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| | त्रिप्रश्नाधिकार सिद्धान्त एवं करण ग्रंथों का यह एक महत्वपूर्ण प्रकरण है। इसके अंतर्गत तीन प्रमुख प्रश्नों के समाधान हैं , इसलिए इसे त्रिप्रश्नाधिकार कहा जाता है। वे तीनों प्रश्न हैं - दिक् , देश और काल। इनमें दिक्-देश का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। एक के ज्ञान में दूसरा सहायक होता है परंतु काल इनसे भिन्न है। कई अन्य शास्त्रों ने केवल देश और काल दो को ही स्वीकार किया है। ज्योतिष के अनुसार देश के साथ दिक् का संबंध होते हुए भी देश और दिक् में भेद माना है तथा दोनों के साधन का मार्ग अलग-अलग बतलाया है। विना दिक् ज्ञान के देशज्ञान संभव नहीं और विना देश के दिक् का कोई उपयोग नहीं। अतः ज्योतिषशास्त्र ने दिक्-देश और काल तीनों की अलग-अलग सत्ता स्वीकार की है। इन तीनों विषयों का विवेचन इस लेख में किया गया है। | | त्रिप्रश्नाधिकार सिद्धान्त एवं करण ग्रंथों का यह एक महत्वपूर्ण प्रकरण है। इसके अंतर्गत तीन प्रमुख प्रश्नों के समाधान हैं , इसलिए इसे त्रिप्रश्नाधिकार कहा जाता है। वे तीनों प्रश्न हैं - दिक् , देश और काल। इनमें दिक्-देश का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। एक के ज्ञान में दूसरा सहायक होता है परंतु काल इनसे भिन्न है। कई अन्य शास्त्रों ने केवल देश और काल दो को ही स्वीकार किया है। ज्योतिष के अनुसार देश के साथ दिक् का संबंध होते हुए भी देश और दिक् में भेद माना है तथा दोनों के साधन का मार्ग अलग-अलग बतलाया है। विना दिक् ज्ञान के देशज्ञान संभव नहीं और विना देश के दिक् का कोई उपयोग नहीं। अतः ज्योतिषशास्त्र ने दिक्-देश और काल तीनों की अलग-अलग सत्ता स्वीकार की है। इन तीनों विषयों का विवेचन इस लेख में किया गया है। |
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| | ===दिक् साधन की विधि=== | | ===दिक् साधन की विधि=== |
| − | अभी तक हमने दिशाओं को पूर्वादि भेद से दश प्रकार की होती हैं। जिनका उपयोग किसी भी एक स्थान से दूसरे स्थान का निर्धारण करने में किया जाता है। वर्तमान समाज वैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टि से अति उन्नत हो गया है अतः आजकल सभी लोग कम्पास नामक या अन्य किसी आधुनिक यन्त्र से पूर्वादि दिशाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं, परन्तु पुरातन काल में जब विज्ञान इतना उन्नत नहीं था तथा इससे सम्बन्धित सुविधाएँ सबके लिए सुलभ नहीं थी तब भी हमारे ऋषि-महर्षि एवं आचार्यगण ग्रह-नक्षत्रादि के वेध के द्वारा अथवा सूर्य की छाया के द्वारा पूर्वादि दिशाओं का ज्ञान करते थे। अतः हमारे प्राचीन शास्त्रों में दिग् ज्ञान की जो विधियाँ महत्त्वपूर्ण बतलायी गई हैं उनका हम उपस्थापन यहाँ कर रहे हैं- | + | अभी तक हमने दिशाओं को पूर्वादि भेद से दश प्रकार की होती हैं। जिनका उपयोग किसी भी एक स्थान से दूसरे स्थान का निर्धारण करने में किया जाता है। वर्तमान समाज वैज्ञानिक एवं सामाजिक दृष्टि से अति उन्नत हो गया है अतः आजकल सभी लोग कम्पास नामक या अन्य किसी आधुनिक यन्त्र से पूर्वादि दिशाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं, परन्तु पुरातन काल में जब विज्ञान इतना उन्नत नहीं था तथा इससे सम्बन्धित सुविधाएँ सबके लिए सुलभ नहीं थी तब भी हमारे ऋषि-महर्षि एवं आचार्यगण ग्रह-नक्षत्रादि के वेध के द्वारा अथवा सूर्य की छाया के द्वारा पूर्वादि दिशाओं का ज्ञान करते थे। अतः हमारे प्राचीन शास्त्रों में दिग् ज्ञान की जो विधियाँ महत्त्वपूर्ण बतलायी गई हैं उनका हम उपस्थापन यहाँ कर रहे हैं-<ref>डॉ० अनिल कुमार पोरवाल, [https://lkouniv.ac.in/site/writereaddata/siteContent/202004132156500668Anil_Kumar_Porwa_jyotir_Vastu_Shastra_me_Shukshma_Dikgyan.pdf वास्तु-शास्त्र में सूक्ष्म दिक-ज्ञान की उपादेयता], ज्योतिर्विज्ञान विज्ञान विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ (पृ० ५)।</ref> |
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| | विदित हो कि दिग्ज्ञान की दो विधियाँ शास्त्रों में वर्णित हैं, जिसमें प्रथम स्थूल दिग्ज्ञान विधि है जिसके द्वारा सामान्य कार्य व्यवहार हेतु सरल विधियों से दिग्ज्ञान किया जाता है तथा द्वितीय दिग्ज्ञान की विधि सूक्ष्म होती है जिसमें श्रमपूर्वक गणित व्यवहार एवं सूक्ष्म कार्यों के सम्पादन हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान होता है। आचार्यों ने सिद्धान्त ग्रन्थों में स्थूल एवं गणितीय प्रयोग हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान विधि का विचार पूर्वक प्रतिपादन किया है।<ref name=":0" /> | | विदित हो कि दिग्ज्ञान की दो विधियाँ शास्त्रों में वर्णित हैं, जिसमें प्रथम स्थूल दिग्ज्ञान विधि है जिसके द्वारा सामान्य कार्य व्यवहार हेतु सरल विधियों से दिग्ज्ञान किया जाता है तथा द्वितीय दिग्ज्ञान की विधि सूक्ष्म होती है जिसमें श्रमपूर्वक गणित व्यवहार एवं सूक्ष्म कार्यों के सम्पादन हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान होता है। आचार्यों ने सिद्धान्त ग्रन्थों में स्थूल एवं गणितीय प्रयोग हेतु सूक्ष्म दिग्ज्ञान विधि का विचार पूर्वक प्रतिपादन किया है।<ref name=":0" /> |
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| | + | ज्ञात्वा पूर्वं धरित्री दहनखननसम्प्लावनैः संविशोध्य, पश्चात्कृत्वा समानां मुकुरजठरवद्वाचायित्वाद्विजेन्द्रेः। |
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| − | ज्ञात्वा पूर्वं धरित्री दहनखननसम्प्लावनैः संविशोध्य, पश्चात्कृत्वा समानां मुकुरजठरवद्वाचायित्वाद्विजेन्द्रेः।<blockquote>पुण्याहं कूर्मशेषो क्षितिमपि कुसुमाद्यैः समाराध्य शुद्धे, वारे व्यतिथ्यां च कुर्मात् सुरपतिककुभः साधनं मण्डपार्थम् ॥(बृ०वा०मा०अ०दि०सा०श्लो०सं०३) </blockquote>
| + | पुण्याहं कूर्मशेषो क्षितिमपि कुसुमाद्यैः समाराध्य शुद्धे, वारे व्यतिथ्यां च कुर्मात् सुरपतिककुभः साधनं मण्डपार्थम्॥ (बृ०वा०मा०अ०दि०सा०श्लो०सं०३) |
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| | ===स्थूल दिक् साधन=== | | ===स्थूल दिक् साधन=== |
| | <blockquote>यत्रोदितोsर्कः किल तत्र पूर्वा तत्रापरा यत्र गतः प्रतिष्ठाम् । तन्मत्स्यतोsन्ये च ततोsखिलानामुदकस्थितो मेरुरितिप्रसिद्धम् ॥</blockquote>भास्कराचार्य के इस वचन के अनुसार सभी स्थानों पर जिस दिशा में सूर्य का उदय होता है वह उस स्थान की पूर्व दिशा तथा जिस दिशा में सूर्य का अस्त होता है वह पश्चिम दिशा होती है। इस प्रकार पूर्व और पश्चिम दिशा का सूर्योदय एवं सूर्यास्त देखकर निर्धारण करने के बाद पुनः पूर्व और पश्चिम बिन्दुओं की सहायता से पूर्वाभिमुख खडे होकर वाम भाग द्वारा उत्तर और दक्षिण भाग द्वारा दक्षिण दिशा का निर्धारण किया जाता है। | | <blockquote>यत्रोदितोsर्कः किल तत्र पूर्वा तत्रापरा यत्र गतः प्रतिष्ठाम् । तन्मत्स्यतोsन्ये च ततोsखिलानामुदकस्थितो मेरुरितिप्रसिद्धम् ॥</blockquote>भास्कराचार्य के इस वचन के अनुसार सभी स्थानों पर जिस दिशा में सूर्य का उदय होता है वह उस स्थान की पूर्व दिशा तथा जिस दिशा में सूर्य का अस्त होता है वह पश्चिम दिशा होती है। इस प्रकार पूर्व और पश्चिम दिशा का सूर्योदय एवं सूर्यास्त देखकर निर्धारण करने के बाद पुनः पूर्व और पश्चिम बिन्दुओं की सहायता से पूर्वाभिमुख खडे होकर वाम भाग द्वारा उत्तर और दक्षिण भाग द्वारा दक्षिण दिशा का निर्धारण किया जाता है। |
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| | ज्योतिष शास्त्र में दिक्साधन करने हेतु शंकु का बहुत महत्त्व है। अथर्ववेद के उपवेद रूप में प्रसिद्ध वास्तुशास्त्र में भी दिग्ज्ञान के शुद्धिकरण हेतु शंकु के प्रयोग का वर्णन भी उपलब्ध होता है। ग्राम-नगर-पुर-गृह आदि के निर्माण में शंकु का पर्याप्त महत्त्व रहता है। उपर्युक्त बातों को जानकर हम यह भी कह सकते हैं कि दिक् साधन वास्तुशास्त्र का एक प्रयोजन है। | | ज्योतिष शास्त्र में दिक्साधन करने हेतु शंकु का बहुत महत्त्व है। अथर्ववेद के उपवेद रूप में प्रसिद्ध वास्तुशास्त्र में भी दिग्ज्ञान के शुद्धिकरण हेतु शंकु के प्रयोग का वर्णन भी उपलब्ध होता है। ग्राम-नगर-पुर-गृह आदि के निर्माण में शंकु का पर्याप्त महत्त्व रहता है। उपर्युक्त बातों को जानकर हम यह भी कह सकते हैं कि दिक् साधन वास्तुशास्त्र का एक प्रयोजन है। |
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| − | - शंकु मुख्यतया लकडी-लोहे-धातु आदि से निर्मित एक दण्डिका होती है। जिसकी लम्बाई १२, १८ या २४ अंगुल की तथा उसके आधार की चौडाई ४,५ अथवा ६ अंगुल की हो सकती है। इसी प्रकार यह दण्डिका सूची के आकार की होती है। जो स्थान अथवा देश या क्षेत्र जहां हमें निर्माण का कार्य करना
| + | शंकु मुख्यतया लकडी-लोहे-धातु आदि से निर्मित एक दण्डिका होती है। जिसकी लम्बाई १२, १८ या २४ अंगुल की तथा उसके आधार की चौडाई ४,५ अथवा ६ अंगुल की हो सकती है। इसी प्रकार यह दण्डिका सूची के आकार की होती है। जो स्थान अथवा देश या क्षेत्र जहां हमें निर्माण का कार्य करना |
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| | == दिक्साधन की आधुनिक विधि == | | == दिक्साधन की आधुनिक विधि == |
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| | == दिक् साधन का महत्व == | | == दिक् साधन का महत्व == |
| − | विभिन्न शास्त्रकार दिशाओं के महत्व को समझाते हुये कहते हैं कि कोई भी निर्माण जो मानवों द्वारा किया जाता है जैसे भवन, राजाप्रसाद, द्वार, बरामदा, यज्ञमण्डप आदि में दिक्शोधन करना प्रथम व अपरिहार्य है क्योंकि दिक्भ्रम होने पर यदि निर्माण हो तो कुल का नाश होता है।<ref name=":0">योगेंद्र कुमार शर्मा, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80829 दिक् की अवधारणा एवं भेद], सन् 2021, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २९४)।</ref><blockquote>प्रसादे सदनेsलिन्दे द्वारे कुण्डे विशेषताः। दिङ्मूढे कुलनाशः स्यात्तस्मात् संसाधयेद्दिशः॥(वास्तुरत्नावली-३/१)</blockquote>वस्तुतः प्राचीन ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर आज हर कोई समझदार व्यक्ति दिग् ज्ञान से परिचित हैं। लगभग हर व्यक्ति पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा का ज्ञान रखता है परन्तु फिर भी हमारे शास्त्रों में इन चार दिशाओं के अतिरिक्त भी अन्य चार दिशाओं का भी वर्णन विद्यमान है, जिनका नाम क्रमशः ईशान, आग्नेय, नैरृत्य व पश्चिम उत्तर के मध्य वायव्य तथा उत्तर पूर्व के मध्य ईशान दिशा है। इन चारों को विदिशा अथवा कोणीय दिशा के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार से क्रमशः प्रदक्षिण क्रम अर्थात् सृष्टिक्रम या दक्षिणावर्त क्रमशः पूर्व-आग्नेय-दक्षिण-नैरृत्य-पश्चिम-वायव्य-उत्तर ईशान आदि दिशाओं का उल्लेख हमें शास्त्रों में मिलता है। | + | विभिन्न शास्त्रकार दिशाओं के महत्व को समझाते हुये कहते हैं कि कोई भी निर्माण जो मानवों द्वारा किया जाता है जैसे भवन, राजाप्रसाद, द्वार, बरामदा, यज्ञमण्डप आदि में दिक्शोधन करना प्रथम व अपरिहार्य है क्योंकि दिक्भ्रम होने पर यदि निर्माण हो तो कुल का नाश होता है।<ref name=":0">योगेंद्र कुमार शर्मा, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80829 दिक् की अवधारणा एवं भेद], सन् 2021, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २९४)।</ref><blockquote>प्रसादे सदनेsलिन्दे द्वारे कुण्डे विशेषताः। दिङ्मूढे कुलनाशः स्यात्तस्मात् संसाधयेद्दिशः॥ (वास्तुरत्नावली ३/१)</blockquote>वस्तुतः प्राचीन ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान के आधार पर आज हर कोई समझदार व्यक्ति दिग् ज्ञान से परिचित हैं। लगभग हर व्यक्ति पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा का ज्ञान रखता है परन्तु फिर भी हमारे शास्त्रों में इन चार दिशाओं के अतिरिक्त भी अन्य चार दिशाओं का भी वर्णन विद्यमान है, जिनका नाम क्रमशः ईशान, आग्नेय, नैरृत्य व पश्चिम उत्तर के मध्य वायव्य तथा उत्तर पूर्व के मध्य ईशान दिशा है। इन चारों को विदिशा अथवा कोणीय दिशा के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार से क्रमशः प्रदक्षिण क्रम अर्थात् सृष्टिक्रम या दक्षिणावर्त क्रमशः पूर्व-आग्नेय-दक्षिण-नैरृत्य-पश्चिम-वायव्य-उत्तर ईशान आदि दिशाओं का उल्लेख हमें शास्त्रों में मिलता है। |
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| | == सारांश == | | == सारांश == |