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| वेदांग ज्योतिष काल में नक्षत्रों का आरम्भ धनिष्ठा नक्षत्र से माना जाता था। क्योंकि उस समय मकर संक्रान्ति (उत्तरायन) प्रारम्भ धनिष्ठा नक्षत्र से होता था। महाभारत काल में भीष्म पितामह इसी उत्तरायन की प्रतीक्षा में शर-शैया पर पडे रहे थे। उत्तरायन आरम्भ होने पर ही उन्होंने अपने प्राण त्यागे थे।<ref name=":1" /> | | वेदांग ज्योतिष काल में नक्षत्रों का आरम्भ धनिष्ठा नक्षत्र से माना जाता था। क्योंकि उस समय मकर संक्रान्ति (उत्तरायन) प्रारम्भ धनिष्ठा नक्षत्र से होता था। महाभारत काल में भीष्म पितामह इसी उत्तरायन की प्रतीक्षा में शर-शैया पर पडे रहे थे। उत्तरायन आरम्भ होने पर ही उन्होंने अपने प्राण त्यागे थे।<ref name=":1" /> |
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| + | पाश्चात्य ज्योतिष अर्थात जो उष्णकटिबंधीय प्रणाली (सायन पद्धति) पर आधारित है , उसमें दो विषुव बिंदुओं में से एक, जो आकाशीय भूमध्य रेखा और क्रांतिवृत्त के प्रतिच्छेदन बिंदु हैं, उनको प्रारंभिक संदर्भ बिंदु या 0º के रूप में लिया जाता है। मेष राशि का आकाश में तारों के संदर्भ में विषुव बिंदुओं की कोई निश्चित स्थिति नहीं होती है। वे हमेशा लगभग 00º 00' 50.3” प्रति वर्ष की वार्षिक गति के साथ लगभग 26000 वर्षों में चक्र पूरा करते हुए पश्चिमी दिशा में पीछे की ओर बढ़ते हैं। इस घटना को विषुव की पूर्वता अर्थात अयनांश के रूप में जाना जाता है। परिणाम यह होता है कि इस गतिमान बिंदु के संदर्भ में मापे जाने पर अंतरिक्ष में राशियों के स्थान भी बदल जाते हैं और हमेशा स्थिर तारों के एक ही समूह से जुड़े नहीं रहते हैं। 26000 ÷ 12 = 2166 वर्ष और 8 महीनों की अवधि में प्रत्येक राशि चिन्ह एक पूरी तरह से अलग क्षेत्र में स्थानांतरित हो जाता है और अंतरिक्ष में तारों के एक पूरी तरह से अलग समूह से जुड़ जाता है, जिससे उससे आने वाली ऊर्जा के गुण और एक का अर्थ बदल जाता है। और उस राशि चक्र चिह्न से संबंधित वही ग्रह विन्यास। |
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| ==अयनांश ॥ PRECESSION OF EQUINOX== | | ==अयनांश ॥ PRECESSION OF EQUINOX== |
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| सम्पात बिन्दु 01 (चित्र मे हरा बिंदु) व 02 (चित्र मे लाल बिंदु) को वसंत और शरद सम्पात कहते है। ये सम्पात बिंदु प्रत्येक वर्ष पश्चिम की ओर पीछे हटते जाते है। इनकी गति वक्र है यही गति अयन चलन या विषुव क्रांति या वलयपात कहलाती है। इनका पीछे हटना ही अयन के अंश अर्थात अयनांश PRECESSION OF EQUINOX कहलाता है। सम्पात का एक चक्र लगभग 26000 वर्ष में पूर्ण होता है, अतः औसत अयन बिन्दुओ को एक अंश चलने में 72 वर्ष लगते है। इसकी मध्यम गति 50"15'" प्रति वर्ष है। | | सम्पात बिन्दु 01 (चित्र मे हरा बिंदु) व 02 (चित्र मे लाल बिंदु) को वसंत और शरद सम्पात कहते है। ये सम्पात बिंदु प्रत्येक वर्ष पश्चिम की ओर पीछे हटते जाते है। इनकी गति वक्र है यही गति अयन चलन या विषुव क्रांति या वलयपात कहलाती है। इनका पीछे हटना ही अयन के अंश अर्थात अयनांश PRECESSION OF EQUINOX कहलाता है। सम्पात का एक चक्र लगभग 26000 वर्ष में पूर्ण होता है, अतः औसत अयन बिन्दुओ को एक अंश चलने में 72 वर्ष लगते है। इसकी मध्यम गति 50"15'" प्रति वर्ष है। |
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| + | '''वर्तमान में प्रचलित अयनांश''' |
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| + | वैदिक ज्योतिष परंपरा और पुरानी संस्कृत पुस्तकों से जुड़ा हुआ लाहिड़ी का तारा चित्रा बिल्कुल उपयुक्त है क्योंकि यह "मेष राशि के प्रारंभ" से 180 डिग्री विपरीत है। चित्रा तारा ग्रह-कक्षा से थोड़ा हटकर हो सकता है, लेकिन अण्डाकार कक्षा के स्पर्शरेखीय माप पर ठीक है। वर्तमान में प्रचलित अयनांशों की सूची इस प्रकार है - |
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| + | चित्रपक्ष अयनांश , रमण अयानांश , श्री युकतेश्वर अयनांश, सत्य पुष्य अयनांश, कृष्ण मूर्ति अयनांश, आदि |
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| '''प्रथम नक्षत्र''' | | '''प्रथम नक्षत्र''' |
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− | नक्षत्रों के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य अलग-अलग नक्षत्रों को प्राप्त हुआ। जैसे - | + | नक्षत्रों के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य अलग-अलग नक्षत्रों को प्राप्त हुआ। जैसे - |
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− | सामान्यतया जिस नक्षत्र में बसन्त सम्पात होता है उसी नक्षत्र को प्रथम नक्षत्र मानकर नक्षत्रों की गणना की जाती है। कभी-कभी शरद सम्पात (Autumnal Equinox) से अथवा मकर संक्रांति (उत्तरायन प्रारंभ) से भी नक्षत्रों की गणना की जाती रही है। प्राचीन काल से अब तक संपात बिंदुओं (Equinoctical Points) की नक्षत्रीय स्थिति बदलती रही है। इसीलिए भिन्न-भिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य भिन्न-भिन्न नक्षत्रों को प्राप्त हुआ। | + | सामान्यतया जिस नक्षत्र में बसन्त सम्पात होता है उसी नक्षत्र को प्रथम नक्षत्र मानकर नक्षत्रों की गणना की जाती है। कभी-कभी शरद सम्पात (Autumnal Equinox) से अथवा मकर संक्रांति (उत्तरायन प्रारंभ) से भी नक्षत्रों की गणना की जाती रही है। प्राचीन काल से अब तक संपात बिंदुओं (Equinoctical Points) की नक्षत्रीय स्थिति बदलती रही है। इसीलिए भिन्न-भिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य भी भिन्न-भिन्न नक्षत्रों को प्राप्त हुआ। |
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| ==अयन चलन और नक्षत्र== | | ==अयन चलन और नक्षत्र== |
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| पृथ्वी की काल्पनिक धुरी लगभग २३ १/२ अंश झुकी हुई है। इस झुकाव के कारण सूर्यपथ या क्रान्तिपथ (Ecliptic) पृथ्वी के साथ २३ १/२ अंश का झुकाव बनाए रखता है। अर्थात् क्रान्तिपथ तिर्यक् (Oblique) है। क्रांतिवृत्त विषुवत् रेखा (Equator) को दो बिंदुओं पर काटता है। इनमें से एक बिंदु अश्विनी का प्रथम बिंदु तथा दूसरा इससे ठीक 180 अंश दूर चित्रा नक्षत्र का मध्य बिंदु है। अश्विनी के प्रथम बिंदु से ही भचक्र में कोणात्मक गणना की जाती है। | | पृथ्वी की काल्पनिक धुरी लगभग २३ १/२ अंश झुकी हुई है। इस झुकाव के कारण सूर्यपथ या क्रान्तिपथ (Ecliptic) पृथ्वी के साथ २३ १/२ अंश का झुकाव बनाए रखता है। अर्थात् क्रान्तिपथ तिर्यक् (Oblique) है। क्रांतिवृत्त विषुवत् रेखा (Equator) को दो बिंदुओं पर काटता है। इनमें से एक बिंदु अश्विनी का प्रथम बिंदु तथा दूसरा इससे ठीक 180 अंश दूर चित्रा नक्षत्र का मध्य बिंदु है। अश्विनी के प्रथम बिंदु से ही भचक्र में कोणात्मक गणना की जाती है। |
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− | आदर्श स्थिति के अनुसार अश्विनी के प्रथम बिन्दु से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में प्रवेश करता है। इस बिन्दु से ठीक १८० अंश दूर चित्रा के मध्य बिन्दु से सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में प्रवेश करता है। इन दोनों बिन्दुओं के मध्य ९०-९० अंशों की दूरी पर ऐसे दो बिन्दु हैं जहां से सूर्य क्रमशः दक्षिणायन व उत्तरायन होता है। | + | आदर्श स्थिति के अनुसार अश्विनी के प्रथम बिन्दु से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में प्रवेश करता है। इस बिन्दु से ठीक १८० अंश दूर चित्रा के मध्य बिन्दु से सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में प्रवेश करता है। इन दोनों बिन्दुओं के मध्य 90-90 अंशों की दूरी पर ऐसे दो बिन्दु हैं, जहां से सूर्य क्रमशः दक्षिणायन व उत्तरायन होता है। |
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− | अश्विनी के प्रथम बिन्दु (० अंश) से ९० अंश आगे पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण (वर्तमान में आर्द्रा के प्रथम चरण) में सूर्य के प्रवेश होते ही सूर्य दक्षिणायन होना प्रारम्भ कर देता है। | + | अश्विनी के प्रथम बिन्दु (० अंश) से 90 अंश आगे पुनर्वसु नक्षत्र के चतुर्थ चरण (वर्तमान में आर्द्रा के प्रथम चरण) में सूर्य के प्रवेश होते ही सूर्य दक्षिणायन होना प्रारम्भ कर देता है। |
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| इसी प्रकार चित्रा के मध्य बिन्दु (१८० अंश) से ९० अंश आगे या अश्विनी के प्रथम बिन्दु से २७० अंश आगे सूर्य के उत्तराषाढा नक्षत्र के द्वितीय चरण (वर्तमान में मूल नक्षत्र के द्वितीय चरण के अन्त में) उत्तरायन प्रारंभ कर देता है। | | इसी प्रकार चित्रा के मध्य बिन्दु (१८० अंश) से ९० अंश आगे या अश्विनी के प्रथम बिन्दु से २७० अंश आगे सूर्य के उत्तराषाढा नक्षत्र के द्वितीय चरण (वर्तमान में मूल नक्षत्र के द्वितीय चरण के अन्त में) उत्तरायन प्रारंभ कर देता है। |
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− | ==सम्पात एवं अयन== | + | ==सम्पात एवं अयन == |
| सूर्य का क्रान्तिवृत्त की कर्कादि छः राशियों में दक्षिण की ओर गमन दक्षिणायन है और सूर्य का मकरादि छः राशियों में उत्तर की ओर गमन उत्तरायण कहलात है। | | सूर्य का क्रान्तिवृत्त की कर्कादि छः राशियों में दक्षिण की ओर गमन दक्षिणायन है और सूर्य का मकरादि छः राशियों में उत्तर की ओर गमन उत्तरायण कहलात है। |
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| वसन्त सम्पात से 90॰ आगे चलकर जब सूर्य दक्षिणायन बिन्दु पर पहुँचता है तो दक्षिणायन प्रारम्भ होता है। यह प्रायः 21 जून को घटित होता है। इसी प्रकार दक्षिणायन बिन्दु से 90॰ आगे जाकर सूर्य शरत्सम्पात पर 23 सितंबर के लगभग पहुंचता है तो सर्दी की ऋतु आरंभ हो जाती है। उसके बाद में 90॰ आगे जाकर उत्तरायण बिन्दु पर पहुंचता है तो सूर्य उत्तराभिमुख होकर चलने लगता है, अतः वही समय 22 दिसंबर उत्तरायण का होता है। | | वसन्त सम्पात से 90॰ आगे चलकर जब सूर्य दक्षिणायन बिन्दु पर पहुँचता है तो दक्षिणायन प्रारम्भ होता है। यह प्रायः 21 जून को घटित होता है। इसी प्रकार दक्षिणायन बिन्दु से 90॰ आगे जाकर सूर्य शरत्सम्पात पर 23 सितंबर के लगभग पहुंचता है तो सर्दी की ऋतु आरंभ हो जाती है। उसके बाद में 90॰ आगे जाकर उत्तरायण बिन्दु पर पहुंचता है तो सूर्य उत्तराभिमुख होकर चलने लगता है, अतः वही समय 22 दिसंबर उत्तरायण का होता है। |
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− | उसके बाद पुनः 90॰ आगे चलकर पुनः वसंत ऋतु के प्रारंभ बिंदु वसंत संपात पर पहुंचता है। यह सम्पूर्ण क्रांतिवृत्त की परिक्रमा 90॰ x 4 = 360॰ अंशों या 12 राशियों की होती है। अतः ये चारों घटनायें प्रतिवर्ष होती हैं अर्थात - वसंत संपात, उत्तरायण का अंत, शरद संपात और दक्षिणायन का अंत । <blockquote>मकरादिस्थेषड्भस्थे सूर्ये सौम्यायनं स्मृतम्। कर्कादिराशिषटके च याम्यायनमुदाहृतम् ॥</blockquote>मकरादि ६ राशियों में सूर्य के रहने पर सौम्यायन और कर्कादि ६ राशियों में याम्यायन कहलाता है। | + | उसके बाद पुनः 90॰ आगे चलकर पुनः वसंत ऋतु के प्रारंभ बिंदु वसंत संपात पर पहुंचता है। यह सम्पूर्ण क्रांतिवृत्त की परिक्रमा 90॰ x 4 = 360॰ अंशों या 12 राशियों की होती है। अतः ये चारों घटनायें प्रतिवर्ष होती हैं, अर्थात - वसंत संपात, उत्तरायण का अंत, शरद संपात और दक्षिणायन का अंत। <blockquote>मकरादिस्थेषड्भस्थे सूर्ये सौम्यायनं स्मृतम्। कर्कादिराशिषट्के च याम्यायनमुदाहृतम्॥</blockquote>मकरादि 6 राशियों में सूर्य के रहने पर सौम्यायन और कर्कादि 6 राशियों में याम्यायन कहलाता है। |
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| वसन्त सम्पात व शरत्सम्पात वे बिन्दु हैं जो राशिवृत्त व विषुवद्वृत्त की काट पर स्थित हैं। ये दो हैं। अतः सूर्य वर्ष में दो बार २१ मार्च व २३ सितम्बर को विषुवद्वृत्त पर पहुँचता है। ये दो दिन विषुव दिन या गोल दिन व इस दिन होने वाली सायन मेष व तुला संक्रान्ति गोल या विषुवसंक्रान्ति कहलाती है। | | वसन्त सम्पात व शरत्सम्पात वे बिन्दु हैं जो राशिवृत्त व विषुवद्वृत्त की काट पर स्थित हैं। ये दो हैं। अतः सूर्य वर्ष में दो बार २१ मार्च व २३ सितम्बर को विषुवद्वृत्त पर पहुँचता है। ये दो दिन विषुव दिन या गोल दिन व इस दिन होने वाली सायन मेष व तुला संक्रान्ति गोल या विषुवसंक्रान्ति कहलाती है। |
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| स्पष्ट है कि सायन मेष से सायन तुला प्रवेश तक उत्तर गोल व सायन तुला से सायन मेषारम्भ पूर्व तक दक्षिण गोल होता है। इनकी तिथियां इस प्रकार हैं - | | स्पष्ट है कि सायन मेष से सायन तुला प्रवेश तक उत्तर गोल व सायन तुला से सायन मेषारम्भ पूर्व तक दक्षिण गोल होता है। इनकी तिथियां इस प्रकार हैं - |
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− | * वसन्त सम्पात (Spring Equinox) या सायन मेष - 21 मार्च या उत्तर गोलारम्भ। | + | *वसन्त सम्पात (Spring Equinox) या सायन मेष - 21 मार्च या उत्तर गोलारम्भ। |
| *सायन मेष + 90॰ = दक्षिणायन (सायन कर्क अर्थात् 21 जून) | | *सायन मेष + 90॰ = दक्षिणायन (सायन कर्क अर्थात् 21 जून) |
− | * सायन कर्क + 90॰ = शरत्सम्पात (Autumnal Equinox) या सायन तुला या दक्षिण गोलारम्भ या 23 सितम्बर। | + | *सायन कर्क + 90॰ = शरत्सम्पात (Autumnal Equinox) या सायन तुला या दक्षिण गोलारम्भ या 23 सितम्बर। |
| *सायन तुला + 90॰ = उत्तरायणारम्भ या सायन मकर या 22 दिसम्बर। | | *सायन तुला + 90॰ = उत्तरायणारम्भ या सायन मकर या 22 दिसम्बर। |
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| क्रांतिवृत्त के प्रथमांश का विभाजन उत्तर व दक्षिण गोल के मध्यवर्ती ध्रुवों के द्वारा माना गया है। यही विभाजन उत्तरायण और दक्षिणायन कहलाता है। इन अयनों का ज्योतिष संसार में प्रमुख स्थान है। | | क्रांतिवृत्त के प्रथमांश का विभाजन उत्तर व दक्षिण गोल के मध्यवर्ती ध्रुवों के द्वारा माना गया है। यही विभाजन उत्तरायण और दक्षिणायन कहलाता है। इन अयनों का ज्योतिष संसार में प्रमुख स्थान है। |
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− | ==सम्पातों का नक्षत्र परिवर्तन== | + | == सम्पातों का नक्षत्र परिवर्तन== |
| पृथ्वी की धुरी का झुकाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इस झुकाव में प्रतिवर्ष .468 विकला की कमी होती जा रही है। सन् 1918 में धुरी का झुकाव 23 अंश 27 कला तथा 1947 में 23 अंश 26 कला 46 विकला था। वर्तमान में यह झुकाव 23 अंश 26 कला 13 विकला (1 जनवरी 1997) है। | | पृथ्वी की धुरी का झुकाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इस झुकाव में प्रतिवर्ष .468 विकला की कमी होती जा रही है। सन् 1918 में धुरी का झुकाव 23 अंश 27 कला तथा 1947 में 23 अंश 26 कला 46 विकला था। वर्तमान में यह झुकाव 23 अंश 26 कला 13 विकला (1 जनवरी 1997) है। |
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| इस प्रकार का लगध का कथन वेदांगज्योतिष में प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में आचार्य लगध <nowiki>''</nowiki>इदानीमयने आह<nowiki>''</nowiki> प्रकार से कह रहे हैं - <blockquote>प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणाऽर्कस्य माघश्रावणयोः सदा॥ (वे०ज्यो०श्लो०सं०७)<ref name=":0" /></blockquote>अर्थ - श्रविष्ठा अर्थात् धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य, चन्द्र उत्तर की ओर संचालित होने लगते हैं, और आश्लेषा नक्षत्र के आधे भाग पर दक्षिण की ओर संचालित होने लगते हैं। सूर्य सर्वदा माघ मास और श्रावण मास में क्रमशः उत्तर और दक्षिण की ओर गमन में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार अयनों के आरम्भ स्थान का कथन देने के उपरान्त आचार्य लगध <nowiki>''</nowiki>इदानीमयनयोर्दिनरात्रिमाने आह<nowiki>''</nowiki> इत्यादि प्रकार से उत्तर एवं दक्षिण अयन के आरम्भ का दिनरात्रिमान कह रहे हैं - <blockquote>घर्मवृद्धिरपां प्रस्थः क्षपाह्रास उदग्गतौ। दक्षिणेतौ विपर्यासः षण्मुहूर्त्त्ययनेन तु॥ (वे० ज्यो० श्लो० सं० ८)<ref name=":0" /> </blockquote>'''अर्थ -''' सूर्य के उदगयन में एक पानीयप्रस्थ (12.5 पल) के तुल्य दिनमान में वृद्धि होती है, और रात्रिमान में ह्रास होता है। दक्षिणायन में इसके विपरीत होता है। अयनों के द्वारा एक अयन वर्ष में दिनरात्रिमान में क्रमशः ६ मुहूर्त वृद्धि होती है। | | इस प्रकार का लगध का कथन वेदांगज्योतिष में प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में आचार्य लगध <nowiki>''</nowiki>इदानीमयने आह<nowiki>''</nowiki> प्रकार से कह रहे हैं - <blockquote>प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्। सार्पार्धे दक्षिणाऽर्कस्य माघश्रावणयोः सदा॥ (वे०ज्यो०श्लो०सं०७)<ref name=":0" /></blockquote>अर्थ - श्रविष्ठा अर्थात् धनिष्ठा नक्षत्र के आरम्भ में सूर्य, चन्द्र उत्तर की ओर संचालित होने लगते हैं, और आश्लेषा नक्षत्र के आधे भाग पर दक्षिण की ओर संचालित होने लगते हैं। सूर्य सर्वदा माघ मास और श्रावण मास में क्रमशः उत्तर और दक्षिण की ओर गमन में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार अयनों के आरम्भ स्थान का कथन देने के उपरान्त आचार्य लगध <nowiki>''</nowiki>इदानीमयनयोर्दिनरात्रिमाने आह<nowiki>''</nowiki> इत्यादि प्रकार से उत्तर एवं दक्षिण अयन के आरम्भ का दिनरात्रिमान कह रहे हैं - <blockquote>घर्मवृद्धिरपां प्रस्थः क्षपाह्रास उदग्गतौ। दक्षिणेतौ विपर्यासः षण्मुहूर्त्त्ययनेन तु॥ (वे० ज्यो० श्लो० सं० ८)<ref name=":0" /> </blockquote>'''अर्थ -''' सूर्य के उदगयन में एक पानीयप्रस्थ (12.5 पल) के तुल्य दिनमान में वृद्धि होती है, और रात्रिमान में ह्रास होता है। दक्षिणायन में इसके विपरीत होता है। अयनों के द्वारा एक अयन वर्ष में दिनरात्रिमान में क्रमशः ६ मुहूर्त वृद्धि होती है। |
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− | ==उत्तरायण एवं दक्षिणायन == | + | ==उत्तरायण एवं दक्षिणायन== |
| वेदों में उत्तरायण को देवयान एवं दक्षिणायन को पितृयान कहा गया है। इन्हैं याम्यायन एवं सौम्यायन के नाम से भी जाना जाता है। अर्थात दक्षिणायन को याम्यायन एवं उत्तरायण को सौम्यायन कहते हैं | | वेदों में उत्तरायण को देवयान एवं दक्षिणायन को पितृयान कहा गया है। इन्हैं याम्यायन एवं सौम्यायन के नाम से भी जाना जाता है। अर्थात दक्षिणायन को याम्यायन एवं उत्तरायण को सौम्यायन कहते हैं |
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| गृहप्रवेशस्त्रिदशप्रतिष्ठा विवाहचौलव्रतबंधदीक्षा। सौम्यायने कर्म शुभं विधेयं यद्गर्हितं तत्खलु दक्षिणायने॥</blockquote> | | गृहप्रवेशस्त्रिदशप्रतिष्ठा विवाहचौलव्रतबंधदीक्षा। सौम्यायने कर्म शुभं विधेयं यद्गर्हितं तत्खलु दक्षिणायने॥</blockquote> |
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− | ==अयन का महत्व == | + | ==अयन का महत्व== |
− | उत्तरायण को दक्षिणायन से श्रेष्ठ माना गया है। सूर्य का उत्तरायण में पदार्पण प्रत्येक जन को प्राणहारी ठंड की समाप्ति एवं प्रत्यासन्न वसंत ऋतु के आगमन का शुभ संदेश देता है। इसमें दिन बडे होने लगते हैं और प्रकाश एवं प्राणदायिनी ऊष्मा की वृद्धि होने लगती है। जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में उत्तरायण एवं दक्षिणायन के सन्दर्भ में वर्णित है - <blockquote>अग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् । तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥ (भ०गी० ८, २४)</blockquote>'''भावार्थ -''' इस श्लोक में उत्तरायण को शुक्ल मार्ग से संबोधित किया गया है। अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण में जिन्होंने देह त्याग किया वे लोग ब्रह्म को प्राप्त कर मुक्त हो जाते हैं। पर दक्षिणायन में जिन्होंने शरीर त्याग किया उन्हैं चन्द्रलोक की प्राप्ति होती है, वे मुक्त नहीं होते। विष्णु पुराण में भी अयन के संदर्भ में प्रमाण प्राप्त होता है - <blockquote>अयनस्योत्तरस्यादौ मकरं याति भास्करः। ततः कुम्भं च मीनं च राशो! राश्यंतरं द्विज॥ | + | उत्तरायण को दक्षिणायन से श्रेष्ठ माना गया है। सूर्य का उत्तरायण में प्रवेश प्रत्येक जन को ठंड की समाप्ति एवं प्रत्यासन्न वसंत ऋतु के आगमन का शुभ संदेश देता है। इसमें दिन बडे होने लगते हैं और प्रकाश एवं प्राणदायिनी ऊष्मा की वृद्धि होने लगती है। जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता में उत्तरायण एवं दक्षिणायन के सन्दर्भ में वर्णित है - <blockquote>अग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् । तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥ (भ०गी० ८, २४)</blockquote>'''भावार्थ -''' इस श्लोक में उत्तरायण को शुक्ल मार्ग से संबोधित किया गया है। अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण में जिन्होंने देह त्याग किया वे लोग ब्रह्म को प्राप्त कर मुक्त हो जाते हैं। पर दक्षिणायन में जिन्होंने शरीर त्याग किया उन्हैं चन्द्रलोक की प्राप्ति होती है, वे मुक्त नहीं होते। विष्णु पुराण में भी अयन के संदर्भ में प्रमाण प्राप्त होता है - <blockquote>अयनस्योत्तरस्यादौ मकरं याति भास्करः। ततः कुम्भं च मीनं च राशो! राश्यंतरं द्विज॥ |
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| त्रिष्वेतेष्वथ भुक्तेषु ततो वैषुवतीं गतिम् । प्रयाति सविता कुर्वन्नहोरात्रं ततः समम् ॥ | | त्रिष्वेतेष्वथ भुक्तेषु ततो वैषुवतीं गतिम् । प्रयाति सविता कुर्वन्नहोरात्रं ततः समम् ॥ |
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− | ततो रात्रिः क्षयं याति वर्द्धतेऽनुदिनं दिनम् ॥ ततश्च मिथुनस्यान्ते परां काष्ठामुपागतः ॥ राशिं कर्कटकं प्राप्य कुरुते दक्षिणायनम् ॥ (विष्णु पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AE विष्णु पुराण], द्वितीयांशः, अध्याय - 8, श्लोक - 28 - 31। </ref></blockquote> | + | ततो रात्रिः क्षयं याति वर्द्धतेऽनुदिनं दिनम् ॥ ततश्च मिथुनस्यान्ते परां काष्ठामुपागतः ॥ |
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| + | राशिं कर्कटकं प्राप्य कुरुते दक्षिणायनम् ॥ (विष्णु पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AE विष्णु पुराण], द्वितीयांशः, अध्याय - 8, श्लोक - 28 - 31। </ref></blockquote>पृथ्वी की इस अयन गति के कारण ध्रुव तारे में परिवर्तन होता है। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के ऊपर जो भी तारा होता है उसे ध्रुव तारा कहते हैं। अयन गति के कारण पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव अलग - अलग समय पर भिन्न तारों की ओर अपना मुख करता है। लगभग 14 हजार वर्ष पहले अभिजित तारा हमारा ध्रुव तारा था और आगामी 14000 वर्ष बाद पुनः वह पुनः ध्रुव तारा बनेगा। |
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| ==सारांश== | | ==सारांश== |
| याजुष् ज्योतिष के श्लोकों के आधार पर श्रविष्ठा के आरम्भ में दक्षिणायन तथा आश्लेषा के अर्ध या मध्य बिन्दु से उत्तरायण स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार का उल्लेख वराहमिहिर की बृहत्संहिता में भी मिलता है। आचार्य वराह ने अपने समय में उत्तरायण पुनर्वसु के ३/४ तथा दक्षिणायन १/४ में माना है। इस तरह अयन चलन की सम्पातिक गति ७÷४ या २३°–२० होती है। | | याजुष् ज्योतिष के श्लोकों के आधार पर श्रविष्ठा के आरम्भ में दक्षिणायन तथा आश्लेषा के अर्ध या मध्य बिन्दु से उत्तरायण स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार का उल्लेख वराहमिहिर की बृहत्संहिता में भी मिलता है। आचार्य वराह ने अपने समय में उत्तरायण पुनर्वसु के ३/४ तथा दक्षिणायन १/४ में माना है। इस तरह अयन चलन की सम्पातिक गति ७÷४ या २३°–२० होती है। |
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− | * उत्तरायण के उपरान्त सूर्य दक्षिण की ओर यात्रा करता है, यह सूर्य की यात्रा का एक पडाव है जिसे अयनांत कहते हैं। यहीं से दक्षिणायन का प्रारंभ होता है। | + | *उत्तरायण के उपरान्त सूर्य दक्षिण की ओर यात्रा करता है, यह सूर्य की यात्रा का एक पडाव है जिसे अयनांत कहते हैं। यहीं से दक्षिणायन का प्रारंभ होता है। |
− | * जब सूर्य दो बिन्दुओं पर आता है तब पृथ्वी पर दिनमान व रात्रिमान समान होते हैं परन्तु जब सूर्य पहले बिन्दु पर आता है तो दिनमान बढना प्रारंभ होता है और ग्रीष्म ऋतु प्रारंभ होती है। | + | *जब सूर्य दो बिन्दुओं पर आता है तब पृथ्वी पर दिनमान व रात्रिमान समान होते हैं परन्तु जब सूर्य पहले बिन्दु पर आता है तो दिनमान बढना प्रारंभ होता है और ग्रीष्म ऋतु प्रारंभ होती है। |
− | * उत्तर क्रान्ति वृत्त पर सूर्य प्रतिदिन एक अंश चलता है एवं लगभग ३६५ दिनों में आकाश की एक प्रदक्षिणा पूरी करता है। इसे ही सूर्य की आयनिक गति कहते हैं। | + | *उत्तर क्रान्ति वृत्त पर सूर्य प्रतिदिन एक अंश चलता है एवं लगभग ३६५ दिनों में आकाश की एक प्रदक्षिणा पूरी करता है। इसे ही सूर्य की आयनिक गति कहते हैं। |
− | * वसंत-विषुव = वसन्त विषुव या महाविषुव को मार्च विषुव भी कहते हैं। इस तिथि को पृथ्वी से देखने पर सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध को छोडकर उत्तरी गोलार्द्ध की तरफ बढता हुआ प्रतीत होता है इसी को दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद विषुव कहते हैं एवं इसी तिथि को उत्तरी गोलार्द्ध में वसन्त विषुव कहा जाता है। यह विषुव, ग्रीनविच रेखा पर १९ मार्च से लेकर २१ मार्च के बीच आती है। | + | *वसंत-विषुव = वसन्त विषुव या महाविषुव को मार्च विषुव भी कहते हैं। इस तिथि को पृथ्वी से देखने पर सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध को छोडकर उत्तरी गोलार्द्ध की तरफ बढता हुआ प्रतीत होता है इसी को दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद विषुव कहते हैं एवं इसी तिथि को उत्तरी गोलार्द्ध में वसन्त विषुव कहा जाता है। यह विषुव, ग्रीनविच रेखा पर १९ मार्च से लेकर २१ मार्च के बीच आती है। |
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| ==उद्धरण== | | ==उद्धरण== |