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| #* घटती शारीरिक क्षमताओं के अनुसार मनुष्य धीरे धीरे गृहस्थी से मुक्त होता है। किसी जमाने में घर छोडकर वन में चला जाता था। वानप्रस्थी बन जाता था। अब घर में ही रहते हुए वह नयी पीढी के हाथों में अधिकार का अंतरण करता है। बच्चा जब जन्म लेता है तब वह केवल अपने अधिकारों की सोचता है। और जब वह घर का मुखिया बनता है तब वह अपने को छोड सारे परिवार के सदस्यों के अधिकारों की सोचता है। इस दृष्टि से परिवार यह सामाजिकता की सीख देनेवाली पाठशाला ही होती है। | | #* घटती शारीरिक क्षमताओं के अनुसार मनुष्य धीरे धीरे गृहस्थी से मुक्त होता है। किसी जमाने में घर छोडकर वन में चला जाता था। वानप्रस्थी बन जाता था। अब घर में ही रहते हुए वह नयी पीढी के हाथों में अधिकार का अंतरण करता है। बच्चा जब जन्म लेता है तब वह केवल अपने अधिकारों की सोचता है। और जब वह घर का मुखिया बनता है तब वह अपने को छोड सारे परिवार के सदस्यों के अधिकारों की सोचता है। इस दृष्टि से परिवार यह सामाजिकता की सीख देनेवाली पाठशाला ही होती है। |
| #* सामान्य लोगों के लिये संन्यास आश्रम नहीं होता। अपवादस्वरूप लोग ही सर्वसंग परित्याग कर संन्यासी बनते हैं। संन्यासियों की मोक्ष साधना भी ठीक से चल सके यह देखना गृहस्थाश्रमी लोगों का ही दायित्व है। | | #* सामान्य लोगों के लिये संन्यास आश्रम नहीं होता। अपवादस्वरूप लोग ही सर्वसंग परित्याग कर संन्यासी बनते हैं। संन्यासियों की मोक्ष साधना भी ठीक से चल सके यह देखना गृहस्थाश्रमी लोगों का ही दायित्व है। |
− | # आश्रम व्यवस्था में कुटुंब व्यवस्था एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना है। अभारतीय समाजों में सामाजिक और पर्यावरणीय संबंधों का आधार 'स्वार्थ' होता है। यह उनके ‘व्यक्तिवादिता’ की जीवनदृष्टि के कारण ही है। इसीलिये अभारतीय समाजों में विवाह नहीं होते मॅरेज या निकाह होते हैं। विवाह तो दो भिन्न व्यक्तित्वों का एक व्यक्तित्व बनकर जीने का संस्कार होता है। मॅरेज या निकाह ये करार, या काँट्रॅक्ट या समझौता होते हैं, जो दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ की आश्वस्ति के लिये करते हैं। कुटुंब व्यवस्था यह भारतीय समाज रचना और व्यवस्थाओं का आधार है। कुटुंब व्यवस्था का उद्देश्य ही परिवार के लोगों में कौटुम्बिक भावना यानी परस्पर आत्मीयता की, एकत्व की भावना जगाना यही है। सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों का आधार कुटुंब भावना ही है। कुटुंब के विषय में अधिक जानने के लिये यह [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|लेख]] देखें। | + | # आश्रम व्यवस्था में कुटुंब व्यवस्था एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना है। अभारतीय समाजों में सामाजिक और पर्यावरणीय संबंधों का आधार 'स्वार्थ' होता है। यह उनके ‘व्यक्तिवादिता’ की जीवनदृष्टि के कारण ही है। इसीलिये अभारतीय समाजों में विवाह नहीं होते मॅरेज या निकाह होते हैं। विवाह तो दो भिन्न व्यक्तित्वों का एक व्यक्तित्व बनकर जीने का संस्कार होता है। मॅरेज या निकाह ये करार, या काँट्रॅक्ट या समझौता होते हैं, जो दो व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ की आश्वस्ति के लिये करते हैं। कुटुंब व्यवस्था यह भारतीय समाज रचना और व्यवस्थाओं का आधार है। कुटुंब व्यवस्था का उद्देश्य ही परिवार के लोगों में कौटुम्बिक भावना यानी परस्पर आत्मीयता की, एकत्व की भावना जगाना यही है। सभी सामाजिक और सृष्टिगत संबंधों का आधार कुटुंब भावना ही है। भारतीय समाजशास्त्र का आधार सार्वत्रिक कुटुंब भावना का विकास है। कुटुंब भावना का अर्थ है अपनापन, प्रेम। इस के विकास से पूरा समाज कम परिश्रम में अधिक व्यवस्थित काम करने लग जाता है। कुटुंब के विषय में अधिक जानने के लिये यह [[Family Structure (कुटुंब व्यवस्था)|लेख]] देखें। |
− | # भारतीय समाजशास्त्र का आधार सार्वत्रिक कुटुंब भावना का विकास है। कुटुंब भावना का अर्थ है अपनापन, प्रेम। इस के विकास से पूरा समाज कम परिश्रम में अधिक व्यवस्थित काम करने लग जाता है। कुटुंब भावना से अभिप्राय जिन बातों से है उन का विवरण अध्याय १३ कुटुंब में देखें। २१. कुटुंब भावना का सार्वत्रिकीकरण यह भारतीय समाज का अनिवार्य पहलू है। वर्तमान में कुटुंब भी बाजार भावना से चलते हैं। सौदेबाजी से चलते हैं। भारतीय समाज में तो बाजार भी परिवार भावना से चलने चाहिये। हमारे कुटुंब के दायरे में चराचर का समावेश होता है। शिष्य गुरूका मानसपुत्र माना जाता है। प्रजा शब्द का अर्थ ही संतान होता है। राजा को प्रजा का पिता माना जाता है। एक ही व्यवसाय में काम करनेवाले एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी न होकर व्यवसायबंधू होते हैं। परिवार भावना का सार्वत्रिकीकरण तब ही हो सकता है जब परिवारों में वह अत्यंत तीव्र होगी, तथा उसके सार्वत्रिकीकरण की सोच और वातावरण भी होगा। इस दृष्टि से परिवार में दो प्रकार की शिक्षा होती है। एक होती है परिवार में शिक्षा। इसमें विभिन्न प्रकार की आदतें, सामाजिकता, व्यावसायिक कौशल, आदि का समावेश होता है। दूसरी होती है परिवार की शिक्षा। इस शिक्षा से मुख्यत: परिवार में कैसे रहा जाता है, पारिवारिक विशेषताएँ क्या हैं आदि का और व्यवहार का अगली पीढी को अंतरण होता है। इसमें बच्चा पारिवारिक रिश्ते, पारिवारिक दैनंदिन काम, कुलधर्म, कुलाचार, परंपराएँ आदि सीखता है। २२. सृष्टि में कोई भी दो अस्तित्व पूर्णत: एक जैसे नहीं होते हैं। इसी तरह समाज में कोई भी दो व्यक्ति पूर्णत: समान नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता कनिष्ठता तो किसी भी समाज में स्वाभाविक है। एक मानव के नाते, एक ही समाज के घटक होने के नाते समाज के सभी लोग, समान हैं। समान का अर्थ यह नहीं की हर मनुष्य को खाने के लिये चार रोटी दी जाए। जिस की आवश्यकता २ रोटी है उसे २ रोटी और जिस की आवश्यकता ६ रोटी की है उसे ६ रोटी मिलनी चाहिये। समाज के सभी घटक समान हैं का अर्थ है हर व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति हो यह देखना। परिवार में बडे छोटे, बलवान, दुर्बल, स्त्री, पुरूष, मोटे, दुबले ऐसे लोग होते ही हैं। जिस प्रकार से परिवार में ऐसे किसी की भी आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ध्यान दिया जाता है उसी प्रकार समाज भी एक विशाल परिवार है ऐसा समझकर प्रत्येक की आवश्यकता और उचित अपेक्षाओं की पूर्ति करना हर व्यक्ति का और समाज का सामाजिक कर्तव्य है। इसी के साथ हर व्यक्ति की क्षमताओं और योग्यताओं का उस व्यक्ति के हित के साथ साथ ही समाज के हित में उपयोग होना चाहिये। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के विकास की उच्चतम संभावनाओं के विकास के अवसर उसे समाज में प्राप्त होने चाहिये। ऐसा जब होता है तो समाज एक परिवार बनता है। साथ ही में सामाजिक न्याय की भी प्रतिष्ठापना हो जाती है। २३. सृष्टि में सभी विषय और व्यवस्थाएँ एक दूसरे से अंगांगी भाव से जुडी हुई हैं। अंग विषय में कोई भी बात अंगी के विरोधी या विपरीत नहीं होगी। परामात्मा ने सृष्टि का निर्माण किया इस कारण प्रकृति के नियमों को खोजकर प्राकृतिक शास्त्रों की प्रस्तुति की गई है। जैसे प्राणिशास्त्र, वनस्पति शास्त्र, भौतिक शास्त्र आदि। मानव ने भी अपनी प्रतिभा से अपने हित की दृष्टि से कुछ शास्त्रों का निर्माण किया है। इन्हें सांस्कृतिक शास्त्र कहा जाता है। जैसे समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, न्यायशास्त्र, राज्यशास्त्र आदि। इन सभी शास्त्रों के उपयोग के लिये जो व्यवस्थाएँ बनतीं हैं उन्हें अगांगी संबंध समझकर बनाने से व्यक्तिगत समष्टिगत और सृष्टि जीवन अच्छा चलता है। इन की एक मोटी मोटी रूपरेखा अध्याय २७ विषयों का अंगांगी संबंध में दी है। २४. समाज में उत्पादन की प्रभूतता हो। इस प्रभूतता का संदर्भ समाज की आवश्यकताओं से रहे। इच्छाओं से नहीं। उत्पादन भी 'सर्वे भवन्तु सुखिन: के विपरीत नहीं हो। यानी जिस वस्तू के उत्पादन और उपयोग से किसी का भी अहित होता हो ऐसा उत्पादन नहीं करना चाहिये। जब शंका हो तब सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये जीनेवाले ज्ञानी लोगों से मार्गदर्शन लेना । २५. नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी का अंतर भी एक चिरंतन विषय है । इस के लिए मार्गदर्शक तत्त्व है – चिरंतन तत्त्वों की युगानुकूल प्रस्तुति करना । जैसे – वस्त्र पहनने के दो कारण हैं । पहला है विषम वातावरण से शरीर की रक्षा करना । दूसरा है लज्जा रक्षण । यहाँ लज्जा रक्षण का अर्थ ठीक से समझना होगा । जिन वस्त्रों के पहनने से देखनेवाला कामुक या उद्दीपित नहीं हो जाए ऐसे वस्त्र पहनना । जबतक इन दोनों बातों की आश्वस्ति होती है तबतक वस्त्रों के सभी नवाचार स्वीकार्य हैं । भारतीय सोच के अनुसार धर्म के कुछ तत्त्व जैसे रक्षण, पोषण, शिक्षण, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अक्रोध आदि चिरंतन हैं। युगानुकूल सोच और व्यवहार का अर्थ है काल के साथ जो मानवीय क्षमताओं का क्षरण हुआ है, प्रकृति में जो परिवर्तन होते रहते हैं आदि जैसी बातों के साथ अनुकूलन । यही तत्व विदेशी सोच, व्यवहार और वस्तुओं के संबंध में उचित होती है। केवल किसी सोच, व्यवहार या वस्तु के उपयोग का प्रारंभ कहीं विदेश में हुआ है इसलिये उसको त्यागना ठीक नहीं है। वह यदि ‘सर्वे भवन्तु’ से सुसंगत है तो उसे देशानुकूल बनाकर उसका उपयोग करना चाहिये। जैसे भारत का बहुत बडा हिस्सा उष्ण जलवायू का है। यूरोप के देशों का वातावरण ठण्डा होने से वे टाय पहनते हैं। कमीज को टाय कॉलर भी होती है। भारत के ऊष्ण प्रदेशों में टाय लगाने की आवश्यकता नहीं होती। इसलिये बिना टाय कॉलर की कमीज इन प्रदेशों में योग्य है। इससे कुछ कपडे का दुरूपयोग और दर्जी के परिश्रम बचेंगे। खडी कॉलर यह विदेशी टाय कॉलर का देशानुकूल स्वरूप है। २६. हर समाज की अपनी कोई भाषा होती है। इस भाषा का विकास उस समाज के विकास के साथ ही होता है। इसलिये यह भाषा समाज की विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि को सही सही अभिव्यक्त करने की क्षमता रखती है। अन्य समाज की भाषा में सरल और सहज अभिव्यक्ति संभव नहीं होती। समाज की भाषा बिगडने से या नष्ट होने से विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। फिर वह समाज पूर्व का समाज नहीं रह जाता।. २७. गुरुकुल की शिक्षा पूर्ण कर जब युवक संसार में प्रवेश के लिये गुरु से अनुमति लेता था उस समय जो प्रक्रिया होती थी उसे समावर्तन कहते थे। तैत्तिरीय उपनिषद की शीक्षा वल्ली में एकादश अनुवाक में प्रस्तुत, समावर्तन के समय दिया जानेवाला उपदेश और आदेश व्यक्तिगत और गृहस्थ या समाज जीवन के लिये अत्यंत मार्गदर्शक है। समावर्तन संदेश की अधिक जानकारी के लिये कृपया अध्याय ३२ शिक्षा दृष्टी देखें। २८. जब सामाजिक संबंधों का आधार ‘अपने अधिकार’' होता है तब समाज में संघर्ष, अशांति, तनाव अनिवार्य हो जाते हैं। किंतु जब समाज में परस्पर संबंध ‘अपने कर्तव्यों की पूर्ति’ पर आधारित होते हैं तब समाज का जीवन सुखी और शांततामय होता है। २९. वर्तमान कानून के अनुसार किसी व्यक्ति का यदि ७ वर्षतक पता ठिकाना नहीं होता है तो उसे मरा हुआ माना जाता है। भारतीय मान्यता के अनुसार त्रेता युग में यह मान्यता १४ वर्ष की थी। इसीलिये कैकेयी ने राम को १४ वर्ष के वनवास में भेजा था। द्वापर में यही काल १३ वर्ष का था। इसीलिये पांडवों को १२ वर्ष के वनवास और १ वर्ष के अज्ञातवास में भेजा गया था। कलि युग में यह अवधि १२ वर्ष की होती है। इसके पीछे विचार यह है कि इतने वर्षों में लोग उसे भूल जाएँगे। वह व्यक्ति भी इस अवधि में पूर्णत: भिन्न जीवन जीने के कारण बदल जाएगा। इसीलिये जाति परिवर्तन के लिये १२ वर्षतक दूसरी जाति का जीवन जीने के उपरांत ही किसी व्यक्ति को दूसरी जाति में शामिल किया जाता था। ३०. हर जीव का अपना स्वभाव होता है । इस स्वभाव के अनुसार व्यवहार करना उसका धर्म होता है । श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है – स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: । (३-३५) धर्म का तात्पर्य ही प्रकृति के नियमों से है । प्रकृति के नियमों का पालन करने से अपना जीवन सुखमय होता है । किन्तु कभी कभी अपना सुख अन्यों के सुख का विरोधी बन सकता है । इसे ध्यान में रखकर जब स्वभाव के अनुसार ही लेकिन अधिक अच्छे तरीके से व्यवहार होता है तो संस्कृति का उदय होता है । संस्कृति का अर्थ है सम्यक कृति । सम्यक का अर्थ है अपने स्वभाव के अनुसार ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिए की हुई कृति । ३१. समाज में चिरकाल से सुर और असुर वृत्तियों का विभाजन रहा है । सुर उन्हें कहते हैं जिनके सभी प्रकार के परस्पर संबंधों का आधार आत्मीयता होता है । प्रेम, सहानुभूति, श्रद्धा आदि होता है । असुर प्रवृत्ति उसे कहते हैं जिनके परस्पर संबंधों का आधार स्वार्थ होता है । इसका अधिक विस्तार से वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १६ में किया गया है । आत्मीयता के परस्पर संबंधों को ही व्यवहार की भाषा में ‘कुटुंब भावना’ कहते हैं । ३२. मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है । जीवन की अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए तथा सुख को निरंतर बनाए रखने के लिए समाज अपने लिए कुछ संगठन निर्माण करता है । इन संगठनों और व्यवस्थाओं की श्रेष्ठता के कारण भारतीय समाज चिरंजीवी बना है । श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए समाज अपने को संगठित करता है । संगठन का अर्थ है समाज के प्रत्येक घटक की शक्तियां, मर्यादाएं, स्वभाव आदि को ध्यानमें रखकर समाज में कुछ रचना निर्माण करना । संगठन बनाने के साथ ही अपनी रक्षण, पोषण और शिक्षण की कुछ व्यवस्थाएं भी बनाता है । ३३. हर बच्चा जन्म लेते समय अपने विकास की सम्भावनाओं के साथ ही जन्म लेता है । इन सम्भावनाओं के उच्चतम स्तरतक विकास होने से वह बच्चा (मनुष्य) लाभान्वित होता है और साथ ही में समाज को भी लाभ होता है । इसलिए प्रत्येक बालक के विकास की जिम्मेदारी समाज की है । इस विकास के साथ ही समाज की व्यवस्थाओं और संगठनों को ठीक से चलाने के लिए भी प्रत्येक बालक को श्रेष्ठ शिक्षण, संस्कार और प्रशिक्षण मिलना आवश्यक है । समाज के लिए हितकारी स्वतंत्रता, सदाचार, सादगी, स्वावलंबन, सत्यनिष्ठा, सहजता, स्वदेशी आदि गुणों का विकास सामाजिक हित की ही बातें हैं ।
| + | # कुटुंब भावना का सार्वत्रिकीकरण यह भारतीय समाज का अनिवार्य पहलू है। वर्तमान में कुटुंब भी बाजार भावना से चलते हैं। सौदेबाजी से चलते हैं। भारतीय समाज में तो बाजार भी परिवार भावना से चलने चाहिये। हमारे कुटुंब के दायरे में चराचर का समावेश होता है। शिष्य गुरूका मानसपुत्र माना जाता है। प्रजा शब्द का अर्थ ही संतान होता है। राजा को प्रजा का पिता माना जाता है। एक ही व्यवसाय में काम करनेवाले एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी न होकर व्यवसाय बन्धु होते हैं। परिवार भावना का सार्वत्रिकीकरण तब ही हो सकता है जब परिवारों में वह अत्यंत तीव्र होगी, तथा उसके सार्वत्रिकीकरण की सोच और वातावरण भी होगा। इस दृष्टि से परिवार में दो प्रकार की शिक्षा होती है। एक होती है परिवार में शिक्षा। इसमें विभिन्न प्रकार की आदतें, सामाजिकता, व्यावसायिक कौशल, आदि का समावेश होता है। दूसरी होती है परिवार की शिक्षा। इस शिक्षा से मुख्यत: परिवार में कैसे रहा जाता है, पारिवारिक विशेषताएँ क्या हैं आदि का और व्यवहार का अगली पीढी को अंतरण होता है। इसमें बच्चा पारिवारिक रिश्ते, पारिवारिक दैनंदिन काम, कुलधर्म, कुलाचार, परंपराएँ आदि सीखता है। |
| + | # सृष्टि में कोई भी दो अस्तित्व पूर्णत: एक जैसे नहीं होते हैं। इसी तरह समाज में कोई भी दो व्यक्ति पूर्णत: समान नहीं हो सकते। इसलिये श्रेष्ठता कनिष्ठता तो किसी भी समाज में स्वाभाविक है। एक मानव के नाते, एक ही समाज के घटक होने के नाते समाज के सभी लोग, समान हैं। समान का अर्थ यह नहीं की हर मनुष्य को खाने के लिये चार रोटी दी जाए। जिस की आवश्यकता २ रोटी है उसे २ रोटी और जिस की आवश्यकता ६ रोटी की है उसे ६ रोटी मिलनी चाहिये। समाज के सभी घटक समान हैं का अर्थ है हर व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति हो यह देखना। परिवार में बडे छोटे, बलवान, दुर्बल, स्त्री, पुरूष, मोटे, दुबले ऐसे लोग होते ही हैं। जिस प्रकार से परिवार में ऐसे किसी की भी आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ध्यान दिया जाता है उसी प्रकार समाज भी एक विशाल परिवार है ऐसा समझकर प्रत्येक की आवश्यकता और उचित अपेक्षाओं की पूर्ति करना हर व्यक्ति का और समाज का सामाजिक कर्तव्य है। इसी के साथ हर व्यक्ति की क्षमताओं और योग्यताओं का उस व्यक्ति के हित के साथ साथ ही समाज के हित में उपयोग होना चाहिये। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के विकास की उच्चतम संभावनाओं के विकास के अवसर उसे समाज में प्राप्त होने चाहिये। ऐसा जब होता है तो समाज एक परिवार बनता है। साथ ही में सामाजिक न्याय की भी प्रतिष्ठापना हो जाती है। |
| + | # सृष्टि में सभी विषय और व्यवस्थाएँ एक दूसरे से अंगांगी भाव से जुडी हुई हैं। अंग विषय में कोई भी बात अंगी के विरोधी या विपरीत नहीं होगी। परामात्मा ने सृष्टि का निर्माण किया इस कारण प्रकृति के नियमों को खोजकर प्राकृतिक शास्त्रों की प्रस्तुति की गई है। जैसे प्राणिशास्त्र, वनस्पति शास्त्र, भौतिक शास्त्र आदि। मानव ने भी अपनी प्रतिभा से अपने हित की दृष्टि से कुछ शास्त्रों का निर्माण किया है। इन्हें सांस्कृतिक शास्त्र कहा जाता है। जैसे समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, न्यायशास्त्र, राज्यशास्त्र आदि। इन सभी शास्त्रों के उपयोग के लिये जो व्यवस्थाएँ बनतीं हैं उन्हें अगांगी संबंध समझकर बनाने से व्यक्तिगत समष्टिगत और सृष्टि जीवन अच्छा चलता है। इन की एक मोटी मोटी रूपरेखा इस [[Interrelationship in Srishti (सृष्टि में परस्पर सम्बद्धता)|लेख]] में दी है। |
| + | # समाज में उत्पादन की प्रभूता हो। इस प्रभूता का संदर्भ समाज की आवश्यकताओं से रहे। इच्छाओं से नहीं। उत्पादन भी 'सर्वे भवन्तु सुखिन: के विपरीत नहीं हो। यानी जिस वस्तू के उत्पादन और उपयोग से किसी का भी अहित होता हो ऐसा उत्पादन नहीं करना चाहिये। जब शंका हो तब सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये जीनेवाले ज्ञानी लोगों से मार्गदर्शन लेना । |
| + | # नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी का अंतर भी एक चिरंतन विषय है । इस के लिए मार्गदर्शक तत्त्व है – चिरंतन तत्त्वों की युगानुकूल प्रस्तुति करना । जैसे – वस्त्र पहनने के दो कारण हैं । पहला है विषम वातावरण से शरीर की रक्षा करना । दूसरा है लज्जा रक्षण । यहाँ लज्जा रक्षण का अर्थ ठीक से समझना होगा । जिन वस्त्रों के पहनने से देखनेवाला कामुक या उद्दीपित नहीं हो जाए ऐसे वस्त्र पहनना । जबतक इन दोनों बातों की आश्वस्ति होती है तबतक वस्त्रों के सभी नवाचार स्वीकार्य हैं । भारतीय सोच के अनुसार धर्म के कुछ तत्त्व जैसे रक्षण, पोषण, शिक्षण, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अक्रोध आदि चिरंतन हैं। युगानुकूल सोच और व्यवहार का अर्थ है काल के साथ जो मानवीय क्षमताओं का क्षरण हुआ है, प्रकृति में जो परिवर्तन होते रहते हैं आदि जैसी बातों के साथ अनुकूलन । यही तत्व विदेशी सोच, व्यवहार और वस्तुओं के संबंध में उचित होती है। केवल किसी सोच, व्यवहार या वस्तु के उपयोग का प्रारंभ कहीं विदेश में हुआ है इसलिये उसको त्यागना ठीक नहीं है। वह यदि ‘सर्वे भवन्तु’ से सुसंगत है तो उसे देशानुकूल बनाकर उसका उपयोग करना चाहिये। जैसे भारत का बहुत बडा हिस्सा उष्ण जलवायू का है। यूरोप के देशों का वातावरण ठण्डा होने से वे टाय पहनते हैं। कमीज को टाय कॉलर भी होती है। भारत के ऊष्ण प्रदेशों में टाय लगाने की आवश्यकता नहीं होती। इसलिये बिना टाय कॉलर की कमीज इन प्रदेशों में योग्य है। इससे कुछ कपडे का दुरूपयोग और दर्जी के परिश्रम बचेंगे। खडी कॉलर यह विदेशी टाय कॉलर का देशानुकूल स्वरूप है। |
| + | # हर समाज की अपनी कोई भाषा होती है। इस भाषा का विकास उस समाज के विकास के साथ ही होता है। इसलिये यह भाषा समाज की विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि को सही सही अभिव्यक्त करने की क्षमता रखती है। अन्य समाज की भाषा में सरल और सहज अभिव्यक्ति संभव नहीं होती। समाज की भाषा बिगडने से या नष्ट होने से विचार, परंपराओं, मान्यताओं आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। फिर वह समाज पूर्व का समाज नहीं रह जाता। |
| + | # गुरुकुल की शिक्षा पूर्ण कर जब युवक संसार में प्रवेश के लिये गुरु से अनुमति लेता था उस समय जो प्रक्रिया होती थी उसे समावर्तन कहते थे। तैत्तिरीय उपनिषद की शीक्षा वल्ली में एकादश अनुवाक में प्रस्तुत, समावर्तन के समय दिया जानेवाला उपदेश और आदेश व्यक्तिगत और गृहस्थ या समाज जीवन के लिये अत्यंत मार्गदर्शक है। समावर्तन संदेश की अधिक जानकारी के लिये कृपया यह [[Indian Education Paradigm (भारतीय शिक्षा दृष्टि)|लेख]] देखें। |
| + | # जब सामाजिक संबंधों का आधार ‘अपने अधिकार’' होता है तब समाज में संघर्ष, अशांति, तनाव अनिवार्य हो जाते हैं। किंतु जब समाज में परस्पर संबंध ‘अपने कर्तव्यों की पूर्ति’ पर आधारित होते हैं तब समाज का जीवन सुखी और शांततामय होता है। |
| + | # वर्तमान कानून के अनुसार किसी व्यक्ति का यदि ७ वर्ष तक पता ठिकाना नहीं होता है तो उसे मरा हुआ माना जाता है। भारतीय मान्यता के अनुसार त्रेता युग में यह मान्यता १४ वर्ष की थी। इसीलिये कैकेयी ने राम को १४ वर्ष के वनवास में भेजा था। द्वापर में यही काल १३ वर्ष का था। इसीलिये पांडवों को १२ वर्ष के वनवास और १ वर्ष के अज्ञातवास में भेजा गया था। कलि युग में यह अवधि १२ वर्ष की होती है। इसके पीछे विचार यह है कि इतने वर्षों में लोग उसे भूल जाएँगे। वह व्यक्ति भी इस अवधि में पूर्णत: भिन्न जीवन जीने के कारण बदल जाएगा। इसीलिये जाति परिवर्तन के लिये १२ वर्ष तक दूसरी जाति का जीवन जीने के उपरांत ही किसी व्यक्ति को दूसरी जाति में शामिल किया जाता था। |
| + | # हर जीव का अपना स्वभाव होता है । इस स्वभाव के अनुसार व्यवहार करना उसका धर्म होता है । श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है –स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: । (३-३५) धर्म का तात्पर्य ही प्रकृति के नियमों से है। प्रकृति के नियमों का पालन करने से अपना जीवन सुखमय होता है । किन्तु कभी कभी अपना सुख अन्यों के सुख का विरोधी बन सकता है । इसे ध्यान में रखकर जब स्वभाव के अनुसार ही लेकिन अधिक अच्छे तरीके से व्यवहार होता है तो संस्कृति का उदय होता है । संस्कृति का अर्थ है सम्यक कृति । सम्यक का अर्थ है अपने स्वभाव के अनुसार ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिए की हुई कृति । |
| + | # समाज में चिरकाल से सुर और असुर वृत्तियों का विभाजन रहा है । सुर उन्हें कहते हैं जिनके सभी प्रकार के परस्पर संबंधों का आधार आत्मीयता होता है । प्रेम, सहानुभूति, श्रद्धा आदि होता है । असुर प्रवृत्ति उसे कहते हैं जिनके परस्पर संबंधों का आधार स्वार्थ होता है । इसका अधिक विस्तार से वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १६ में किया गया है । आत्मीयता के परस्पर संबंधों को ही व्यवहार की भाषा में ‘कुटुंब भावना’ कहते हैं । |
| + | # मनुष्य एक बुद्धिशील जीव है । जीवन की अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए तथा सुख को निरंतर बनाए रखने के लिए समाज अपने लिए कुछ संगठन निर्माण करता है । इन संगठनों और व्यवस्थाओं की श्रेष्ठता के कारण भारतीय समाज चिरंजीवी बना है । श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए समाज अपने को संगठित करता है । संगठन का अर्थ है समाज के प्रत्येक घटक की शक्तियां, मर्यादाएं, स्वभाव आदि को ध्यानमें रखकर समाज में कुछ रचना निर्माण करना । संगठन बनाने के साथ ही अपनी रक्षण, पोषण और शिक्षण की कुछ व्यवस्थाएं भी बनाता है । |
| + | # हर बच्चा जन्म लेते समय अपने विकास की सम्भावनाओं के साथ ही जन्म लेता है । इन सम्भावनाओं के उच्चतम स्तरतक विकास होने से वह बच्चा (मनुष्य) लाभान्वित होता है और साथ ही में समाज को भी लाभ होता है । इसलिए प्रत्येक बालक के विकास की जिम्मेदारी समाज की है । इस विकास के साथ ही समाज की व्यवस्थाओं और संगठनों को ठीक से चलाने के लिए भी प्रत्येक बालक को श्रेष्ठ शिक्षण, संस्कार और प्रशिक्षण मिलना आवश्यक है । समाज के लिए हितकारी स्वतंत्रता, सदाचार, सादगी, स्वावलंबन, सत्यनिष्ठा, सहजता, स्वदेशी आदि गुणों का विकास सामाजिक हित की ही बातें हैं । |
| सामाजिक स्तरपर लक्ष्य | | सामाजिक स्तरपर लक्ष्य |
| जिस प्रकार व्यक्ति के स्तरपर मानव का लक्ष्य मोक्ष होता है। मुक्ति होता है। उसी प्रकार मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य भी मोक्ष ही होगा। मुक्ति ही होगा। इस सामाजिक लक्ष्य का व्यावहारिक स्वरूप ‘स्वतंत्रता’ है। स्वतंत्रता का अर्थ है अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने की सामर्थ्य। सामर्थ्य प्राप्ति के लिये परिश्रम करने की सामान्यत: लोगों की तैयारी नहीं होती। लेकिन ऐसे किसी प्रयास के बगैर ही यदि जादू से वे समर्थ बन जाएँ तो प्रत्येक को ‘अनिर्बाध स्वतंत्रता’ की चाहत होती है। स्वैराचार और स्वतंत्रता में अंतर होता है। स्वैराचार की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन समाज में जहाँ अन्यों के सुख के साथ संघर्ष खडा होता है तब स्वतंत्रता की सीमा आ जाती है। धर्म ही स्वैराचार को सीमामें बाँधकर उसे स्वतंत्रता बना देता है। | | जिस प्रकार व्यक्ति के स्तरपर मानव का लक्ष्य मोक्ष होता है। मुक्ति होता है। उसी प्रकार मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य भी मोक्ष ही होगा। मुक्ति ही होगा। इस सामाजिक लक्ष्य का व्यावहारिक स्वरूप ‘स्वतंत्रता’ है। स्वतंत्रता का अर्थ है अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने की सामर्थ्य। सामर्थ्य प्राप्ति के लिये परिश्रम करने की सामान्यत: लोगों की तैयारी नहीं होती। लेकिन ऐसे किसी प्रयास के बगैर ही यदि जादू से वे समर्थ बन जाएँ तो प्रत्येक को ‘अनिर्बाध स्वतंत्रता’ की चाहत होती है। स्वैराचार और स्वतंत्रता में अंतर होता है। स्वैराचार की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन समाज में जहाँ अन्यों के सुख के साथ संघर्ष खडा होता है तब स्वतंत्रता की सीमा आ जाती है। धर्म ही स्वैराचार को सीमामें बाँधकर उसे स्वतंत्रता बना देता है। |