Changes

Jump to navigation Jump to search
m
no edit summary
Line 21: Line 21:     
==भवन कला॥ Bhavana Kala==
 
==भवन कला॥ Bhavana Kala==
वास्तुशास्त्र लोकोपयोगी वैदिक विधाओं में एक प्रमुख शास्त्र है। यह गुरुत्व शक्ति, चुम्बकीय शक्ति एवं सौर ऊर्जा का प्रयोग करने के साथ-साथ पञ्चमहाभूतों से सामंजस्य स्थापित कर इस प्रकार के भवन का निर्माण करने की प्रविधि बन जाता है, जिससे वहाँ रहने वाले और काम करने वाले लोगों का तन, मन एवं जीवन स्फूर्तिमान रहे।
+
वास्तुशास्त्र लोकोपयोगी वैदिक विधाओं में एक प्रमुख शास्त्र है। यह गुरुत्व शक्ति, चुम्बकीय शक्ति एवं सौर ऊर्जा का प्रयोग करने के साथ-साथ पञ्चमहाभूतों से सामंजस्य स्थापित कर इस प्रकार के भवन का निर्माण करने की प्रविधि बन जाता है, जिससे वहाँ रहने वाले और काम करने वाले लोगों का तन, मन एवं जीवन स्फूर्तिमान रहे -
    
*वास्तुशास्त्र का प्रधान लक्ष्य भवन निर्माण करते समय समग्र सृष्टि की प्रधान शक्तियों का प्रबन्धन अधिक से अधिक मात्रा में करना है।
 
*वास्तुशास्त्र का प्रधान लक्ष्य भवन निर्माण करते समय समग्र सृष्टि की प्रधान शक्तियों का प्रबन्धन अधिक से अधिक मात्रा में करना है।
*वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में कहा है कि वास्तुविद्या चौंसठ कलाओं में से एक कला है।
+
*वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में वास्तुविद्या को चौंसठ कलाओं में से एक कला माना है।
    
राजप्रासाद संबंधी प्रमाण, मान, संस्थान, संख्यान, उच्छ्राय आदि लक्षणों से लक्षित एवं प्राकार-परिखा-गुप्त, गोपुर, अम्बुवेश्म, क्रीडाराम, महानस, कोष्ठागार, आयुधस्थान, भाण्डागार, व्यायामशाला, नृत्यशाला, संगीतशाला, स्नानगृह, धारागृह, शय्यागृह, वासगृह, प्रेक्षा (नाट्यशाला), दर्पणगृह, दोलागृह, अरिष्टगृह, अन्तःपुर तथा उसके विभिन्न शोभा-सम्भार, कक्षाएँ, अशोकवन, लतामण्डप, वापी, दारु गिरि, पुष्पवीथियाँ, राजभवन की किस-किस दिशा में पुरोहित, सेनानी, जनावास, शालभवन, भवनाग, भवनद्रव्य, विशिष्ट भवन, चुनाई, भूषा, दारुकर्म, इष्टकाकर्म, द्वारविधान, स्तम्भ लक्षण, छाद्यस्थापन आदि के साथ वास्तुपदों की विभिन्न योजनाएँ, मान एवं वेध आदि।
 
राजप्रासाद संबंधी प्रमाण, मान, संस्थान, संख्यान, उच्छ्राय आदि लक्षणों से लक्षित एवं प्राकार-परिखा-गुप्त, गोपुर, अम्बुवेश्म, क्रीडाराम, महानस, कोष्ठागार, आयुधस्थान, भाण्डागार, व्यायामशाला, नृत्यशाला, संगीतशाला, स्नानगृह, धारागृह, शय्यागृह, वासगृह, प्रेक्षा (नाट्यशाला), दर्पणगृह, दोलागृह, अरिष्टगृह, अन्तःपुर तथा उसके विभिन्न शोभा-सम्भार, कक्षाएँ, अशोकवन, लतामण्डप, वापी, दारु गिरि, पुष्पवीथियाँ, राजभवन की किस-किस दिशा में पुरोहित, सेनानी, जनावास, शालभवन, भवनाग, भवनद्रव्य, विशिष्ट भवन, चुनाई, भूषा, दारुकर्म, इष्टकाकर्म, द्वारविधान, स्तम्भ लक्षण, छाद्यस्थापन आदि के साथ वास्तुपदों की विभिन्न योजनाएँ, मान एवं वेध आदि।
    
== आवासीय भवन एवं कक्ष विन्यास॥ Avasiya Bhavan evan Kaksh Vinyasa ==
 
== आवासीय भवन एवं कक्ष विन्यास॥ Avasiya Bhavan evan Kaksh Vinyasa ==
 +
    
वास्तु विज्ञान प्राकृतिक पंचमहाभूतों का भवन (गृह) में उचित सामंजस्य कर गृह को निवास के लिए अनुकूलता प्रदान करता है। मत्स्यपुराण में भवन में कक्ष-विन्यास के विषय में वर्णन किया गया है कि - <blockquote>तस्य प्रदेशाश्चत्वारस्तथोत्सर्गेऽग्रतः शुभः। पृष्ठतः पृष्ठभागस्तु सव्यावर्त्तः प्रशस्यते॥
 
वास्तु विज्ञान प्राकृतिक पंचमहाभूतों का भवन (गृह) में उचित सामंजस्य कर गृह को निवास के लिए अनुकूलता प्रदान करता है। मत्स्यपुराण में भवन में कक्ष-विन्यास के विषय में वर्णन किया गया है कि - <blockquote>तस्य प्रदेशाश्चत्वारस्तथोत्सर्गेऽग्रतः शुभः। पृष्ठतः पृष्ठभागस्तु सव्यावर्त्तः प्रशस्यते॥
Line 113: Line 114:     
कौबेरेशानयोर्मध्ये सर्ववस्तुषु संग्रहम्। सदनं कारयेदेवं क्रमादुक्तानि षोडश॥ नैरृत्यां सूतिकागेहं नृपाणां भूतिमिच्छता॥ (वास्तुसार संग्रह)</blockquote>भूखण्ड को सोलह भागों में विभक्त कर ईशान में देवपूजा कक्ष, ईशान ओर पूर्व के मध्य में सभी सामान्य उपयोग की वस्तुओं का संग्रह (भाण्डागार), पूर्व दिशा में स्नानगृह, आग्नेय एवं पूर्व के मध्य में दही मथने का का कमरा, आग्नेय कोण में रसोईघर (पाकशाला), आग्नेय और दक्षिण के मध्य में घीतेल का भण्डार, दक्षिण दिशा में शयनकक्ष, दक्षिण एवं नैर्ऋत्य के मध्य में शौचालय, नैऋत्य कोण में शस्त्रागार और भारी वस्तुएँ रखने का स्थान, नैर्ऋत्य और पश्चिम के बीच में अध्ययन कक्ष, पश्चिम दिशा में भोजन करने का स्थान, पश्चिम और वायव्य के मध्य में रोदन कक्ष, वायव्यकोण में पशुशाला, वायव्य एवं उत्तर के मध्य में रतिगृह, उत्तर दिशा में कोषागार तथा उत्तर- ईशान के बीच में औषधि कक्ष का निर्माण किया जाता था भवन के मध्यभाग को रिक्त रखने का विधान था जिसका कारण ब्रह्म स्थल और वास्तुपुरुष के मर्म स्थानों का रक्षण करना था। भवन के मध्य में तुलसी अथवा यज्ञशाला का निर्माण किया जा सकता था।<ref>डॉ० नित्यानन्द ओझा, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95180/1/Block-1.pdf गृह एवं व्यावसायिक वास्तु], सन २००३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० ३१)।</ref> इस प्रकार गृह निर्माण के महत्त्व का जितना ही विमर्श किया जाएगा, उतना ही महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आता जाएगा। शास्त्रों में कहा गया है -<blockquote>कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं मृण्मये दशसद्गुणम्। ऐष्टिके शतकोटिघ्नं शैलेऽनन्तं फलं भवेत्॥ (वास्तुरत्नाकर १/९) </blockquote>इसका भावार्थ यही है कि खर-पतवार युक्त गृह निर्माण करने पर लाख गुणा पुण्य मिट्टी से गृह निर्माण करने पर दस लाख गुणा पुण्य ईंट से गृह निर्माण करने पर एक सौ लाख (करोड़) गुणा पुण्य और पत्थर से भवन निर्माण करने पर गृहकर्त्ता को पुण्य फल मिलता है।
 
कौबेरेशानयोर्मध्ये सर्ववस्तुषु संग्रहम्। सदनं कारयेदेवं क्रमादुक्तानि षोडश॥ नैरृत्यां सूतिकागेहं नृपाणां भूतिमिच्छता॥ (वास्तुसार संग्रह)</blockquote>भूखण्ड को सोलह भागों में विभक्त कर ईशान में देवपूजा कक्ष, ईशान ओर पूर्व के मध्य में सभी सामान्य उपयोग की वस्तुओं का संग्रह (भाण्डागार), पूर्व दिशा में स्नानगृह, आग्नेय एवं पूर्व के मध्य में दही मथने का का कमरा, आग्नेय कोण में रसोईघर (पाकशाला), आग्नेय और दक्षिण के मध्य में घीतेल का भण्डार, दक्षिण दिशा में शयनकक्ष, दक्षिण एवं नैर्ऋत्य के मध्य में शौचालय, नैऋत्य कोण में शस्त्रागार और भारी वस्तुएँ रखने का स्थान, नैर्ऋत्य और पश्चिम के बीच में अध्ययन कक्ष, पश्चिम दिशा में भोजन करने का स्थान, पश्चिम और वायव्य के मध्य में रोदन कक्ष, वायव्यकोण में पशुशाला, वायव्य एवं उत्तर के मध्य में रतिगृह, उत्तर दिशा में कोषागार तथा उत्तर- ईशान के बीच में औषधि कक्ष का निर्माण किया जाता था भवन के मध्यभाग को रिक्त रखने का विधान था जिसका कारण ब्रह्म स्थल और वास्तुपुरुष के मर्म स्थानों का रक्षण करना था। भवन के मध्य में तुलसी अथवा यज्ञशाला का निर्माण किया जा सकता था।<ref>डॉ० नित्यानन्द ओझा, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/95180/1/Block-1.pdf गृह एवं व्यावसायिक वास्तु], सन २००३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० ३१)।</ref> इस प्रकार गृह निर्माण के महत्त्व का जितना ही विमर्श किया जाएगा, उतना ही महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आता जाएगा। शास्त्रों में कहा गया है -<blockquote>कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं मृण्मये दशसद्गुणम्। ऐष्टिके शतकोटिघ्नं शैलेऽनन्तं फलं भवेत्॥ (वास्तुरत्नाकर १/९) </blockquote>इसका भावार्थ यही है कि खर-पतवार युक्त गृह निर्माण करने पर लाख गुणा पुण्य मिट्टी से गृह निर्माण करने पर दस लाख गुणा पुण्य ईंट से गृह निर्माण करने पर एक सौ लाख (करोड़) गुणा पुण्य और पत्थर से भवन निर्माण करने पर गृहकर्त्ता को पुण्य फल मिलता है।
*'''पूजा कक्ष - ऐशान्यां देवतागृहम्।'''
+
#'''पूजा कक्ष - ऐशान्यां देवतागृहम्।'''
*'''भण्डार कक्ष - आग्नेयां स्यान्महानसम्।'''
+
#'''भण्डार कक्ष - आग्नेयां स्यान्महानसम्।'''
*'''स्नान घर - भोजनं पश्चिमायाम्।'''
+
#'''स्नान घर - भोजनं पश्चिमायाम्।'''
*'''दधि मंथन कक्ष -'''
+
#'''दधि मंथन कक्ष -'''
*'''रसोई घर -'''
+
#'''रसोई घर -'''
*'''घृत तेल भण्डार कक्ष -'''
+
#'''घृत तेल भण्डार कक्ष -'''
*'''शयन कक्ष - शयनं दक्षिणस्याम्।'''
+
#'''शयन कक्ष - शयनं दक्षिणस्याम्।'''
*'''शौचालय - यमराक्षसयोर्मध्ये पुरीषत्यागमन्दिरम्।'''
+
#'''शौचालय - यमराक्षसयोर्मध्ये पुरीषत्यागमन्दिरम्।'''
*'''शस्त्रोपकरण भण्डार -'''
+
#'''शस्त्रोपकरण भण्डार -'''
*'''अध्ययन कक्ष -'''
+
#'''अध्ययन कक्ष -'''
*'''भोजन कक्ष -'''
+
#'''भोजन कक्ष -'''
*'''रोदन कक्ष - तोयेशानलयोर्मध्ये रोदनस्य च मन्दिरम्।'''
+
#'''रोदन कक्ष - तोयेशानलयोर्मध्ये रोदनस्य च मन्दिरम्।'''
*'''पशु शाला -'''
+
#'''पशु शाला -'''
*'''रति गृह -'''
+
#'''रति गृह -'''
*'''कोषागार - उत्तरे द्रव्यसंस्थाम्।'''
+
#'''कोषागार - उत्तरे द्रव्यसंस्थाम्।'''
*'''औषधि कक्ष -'''
+
#'''औषधि कक्ष -'''
    
==स्थापत्यवेद एवं भवन निर्माण॥ Sthapatyaved evam bhavan nirman==
 
==स्थापत्यवेद एवं भवन निर्माण॥ Sthapatyaved evam bhavan nirman==
Line 193: Line 194:  
भवनोत्पत्ति के अनेक आख्यान पुराणों में भी पाए जाते हैं। मार्कण्डेय (अ० ४९) तथा वायु (अ० ८) पुराण समरांगण के इसी आख्यान के प्रतीक है। भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिए अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
 
भवनोत्पत्ति के अनेक आख्यान पुराणों में भी पाए जाते हैं। मार्कण्डेय (अ० ४९) तथा वायु (अ० ८) पुराण समरांगण के इसी आख्यान के प्रतीक है। भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिए अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
   −
भवन (गृह) के विना जीवन-यापन में प्राणी-मात्र को असुविधा होती है। वास्तु शास्त्र में गृह का महत्व प्रतिपादित करते हुए आचार्य कथन है कि - <ref name=":0">प्रो० विनय कुमार पाण्डेय, [https://uou.ac.in/sites/default/files/slm/DVS-103.pdf गृह निर्माण विवेचन], सन २०२०, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी (पृ० ९५)।</ref> <blockquote>गृहस्थस्य क्रियाः सर्वा न सिद्ध्यन्ति गृहं विना। यतस्तस्माद् गृहारम्भ कर्म चात्राभिधीयते॥ (वास्तु)</blockquote>गृह के बिना गृहस्थ के समस्त स्मार्त व वैदिक कार्य सफल नहीं होते हैं या अल्प फल वाले होते हैं, इसलिए यहाँ गृहारम्भ के बारे में बतलाया जा रहा है।
+
भवन (गृह) के विना जीवन-यापन में प्राणी-मात्र को असुविधा होती है। वास्तु शास्त्र में गृह का महत्व प्रतिपादित करते हुए आचार्य कथन है कि - <ref name=":0">प्रो० विनय कुमार पाण्डेय, [https://uou.ac.in/sites/default/files/slm/DVS-103.pdf गृह निर्माण विवेचन], सन २०२०, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी (पृ० ९५)।</ref> <blockquote>गृहस्थस्य क्रियाः सर्वा न सिद्ध्यन्ति गृहं विना। यतस्तस्माद् गृहारम्भ कर्म चात्राभिधीयते॥ (भविष्य पुराण)</blockquote>गृह के बिना गृहस्थ के समस्त स्मार्त व वैदिक कार्य सफल नहीं होते हैं या अल्प फल वाले होते हैं, इसलिए यहाँ गृहारम्भ के बारे में बतलाया जा रहा है।
   −
दूसरे के घर पर किया हुआ श्रौत व स्मार्त कर्म निष्फल हो जाता है, क्योंकि दूसरे के घर में कृत कार्य का फल गृहेश या गृहस्वामी को भी मिलता है। जैसे -<ref name=":0" /> <blockquote>परगेहकृताः सर्वाः श्रौतस्मार्त्तक्रिया शुभाः। निष्फलाः स्युर्यतस्तासां भूमिशः फलमश्नुते॥ (वास्तु)</blockquote>अतः सभी को स्वयं का गृह निर्माण करना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में हर संभव प्रयास करता है कि वह अपने गृह का निर्माण करें।
+
दूसरे के घर पर किया हुआ श्रौत व स्मार्त कर्म निष्फल हो जाता है, क्योंकि दूसरे के घर में कृत कार्य का फल गृहेश या गृहस्वामी को भी मिलता है। जैसे -<ref name=":0" /> <blockquote>परगेहकृताः सर्वाः श्रौतस्मार्त्तक्रिया शुभाः। निष्फलाः स्युर्यतस्तासां भूमिशः फलमश्नुते॥ (भविष्य पुराण)</blockquote>अतः सभी को स्वयं का गृह निर्माण करना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में हर संभव प्रयास करता है कि वह अपने गृह का निर्माण करें।
    
दिशाओं के अनुसार गृह की स्थिति एवं बनावट का गृहकर्ता पर विशेष प्रभाव पड़ता है और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ही गृह-निर्माण करना चाहिये। अथर्ववेद के काण्ड - ३ सूक्त - १२ में गृह निर्माण विषय का संक्षिप्त रूप में वर्णन किया गया है। सुरक्षित, सुखकारक, आरोग्यदायक तथा निर्भय ऐसा स्थान गृह हेतु होना चाहिए।<ref>डॉ० यशपाल, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/98460/1/Unit-13.pdf महाभारत में वास्तु विज्ञान], सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २११)।</ref>
 
दिशाओं के अनुसार गृह की स्थिति एवं बनावट का गृहकर्ता पर विशेष प्रभाव पड़ता है और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ही गृह-निर्माण करना चाहिये। अथर्ववेद के काण्ड - ३ सूक्त - १२ में गृह निर्माण विषय का संक्षिप्त रूप में वर्णन किया गया है। सुरक्षित, सुखकारक, आरोग्यदायक तथा निर्भय ऐसा स्थान गृह हेतु होना चाहिए।<ref>डॉ० यशपाल, [https://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/98460/1/Unit-13.pdf महाभारत में वास्तु विज्ञान], सन २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २११)।</ref>
1,239

edits

Navigation menu