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| स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ | | स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ |
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− | ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ (मुण्डक उपनिषद्)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D मुण्डक उपनिषद्] </ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' गुरुके यहाँ अध्ययन करनेवाले शिष्य अपने गुरु, सहपाठी तथा मानवमात्रका कल्याण-चिन्तन करते हुए देवताओंसे प्रार्थना करते हैं कि 'हे देवगण! हम अपने कानोंसे शुभ-कल्याणकारी वचन ही सुने। निन्दा, चुगली, गाली या दूसरी-दूसरी पापकी बातें हमारे कानों में न पडें और हमारा अपना जीवन यजन-परायण हो- हम सदा भगवान् की आराधनामें ही लगे रहें। न केवल कानोंसे सुनें, नेत्रोंसे भी हम सदा कल्याणका ही दर्शन करें॥<ref>हनुमानप्रसाद पोद्दार, [https://archive.org/details/HindiBookKalyanUpanishadAnkByGitaPress/Hindi%20Book-%20-%20Kalyan%20Upanishad%20Ank%20%20by%20Gita%20Press/mode/1up कल्याण उपनिषद् विशेषांक - मुण्डकोपनिषद्], गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० २५४)। </ref> | + | ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ (मुण्डक उपनिषद्)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D मुण्डक उपनिषद्] </ref></blockquote>'''भाषार्थ -''' वेद की संहिताओं में बहुत से ऐसे मन्त्र हैं जिनसे एक से अधिक देवताओं की स्तुतियाँ की गयीं हैं। वेद के अध्ययन में अपनी शाखा के मन्त्र अथवा ब्राह्मण भाग के अध्ययन को श्रेष्ठ माना गया है। इस दृष्टि से शान्ति पाठ के रूप में यह मन्त्र भाग भी स्वशाखा अर्थात् ये दोनों मन्त्र अथर्ववेद की शौनक शाखा की संहिता में भी देखे जा सकते हैं। |
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| + | प्रथम मन्त्र में प्रार्थना की गयी है कि - गुरुके यहाँ अध्ययन करनेवाले शिष्य अपने गुरु, सहपाठी तथा मानवमात्रका कल्याण-चिन्तन करते हुए देवताओंसे प्रार्थना करते हैं कि 'हे देवगण! हम अपने कानोंसे शुभ-कल्याणकारी वचन ही सुने। निन्दा, चुगली, गाली या दूसरी-दूसरी पापकी बातें हमारे कानों में न पडें और हमारा अपना जीवन यजन-परायण हो- हम सदा भगवान् की आराधनामें ही लगे रहें। न केवल कानोंसे सुनें, नेत्रोंसे भी हम सदा कल्याणका ही दर्शन करें॥<ref>हनुमानप्रसाद पोद्दार, [https://archive.org/details/HindiBookKalyanUpanishadAnkByGitaPress/Hindi%20Book-%20-%20Kalyan%20Upanishad%20Ank%20%20by%20Gita%20Press/mode/1up कल्याण उपनिषद् विशेषांक - मुण्डकोपनिषद्], गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० २५४)। </ref> |
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| + | द्वितीय मन्त्र में यह प्रार्थना की गयी है कि - यशस्वी इन्द्र हमारा कल्याण करें, सभी प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त पूषन् हमारा कल्याण करें। जिनके चक्र परिधि को कोई हिंसित नहीं कर सकता, ऐसे तार्क्ष्य, हमारा कल्याण करें। बृहस्पति हमारा कल्याण करें। |
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| + | == मुण्डक उपनिषद् के उपदेष्टा == |
| + | इस उपनिषद् में ही आचार्य परम्परा का उल्लेख है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी जो देवताओं में सर्वप्रथम उत्पन्न हैं, सब लोगों की रक्षा करने वाले हैं, उन्होंने यह विद्या अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को प्रदान किया। अथर्वा से क्रमशः अंगी ऋषि ने भारद्वाज सत्यवह और फिर भरद्वाज गोत्रीय सत्यवह ने यह विद्या अंगिरा को प्रदान की। अंगिरा से यह विद्या पर से अवर को प्राप्त हुई। <blockquote>अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माथर्वा तां पुरोवाचांगिरे ब्रह्मविद्याम्। स भारद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भारद्वाजो गिरसे परावराम्॥ (१,१,२)</blockquote>उपर्युक्त मन्त्र में इस विद्या को प्राप्त करने की परम्परा का उल्लेख है। |
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| + | ऋषि अंगिरस ने शौनक नामक परमाचार्य को इस विद्या का अधिकारी समझकर, उनके शिष्य रूप में प्रश्न करने पर इस उपनिषद् का उपदेश किया है। उनका प्रश्न था - <blockquote>कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति। (१,३,३)</blockquote>भगवन् नु का तात्पर्य 'निश्चयपूर्वक' किसके जान लिए जाने पर यह सब कुछ ज्ञात हो जाता है? व्यवस्थित और सुझारू रूप से इस प्रश्न के उत्तर के रूप में इस विद्या का यहाँ उपदेश किया गया है। इसमें मुख्यतः ब्रह्म के स्वरूप और उसकी प्राप्ति के साधनों का उल्लेख भी है। |
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| + | == प्रथम मुण्डक का विवेच्य विषय == |
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| ==वर्ण्यविषय== | | ==वर्ण्यविषय== |