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| | राजप्रासाद संबंधी प्रमाण, मान, संस्थान, संख्यान, उच्छ्राय आदि लक्षणों से लक्षित एवं प्राकार-परिखा-गुप्त, गोपुर, अम्बुवेश्म, क्रीडाराम, महानस, कोष्ठागार, आयुधस्थान, भाण्डागार, व्यायामशाला, नृत्यशाला, संगीतशाला, स्नानगृह, धारागृह, शय्यागृह, वासगृह, प्रेक्षा (नाट्यशाला), दर्पणगृह, दोलागृह, अरिष्टगृह, अन्तःपुर तथा उसके विभिन्न शोभा-सम्भार, कक्षाएँ, अशोकवन, लतामण्डप, वापी, दारु गिरि, पुष्पवीथियाँ, राजभवन की किस-किस दिशा में पुरोहित, सेनानी, जनावास, शालभवन, भवनाग, भवनद्रव्य, विशिष्ट भवन, चुनाई, भूषा, दारुकर्म, इष्टकाकर्म, द्वारविधान, स्तम्भ लक्षण, छाद्यस्थापन आदि के साथ वास्तुपदों की विभिन्न योजनाएँ, मान एवं वेध आदि। | | राजप्रासाद संबंधी प्रमाण, मान, संस्थान, संख्यान, उच्छ्राय आदि लक्षणों से लक्षित एवं प्राकार-परिखा-गुप्त, गोपुर, अम्बुवेश्म, क्रीडाराम, महानस, कोष्ठागार, आयुधस्थान, भाण्डागार, व्यायामशाला, नृत्यशाला, संगीतशाला, स्नानगृह, धारागृह, शय्यागृह, वासगृह, प्रेक्षा (नाट्यशाला), दर्पणगृह, दोलागृह, अरिष्टगृह, अन्तःपुर तथा उसके विभिन्न शोभा-सम्भार, कक्षाएँ, अशोकवन, लतामण्डप, वापी, दारु गिरि, पुष्पवीथियाँ, राजभवन की किस-किस दिशा में पुरोहित, सेनानी, जनावास, शालभवन, भवनाग, भवनद्रव्य, विशिष्ट भवन, चुनाई, भूषा, दारुकर्म, इष्टकाकर्म, द्वारविधान, स्तम्भ लक्षण, छाद्यस्थापन आदि के साथ वास्तुपदों की विभिन्न योजनाएँ, मान एवं वेध आदि। |
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| − | ==स्थापत्यवेद एवं नगर निर्माण== | + | ==आवासीय भवन एवं कक्ष विन्यास== |
| − | स्थापत्यवेद में नगरविन्यास, ग्रामविन्यास, जनभवन, राजभवन, देवभवन आदि के निर्माण से संबंधित वर्णन को तो सब जानते ही हैं, उसके साथ-साथ शय्यानिर्माण, आसनरचना, आभूषणनिर्माण, आयुधनिर्माण, अनेक प्रकार के चित्र-निर्माण, प्रतिमारचना, अनेक प्रकार के यन्त्रों की रचना तथा अनेक प्रकार के स्थापत्यकौशल का वर्णन स्थापत्यवेद तथा उसी से उद्भूत वास्तुशास्त्र के विविध ग्रन्थों में प्राप्त होता है।<ref>डॉ० देशबन्धु, [https://uou.ac.in/sites/default/files/slm/DVS-101.pdf वास्तु शास्त्र का स्वरूप व परिचय], सन २०२१, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी (पृ० १९)।</ref>
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| − | ==समरांगण सूत्रधार एवं भवन निवेश== | |
| − | | |
| − | समरांगण सूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुए अष्टांगवास्तुशास्त्र की कल्पना की है और इन आठ अंगों के ज्ञान के बिना वास्तुशास्त्र का सम्यक प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं - <blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥
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| − | | |
| − | एतान्यंगानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान्। शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत्॥ (समरांगण सूत्रधार)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%99%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A4%A3%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF_%E0%A5%AA%E0%A5%AA समरांगणसूत्रधार], अध्याय- ४४, श्लोक- २-४।</ref></blockquote>सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष, छंद, शिराज्ञान, शिल्प, यंत्रकर्म और विधि - ये वास्तुशास्त्र के आठ अंग हैं। वास्तु संबंधि विषयों को आचार्यों ने निम्न प्रकार से माना है -
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| − | | |
| − | *कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वास्तुशास्त्र की चर्चा दृष्टिगोचर होती है - वास्तु की परिभाषा, दुर्ग निवेश, ग्रामनिवेश, नगर निवेश, राष्ट्रनिवेश, भवन में द्वारविषयक चर्चा आदि।
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| − | | |
| − | *मनु स्मृति में भी गुल्म-ग्राम-राष्ट्र-दुर्ग आदि के प्रसंग से विविध वास्तुविषयों की चर्चा की गई है।
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| − | *शुक्रनीति में भी भवननिर्माण, राजधानी की स्थापना, राजप्रासाद, दुर्गनिर्माण, प्रतिमानिर्माण, मंदिरनिर्माण और राजमार्गनिर्माण आदि वास्तु के विविध विषयों की चर्चा प्राप्त होती है।
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| − | | |
| − | भवन स्वरूप के अनंतर उसकी दृढ़ता पर भी विचार आवश्यक है -<ref>डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://sanskrit.nic.in/books_archive/057_Raja_Nivesha_and_Rajasi_Kalaye.pdf राज-निवेश एवं राजसी कलायें], सन् १९६७, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन-शाला, लखनऊ (पृ० १७)।</ref>
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| − | | |
| − | #भवन-निर्माण एक कला है।
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| − | #भवन कई पीढ़ियों तक रहने के लिए बनता है, अतः उसके निर्माण में दृढ़ता सम्पादन का पूर्ण विचार आवश्यक है।
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| − | #भवन की तीसरी विशेषता उसका सौन्दर्य है - सौन्दर्य एकमात्र बाह्य दर्शन पर ही आश्रित नहीं, उसका संबंध अंतरंग सुविधा से है।
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| − | भारतीय वास्तु-शास्त्र में भवन के निम्न प्रकार बताये गए हैं -
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| − |
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| − | *द्वार-निवेश
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| − | *भवन-निवेश
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| − | *रचना विच्छितियां तथा चित्रण
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| − | *भवन-वेध
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| − | *वीथी-निवेश
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| − | *भवन रचना
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| − | भवन-निर्माण के पूर्व भवनोचित देश, प्रदेश, जनपद, सीमा, क्षेत्र, वन, उपवन, भूमि आदि की परीक्षा आवश्यक है। भवन एकाकी न होकर पुर, पत्तन अथवा ग्राम का अंग होता है अतः भवन-निर्माण अथवा भवन-निवेश का प्रथम सोपान पुर-निवेश है।
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| − |
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| − | ==आवासीय भवन एवं कक्ष विन्यास==
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| | वास्तु विज्ञान प्राकृतिक पंचमहाभूतों का भवन (गृह) में उचित सामंजस्य कर गृह को निवास के लिए अनुकूलता प्रदान करता है। मत्स्यपुराण में भवन में कक्ष-विन्यास के विषय में वर्णन किया गया है कि - <blockquote>तस्य प्रदेशाश्चत्वारस्तथोत्सर्गेऽग्रतः शुभः। पृष्ठतः पृष्ठभागस्तु सव्यावर्त्तः प्रशस्यते॥ | | वास्तु विज्ञान प्राकृतिक पंचमहाभूतों का भवन (गृह) में उचित सामंजस्य कर गृह को निवास के लिए अनुकूलता प्रदान करता है। मत्स्यपुराण में भवन में कक्ष-विन्यास के विषय में वर्णन किया गया है कि - <blockquote>तस्य प्रदेशाश्चत्वारस्तथोत्सर्गेऽग्रतः शुभः। पृष्ठतः पृष्ठभागस्तु सव्यावर्त्तः प्रशस्यते॥ |
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| | {| class="wikitable" | | {| class="wikitable" |
| | |+ | | |+ |
| | + | वर्तमान काल में परिस्थिति अनुसार भवन में कक्ष विन्यास |
| | !क्र० | | !क्र० |
| | !कक्ष | | !कक्ष |
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| | वास्तु विज्ञान में निर्देशित आवासीय गृह में भूखंड के अनुसार उक्त सोलह स्थानों पर विशेष कक्षों का जो विधान आया है उसका मूल आधार प्राकृतिक पञ्च तत्वों (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी तथा आकाश) का आवासीय भवन में सामंजस्य कर उस गृह को मनुष्य के लिए जीवनोपयोगी और दोष रहित बनाना है। | | वास्तु विज्ञान में निर्देशित आवासीय गृह में भूखंड के अनुसार उक्त सोलह स्थानों पर विशेष कक्षों का जो विधान आया है उसका मूल आधार प्राकृतिक पञ्च तत्वों (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी तथा आकाश) का आवासीय भवन में सामंजस्य कर उस गृह को मनुष्य के लिए जीवनोपयोगी और दोष रहित बनाना है। |
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| − | ==सारांश॥ Summary==
| + | प्राचीन समय में आचार्यों ने गृह में कुल अलग-अलग दिशाओं के अनुसार सोलह (१६) कक्षों के निर्माण की बात कही है, परन्तु वर्तमान काल में सामान्यतः मनुष्य की आवश्यकता अनुसार इन सभी १६ कक्षों के निर्माण की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पहले भारत में अधिकतर सामान्य जन प्रायः कृषि करते थे और पशु पालन तथा गौधन (दूध, दही, घी आदि) इत्यादि सभी गृहों में पर्याप्त होता था इसलिए प्राचीन आचार्यों ने दधिमंथन कक्ष, घृतगृह, पशुगृह, शस्त्रागार इत्यादि कक्षों का भी सामान्यतः सभी गृहों में विधान किया है, परन्तु आज वर्तमान समय में प्रायः लोगों के लिए इन सभी कक्षों के पृथक-पृथक निर्माण की आवश्यकता नहीं है।<ref>शोधगंगा-शिवम अत्रे, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/518806/8/08_chapter%204.pdf भारतीय वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन], सन २०२३, शोधकेन्द्र-संस्कृतविद्याधर्मविज्ञानसंकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० २५७)।</ref> |
| − | प्राचीन ऋषि-मुनियों ने मानव के हित हेतु वास्तुशास्त्र का सृजन किया जिसे हम भवन-निर्माण कला (Art of Architecture) भी कह सकते हैं।<ref>डॉ० उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर', [https://archive.org/details/vastukalaaurbhavannirmandr.umeshpurigyaneshwar/page/n4/mode/1up वास्तु कला और भवन निर्माण], सन २००१, रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार (पृ० १६)।</ref> | |
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| − | प्राचीन भारत में भवन निर्माण को साधारण शिल्प से ऊपर माना गया। इमारतों में उपयोगिता के साथ-साथ कलात्मकता भी अपेक्षित समझी गयी।<ref>श्री कृष्णदत्त वाजपेयी, [https://ignca.gov.in/Asi_data/52258.pdf भारतीय वास्तुकला का इतिहास], सन १९७२, हिन्दी समिति, लखनऊ (पृ० ३)।</ref>
| + | वर्तमान समय अनुसार सामान्य जन समुदाय के लिए अत्यावश्यक कक्षों में से सभी की आर्थिक सम्पन्नता एवं आवश्यकतानुसार वरीयता क्रम में चयन करते हुए भवन निर्माण का कार्य करना लाभप्रद हो सकता है। आज लोगों की प्राथमिक आवश्यकता अनुसार भवन (गृह) में - |
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| − | आवासीय वास्तु हेतु सर्वप्रथम भूमि का चयन किया जाता है, जिसमें भूमि परीक्षण (Soil Test) कर ही उसे निवास योग्य है या नहीं निश्चित किया जाता है।
| + | पूजनकक्ष, भोजनालय (रसोई कक्ष), भोजन करने का स्थान (डायनिंग रूम), भण्डारगृह, बच्चों का कक्ष, अध्ययनकक्ष, गृहस्वामी कक्ष, माता-पिता का कक्ष, शयनकक्ष (बेडरूम), शौचालय, अतिथिगृह, सार्वजनिक-कक्ष (हॉल), व्यायाम कक्ष एवं मनोरंजन कक्ष इत्यादि प्रमुख रूप से निर्माण किए जाते हैं। |
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| − | प्राचीन समय में आचार्यों ने गृह में कुल अलग-अलग दिशाओं के अनुसार सोलह (१६) कक्षों के निर्माण की बात कही है, परन्तु वर्तमान काल में सामान्यतः मनुष्य की आवश्यकता अनुसार इन सभी १६ कक्षों के निर्माण की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पहले भारत में अधिकतर सामान्य जन प्रायः कृषि करते थे और पशु पालन तथा गौधन (दूध, दही, घी आदि) इत्यादि सभी गृहों में पर्याप्त होता था इसलिए प्राचीन आचार्यों ने दधिमंथन कक्ष, घृतगृह, पशुगृह, शस्त्रागार इत्यादि कक्षों का भी सामान्यतः सभी गृहों में विधान किया है, परन्तु आज वर्तमान समय में प्रायः लोगों के लिए इन सभी कक्षों के पृथक-पृथक निर्माण की आवश्यकता नहीं है।<ref>शोधगंगा-शिवम अत्रे, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/518806/8/08_chapter%204.pdf भारतीय वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन], सन २०२३, शोधकेन्द्र-संस्कृतविद्याधर्मविज्ञानसंकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (पृ० २५७)।</ref>
| + | == स्थापत्यवेद एवं भवन निर्माण == |
| | + | स्थापत्यवेद में नगरविन्यास, ग्रामविन्यास, जनभवन, राजभवन, देवभवन आदि के निर्माण से संबंधित वर्णन को तो सब जानते ही हैं, उसके साथ-साथ शय्यानिर्माण, आसनरचना, आभूषणनिर्माण, आयुधनिर्माण, अनेक प्रकार के चित्र-निर्माण, प्रतिमारचना, अनेक प्रकार के यन्त्रों की रचना तथा अनेक प्रकार के स्थापत्यकौशल का वर्णन स्थापत्यवेद तथा उसी से उद्भूत वास्तुशास्त्र के विविध ग्रन्थों में प्राप्त होता है।<ref>डॉ० देशबन्धु, [https://uou.ac.in/sites/default/files/slm/DVS-101.pdf वास्तु शास्त्र का स्वरूप व परिचय], सन २०२१, उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी (पृ० १९)।</ref> |
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| − | भवन-प्रकार (चतुःशालादि दशशालान्त) | + | ==समरांगण सूत्रधार एवं भवन निवेश== |
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| − | भवन-द्रव्य (दारु-आहरण)
| + | समरांगण सूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुए अष्टांगवास्तुशास्त्र की कल्पना की है और इन आठ अंगों के ज्ञान के बिना वास्तुशास्त्र का सम्यक प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं - <blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥ एतान्यंगानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान्। शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत्॥ (समरांगण सूत्रधार)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%99%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A4%A3%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF_%E0%A5%AA%E0%A5%AA समरांगणसूत्रधार], अध्याय- ४४, श्लोक- २-४।</ref></blockquote>सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष, छंद, शिराज्ञान, शिल्प, यंत्रकर्म और विधि - ये वास्तुशास्त्र के आठ अंग हैं। वास्तु संबंधि विषयों को आचार्यों ने निम्न प्रकार से माना है - |
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| − | भवन-द्रव्य-प्रमाण (भवनांग) | + | *कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वास्तुशास्त्र की चर्चा दृष्टिगोचर होती है - वास्तु की परिभाषा, दुर्ग निवेश, ग्रामनिवेश, नगर निवेश, राष्ट्रनिवेश, भवन में द्वारविषयक चर्चा आदि। |
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| − | भवन-रचना (चुनाई)
| + | *मनु स्मृति में भी गुल्म-ग्राम-राष्ट्र-दुर्ग आदि के प्रसंग से विविध वास्तुविषयों की चर्चा की गई है। |
| | + | *शुक्रनीति में भी भवननिर्माण, राजधानी की स्थापना, राजप्रासाद, दुर्गनिर्माण, प्रतिमानिर्माण, मंदिरनिर्माण और राजमार्गनिर्माण आदि वास्तु के विविध विषयों की चर्चा प्राप्त होती है। |
| | | | |
| − | भवन-भूषा | + | भवन स्वरूप के अनंतर उसकी दृढ़ता पर भी विचार आवश्यक है -<ref>डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, [https://sanskrit.nic.in/books_archive/057_Raja_Nivesha_and_Rajasi_Kalaye.pdf राज-निवेश एवं राजसी कलायें], सन् १९६७, वास्तु-वाङ्मय-प्रकाशन-शाला, लखनऊ (पृ० १७)।</ref> |
| | | | |
| − | भवन-दोष | + | #भवन-निर्माण एक कला है। |
| | + | #भवन कई पीढ़ियों तक रहने के लिए बनता है, अतः उसके निर्माण में दृढ़ता सम्पादन का पूर्ण विचार आवश्यक है। |
| | + | #भवन की तीसरी विशेषता उसका सौन्दर्य है - सौन्दर्य एकमात्र बाह्य दर्शन पर ही आश्रित नहीं, उसका संबंध अंतरंग सुविधा से है। |
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| − | द्वार-तोरणादि-भवनांग एवं तत्तद-भंगादि वेधादि-दोष एवं शांति
| + | भारतीय वास्तु-शास्त्र में भवन के निम्न प्रकार बताये गए हैं - |
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| − | '''विशिष्ट भवन'''
| + | *द्वार-निवेश |
| | + | *भवन-निवेश |
| | + | *रचना विच्छितियां तथा चित्रण |
| | + | *भवन-वेध |
| | + | *वीथी-निवेश |
| | + | *भवन रचना |
| | + | भवन-निर्माण के पूर्व भवनोचित देश, प्रदेश, जनपद, सीमा, क्षेत्र, वन, उपवन, भूमि आदि की परीक्षा आवश्यक है। भवन एकाकी न होकर पुर, पत्तन अथवा ग्राम का अंग होता है अतः भवन-निर्माण अथवा भवन-निवेश का प्रथम सोपान पुर-निवेश है। |
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| − | सभा-गृह
| + | ==सारांश॥ Summary== |
| − | | + | प्राचीन ऋषि-मुनियों ने मानव के हित हेतु वास्तुशास्त्र का सृजन किया जिसे हम भवन-निर्माण कला (Art of Architecture) भी कह सकते हैं।<ref>डॉ० उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर', [https://archive.org/details/vastukalaaurbhavannirmandr.umeshpurigyaneshwar/page/n4/mode/1up वास्तु कला और भवन निर्माण], सन २००१, रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार (पृ० १६)।</ref> प्राचीन भारत में भवन निर्माण को साधारण शिल्प से ऊपर माना गया। इमारतों में उपयोगिता के साथ-साथ कलात्मकता भी अपेक्षित समझी गयी।<ref>श्री कृष्णदत्त वाजपेयी, [https://ignca.gov.in/Asi_data/52258.pdf भारतीय वास्तुकला का इतिहास], सन १९७२, हिन्दी समिति, लखनऊ (पृ० ३)।</ref> आवासीय वास्तु हेतु सर्वप्रथम भूमि का चयन किया जाता है, जिसमें भूमि परीक्षण (Soil Test) कर ही उसे निवास योग्य है या नहीं निश्चित किया जाता है। पुरवासियों का सामाजिक तथा आर्थिक जीवन<ref>डॉ० उदयनारायण राय, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.273747/page/n42/mode/1up प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन], सन १९६५, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद (पृ० ३१)।</ref> भी वास्तु शास्त्र के आधार पर प्रभावी रहा है। मत्स्य पुराण के अनुसार भवन निर्माण का प्रारम्भ स्तम्भ-रचना से होना चाहिए। स्तम्भ भवन की सम्पूर्ण योजना एवं रचना का आधार है। |
| − | विशाल स्नानागार
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| − | अन्नागार
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| − | पुरवासियों का सामाजिक तथा आर्थिक जीवन<ref>डॉ० उदयनारायण राय, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.273747/page/n42/mode/1up प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन], सन १९६५, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद (पृ० ३१)।</ref> | |
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| − | स्तंभमान विनिर्णय' नाम से है, इसमें स्तम्भों का विवेचन किया गया है। मत्स्य पुराण के अनुसार भवन निर्माण का प्रारम्भ स्तम्भ-रचना से होना चाहिए। स्तम्भ भवन की सम्पूर्ण योजना एवं रचना का आधार है।
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| − | भवनोत्पत्ति के आख्यान पुराणों में भी पाए जाते हैं। मार्कण्डेय (अ० ४९) तथा वायु (अ० ८) पुराण समरांगण के इसी आख्यान के प्रतीक है। भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिए अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है। | + | भवनोत्पत्ति के अनेक आख्यान पुराणों में भी पाए जाते हैं। मार्कण्डेय (अ० ४९) तथा वायु (अ० ८) पुराण समरांगण के इसी आख्यान के प्रतीक है। भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिए अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है। |
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| | ==उद्धरण॥ References== | | ==उद्धरण॥ References== |