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प्रवृत्ति (संस्कृत: प्रवृत्ति:) बाहरी क्रिया है और निवृत्ति (संस्कृत: निवृत्ति:) आंतरिक चिंतन है। ये दोनों जब धर्म (धर्म:) द्वारा शासित होते हैं, तो दुनिया में स्थिरता लाते हैं।[1]
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प्रवृत्ति बाहरी क्रिया है और निवृत्ति आंतरिक चिंतन है। ये दोनों जब धर्म द्वारा शासित होते हैं, तो दुनिया में स्थिरता लाते हैं।<ref name=":0">Swami, Ranganathananda, Universal Message of Bhagavad Gita: An exposition of the Gita in the Light of Modern Thought and Modern Needs. Volume 1.</ref>
    
== परिचय॥ Introduction==
 
== परिचय॥ Introduction==
भागवत पुराण (स्कंध 7, अध्याय 15) के अनुसार, वेदों में वर्णित कर्म दो प्रकार के होते हैं -  
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भागवत पुराण के अनुसार, वेदों में वर्णित कर्म दो प्रकार के होते हैं -  
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#प्रवृत्त - सांसारिक जीवन का आनंद लेने वाला
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#'''प्रवृत्त -''' सांसारिक जीवन का आनंद लेने वाला
#निवृत्त - आध्यात्मिक जीवन की ओर ले जाने वाला
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#'''निवृत्त -''' आध्यात्मिक जीवन की ओर ले जाने वाला
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ऐसा कहा जाता है कि प्रवृत्त कर्म करने से व्यक्ति संसार में दोबारा जन्म लेता है, जबकि निवृत्त कर्म करने से उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।[2]<blockquote>प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम्। आवर्तते प्रवृत्तेन निवृत्तेनाश्नुतेऽमृतम् ||४७||[3]</blockquote>
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ऐसा कहा जाता है कि प्रवृत्त कर्म करने से व्यक्ति संसार में दोबारा जन्म लेता है, जबकि निवृत्त कर्म करने से उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।<ref>Ganesh Vasudeo Tagare, The Bhagavata Purana (Part III), Ancient Indian Tradition & Mythology (Volume 9), Edited by J.L.Shastri, New Delhi: Motilal Banarsidass, P.no.[https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.150116/page/n115/mode/2up 985-996].</ref><blockquote>प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम्। आवर्तते प्रवृत्तेन निवृत्तेनाश्नुतेऽमृतम्॥47॥<ref>Bhagavata Purana, Skandha 7, [https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%83_%E0%A5%AD/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%AB Adhyaya 15].</ref></blockquote>
    
==विषय वस्तु॥ Subject Matter==
 
==विषय वस्तु॥ Subject Matter==
आदि शंकराचार्य ने भगवद गीता पर अपनी टिप्पणी के परिचय की शुरुआत में उल्लेख किया है - <blockquote>द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः, प्रवृत्तिलक्षणो निवृत्तिलक्षणश्च, जगतः स्तिथिकारणम् । प्राणिनां साक्षादभ्युदयनिःश्रेयसहेतुर्य...[4]</blockquote>अर्थ - वेदों में बताए गए धर्म की प्रकृति दो गुना है, प्रवृत्ति जो बाहरी क्रिया है और निवृत्ति जो आंतरिक चिंतन है। धर्म दुनिया में स्थिरता लाता है, जिसका उद्देश्य अभ्युदय यानी सामाजिक-आर्थिक कल्याण और नि:श्रेयसम् यानी सभी प्राणियों की आध्यात्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करना है।
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आदि शंकराचार्य ने भगवद गीता पर अपनी टिप्पणी के परिचय की शुरुआत में उल्लेख किया है - <blockquote>द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः, प्रवृत्तिलक्षणो निवृत्तिलक्षणश्च, जगतः स्तिथिकारणम्। प्राणिनां साक्षादभ्युदयनिःश्रेयसहेतुर्य...।<ref>The Bhagavad-Gita Bhashya ([https://archive.org/details/BhagavadGitaBhashyaAdiSankara2/Bhagavad%20Gita%20Bhashya%20Adi%20Sankara%201/ Volume 1]), The Works of Sri Sankaracharya (Vol. 11), Srirangam: Sri Vani Vilas Press.</ref></blockquote>अर्थ - वेदों में बताए गए धर्म की प्रकृति दो गुना है, प्रवृत्ति जो बाहरी क्रिया है और निवृत्ति जो आंतरिक चिंतन है। धर्म दुनिया में स्थिरता लाता है, जिसका उद्देश्य अभ्युदय यानी सामाजिक-आर्थिक कल्याण और नि:श्रेयसम् यानी सभी प्राणियों की आध्यात्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करना है।
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मानव कल्याण के लिए कर्म और ध्यान दोनों की आवश्यकता है। यदि इनमें से कोई एक ही हो, तो न तो व्यक्तिगत स्वास्थ्य होगा और न ही सामाजिक। प्रवृत्ति के माध्यम से व्यक्ति आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में सुधार करके कल्याणकारी समाज की स्थापना करता है। निवृत्ति के माध्यम से व्यक्ति मूल्य-उन्मुख जीवन प्राप्त करता है जो मानवता के आंतरिक आध्यात्मिक आयाम से आता है।[1]
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मानव कल्याण के लिए कर्म और ध्यान दोनों की आवश्यकता है। यदि इनमें से कोई एक ही हो, तो न तो व्यक्तिगत स्वास्थ्य होगा और न ही सामाजिक। प्रवृत्ति के माध्यम से व्यक्ति आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में सुधार करके कल्याणकारी समाज की स्थापना करता है। निवृत्ति के माध्यम से व्यक्ति मूल्य-उन्मुख जीवन प्राप्त करता है जो मानवता के आंतरिक आध्यात्मिक आयाम से आता है।<ref name=":0" />
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आधुनिक सभ्यता में तनाव इसलिए है क्योंकि यहाँ केवल प्रवृत्ति पर जोर दिया जाता है, निवृत्ति पर नहीं। जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने कहा - <blockquote>जब मनुष्य सुरक्षा और कल्याण प्राप्त कर लेता है, अब जब उसने अन्य सभी समस्याओं का समाधान कर लिया है, तो वह स्वयं के लिए एक समस्या बन जाता है।[5]</blockquote>जब धन, शक्ति और सुख की अंतहीन खोज होती है, तो इसका परिणाम व्यापक मूल्य क्षरण और बढ़ती हिंसा होती है। यह सब निवृत्ति के अभाव के कारण होता है।
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इसलिए, शंकराचार्य प्राणिनां साक्षात्-अभ्युदय-निःश्रेयस- हेतु पर जोर देते हैं, जो जीवन का एक ऐसा दर्शन है जो कर्म और ध्यान के माध्यम से सामाजिक कल्याण और आध्यात्मिक स्वतंत्रता को एकीकृत करता है। आदि शंकराचार्य कहते हैं कि यह वैदिक दर्शन अपनी प्रवृत्ति और निवृत्ति की दोहरी विचारधारा के साथ एक तरफ पुरुषों और महिलाओं के अभ्युदय और दूसरी तरफ निःश्रेयस की बात करता है।[1]
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के.एस. नारायणाचार्य ने प्रवृत्ति को जीवन की निरंतरता में "आगे बढ़ने का मार्ग" बताया है, जो संतान, आय, सामाजिक और राजनीतिक कल्याण और सभी प्रकार के सांसारिक मामलों से जुड़ा है। जबकि निवृत्ति को "देवत्व की ओर वापसी का मार्ग" के रूप में समझाया गया है, अर्थात सभी सामाजिक और राजनीतिक दायित्वों का त्याग।[6]
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आधुनिक सभ्यता में तनाव इसलिए है क्योंकि यहाँ केवल प्रवृत्ति पर जोर दिया जाता है, निवृत्ति पर नहीं। जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने कहा - <blockquote>जब मनुष्य सुरक्षा और कल्याण प्राप्त कर लेता है, अब जब उसने अन्य सभी समस्याओं का समाधान कर लिया है, तो वह स्वयं के लिए एक समस्या बन जाता है।<ref>Schopenhauer, The World as Will and Idea</ref></blockquote>जब धन, शक्ति और सुख की अंतहीन खोज होती है, तो इसका परिणाम व्यापक मूल्य क्षरण और बढ़ती हिंसा होती है। यह सब निवृत्ति के अभाव के कारण होता है।
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इसलिए, शंकराचार्य प्राणिनां साक्षात्-अभ्युदय-निःश्रेयस- हेतु पर जोर देते हैं, जो जीवन का एक ऐसा दर्शन है जो कर्म और ध्यान के माध्यम से सामाजिक कल्याण और आध्यात्मिक स्वतंत्रता को एकीकृत करता है। आदि शंकराचार्य कहते हैं कि यह वैदिक दर्शन अपनी प्रवृत्ति और निवृत्ति की दोहरी विचारधारा के साथ एक तरफ पुरुषों और महिलाओं के अभ्युदय और दूसरी तरफ निःश्रेयस की बात करता है।<ref name=":0" />
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के.एस. नारायणाचार्य ने प्रवृत्ति को जीवन की निरंतरता में "आगे बढ़ने का मार्ग" बताया है, जो संतान, आय, सामाजिक और राजनीतिक कल्याण और सभी प्रकार के सांसारिक मामलों से जुड़ा है। जबकि निवृत्ति को "देवत्व की ओर वापसी का मार्ग" के रूप में समझाया गया है, अर्थात सभी सामाजिक और राजनीतिक दायित्वों का त्याग।<ref>Insights Into the Taittiriya Upanishad, Dr. K. S. Narayanacharya, Published by Kautilya Institute of National Studies, Mysore, Page 75 (Glossary)</ref>
    
==प्रवृत्त कर्म ॥ Pravrtta Karmas==
 
==प्रवृत्त कर्म ॥ Pravrtta Karmas==
भागवत पुराण (स्कंध 7, अध्याय 15) प्रवृत्त कर्मों को इस प्रकार सूचीबद्ध करता है - <blockquote>हिंस्रं द्रव्यमयं काम्यमग्निहोत्राद्यशान्तिदम् । दर्शश्च पूर्णमासश्च चातुर्मास्यं पशुः सुतः ॥४८॥
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भागवत पुराण प्रवृत्त कर्मों को इस प्रकार सूचीबद्ध करता है - <blockquote>हिंस्रं द्रव्यमयं काम्यमग्निहोत्राद्यशान्तिदम् । दर्शश्च पूर्णमासश्च चातुर्मास्यं पशुः सुतः ॥४८॥
    
एतदिष्टं प्रवृत्ताख्यं हुतं प्रहुतमेव च । पूर्तं सुरालयाराम कूपा जीव्यादिलक्षणम् ॥४९॥[3]</blockquote>अर्थ - अग्निहोत्र (दैनिक घरेलू अग्नि पूजा), दर्श (अमावस्या के दिन किया जाने वाला यज्ञ), पूर्णमास (पूर्णिमा के दिन किया जाने वाला यज्ञ), चातुर्मास्य (वर्ष के चतुर्थांश के आरंभ में किया जाने वाला यज्ञ), पशु-यज्ञ, सोम-यज्ञ आदि जैसे अनुष्ठानों में हिंसा और भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए मूल्यवान वस्तुओं, विशेष रूप से खाद्यान्न की बलि दी जाती है, इसलिए इन्हें काम्य कहा जाता है, लेकिन ये चिंता उत्पन्न करते हैं।
 
एतदिष्टं प्रवृत्ताख्यं हुतं प्रहुतमेव च । पूर्तं सुरालयाराम कूपा जीव्यादिलक्षणम् ॥४९॥[3]</blockquote>अर्थ - अग्निहोत्र (दैनिक घरेलू अग्नि पूजा), दर्श (अमावस्या के दिन किया जाने वाला यज्ञ), पूर्णमास (पूर्णिमा के दिन किया जाने वाला यज्ञ), चातुर्मास्य (वर्ष के चतुर्थांश के आरंभ में किया जाने वाला यज्ञ), पशु-यज्ञ, सोम-यज्ञ आदि जैसे अनुष्ठानों में हिंसा और भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए मूल्यवान वस्तुओं, विशेष रूप से खाद्यान्न की बलि दी जाती है, इसलिए इन्हें काम्य कहा जाता है, लेकिन ये चिंता उत्पन्न करते हैं।
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