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| | == परिचय॥ Introduction == | | == परिचय॥ Introduction == |
| − | नगर एक ऐसा विशाल समूह है, जिसकी जीविका के प्रधान साधन उद्योग तथा व्यापार हैं। वह व्यावसायिक ग्राम से खाद्यान्न प्राप्त करता है, जबकि ग्राम उस क्षेत्र को कहते हैं, जहाँ जीविका के साधन-स्रोत प्रधान रूप से कृषि एवं कृषि उत्पाद हुआ करते हैं। वर्तमान में भी नगर वसाने की परम्परा चली आ रही है। अग्निपुराण के अनुसार नगर वसाने के लिए चार कोस, दो कोस या एक कोस तक का स्थान चुनना चाहिए तथा नगरवास्तु की पूजा करके परकोटा खिंचवा देना चाहिए। | + | नगर विन्यास यह एक कला है, जिसका उद्देश्य नगर की भौतिक संरचना (physical growth) का विकास और मार्गदर्शन करना है जिससे वहाँ की इमारतें और परिवेश (environments) सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मनोरंजन आदि जैसी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। वर्तमान में भी इसी प्रकार के नगर वसाने की परम्परा चली आ रही है।<ref>शोधगंगा- उदय नारायण राय, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/568338 प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन], सन १९५७, शोधकेन्द्र - प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रयाग (पृ० ६)।</ref> इसका मुख्य उद्देश्य - |
| − | * नगर के पूर्व दिशा का द्वार सूर्य पद के सम्मुख | + | |
| | + | *समृद्ध और गरीब दोनों के लिए ऐसा वातावरण तैयार करना जिसमें वे समान रूप से रह सकें, काम कर सकें, खेल सकें और विश्राम कर सकें। |
| | + | *सामाजिक और आर्थिक रूप से अधिकतर लोगों के कल्याण (well-being) को सुनिश्चित करना। |
| | + | *सामाजिक और आर्थिक विकास का संतुलन (Well-balanced social and economic development) '''-''' समाज और अर्थव्यवस्था का समन्वित एवं संतुलित विकास। |
| | + | *जीवन गुणवत्ता में सुधार (Improvement of life quality) '''-''' नागरिकों के जीवन स्तर और रहन-सहन की गुणवत्ता को बेहतर बनाना। |
| | + | *संसाधनों का उत्तरदायी उपयोग और पर्यावरण संरक्षण (Responsible administration of resources and environment protection''') -''' प्राकृतिक संसाधनों का उचित और जिम्मेदार उपयोग तथा पर्यावरण की रक्षा। |
| | + | *भूमि का तर्कसंगत उपयोग (Rational use of land) - भूमि का बुद्धिमत्तापूर्वक, सही उद्देश्य के लिए और नियोजित तरीके से उपयोग करना। |
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| | + | तैत्तिरीय संहिता में नगर शब्द का उल्लेख पुर के अर्थ में हुआ है - <blockquote>नैतमृषिं विदित्वा नगरं प्रविशेत्॥ (तैत्तिरीय संहिता)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%88%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A5%8D(%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0)/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A0%E0%A4%95%E0%A4%83_%E0%A5%A7prapaa तैत्तिरीय आरण्यकम्], प्रपाठकः - १, अनुवाक - ११।</ref></blockquote>अग्निपुराण के अनुसार नगर वसाने के लिए चार कोस, दो कोस या एक कोस तक का स्थान चुनना चाहिए तथा नगरवास्तु की पूजा करके परकोटा खिंचवा देना चाहिए। |
| | + | *नगर के पूर्व दिशा का द्वार सूर्य पद के सम्मुख |
| | *दक्षिण दिशा का द्वार गन्धर्व पद में | | *दक्षिण दिशा का द्वार गन्धर्व पद में |
| | *पश्चिम दिशा का द्वार वरुण पद में | | *पश्चिम दिशा का द्वार वरुण पद में |
| | *उत्तर दिशा का द्वार सोम पद सम्मुख रहना चाहिये। | | *उत्तर दिशा का द्वार सोम पद सम्मुख रहना चाहिये। |
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| − | नगर के पूर्वी फाटक के दोनों ओर लक्ष्मी तथा कुबेर की मूर्तियों को आमने-सामने स्थापित करना चाहिये। इसके अनन्तर चारों वर्गों का वास नगर के किस-किस दिशा में होना चाहिये, इसका भी स्वरूप स्पष्ट प्राप्त होता है -<ref>शोध गंगा - इन्द्र बली मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/457712/8/08_chapter4.pdf वैदिक वाड़्मय में वास्तु-तत्त्वः एक समीक्षात्मक अध्ययन], सन २०१८, शोधकेन्द्र- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५६)।</ref><blockquote>पश्चिमे च महामात्यान्कोषपालांश्च कारुकान्। उत्तरे दण्डनाथांश्च नायक द्विज संकुलान्॥ पूर्वतः क्षत्रियान्दक्षे वैश्याञ्छूद्रांश्च पश्चिमे। दिक्षु वैद्यान्वाजिनश्च बलानि च चतुर्दिशम्॥ (अग्निपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A6%E0%A5%AC अग्निपुराण], अध्याय-१०६, श्लोक- ११-१२।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' शाला तथा अलिन्दक (बरामदा) आदि के भेद से चतुःशाला भवन दो सौ प्रकार के हो जाते हैं और उनमें से प्रत्येक के पचपन-पचपन भेद बतलाये गये हैं। | + | नगर के पूर्वी फाटक के दोनों ओर लक्ष्मी तथा कुबेर की मूर्तियों को आमने-सामने स्थापित करना चाहिये। इसके अनन्तर चारों वर्गों का वास नगर के किस-किस दिशा में होना चाहिये, इसका भी स्वरूप स्पष्ट प्राप्त होता है -<ref>शोध गंगा - इन्द्र बली मिश्रा, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/457712/8/08_chapter4.pdf वैदिक वाड़्मय में वास्तु-तत्त्वः एक समीक्षात्मक अध्ययन], सन २०१८, शोधकेन्द्र- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० १५६)।</ref><blockquote>पश्चिमे च महामात्यान्कोषपालांश्च कारुकान्। उत्तरे दण्डनाथांश्च नायक द्विज संकुलान्॥ पूर्वतः क्षत्रियान्दक्षे वैश्याञ्छूद्रांश्च पश्चिमे। दिक्षु वैद्यान्वाजिनश्च बलानि च चतुर्दिशम्॥ (अग्निपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A6%E0%A5%AC अग्निपुराण], अध्याय-१०६, श्लोक- ११-१२।</ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' शाला तथा अलिन्दक (बरामदा) आदि के भेद से चतुःशाला भवन दो सौ प्रकार के हो जाते हैं और उनमें से प्रत्येक के पचपन-पचपन भेद बतलाये गये हैं। नगर, मन्दिर, दुर्ग, पुष्कर और साम्परायिक, निवास, सदन, सद्म, क्षय, शितिलय- ये नगर के पर्याय है।<ref name=":1">महाराज भोजदेव, अनुवादक-डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://archive.org/details/hBFt_samarangan-sutradhar-vastu-shastra-bhavan-nivesh-part-1-with-deep-explanation-hi/page/95/mode/1up समरांगण सूत्रधार-वास्तु शास्त्र भवन निवेश], सन् १९६७, मेहरचंद लछमनदास पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली (पृ० 99)।</ref> |
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| | '''नगर-उद्यान॥ Nagara Udyana''' | | '''नगर-उद्यान॥ Nagara Udyana''' |
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| | रामायण एवं पुराणों में अनेक नगर-उद्यानों का वर्णन प्रसंगतः प्राप्त होता है। विविध उपवनों से युक्त द्वारका पुरी, नन्दन-वन से युक्त अमरावती, उद्यान एवं वापी से युक्त व्रज का रास-मण्डल, श्रीपुर का महा-उद्यान, नागकेसर से युक्त जमदग्नि पुरी, उद्यान युक्त वाराणसी, आम्रवन से युक्त अयोध्या तथा वन, उपवन आदि से सुशोभित लंकापुरी आदि उदाहरण प्राप्त होते हैं।<ref>प्रो० वाचस्पति उपाध्याय, [https://archive.org/details/jEmW_vastu-shastra-vimarsha-of-prof.-vachaspati-upadhyaya-with-prof.-prem-kumar-sharm/page/n144/mode/1up पत्रिका-वास्तुशास्त्रविमर्श-बाग एवं वाटिका], सन-२००७, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली (पृ० १२९)।</ref> | | रामायण एवं पुराणों में अनेक नगर-उद्यानों का वर्णन प्रसंगतः प्राप्त होता है। विविध उपवनों से युक्त द्वारका पुरी, नन्दन-वन से युक्त अमरावती, उद्यान एवं वापी से युक्त व्रज का रास-मण्डल, श्रीपुर का महा-उद्यान, नागकेसर से युक्त जमदग्नि पुरी, उद्यान युक्त वाराणसी, आम्रवन से युक्त अयोध्या तथा वन, उपवन आदि से सुशोभित लंकापुरी आदि उदाहरण प्राप्त होते हैं।<ref>प्रो० वाचस्पति उपाध्याय, [https://archive.org/details/jEmW_vastu-shastra-vimarsha-of-prof.-vachaspati-upadhyaya-with-prof.-prem-kumar-sharm/page/n144/mode/1up पत्रिका-वास्तुशास्त्रविमर्श-बाग एवं वाटिका], सन-२००७, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली (पृ० १२९)।</ref> |
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| | + | ==परिभाषा॥ Definition== |
| | + | जिसमें ऊंचे-ऊंचे प्रसाद हो, तथा जिनकी दीवारें, छत्त और मकान शिलाओं से निर्मित हो, उन्हें नगर नाम से जाना जाता था -<ref>संगीता, [https://ijfans.org/uploads/paper/7b9ecfe420a8db76a4c8104ac1d500c8.pdf महाभारत कालीन पूर्वी भारत के राज्य व नगर], सन २०२२, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ फूड एण्ड न्यूट्रिशनल साइंस (पृ० ६९५)।</ref> <blockquote>न गच्छति इति नगः, नग इव प्रसादाः सन्त्यत्र इति नगर। (शब्दकल्पद्रुम)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%9A%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%A8 शब्दकल्पद्रुम]</ref></blockquote>प्राचीन ग्रन्थों में राजधानी शब्द का प्रयोग प्रायः राजा की प्रधान नगरी के रूप में हुआ है। |
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| | ==नगर-व्यवस्था॥ Nagara Vyavastha== | | ==नगर-व्यवस्था॥ Nagara Vyavastha== |
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| | नगर-व्यवस्था के तीन प्रमुख अंग थे - 1. परिख (Moat), 2. प्राकार - नगर के चारों ओर बनी सुरक्षा दीवार (Rampart) 3. द्वार (Gate)। बौद्ध जातक ग्रंथो में पत्तन (Port Town), निगम (Market Town) एवं दुर्ग (Fort) का वर्णन है। | | नगर-व्यवस्था के तीन प्रमुख अंग थे - 1. परिख (Moat), 2. प्राकार - नगर के चारों ओर बनी सुरक्षा दीवार (Rampart) 3. द्वार (Gate)। बौद्ध जातक ग्रंथो में पत्तन (Port Town), निगम (Market Town) एवं दुर्ग (Fort) का वर्णन है। |
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| − | ==नगर विन्यास एवं भवन निवेश॥ Nagar Vinyasa evam Bhavan Nivesh== | + | == नगर विन्यास एवं भवन निवेश॥ Nagar Vinyasa evam Bhavan Nivesh== |
| | गृह में वास करने के कारण ही गृहस्थ कहा जाता है। एक निश्चित स्थान में स्थित रहकर त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ एवं काम) का सेवन करते हुए एक धार्मिक समाज का निर्माण करने वाला ही गृहस्थ कहलाता है -<ref>प्रो० देवीप्रसाद त्रिपाठी, [https://archive.org/details/bWMC_vastu-shastra-vimarsha-of-prof.-vachaspati-upadhyaya-with-prof.-prem-kumar-sharm/page/n3/mode/1up वास्तुशास्त्रविमर्श-सम्पादकीय,] सन २०१०, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नव देहली (पृ० ४)।</ref> <blockquote>त्रिवर्गसेवी सततं देवतानां च पूजनम्। कुर्यादहरहर्नित्यं नमस्येत् प्रयतः सुरान्॥ | | गृह में वास करने के कारण ही गृहस्थ कहा जाता है। एक निश्चित स्थान में स्थित रहकर त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ एवं काम) का सेवन करते हुए एक धार्मिक समाज का निर्माण करने वाला ही गृहस्थ कहलाता है -<ref>प्रो० देवीप्रसाद त्रिपाठी, [https://archive.org/details/bWMC_vastu-shastra-vimarsha-of-prof.-vachaspati-upadhyaya-with-prof.-prem-kumar-sharm/page/n3/mode/1up वास्तुशास्त्रविमर्श-सम्पादकीय,] सन २०१०, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नव देहली (पृ० ४)।</ref> <blockquote>त्रिवर्गसेवी सततं देवतानां च पूजनम्। कुर्यादहरहर्नित्यं नमस्येत् प्रयतः सुरान्॥ |
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| | विभागशीलः सततः क्षमायुक्तो दयालुकः। गृहस्थस्तु समाख्यातो न गृहेण गृही भवेत्॥ (कूर्मपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D-%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A4%9E%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%A6%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%BD%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 कूर्म पुराण], उत्तर भाग, अध्याय-15, श्लोक-24-25।</ref></blockquote>गुण सम्पन्न कोई भी गृहस्थ अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन बिना स्वगृह के सम्यक्तया नहीं कर सकता है। दूसरे के गृह में किये गये श्रौत-स्मार्त कर्म का फल कर्ता को प्राप्त नहीं होता है। वह सम्पूर्ण फल गृहेश को ही चला जाता है। अतः सर्वप्रथम गृहस्थ को यत्नपूर्वक गृह का निर्माण करना चाहिए। | | विभागशीलः सततः क्षमायुक्तो दयालुकः। गृहस्थस्तु समाख्यातो न गृहेण गृही भवेत्॥ (कूर्मपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D-%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%83/%E0%A4%AA%E0%A4%9E%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%A6%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%BD%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 कूर्म पुराण], उत्तर भाग, अध्याय-15, श्लोक-24-25।</ref></blockquote>गुण सम्पन्न कोई भी गृहस्थ अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन बिना स्वगृह के सम्यक्तया नहीं कर सकता है। दूसरे के गृह में किये गये श्रौत-स्मार्त कर्म का फल कर्ता को प्राप्त नहीं होता है। वह सम्पूर्ण फल गृहेश को ही चला जाता है। अतः सर्वप्रथम गृहस्थ को यत्नपूर्वक गृह का निर्माण करना चाहिए। |
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| | + | === पुराणों में नगर-निर्माण॥ City-building in the Puranas === |
| | + | पुराणों में राजवंशों के विस्तृत इतिहास के स्रोत तो हैं ही साथ में पौराणिक काल के नगरों और नागरिक जीवनका पूर्ण विकसित रूप दिखाई देता है। अग्निपुराण के १० अध्याय में नगरों के विषय में विशेष विवरण मिलता है। कहाँ, कैसे और किस विधि से समस्त प्रकार की सुविधाओं के साथ नगर का निर्माण होना चाहिए। पौराणिक काल का एक व्यवस्थित रूप में नगर विकास और नगरीय जीवन का सही इतिहास प्राप्त होता है।<ref>शोधकर्ता- ओंकार नाथ पाण्डेय, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/299608 पुराणों में नगर तथा नगर जीवन], सन १९९३, शोधकेन्द्र - महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी (पृ० २८)।</ref> जैसे - <blockquote>नगरादिक वास्तुञ्च वक्ष्ये राज्यादि वृद्धये। योजनं योजनार्द्धं वा तदर्ध स्थान माश्रयेत॥ (अग्निपुराण)</blockquote>भाषार्थ - मैं राज्य आदि की अभिवृद्धि के लिए नगर वास्तु का वर्णन करता हूं। नगर के निर्माण के लिए एक योजन या आधी योजन भूमि ग्रहण करें। |
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| | + | ===समरांगण सूत्र एवं नगर निवेश॥ Samarangan Sutradhar and Nagar Nivesha === |
| | + | समरांगणसूत्रधार राजा भोज द्वारा रचित भारतीय वास्तुशास्त्र से संबंधित महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। जिस नगर में राजा रहता है उसको राजधानी कहते हैं और अन्य नगर शाख-नगर की संज्ञाओं से कहे जाते हैं। शाखा-नगर को ही नगरोपम कर्वट कहा जाता है। कुछ गुणों से कम कर्वट को ही निगम कहते हैं। निगम से कम ग्राम, ग्राम से कम गृह होता है। गोकुलों के निवास को गोष्ठ कहा जाता है और छोटे गोष्ठ को गोष्ठक कहते हैं। राजाओं का जहां पर उपस्थान होता है उसको पत्तन कहते हैं। जो पत्तन बहुत विस्तृत और वैश्यों से युक्त होता है उस पत्तन को पुटभेदन कहते हैं। जहां पर पत्तों, शाखाओं, तृणों एवं उपलों से कुटिया बनाकर पुलिन्द लोग रहते हैं, उसको पल्ली कहते हैं और छोटी पल्ली को पल्लिका कहते हैं। नगर को छोड कर और सब जनपद कहलाता है और नगर को मिलाकर सम्पूर्ण राष्ट्र को देश अथवा मंडल कहते हैं।<ref name=":1" /> |
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| | ===मानसार नगर व्यवस्था॥ Manasara Nagar Vyavastha=== | | ===मानसार नगर व्यवस्था॥ Manasara Nagar Vyavastha=== |
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| | #बलिकर्मविधान - Sacrificial rituals | | #बलिकर्मविधान - Sacrificial rituals |
| | #ग्राम-नगर विन्यास - Layout and planning of Village and City | | #ग्राम-नगर विन्यास - Layout and planning of Village and City |
| − | #भूमि-विन्यास - Layout of the plot | + | # भूमि-विन्यास - Layout of the plot |
| | #गोपुर-विधान - Construction of Palace | | #गोपुर-विधान - Construction of Palace |
| | #मंडप-विधान - Construction of Temples | | #मंडप-विधान - Construction of Temples |
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| | 5. वर्धकी (Wood cutter) | | 5. वर्धकी (Wood cutter) |
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| − | ===अर्थशास्त्र में नगर-योजना॥ Town Planning in Arthashastra=== | + | ===अर्थशास्त्र में नगर-योजना॥ Town Planning in Arthashastra === |
| | [[File:अर्थशास्त्र में नगर प्रकार .jpg|thumb|320x320px|ग्राम आधारित - नगर संज्ञा]] | | [[File:अर्थशास्त्र में नगर प्रकार .jpg|thumb|320x320px|ग्राम आधारित - नगर संज्ञा]] |
| − | आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में नगरों की सुरक्षा के लिए जो उपाय सुझाए हैं उनके अनुरूप ही तद्युगीन नगर बसाए गए। नगर के विविध हिस्सों में कोषगृह, कोष्ठागार, पण्यगृह, कुप्यगृह (अन्नागार), शस्त्रागार एवं कारागार जैसे महत्वपूर्ण भवनों के निर्माण का सन्दर्भ भी अर्थशास्त्र में मिलता है। कौटिल्य ने राजधानी नगर के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर नाना प्रकार के दुर्गों के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर नाना प्रकार के दुर्गों के निर्माण का विधान किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार - | + | आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में नगरों की सुरक्षा के लिए जो उपाय सुझाए हैं उनके अनुरूप ही तद्युगीन नगर बसाए गए।<ref>डॉ० विद्याधर , [https://archive.org/details/bharatiya-vastu-shastra-ka-itihas-dr.-vidyadhar/page/78/mode/2up?view=theater&ui=embed&wrapper=false भारतीय वास्तुशास्त्र का इतिहास], सन २०१०, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली (पृ० ७८)।</ref> नगर के विविध हिस्सों में कोषगृह, कोष्ठागार, पण्यगृह, कुप्यगृह (अन्नागार), शस्त्रागार एवं कारागार जैसे महत्वपूर्ण भवनों के निर्माण का सन्दर्भ भी अर्थशास्त्र में मिलता है। कौटिल्य ने राजधानी नगर के निर्माण के सम्बन्ध में तथा शत्रु से उसकी रक्षा करने के लिए नगर सीमा के चारों ओर नाना प्रकार के दुर्गों के निर्माण का विधान किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार - |
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| | + | अष्टशतग्राम्या मध्ये स्थानीयं, चतुश्शतग्राम्या द्रोणमुखं, द्विशतग्राम्याः खार्वटिकं, दशग्रामीसङ्ग्रहेण सङ्ग्रहणं स्थापयेत्॥ (अर्थशास्त्र)<ref>आचार्य कौटिल्य, अनुवादक-वाचस्पति गैरोला, [https://archive.org/details/arthasastraofkautilyachanakyasutravachaspatigairolachowkambha_202002/page/n2/mode/1up अर्थशास्त्र-अनुवाद सहित], सन १९८४, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी (पृ० ७७)। </ref> |
| | *ग्राम की लंबाई 1-2 क्रोश (कोस) होनी चाहिए। | | *ग्राम की लंबाई 1-2 क्रोश (कोस) होनी चाहिए। |
| | *800 ग्रामों के केंद्र में एक स्थानीय (Distt. Town) होना चाहिए। | | *800 ग्रामों के केंद्र में एक स्थानीय (Distt. Town) होना चाहिए। |
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| | राष्ट्रं खेटमथ ग्रामं पश्यतस्तौ पुरं च यत्। तत्रारोग्यार्थसंसिद्धी प्रजाविजयमादिशेत्॥ (समरांगणसूत्रधार)<ref>महाराज भोजदेव, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.369658/page/n95/mode/1up समरांगणसूत्रधार-पुरनिवेश अध्याय], सन-१९२४, सेंट्रल लाईब्रेरी, बरौदा, अध्याय १०, श्लोक-१०४-१०५ (पृ० ४७)।</ref></blockquote>मत्स्य पुराण के अनुसार देव मंदिर का निर्माण कराने वाले को या देव मंदिर का सुधार, रख रखाब पुनरुद्धार मरम्मत इत्यादि कार्य करने वालों को जब तक उस मंदिर का अस्तित्त्व रहता है तब तक उस व्यक्ति को कुल परिवार और पूर्वजों सहित भगवान श्री हरि विष्णु जी के लोक में वास करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। | | राष्ट्रं खेटमथ ग्रामं पश्यतस्तौ पुरं च यत्। तत्रारोग्यार्थसंसिद्धी प्रजाविजयमादिशेत्॥ (समरांगणसूत्रधार)<ref>महाराज भोजदेव, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.369658/page/n95/mode/1up समरांगणसूत्रधार-पुरनिवेश अध्याय], सन-१९२४, सेंट्रल लाईब्रेरी, बरौदा, अध्याय १०, श्लोक-१०४-१०५ (पृ० ४७)।</ref></blockquote>मत्स्य पुराण के अनुसार देव मंदिर का निर्माण कराने वाले को या देव मंदिर का सुधार, रख रखाब पुनरुद्धार मरम्मत इत्यादि कार्य करने वालों को जब तक उस मंदिर का अस्तित्त्व रहता है तब तक उस व्यक्ति को कुल परिवार और पूर्वजों सहित भगवान श्री हरि विष्णु जी के लोक में वास करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। |
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| − | कौटिल्य का नगर नियोजन न केवल भौतिक संरचना तक सीमित था, अपितु उसमें सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय, धार्मिक और नैतिक पक्षों का गहरा समावेश था। कौटिल्य का यह दृष्टिकोण आज के स्मार्ट सिटी मॉडल की नींव रखने वाला एक समग्र एवं दूरदर्शी विचार है। | + | कौटिल्य का नगर नियोजन न केवल भौतिक संरचना तक सीमित था, अपितु उसमें सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय, धार्मिक और नैतिक पक्षों का गहरा समावेश था। कौटिल्य का यह दृष्टिकोण आज के स्मार्ट सिटी मॉडल की नींव रखने वाला एक समग्र एवं दूरदर्शी विचार है।<ref>हृषिकेश प्रधान, [https://www.anantaajournal.com/archives/2023/vol9issue1/PartD/9-1-26-744.pdf प्राचीन भारत में नगर योजना], सन २०२३, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ संस्कृत रिसर्च (पृ० १९९)।</ref> |
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| | + | ==नगर के प्रमुख प्रकार॥ Nagar ke Pramukh Prakara== |
| | + | प्राचीन भारत में नगर नियोजन की परंपरा विभिन्न ग्रंथों जैसे कौटिल्य का अर्थशास्त्र, शुक्रनीतिसार, तथा पुराणों में प्राप्त होती है। वास्तुशास्त्र की विभिन्न शाखाएँ नगरों की स्थापत्यकला, सामाजिक व्यवस्था तथा प्रशासनिक योजनाओं को प्रकाशित करती हैं। इन ग्रंथों के अनुसार प्राचीन नगरों को उनके आकार, रूप और उद्देश्य के आधार पर विभाजित किया गया है। वास्तुशास्त्र के अनुसार नगरों के निम्नलिखित भेद प्राप्त होते हैं - 1. ज्येष्ठ नगर 2. मध्यम नगर 3. कनिष्ठ नगर। इनको इस प्रकार परिभाषित किया गया है - |
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| | + | #'''राजधानी (Rajdhani) -''' राजा का मुख्य निवास स्थान राजधानी। |
| | + | #'''शाखानगर (Sakhanagra) -''' पुर को छोड़कर अन्य सभी नगरों की श्रेणी को सखानगर कहा जाता है। इसके अंतर्गत - |
| | + | #*'''कर्वट (Karvata) -''' छोटा नगर |
| | + | #*'''निग्म (Nigma) -''' कर्वट से भी छोटा |
| | + | #*'''ग्राम (Grama): -'''निग्म से भी छोटा, यानी गाँव |
| | + | #'''विशेष नगर (Special Towns) -''' |
| | + | #*'''पट्टन (Pattana):''' राजा का द्वितीय निवास स्थान |
| | + | #*'''पुतभेदना (Putabhedana):''' यह पट्टन के समान है, परंतु यह एक वाणिज्यिक केंद्र (व्यापारिक नगर) के रूप में भी कार्य करता है। |
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| | + | अग्निपुराण के ३६३ अध्याय में नगर के अन्य सात नाम इस प्रकार दिये गये हैं। पूः (पुर), पुरी, नगरी, पत्तन, पुटभेदन, स्थानीय, निगम ये सात नगर के नाम हैं। मूल नगर (राजधानी) से भिन्न पुर होता है उसे शाखा नगर कहते हैं - <blockquote>पूःस्त्री पुरीनगर्य्यो वा पत्तनं पुटभेदनम्। स्थानीयं निगमोऽन्यत्तु यन्मूलनगरात्पुरम्॥ (अग्निपुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9%E0%A5%AC%E0%A5%A9 अग्निपुराण], अध्याय - ३६३, श्लोक - ०४।</ref> </blockquote>भाषार्थ - 1 राजधानी, 2 पत्तन, 3 पुटभेदन, 4 निगम, 5 खेट, 6 कर्वट और 7 ग्राम ये नगर के प्रकार हैं। |
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| | + | '''राजधानी''' |
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| | + | देश विदेश अथवा मण्डल विशेष के कतिपय समुन्नत नगरों में से एक नगर को राजधानी चुना जाता है। शासन सौविध्य अथवा अनुकूल स्थिति ही इसके कारण होते हैं। जिस नगर में राजा रहता है अथवा शासन पीठ होता है उसे राजधानी कहते हैं। वर्तमान में भी यही परंपरा है। मयमतम् शिल्पशास्त्र में राजधानी का बडा सुन्दर विवेचन है जिसमें प्राचीन राजपीठिय नगरों की सुन्दर झलक देखने को मिलती है। जिस नगर की आबादी पश्चिम तथा उत्तर में गहन हो तथा जिसकी समन्तात दीवारें परिखाओं एवं प्राकारों से परिवृत हो। |
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| | + | '''पत्तन''' |
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| | + | जिस नगर में राजाओं का उपस्थान हो अर्थात ग्रीष्मकालीन एवं शीतकालीन राज-पीठ हों, उस नगर को पत्तन कहते हैं। मानसार के अनुसार पत्तन एक प्रकार का बृहत वाणिज्य बन्दरगाह है जो किसी सागर या नदी के किनारे स्थित होता है। |
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| | + | '''पुटभेदन''' |
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| | + | जिस नगर में राजा के नौकर रहते हैं वह स्थान राजा का उपस्थान कहा जाता है। वही उपस्थान यदि व्यवसाय या वाणिज्य का केन्द्र हो तो पुटभेदन नाम से पुकारा जाता है। |
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| | + | '''निगम''' |
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| | + | इस नगर की सर्व प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें विशेषकर कलाकार, कारीगर, शिल्पी लोग रहते हैं। यह बडे ग्राम एवं बडे नगर के मध्य की वसति वाला नगर कहलाता है। निगम नगर के विकास की परम्परा में इसकी संज्ञा निगम का महत्व है। निगम का शब्दार्थ तो व्यापार मार्ग है। |
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| | + | '''खेट''' |
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| | + | खेट के सम्बन्ध में यह निर्देश प्राप्त होते है कि नगर, खेट एवं ग्राम इन तीनों के निवेश में खेट बीच का है नगर से छोटा परन्तु ग्राम से बडा। अत एव नगर के विष्कम्भ के आधे के प्रमाण से खेट का विष्कम्भ प्रतिपादित किया गया है। नगर से एक योजन की दूरी पर खेट का निवेश अभीष्ट है। खेट एक प्रकार छोटा नगर होता है जो कि समतल भूमि पर किसी सरिता तट पर स्थित होता है अथवा वन प्रदेश में भी इसकी स्थिति अनुकूल है यदि छोटी-छोटी पहाडियाँ समीपस्थ है। इसके<ref>अभय कात्यायन, [https://archive.org/details/vishwakarma-prakash/page/n7/mode/1up विश्वकर्म प्रकाश], सन २०१७, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी (पृ० १४)।</ref> चारों ओर ग्राम होते हैं। दो ग्रामों के मध्य में अथवा ग्राम समूहों के मध्य में एक समृद्ध नगर को खेट के नाम से पुकारा जाता है। |
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| | + | ===रामायण के प्रमुख नगर॥ Ramayana ke Pramukha Nagara=== |
| | + | रामायण में वास्तुशास्त्र का बृहद उल्लेख प्राप्त होता है। |
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| | + | ===महाभारत के प्रमुख नगर॥ Mahabharata ke Pramukha Nagara=== |
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| | + | *'''हस्तिनापुर (Hastinapur)''' |
| | + | *'''इंद्रप्रस्थ (Indraprastha)''' |
| | + | *'''कुरुक्षेत्र (Kurukshetra)''' |
| | + | *'''स्वर्णप्रस्थ (Svarnaprastha)''' |
| | + | *'''पानप्रस्थ (Panaprastha)''' |
| | + | *'''व्याघ्रप्रस्थ (Vyaghraprastha)''' |
| | + | *'''तिलप्रस्थ (Tilaprastha)''' |
| | + | *'''पांचाल (Panchal)''' |
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| | ==सारांश॥ Summary== | | ==सारांश॥ Summary== |
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| | राजमार्ग पक्का होना चाहिए। राजमार्ग की चौडाई नगर के अनुसार २४, २० या १६ हस्त (अर्थात ३६, ३० या २४ फीट) होनी चाहिए। समरांगणसूत्रधार के अनुसार आदर्श नगर में कम से कम २ महारथ्याएँ (बडी सडकें) भी अवश्य होनी चाहिए। इनकी चौडाई नगर के अनुसार १८, १५ या १२ फीट होनी चाहिए।<ref name=":0" /> | | राजमार्ग पक्का होना चाहिए। राजमार्ग की चौडाई नगर के अनुसार २४, २० या १६ हस्त (अर्थात ३६, ३० या २४ फीट) होनी चाहिए। समरांगणसूत्रधार के अनुसार आदर्श नगर में कम से कम २ महारथ्याएँ (बडी सडकें) भी अवश्य होनी चाहिए। इनकी चौडाई नगर के अनुसार १८, १५ या १२ फीट होनी चाहिए।<ref name=":0" /> |
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| − | * प्रत्येक यानमार्ग के दोनों ओर जंघापथ (फुटपाथ) अवश्य होने चाहिए। इनकी चौडाई ५ फीट हो। | + | *प्रत्येक यानमार्ग के दोनों ओर जंघापथ (फुटपाथ) अवश्य होने चाहिए। इनकी चौडाई ५ फीट हो। |
| − | * जल-निकासी के लिए नगर में नालियों की व्यवस्था होनी चाहिए। ये नालियाँ ३ फीट या डेढ फुट चौडी हों। इनको सदा ढककर रखा जाए। | + | *जल-निकासी के लिए नगर में नालियों की व्यवस्था होनी चाहिए। ये नालियाँ ३ फीट या डेढ फुट चौडी हों। इनको सदा ढककर रखा जाए। |
| | + | नगर-निवेश प्रक्रिया का अगला महत्वपूर्ण अंग है - मार्ग विन्यास। वास्तव में, किसी नगर की मार्ग योजना के माध्यम से ही उसे विभिन्न आवासीय खण्डों में बाँटा जा सकता है। किस मार्ग के किन-किन स्थानों पर कौन-कौन से भवन स्थित होंगे, यह मार्ग विन्यास के बाद ही निर्धारित हो सकता है। नगरों की मार्ग-योजना इस बात पर भी निर्भर थी कि, अमुक नगर किस प्रकार का है, अर्थात वह राजधानी है या व्यापारिक नगर, अथवा एक सामान्य नगर। |
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| | ==उद्धरण॥ References== | | ==उद्धरण॥ References== |