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| # मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है । जीवन की अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए तथा सुख को निरंतर बनाए रखने के लिए समाज अपने लिए कुछ संगठन निर्माण करता है । इन संगठनों और व्यवस्थाओं की श्रेष्ठता के कारण भारतीय समाज चिरंजीवी बना है । श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए समाज अपने को संगठित करता है । संगठन का अर्थ है समाज के प्रत्येक घटक की शक्तियां, मर्यादाएं, स्वभाव आदि को ध्यानमें रखकर समाज में कुछ रचना निर्माण करना । संगठन बनाने के साथ ही अपनी रक्षण, पोषण और शिक्षण की कुछ व्यवस्थाएं भी बनाता है । | | # मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है । जीवन की अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए तथा सुख को निरंतर बनाए रखने के लिए समाज अपने लिए कुछ संगठन निर्माण करता है । इन संगठनों और व्यवस्थाओं की श्रेष्ठता के कारण भारतीय समाज चिरंजीवी बना है । श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए समाज अपने को संगठित करता है । संगठन का अर्थ है समाज के प्रत्येक घटक की शक्तियां, मर्यादाएं, स्वभाव आदि को ध्यानमें रखकर समाज में कुछ रचना निर्माण करना । संगठन बनाने के साथ ही अपनी रक्षण, पोषण और शिक्षण की कुछ व्यवस्थाएं भी बनाता है । |
| # हर बच्चा जन्म लेते समय अपने विकास की सम्भावनाओं के साथ ही जन्म लेता है । इन सम्भावनाओं के उच्चतम स्तरतक विकास होने से वह बच्चा (मनुष्य) लाभान्वित होता है और साथ ही में समाज को भी लाभ होता है । इसलिए प्रत्येक बालक के विकास की जिम्मेदारी समाज की है । इस विकास के साथ ही समाज की व्यवस्थाओं और संगठनों को ठीक से चलाने के लिए भी प्रत्येक बालक को श्रेष्ठ शिक्षण, संस्कार और प्रशिक्षण मिलना आवश्यक है । समाज के लिए हितकारी स्वतंत्रता, सदाचार, सादगी, स्वावलंबन, सत्यनिष्ठा, सहजता, स्वदेशी आदि गुणों का विकास सामाजिक हित की ही बातें हैं । | | # हर बच्चा जन्म लेते समय अपने विकास की सम्भावनाओं के साथ ही जन्म लेता है । इन सम्भावनाओं के उच्चतम स्तरतक विकास होने से वह बच्चा (मनुष्य) लाभान्वित होता है और साथ ही में समाज को भी लाभ होता है । इसलिए प्रत्येक बालक के विकास की जिम्मेदारी समाज की है । इस विकास के साथ ही समाज की व्यवस्थाओं और संगठनों को ठीक से चलाने के लिए भी प्रत्येक बालक को श्रेष्ठ शिक्षण, संस्कार और प्रशिक्षण मिलना आवश्यक है । समाज के लिए हितकारी स्वतंत्रता, सदाचार, सादगी, स्वावलंबन, सत्यनिष्ठा, सहजता, स्वदेशी आदि गुणों का विकास सामाजिक हित की ही बातें हैं । |
− | सामाजिक स्तर पर लक्ष्य जिस प्रकार व्यक्ति के स्तरपर मानव का लक्ष्य मोक्ष होता है। मुक्ति होता है। उसी प्रकार मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य भी मोक्ष ही होगा। मुक्ति ही होगा। इस सामाजिक लक्ष्य का व्यावहारिक स्वरूप ‘स्वतंत्रता’ है। स्वतंत्रता का अर्थ है अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने की सामर्थ्य। सामर्थ्य प्राप्ति के लिये परिश्रम करने की सामान्यत: लोगों की तैयारी नहीं होती। लेकिन ऐसे किसी प्रयास के बगैर ही यदि जादू से वे समर्थ बन जाएँ तो प्रत्येक को ‘अनिर्बाध स्वतंत्रता’ की चाहत होती है। स्वैराचार और स्वतंत्रता में अंतर होता है। स्वैराचार की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन समाज में जहाँ अन्यों के सुख के साथ संघर्ष खडा होता है तब स्वतंत्रता की सीमा आ जाती है। धर्म ही स्वैराचार को सीमामें बाँधकर उसे स्वतंत्रता बना देता है। | + | सामाजिक स्तर पर लक्ष्य |
− | सामाजिक लक्ष्य स्वतंत्रता है। सामाजिक स्तरपर मोक्ष का स्वरूप मुक्ति या ‘स्वतंत्रता’ है। स्वाभाविक, शासनिक, आर्थिक ऐसी तीन प्रकारकी स्वतंत्रता मिले और बनीं रहे यह देखना समाज के प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तिगत और सामुहिक कर्तव्य है। सामाजिक जीवन का लक्ष्य यद्यपि स्वतंत्रता है फिर भी सामान्यत: बहुत कम लोग इसे समझ पाते हैं। जिस प्रकार से पशूओंजैसा केवल प्राणिक आवेगों में ही सुख माननेवाले लोग इंद्रियसुख को ही सुख की परमावधि मान लेते हैं। मानसिक दासतावाले लोग भी इंद्रियसुख की प्राप्तिको जीवन का लक्ष्य मान लेते हैं। सृष्टीगत् स्तरपर लक्ष्य | + | |
| + | जिस प्रकार व्यक्ति के स्तरपर मानव का लक्ष्य मोक्ष होता है। मुक्ति होता है। उसी प्रकार मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य भी मोक्ष ही होगा। मुक्ति ही होगा। इस सामाजिक लक्ष्य का व्यावहारिक स्वरूप ‘स्वतंत्रता’ है। स्वतंत्रता का अर्थ है अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने की सामर्थ्य। सामर्थ्य प्राप्ति के लिये परिश्रम करने की सामान्यत: लोगों की तैयारी नहीं होती। लेकिन ऐसे किसी प्रयास के बगैर ही यदि जादू से वे समर्थ बन जाएँ तो प्रत्येक को ‘अनिर्बाध स्वतंत्रता’ की चाहत होती है। स्वैराचार और स्वतंत्रता में अंतर होता है। स्वैराचार की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन समाज में जहाँ अन्यों के सुख के साथ संघर्ष खडा होता है तब स्वतंत्रता की सीमा आ जाती है। धर्म ही स्वैराचार को सीमामें बाँधकर उसे स्वतंत्रता बना देता है। |
| + | सामाजिक लक्ष्य स्वतंत्रता है। सामाजिक स्तरपर मोक्ष का स्वरूप मुक्ति या ‘स्वतंत्रता’ है। स्वाभाविक, शासनिक, आर्थिक ऐसी तीन प्रकारकी स्वतंत्रता मिले और बनीं रहे यह देखना समाज के प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तिगत और सामुहिक कर्तव्य है। सामाजिक जीवन का लक्ष्य यद्यपि स्वतंत्रता है फिर भी सामान्यत: बहुत कम लोग इसे समझ पाते हैं। जिस प्रकार से पशूओंजैसा केवल प्राणिक आवेगों में ही सुख माननेवाले लोग इंद्रियसुख को ही सुख की परमावधि मान लेते हैं। मानसिक दासतावाले लोग भी इंद्रियसुख की प्राप्तिको जीवन का लक्ष्य मान लेते हैं। |
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| + | सृष्टीगत् स्तरपर लक्ष्य |
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| जड जगत यानी पृथ्वि, वायू, वरूण, अग्नि आदि देवताओं के विषय में मानव के और मानव समाज के संबंधों का विवरण ऊपर सृष्टि निर्माण की मान्यता में दिया है। पशू पक्षी, प्राणि वनस्पति आदि सजीवों के साथ संबंधों के बारे में भी बताया गया है कि सारी चराचर सृष्टि ही परमात्त्व तत्त्व से बनीं है इसलिये इस में पूज्य भाव रखना चाहिये। इसीलिये साँप की पूजा, वटवृक्ष की पूजा, बेल, दूब आदि प्रकृति के घटकों के प्रति पवित्रता की भावना रखना आवश्यक है। आयुर्वेद में तो कहा गया है कि ऐसा कोई भी पेड, पौधा, जडी, बूटी नहीं है जिसका औषधी उपयोग नहीं है। और ऐसा किसी भी वनस्पति का उपयोग करने से पहले उस से प्रार्थना कर उस से क्षमा माँगने के उपरांत ही उस से छाल, पत्ते, फूल, मूल, फल या लकडी लेनी चाहिये। | | जड जगत यानी पृथ्वि, वायू, वरूण, अग्नि आदि देवताओं के विषय में मानव के और मानव समाज के संबंधों का विवरण ऊपर सृष्टि निर्माण की मान्यता में दिया है। पशू पक्षी, प्राणि वनस्पति आदि सजीवों के साथ संबंधों के बारे में भी बताया गया है कि सारी चराचर सृष्टि ही परमात्त्व तत्त्व से बनीं है इसलिये इस में पूज्य भाव रखना चाहिये। इसीलिये साँप की पूजा, वटवृक्ष की पूजा, बेल, दूब आदि प्रकृति के घटकों के प्रति पवित्रता की भावना रखना आवश्यक है। आयुर्वेद में तो कहा गया है कि ऐसा कोई भी पेड, पौधा, जडी, बूटी नहीं है जिसका औषधी उपयोग नहीं है। और ऐसा किसी भी वनस्पति का उपयोग करने से पहले उस से प्रार्थना कर उस से क्षमा माँगने के उपरांत ही उस से छाल, पत्ते, फूल, मूल, फल या लकडी लेनी चाहिये। |
| सृष्टि के अन्य सब जीव भोग योनि के होते हैं। वे नहीं तो सृष्टि को बिगाडने की और न ही बिगडी हुई प्रकृति को सुधारने की क्षमता रखते हैं। केवल मानव योनि ही कर्म योनि है। इसे वह क्षमताएँ प्राप्त हैं की यह अपनी इच्छानुरूप प्रकृति के साथ व्यवहार कर सके। इसलिये हर मानव का यह व्यक्तिगत, सामाजिक और सृष्टिगत कर्तव्य बनता है कि अपने चिरंजीवी जीवन के लिये सृष्टि के व्यवहार में वह यथासंभव कोई बाधा निर्माण नहीं करे। वह सृष्टि के नियमों का पालन करे। इसी को धर्माचरण कहते हैं। यह आवश्यक बन जाता है कि समाज का हर व्यक्ति धर्माचरणी हो। प्रकृति के नियमों का पालन करनेवाला हो। समाज धर्म का भी पालन करनेवाला हो। | | सृष्टि के अन्य सब जीव भोग योनि के होते हैं। वे नहीं तो सृष्टि को बिगाडने की और न ही बिगडी हुई प्रकृति को सुधारने की क्षमता रखते हैं। केवल मानव योनि ही कर्म योनि है। इसे वह क्षमताएँ प्राप्त हैं की यह अपनी इच्छानुरूप प्रकृति के साथ व्यवहार कर सके। इसलिये हर मानव का यह व्यक्तिगत, सामाजिक और सृष्टिगत कर्तव्य बनता है कि अपने चिरंजीवी जीवन के लिये सृष्टि के व्यवहार में वह यथासंभव कोई बाधा निर्माण नहीं करे। वह सृष्टि के नियमों का पालन करे। इसी को धर्माचरण कहते हैं। यह आवश्यक बन जाता है कि समाज का हर व्यक्ति धर्माचरणी हो। प्रकृति के नियमों का पालन करनेवाला हो। समाज धर्म का भी पालन करनेवाला हो। |