| Line 57: |
Line 57: |
| | # '''करण Karana-''' (तिथ्यर्धं करणः) तिथि के अर्ध भाग को करण कहा गया है। | | # '''करण Karana-''' (तिथ्यर्धं करणः) तिथि के अर्ध भाग को करण कहा गया है। |
| | # '''मुहूर्त्त॥ Muhurta-''' दिन और रात्रि को १५-१५ भागों में विभक्त किया गया है। प्रत्येक भागकी मुहूर्त्त संज्ञा है। | | # '''मुहूर्त्त॥ Muhurta-''' दिन और रात्रि को १५-१५ भागों में विभक्त किया गया है। प्रत्येक भागकी मुहूर्त्त संज्ञा है। |
| − | # '''पर्व॥ parva-''' धर्म, पुण्यकार्य अथवा यज्ञ आदि के लिये उपयुक्त काल को पर्वकहा गया है- कृष्णपक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, रवि संक्रान्ति एवं अमावस्या एवं पूर्णिमा इन पॉंचों की पर्व संज्ञा है। | + | # '''पर्व॥ Parva-''' धर्म, पुण्यकार्य अथवा यज्ञ आदि के लिये उपयुक्त काल को पर्वकहा गया है- कृष्णपक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, रवि संक्रान्ति एवं अमावस्या एवं पूर्णिमा इन पॉंचों की पर्व संज्ञा है। |
| − | # '''विषुवत् तिथि॥ vishuvat-''' विषुव दिन का अभिप्राय है दिवस और रात्रि की समानता का दिवस। संवत्सर सत्र के प्रसंग में विषुववान् दिवस का उल्लेख मिलता है। संवत्सर के आदि में तथा मध्य में एक-एक विषुवान दिवस होते हैं। | + | # '''विषुवत तिथि॥ Vishuvata Tithi -''' विषुव दिन का अभिप्राय है दिवस और रात्रि की समानता का दिवस। संवत्सर सत्र के प्रसंग में विषुववान् दिवस का उल्लेख मिलता है। संवत्सर के आदि में तथा मध्य में एक-एक विषुवान दिवस होते हैं। |
| − | # '''नक्षत्र॥ nakshatra-''' आकाश में स्वयं प्रकाशमान तारों को "तारा" तथा रात्रिचक्र या चन्द्रविमण्डल के अन्तर्गत आने वालों को नक्षत्र कहा जाता है। | + | # '''नक्षत्र॥ Nakshatra-''' आकाश में स्वयं प्रकाशमान तारों को "तारा" तथा रात्रिचक्र या चन्द्रविमण्डल के अन्तर्गत आने वालों को नक्षत्र कहा जाता है। |
| − | # '''अधिकमास॥ adhikamasa-''' जिस चन्द्रमास में सूर्य-संक्रान्ति नहीं पडती उस मास को अधिक मास कहा गया है। इसे लोक व्यवहार में अधिमास या मलमास के नाम से भी जाना जाता है। | + | # '''अधिकमास॥ Adhikamasa-''' जिस चन्द्रमास में सूर्य-संक्रान्ति नहीं पडती उस मास को अधिक मास कहा गया है। इसे लोक व्यवहार में अधिमास या मलमास के नाम से भी जाना जाता है। |
| | | | |
| | उपर्युक्त ये विषय प्रतिपादित हैं। श्रौतस्मार्तधर्म कृत्यों में इन की ही अपेक्षा होने से इस वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में इन विषयों का ही मुख्यतया प्रतिपादन किया गया है। | | उपर्युक्त ये विषय प्रतिपादित हैं। श्रौतस्मार्तधर्म कृत्यों में इन की ही अपेक्षा होने से इस वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में इन विषयों का ही मुख्यतया प्रतिपादन किया गया है। |
| Line 67: |
Line 67: |
| | वेदांगज्योतिष काल (ईसापूर्व १४वीं शताब्दी) के भारतीय खगोलशास्त्र एवं ज्योतिष के सन्दर्भ में, तथा सम्बन्ध में, जब हम ऐतिहासिक साक्ष्यों का बारीकी से अवलोकन करते हैं, तब हमें ज्ञात होता है कि उस काल में महात्मा लगध आचार्य ने इन शास्त्रों के खगोलीय और ज्यौतिषीय तथ्यों का संकलन ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में आए हुए खगोलज्यौतिषीय ऋचाओं को आगम मानकर किया था। | | वेदांगज्योतिष काल (ईसापूर्व १४वीं शताब्दी) के भारतीय खगोलशास्त्र एवं ज्योतिष के सन्दर्भ में, तथा सम्बन्ध में, जब हम ऐतिहासिक साक्ष्यों का बारीकी से अवलोकन करते हैं, तब हमें ज्ञात होता है कि उस काल में महात्मा लगध आचार्य ने इन शास्त्रों के खगोलीय और ज्यौतिषीय तथ्यों का संकलन ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में आए हुए खगोलज्यौतिषीय ऋचाओं को आगम मानकर किया था। |
| | | | |
| − | वेदाङ्ग होने के कारण निश्चित रूप से वेदाङ्गज्योतिषका ग्रन्थ बहुत प्राचीन प्रतीत होता है। इस सन्दर्भ में अनेक प्रमाण इनसे सम्बन्धित ग्रन्थों में ऋक् ज्योतिष, याजुष् ज्योतिष तथा आथर्वण ज्योतिष में प्राप्त होते हैं।<ref>सुनयना भारती, वेदाङ्गज्योतिष का समीक्षात्मक अध्ययन,सन् २०१२, दिल्ली विश्वविद्यालय, अध्याय ०३, (पृ०१००-१०५)।</ref> | + | वेदाङ्ग होने के कारण निश्चित रूप से वेदाङ्गज्योतिषका ग्रन्थ बहुत प्राचीन प्रतीत होता है। इस सन्दर्भ में अनेक प्रमाण इनसे सम्बन्धित ग्रन्थों में ऋक् ज्योतिष, याजुष् ज्योतिष तथा आथर्वण ज्योतिष में प्राप्त होते हैं।<ref>सुनयना भारती, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/31942 वेदाङ्गज्योतिष का समीक्षात्मक अध्ययन],सन् २०१२, दिल्ली विश्वविद्यालय, अध्याय ०३, (पृ०१००-१०५)।</ref> |
| | | | |
| | ==सारांश== | | ==सारांश== |