Changes

Jump to navigation Jump to search
सुधार जारी
Line 29: Line 29:  
इस उपनिषद् के छह अध्यायों में दो-दो अध्यायों के तीन काण्ड हैं, जिनको क्रमशः मधुकाण्ड, याज्ञवल्क्यकाण्ड और खिलकाण्ड कहा जाता है -<ref>आचार्य बलदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/1.SanskritVangmayaKaBrihatItihasVedas/page/%E0%A5%AB%E0%A5%A6%E0%A5%A7/mode/2up?view=theater संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास - वेदखण्ड], सन् १९९९, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ (पृ० ५०२)।</ref>  
 
इस उपनिषद् के छह अध्यायों में दो-दो अध्यायों के तीन काण्ड हैं, जिनको क्रमशः मधुकाण्ड, याज्ञवल्क्यकाण्ड और खिलकाण्ड कहा जाता है -<ref>आचार्य बलदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/1.SanskritVangmayaKaBrihatItihasVedas/page/%E0%A5%AB%E0%A5%A6%E0%A5%A7/mode/2up?view=theater संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास - वेदखण्ड], सन् १९९९, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ (पृ० ५०२)।</ref>  
   −
#मधुकाण्ड
+
#'''मधुकाण्ड -''' प्रथम एवं द्वितीय अध्याय
#याज्ञवल्क्य काण्ड
+
#'''याज्ञवल्क्य काण्ड -''' तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय
#खिलकाण्ड
+
#'''खिलकाण्ड -''' पंचम एवं षष्ठ अध्याय
 +
 
 +
* '''द द द -''' देवता मनुष्य और असुर तीनों पिता प्रजापति के पास पहुँचे कि हमें कुछ ज्ञानोपदेश दें। प्रजापति ने तीन बाद द द द कहा। देवों ने इसका अर्थ लिया 'दाम्यत' दम अर्थात् इन्द्रिय-संयम करो। मनुष्यों ने अर्थ लिया 'दत्त' दान करो। असुरों ने अर्थ लिया 'दयध्वम्' दया करो, दया का भाव हृदय में लावो। इस प्रकार तीनों ने क्रमशः दम, दान और दया की शिक्षा प्राप्त की। (बृ० ५,२, १ से ३)
 +
* '''आत्मा द्रष्टव्य -''' याज्ञवल्क्य ऋषि ने मैत्रेयी को उपदेश दिया कि आत्मा का ही दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान करना चाहिए। आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान से संसार की सभी वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो.....आत्मनि दृष्टे श्रुते मते विज्ञाते इदं सर्वं विदितम्। (४, ५, ६)
 +
* '''याज्ञवल्क्य - मैत्रेयी संवाद -'''  सम्पत्ति-विभाजन के समय मैत्रेयी ने कहा - मुझे भौतिक संपत्ति नहीं चाहिए। सारी संपत्ति भी मिल जाए तो मैं अमर नहीं हो सकूँगी। धन से अमरत्व नहीं मिलेगा, अतः मुझे ब्रह्मज्ञान दीजिए। अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन। (४,५,३)
 +
* '''आत्मा के लिए सभी कार्य -''' पति-प्रेम, स्त्री-प्रेम, धन-प्रेम, पुत्र-प्रेम आदि सारे प्रेम आत्मा की (अपनी) प्रसन्नता के लिए किए जाते हैं, वस्तु के लिए नहीं। अतः मूल तत्त्व आत्मा को जानना चाहिए। आत्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति०। (४,५,६)
 +
* '''मूल तत्त्व को पकडो -''' शब्द को नहीं पकड सकते हैं, परन्तु दुन्दुभि को पकडने से शब्द पकड में आ जाएगा। इसीलिए मूल कारण आत्मा को पकडो। उसको पकडने से सब कुछ पकड में आ जायेगा। दुन्दुभेर्ग्रहणेन......शब्दो गृहीतः। (४, ५, ८)
 +
* '''असतो मा सद् गमयः -''' इस उपनिषद् के सर्वोत्तम उपदेशों में से यह एक है। हे परमात्मन्! हमें असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से बचाकर अमरत्व की ओर ले चलो, अर्थात् हम असत्य से सत्य की ओर, अधंकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरत्व की ओर चलें। (१, ३, २८) असतो मा सद् गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा मृतं गमय।
 +
* '''ब्रह्म एक है, मन से ही दृश्य -''' ब्रह्म एक है। अनेक मानना अज्ञान है। वह मन से ही देखा जा सकता है। मनसैवानुद्रष्टव्यं नेह नानास्ति किंचन। (४, ४, १९)
 +
* '''कर्मफल अवश्यंभावी -''' पुण्य और पाप का फल अवश्य मिलता है। पुण्य से पुण्य और पाप से पाप मिलता है। जैसा करेंगे, वैसा फल मिलेगा। यथाकारी यथाचारी तथा भवति। पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति। पापः पापेन। (४,४, ५)
 +
* '''मन वाणी और प्राण -''' मन वाणी और प्राण ये तीन ही सार हैं। प्राण जीवन है। वाणी भावप्रकाशन का एकमात्र साधन है और मन जीवन का नियन्ता है। आत्मनि पुरुषः, एतमेवाहं ब्रह्मोपासे। (२,१,१३)
 +
* '''आत्मा में ब्रह्म का निवास -''' जीवात्मा में परमात्मा (ब्रह्म) का निवास है। उसी ब्रह्म
    
==सारांश==
 
==सारांश==
911

edits

Navigation menu