
 
विभागशीलः सततः क्षमायुक्तो दयालुकः। गृहस्थस्तु समाख्यातो न गृहेण गृही भवेत्॥ (कूर्मपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D-%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A4%9E%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%A6%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%BD%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 कूर्म पुराण], उत्तर भाग, अध्याय-15, श्लोक-24-25।</ref></blockquote>गुण सम्पन्न कोई भी गृहस्थ अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन बिना स्वगृह के सम्यक्तया नहीं कर सकता है। दूसरे के गृह में किये गये श्रौत-स्मार्त कर्म का फल कर्ता को प्राप्त नहीं होता है। वह सम्पूर्ण फल गृहेश को ही चला जाता है। अतः सर्वप्रथम गृहस्थ को यत्नपूर्वक गृह का निर्माण करना चाहिए।
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===समरांगण सूत्र एवं नगर निवेश॥ Samarangan Sutradhar and Nagar Nivesha===
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=== पुराणों में नगर-निर्माण॥ City-building in the Puranas ===
जिस नगर में राजा रहता है उसको राजधानी कहते हैं और अन्य नगर शाख-नगर की संज्ञाओं से कहे जाते हैं। शाखा-नगर को ही नगरोपम कर्वट कहा जाता है। कुछ गुणों से कम कर्वट को ही निगम कहते हैं। निगम से कम ग्राम, ग्राम से कम गृह होता है। गोकुलों के निवास को गोष्ठ कहा जाता है और छोटे गोष्ठ को गोष्ठक कहते हैं। राजाओं का जहां पर उपस्थान होता है उसको पत्तन कहते हैं। जो पत्तन बहुत विस्तृत और वैश्यों से युक्त होता है उस पत्तन को पुटभेदन कहते हैं। जहां पर पत्तों, शाखाओं, तृणों एवं उपलों से कुटिया बनाकर पुलिन्द लोग रहते हैं, उसको पल्ली कहते हैं और छोटी पल्ली को पल्लिका कहते हैं। नगर को छोड कर और सब जनपद कहलाता है और नगर को मिलाकर सम्पूर्ण राष्ट्र को देश अथवा मंडल कहते हैं।<ref name=":1" />
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पुराणों में राजवंशों के विस्तृत इतिहास के स्रोत तो हैं ही साथ में पौराणिक काल के नगरों और नागरिक जीवनका पूर्ण विकसित रूप दिखाई देता है। अग्निपुराण के १० अध्याय में नगरों के विषय में विशेष विवरण मिलता है। कहाँ, कैसे और किस विधि से समस्त प्रकार की सुविधाओं के साथ नगर का निर्माण होना चाहिए। पौराणिक काल का एक व्यवस्थित रूप में नगर विकास और नगरीय जीवन का सही इतिहास प्राप्त होता है।<ref>शोधकर्ता- ओंकार नाथ पाण्डेय, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/299608 पुराणों में नगर तथा नगर जीवन], सन १९९३, शोधकेन्द्र - महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी (पृ० २८)।</ref> जैसे - <blockquote>नगरादिक वास्तुञ्च वक्ष्ये राज्यादि वृद्धये। योजनं योजनार्द्धं वा तदर्ध स्थान माश्रयेत॥ (अग्निपुराण)</blockquote>भाषार्थ - मैं राज्य आदि की अभिवृद्धि के लिए नगर वास्तु का वर्णन करता हूं। नगर के निर्माण के लिए एक योजन या आधी योजन भूमि ग्रहण करें।
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===मानसार नगर व्यवस्था॥ Manasara Nagar Vyavastha ===
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===समरांगण सूत्र एवं नगर निवेश॥ Samarangan Sutradhar and Nagar Nivesha ===
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समरांगणसूत्रधार राजा भोज द्वारा रचित भारतीय वास्तुशास्त्र से संबंधित महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। जिस नगर में राजा रहता है उसको राजधानी कहते हैं और अन्य नगर शाख-नगर की संज्ञाओं से कहे जाते हैं। शाखा-नगर को ही नगरोपम कर्वट कहा जाता है। कुछ गुणों से कम कर्वट को ही निगम कहते हैं। निगम से कम ग्राम, ग्राम से कम गृह होता है। गोकुलों के निवास को गोष्ठ कहा जाता है और छोटे गोष्ठ को गोष्ठक कहते हैं। राजाओं का जहां पर उपस्थान होता है उसको पत्तन कहते हैं। जो पत्तन बहुत विस्तृत और वैश्यों से युक्त होता है उस पत्तन को पुटभेदन कहते हैं। जहां पर पत्तों, शाखाओं, तृणों एवं उपलों से कुटिया बनाकर पुलिन्द लोग रहते हैं, उसको पल्ली कहते हैं और छोटी पल्ली को पल्लिका कहते हैं। नगर को छोड कर और सब जनपद कहलाता है और नगर को मिलाकर सम्पूर्ण राष्ट्र को देश अथवा मंडल कहते हैं।<ref name=":1" />
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===मानसार नगर व्यवस्था॥ Manasara Nagar Vyavastha===
 
मानसार के अनुसार सबसे छोटा आवासीय परिसर (Dwelling Unit) 100 x 200 x 4 हाथ (Cubits) का तथा सबसे बडा आवासीय परिसर 7200 x 14000 x 4 हाथ का होना चाहिए। नगरों को समुद्र, नदी या पर्वतों के किनारे बनाया जाना चाहिए तथा इसमें व्यापार आदि की व्यवस्था पूर्व-पश्चिम अथवा उत्तर-दक्षिण दिशा में की जानी चाहिए। मानसार में नगरों को 8 प्रकारों में बांटा गया है -<ref>श्वेता उप्पल, [https://www.ncert.nic.in/pdf/publication/otherpublications/sanskrit_vangmay.pdf संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान का इतिहास-अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी], सन २०१८, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, दिल्ली (पृ० १०८)।</ref>
 
मानसार के अनुसार सबसे छोटा आवासीय परिसर (Dwelling Unit) 100 x 200 x 4 हाथ (Cubits) का तथा सबसे बडा आवासीय परिसर 7200 x 14000 x 4 हाथ का होना चाहिए। नगरों को समुद्र, नदी या पर्वतों के किनारे बनाया जाना चाहिए तथा इसमें व्यापार आदि की व्यवस्था पूर्व-पश्चिम अथवा उत्तर-दक्षिण दिशा में की जानी चाहिए। मानसार में नगरों को 8 प्रकारों में बांटा गया है -<ref>श्वेता उप्पल, [https://www.ncert.nic.in/pdf/publication/otherpublications/sanskrit_vangmay.pdf संस्कृत वाङ्मय में विज्ञान का इतिहास-अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी], सन २०१८, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, दिल्ली (पृ० १०८)।</ref>
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#बलिकर्मविधान - Sacrificial rituals
 
#बलिकर्मविधान - Sacrificial rituals
 
#ग्राम-नगर विन्यास - Layout and planning of Village and City
 
#ग्राम-नगर विन्यास - Layout and planning of Village and City
#भूमि-विन्यास - Layout of the plot
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# भूमि-विन्यास - Layout of the plot
 
#गोपुर-विधान - Construction of Palace
 
#गोपुर-विधान - Construction of Palace
 
#मंडप-विधान - Construction of Temples
 
#मंडप-विधान - Construction of Temples
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5. वर्धकी (Wood cutter)  
 
5. वर्धकी (Wood cutter)  
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===अर्थशास्त्र में नगर-योजना॥ Town Planning in Arthashastra===
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===अर्थशास्त्र में नगर-योजना॥ Town Planning in Arthashastra ===
 
[[File:अर्थशास्त्र में नगर प्रकार .jpg|thumb|320x320px|ग्राम आधारित - नगर संज्ञा]]
 
[[File:अर्थशास्त्र में नगर प्रकार .jpg|thumb|320x320px|ग्राम आधारित - नगर संज्ञा]]
आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में नगरों की सुरक्षा के लिए जो उपाय सुझाए हैं उनके अनुरूप ही तद्युगीन नगर बसाए गए।<ref>डॉ० विद्याधर , [https://archive.org/details/bharatiya-vastu-shastra-ka-itihas-dr.-vidyadhar/page/78/mode/2up?view=theater&ui=embed&wrapper=false भारतीय वास्तुशास्त्र का इतिहास], सन २०१०, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली (पृ० ७८)।</ref> नगर के विविध हिस्सों में कोषगृह, कोष्ठागार, पण्यगृह, कुप्यगृह (अन्नागार), शस्त्रागार एवं कारागार जैसे महत्वपूर्ण भवनों के निर्माण का सन्दर्भ भी अर्थशास्त्र में मिलता है। कौटिल्य ने राजधानी नगर के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर नाना प्रकार के दुर्गों के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर नाना प्रकार के दुर्गों के निर्माण का विधान किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार -
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आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में नगरों की सुरक्षा के लिए जो उपाय सुझाए हैं उनके अनुरूप ही तद्युगीन नगर बसाए गए।<ref>डॉ० विद्याधर , [https://archive.org/details/bharatiya-vastu-shastra-ka-itihas-dr.-vidyadhar/page/78/mode/2up?view=theater&ui=embed&wrapper=false भारतीय वास्तुशास्त्र का इतिहास], सन २०१०, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली (पृ० ७८)।</ref> नगर के विविध हिस्सों में कोषगृह, कोष्ठागार, पण्यगृह, कुप्यगृह (अन्नागार), शस्त्रागार एवं कारागार जैसे महत्वपूर्ण भवनों के निर्माण का सन्दर्भ भी अर्थशास्त्र में मिलता है। कौटिल्य ने राजधानी नगर के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर नाना प्रकार के दुर्गों के निर्माण का विधान किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार -
    
अष्टशतग्राम्या मध्ये स्थानीयं, चतुश्शतग्राम्या द्रोणमुखं, द्विशतग्राम्याः खार्वटिकं, दशग्रामीसङ्ग्रहेण सङ्ग्रहणं स्थापयेत्॥ (अर्थशास्त्र)<ref>आचार्य कौटिल्य, अनुवादक-वाचस्पति गैरोला, [https://archive.org/details/arthasastraofkautilyachanakyasutravachaspatigairolachowkambha_202002/page/n2/mode/1up अर्थशास्त्र-अनुवाद सहित], सन १९८४, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी (पृ० ७७)। </ref>
 
अष्टशतग्राम्या मध्ये स्थानीयं, चतुश्शतग्राम्या द्रोणमुखं, द्विशतग्राम्याः खार्वटिकं, दशग्रामीसङ्ग्रहेण सङ्ग्रहणं स्थापयेत्॥ (अर्थशास्त्र)<ref>आचार्य कौटिल्य, अनुवादक-वाचस्पति गैरोला, [https://archive.org/details/arthasastraofkautilyachanakyasutravachaspatigairolachowkambha_202002/page/n2/mode/1up अर्थशास्त्र-अनुवाद सहित], सन १९८४, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी (पृ० ७७)। </ref>
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==नगर के प्रमुख प्रकार॥ Nagar ke Pramukh Prakara==
 
==नगर के प्रमुख प्रकार॥ Nagar ke Pramukh Prakara==
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प्राचीन भारत में नगर नियोजन की परंपरा विभिन्न ग्रंथों जैसे कौटिल्य का अर्थशास्त्र, शुक्रनीतिसार, तथा पुराणों में प्राप्त होती है। वास्तुशास्त्र की विभिन्न शाखाएँ नगरों की स्थापत्यकला, सामाजिक व्यवस्था तथा प्रशासनिक योजनाओं को प्रकाशित करती हैं। इन ग्रंथों के अनुसार प्राचीन नगरों को उनके आकार, रूप और उद्देश्य के आधार पर विभाजित किया गया है। वास्तुशास्त्र के अनुसार नगरों के निम्नलिखित भेद प्राप्त होते हैं - 1. ज्येष्ठ नगर 2. मध्यम नगर 3. कनिष्ठ नगर। इनको इस प्रकार परिभाषित किया गया है - 
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#'''राजधानी (Rajdhani) -'''  राजा का मुख्य निवास स्थान राजधानी।
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#'''शाखानगर (Sakhanagra) -''' पुर को छोड़कर अन्य सभी नगरों की श्रेणी को सखानगर कहा जाता है। इसके अंतर्गत -
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#*'''कर्वट (Karvata) -''' छोटा नगर
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#*'''निग्म (Nigma) -''' कर्वट से भी छोटा
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#*'''ग्राम (Grama): -'''निग्म से भी छोटा, यानी गाँव
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#'''विशेष नगर (Special Towns) -'''
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#*'''पट्टन (Pattana):''' राजा का द्वितीय निवास स्थान
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#*'''पुतभेदना (Putabhedana):''' यह पट्टन के समान है, परंतु यह एक वाणिज्यिक केंद्र (व्यापारिक नगर) के रूप में भी कार्य करता है।
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अग्निपुराण के ३६३ अध्याय में नगर के अन्य सात नाम इस प्रकार दिये गये हैं। पूः (पुर), पुरी, नगरी, पत्तन, पुटभेदन, स्थानीय, निगम ये सात नगर के नाम हैं। मूल नगर (राजधानी) से भिन्न पुर होता है उसे शाखा नगर कहते हैं -  <blockquote>पूःस्त्री पुरीनगर्य्यो वा पत्तनं पुटभेदनम्। स्थानीयं निगमोऽन्यत्तु यन्मूलनगरात्पुरम्॥ (अग्निपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9%E0%A5%AC%E0%A5%A9 अग्निपुराण], अध्याय - ३६३, श्लोक - ०४।</ref> </blockquote>भाषार्थ - 1 राजधानी, 2 पत्तन, 3 पुटभेदन, 4 निगम, 5 खेट, 6 कर्वट और 7 ग्राम ये नगर के प्रकार हैं।
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'''राजधानी'''
 
'''राजधानी'''
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'''खेट'''
 
'''खेट'''
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खेट के सम्बन्ध में यह निर्देश प्राप्त होते है कि नगर, खेट एवं ग्राम इन तीनों के निवेश में खेट बीच का है नगर से छोटा परन्तु ग्राम से बडा। अत एव नगर के विष्कम्भ के आधे के प्रमाण से खेट का विष्कम्भ प्रतिपादित किया गया है। नगर से एक योजन की दूरी पर खेट का निवेश अभीष्ट है। खेट एक प्रकार छोटा नगर होता है जो कि समतल भूमि पर किसी सरिता तट पर स्थित होता है अथवा वन प्रदेश में भी इसकी स्थिति अनुकूल है यदि छोटी-छोटी पहाडियाँ समीपस्थ है। इसके चारों ओर ग्राम होते हैं। दो ग्रामों के मध्य में अथवा ग्राम समूहों के मध्य में एक समृद्ध नगर को खेट के नाम से पुकारा जाता है।
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खेट के सम्बन्ध में यह निर्देश प्राप्त होते है कि नगर, खेट एवं ग्राम इन तीनों के निवेश में खेट बीच का है नगर से छोटा परन्तु ग्राम से बडा। अत एव नगर के विष्कम्भ के आधे के प्रमाण से खेट का विष्कम्भ प्रतिपादित किया गया है। नगर से एक योजन की दूरी पर खेट का निवेश अभीष्ट है। खेट एक प्रकार छोटा नगर होता है जो कि समतल भूमि पर किसी सरिता तट पर स्थित होता है अथवा वन प्रदेश में भी इसकी स्थिति अनुकूल है यदि छोटी-छोटी पहाडियाँ समीपस्थ है। इसके<ref>अभय कात्यायन, [https://archive.org/details/vishwakarma-prakash/page/n7/mode/1up विश्वकर्म प्रकाश], सन २०१७, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी (पृ० १४)।</ref> चारों ओर ग्राम होते हैं। दो ग्रामों के मध्य में अथवा ग्राम समूहों के मध्य में एक समृद्ध नगर को खेट के नाम से पुकारा जाता है।
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=== महाभारत के प्रमुख नगर॥ Mahabharata ke Pramukha Nagara ===
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===रामायण के प्रमुख नगर॥ Ramayana ke Pramukha Nagara===
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रामायण में वास्तुशास्त्र का बृहद उल्लेख प्राप्त होता है।
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* '''हस्तिनापुर (Hastinapur)'''
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===महाभारत के प्रमुख नगर॥ Mahabharata ke Pramukha Nagara===
* '''इंद्रप्रस्थ (Indraprastha)'''
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* '''कुरुक्षेत्र (Kurukshetra)'''
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*'''हस्तिनापुर (Hastinapur)'''
* '''स्वर्णप्रस्थ (Svarnaprastha)'''
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*'''इंद्रप्रस्थ (Indraprastha)'''
* '''पानप्रस्थ (Panaprastha)'''
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*'''कुरुक्षेत्र (Kurukshetra)'''
* '''व्याघ्रप्रस्थ (Vyaghraprastha)'''
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*'''स्वर्णप्रस्थ (Svarnaprastha)'''
* '''तिलप्रस्थ (Tilaprastha)'''
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*'''पानप्रस्थ (Panaprastha)'''
* '''पांचाल (Panchal)'''
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*'''व्याघ्रप्रस्थ (Vyaghraprastha)'''
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*'''तिलप्रस्थ (Tilaprastha)'''
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*'''पांचाल (Panchal)'''
    
==सारांश॥ Summary==
 
==सारांश॥ Summary==
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*प्रत्येक यानमार्ग के दोनों ओर जंघापथ (फुटपाथ) अवश्य होने चाहिए। इनकी चौडाई ५ फीट हो।
 
*प्रत्येक यानमार्ग के दोनों ओर जंघापथ (फुटपाथ) अवश्य होने चाहिए। इनकी चौडाई ५ फीट हो।
 
*जल-निकासी के लिए नगर में नालियों की व्यवस्था होनी चाहिए। ये नालियाँ ३ फीट या डेढ फुट चौडी हों। इनको सदा ढककर रखा जाए।
 
*जल-निकासी के लिए नगर में नालियों की व्यवस्था होनी चाहिए। ये नालियाँ ३ फीट या डेढ फुट चौडी हों। इनको सदा ढककर रखा जाए।
वास्तुशास्त्र के अनुसार नगरों के निम्नलिखित भेद प्राप्त होते हैं -  
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नगर-निवेश प्रक्रिया का अगला महत्वपूर्ण अंग है - मार्ग विन्यास। वास्तव में, किसी नगर की मार्ग योजना के माध्यम से ही उसे विभिन्न आवासीय खण्डों में बाँटा जा सकता है। किस मार्ग के किन-किन स्थानों पर कौन-कौन से भवन स्थित होंगे, यह मार्ग विन्यास के बाद ही निर्धारित हो सकता है। नगरों की मार्ग-योजना इस बात पर भी निर्भर थी कि, अमुक नगर किस प्रकार का है, अर्थात वह राजधानी है या व्यापारिक नगर, अथवा एक सामान्य नगर।
 
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1. ज्येष्ठ नगर 2. मध्यम नगर 3. कनिष्ठ नगर। शाखा नगर के निम्नलिखित भेद हैं जैसे - 1 राजधानी, 2 पत्तन, 3 पुटभेदन, 4 निगम, 5 खेट, 6 कर्वट, 7 ग्राम।
      
==उद्धरण॥ References==
 
==उद्धरण॥ References==
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