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| == संगठन == | | == संगठन == |
− | सब से पहले तो हमें संगठन शब्द को ठीक से समझना होगा । समाज की धारणा के लिए जो सामाजिक ढाँचा निर्माण किया जाता है उसे समाज संगठन कहते है । यानि धर्म के अनुसार समाज जी सके इस दृष्टि से जो समाज का ढांचा निर्माण किया जाता है उसे समाज संगठन कहते है। समाज के घटकों की जो स्वाभाविक या प्राकृतिक आवश्यकताएं हैं उन्हें पूर्ण करने के साथ ही उनका सर्वे भवन्तु सुखिन: के साथ समायोजन करने से यह ढांचा समूचे समाज को लाभकारी बन जाता है । इसीलिए समाज इस ढांचे को चिरंजीवी बना देता है । | + | सब से पहले तो हमें संगठन शब्द को ठीक से समझना होगा । समाज की धारणा के लिए जो सामाजिक ढाँचा निर्माण किया जाता है उसे समाज संगठन कहते है । यानि धर्म के अनुसार समाज जी सके इस दृष्टि से जो समाज का ढांचा निर्माण किया जाता है उसे समाज संगठन कहते है। समाज के घटकों की जो स्वाभाविक या प्राकृतिक आवश्यकताएं हैं उन्हें पूर्ण करने के साथ ही उनका सर्वे भवन्तु सुखिन: के साथ समायोजन करने से यह ढांचा समूचे समाज को लाभकारी बन जाता है । इसीलिए समाज इस ढांचे को चिरंजीवी बना देता है । |
− | दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि हमें जीवंत ईकाई का संगठन करना है। जीवत ईकाई के संगठन के लक्षण निम्न होते हैं।
| + | |
− | १ हर जीवंत ईकाई के लिये संगठित रहना उस ईकाई के जीवन के लिये आवश्यक होता है। संगठन टूटना ही उस जीवंत ईकाई की मृत्यू का मार्ग है।
| + | दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि हमें जीवंत इकाई का संगठन करना है। जीवत इकाई के संगठन के लक्षण निम्न होते हैं: |
− | २ किसी भी ईकाई के जीवित रहना, बलवान रहना, निरोग रहना, लचीला रहना, तितिक्षावान रहना आदि बातों के लिये जो भी बातें करनी पडतीं हैं उन्हें उस ईकाई का धर्म कहते हैं। ईकाई के संगठन से भी यही अपेक्षाएँ होती हैं। इसी का अर्थ है संगठन ही ईकाई का धर्म होता है।
| + | # हर जीवंत इकाई के लिये संगठित रहना उस इकाई के जीवन के लिये आवश्यक होता है। संगठन टूटना ही उस जीवंत इकाई की मृत्यू का मार्ग है। |
− | ३ ईकाई का हर अवयव सक्षम रहे।
| + | # किसी भी इकाई का जीवित रहना, बलवान रहना, निरोग रहना, लचीला रहना, तितिक्षावान रहना आदि बातों के लिये जो भी बातें करनी पडतीं हैं उन्हें उस इकाई का धर्म कहते हैं। इकाई के संगठन से भी यही अपेक्षाएँ होती हैं। इसी का अर्थ है संगठन ही इकाई का धर्म होता है। |
− | ४ ईकाई के प्रत्येक अवयव के रक्षण और पोषण में ही ईकाई का और ईकाई के प्रत्येक अवयव का हित होता है। अर्थात् सभी अवयवों में एकात्मता होती है।
| + | # इकाई का हर अवयव सक्षम रहे। |
− | ५ ईकाई के प्रतेक अवयव के अस्तित्व का प्रयोजन होता है। हर अवयव का प्रयोजन अन्य अवयव के प्रयोजन से भिन्न होता है। उस अवयव की क्षमता की विधा ही उस अवयव का प्रयोजन तय करती है।
| + | # इकाई के प्रत्येक अवयव के रक्षण और पोषण में ही इकाई का और इकाई के प्रत्येक अवयव का हित होता है। अर्थात् सभी अवयवों में एकात्मता होती है। |
− | ६ यह आवश्यक होता है कि हर अवयव उसके प्रयोजन के अनुसार ही काम करे।
| + | # इकाई के प्रत्येक अवयव के अस्तित्व का प्रयोजन होता है। हर अवयव का प्रयोजन अन्य अवयव के प्रयोजन से भिन्न होता है। उस अवयव की क्षमता की विधा ही उस अवयव का प्रयोजन तय करती है। |
− | ७ आपात काल में या नियमित काम करते समय भी ईकाई के किसी भी अवयवपर विशेष दबाव या तनाव आता है तब ईकाई के सारे अवयव उस अवयव की मदद के लिये तत्पर रहें। ईकाई की प्राणशक्ति उस अवयव पर केंद्रित हो।
| + | # यह आवश्यक होता है कि हर अवयव उसके प्रयोजन के अनुसार ही काम करे। |
− | ८ ईकाई का प्रत्येक अवयव ईकाई के मुखिया की आज्ञा का पालन करे।
| + | # आपात काल में या नियमित काम करते समय भी इकाई के किसी भी अवयव पर विशेष दबाव या तनाव आता है तब इकाई के सारे अवयव उस अवयव की मदद के लिये तत्पर रहें। इकाई की प्राणशक्ति उस अवयव पर केंद्रित हो। |
− | ९ ईकाई के मुखिया की आज्ञा का सभी अवयव पालन करें। मुखिया भी ईकाई के हर अवयव के रक्षण और पोषण की सुनिश्चिति करे। प्रत्येक अवयव की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करे।
| + | # इकाई का प्रत्येक अवयव इकाई के मुखिया की आज्ञा का पालन करे। |
− | संगठन की जीवनी शक्ति | + | # इकाई के मुखिया की आज्ञा का सभी अवयव पालन करें। मुखिया भी इकाई के हर अवयव के रक्षण और पोषण की सुनिश्चिति करे। प्रत्येक अवयव की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करे। |
− | संगठन की जीवनी शक्ति बनी रहने के लिये निम्न बातें आवश्यक होतीं हैं। | + | |
− | १. प्रत्येक अवयव की और ईकाई की सभी प्राकृतिक आवश्यकताओं का समायोजन हो।
| + | == संगठन की जीवनी शक्ति == |
− | २ सामान्यत: ईकाई यानि संगठन की आवश्यकताओं को अवयव की आवश्याताओं पर वरीयता होगी ।
| + | संगठन की जीवनी शक्ति बनी रहने के लिये निम्न बातें आवश्यक होतीं हैं: |
− | ३ ईकाईयों के अवयवों के परस्परावलंबन में ही ईकाई का जीवन है।
| + | # प्रत्येक अवयव की और इकाई की सभी प्राकृतिक आवश्यकताओं का समायोजन हो। |
− | ४ ईकाई के प्रत्येक अवयव की भूमिका अपने कर्तव्यों और अन्य अवयवोंके अधिकारों की पूर्ति का आग्रह करनेवाली हो।
| + | # सामान्यत: इकाई यानि संगठन की आवश्यकताओं को अवयव की आवश्यकताओं पर वरीयता होगी । |
− | ५ संगठन के उद्देश्य के और अवयवों के प्रयोजन के आधारपर अवयवों में कार्य विभाजन हो।
| + | # इकाईयों के अवयवों के परस्परावलंबन में ही इकाई का जीवन है। |
− | ६ प्रत्येक अवयव की संगठन के उद्देश्य में निष्ठा हो।
| + | # इकाई के प्रत्येक अवयव की भूमिका अपने कर्तव्यों और अन्य अवयवों के अधिकारों की पूर्ति का आग्रह करनेवाली हो। |
− | ७ मुखिया में पूर्ण विश्वास हो। मुखिया की आज्ञाओं का अनुपालन करने की अवयवों की मानसिकता रहे।
| + | # संगठन के उद्देश्य के और अवयवों के प्रयोजन के आधारपर अवयवों में कार्य विभाजन हो। |
− | ८ नेतृत्व क्षमतावान हो।
| + | # प्रत्येक अवयव की संगठन के उद्देश्य में निष्ठा हो। |
− | समाज के घटकों के स्वाभाविक पहलुओंपर आधारित संगठन | + | # मुखिया में पूर्ण विश्वास हो। मुखिया की आज्ञाओं का अनुपालन करने की अवयवों की मानसिकता रहे। |
− | व्यक्ति और समाज का स्वभाव और उन की स्वाभाविक आवश्यकताएं और उन के आधारपर एक एक कर किस प्रकार की रचना का निर्माण करना होता है, इसका विवरण हम आगे देखेंगे ।
| + | # नेतृत्व क्षमतावान हो। |
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| + | == समाज के घटकों के स्वाभाविक पहलुओंपर आधारित संगठन == |
| + | व्यक्ति और समाज का स्वभाव और उन की स्वाभाविक आवश्यकताएं और उन के आधारपर एक एक कर किस प्रकार की रचना का निर्माण करना होता है, इसका विवरण हम आगे देखेंगे । |
| समाज का संगठन कहते ही हमारे मन में समाज के सैनिकीकरण का चित्र सामने आता है। क्यों की वर्तमान समाज में यही एकमात्र प्रभावी और आलोचना नहीं की जा सकती ऐसा संगठन दिखाई देता है। वैसे तो छोटे छोटे संगठन तो गली गली में भी दिखाई देते हैं। ऐसे कई संगठन जन्म लेते रहते हैं और काल के प्रवाह में नष्ट भी होते रहते हैं। हर संगठन के निर्माण के पीछे निर्माता का कोई न कोई उद्देश्य होता है। उस उद्देश्य की पूर्ति के लिये संगठन खडा होता है। किंतु कई बार अपने उद्देश्य की पूर्ति करने से पहले ही संगठन नष्ट हो जाते हैं। इस का कारण संगठन शास्त्र की जानकारी निर्माता को नहीं होती। या फिर संगठन का उद्देश्य ही प्रतिक्रियात्मक होता है। मूल क्रिया के नष्ट होते ही ऐसे प्रतिक्रियावादी संगठन का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। इसलिये वह संगठन अपनी मौत मर जाता है। | | समाज का संगठन कहते ही हमारे मन में समाज के सैनिकीकरण का चित्र सामने आता है। क्यों की वर्तमान समाज में यही एकमात्र प्रभावी और आलोचना नहीं की जा सकती ऐसा संगठन दिखाई देता है। वैसे तो छोटे छोटे संगठन तो गली गली में भी दिखाई देते हैं। ऐसे कई संगठन जन्म लेते रहते हैं और काल के प्रवाह में नष्ट भी होते रहते हैं। हर संगठन के निर्माण के पीछे निर्माता का कोई न कोई उद्देश्य होता है। उस उद्देश्य की पूर्ति के लिये संगठन खडा होता है। किंतु कई बार अपने उद्देश्य की पूर्ति करने से पहले ही संगठन नष्ट हो जाते हैं। इस का कारण संगठन शास्त्र की जानकारी निर्माता को नहीं होती। या फिर संगठन का उद्देश्य ही प्रतिक्रियात्मक होता है। मूल क्रिया के नष्ट होते ही ऐसे प्रतिक्रियावादी संगठन का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। इसलिये वह संगठन अपनी मौत मर जाता है। |
| संगठन के निर्माण का प्रयोजन जितना लंबी अवधि का, संगठन का उद्देश्य जितना व्यापक और व्यावहारिक, संगठन के निर्माता की संगठन कुशलता जितनी श्रेष्ठ उतनी उस संगठन की आयु होती है। कई संगठन तो केवल निर्माता की कुशलता के कारण उसके साथ ही नष्ट हो जाते हैं। अपने जैसे या अपने से भी श्रेष्ठ संभाव्य नेतृत्व का विकास यदि नहीं होता तो निर्माता के साथ ही संगठन का नष्ट होना स्वाभाविक ही होता है। निर्माता की मृत्यू के उपरांत भी दीर्घ काल तक चलनेवाले संगठन अल्प संख्या में ही होते हैं। बाकी तो हजारों लाखों की संख्या में ऐसे संगठन बनते और नष्ट होते रहते हैं। | | संगठन के निर्माण का प्रयोजन जितना लंबी अवधि का, संगठन का उद्देश्य जितना व्यापक और व्यावहारिक, संगठन के निर्माता की संगठन कुशलता जितनी श्रेष्ठ उतनी उस संगठन की आयु होती है। कई संगठन तो केवल निर्माता की कुशलता के कारण उसके साथ ही नष्ट हो जाते हैं। अपने जैसे या अपने से भी श्रेष्ठ संभाव्य नेतृत्व का विकास यदि नहीं होता तो निर्माता के साथ ही संगठन का नष्ट होना स्वाभाविक ही होता है। निर्माता की मृत्यू के उपरांत भी दीर्घ काल तक चलनेवाले संगठन अल्प संख्या में ही होते हैं। बाकी तो हजारों लाखों की संख्या में ऐसे संगठन बनते और नष्ट होते रहते हैं। |
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| हमें यदि पुन: अपने राष्ट्र को याने भारतीय जीवन दृष्टीवाले समाज को संगठित करना है तो हमें संगठन का अर्थ, संगठन की जीवनी शक्ति, संगठन के कारक तत्व, संगठन को चिरंजीवी बनानेवाले पहलू आदि सभी का विचार करना होगा। | | हमें यदि पुन: अपने राष्ट्र को याने भारतीय जीवन दृष्टीवाले समाज को संगठित करना है तो हमें संगठन का अर्थ, संगठन की जीवनी शक्ति, संगठन के कारक तत्व, संगठन को चिरंजीवी बनानेवाले पहलू आदि सभी का विचार करना होगा। |
| संगठन | | संगठन |
− | संगठन : सं + गठन । सं का अर्थ है अच्छा, श्रेष्ठ । गठन याने किसी उद्देश्य से एक से अधिक पदार्थों का एक साथ जुड़ना । जब ऐसे जुड़ने से उस उद्देश्य की अच्छी तरह से पूर्ती होती है तब उसे संगठन कहते हैं । शरीर और राष्ट्र यह दोनों जीवंत ईकाईयां हैं । यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के अनुसार शरीर और राष्ट्र के संगठन में समानता होगी । अब शरीर के उदाहरण से इसे हम समझेंगे । | + | संगठन : सं + गठन । सं का अर्थ है अच्छा, श्रेष्ठ । गठन याने किसी उद्देश्य से एक से अधिक पदार्थों का एक साथ जुड़ना । जब ऐसे जुड़ने से उस उद्देश्य की अच्छी तरह से पूर्ती होती है तब उसे संगठन कहते हैं । शरीर और राष्ट्र यह दोनों जीवंत इकाईयां हैं । यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे के अनुसार शरीर और राष्ट्र के संगठन में समानता होगी । अब शरीर के उदाहरण से इसे हम समझेंगे । |
| स्वाभाविक प्रणालियाँ और उनका संगठन | | स्वाभाविक प्रणालियाँ और उनका संगठन |
| शरीर राष्ट्र | | शरीर राष्ट्र |
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| और नई पेशियों का निर्माण | | और नई पेशियों का निर्माण |
| संगठन के महत्वपूर्ण पहलू | | संगठन के महत्वपूर्ण पहलू |
− | सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि हमें जीवंत ईकाई का संगठन करना है। जीवत ईकाई के संगठन के लक्षण निम्न होते हैं। | + | सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि हमें जीवंत इकाई का संगठन करना है। जीवत इकाई के संगठन के लक्षण निम्न होते हैं। |
− | 1 हर ईकाई के अवयव और प्रणालियों का संगठित रहना उस ईकाई के जीवन के लिये आवश्यक होता है। संगठन टूटना या दुर्बल होना ही उस जीवंत ईकाई की मृत्यू का मार्ग है। | + | 1 हर इकाई के अवयव और प्रणालियों का संगठित रहना उस इकाई के जीवन के लिये आवश्यक होता है। संगठन टूटना या दुर्बल होना ही उस जीवंत इकाई की मृत्यू का मार्ग है। |
− | 2 किसी भी ईकाई के जीवित रहना, बलवान रहना, निरोग रहना, लचीला रहना, तितिक्षावान रहना आदि बातों के लिये जो भी बातें करनी पडतीं हैं उन्हें उस ईकाई का धर्म कहते हैं। ईकाई के संगठन से भी यही अपेक्षाएँ होती हैं। इसी का अर्थ है संगठन ही ईकाई का धर्म होता है। | + | 2 किसी भी इकाई के जीवित रहना, बलवान रहना, निरोग रहना, लचीला रहना, तितिक्षावान रहना आदि बातों के लिये जो भी बातें करनी पडतीं हैं उन्हें उस इकाई का धर्म कहते हैं। इकाई के संगठन से भी यही अपेक्षाएँ होती हैं। इसी का अर्थ है संगठन ही इकाई का धर्म होता है। |
− | 3 ईकाई का हर अवयव सक्षम रहे। | + | 3 इकाई का हर अवयव सक्षम रहे। |
− | 4 ईकाई के प्रत्येक अवयव के रक्षण और पोषण में ही ईकाई का और ईकाई के प्रत्येक अवयव का हित होता है। अर्थात् सभी अवयवों में एकात्मता होती है। | + | 4 इकाई के प्रत्येक अवयव के रक्षण और पोषण में ही इकाई का और इकाई के प्रत्येक अवयव का हित होता है। अर्थात् सभी अवयवों में एकात्मता होती है। |
− | 5 ईकाई के प्रत्येक अवयव के अस्तित्व का प्रयोजन होता है। हर अवयव का प्रयोजन अन्य अवयव के प्रयोजन से भिन्न होता है। उस अवयव की क्षमता की विधा ही उस अवयव का प्रयोजन तय करती है। | + | 5 इकाई के प्रत्येक अवयव के अस्तित्व का प्रयोजन होता है। हर अवयव का प्रयोजन अन्य अवयव के प्रयोजन से भिन्न होता है। उस अवयव की क्षमता की विधा ही उस अवयव का प्रयोजन तय करती है। |
| 6 यह आवश्यक होता है कि हर अवयव उसके प्रयोजन के अनुसार ही काम करे। | | 6 यह आवश्यक होता है कि हर अवयव उसके प्रयोजन के अनुसार ही काम करे। |
− | 7 आपात काल में या नियमित काम करते समय भी ईकाई के किसी भी अवयवपर विशेष दबाव या तनाव आता है तब ईकाई के सारे अवयव उस अवयव की मदद के लिये तत्पर रहें। ईकाई की प्राणशक्ति उस अवयव पर केंद्रित हो। | + | 7 आपात काल में या नियमित काम करते समय भी इकाई के किसी भी अवयवपर विशेष दबाव या तनाव आता है तब इकाई के सारे अवयव उस अवयव की मदद के लिये तत्पर रहें। इकाई की प्राणशक्ति उस अवयव पर केंद्रित हो। |
− | 8 ईकाई का प्रत्येक अवयव ईकाई के मुखिया की आज्ञा का पालन करे। जीवंत ईकाई में जीवात्मा ही मुखिया होता है । | + | 8 इकाई का प्रत्येक अवयव इकाई के मुखिया की आज्ञा का पालन करे। जीवंत इकाई में जीवात्मा ही मुखिया होता है । |
− | 8 ईकाई के मुखिया की आज्ञा का सभी अवयव पालन करें। मुखिया भी ईकाई के हर अवयव के रक्षण और पोषण की सुनिश्चिति करे। प्रत्येक अवयव की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करे। | + | 8 इकाई के मुखिया की आज्ञा का सभी अवयव पालन करें। मुखिया भी इकाई के हर अवयव के रक्षण और पोषण की सुनिश्चिति करे। प्रत्येक अवयव की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करे। |
| सामाजिक संगठन की जीवनी शक्ति | | सामाजिक संगठन की जीवनी शक्ति |
| संगठन की जीवनी शक्ति बनी रहने के लिये निम्न बातें आवश्यक होतीं हैं। | | संगठन की जीवनी शक्ति बनी रहने के लिये निम्न बातें आवश्यक होतीं हैं। |
− | १. प्रत्येक अवयव की और ईकाई की सभी आवश्यकताओं का समायोजन हो। २. सामान्यत: इकाई याने संगठन की आवश्यकताओं को अवयवों की आवश्यकताओंपर वरीयता होगी । ३. ईकाईयों के अवयवों के परस्परावलंबन में ही ईकाई का जीवन है। ४. ईकाई के प्रत्येक अवयव की भूमिका अपने कर्तव्यों और अन्य अवयवोंके अधिकारों की पूर्ति का आग्रह करनेवाली हो। ५. संगठन के उद्देश्य के और अवयवों के प्रयोजन के आधारपर अवयवों में कार्य विभाजन हो। ६. प्रत्येक अवयव की संगठन के उद्देश्य में निष्ठा हो। ७. मुखिया में पूर्ण विश्वास हो। मुखिया की आज्ञाओं का अनुपालन करने की अवयवों की मानसिकता रहे। ८. नेतृत्व क्षमतावान हो। | + | १. प्रत्येक अवयव की और इकाई की सभी आवश्यकताओं का समायोजन हो। २. सामान्यत: इकाई याने संगठन की आवश्यकताओं को अवयवों की आवश्यकताओंपर वरीयता होगी । ३. इकाईयों के अवयवों के परस्परावलंबन में ही इकाई का जीवन है। ४. इकाई के प्रत्येक अवयव की भूमिका अपने कर्तव्यों और अन्य अवयवोंके अधिकारों की पूर्ति का आग्रह करनेवाली हो। ५. संगठन के उद्देश्य के और अवयवों के प्रयोजन के आधारपर अवयवों में कार्य विभाजन हो। ६. प्रत्येक अवयव की संगठन के उद्देश्य में निष्ठा हो। ७. मुखिया में पूर्ण विश्वास हो। मुखिया की आज्ञाओं का अनुपालन करने की अवयवों की मानसिकता रहे। ८. नेतृत्व क्षमतावान हो। |
| भारतीय राष्ट्र/समाज संगठन | | भारतीय राष्ट्र/समाज संगठन |
| उपर्युक्त संगठन के सूत्रों के आधारपर ही हमारे पूर्वजों ने समाज को संगठित किया था। समाज घटकों की स्वाभाविक आवश्यकताओं पर आधारित रचनाओं के कारण ही ये संगठन दीर्घकाल तक बने रहे’ | | उपर्युक्त संगठन के सूत्रों के आधारपर ही हमारे पूर्वजों ने समाज को संगठित किया था। समाज घटकों की स्वाभाविक आवश्यकताओं पर आधारित रचनाओं के कारण ही ये संगठन दीर्घकाल तक बने रहे’ |
− | सामाजिक संगठन की सबसे महत्वपूर्ण ईकाई राष्ट्र है । सामान जीवनदृष्टीवाले लोगों के सुरक्षित सहजीवन को ही राष्ट्र कहते हैं । हमने पूर्व में जाना है की राष्ट्र की चार मुख्य प्रणालियाँ होतीं हैं । इन चार प्रणालियों के संगठन को ही वर्णाश्रम धर्म के नाम से जाना जाता था । इनमें से पहली दो प्रणालियाँ वर्ण धर्म में आतीं हैं । और दूसरी दो प्रणालियाँ आश्रम धर्म में आती हैं । इन चारों प्रणालियों का मिलकर वर्णाश्रम धर्म का ताना बाना बनता है । इनका संगठन ही हिन्दू/भारत राष्ट्र का संगठन है । समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की जीवनशैली समान होती है । आकांक्षाएँ और इच्छाएँ भी समान होतीं हैं । इस कारण समाज में संघर्ष की संभावनाएं बहुत कम होतीं हैं । लेकिन भिन्न जीवनदृष्टिवाले समाज के साथ सहजीवन सहज और सरल नहीं होता । इसलिए समान जीवनदृष्टिवाले समाज के सहजीवन के लिए भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित भूमि की आवश्यकता होती है । | + | सामाजिक संगठन की सबसे महत्वपूर्ण इकाई राष्ट्र है । सामान जीवनदृष्टीवाले लोगों के सुरक्षित सहजीवन को ही राष्ट्र कहते हैं । हमने पूर्व में जाना है की राष्ट्र की चार मुख्य प्रणालियाँ होतीं हैं । इन चार प्रणालियों के संगठन को ही वर्णाश्रम धर्म के नाम से जाना जाता था । इनमें से पहली दो प्रणालियाँ वर्ण धर्म में आतीं हैं । और दूसरी दो प्रणालियाँ आश्रम धर्म में आती हैं । इन चारों प्रणालियों का मिलकर वर्णाश्रम धर्म का ताना बाना बनता है । इनका संगठन ही हिन्दू/भारत राष्ट्र का संगठन है । समान जीवनदृष्टिवाले समाज के घटकों की जीवनशैली समान होती है । आकांक्षाएँ और इच्छाएँ भी समान होतीं हैं । इस कारण समाज में संघर्ष की संभावनाएं बहुत कम होतीं हैं । लेकिन भिन्न जीवनदृष्टिवाले समाज के साथ सहजीवन सहज और सरल नहीं होता । इसलिए समान जीवनदृष्टिवाले समाज के सहजीवन के लिए भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित भूमि की आवश्यकता होती है । |
| भूमि हमें जीवन के लिए आवश्यक सभी संसाधन देती है । इस दृष्टि से हम कुटुंब भावना से भूमि से जुड़ जाते हैं । फिर भूमि हमारी माता होती है । ऐसे भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित भूमि और समान जीवनदृष्टिवाले समाज को राष्ट्र कहते हैं । सारे विश्व को एकात्मता के दायरे में लाने का एक चरण राष्ट्र है । राष्ट्र अपने समाज का जीवन सुचारू रूप से चले इसलिए समाज की प्रणालियों को संगठित अरता है । तथा व्यवस्थाएँ निर्माण करता है । | | भूमि हमें जीवन के लिए आवश्यक सभी संसाधन देती है । इस दृष्टि से हम कुटुंब भावना से भूमि से जुड़ जाते हैं । फिर भूमि हमारी माता होती है । ऐसे भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित भूमि और समान जीवनदृष्टिवाले समाज को राष्ट्र कहते हैं । सारे विश्व को एकात्मता के दायरे में लाने का एक चरण राष्ट्र है । राष्ट्र अपने समाज का जीवन सुचारू रूप से चले इसलिए समाज की प्रणालियों को संगठित अरता है । तथा व्यवस्थाएँ निर्माण करता है । |
− | समान जीवनदृष्टि रखनेवाला समाज ही सुख, शांति से जी सकता है । भिन्न जीवनदृष्टिवाले समाज के साथ जीवन सहज नहीं रहता । भिन्न जीवनदृष्टियों के समाजों में अनबन, जीवनदृष्टिके, जीवनशैलीके और विभिन्न व्यवस्थाओं के भेद होना स्वाभाविक होता है । इसीलिए समान जीवनदृष्टिवाले समाज को सुरक्षित भूमि की आवश्यकता होती है । अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार समाज में व्यवहार हो सके इस दृष्टि से अनुरूप और अनुकूल व्यवस्थाएं भी होनी चाहिए । जीवनदृष्टि के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के अंतरण के लिए जीवनदृष्टि के अनुकूल श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्माण और निर्वहन होना भी आवश्यक होता है । परम्पराओं का क्रम जब श्रेष्ठता की ओर होता है तब राष्ट्र अधिकाधिक श्रेष्ठ बनता जाता है । दीर्घकालतक श्रेष्ठ बना रहता है । मनुष्य की तरह ही राष्ट्र भी एक जिवंत इकाई होती है । राष्ट्र निर्माण होते हैं । जीते हैं और नष्ट हो जाते हैं । मनुष्य के शारीर में लाखों पेशियाँ नष्ट होती हैं और नयी निर्माण होती हैं । जब नष्ट होनेवाली पेशियों की संख्या निर्माण होनेवाली पेशियों से कम होती है मनुष्य यौवनावस्था में रहता है । जेब नष्ट होनेवाली पेशियों का प्रमाण नयी निर्माण होनेवाली पेशियों से अधिक हो जाता है तब मनुष्य वृद्धावस्था की ओर बढ़ने लगता है । विस्तार जबतक चलता है वृद्धावस्था दूर रहती है । यही बात राष्ट्र के लिए भी लागू है । किसी भी जीवंत ईकाई की तरह ही राष्ट्र के पास दो ही विकल्प होते हैं । बढ़ना या घटना । राष्ट्र का आबादी और भूमि के सबंध में जबतक विस्तार होता रहता है, राष्ट्र जीवित रहता है । अब हम राष्ट्र की प्रणालियों को जानने का प्रयास करेंगे । | + | समान जीवनदृष्टि रखनेवाला समाज ही सुख, शांति से जी सकता है । भिन्न जीवनदृष्टिवाले समाज के साथ जीवन सहज नहीं रहता । भिन्न जीवनदृष्टियों के समाजों में अनबन, जीवनदृष्टिके, जीवनशैलीके और विभिन्न व्यवस्थाओं के भेद होना स्वाभाविक होता है । इसीलिए समान जीवनदृष्टिवाले समाज को सुरक्षित भूमि की आवश्यकता होती है । अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार समाज में व्यवहार हो सके इस दृष्टि से अनुरूप और अनुकूल व्यवस्थाएं भी होनी चाहिए । जीवनदृष्टि के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के अंतरण के लिए जीवनदृष्टि के अनुकूल श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्माण और निर्वहन होना भी आवश्यक होता है । परम्पराओं का क्रम जब श्रेष्ठता की ओर होता है तब राष्ट्र अधिकाधिक श्रेष्ठ बनता जाता है । दीर्घकालतक श्रेष्ठ बना रहता है । मनुष्य की तरह ही राष्ट्र भी एक जिवंत इकाई होती है । राष्ट्र निर्माण होते हैं । जीते हैं और नष्ट हो जाते हैं । मनुष्य के शारीर में लाखों पेशियाँ नष्ट होती हैं और नयी निर्माण होती हैं । जब नष्ट होनेवाली पेशियों की संख्या निर्माण होनेवाली पेशियों से कम होती है मनुष्य यौवनावस्था में रहता है । जेब नष्ट होनेवाली पेशियों का प्रमाण नयी निर्माण होनेवाली पेशियों से अधिक हो जाता है तब मनुष्य वृद्धावस्था की ओर बढ़ने लगता है । विस्तार जबतक चलता है वृद्धावस्था दूर रहती है । यही बात राष्ट्र के लिए भी लागू है । किसी भी जीवंत इकाई की तरह ही राष्ट्र के पास दो ही विकल्प होते हैं । बढ़ना या घटना । राष्ट्र का आबादी और भूमि के सबंध में जबतक विस्तार होता रहता है, राष्ट्र जीवित रहता है । अब हम राष्ट्र की प्रणालियों को जानने का प्रयास करेंगे । |
| १. वर्ण प्रणाली | | १. वर्ण प्रणाली |
| स्वभाव समायोजन - वर्ण प्रणाली | | स्वभाव समायोजन - वर्ण प्रणाली |