Line 4:
Line 4:
== परिचय॥ Introduction==
== परिचय॥ Introduction==
−
[[Varna System (वर्ण व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]] (वर्ण व्यवस्था) धर्म परंपराओं द्वारा प्रस्तुत एक दृष्टि है जिसमें विविधता को न केवल मानव समाज की मूलभूत वास्तविकता के रूप में मान्यता दी गई है, बल्कि मानव कल्याण की आधारशिला भी बनाई गई है। धर्म का अर्थ है "जो कायम रखता है” और इसलिए, धर्म पर आधारित एक सामाजिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो समाज में न्याय और सद्भाव स्थापित करते हुए प्रत्येक व्यक्ति को कल्याण और पूर्ति की ओर ले जाए, एक धारणा जिसे लोकप्रिय कहावत में अच्छी तरह से संक्षेपित किया गया है।<blockquote>लोकाः समस्ता: सुखिनो भवन्तु। lokāḥ samastāḥ sukhino bhavantu ।</blockquote>अर्थः संसार के सभी प्राणियों को सुख प्राप्त करने दें।<ref name=":0">नितिन श्रीधर, वर्ण व्यवस्था ऍज अ कॉन्सेप्चुअल सोशल ऑर्डर दॅट फसिलिटेट्स सेल्फ-ऐक्चुअलाइजेशन, indiafacts.org</ref> इस विषय पर भारतीय विद्वत परिषद के डॉ. नागराज पटूरी का उद्धरण देते हुए।<ref>डॉ. नागराज पाटुरी गुण या जन्म (जन्म) के आधार पर वर्ण का न्याय करने ।</ref>
+
[[Varna System (वर्ण व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]] (वर्ण व्यवस्था) धर्म परंपराओं द्वारा प्रस्तुत एक दृष्टि है जिसमें विविधता को न केवल मानव समाज की मूलभूत वास्तविकता के रूप में मान्यता दी गई है, बल्कि मानव कल्याण की आधारशिला भी बनाई गई है। धर्म का अर्थ है "जो कायम रखता है” और इसलिए, धर्म पर आधारित एक सामाजिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो समाज में न्याय और सद्भाव स्थापित करते हुए प्रत्येक व्यक्ति को कल्याण और पूर्ति की ओर ले जाए, एक धारणा जिसे लोकप्रिय कहावत में अच्छी तरह से संक्षेपित किया गया है।<blockquote>लोकाः समस्ता: सुखिनो भवन्तु। lokāḥ samastāḥ sukhino bhavantu ।</blockquote>अर्थः संसार के सभी प्राणियों को सुख प्राप्त करने दें।<ref name=":0">नितिन श्रीधर, [http://indiafacts.org/varna-vyavastha-as-a-conceptual-social-order-that-facilitates-self-actualization/ वर्ण व्यवस्था ऍज अ कॉन्सेप्चुअल सोशल ऑर्डर दॅट फसिलिटेट्स सेल्फ-ऐक्चुअलाइजेशन], indiafacts.org</ref> इस विषय पर भारतीय विद्वत परिषद के डॉ. नागराज पटूरी का उद्धरण देते हुए।<ref>डॉ. नागराज पाटुरी [https://groups.google.com/g/bvparishat/c/KobQl_OIHzM/m/0MOgWZkHBQAJ?pli=1 गुण या जन्म (जन्म) के आधार पर वर्ण का न्याय करना]।</ref>
''वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था पूरी तरह से दो अलग-अलग प्रणालियाँ हैं। हमारे शास्त्रों में चार वर्णों की बात की गई है न कि चार जातियों की। "वास्तव में हमारे देश में हजारों नहीं तो सैकड़ों जातियाँ हैं।" यह स्वयं दर्शाता है कि ये दोनों अलग-अलग अवधारणाएँ हैं।''
''वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था पूरी तरह से दो अलग-अलग प्रणालियाँ हैं। हमारे शास्त्रों में चार वर्णों की बात की गई है न कि चार जातियों की। "वास्तव में हमारे देश में हजारों नहीं तो सैकड़ों जातियाँ हैं।" यह स्वयं दर्शाता है कि ये दोनों अलग-अलग अवधारणाएँ हैं।''
Line 11:
Line 11:
==चतुर्वर्णों की सार्वभौमिकता॥ Universality of Chaturvarnyas==
==चतुर्वर्णों की सार्वभौमिकता॥ Universality of Chaturvarnyas==
−
सामाजिक व्यवस्था और श्रेणी प्रकृति में मौजूद है, मनुष्यों के अलावा अन्य प्रजातियों में, जैसे कि चींटियों, ततैया, मधुमक्खियों, दीमक और यहां तक कि बंदरों में भी। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था अप्राकृतिक या मानव-निर्मित नहीं है।<ref name=":1">वैरियस स्कॉलर्स इन भारतीय विद्वत परिषद (विषयः विभिन्न प्रजातियों में वर्ण प्रणाली)</ref>
+
सामाजिक व्यवस्था और श्रेणी प्रकृति में मौजूद है, मनुष्यों के अलावा अन्य प्रजातियों में, जैसे कि चींटियों, ततैया, मधुमक्खियों, दीमक और यहां तक कि बंदरों में भी। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था अप्राकृतिक या मानव-निर्मित नहीं है।<ref name=":1">वैरियस स्कॉलर्स इन भारतीय विद्वत परिषद (विषयः [https://groups.google.com/g/bvparishat/c/UJxyuIB1JgU विभिन्न प्रजातियों में वर्ण प्रणाली])।</ref>
−
'''पौधेः''' पलाश का पेड़ ब्राह्मण है और दुर्वा (अनुष्ठानों में उपयोग की जाने वाली एक प्रकार की घास) क्षत्रिय है।<blockquote>...तद्यद्दूर्वा भवत्योषधीनामेवास्मिंस्त-त्क्षत्रं दधात्यथो प्रतिष्ठामेतानि ह वै... (Aita. Brah. 8.37.4)<ref>ऐतरेय ब्राह्मण (पंचिका ८)</ref>
+
'''पौधेः''' पलाश का पेड़ ब्राह्मण है और दुर्वा (अनुष्ठानों में उपयोग की जाने वाली एक प्रकार की घास) क्षत्रिय है।<blockquote>...तद्यद्दूर्वा भवत्योषधीनामेवास्मिंस्त-त्क्षत्रं दधात्यथो प्रतिष्ठामेतानि ह वै... (Aita. Brah. 8.37.4)<ref>ऐतरेय ब्राह्मण ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%90%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AF_%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%AA%E0%A4%9E%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A5%AE_(%E0%A4%85%E0 पंचिका ८])।</ref>
...tadyaddūrvā bhavatyoṣadhīnāmevāsmiṁsta-tkṣatraṁ dadhātyatho pratiṣṭhāmetāni ha vai... (अत्रे.ब्राह्म ८.३७.४)</blockquote>वृक्षशास्त्र से संबंधित अन्य साहित्य (रजनीघंटु) में उल्लेख किया गया है कि विभिन्न वर्णों से संबंधित पौधों का एक दूसरे के साथ मिलन नहीं किया जाना चाहिए।
...tadyaddūrvā bhavatyoṣadhīnāmevāsmiṁsta-tkṣatraṁ dadhātyatho pratiṣṭhāmetāni ha vai... (अत्रे.ब्राह्म ८.३७.४)</blockquote>वृक्षशास्त्र से संबंधित अन्य साहित्य (रजनीघंटु) में उल्लेख किया गया है कि विभिन्न वर्णों से संबंधित पौधों का एक दूसरे के साथ मिलन नहीं किया जाना चाहिए।
−
'''वेदः''' कुछ विद्वानों के अनुसार, वेदों में, ऋकों को ब्राह्मणों के साथ, यजु को क्षत्रियों के साथ और समन को वैश्यों के साथ जोड़आ गया है। तैत्रिय ब्राह्मण का कहना है कि ब्राह्मण ने तीन वेदों से तीन वर्णों की रचना की-ऋग्वेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय और सामवेद से ब्राह्मण।<blockquote>ऋग्भ्यो जातं वैश्यं वर्णमाहुः । यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् । सामवेदो ब्राह्मणानां प्रसूतिः । (तैत्ति. ब्राह्म ३.१२.९.२)<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण (काण्ड ३ प्रपाठक १२)</ref>
+
'''वेदः''' कुछ विद्वानों के अनुसार, वेदों में, ऋकों को ब्राह्मणों के साथ, यजु को क्षत्रियों के साथ और समन को वैश्यों के साथ जोड़आ गया है। तैत्रिय ब्राह्मण का कहना है कि ब्राह्मण ने तीन वेदों से तीन वर्णों की रचना की-ऋग्वेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय और सामवेद से ब्राह्मण।<blockquote>ऋग्भ्यो जातं वैश्यं वर्णमाहुः । यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् । सामवेदो ब्राह्मणानां प्रसूतिः । (तैत्ति. ब्राह्म ३.१२.९.२)<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%88%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D_(%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4 काण्ड ३ प्रपाठक १२])</ref>
−
r̥gbhyo jātaṁ vaiśyaṁ varṇamāhuḥ । yajurvedaṁ kṣatriyasyāhuryonim । sāmavedo brāhmaṇānāṁ prasūtiḥ । (Tait. Brah. 3.12.9.2)</blockquote>'''वैदिक देवताः''' शतपाठ ब्राह्मण से पता चलता है कि अग्नि और बृहस्पति ब्राह्मण थे; इंद्र, वरुण, सोम, रुद्र, परजन्य और यम क्षत्रिय थे; वासु, रुद्र, आदित्य, वैष्णव और मरुत वैश्य थे (जिन्हें विश भी कहा जाता है) और पुषा शूद्र थी।<ref name=":2">आचार्य शिव, (२०००) पीएच.डी. थीसिस: नेशन एंड नेशनलिज़म इन द वेदिक लिटरेचर: ए स्टडी. गौहाटी: यूनिवर्सिटी ऑफ गौहाटी गुवाहाटी विश्वविद्यालय (अध्याय ५ सामाजिक पहलू: वर्ण और आश्रम व्यवस्था)</ref><ref name=":1" /><blockquote>ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्। एकमेव तदेकं सन्न व्यभवत्तच्छ्रेयो रूपमत्यसृजत क्षत्रं यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्यो यमो मृत्युरीशान इति..। (शत. ब्राह्म. १४.४.२.२३)
+
r̥gbhyo jātaṁ vaiśyaṁ varṇamāhuḥ । yajurvedaṁ kṣatriyasyāhuryonim । sāmavedo brāhmaṇānāṁ prasūtiḥ । (Tait. Brah. 3.12.9.2)</blockquote>'''वैदिक देवताः''' शतपाठ ब्राह्मण से पता चलता है कि अग्नि और बृहस्पति ब्राह्मण थे; इंद्र, वरुण, सोम, रुद्र, परजन्य और यम क्षत्रिय थे। वासु, रुद्र, आदित्य, वैष्णव और मरुत वैश्य थे (जिन्हें विश भी कहा जाता है) और पुषा शूद्र थी।<ref name=":2">आचार्य शिव, (२०००) पीएच.डी. थीसिस: नेशन एंड नेशनलिज़म इन द वेदिक लिटरेचर: ए स्टडी. गौहाटी: यूनिवर्सिटी ऑफ गौहाटी गुवाहाटी विश्वविद्यालय ([https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/67734 अध्याय ५ सामाजिक पहलू: वर्ण और आश्रम व्यवस्था])</ref><ref name=":1" /><blockquote>ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्। एकमेव तदेकं सन्न व्यभवत्तच्छ्रेयो रूपमत्यसृजत क्षत्रं यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्यो यमो मृत्युरीशान इति..। (शत. ब्राह्म. १४.४.२.२३)
brahma vā idamagra āsīt। ekameva tadekaṁ sanna vyabhavattacchreyo rūpamatyasr̥jata kṣatraṁ yānyetāni devatrā kṣatrāṇīndro varuṇaḥ somo rudraḥ parjanyo yamo mr̥tyurīśāna iti.. ।(Shat. Brah। 14.4.2.23)
brahma vā idamagra āsīt। ekameva tadekaṁ sanna vyabhavattacchreyo rūpamatyasr̥jata kṣatraṁ yānyetāni devatrā kṣatrāṇīndro varuṇaḥ somo rudraḥ parjanyo yamo mr̥tyurīśāna iti.. ।(Shat. Brah। 14.4.2.23)
Line 27:
Line 27:
sa viśamasr̥jata yānyetāni devajātāni gaṇaśa ākhyāyante vasavo rudrā ādityā viśve devā maruta iti । (Shat. Brah. 14.4.2.24)
sa viśamasr̥jata yānyetāni devajātāni gaṇaśa ākhyāyante vasavo rudrā ādityā viśve devā maruta iti । (Shat. Brah. 14.4.2.24)
−
स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं वै पूषेयं हीदं सर्वं पुष्यति यदिदं किं च। (Shat. Brah. 14.4.2.25)<ref>शतपाठ ब्राह्मण (कांड १४ अध्याय ४)</ref>
+
स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं वै पूषेयं हीदं सर्वं पुष्यति यदिदं किं च। (Shat. Brah. 14.4.2.25)<ref>शतपाठ ब्राह्मण ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%A4%E0%A4%AA%E0%A4%A5%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%AE%E0%A5%8D_%E0%A5%A7%E0%A5%AA/%E0%A4%85%E0%A कांड १४ अध्याय ४])</ref>
sa śaudraṁ varṇamasr̥jata pūṣaṇamiyaṁ vai pūṣeyaṁ hīdaṁ sarvaṁ puṣyati yadidaṁ kiṁ ca। (Shat. Brah. 14.4.2.25)</blockquote>'''वैदिक स्वरः''' वैदिक मंत्र उच्चारण के उदत्त, अनुदत्त, स्वरीत स्वरों को याज्ञवल्क्य शिक्षा शास्त्र के अनुसार वर्णों और ऋषियों में वर्गीकृत किया गया है।<ref name=":1" /><blockquote>उदात्तं ब्राह्मणं विद्यान्नीचं क्षत्रियमेव च। ३ वैश्यं तु स्वरितं विद्याद् भारद्वाजमुदात्तकम् । नीचं गौतममित्याहुर्गार्ग्यं चस्वरितं विदुः।४ (यज्ञ. शिख. ३-४)<ref>पं. रामप्रसाद त्रिपाठी (१९८९) शिक्षा संग्रह ऑफ याज्ञवल्क्य एंड अदर्स. वाराणसी: संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय (पृष्ठ १)।</ref>
sa śaudraṁ varṇamasr̥jata pūṣaṇamiyaṁ vai pūṣeyaṁ hīdaṁ sarvaṁ puṣyati yadidaṁ kiṁ ca। (Shat. Brah. 14.4.2.25)</blockquote>'''वैदिक स्वरः''' वैदिक मंत्र उच्चारण के उदत्त, अनुदत्त, स्वरीत स्वरों को याज्ञवल्क्य शिक्षा शास्त्र के अनुसार वर्णों और ऋषियों में वर्गीकृत किया गया है।<ref name=":1" /><blockquote>उदात्तं ब्राह्मणं विद्यान्नीचं क्षत्रियमेव च। ३ वैश्यं तु स्वरितं विद्याद् भारद्वाजमुदात्तकम् । नीचं गौतममित्याहुर्गार्ग्यं चस्वरितं विदुः।४ (यज्ञ. शिख. ३-४)<ref>पं. रामप्रसाद त्रिपाठी (१९८९) शिक्षा संग्रह ऑफ याज्ञवल्क्य एंड अदर्स. वाराणसी: संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय (पृष्ठ १)।</ref>
Line 33:
Line 33:
udāttaṁ brāhmaṇaṁ vidyānnīcaṁ kṣatriyameva ca। 3 vaiśyaṁ tu svaritaṁ vidyād bhāradvājamudāttakam । nīcaṁ gautamamityāhurgārgyaṁ ca svaritaṁ viduḥ ।4 (Yajn. Shik. 3-4)</blockquote>जान लें कि उदत्त स्वर ब्राह्मण है, और अनुदत्त (नीचा) क्षत्रिय है। वैश्य स्वरीत में है। जान लें कि भारद्वाज को (ऋषि कहा जाता है) उदत्त के लिए, गौतम को नीच के लिए और गार्ग्य को श्वेत स्वरों के लिए कहा जाता है।
udāttaṁ brāhmaṇaṁ vidyānnīcaṁ kṣatriyameva ca। 3 vaiśyaṁ tu svaritaṁ vidyād bhāradvājamudāttakam । nīcaṁ gautamamityāhurgārgyaṁ ca svaritaṁ viduḥ ।4 (Yajn. Shik. 3-4)</blockquote>जान लें कि उदत्त स्वर ब्राह्मण है, और अनुदत्त (नीचा) क्षत्रिय है। वैश्य स्वरीत में है। जान लें कि भारद्वाज को (ऋषि कहा जाता है) उदत्त के लिए, गौतम को नीच के लिए और गार्ग्य को श्वेत स्वरों के लिए कहा जाता है।
−
वर्णाक्षरमालाः यहाँ तक कि वर्णमालाओं को भी वर्ण व्यवस्था के तहत वर्गीकृत किया गया है। स्वर वर्णों को ब्राह्मण के रूप में जाना जाता है, पांच वर्गों (कवर्ग और अन्य) व्यंजन समूहों में से प्रत्येक समूह के पहले चार (अल्पप्राण और महाप्राण) को क्षत्रिय वर्ण से संबंधित माना जाता है, अंतस्त के साथ प्रत्येक समूह के पंचमा अक्षर को वैश्य समूह से संबंधित कहा जाता है। उश्माना और हाकारा समूह को शूद्र वर्ण का कहा जाता है।<blockquote>स्वरास्तु ब्राह्मणा ज्ञेया वर्गाणां प्रथमाश्च ये द्वितीयाश्च तृतीयाश्च चतुर्थाश्चापि भूमिपाः २
+
वर्णाक्षरमालाः यहाँ तक कि वर्णमालाओं को भी वर्ण व्यवस्था के तहत वर्गीकृत किया गया है। स्वर वर्णों को ब्राह्मण के रूप में जाना जाता है, पांच वर्गों (कवर्ग और अन्य) व्यंजन समूहों में से प्रत्येक समूह के पहले चार (अल्पप्राण और महाप्राण) को क्षत्रिय वर्ण से संबंधित माना जाता है, अंतस्त के साथ प्रत्येक समूह के पंचमा अक्षर को वैश्य समूह से संबंधित कहा जाता है। उश्माना और हाकारा समूह को शूद्र वर्ण का कहा जाता है।<blockquote>स्वरास्तु ब्राह्मणा ज्ञेया वर्गाणां प्रथमाश्च ये। द्वितीयाश्च तृतीयाश्च चतुर्थाश्चापि भूमिपाः॥२॥
−
svarāstu brāhmaṇā jñeyā vargāṇāṁ prathamāśca ye dvitīyāśca tr̥tīyāśca caturthāścāpi bhūmipāḥ 2
+
svarāstu brāhmaṇā jñeyā vargāṇāṁ prathamāśca ye dvitīyāśca tr̥tīyāśca caturthāścāpi bhūmipāḥ ॥2॥
−
वर्गाणां पञ्चमा वैश्या अन्तस्थाश्च तथैव च ऊष्माणश्च हकारश्च शूद्रा एव प्रकीर्तिताः ३
+
वर्गाणां पञ्चमा वैश्या अन्तस्थाश्च तथैव च। ऊष्माणश्च हकारश्च शूद्रा एव प्रकीर्तिताः॥३॥
−
vargāṇāṁ pañcamā vaiśyā antasthāśca tathaiva ca ūṣmāṇaśca hakāraśca śūdrā eva prakīrtitāḥ 3</blockquote>पशुः पशुओं को समूहों में वर्गीकृत किया गया है; उदाहरण के लिए, बकरी को ब्राह्मण वर्ण शतपथ ब्राह्मण (एस. बी. 6.4.4.22) में माना गया है, घोड़आ क्षत्रिय (एस. बी. 6.4.4.12) है, गधा एक वैश्य है और शूद्र (एस. बी. 6.4.4.12) भी।<ref name=":2" />
+
vargāṇāṁ pañcamā vaiśyā antasthāśca tathaiva ca ūṣmāṇaśca hakāraśca śūdrā eva prakīrtitāḥ ॥3॥</blockquote>पशुः पशुओं को समूहों में वर्गीकृत किया गया है; उदाहरण के लिए, बकरी को ब्राह्मण वर्ण शतपथ ब्राह्मण (एस. बी. 6.4.4.22) में माना गया है, घोड़आ क्षत्रिय (एस. बी. 6.4.4.12) है, गधा एक वैश्य है और शूद्र (एस. बी. 6.4.4.12) भी।<ref name=":2" />
मनुष्यों में वर्ण व्यवस्त को स्थापित करने के मानदंडों पर सदियों से बुद्धिजीवियों द्वारा बहस की गई है, खंडों को सामने लाया गया है, व्याख्याओं को मंथन किया गया है लेकिन बिना किसी सहमति या ठोस परिणाम के। वर्ण व्यवस्त के संगठन पर विचारों के स्कूल या उनका संयोजन मोटे तौर पर निम्नलिखित पहलुओं पर आधारित हो सकता है।
मनुष्यों में वर्ण व्यवस्त को स्थापित करने के मानदंडों पर सदियों से बुद्धिजीवियों द्वारा बहस की गई है, खंडों को सामने लाया गया है, व्याख्याओं को मंथन किया गया है लेकिन बिना किसी सहमति या ठोस परिणाम के। वर्ण व्यवस्त के संगठन पर विचारों के स्कूल या उनका संयोजन मोटे तौर पर निम्नलिखित पहलुओं पर आधारित हो सकता है।
Line 50:
Line 50:
उपरोक्त विचारों में से प्रत्येक के समर्थन और विरोध में विभिन्न ग्रंथों से अपने तर्क हैं। वर्णों की उत्पत्ति और संख्या के बारे में विभिन्न संस्करण हैं। वर्ण की अवधारणा का प्राथमिक परिचय ऋग्वेद में पुरुष सूक्त की भव्यता में आता है, जहां सभी वर्ण दिव्य सर्वोच्च का हिस्सा हैं, जो विश्वरूप का एक हिस्सा है। भगवदगीता के प्रसिद्ध श्लोक में श्रीकृष्ण को वर्णों का निर्माता घोषित किया गया है।<blockquote>चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।। (भग. गीता. ४.१३)
उपरोक्त विचारों में से प्रत्येक के समर्थन और विरोध में विभिन्न ग्रंथों से अपने तर्क हैं। वर्णों की उत्पत्ति और संख्या के बारे में विभिन्न संस्करण हैं। वर्ण की अवधारणा का प्राथमिक परिचय ऋग्वेद में पुरुष सूक्त की भव्यता में आता है, जहां सभी वर्ण दिव्य सर्वोच्च का हिस्सा हैं, जो विश्वरूप का एक हिस्सा है। भगवदगीता के प्रसिद्ध श्लोक में श्रीकृष्ण को वर्णों का निर्माता घोषित किया गया है।<blockquote>चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।। (भग. गीता. ४.१३)
−
cāturvarṇyaṁ mayā sr̥ṣṭaṁ guṇakarmavibhāgaśaḥ। tasya kartāramapi māṁ viddhyakartāramavyayam।।</blockquote>चांदोग्य उपनिषद (५.१०.७) पिछले जन्म (कर्म सिद्धांत) के कार्यों को कुछ जन्मों का कारण घोषित करता है। हालाँकि, वर्तमान समय में, समाज और राष्ट्र के संचालन और सुचारू रूप से चलने के लिए मूल से अधिक, सभी वर्णों के लोगों के समान योगदान का दृष्टिकोण समय की आवश्यकता है।<ref name=":2" />
+
cāturvarṇyaṁ mayā sr̥ṣṭaṁ guṇakarmavibhāgaśaḥ। tasya kartāramapi māṁ viddhyakartāramavyayam।।</blockquote>छांदोग्य उपनिषद (५.१०.७) पिछले जन्म (कर्म सिद्धांत) के कार्यों को कुछ जन्मों का कारण घोषित करता है। हालाँकि, वर्तमान समय में, समाज और राष्ट्र के संचालन और सुचारू रूप से चलने के लिए मूल से अधिक, सभी वर्णों के लोगों के समान योगदान का दृष्टिकोण समय की आवश्यकता है।<ref name=":2" />
==वर्ण की अवधारणा॥ The Concept of Varna==
==वर्ण की अवधारणा॥ The Concept of Varna==
Line 58:
Line 58:
===वेद में वर्ण॥ Varna in the Veda===
===वेद में वर्ण॥ Varna in the Veda===
−
+
हालांकि वेद में इल वर्ण, वर्ण प्रणाली को अक्सर एक सामाजिक समूह का प्रतिनिधित्व करने वाली "जाति प्रणाली” या "वर्ग प्रणाली” के संदर्भ के रूप में समझा गया है, [[Vedas (वेदाः)|वेद]] और धर्मशास्त्रों में इस शब्द का प्राथमिक उपयोग एक ”वैचारिक ढांचे" का रहा है। [[Rigveda (ऋग्वेदः)|ऋग्वेद]] पुरुषसुक्त (मंत्र १२) वर्ण के वैचारिक ढांचे का सबसे पहला संदर्भ प्रदान करता है। यह ब्रह्मांड के विभिन्न पहलुओं और कार्यों को दर्शाने वाले अपने अंगों के साथ ब्रह्मांड को एक ब्रह्मांडीय [[Purusha (पुरुषः)|पुरुष]] के रूप में प्रस्तुत करने के लिए मानव शरीर के रूपक का उपयोग करता है।<ref name=":0" /> <blockquote>ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥ (ऋग.१०.९०.१२)<ref>ऋग्वेद, मंडल १०, सूक्त ९०, श्लोक १२।</ref>
−
हालांकि वेद में इल वर्ण, वर्ण प्रणाली को अक्सर एक सामाजिक समूह का प्रतिनिधित्व करने वाली "जाति प्रणाली” या "वर्ग प्रणाली” के संदर्भ के रूप में समझा गया है, [[Vedas (वेदाः)|वेद]] और धर्मशास्त्रों में इस शब्द का प्राथमिक उपयोग एक ”वैचारिक ढांचे" का रहा है। [[Rigveda (ऋग्वेदः)|ऋग्वेद]] पुरुषसुक्त (मंत्र १२) वर्ण के वैचारिक ढांचे का सबसे पहला संदर्भ प्रदान करता है। यह ब्रह्मांड के विभिन्न पहलुओं और कार्यों को दर्शाने वाले अपने अंगों के साथ ब्रह्मांड को एक ब्रह्मांडीय [[Purusha (पुरुषः)|पुरुष]] के रूप में प्रस्तुत करने के लिए मानव शरीर के रूपक का उपयोग करता है।<ref name=":0" /> <blockquote>ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥ (ऋग.१०.९०.१२)<ref>ऋग्वेद, मंडल १०, सूक्त ९०, श्लोक १२।</ref>
brāhmaṇo'sya mukhamāsīdbāhū rājanyaḥ kr̥taḥ । ūrū tadasya yadvaiśyaḥ padbhyāṁ śūdro ajāyata ॥12॥ (Rig.10.90.12)</blockquote>अर्थः ब्राह्मण (आध्यात्मिक ज्ञान और वैभव का प्रतिनिधित्व करने वाला) उनका मुँह था; क्षत्रिय (प्रशासनिक और सैन्य कौशल का गठन करने वाला) उनकी भुजाएँ बन गए। उनकी जांघों में वैश्य (जिन्होंने वाणिज्यिक और व्यावसायिक उद्यम का गठन किया) थे; उनके चरणों में शूद्र (उत्पादक और निर्वाहक शक्ति का भंडार) का जन्म हुआ।<ref>स्वामी कृष्णानंद, डेली इनवोकेशन्स, ऋषिकेश: द डिवाइन लाइफ सोसाइटी, पृ.सं.६३।</ref>
brāhmaṇo'sya mukhamāsīdbāhū rājanyaḥ kr̥taḥ । ūrū tadasya yadvaiśyaḥ padbhyāṁ śūdro ajāyata ॥12॥ (Rig.10.90.12)</blockquote>अर्थः ब्राह्मण (आध्यात्मिक ज्ञान और वैभव का प्रतिनिधित्व करने वाला) उनका मुँह था; क्षत्रिय (प्रशासनिक और सैन्य कौशल का गठन करने वाला) उनकी भुजाएँ बन गए। उनकी जांघों में वैश्य (जिन्होंने वाणिज्यिक और व्यावसायिक उद्यम का गठन किया) थे; उनके चरणों में शूद्र (उत्पादक और निर्वाहक शक्ति का भंडार) का जन्म हुआ।<ref>स्वामी कृष्णानंद, डेली इनवोकेशन्स, ऋषिकेश: द डिवाइन लाइफ सोसाइटी, पृ.सं.६३।</ref>
Line 67:
Line 66:
===सूत्र एवं चरण ग्रंथों में वर्ण॥ Varna in Sutracharanas===
===सूत्र एवं चरण ग्रंथों में वर्ण॥ Varna in Sutracharanas===
−
[[Grhyasutras (गृह्यसूत्राणि)|गृह्यसूत्र]] और [[Dharmasutras (धर्मसूत्राणि)|धर्मसूत्र]] प्राथमिक ग्रंथ हैं जो स्पष्ट रूप से [[Varnashrama Dharma (वर्णाश्रमधर्मः)|वर्णाश्रम धर्मों]] का वर्णन करते हैं और इन्हें प्राचीन प्राथमिक कल्प ग्रंथ माना जाता है जो इस मामले को बहुत विस्तार से बताते हैं। जबकि वेदों में उनका उल्लेख विशेष संदर्भ (जैसे उपनयन और विवाह) में किया गया है, वर्णाश्रम धर्म इन वेदांग ग्रंथों का प्रमुख विषय हैं। उन्होंने पालन किए जाने वाले व्यवसायों के बारे में सख्त नियम बनाए जो काफी हद तक वंशानुगत तरीके से थे। बौद्धायन, अपस्तंब, गौतम और वशिष्ठ जैसे गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र कुछ मतभेदों के साथ, या कुछ विशिष्टता, चूक या सिद्धांतों के जोड़ के साथ वर्णधर्म की चर्चा करते हैं। यहाँ बौधायन धर्मसूत्रों<ref>बौधायन धर्मसूत्र (फूल टेक्स्ट)।</ref> का उल्लेख वर्णधर्मों के उदाहरण के रूप में लोगों के स्वाधर्म के महत्व के साथ किया गया है।<blockquote>ब्रह्म वै स्वं महिमानं ब्राह्मणेष्वदधाद् अध्ययन-अध्यापन-यजन-याजन-दान-प्रतिग्रह-संयुक्तं वेदानां गुप्त्यै ॥ (बौध.धर.सूत्र. १.१.१०.२)
+
[[Grhyasutras (गृह्यसूत्राणि)|गृह्यसूत्र]] और [[Dharmasutras (धर्मसूत्राणि)|धर्मसूत्र]] प्राथमिक ग्रंथ हैं जो स्पष्ट रूप से [[Varnashrama Dharma (वर्णाश्रमधर्मः)|वर्णाश्रम धर्मों]] का वर्णन करते हैं और इन्हें प्राचीन प्राथमिक कल्प ग्रंथ माना जाता है जो इस मामले को बहुत विस्तार से बताते हैं। जबकि वेदों में उनका उल्लेख विशेष संदर्भ (जैसे उपनयन और विवाह) में किया गया है, वर्णाश्रम धर्म इन वेदांग ग्रंथों का प्रमुख विषय हैं। उन्होंने पालन किए जाने वाले व्यवसायों के बारे में सख्त नियम बनाए जो काफी हद तक वंशानुगत तरीके से थे। बौद्धायन, आपस्तंब, गौतम और वशिष्ठ जैसे गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र कुछ मतभेदों के साथ, या कुछ विशिष्टता, चूक या सिद्धांतों के जोड़ के साथ वर्णधर्म की चर्चा करते हैं। यहाँ बौधायन धर्मसूत्रों<ref>बौधायन धर्मसूत्र (फूल टेक्स्ट)।</ref> का उल्लेख वर्णधर्मों के उदाहरण के रूप में लोगों के स्वाधर्म के महत्व के साथ किया गया है।<blockquote>ब्रह्म वै स्वं महिमानं ब्राह्मणेष्वदधाद् अध्ययन-अध्यापन-यजन-याजन-दान-प्रतिग्रह-संयुक्तं वेदानां गुप्त्यै ॥ (बौध.धर.सूत्र. १.१.१०.२)
brahma vai svaṁ mahimānaṁ brāhmaṇeṣvadadhād adhyayana-adhyāpana-yajana-yājana-dāna-pratigraha-saṁyuktaṁ vedānāṁ guptyai ॥ (Baud. Dhar. Sutr. 1.1.10.2)</blockquote>ब्राम्हणों से जुड़े छह [[Brahmana Dharma (ब्राह्मणधर्मः)|ब्राह्मण धर्म]] हैं जिनमें अध्ययन (अध्ययन।वेदों का अध्ययन करना), अध्यापन (अध्यापन।सिखाना), यज्ञ करना (यजन), याजन करना (याजन), दान देना (दान) और (प्रतिग्रह) दान प्राप्त करना शामिल हैं - ये सभी वेदों की सुरक्षा के लिए हैं।<ref name=":3" /><blockquote>क्षत्रे बलम् अध्ययन-यजन-दान-शस्त्र-कोश-भूत-रक्षण-संयुक्तं क्षत्रस्य वृद्ध्यै ॥ (बौध.धर.सूत्र. १.१.१०.३)
brahma vai svaṁ mahimānaṁ brāhmaṇeṣvadadhād adhyayana-adhyāpana-yajana-yājana-dāna-pratigraha-saṁyuktaṁ vedānāṁ guptyai ॥ (Baud. Dhar. Sutr. 1.1.10.2)</blockquote>ब्राम्हणों से जुड़े छह [[Brahmana Dharma (ब्राह्मणधर्मः)|ब्राह्मण धर्म]] हैं जिनमें अध्ययन (अध्ययन।वेदों का अध्ययन करना), अध्यापन (अध्यापन।सिखाना), यज्ञ करना (यजन), याजन करना (याजन), दान देना (दान) और (प्रतिग्रह) दान प्राप्त करना शामिल हैं - ये सभी वेदों की सुरक्षा के लिए हैं।<ref name=":3" /><blockquote>क्षत्रे बलम् अध्ययन-यजन-दान-शस्त्र-कोश-भूत-रक्षण-संयुक्तं क्षत्रस्य वृद्ध्यै ॥ (बौध.धर.सूत्र. १.१.१०.३)
Line 73:
Line 72:
kṣatre balam adhyayana-yajana-dāna-śastra-kośa-bhūta-rakṣaṇa-saṁyuktaṁ kṣatrasya vr̥ddhyai ॥ (Baud. Dhar. Sutr. 1.1.10.3)</blockquote>क्षत्रियों के साथ शक्ति जुड़ी हुई है और शास्त्रों में निर्धारित तरीकों के अनुसार विषयों पर शासन करना उनका स्वधर्म है। उनके [[Kshatriya Dharma (क्षत्रियधर्मः)|क्षत्रिय धर्मों]] में मुख्य रूप से सभी वर्णों के लोगों की सुरक्षा शामिल है और इसमें अध्ययन (वेदों का अध्ययन करना), यज्ञ करना (यजन), देना देना (दान), हथियार बनाना (शस्त्र), खजाना (कोश) बनाए रखना और शक्ति के लिए सभी प्राणियों (भूतरक्षण) की समग्र सुरक्षा शामिल है।<ref name=":3">पं. श्रीनिवासाचार्य, एल. (१९०७) बौधायन धर्मसूत्र गोविंदस्वामी की टिप्पणी के साथ। मैसूर: गवर्नमेंट ब्रांच प्रेस (पृष्ठ १२० - १२१)।</ref><blockquote>विट् स्व् अध्ययन-यजन-दान-कृषि-वाणिज्य-पशुपालन-संयुक्तं कर्मणां वृद्ध्यै ॥ (बौध.धर.सूत्र. १.१०.४)
kṣatre balam adhyayana-yajana-dāna-śastra-kośa-bhūta-rakṣaṇa-saṁyuktaṁ kṣatrasya vr̥ddhyai ॥ (Baud. Dhar. Sutr. 1.1.10.3)</blockquote>क्षत्रियों के साथ शक्ति जुड़ी हुई है और शास्त्रों में निर्धारित तरीकों के अनुसार विषयों पर शासन करना उनका स्वधर्म है। उनके [[Kshatriya Dharma (क्षत्रियधर्मः)|क्षत्रिय धर्मों]] में मुख्य रूप से सभी वर्णों के लोगों की सुरक्षा शामिल है और इसमें अध्ययन (वेदों का अध्ययन करना), यज्ञ करना (यजन), देना देना (दान), हथियार बनाना (शस्त्र), खजाना (कोश) बनाए रखना और शक्ति के लिए सभी प्राणियों (भूतरक्षण) की समग्र सुरक्षा शामिल है।<ref name=":3">पं. श्रीनिवासाचार्य, एल. (१९०७) बौधायन धर्मसूत्र गोविंदस्वामी की टिप्पणी के साथ। मैसूर: गवर्नमेंट ब्रांच प्रेस (पृष्ठ १२० - १२१)।</ref><blockquote>विट् स्व् अध्ययन-यजन-दान-कृषि-वाणिज्य-पशुपालन-संयुक्तं कर्मणां वृद्ध्यै ॥ (बौध.धर.सूत्र. १.१०.४)
−
viṭsv adhyayana-yajana-dāna-kr̥ṣi-vāṇijya-paśupālana-saṁyuktaṁ karmaṇāṁ vr̥ddhyai ॥ (Baud. Dhar. Sutr. 1.10.4)</blockquote>[[Vaishya Dharma (वैश्यधर्मः)|वैश्य धर्मों]] में कर्म के लिए अध्ययन (वेदों का अध्ययन), यज्ञ करना (यजन) , (दान) देना, कृषि (कृषि), व्यापार (वाणिज्य), पशु प्रजनन (पशुपालन) शामिल हैं।<ref name=":3" /> <blockquote>शूद्रेषु पूर्वेषां परिचर्याम् ॥ śūdreṣu pūrveṣāṁ paricaryām ॥ (बौध.धर.सूत्र. १.१.१०.५)</blockquote>[[Shudra Dharma (शूद्रधर्मः)|शूद्र धर्मों]] में अन्य वर्णों के व्यक्तियों के लिए सुश्रुषा (निस्वार्थ सेवा) शामिल थी।
+
viṭsv adhyayana-yajana-dāna-kr̥ṣi-vāṇijya-paśupālana-saṁyuktaṁ karmaṇāṁ vr̥ddhyai ॥ (Baud. Dhar. Sutr. 1.10.4)</blockquote>[[Vaishya Dharma (वैश्यधर्मः)|वैश्य धर्मों]] में कर्म के लिए अध्ययन (वेदों का अध्ययन), यज्ञ करना (यजन) , (दान) देना, कृषि (कृषि), व्यापार (वाणिज्य), पशु प्रजनन (पशुपालन) शामिल हैं।<ref name=":3" /> <blockquote>शूद्रेषु पूर्वेषां परिचर्याम् ॥ śūdreṣu pūrveṣāṁ paricaryām॥ (बौध.धर.सूत्र. १.१.१०.५)</blockquote>[[Shudra Dharma (शूद्रधर्मः)|शूद्र धर्मों]] में अन्य वर्णों के व्यक्तियों के लिए सुश्रुषा (निस्वार्थ सेवा) शामिल थी। इस प्रकार सूत्रग्रंथों में विभिन्न धर्मों के बारे में व्यापक रूप से चर्चा की जाती है।
−
−
इस प्रकार सूत्रग्रंथों में विभिन्न धर्मों के बारे में व्यापक रूप से चर्चा की जाती है।
===स्मृतियों में वर्ण॥ Varna in Smrti===
===स्मृतियों में वर्ण॥ Varna in Smrti===
−
[[Manusmrti (मनुस्मृतिः)|मनुस्मृति]] (१.८७) वर्णन करती है कि कैसे ब्रह्मांडीय पुरुष ने ब्रह्मांड<ref name=":0" /> की रक्षा और उसे बनाए रखने के लिए अपने अलग-अलग अंगों से पैदा हुए लोगों को अलग-अलग कर्तव्य दिए। वर्ण धर्म के उद्देश्य की बात करते हुए मनु कहते हैं,<blockquote>सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः । मुखबाहूरुपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत् ।। १.८७ ।।<ref name=":4">मनुस्मृति, अध्याय १। </ref>
+
[[Manusmrti (मनुस्मृतिः)|मनुस्मृति]] (१.८७) वर्णन करती है कि कैसे ब्रह्मांडीय पुरुष ने ब्रह्मांड<ref name=":0" /> की रक्षा और उसे बनाए रखने के लिए अपने अलग-अलग अंगों से पैदा हुए लोगों को अलग-अलग कर्तव्य दिए। वर्ण धर्म के उद्देश्य की बात करते हुए मनु कहते हैं - <blockquote>सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः। मुखबाहूरुपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत्।।१.८७।।<ref name=":4">मनुस्मृति, अध्याय १। </ref>
sarvasyāsya tu sargasya guptyarthaṁ sa mahādyutiḥ । mukhabāhūrupajjānāṁ pr̥thakkarmāṇyakalpayat । । 1.87 । ।</blockquote>अर्थः इस पूरी सृष्टि की सुरक्षा के लिए, तेजस्वी ने उन लोगों के अलग-अलग कार्यों को निर्धारित किया जो मुंह, बाहों, जांघों और पैरों से निकले थे (१.८७)।<ref>गंगानाथ झा (१९२०-३९), मनुस्मृति (खंड ३), दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड।</ref>
sarvasyāsya tu sargasya guptyarthaṁ sa mahādyutiḥ । mukhabāhūrupajjānāṁ pr̥thakkarmāṇyakalpayat । । 1.87 । ।</blockquote>अर्थः इस पूरी सृष्टि की सुरक्षा के लिए, तेजस्वी ने उन लोगों के अलग-अलग कार्यों को निर्धारित किया जो मुंह, बाहों, जांघों और पैरों से निकले थे (१.८७)।<ref>गंगानाथ झा (१९२०-३९), मनुस्मृति (खंड ३), दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड।</ref>
−
===महाभारत में वर्ण॥ Varna in the Mahabharata ===
+
===महाभारत में वर्ण॥ Varna in the Mahabharata===
[[Mahabharat (महाभारत)|महाभारत]] (१२.१८८) प्रत्येक वर्ण को एक रंग प्रदान करता है जो प्रतीकात्मक रूप से उस वर्ण से जुड़े गुणों/स्वभव का प्रतिनिधित्व करता है, जो प्रकृति के तीन गुणों ([[Prakrti (प्रकृतिः)|प्रकृति]]) को दर्शाता हैः सत्व, रजस और तमस।<ref name=":0" />
[[Mahabharat (महाभारत)|महाभारत]] (१२.१८८) प्रत्येक वर्ण को एक रंग प्रदान करता है जो प्रतीकात्मक रूप से उस वर्ण से जुड़े गुणों/स्वभव का प्रतिनिधित्व करता है, जो प्रकृति के तीन गुणों ([[Prakrti (प्रकृतिः)|प्रकृति]]) को दर्शाता हैः सत्व, रजस और तमस।<ref name=":0" />
−
महाभारत के शांति पर्व में मोक्ष धर्म पर्व में कहा गया है कि,<blockquote>ब्राह्मणानां सितो वर्णः क्षत्रियाणां तु लोहितः । वैश्यानां पीतको वर्णः शूद्राणामसितस्तथा ॥ ५ ॥<ref name=":5">रामनारायणदत्त शास्त्री पांडे, महाभारत - खंड ५ (शांति पर्व), गोरखपुर: गीता प्रेस।</ref>
+
महाभारत के शांति पर्व में मोक्ष धर्म पर्व में कहा गया है कि - <blockquote>ब्राह्मणानां सितो वर्णः क्षत्रियाणां तु लोहितः । वैश्यानां पीतको वर्णः शूद्राणामसितस्तथा ॥ ५ ॥<ref name=":5">रामनारायणदत्त शास्त्री पांडे, महाभारत - खंड ५ (शांति पर्व), गोरखपुर: गीता प्रेस।</ref>
−
''brāhmaṇānāṁ sito varṇaḥ kṣatriyāṇāṁ tu lohitaḥ । vaiśyānāṁ pītako varṇaḥ śūdrāṇāmasitastathā ॥ 5 ॥''</blockquote>अर्थः ब्राह्मणों का रंग सफेद, क्षत्रिय लाल, वैश्य पीला और शूद्रों का रंग काला होता है। वर्ण का यह अंतर कैसे आया, यह बताते हुए कहा जाता है,<blockquote>न विशेषोऽस्तिवर्णानां सर्वे ब्राह्ममिदं जगत् । ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥ १० ॥<sup>[१५]</sup>
+
''brāhmaṇānāṁ sito varṇaḥ kṣatriyāṇāṁ tu lohitaḥ । vaiśyānāṁ pītako varṇaḥ śūdrāṇāmasitastathā ॥ 5 ॥''</blockquote>'''अर्थः''' ब्राह्मणों का रंग सफेद, क्षत्रिय लाल, वैश्य पीला और शूद्रों का रंग काला होता है। वर्ण का यह अंतर कैसे आया, यह बताते हुए कहा जाता है।<blockquote>न विशेषोऽस्तिवर्णानां सर्वे ब्राह्ममिदं जगत् । ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥ १० ॥<sup>[१५]</sup>
−
''na viśeṣo'stivarṇānāṁ sarve brāhmamidaṁ jagat । brahmaṇā pūrvasr̥ṣṭaṁ hi karmabhirvarṇatāṁ gatam ॥ 10 ॥''</blockquote>अर्थः हे ऋषि, शुरुआत में वर्णों में कोई अंतर नहीं था। भगवान [[Brahma (ब्रह्मा)|ब्रह्मा]] से उत्पन्न होने के कारण, पूरा ब्रह्मांड ब्राह्मण था। बाद में, विभिन्न कर्मों (गतिविधियों) के कारण, उन्हें वर्णों के आधार पर अलग किया गया। आगे कहा गया है कि,<blockquote>कामभोगप्रियास्तीक्ष्णाः क्रोधनाः प्रियसाहसाः । त्यक्त्वस्वधर्मारक्ताङ्गास्ते द्विजाः क्षत्रतां गताः ॥ ११ ॥<ref name=":5" />
+
''na viśeṣo'stivarṇānāṁ sarve brāhmamidaṁ jagat । brahmaṇā pūrvasr̥ṣṭaṁ hi karmabhirvarṇatāṁ gatam ॥ 10 ॥''</blockquote>'''अर्थः''' हे ऋषि, शुरुआत में वर्णों में कोई अंतर नहीं था। भगवान [[Brahma (ब्रह्मा)|ब्रह्मा]] से उत्पन्न होने के कारण, पूरा ब्रह्मांड ब्राह्मण था। बाद में, विभिन्न कर्मों (गतिविधियों) के कारण, उन्हें वर्णों के आधार पर अलग किया गया। आगे कहा गया है कि - <blockquote>कामभोगप्रियास्तीक्ष्णाः क्रोधनाः प्रियसाहसाः। त्यक्त्वस्वधर्मारक्ताङ्गास्ते द्विजाः क्षत्रतां गताः ॥ ११ ॥<ref name=":5" />
−
''kāmabhogapriyāstīkṣṇāḥ krodhanāḥ priyasāhasāḥ । tyaktvasvadharmāraktāṅgāste dvijāḥ kṣatratāṁ gatāḥ ॥ 11 ॥''</blockquote>अर्थः जिन लोगों ने ब्राह्मण के लिए उपयुक्त कर्तव्यों को पहले से ही स्वीकार कर लिया था, वे भौतिक आनंद के पक्षधर थे, वे तेज स्वभाव, क्रोध और अपने वीरतापूर्ण कार्यों के लिए जाने जाते थे; और जिनका शरीर इसी कारण से लाल हो गया था, (वे ब्राह्मण) उन्हें क्षत्रिय का वर्ण प्राप्त हुआ।<blockquote>गोभ्यो वृत्तिं समास्थाय पीताः कृष्युपजीविनः । स्वधर्मान् नानुतिष्ठन्ति ते द्विजा वैश्यतां गताः ॥ १२ ॥<ref name=":5" />
+
''kāmabhogapriyāstīkṣṇāḥ krodhanāḥ priyasāhasāḥ । tyaktvasvadharmāraktāṅgāste dvijāḥ kṣatratāṁ gatāḥ ॥ 11 ॥''</blockquote>'''अर्थः''' जिन लोगों ने ब्राह्मण के लिए उपयुक्त कर्तव्यों को पहले से ही स्वीकार कर लिया था, वे भौतिक आनंद के पक्षधर थे, वे तेज स्वभाव, क्रोध और अपने वीरतापूर्ण कार्यों के लिए जाने जाते थे; और जिनका शरीर इसी कारण से लाल हो गया था, (वे ब्राह्मण) उन्हें क्षत्रिय का वर्ण प्राप्त हुआ।<blockquote>गोभ्यो वृत्तिं समास्थाय पीताः कृष्युपजीविनः । स्वधर्मान् नानुतिष्ठन्ति ते द्विजा वैश्यतां गताः ॥ १२ ॥<ref name=":5" />
−
''gobhyo vr̥ttiṁ samāsthāya pītāḥ kr̥ṣyupajīvinaḥ । svadharmān nānutiṣṭhanti te dvijā vaiśyatāṁ gatāḥ ॥ 12 ॥''</blockquote>अर्थः जिन लोगों ने पशुपालन और खेती को आजीविका के साधन के रूप में स्वीकार किया, जिसके कारण उनका रंग पीला हो गया और जिन्होंने ब्राह्मण के कर्तव्यों को छोड़ दिया, उन्हें वैश्य का वर्ण प्राप्त हुआ।<blockquote>हिंसानृतप्रिया लुब्धाः सर्वकर्मोपजीविनः । कृष्णाः शौचपरिभ्रष्टास्ते द्विजाः शूद्रतां गताः ॥ १३ ॥<ref name=":5" />
+
''gobhyo vr̥ttiṁ samāsthāya pītāḥ kr̥ṣyupajīvinaḥ । svadharmān nānutiṣṭhanti te dvijā vaiśyatāṁ gatāḥ ॥ 12 ॥''</blockquote>'''अर्थः''' जिन लोगों ने पशुपालन और खेती को आजीविका के साधन के रूप में स्वीकार किया, जिसके कारण उनका रंग पीला हो गया और जिन्होंने ब्राह्मण के कर्तव्यों को छोड़ दिया, उन्हें वैश्य का वर्ण प्राप्त हुआ।<blockquote>हिंसानृतप्रिया लुब्धाः सर्वकर्मोपजीविनः । कृष्णाः शौचपरिभ्रष्टास्ते द्विजाः शूद्रतां गताः ॥ १३ ॥<ref name=":5" />
−
''hiṁsānr̥tapriyā lubdhāḥ sarvakarmopajīvinaḥ । kr̥ṣṇāḥ śaucaparibhraṣṭāste dvijāḥ śūdratāṁ gatāḥ ॥ 13 ॥''</blockquote>अर्थः इस प्रकार कर्मों (गतिविधियों) के कारण वे ब्राह्मण अपने ब्राह्मणत्व से अलग हो गए और विभिन्न वर्णों को प्राप्त किया। हालाँकि, उन्हें दिन-प्रतिदिन के जीवन में धर्म के पालन और [[Yajna (यज्ञः)|यज्ञों]] के प्रदर्शन से वंचित नहीं किया गया है।
+
''hiṁsānr̥tapriyā lubdhāḥ sarvakarmopajīvinaḥ । kr̥ṣṇāḥ śaucaparibhraṣṭāste dvijāḥ śūdratāṁ gatāḥ ॥ 13 ॥''</blockquote>'''अर्थः''' इस प्रकार कर्मों (गतिविधियों) के कारण वे ब्राह्मण अपने ब्राह्मणत्व से अलग हो गए और विभिन्न वर्णों को प्राप्त किया। हालाँकि, उन्हें दिन-प्रतिदिन के जीवन में धर्म के पालन और [[Yajna (यज्ञः)|यज्ञों]] के प्रदर्शन से वंचित नहीं किया गया है।
===गीता में वर्ण॥ Varna in the Gita===
===गीता में वर्ण॥ Varna in the Gita===
−
उपरोक्त संदर्भ के अनुरूप, [[Bhagavad Gita (भगवद्गीता)|भगवद गीता]] गुण (प्राकृतिक गुणों और प्रवृत्तियों) और कर्म (व्यक्तिगत कर्तव्यों) के आधार पर चार वर्णों के निर्माण के बारे में भी बताती है (श्लोक ४.१३)।<ref name=":0" /> <blockquote>चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः | ''cāturvarṇyaṁ mayā sr̥ṣṭaṁ guṇakarmavibhāgaśaḥ ।''<ref name=":6">भगवद गीता, अध्याय ४।</ref></blockquote>और यह कि कर्तव्यों को उन गुणों के आधार पर आवंटित किया गया है जो स्वभव (श्लोक १८.४१)<ref name=":0" /> से उत्पन्न होते हैं।<blockquote>ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप । कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥१८- ४१॥<ref name=":7">भगवद गीता, अध्याय ८।</ref>
+
उपरोक्त संदर्भ के अनुरूप, [[Bhagavad Gita (भगवद्गीता)|भगवद गीता]] गुण (प्राकृतिक गुणों और प्रवृत्तियों) और कर्म (व्यक्तिगत कर्तव्यों) के आधार पर चार वर्णों के निर्माण के बारे में भी बताती है। (श्लोक ४.१३)।<ref name=":0" /> <blockquote>चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। ''cāturvarṇyaṁ mayā sr̥ṣṭaṁ guṇakarmavibhāgaśaḥ ।''<ref name=":6">भगवद गीता, अध्याय ४।</ref></blockquote>और यह कि कर्तव्यों को उन गुणों के आधार पर आवंटित किया गया है जो स्वभव (श्लोक १८.४१)<ref name=":0" /> से उत्पन्न होते हैं।<blockquote>ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप । कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥१८- ४१॥<ref name=":7">भगवद गीता, अध्याय ८।</ref>
brāhmaṇakṣatriyaviśāṁ śūdrāṇāṁ ca parantapa । karmāṇi pravibhaktāni svabhāvaprabhavairguṇaiḥ ॥18- 41॥</blockquote>
brāhmaṇakṣatriyaviśāṁ śūdrāṇāṁ ca parantapa । karmāṇi pravibhaktāni svabhāvaprabhavairguṇaiḥ ॥18- 41॥</blockquote>
===भागवत पुराण में वर्ण॥ Varna in Bhagavata Purana===
===भागवत पुराण में वर्ण॥ Varna in Bhagavata Purana===
+
भागवत पुराण (११.१७.१३) इस बात पर भी जोर देता है कि सर्वोच्च पुरुष से उत्पन्न होने वाले चार वर्णों को उनके आत्माचार (प्राकृतिक गतिविधियों या अंतर्निहित प्रकृति के अनुसार व्यक्तिगत कर्तव्यों) द्वारा पहचाना/नामित किया जाना चाहिए।<ref name=":0" /><blockquote>विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा मुखबाहूरुपादजाः । वैराजात् पुरुषात् जाता य आत्माचारलक्षणाः ॥ १३ ॥<ref>भागवत पुराण, स्कंध ११, अध्याय १७।</ref>
भागवत पुराण (११.१७.१३) इस बात पर भी जोर देता है कि सर्वोच्च पुरुष से उत्पन्न होने वाले चार वर्णों को उनके आत्माचार (प्राकृतिक गतिविधियों या अंतर्निहित प्रकृति के अनुसार व्यक्तिगत कर्तव्यों) द्वारा पहचाना/नामित किया जाना चाहिए।<ref name=":0" /><blockquote>विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा मुखबाहूरुपादजाः । वैराजात् पुरुषात् जाता य आत्माचारलक्षणाः ॥ १३ ॥<ref>भागवत पुराण, स्कंध ११, अध्याय १७।</ref>
Line 119:
Line 117:
यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि वर्ण की शब्दावली ही इन दो प्रमुख विशेषताओं को अपने भीतर समाहित करती है। वर्ण शब्द मौखिक मूल 'व्र' से लिया गया है, जिसके कई अर्थ हैं, जिनमें से प्रमुख हैंः रंग और चयन। जहाँ रंग स्वाभाव के पहलू को उजागर करता है, वहीं चयन स्वधर्म के पहलू को उजागर करता है।
यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि वर्ण की शब्दावली ही इन दो प्रमुख विशेषताओं को अपने भीतर समाहित करती है। वर्ण शब्द मौखिक मूल 'व्र' से लिया गया है, जिसके कई अर्थ हैं, जिनमें से प्रमुख हैंः रंग और चयन। जहाँ रंग स्वाभाव के पहलू को उजागर करता है, वहीं चयन स्वधर्म के पहलू को उजागर करता है।
−
महाभारत (अनुशासन पर्व, अध्याय १४३) में कहा गया है, "न तो जन्म, न ही शुद्धिकरण संस्कार, न ही शिक्षा, न ही संतान, किसी को पुनर्जन्म का दर्जा देने के आधार के रूप में माना जा सकता है। वास्तव में, आचरण ही एकमात्र आधार है। इस संसार के सभी ब्राह्मण आचरण के परिणामस्वरूप ब्राह्मण हैं।<blockquote>न योनिर्नापि संस्कारो न श्रुतं न च संततिः । कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम् ॥५०॥<sup>[१९]</sup>
+
महाभारत (अनुशासन पर्व, अध्याय १४३) में कहा गया है, "न तो जन्म, न ही शुद्धिकरण संस्कार, न ही शिक्षा, न ही संतान, किसी को पुनर्जन्म का दर्जा देने के आधार के रूप में माना जा सकता है। वास्तव में, आचरण ही एकमात्र आधार है। इस संसार के सभी ब्राह्मण आचरण के परिणामस्वरूप ब्राह्मण हैं।<blockquote>न योनिर्नापि संस्कारो न श्रुतं न च संततिः। कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम् ॥५०॥<ref name=":9" />
−
''na yonirnāpi saṁskāro na śrutaṁ na ca saṁtatiḥ । kāraṇāni dvijatvasya vr̥ttameva tu kāraṇam ॥50॥''</blockquote>इसमें आगे कहा गया है, "हे शुभ महिला, [[Brahmana (ब्राह्मणम्)|ब्राह्मण]] की स्थिति जहाँ भी है, वहाँ समान है। यह भी मेरी राय है। वह, वास्तव में, एक ब्राह्मण है जिसमें ब्रह्म की स्थिति मौजूद है-वह स्थिति जो गुणों से रहित है और जिससे कोई दाग नहीं जुड़ा है।"<ref name=":0" /> <blockquote>ब्राह्मः स्वभावः सुश्रोणिः समः सर्वत्र मे मतिः । निर्गुणं निर्मलं ब्रह्म यत्र तिष्ठति स द्विजः ॥५२॥<ref>रामनारायणदत्त शास्त्री पांडे, महाभारत (खंड ६), गोरखपुर: गीता प्रेस।</ref>
+
''na yonirnāpi saṁskāro na śrutaṁ na ca saṁtatiḥ । kāraṇāni dvijatvasya vr̥ttameva tu kāraṇam ॥50॥''</blockquote>इसमें आगे कहा गया है, "हे शुभ महिला, [[Brahmana (ब्राह्मणम्)|ब्राह्मण]] की स्थिति जहाँ भी है, वहाँ समान है। यह भी मेरी राय है। वह, वास्तव में, एक ब्राह्मण है जिसमें ब्रह्म की स्थिति मौजूद है-वह स्थिति जो गुणों से रहित है और जिससे कोई दाग नहीं जुड़ा है।"<ref name=":0" /> <blockquote>ब्राह्मः स्वभावः सुश्रोणिः समः सर्वत्र मे मतिः । निर्गुणं निर्मलं ब्रह्म यत्र तिष्ठति स द्विजः॥५२॥<ref name=":9">रामनारायणदत्त शास्त्री पांडे, महाभारत (खंड ६), गोरखपुर: गीता प्रेस।</ref>
brāhmaḥ svabhāvaḥ suśroṇiḥ samaḥ sarvatra me matiḥ । nirguṇaṁ nirmalaṁ brahma yatra tiṣṭhati sa dvijaḥ ॥52॥</blockquote>इस प्रकार, वर्ण को या तो प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने जीवन में अपने स्वाभाव (अंतर्निहित प्रकृति) के अनुसार चुने गए स्वाधर्म (व्यक्तिगत कर्तव्य/जीवन के उद्देश्य) के संदर्भ के रूप में समझा जा सकता है या अधिक उचित रूप से एक वर्णक टैग के रूप में माना जा सकता है जो स्वाभाव का उल्लेख करता है जो लोगों को अपने स्वाधर्म के रूप में जीवन के विशेष मार्गों को स्वाभाविक रूप से चुनने के लिए प्रेरित करता है। जिसमें, "सहज चयन" कुछ गतिविधियों, कुछ व्यवसायों के प्रति हमारे झुकाव का एक संदर्भ है, जो हमारे लिए स्वाभाविक रूप से आते हैं। जैसा कि बी.व्ही.व्ही.शास्त्री ने अपनी कृति ट्रेडिशनल टैक्सोनॉमी ऑफ वर्ण-जाति एंड कुल में लिखा है, "वर्ण अद्वितीय वर्णक टैग, अद्वितीय विशेषताओं को संदर्भित करता है जिनका उपयोग एक विशिष्ट पहचान के लिए व्यक्तिगत इकाई की पहचान के लिए किया जा सकता है।"
brāhmaḥ svabhāvaḥ suśroṇiḥ samaḥ sarvatra me matiḥ । nirguṇaṁ nirmalaṁ brahma yatra tiṣṭhati sa dvijaḥ ॥52॥</blockquote>इस प्रकार, वर्ण को या तो प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने जीवन में अपने स्वाभाव (अंतर्निहित प्रकृति) के अनुसार चुने गए स्वाधर्म (व्यक्तिगत कर्तव्य/जीवन के उद्देश्य) के संदर्भ के रूप में समझा जा सकता है या अधिक उचित रूप से एक वर्णक टैग के रूप में माना जा सकता है जो स्वाभाव का उल्लेख करता है जो लोगों को अपने स्वाधर्म के रूप में जीवन के विशेष मार्गों को स्वाभाविक रूप से चुनने के लिए प्रेरित करता है। जिसमें, "सहज चयन" कुछ गतिविधियों, कुछ व्यवसायों के प्रति हमारे झुकाव का एक संदर्भ है, जो हमारे लिए स्वाभाविक रूप से आते हैं। जैसा कि बी.व्ही.व्ही.शास्त्री ने अपनी कृति ट्रेडिशनल टैक्सोनॉमी ऑफ वर्ण-जाति एंड कुल में लिखा है, "वर्ण अद्वितीय वर्णक टैग, अद्वितीय विशेषताओं को संदर्भित करता है जिनका उपयोग एक विशिष्ट पहचान के लिए व्यक्तिगत इकाई की पहचान के लिए किया जा सकता है।"
एक अन्य प्रमुख सिद्धांत जो इस खाते से प्राप्त किया जा सकता है वह यह है कि वर्णों की वैचारिक व्यवस्था न तो पिरामिडल है, न ही पदानुक्रमित है, जैसा कि अक्सर समझा जाता है।<sup>[१]</sup> जाति के साथ वर्ण के संयोजन की बात करते हुए कहा जाता है कि वर्ण में टैग और विशेषताएं होती हैं जो वर्गीकरण की पूर्व-परिभाषित योजना के अनुसार किसी व्यक्ति के लक्षणों को परिभाषित करने के लिए जोड़ती हैं। जबकि, जब व्यक्ति एक समूह बन जाते हैं, तो समूह को परिभाषित करने वाली सामान्य विशेषता वह जाति होती है जिससे वे संबंधित होते हैं। जैसे कि। सेब का 'उपकरण' उसका वर्ण होता है और जब आपके पास सेब और संतरे का थैला होता है, तो उनकी जाति फल होती है। वर्ण के इस वर्णन के अनुसार, विभिन्न वर्णों के बीच संबंध में किसी भी पदानुक्रम का सुझाव देने के लिए कुछ भी नहीं है। एक सेब एक संतरे से अलग होता है, बेहतर या बदतर नहीं, निष्पक्ष रूप से बोलते हुए।<ref>सोनाली हार्डिकर और आशीष धर, पत्थर में जाति - भाग २ (पुरुष और वर्ण), www.pragyata.com</ref>
एक अन्य प्रमुख सिद्धांत जो इस खाते से प्राप्त किया जा सकता है वह यह है कि वर्णों की वैचारिक व्यवस्था न तो पिरामिडल है, न ही पदानुक्रमित है, जैसा कि अक्सर समझा जाता है।<sup>[१]</sup> जाति के साथ वर्ण के संयोजन की बात करते हुए कहा जाता है कि वर्ण में टैग और विशेषताएं होती हैं जो वर्गीकरण की पूर्व-परिभाषित योजना के अनुसार किसी व्यक्ति के लक्षणों को परिभाषित करने के लिए जोड़ती हैं। जबकि, जब व्यक्ति एक समूह बन जाते हैं, तो समूह को परिभाषित करने वाली सामान्य विशेषता वह जाति होती है जिससे वे संबंधित होते हैं। जैसे कि। सेब का 'उपकरण' उसका वर्ण होता है और जब आपके पास सेब और संतरे का थैला होता है, तो उनकी जाति फल होती है। वर्ण के इस वर्णन के अनुसार, विभिन्न वर्णों के बीच संबंध में किसी भी पदानुक्रम का सुझाव देने के लिए कुछ भी नहीं है। एक सेब एक संतरे से अलग होता है, बेहतर या बदतर नहीं, निष्पक्ष रूप से बोलते हुए।<ref>सोनाली हार्डिकर और आशीष धर, पत्थर में जाति - भाग २ (पुरुष और वर्ण), www.pragyata.com</ref>
−
जिस तरह शरीर के अलग-अलग अंग अलग-अलग कार्य करते हैं और पूरे जीव के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हैं, उसी तरह अलग-अलग वर्ण समाज के साथ-साथ ब्रह्मांड में भी अलग-अलग कार्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें से प्रत्येक पूरे शरीर के कार्य के लिए महत्वपूर्ण है। यदि कोई पदानुक्रम है, तो यह केवल व्यक्तियों के स्तर पर जीवन के लक्ष्यों को समझने के संदर्भ में है न कि सामाजिक स्तर पर।<ref name=":0" />
जिस तरह शरीर के अलग-अलग अंग अलग-अलग कार्य करते हैं और पूरे जीव के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हैं, उसी तरह अलग-अलग वर्ण समाज के साथ-साथ ब्रह्मांड में भी अलग-अलग कार्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनमें से प्रत्येक पूरे शरीर के कार्य के लिए महत्वपूर्ण है। यदि कोई पदानुक्रम है, तो यह केवल व्यक्तियों के स्तर पर जीवन के लक्ष्यों को समझने के संदर्भ में है न कि सामाजिक स्तर पर।<ref name=":0" />
==वर्ण व्यवस्था के प्रमुख तत्व॥ Key Elements of Varna Vyavastha==
==वर्ण व्यवस्था के प्रमुख तत्व॥ Key Elements of Varna Vyavastha==
−
स्वाभाव और स्वाधर्म (जैसा कि ऊपर देखा गया है) के बीच संबंध कारण और प्रभाव के हैं। लेकिन, वर्ण के विशिष्ट मामले में, एक प्रभाव के रूप में इसकी भूमिका के अलावा, स्वधर्म भी कारण को मजबूत करता है और अंततः एक व्यक्ति को इसे पार करने में मदद करता है। उदाहरण के लिए, [[Kshatriya Dharma (क्षत्रियधर्मः)|क्षत्रिय स्वभाव]] अर्थात राजगुण वाला व्यक्ति क्षत्रिय जीवन को अपने स्वधर्म के रूप में अपनाएगा और विभिन्न क्षत्रिय कौशल जैसे युद्ध करना, युद्ध करना, प्रशासन करना आदि सीख लेगा, जो बदले में उसके क्षत्रिय स्वभव को मजबूत करेगा और किसी भी दोष को दूर करेगा। इसके अतिरिक्त, क्षत्रिय स्वधर्म के प्रदर्शन के परिणामस्वरूप मन की शुद्धता भी होगी, जो धीरे-धीरे उनके राजगुण को सत्वगुण में बदल देगा और इसलिए उन्हें [[Brahmana Dharma (ब्राह्मणधर्मः)|ब्राह्मण स्वधर्म]] के लिए सक्षम बना देगा। यह परिवर्तन एक धीमी प्रक्रिया होने के कारण कई जीवनों में फैल सकता है। यही कारण है कि, भगवद गीता (३.३५) में स्वधर्म के प्रदर्शन पर जोर दिया गया है।<sup>[१]</sup> इसमें कहा गया है,<blockquote>श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३- ३५॥<ref>भगवद गीता, अध्याय ३।</ref>
+
स्वाभाव और स्वाधर्म (जैसा कि ऊपर देखा गया है) के बीच संबंध कारण और प्रभाव के हैं। लेकिन, वर्ण के विशिष्ट मामले में, एक प्रभाव के रूप में इसकी भूमिका के अलावा, स्वधर्म भी कारण को मजबूत करता है और अंततः एक व्यक्ति को इसे पार करने में मदद करता है। उदाहरण के लिए, [[Kshatriya Dharma (क्षत्रियधर्मः)|क्षत्रिय स्वभाव]] अर्थात राजगुण वाला व्यक्ति क्षत्रिय जीवन को अपने स्वधर्म के रूप में अपनाएगा और विभिन्न क्षत्रिय कौशल जैसे युद्ध करना, युद्ध करना, प्रशासन करना आदि सीख लेगा, जो बदले में उसके क्षत्रिय स्वभव को मजबूत करेगा और किसी भी दोष को दूर करेगा। इसके अतिरिक्त, क्षत्रिय स्वधर्म के प्रदर्शन के परिणामस्वरूप मन की शुद्धता भी होगी, जो धीरे-धीरे उनके राजगुण को सत्वगुण में बदल देगा और इसलिए उन्हें [[Brahmana Dharma (ब्राह्मणधर्मः)|ब्राह्मण स्वधर्म]] के लिए सक्षम बना देगा। यह परिवर्तन एक धीमी प्रक्रिया होने के कारण कई जीवनों में फैल सकता है। यही कारण है कि, भगवद गीता (३.३५) में स्वधर्म के प्रदर्शन पर जोर दिया गया है।<ref name=":0" /> इसमें कहा गया है - <blockquote>श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३- ३५॥<ref>भगवद गीता, अध्याय ३।</ref>
−
''śreyānsvadharmo viguṇaḥ paradharmātsvanuṣṭhitāt । svadharme nidhanaṁ śreyaḥ paradharmo bhayāvahaḥ ॥3- 35॥''</blockquote>अर्थः अपने निर्धारित कर्तव्यों का निर्वहन करना, भले ही दोषपूर्ण हो, दूसरे के कर्तव्यों को पूरी तरह से पूरा करने से कहीं बेहतर है। अपना कर्तव्य निभाने के क्रम में विनाश दूसरे के कर्तव्यों में संलग्न होने से बेहतर है, क्योंकि दूसरे के मार्ग का अनुसरण करना खतरनाक है।<ref>ए.सी.भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (१९९८), भगवद्गीता ऍज इट इज़, यूएसए: द भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट।</ref> मनुस्मृति (१०.९७) इसी तरह उसी पर जोर देती है।<ref name=":0" /> इसमें कहा गया है,<blockquote>वरं स्वधर्मो विगुणो न पारक्यः स्वनुष्ठितः । परधर्मेण जीवन्हि सद्यः पतति जातितः।। १०.९७।<ref>मनुस्मृति, अध्याय १०।</ref>
+
''śreyānsvadharmo viguṇaḥ paradharmātsvanuṣṭhitāt । svadharme nidhanaṁ śreyaḥ paradharmo bhayāvahaḥ ॥3- 35॥''</blockquote>अर्थः अपने निर्धारित कर्तव्यों का निर्वहन करना, भले ही दोषपूर्ण हो, दूसरे के कर्तव्यों को पूरी तरह से पूरा करने से कहीं बेहतर है। अपना कर्तव्य निभाने के क्रम में विनाश दूसरे के कर्तव्यों में संलग्न होने से बेहतर है, क्योंकि दूसरे के मार्ग का अनुसरण करना खतरनाक है।<ref>ए.सी.भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (१९९८), भगवद्गीता ऍज इट इज़, यूएसए: द भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट।</ref> मनुस्मृति (१०.९७) इसी तरह उसी पर जोर देती है।<ref name=":0" /> इसमें कहा गया है - <blockquote>वरं स्वधर्मो विगुणो न पारक्यः स्वनुष्ठितः । परधर्मेण जीवन्हि सद्यः पतति जातितः।। १०.९७।<ref>मनुस्मृति, अध्याय १०।</ref>
−
''varaṁ svadharmo viguṇo na pārakyaḥ svanuṣṭhitaḥ । paradharmeṇa jīvanhi sadyaḥ patati jātitaḥ । । 10.97 । ।''</blockquote>अर्थः अपना कर्तव्य अपूर्ण रूप से पूरा करना दूसरे के कर्तव्य को पूरी तरह से पूरा करने से बेहतर है। जो दूसरे के कार्य से निर्वाह करता है, वह तुरंत अपनी जाति से गिर जाता है।<ref>गंगानाथ झा (१९२०-३९), मनुस्मृति (खंड ७), दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशक।</ref> महाभारत (अनुशासन पर्व, अध्याय १४३) यह भी बताता है कि निम्न वर्ण के लोग इस जीवन में संबंधित स्वधर्मों के अभ्यास से बाद के जीवन में उच्च वर्ण कैसे प्राप्त कर सकते हैं।<ref name=":0" /><blockquote>एतैः कर्मफलैर्देवि न्यूनजातिकुलोद्भवः। शूद्रोऽप्यागमसम्पन्नो द्विजो भवति संस्कृतः ॥४५॥<sup>[१९]</sup>
+
''varaṁ svadharmo viguṇo na pārakyaḥ svanuṣṭhitaḥ । paradharmeṇa jīvanhi sadyaḥ patati jātitaḥ । । 10.97 । ।''</blockquote>अर्थः अपना कर्तव्य अपूर्ण रूप से पूरा करना दूसरे के कर्तव्य को पूरी तरह से पूरा करने से बेहतर है। जो दूसरे के कार्य से निर्वाह करता है, वह तुरंत अपनी जाति से गिर जाता है।<ref>गंगानाथ झा (१९२०-३९), मनुस्मृति (खंड ७), दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशक।</ref> महाभारत (अनुशासन पर्व, अध्याय १४३) यह भी बताता है कि निम्न वर्ण के लोग इस जीवन में संबंधित स्वधर्मों के अभ्यास से बाद के जीवन में उच्च वर्ण कैसे प्राप्त कर सकते हैं।<ref name=":0" /><blockquote>एतैः कर्मफलैर्देवि न्यूनजातिकुलोद्भवः। शूद्रोऽप्यागमसम्पन्नो द्विजो भवति संस्कृतः ॥४५॥<ref name=":9" />
''etaiḥ karmaphalairdevi nyūnajātikulodbhavaḥ। śūdro'pyāgamasampanno dvijo bhavati saṁskr̥taḥ ॥45॥''</blockquote>अर्थात्, जबकि स्वाभाव किसी व्यक्ति के स्वाधर्म को निर्धारित करता है, स्वाधर्म का प्रदर्शन स्वाभाव को उसकी वर्तमान स्थिति से उच्च स्थिति में बदल देगा। इसलिए, जैसा कि श्री सच्चिदानंद शिवाभिनव नरसिम्हा भारती महास्वामी कहते हैं, "वे गतिविधियाँ जो वास्तव में हमारे वर्तमान चरण में हमारी मदद कर सकती हैं और हमें एक उच्च स्तर पर ले जा सकती हैं, उन्हें स्वधर्म के रूप में जाना जाता है।" क्योंकि, जैसा कि सुरेशवराचार्य ने नोट किया है, "अनिवार्य कार्यों के प्रदर्शन से, धार्मिकता उत्पन्न होती है। धार्मिकता के उत्पन्न होने से, पाप नष्ट हो जाते हैं और मन की शुद्धता होती है।"<ref name=":0" /> <blockquote>नित्यकर्मानुष्ठानाद्धर्मोत्पत्तिर्धर्मोत्पत्तेः पापहानिस्ततश्चित्तशुद्धिः .... ।<ref>सुरेश्वराचार्य (1891), द नैष्कर्म्यसिद्धि, बॉम्बे: गवर्नमेंट सेंट्रल बुक डिपो।</ref>
''etaiḥ karmaphalairdevi nyūnajātikulodbhavaḥ। śūdro'pyāgamasampanno dvijo bhavati saṁskr̥taḥ ॥45॥''</blockquote>अर्थात्, जबकि स्वाभाव किसी व्यक्ति के स्वाधर्म को निर्धारित करता है, स्वाधर्म का प्रदर्शन स्वाभाव को उसकी वर्तमान स्थिति से उच्च स्थिति में बदल देगा। इसलिए, जैसा कि श्री सच्चिदानंद शिवाभिनव नरसिम्हा भारती महास्वामी कहते हैं, "वे गतिविधियाँ जो वास्तव में हमारे वर्तमान चरण में हमारी मदद कर सकती हैं और हमें एक उच्च स्तर पर ले जा सकती हैं, उन्हें स्वधर्म के रूप में जाना जाता है।" क्योंकि, जैसा कि सुरेशवराचार्य ने नोट किया है, "अनिवार्य कार्यों के प्रदर्शन से, धार्मिकता उत्पन्न होती है। धार्मिकता के उत्पन्न होने से, पाप नष्ट हो जाते हैं और मन की शुद्धता होती है।"<ref name=":0" /> <blockquote>नित्यकर्मानुष्ठानाद्धर्मोत्पत्तिर्धर्मोत्पत्तेः पापहानिस्ततश्चित्तशुद्धिः .... ।<ref>सुरेश्वराचार्य (1891), द नैष्कर्म्यसिद्धि, बॉम्बे: गवर्नमेंट सेंट्रल बुक डिपो।</ref>
Line 145:
Line 142:
#प्रत्येक समूह के लिए सबसे उपयुक्त/लागू जीवन के विभिन्न कर्तव्यों/कार्यों/मार्गों का निर्धारण, जैसे कि सभी समूहों से संबंधित लोग उन कर्तव्यों के निष्पादन से समग्र कल्याण प्राप्त कर सकते हैं<ref name=":0" />
#प्रत्येक समूह के लिए सबसे उपयुक्त/लागू जीवन के विभिन्न कर्तव्यों/कार्यों/मार्गों का निर्धारण, जैसे कि सभी समूहों से संबंधित लोग उन कर्तव्यों के निष्पादन से समग्र कल्याण प्राप्त कर सकते हैं<ref name=":0" />
−
===प्रत्यभिज्ञान॥ Identification===
+
=== प्रत्यभिज्ञान॥ Identification===
वर्ण पर आधारित एक वैचारिक सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिए आवश्यक पहला तत्व एक उचित "तंत्र" है जिसका उपयोग करके किसी व्यक्ति के वर्ण की पहचान की जा सकती है। और ऐसा तंत्र हमें भगवद गीता में प्रदान किया गया है, जिसमें कहा गया है कि विभिन्न वर्णों के कर्तव्यों को स्वभव (श्लोक १८.४१) से पैदा हुए गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया जाना है। इसी तरह का विचार भगवान शिव ने महाभारत (अनुशासन पर्व, अध्याय १४३) में व्यक्त किया है। इस प्रकार, किसी व्यक्ति का "स्वभव" उस व्यक्ति के वर्ण की पहचान करने की कुंजी है।
वर्ण पर आधारित एक वैचारिक सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिए आवश्यक पहला तत्व एक उचित "तंत्र" है जिसका उपयोग करके किसी व्यक्ति के वर्ण की पहचान की जा सकती है। और ऐसा तंत्र हमें भगवद गीता में प्रदान किया गया है, जिसमें कहा गया है कि विभिन्न वर्णों के कर्तव्यों को स्वभव (श्लोक १८.४१) से पैदा हुए गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया जाना है। इसी तरह का विचार भगवान शिव ने महाभारत (अनुशासन पर्व, अध्याय १४३) में व्यक्त किया है। इस प्रकार, किसी व्यक्ति का "स्वभव" उस व्यक्ति के वर्ण की पहचान करने की कुंजी है।
Line 155:
Line 152:
और ये दोनों कारक बदले में प्रारब्ध कर्मों पर निर्भर करते हैं जो यह तय करते हैं कि कोई व्यक्ति कहाँ और किस परिवार में जन्म लेता है, जीवन में उसे किन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, आदि। यही कारण है कि 'जन्म' या 'जन्म' का उपयोग वर्ण निर्धारित करने के लिए एक पहचान कारक के रूप में किया जाता था। लेकिन, यहाँ संदर्भ 'प्रारब्ध कर्म' का है और स्वाभाव व्यक्ति को प्रारब्ध के कारण विरासत में मिलता है और जरूरी नहीं कि यह किसी जनजाति, जाति, वर्ग या परिवार में पैदा होने का संदर्भ हो।
और ये दोनों कारक बदले में प्रारब्ध कर्मों पर निर्भर करते हैं जो यह तय करते हैं कि कोई व्यक्ति कहाँ और किस परिवार में जन्म लेता है, जीवन में उसे किन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, आदि। यही कारण है कि 'जन्म' या 'जन्म' का उपयोग वर्ण निर्धारित करने के लिए एक पहचान कारक के रूप में किया जाता था। लेकिन, यहाँ संदर्भ 'प्रारब्ध कर्म' का है और स्वाभाव व्यक्ति को प्रारब्ध के कारण विरासत में मिलता है और जरूरी नहीं कि यह किसी जनजाति, जाति, वर्ग या परिवार में पैदा होने का संदर्भ हो।
−
महाभारत में कहा गया है कि लोग "प्रकृति", अर्थात अंतर्निहित स्वभाव के कारण अलग-अलग वर्ण प्राप्त करते हैं।<ref name=":0" /><blockquote>ब्राह्मण्यं देवि दुष्प्रापं निसर्गात् ब्राह्मणः शुभे । क्षत्रियो वैश्यशूद्रौ वा निसर्गादिति मे मतिः ॥६॥<sup>[१९]</sup>
−
''brāhmaṇyaṁ devi duṣprāpaṁ nisargāt brāhmaṇaḥ śubhe । kṣatriyo vaiśyaśūdrau vā nisargāditi me matiḥ ॥6॥''</blockquote>यह समझाने के बाद कि आचरण (स्वाधर्म) और गुणवत्ता कैसे वर्ण को निर्धारित करता है, यह आगे नोट करता है कि जन्म का उपयोग करके वर्णों का वितरण केवल वर्गीकरण के लिए है, यानी जन्म का उपयोग केवल आंतरिक स्वभव के लिए आसान संदर्भ के रूप में किया जाता था और इसलिए, यह स्वभव है न कि एक परिवार में जन्म, जो वर्ण को निर्धारित करने के लिए वास्तविक मानदंड है।<ref name=":0" /><blockquote>एते योनिफला देवि स्थानभागनिदर्शकाः । स्वयं च वरदेनोक्ता ब्रह्मणा सृजता प्रजाः ॥५३॥<sup>[१९]</sup>
−
''ete yoniphalā devi sthānabhāganidarśakāḥ । svayaṁ ca varadenoktā brahmaṇā sr̥jatā prajāḥ ॥53॥''</blockquote>हालाँकि, श्री ज्ञानानंद भारती जैसे कुछ लोगों का मानना है कि किसी विशेष परिवार, जाति या समुदाय में जन्म पिछले कार्यों का एक सूचकांक है, जिसे स्वयं नहीं देखा जा सकता है। इसलिए, एक विशेष परिवार में जन्म अपने आप में वर्ण निर्धारित करता है। हालाँकि, महाभारत (अनुशासना पर्व, अध्याय १३) स्वयं टिप्पणी करता हैः "हे देवी, जिसने शुद्ध कर्मों से अपनी आत्मा को शुद्ध किया है और अपनी सभी इंद्रियों को अपने अधीन कर लिया है, वह भी ब्राह्मण के रूप में प्रतीक्षा करने और सम्मान के साथ सेवा करने के योग्य है। यह बात स्वयं स्वजनित ब्राह्मण ने कही है। यह आयत ५०१९ में आगे कहता है कि ”न तो जन्म, न ही शुद्धिकरण संस्कार, न ही शिक्षा, न ही संतान, को किसी को पुनर्जन्म का दर्जा देने का आधार माना जा सकता है। शूद्र, यदि वह अच्छे आचरण पर स्थापित है, तो उसे ब्राह्मण का दर्जा प्राप्त माना जाता है। ब्रह्मा की स्थिति, हे शुभ महिला, जहाँ भी है, समान है।"<ref name=":0" /> <blockquote>कर्मभिः शुचिभिर्देवि शुद्धात्मा विजितेन्द्रियः । शूद्रोऽपि द्विजवत् सेव्य इति ब्रह्माब्रवीत् स्वयम् ॥४८॥<sup>[१९]</sup>
+
महाभारत में कहा गया है कि लोग "प्रकृति", अर्थात अंतर्निहित स्वभाव के कारण अलग-अलग वर्ण प्राप्त करते हैं।<ref name=":0" /><blockquote>ब्राह्मण्यं देवि दुष्प्रापं निसर्गात् ब्राह्मणः शुभे । क्षत्रियो वैश्यशूद्रौ वा निसर्गादिति मे मतिः ॥६॥<ref name=":9" />
+
+
''brāhmaṇyaṁ devi duṣprāpaṁ nisargāt brāhmaṇaḥ śubhe । kṣatriyo vaiśyaśūdrau vā nisargāditi me matiḥ ॥6॥''</blockquote>यह समझाने के बाद कि आचरण (स्वाधर्म) और गुणवत्ता कैसे वर्ण को निर्धारित करता है, यह आगे नोट करता है कि जन्म का उपयोग करके वर्णों का वितरण केवल वर्गीकरण के लिए है, यानी जन्म का उपयोग केवल आंतरिक स्वभव के लिए आसान संदर्भ के रूप में किया जाता था और इसलिए, यह स्वभव है न कि एक परिवार में जन्म, जो वर्ण को निर्धारित करने के लिए वास्तविक मानदंड है।<ref name=":0" /><blockquote>एते योनिफला देवि स्थानभागनिदर्शकाः । स्वयं च वरदेनोक्ता ब्रह्मणा सृजता प्रजाः ॥५३॥<ref name=":9" />
+
+
''ete yoniphalā devi sthānabhāganidarśakāḥ । svayaṁ ca varadenoktā brahmaṇā sr̥jatā prajāḥ ॥53॥''</blockquote>हालाँकि, श्री ज्ञानानंद भारती जैसे कुछ लोगों का मानना है कि किसी विशेष परिवार, जाति या समुदाय में जन्म पिछले कार्यों का एक सूचकांक है, जिसे स्वयं नहीं देखा जा सकता है। इसलिए, एक विशेष परिवार में जन्म अपने आप में वर्ण निर्धारित करता है। हालाँकि, महाभारत (अनुशासना पर्व, अध्याय १३) स्वयं टिप्पणी करता हैः "हे देवी, जिसने शुद्ध कर्मों से अपनी आत्मा को शुद्ध किया है और अपनी सभी इंद्रियों को अपने अधीन कर लिया है, वह भी ब्राह्मण के रूप में प्रतीक्षा करने और सम्मान के साथ सेवा करने के योग्य है। यह बात स्वयं स्वजनित ब्राह्मण ने कही है। यह आयत ५०१९ में आगे कहता है कि ”न तो जन्म, न ही शुद्धिकरण संस्कार, न ही शिक्षा, न ही संतान, को किसी को पुनर्जन्म का दर्जा देने का आधार माना जा सकता है। शूद्र, यदि वह अच्छे आचरण पर स्थापित है, तो उसे ब्राह्मण का दर्जा प्राप्त माना जाता है। ब्रह्मा की स्थिति, हे शुभ महिला, जहाँ भी है, समान है।"<ref name=":0" /> <blockquote>कर्मभिः शुचिभिर्देवि शुद्धात्मा विजितेन्द्रियः । शूद्रोऽपि द्विजवत् सेव्य इति ब्रह्माब्रवीत् स्वयम् ॥४८॥<ref name=":9" />
''karmabhiḥ śucibhirdevi śuddhātmā vijitendriyaḥ । śūdro'pi dvijavat sevya iti brahmābravīt svayam ॥48॥''
''karmabhiḥ śucibhirdevi śuddhātmā vijitendriyaḥ । śūdro'pi dvijavat sevya iti brahmābravīt svayam ॥48॥''
Line 170:
Line 169:
===वर्गीकरण॥ Classification===
===वर्गीकरण॥ Classification===
+
पहचान कारक के रूप में गुण और स्वभव के साथ, सनातन धर्म ग्रंथों ने चार वैचारिक श्रेणियों का निर्माण किया हैः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। [[Adi Shankaracharya (आदिशङ्कराचार्यः)|आदि शंकराचार्य]], भगवद गीता (४.१३ और १८.४१) पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि ब्राह्मण एक पदनाम है जो उस व्यक्ति को दिया जाता है जिसमें सत्व की प्रधानता है; क्षत्रिय वह है जिसमें सत्व और राज दोनों हैं, लेकिन राज प्रबल हैं; वैश्य में, राज और तमस दोनों मौजूद हैं, लेकिन राज प्रबल हैं; और शूद्र वह है जिसमें राज और तमस दोनों मौजूद हैं, लेकिन तमस प्रबल हैं। ये गुण व्यक्ति द्वारा प्रदर्शित प्राकृतिक स्वभाव और व्यवहार से प्रकट होते हैं।<ref name=":0" /><blockquote>गुणकर्मविभागशः गुणविभागशः कर्मविभागशश्च। गुणाः सत्त्वरजस्तमांसि। तत्र सात्त्विकस्य सत्त्वप्रधानस्य ब्राह्मणस्य शमो दमस्तपः इत्यादीनि कर्माणि सत्त्वोपसर्जनरजः प्रधानस्य क्षत्रियस्य शौर्यतेजः प्रभृतीनि कर्माणि तमउपसर्जनरजः प्रधानस्य वैश्यस्य कृष्यादीनि कर्माणि रजउपसर्जनतमः प्रधानस्य शूद्रस्य शुश्रूषैव कर्म इत्येवं गुणकर्मविभागशः चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम् इत्यर्थः। (भ.गी.४.१३-शाङ्करभाष्यम्)<ref name=":6" />
−
पहचान कारक के रूप में गुण और स्वभव के साथ, सनातन धर्म ग्रंथों ने चार वैचारिक श्रेणियों का निर्माण किया हैः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। [[Adi Shankaracharya (आदिशङ्कराचार्यः)|आदि शंकराचार्य]], भगवद गीता (४.१३ और १८.४१) पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि ब्राह्मण एक पदनाम है जो उस व्यक्ति को दिया जाता है जिसमें सत्व की प्रधानता है; क्षत्रिय वह है जिसमें सत्व और राज दोनों हैं, लेकिन राज प्रबल हैं; वैश्य में, राज और तमस दोनों मौजूद हैं, लेकिन राज प्रबल हैं; और शूद्र वह है जिसमें राज और तमस दोनों मौजूद हैं, लेकिन तमस प्रबल हैं। ये गुण व्यक्ति द्वारा प्रदर्शित प्राकृतिक स्वभाव और व्यवहार से प्रकट होते हैं।<ref name=":0" /><blockquote>गुणकर्मविभागशः गुणविभागशः कर्मविभागशश्च। गुणाः सत्त्वरजस्तमांसि। तत्र सात्त्विकस्य सत्त्वप्रधानस्य ब्राह्मणस्य शमो दमस्तपः इत्यादीनि कर्माणि सत्त्वोपसर्जनरजः प्रधानस्य क्षत्रियस्य शौर्यतेजः प्रभृतीनि कर्माणि तमउपसर्जनरजः प्रधानस्य वैश्यस्य कृष्यादीनि कर्माणि रजउपसर्जनतमः प्रधानस्य शूद्रस्य शुश्रूषैव कर्म इत्येवं गुणकर्मविभागशः चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम् इत्यर्थः। (भ.गी.४.१३-शाङ्करभाष्यम्)<ref name=":6" />
+
''guṇakarmavibhāgaśaḥ guṇavibhāgaśaḥ karmavibhāgaśaśca। guṇāḥ sattvarajastamāṁsi। tatra sāttvikasya sattvapradhānasya brāhmaṇasya śamo damastapaḥ ityādīni karmāṇi sattvopasarjanarajaḥ pradhānasya kṣatriyasya śauryatejaḥ prabhr̥tīni karmāṇi tamaupasarjanarajaḥ pradhānasya vaiśyasya kr̥ṣyādīni karmāṇi rajaupasarjanatamaḥ pradhānasya śūdrasya śuśrūṣaiva karma ityevaṁ guṇakarmavibhāgaśaḥ cāturvarṇyaṁ mayā sr̥ṣṭam ityarthaḥ।''
−
''guṇakarmavibhāgaśaḥ guṇavibhāgaśaḥ karmavibhāgaśaśca। guṇāḥ sattvarajastamāṁsi। tatra sāttvikasya sattvapradhānasya brāhmaṇasya śamo damastapaḥ ityādīni karmāṇi sattvopasarjanarajaḥ pradhānasya kṣatriyasya śauryatejaḥ prabhr̥tīni karmāṇi tamaupasarjanarajaḥ pradhānasya vaiśyasya kr̥ṣyādīni karmāṇi rajaupasarjanatamaḥ pradhānasya śūdrasya śuśrūṣaiva karma ityevaṁ guṇakarmavibhāgaśaḥ cāturvarṇyaṁ mayā sr̥ṣṭam ityarthaḥ।''</blockquote><blockquote>अथवा ब्राह्मणस्वभावस्य सत्त्वगुणः प्रभवः कारणम्, तथा क्षत्रियस्वभावस्य सत्त्वोपसर्जनं रजः प्रभवः, वैश्यस्वभावस्य तमउपसर्जनं रजः प्रभवः, शूद्रस्वभावस्य रजौपसर्जनं तमः प्रभवः, प्रशान्त्यैश्वर्येहामूढतास्वभावदर्शनात् चतुर्णाम् । (भ.गी.१८.४१-शाङ्करभाष्यम्)<ref>श्री शंकराचार्य के कार्य (खंड १२), द भगवद्गीता भाष्य (खंड २), श्रीरंगम: श्री वाणी विलास प्रेस।</ref>
+
अथवा ब्राह्मणस्वभावस्य सत्त्वगुणः प्रभवः कारणम्, तथा क्षत्रियस्वभावस्य सत्त्वोपसर्जनं रजः प्रभवः, वैश्यस्वभावस्य तमउपसर्जनं रजः प्रभवः, शूद्रस्वभावस्य रजौपसर्जनं तमः प्रभवः, प्रशान्त्यैश्वर्येहामूढतास्वभावदर्शनात् चतुर्णाम् । (भ.गी.१८.४१-शाङ्करभाष्यम्)<ref>श्री शंकराचार्य के कार्य (खंड १२), द भगवद्गीता भाष्य (खंड २), श्रीरंगम: श्री वाणी विलास प्रेस।</ref>
''athavā brāhmaṇasvabhāvasya sattvaguṇaḥ prabhavaḥ kāraṇam, tathā kṣatriyasvabhāvasya sattvopasarjanaṁ rajaḥ prabhavaḥ, vaiśyasvabhāvasya tamaupasarjanaṁ rajaḥ prabhavaḥ, śūdrasvabhāvasya rajaupasarjanaṁ tamaḥ prabhavaḥ, praśāntyaiśvaryehāmūḍhatāsvabhāvadarśanāt caturṇām ।''</blockquote>
''athavā brāhmaṇasvabhāvasya sattvaguṇaḥ prabhavaḥ kāraṇam, tathā kṣatriyasvabhāvasya sattvopasarjanaṁ rajaḥ prabhavaḥ, vaiśyasvabhāvasya tamaupasarjanaṁ rajaḥ prabhavaḥ, śūdrasvabhāvasya rajaupasarjanaṁ tamaḥ prabhavaḥ, praśāntyaiśvaryehāmūḍhatāsvabhāvadarśanāt caturṇām ।''</blockquote>
−
भागवत पुराण (११.१७.१६-१९), इस बारे में विस्तार से बताता है कि किस स्वभाव और व्यवहार से पता चलता है कि किसी व्यक्ति को कौन सा वर्ण पदनाम दिया जाना है। यह कहता हैः मन और इंद्रियों का नियंत्रण, तपस्या, स्वच्छता, संतुष्टि, सहिष्णुता, सरल सरलता, दिव्य के प्रति भक्ति, दया और सच्चाई ब्राह्मणों के स्वाभाविक गुण हैं; गतिशील शक्ति, शारीरिक शक्ति, दृढ़ संकल्प, वीरता, सहनशीलता, उदारता, महान प्रयास, स्थिरता, ब्राह्मणों और नेतृत्व के प्रति भक्ति क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं; दिव्य और वेदों में विश्वास, दान के प्रति समर्पण, पाखंड से मुक्ति, सेवा (सेवा | निस्वार्थ सेवा) ब्राह्मणों के लिए और निरंतर अधिक धन जमा करने की इच्छा रखने वाले वैश्यों के प्राकृतिक गुण हैं, सेवा (सेवा | निस्वार्थ सेवा) दूसरों के प्रति दोहरेपन के बिना, देवताओं और ऐसी सभी प्राकृतिक आय में पूर्ण संतुष्टि है ।[१]<blockquote>शमो दमस्तपः शौचं संतोषः क्षांतिरार्जवम् । मद्भक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमाः ॥१६॥
+
भागवत पुराण (११.१७.१६-१९), इस बारे में विस्तार से बताता है कि किस स्वभाव और व्यवहार से पता चलता है कि किसी व्यक्ति को कौन सा वर्ण पदनाम दिया जाना है। यह कहता हैः मन और इंद्रियों का नियंत्रण, तपस्या, स्वच्छता, संतुष्टि, सहिष्णुता, सरल सरलता, दिव्य के प्रति भक्ति, दया और सच्चाई ब्राह्मणों के स्वाभाविक गुण हैं; गतिशील शक्ति, शारीरिक शक्ति, दृढ़ संकल्प, वीरता, सहनशीलता, उदारता, महान प्रयास, स्थिरता, ब्राह्मणों और नेतृत्व के प्रति भक्ति क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं; दिव्य और वेदों में विश्वास, दान के प्रति समर्पण, पाखंड से मुक्ति, सेवा (सेवा | निस्वार्थ सेवा) ब्राह्मणों के लिए और निरंतर अधिक धन जमा करने की इच्छा रखने वाले वैश्यों के प्राकृतिक गुण हैं, सेवा (सेवा | निस्वार्थ सेवा) दूसरों के प्रति दोहरेपन के बिना, देवताओं और ऐसी सभी प्राकृतिक आय में पूर्ण संतुष्टि है।<ref name=":0" /><blockquote>शमो दमस्तपः शौचं संतोषः क्षांतिरार्जवम् । मद्भक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमाः ॥१६॥
तेजो बलं धृतिः शौर्यं तितिक्षौदार्यमुद्यमः । स्थैर्यं ब्रह्मण्यतैश्वर्यं क्षत्र प्रकृतयस्त्विमाः ॥१७॥
तेजो बलं धृतिः शौर्यं तितिक्षौदार्यमुद्यमः । स्थैर्यं ब्रह्मण्यतैश्वर्यं क्षत्र प्रकृतयस्त्विमाः ॥१७॥
Line 183:
Line 183:
आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदंभो ब्रह्मसेवनम् । अतुष्टिः अर्थोपचयैः वैश्य प्रकृतयस्त्विमाः ॥१८॥
आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदंभो ब्रह्मसेवनम् । अतुष्टिः अर्थोपचयैः वैश्य प्रकृतयस्त्विमाः ॥१८॥
−
शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चापि अमायया । तत्र लब्धेन संतोषः शूद्र प्रकृतयस्त्विमाः ॥१९॥<sup>[१९]</sup>
+
शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चापि अमायया । तत्र लब्धेन संतोषः शूद्र प्रकृतयस्त्विमाः ॥१९॥<ref name=":9" />
''śamo damastapaḥ śaucaṁ saṁtoṣaḥ kṣāṁtirārjavam । madbhaktiśca dayā satyaṁ brahmaprakr̥tayastvimāḥ ॥ 16 ॥''
''śamo damastapaḥ śaucaṁ saṁtoṣaḥ kṣāṁtirārjavam । madbhaktiśca dayā satyaṁ brahmaprakr̥tayastvimāḥ ॥ 16 ॥''
Line 191:
Line 191:
''āstikyaṁ dānaniṣṭhā ca adaṁbho brahmasevanam । atuṣṭiḥ arthopacayaiḥ vaiśya prakr̥tayastvimāḥ ॥ 18 ॥''
''āstikyaṁ dānaniṣṭhā ca adaṁbho brahmasevanam । atuṣṭiḥ arthopacayaiḥ vaiśya prakr̥tayastvimāḥ ॥ 18 ॥''
−
''śuśrūṣaṇaṁ dvijagavāṁ devānāṁ cāpi amāyayā । tatra labdhena saṁtoṣaḥ śūdra prakr̥tayastvimāḥ ॥ 19 ॥''</blockquote>अतः, धार्मिक ग्रंथ स्पष्टतया एक विस्तृत ढांचा प्रदान करते हैं जिसके द्वारा लोगों को उनके अंतर्निहित स्वभाव के अनुसार नामित और वर्गीकृत किया जा सकता है । परंतु, यह चार गुणा वर्गीकरण अनिवार्य रूप से चार आदर्श स्वभव स्थितियों (यानी स्पष्ट स्वभव) पर आधारित एक वैचारिक वर्गीकरण है । उदाहरण के लिए, मनुस्मृति में उल्लेख है कि केवल चार वर्ण हैं और कोई पाँचवाँ नहीं है।<ref name=":0" /><blockquote>ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः । चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः ।।१०.४|।<ref>मनुस्मृति, अध्याय १०।</ref>
+
''śuśrūṣaṇaṁ dvijagavāṁ devānāṁ cāpi amāyayā । tatra labdhena saṁtoṣaḥ śūdra prakr̥tayastvimāḥ ॥ 19 ॥''</blockquote>अतः, धार्मिक ग्रंथ स्पष्टतया एक विस्तृत ढांचा प्रदान करते हैं जिसके द्वारा लोगों को उनके अंतर्निहित स्वभाव के अनुसार नामित और वर्गीकृत किया जा सकता है । परंतु, यह चार गुणा वर्गीकरण अनिवार्य रूप से चार आदर्श स्वभव स्थितियों (यानी स्पष्ट स्वभव) पर आधारित एक वैचारिक वर्गीकरण है । उदाहरण के लिए, मनुस्मृति में उल्लेख है कि केवल चार वर्ण हैं और कोई पाँचवाँ नहीं है।<ref name=":0" /><blockquote>ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः । चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः ।।१०.४।।<ref>मनुस्मृति, अध्याय १०।</ref>
−
''brāhmaṇaḥ kṣatriyo vaiśyastrayo varṇā dvijātayaḥ । caturtha ekajātistu śūdro nāsti tu pañcamaḥ । । 10.4 । ।''</blockquote>फिर भी, इसमें मिश्रित स्वभवों के साथ कई शंकर जातियों का उल्लेख किया गया है, जो बाद के चरण में "पंचमा" के तहत समेकित हो गए । यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ये सामाजिक स्तर पर समाज को स्तरीकृत करने के उद्देश्य से किए गए वर्गीकरण नहीं हैं, बल्कि केवल लोगों के विभिन्न गुण - स्वभव को समझने का प्रयास हैं । इस प्रकार, जबकि चार गुना वर्गीकरण गुणों की परस्पर क्रिया के आधार पर स्पष्ट रूप से परिभाषित स्वभवों के चार आदर्श मामलों को दर्शाता है, जमीन पर लोगों के पास एक स्वभव हो सकता है जो इन चार प्राथमिक स्वभवों का संयोजन होगा। इस तरह के संयोजन बहुत बड़े हो सकते हैं, जिन्हें पहचानना या वर्गीकृत करना असंभव होगा, इसलिए मनु का कथन है कि केवल चार वर्ण हैं । अतएब, वर्णों का वर्गीकरण हमेशा एक जमीनी स्थिति को प्रतिबिंबित नहीं कर सकता है, विशेष रूप से सामान्य रूप से और विशेष रूप से वर्तमान समय में, क्योंकि समाज जाति, पेशे आदि के साथ स्तरीकृत है और गुण और स्वधर्म की अवधारणा अब समाज को नहीं चलाती है।
+
''brāhmaṇaḥ kṣatriyo vaiśyastrayo varṇā dvijātayaḥ । caturtha ekajātistu śūdro nāsti tu pañcamaḥ ॥10.4॥''</blockquote>फिर भी, इसमें मिश्रित स्वभवों के साथ कई शंकर जातियों का उल्लेख किया गया है, जो बाद के चरण में "पंचमा" के तहत समेकित हो गए । यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि ये सामाजिक स्तर पर समाज को स्तरीकृत करने के उद्देश्य से किए गए वर्गीकरण नहीं हैं, बल्कि केवल लोगों के विभिन्न गुण - स्वभव को समझने का प्रयास हैं । इस प्रकार, जबकि चार गुना वर्गीकरण गुणों की परस्पर क्रिया के आधार पर स्पष्ट रूप से परिभाषित स्वभवों के चार आदर्श मामलों को दर्शाता है, जमीन पर लोगों के पास एक स्वभव हो सकता है जो इन चार प्राथमिक स्वभवों का संयोजन होगा। इस तरह के संयोजन बहुत बड़े हो सकते हैं, जिन्हें पहचानना या वर्गीकृत करना असंभव होगा, इसलिए मनु का कथन है कि केवल चार वर्ण हैं । अतएब, वर्णों का वर्गीकरण हमेशा एक जमीनी स्थिति को प्रतिबिंबित नहीं कर सकता है, विशेष रूप से सामान्य रूप से और विशेष रूप से वर्तमान समय में, क्योंकि समाज जाति, पेशे आदि के साथ स्तरीकृत है और गुण और स्वधर्म की अवधारणा अब समाज को नहीं चलाती है।
−
फिर भी, यह चार गुना गुण आधारित वर्ण और आदर्श कर्तव्यों की नियुक्ति जो एक विशेष स्वभव वाले व्यक्ति को अवश्य करनी चाहिए, सामान्य दिशानिर्देश के रूप में कार्य करेगी, जो न केवल समाज को अपनी अनूठी सामाजिक स्थितियों के अनुसार अपने स्वयं के व्यावहारिक मॉडल विकसित करने में मदद करेगी, बल्कि यह प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वभाव और आंतरिक झुकाव की जांच करने और चार गुना वैचारिक मॉडल के संबंध में तुलना करने और मूल्यांकन करने और जीवन में उसकी स्थिति को समझने में भी मदद करेगी, ताकि लोग भौतिक और आध्यात्मिक सफलता प्राप्त करने के लिए तदनुसार अपना स्वधर्म चुन सकें।<sup>[१]</sup>
+
फिर भी, यह चार गुना गुण आधारित वर्ण और आदर्श कर्तव्यों की नियुक्ति जो एक विशेष स्वभव वाले व्यक्ति को अवश्य करनी चाहिए, सामान्य दिशानिर्देश के रूप में कार्य करेगी, जो न केवल समाज को अपनी अनूठी सामाजिक स्थितियों के अनुसार अपने स्वयं के व्यावहारिक मॉडल विकसित करने में मदद करेगी, बल्कि यह प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वभाव और आंतरिक झुकाव की जांच करने और चार गुना वैचारिक मॉडल के संबंध में तुलना करने और मूल्यांकन करने और जीवन में उसकी स्थिति को समझने में भी मदद करेगी, ताकि लोग भौतिक और आध्यात्मिक सफलता प्राप्त करने के लिए तदनुसार अपना स्वधर्म चुन सकें।<ref name=":0" />
===धर्मनियोजन॥ Assignment===
===धर्मनियोजन॥ Assignment===
−
लोगों के वर्णों की सफल पहचान और वर्गीकरण के बाद, अंतिम चरण प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके अपने अंतर्निहित स्वभाव के अनुसार कर्तव्यों या स्वधर्म का कार्य है। भगवद गीता (१८.४२-४४) विभिन्न वर्णों का प्रदर्शन करने वाले लोगों को निम्नलिखित कर्तव्यों को निर्धारित करती हैः
+
लोगों के वर्णों की सफल पहचान और वर्गीकरण के बाद, अंतिम चरण प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके अपने अंतर्निहित स्वभाव के अनुसार कर्तव्यों या स्वधर्म का कार्य है। भगवद गीता (१८.४२-४४) विभिन्न वर्णों का प्रदर्शन करने वाले लोगों को निम्नलिखित कर्तव्यों को निर्धारित करती है -
−
# ब्राह्मणों को नियुक्त किया गया हैः आंतरिक और बाहरी अंगों का नियंत्रण, तपस्या, शुद्धता, क्षमा, सरलता, ज्ञान (शास्त्रों का ज्ञान), विज्ञान (शास्त्रों में जो प्रस्तुत किया गया है उसकी अनुभवात्मक समझ) और आस्तिक (दिव्य आदि के बारे में शास्त्रों में बताए गए सत्य में विश्वास और दृढ़ विश्वास), उनके कर्तव्यों के रूप में।
+
#ब्राह्मणों को नियुक्त किया गया हैः आंतरिक और बाहरी अंगों का नियंत्रण, तपस्या, शुद्धता, क्षमा, सरलता, ज्ञान (शास्त्रों का ज्ञान), विज्ञान (शास्त्रों में जो प्रस्तुत किया गया है उसकी अनुभवात्मक समझ) और आस्तिक (दिव्य आदि के बारे में शास्त्रों में बताए गए सत्य में विश्वास और दृढ़ विश्वास), उनके कर्तव्यों के रूप में।
#क्षत्रियों को सौंपा गया हैः वीरता, साहस, धैर्य, क्षमता, और युद्ध से पीछे न हटना, उदारता और प्रभुता।
#क्षत्रियों को सौंपा गया हैः वीरता, साहस, धैर्य, क्षमता, और युद्ध से पीछे न हटना, उदारता और प्रभुता।
#वैश्यों को सौंपा गया हैः कृषि, पशुपालन और व्यापार।
#वैश्यों को सौंपा गया हैः कृषि, पशुपालन और व्यापार।
Line 217:
Line 217:
''kr̥ṣigaurakṣyavāṇijyaṁ vaiśyakarma svabhāvajam । paricaryātmakaṁ karma śūdrasyāpi svabhāvajam ॥18- 44॥''</blockquote>मनुस्मृति (१.८८-९१) ने इस प्रकार चार वर्ण गुण रखने वाले लोगों के कर्तव्यों को और विस्तार से बताया है।
''kr̥ṣigaurakṣyavāṇijyaṁ vaiśyakarma svabhāvajam । paricaryātmakaṁ karma śūdrasyāpi svabhāvajam ॥18- 44॥''</blockquote>मनुस्मृति (१.८८-९१) ने इस प्रकार चार वर्ण गुण रखने वाले लोगों के कर्तव्यों को और विस्तार से बताया है।
−
*शिक्षण और अध्ययन, अपने लाभ के लिए और दूसरों के लिए त्याग करना, ब्राह्मणों के कर्तव्यों के रूप में (दान) देना और स्वीकार करना;
+
*शिक्षण और अध्ययन, अपने लाभ के लिए और दूसरों के लिए त्याग करना, ब्राह्मणों के कर्तव्यों के रूप में (दान) देना और स्वीकार करना।
−
*लोगों की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ (यज्ञ) करना, (वेद) का अध्ययन करना और क्षत्रियों के कर्तव्यों के रूप में कामुक सुखों से खुद को जोड़ना बंद करना; पशुओं की देखभाल करना, दान देना, यज्ञ करना, (वेद) का अध्ययन करना, व्यापार करना, धन उधार देना और भूमि पर खेती करना वैश्य के कर्तव्य हैं।
+
*लोगों की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ (यज्ञ) करना, (वेद) का अध्ययन करना और क्षत्रियों के कर्तव्यों के रूप में कामुक सुखों से खुद को जोड़ना बंद करना; पशुओं की देखभाल करना, दान देना, यज्ञ करना, (वेद) का अध्ययन करना, व्यापार करना, धन उधार देना और भूमि पर खेती करना वैश्य के कर्तव्य हैं और कला, मूर्तिकला निर्माण, लकड़ी की नक्काशी आदि जैसे -
−
*और कला, मूर्तिकला निर्माण, लकड़ी की नक्काशी आदि जैसे विभिन्न व्यवसायों के माध्यम से अन्य वर्णों, यानी समाज के बाकी हिस्सों की सेवा करना (मनु स्मृ. १.१००)<ref name=":0" />
+
विभिन्न व्यवसायों के माध्यम से अन्य वर्णों, यानी समाज के बाकी हिस्सों की सेवा करना। (मनु स्मृ. १.१००)<ref name=":0" />
<blockquote>अध्यापनं अध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानां अकल्पयत् । । १.८८ । ।
<blockquote>अध्यापनं अध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानां अकल्पयत् । । १.८८ । ।
Line 244:
Line 244:
#कर्तव्य पहले से मौजूद आंतरिक प्रतिभाओं और स्वभावों को मजबूत और मजबूत करना चाहते हैं।
#कर्तव्य पहले से मौजूद आंतरिक प्रतिभाओं और स्वभावों को मजबूत और मजबूत करना चाहते हैं।
#इन कर्तव्यों के निष्पादन के माध्यम से, हालांकि अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग, सभी पूर्ण सफलता और समग्र कल्याण प्राप्त करेंगे। (भग.गीता.१८.४५)<ref name=":0" />
#इन कर्तव्यों के निष्पादन के माध्यम से, हालांकि अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग, सभी पूर्ण सफलता और समग्र कल्याण प्राप्त करेंगे। (भग.गीता.१८.४५)<ref name=":0" />
+
<blockquote>स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः। स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥१८- ४५॥<ref name=":7" />
−
<blockquote>स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः । स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥१८- ४५॥<ref name=":7" />
+
''sve sve karmaṇyabhirataḥ saṁsiddhiṁ labhate naraḥ । svakarmanirataḥ siddhiṁ yathā vindati tacchr̥ṇu ॥18- 45॥''</blockquote>यह भी स्पष्ट है कि, लोकप्रिय समझ के विपरीत, वर्ण किसी विशेष व्यवसाय को संदर्भित नहीं करता है। इसके बजाय यह विभिन्न स्वभाव वाले लोगों के लिए उपयुक्त कर्तव्यों के बारे में एक सामान्य प्रकृति के दिशानिर्देश प्रदान करता है, जिन्हें वे अपने स्वधर्म के अनुरूप किसी भी व्यवसाय को चुनकर लागू कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक ब्राह्मण वर्ण व्यक्ति विभिन्न विषयों को पढ़ाने वाला शिक्षक हो सकता है, या एक मंदिर में पुजारी, या एक [[Rtvik (ऋत्विक्)|ऋत्विक]], आदि जो यज्ञ करता है, या किसी भी विद्या में विद्वान हो सकता है। इसी तरह, एक शूद्र चित्रकार, लकड़ी की नक्काशी करने वाला, वास्तुकार, मूर्तिकार, श्रम, कारीगर या सेवा उद्योग में किसी अन्य पेशे में हो सकता है। दूसरे शब्दों में, वर्ण समूह स्पष्ट रूप से एक वैचारिक वर्गीकरण है और इसका व्यापार और कौशल के आधार पर कुलों या कबीले के समूहों से कोई सीधा संबंध नहीं है। इसी तरह, वर्ण समूह का संबंध जातीय-सांस्कृतिक जाति समूहों या जातियों के औपनिवेशिक निर्माण से नहीं है। यह यहाँ महत्वपूर्ण है, के बीच अंतर करने के लिए -
−
−
''sve sve karmaṇyabhirataḥ saṁsiddhiṁ labhate naraḥ । svakarmanirataḥ siddhiṁ yathā vindati tacchr̥ṇu ॥18- 45॥''</blockquote>यह भी स्पष्ट है कि, लोकप्रिय समझ के विपरीत, वर्ण किसी विशेष व्यवसाय को संदर्भित नहीं करता है। इसके बजाय यह विभिन्न स्वभाव वाले लोगों के लिए उपयुक्त कर्तव्यों के बारे में एक सामान्य प्रकृति के दिशानिर्देश प्रदान करता है, जिन्हें वे अपने स्वधर्म के अनुरूप किसी भी व्यवसाय को चुनकर लागू कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक ब्राह्मण वर्ण व्यक्ति विभिन्न विषयों को पढ़ाने वाला शिक्षक हो सकता है, या एक मंदिर में पुजारी, या एक [[Rtvik (ऋत्विक्)|ऋत्विक]], आदि जो यज्ञ करता है, या किसी भी विद्या में विद्वान हो सकता है। इसी तरह, एक शूद्र चित्रकार, लकड़ी की नक्काशी करने वाला, वास्तुकार, मूर्तिकार, श्रम, कारीगर या सेवा उद्योग में किसी अन्य पेशे में हो सकता है। दूसरे शब्दों में, वर्ण समूह स्पष्ट रूप से एक वैचारिक वर्गीकरण है और इसका व्यापार और कौशल के आधार पर कुलों या कबीले के समूहों से कोई सीधा संबंध नहीं है। इसी तरह, वर्ण समूह का संबंध जातीय-सांस्कृतिक जाति समूहों या जातियों के औपनिवेशिक निर्माण से नहीं है।
−
−
यह यहाँ महत्वपूर्ण है, के बीच अंतर करने के लिए
#जाति जैसा कि मनु जैसे धर्मशास्त्र ग्रंथों में दिखाई देता है।
#जाति जैसा कि मनु जैसे धर्मशास्त्र ग्रंथों में दिखाई देता है।
Line 270:
Line 267:
धर्म परंपराएं इन धार्मिक कर्तव्यों को दो पहलुओं के रूप में व्यक्त करती हैं।
धर्म परंपराएं इन धार्मिक कर्तव्यों को दो पहलुओं के रूप में व्यक्त करती हैं।
−
१. सामान्यधर्मः || समान्यधर्म : यह सत्य, गैर-चोट, गैर-चोरी, आदि जैसे नैतिक सिद्धांतों से संबंधित है, जो सभी प्राणियों के सामान्य कर्तव्य हैं।
+
#'''सामान्यधर्मः॥ समान्यधर्म -''' यह सत्य, गैर-चोट, गैर-चोरी, आदि जैसे नैतिक सिद्धांतों से संबंधित है, जो सभी प्राणियों के सामान्य कर्तव्य हैं।
−
+
#'''विषेशधर्मः॥ विशेष धर्म '''- ये विशेष कर्तव्य हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए काल (समय), देश (स्थान), वर्ण और आश्रम के आधार पर अद्वितीय हैं। विषेश धर्म के इन विभिन्न तत्वों में, यह [[Ashrama Dharma (आश्रमधर्मः)|आश्रम धर्म]] के साथ-साथ वर्ण धर्म है जो किसी व्यक्ति के जीवन के विभिन्न चरणों को पूरा करता है, जिसे किसी व्यक्ति के संबंध में स्वधर्म या धार्मिक कर्तव्यों के सबसे परिभाषित सिद्धांतों के रूप में माना जा सकता है, क्योंकि वे अकेले ही किसी व्यक्ति के अद्वितीय स्वभाव, संभावित क्षमताओं और आंतरिक आह्वान को पूरा करते हैं।
−
२. विषेशधर्मः || विशेष धर्म : ये विशेष कर्तव्य हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए काल (समय), देश (स्थान), वर्ण और आश्रम के आधार पर अद्वितीय हैं। विषेश धर्म के इन विभिन्न तत्वों में, यह [[Ashrama Dharma (आश्रमधर्मः)|आश्रम धर्म]] के साथ-साथ वर्ण धर्म है जो किसी व्यक्ति के जीवन के विभिन्न चरणों को पूरा करता है, जिसे किसी व्यक्ति के संबंध में स्वधर्म या धार्मिक कर्तव्यों के सबसे परिभाषित सिद्धांतों के रूप में माना जा सकता है, क्योंकि वे अकेले ही किसी व्यक्ति के अद्वितीय स्वभाव, संभावित क्षमताओं और आंतरिक आह्वान को पूरा करते हैं।
विशेष रूप से, वर्ण मॉडल ज्ञान, विशेष रूप से आध्यात्मिक ज्ञान (आध्यात्मिक विद्या) और दिव्य ज्ञान (आत्म विद्या) को मनुष्य के शीर्ष की तरह शीर्ष पर रखता है और एक संपूर्ण वैचारिक ढांचे की कल्पना इस तरह की गई है कि अन्य सभी सांसारिक गतिविधियों, चाहे वह राजनीति, वाणिज्य या श्रम हो, को ऐसे कार्यों के रूप में माना जाता है जो व्यक्तियों को अंततः ज्ञान और मोक्ष के अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने में सहायता करते हैं। वास्तव में, एक ओर [[Varnashrama Dharma (वर्णाश्रमधर्मः)|वर्ण-आश्रम]] और दूसरी ओर पुरूषार्थों के बीच एक स्पष्ट संबंध स्थापित किया जा सकता है। हालाँकि, चार पुरुष सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से लागू होते हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण के हों, एक व्यक्ति के स्वभव और उस पुरुष के बीच एक स्पष्ट संबंध भी है जिसे वह अपने जीवन के लिए केंद्रीय मानता है।
विशेष रूप से, वर्ण मॉडल ज्ञान, विशेष रूप से आध्यात्मिक ज्ञान (आध्यात्मिक विद्या) और दिव्य ज्ञान (आत्म विद्या) को मनुष्य के शीर्ष की तरह शीर्ष पर रखता है और एक संपूर्ण वैचारिक ढांचे की कल्पना इस तरह की गई है कि अन्य सभी सांसारिक गतिविधियों, चाहे वह राजनीति, वाणिज्य या श्रम हो, को ऐसे कार्यों के रूप में माना जाता है जो व्यक्तियों को अंततः ज्ञान और मोक्ष के अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने में सहायता करते हैं। वास्तव में, एक ओर [[Varnashrama Dharma (वर्णाश्रमधर्मः)|वर्ण-आश्रम]] और दूसरी ओर पुरूषार्थों के बीच एक स्पष्ट संबंध स्थापित किया जा सकता है। हालाँकि, चार पुरुष सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से लागू होते हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण के हों, एक व्यक्ति के स्वभव और उस पुरुष के बीच एक स्पष्ट संबंध भी है जिसे वह अपने जीवन के लिए केंद्रीय मानता है।
−
उदाहरण के लिए,
+
उदाहरण के लिए -
−
−
* शूद्र अर्थात शूद्र स्वभव वाले सरल दिमाग वाले होते हैं जिनके पास सांसारिक और सांसारिक दृष्टिकोण होता है। इस प्रकार, उनकी प्राथमिक चिंता अक्सर उनके रोजमर्रा के जीवन, परिवार, बच्चों और खुशी तक सीमित रहती है। दूसरे शब्दों में, उनका प्राथमिक लक्ष्य 'काम' या अपनी और अपने परिवार की सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति है। यही कारण है कि, शूद्र वर्ण में भी गृहस्थ (गृहस्थ) का केवल एक ही आश्रम (जीवन में चरण) माना जाता है, जिसमें वे अपनी सांसारिक इच्छाओं को पूरा कर सकते हैं।
−
*इसी तरह, वैश्य वर्ण 'अर्थ' (धन का संग्रह) के पुरुषार्थ से जुड़ा हुआ है, क्योंकि उनका स्वभव उन्हें धन और समृद्धि का पीछा करने के लिए प्रेरित करता है।
−
*क्षत्रिय धर्म से जुड़ा हुआ है, क्योंकि उनका सबसे प्रमुख कर्तव्य धर्म की रक्षा और नागरिकों का कल्याण है, न कि व्यक्तिगत इच्छाओं या धन का पालन करना
−
−
ब्राह्मण मोक्ष के साथ जुड़े हुए हैं, क्योंकि यह ब्राह्मण का अंतिम आह्वान है और वे दृष्टिकोण में स्वभव आध्यात्मिक द्वारा हैं।
−
वास्तव में, वज्रसूचिक उपनिषद (श्लोक १०) कहता है, एक सच्चा ब्राह्मण वह है जिसने खुद को ब्राह्मण यानी प्राप्त मोक्ष में स्थापित किया है।<ref name=":0" /><blockquote>यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं षडूर्मिषड्भावेत्यादिसर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारशेषभूतान्तर्यामित्वेन वर्तमानमन्तर्यहिश्चाकाशवदनुस्यूतमखण्डानन्द-स्वभावमप्रमेयमनुभवैकवेद्यमपरोक्षतया भासमानं करतलमलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भावमात्सर्यतृष्णाशामोहादिरहितो दम्भाहङ्कारदिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मणेति श्रुतिस्मृतीतिहास-पुराणानामभिप्रायः। अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नास्त्येव।<ref>वज्रसूचिका उपनिषद</ref></blockquote><blockquote>yaḥ kaścidātmānamadvitīyaṁ jātiguṇakriyāhīnaṁ ṣaḍūrmiṣaḍbhāvetyādisarvadoṣarahitaṁ satyajñānānandānantasvarūpaṁ svayaṁ nirvikalpamaśeṣakalpādhāraśeṣabhūtāntaryāmitvena vartamānamantaryahiścākāśavadanusyūtamakhaṇḍānanda-svabhāvamaprameyamanubhavaikavedyamaparokṣatayā bhāsamānaṁ karatalamalakavatsākṣādaparokṣīkr̥tya kr̥tārthatayā kāmarāgādidoṣarahitaḥ śamadamādisampanno bhāvamātsaryatr̥ṣṇāśāmohādirahito dambhāhaṅkāradibhirasaṁspr̥ṣṭacetā vartata evamuktalakṣaṇo yaḥ sa eva brāhmaṇeti śrutismr̥tītihāsa-purāṇānāmabhiprāyaḥ । anyathā hi brāhmaṇatvasiddhirnāstyeva ।</blockquote>
+
*शूद्र अर्थात शूद्र स्वभव वाले सरल दिमाग वाले होते हैं जिनके पास सांसारिक और सांसारिक दृष्टिकोण होता है। इस प्रकार, उनकी प्राथमिक चिंता अक्सर उनके रोजमर्रा के जीवन, परिवार, बच्चों और खुशी तक सीमित रहती है। दूसरे शब्दों में, उनका प्राथमिक लक्ष्य 'काम' या अपनी और अपने परिवार की सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति है। यही कारण है कि, शूद्र वर्ण में भी गृहस्थ (गृहस्थ) का केवल एक ही आश्रम (जीवन में चरण) माना जाता है, जिसमें वे अपनी सांसारिक इच्छाओं को पूरा कर सकते हैं।
+
*इसी तरह, वैश्य वर्ण 'अर्थ' (धन का संग्रह) के पुरुषार्थ से जुड़ा हुआ है, क्योंकि उनका स्वभव उन्हें धन और समृद्धि का पीछा करने के लिए प्रेरित करता है।
+
*क्षत्रिय धर्म से जुड़ा हुआ है, क्योंकि उनका सबसे प्रमुख कर्तव्य धर्म की रक्षा और नागरिकों का कल्याण है, न कि व्यक्तिगत इच्छाओं या धन का पालन करना। ब्राह्मण मोक्ष के साथ जुड़े हुए हैं, क्योंकि यह ब्राह्मण का अंतिम आह्वान है और वे दृष्टिकोण में स्वभव आध्यात्मिक द्वारा हैं।
+
वास्तव में, वज्रसूचिक उपनिषद (श्लोक १०) कहता है, एक सच्चा ब्राह्मण वह है जिसने खुद को ब्राह्मण यानी प्राप्त मोक्ष में स्थापित किया है।<ref name=":0" /><blockquote>यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं षडूर्मिषड्भावेत्यादिसर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारशेषभूतान्तर्यामित्वेन वर्तमानमन्तर्यहिश्चाकाशवदनुस्यूतमखण्डानन्द-स्वभावमप्रमेयमनुभवैकवेद्यमपरोक्षतया भासमानं करतलमलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भावमात्सर्यतृष्णाशामोहादिरहितो दम्भाहङ्कारदिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मणेति श्रुतिस्मृतीतिहास-पुराणानामभिप्रायः। अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नास्त्येव।<ref>वज्रसूचिका उपनिषद</ref>
−
अर्थः वह जो कोई भी हो, जिसने अपनी आत्मा को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया हो, जैसे अपनी हथेली में मिरोबलन, उसकी आत्मा जो एक सेकंड के बिना है, जो वर्ग और कार्यों से रहित है, जो छह दागों और छह परिवर्तनों के दोषों से मुक्त है, जो कि सत्य, ज्ञान, आनंद और अनंतता की प्रकृति है, जो अपने आप में किसी भी परिवर्तन के बिना है, जो सभी कल्पों का आधार है, जो सभी चीजों में प्रवेश करता है जो आकाश के रूप में अंदर और बाहर सब कुछ व्याप्त करता है, जो अविभाजित आनंद की प्रकृति है, जिसके बारे में तर्क नहीं किया जा सकता है और जो केवल प्रत्यक्ष ज्ञान से जाना जाता है। वह जो अपनी इच्छाओं को प्राप्त करने के कारण सांसारिक वस्तुओं और वासनाओं की प्यास के दोषों से रहित है, जो शमा से शुरू होने वाली योग्यताओं का स्वामी है, जो भावना, द्वेष, सांसारिक वस्तुओं की प्यास, इच्छा, मोह आदि से मुक्त है, जिसका मन गर्व, अहंकार आदि से अछूता है, जिसके पास ये सभी गुण हैं और जिसका अर्थ है कि वह केवल ब्राह्मण है। वेद, [[Smrti (स्मृतिः)|स्मृति]], [[Itihasa (इतिहासः)|इतिहास]] और [[Puranas (पुराणानि)|पुराणों]] की यही राय है। अन्यथा कोई भी ब्राह्मण का दर्जा प्राप्त नहीं कर सकता है।<ref>के.नारायणस्वामी अय्यर (१९१४), थर्टी माइनर उपनिषद्स, मद्रास।</ref> वर्ण और आश्रम के बीच संबंध को ध्यान में रखते हुए, वैखानस धर्मसूत्र (१.१) में कहा गया है कि ब्राह्मण को सभी चार आश्रमों, क्षत्रिय को तीन और वैश्य को दो के लिए योग्यता प्राप्त है।<ref name=":0" />
+
yaḥ kaścidātmānamadvitīyaṁ jātiguṇakriyāhīnaṁ ṣaḍūrmiṣaḍbhāvetyādisarvadoṣarahitaṁ satyajñānānandānantasvarūpaṁ svayaṁ nirvikalpamaśeṣakalpādhāraśeṣabhūtāntaryāmitvena vartamānamantaryahiścākāśavadanusyūtamakhaṇḍānanda-svabhāvamaprameyamanubhavaikavedyamaparokṣatayā bhāsamānaṁ karatalamalakavatsākṣādaparokṣīkr̥tya kr̥tārthatayā kāmarāgādidoṣarahitaḥ śamadamādisampanno bhāvamātsaryatr̥ṣṇāśāmohādirahito dambhāhaṅkāradibhirasaṁspr̥ṣṭacetā vartata evamuktalakṣaṇo yaḥ sa eva brāhmaṇeti śrutismr̥tītihāsa-purāṇānāmabhiprāyaḥ । anyathā hi brāhmaṇatvasiddhirnāstyeva।</blockquote>
+
'''अर्थः''' वह जो कोई भी हो, जिसने अपनी आत्मा को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया हो, जैसे अपनी हथेली में मिरोबलन, उसकी आत्मा जो एक सेकंड के बिना है, जो वर्ग और कार्यों से रहित है, जो छह दागों और छह परिवर्तनों के दोषों से मुक्त है, जो कि सत्य, ज्ञान, आनंद और अनंतता की प्रकृति है, जो अपने आप में किसी भी परिवर्तन के बिना है, जो सभी कल्पों का आधार है, जो सभी चीजों में प्रवेश करता है जो आकाश के रूप में अंदर और बाहर सब कुछ व्याप्त करता है, जो अविभाजित आनंद की प्रकृति है, जिसके बारे में तर्क नहीं किया जा सकता है और जो केवल प्रत्यक्ष ज्ञान से जाना जाता है। वह जो अपनी इच्छाओं को प्राप्त करने के कारण सांसारिक वस्तुओं और वासनाओं की प्यास के दोषों से रहित है, जो शमा से शुरू होने वाली योग्यताओं का स्वामी है, जो भावना, द्वेष, सांसारिक वस्तुओं की प्यास, इच्छा, मोह आदि से मुक्त है, जिसका मन गर्व, अहंकार आदि से अछूता है, जिसके पास ये सभी गुण हैं और जिसका अर्थ है कि वह केवल ब्राह्मण है। वेद, [[Smrti (स्मृतिः)|स्मृति]], [[Itihasa (इतिहासः)|इतिहास]] और [[Puranas (पुराणानि)|पुराणों]] की यही राय है। अन्यथा कोई भी ब्राह्मण का दर्जा प्राप्त नहीं कर सकता है।<ref>के.नारायणस्वामी अय्यर (१९१४), थर्टी माइनर उपनिषद्स, मद्रास।</ref> वर्ण और आश्रम के बीच संबंध को ध्यान में रखते हुए, वैखानस धर्मसूत्र (१.१) में कहा गया है कि ब्राह्मण को सभी चार आश्रमों, क्षत्रिय को तीन और वैश्य को दो के लिए योग्यता प्राप्त है।<ref name=":0" />
−
<blockquote>ब्राह्मणस्याश्रमश्चत्वारः क्षत्रियस्याद्यास्त्रयो वैश्यस्य द्वावेव ... । ''brāhmaṇasyāśramaścatvāraḥ kṣatriyasyādyāstrayo vaiśyasya dvāveva ... ।''<ref>वैखानस धर्मसूत्र</ref></blockquote>यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि वर्ण के वैचारिक ढांचे से प्राप्त और उसमें निहित सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति स्वतंत्र रूप से अपनी आंतरिक पुकार का पीछा करने और पूर्ण कल्याण प्राप्त करने में सक्षम होंगे।<ref name=":0" />
+
<blockquote>ब्राह्मणस्याश्रमश्चत्वारः क्षत्रियस्याद्यास्त्रयो वैश्यस्य द्वावेव ...। ''brāhmaṇasyāśramaścatvāraḥ kṣatriyasyādyāstrayo vaiśyasya dvāveva ...।'' <ref>वैखानस धर्मसूत्र</ref></blockquote>यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि वर्ण के वैचारिक ढांचे से प्राप्त और उसमें निहित सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति स्वतंत्र रूप से अपनी आंतरिक पुकार का पीछा करने और पूर्ण कल्याण प्राप्त करने में सक्षम होंगे।<ref name=":0" />
==संदर्भ॥ Synopsis==
==संदर्भ॥ Synopsis==